________________
काव्यप्रकाशः
वृत्त्यन्तरविषयत्वं तथात्वेऽपि तत्कल्पने वृत्त्यन्तरमात्रोच्छेदापत्तिरित्याखण्डलकार्थः । बाद में वक्ता के तात्पर्य के अनुसार उनका परस्पर अन्वय या सम्बन्ध होता है; जिससे वाक्यार्थ की प्रतीति होती है। इस प्रकार वाक्यार्थ-बोध के लिए अभिहित पदार्थों का अन्वय मानने के कारण कुमारिल भट्ट आदि का यह सिद्धान्त 'अभिहितान्वयवाद' कहलाता है । इस मत में पदार्यों का परस्पर सम्बन्ध पदों से उपस्थित नहीं होता, किन्तु वक्ता के तलयं के अनुसार होता है। इसलिए इस अर्थ को 'तात्पर्याथ' कहते हैं वही 'वाश्यार्थ' है। वाक्यार्थ या तात्पर्यार्थ बोधक वृत्ति का नाम तात्पर्यवृत्ति है। अभिधा, लक्षणा और व्यञ्जना के अतिरिक्त 'तात्पर्यवृत्ति' को चौथी वृत्ति मानते हैं। मीमांसक व्यजना वृत्ति नहीं मानते हैं इसलिए उनके मत में यह चौथी वृत्ति नहीं, किन्तु तीसरी ही वृत्ति है।
अभिहितान्वयवाद में पहले पदों से केवल अन्वय-रहित पदार्थ उपस्थित होते हैं और उसके पश्चात् पदों की आकांक्षा, योग्यता और सन्निधि के बल से तात्पर्य वृत्ति द्वारा उन पदार्थों के संसर्गरूप वाक्यार्थ का बोध होता है। इस तरह मम्मट ने कुमारिल भट्ट के मत का सारांश प्रस्तुत किया है।
सिद्धान्त यह है कि 'अनन्यलभ्यो हि शब्दार्थः" । अर्थात् शब्दार्थ उसे मानना चाहिए जो अन्यलभ्य न हो, इसीलिए "पीनोऽयं देवदत्तः दिवा न भुङ्क्ते" यह देवदत्त मोटा है, पर 'दिन में नहीं खाता' यहाँ 'रात में अवश्य खाता होगा' इस प्रकार के अर्थ की जो प्रतीति होती है उसे अनुमेय या अर्थापत्तिबोध माना जाता है। अर्थापत्ति प्रमाण के द्वारा उस अर्थ की उपस्थिति मानी जाती है। वह 'रात्रि भोजन रूप अर्थ शब्दार्थ इसलिए नहीं माना जाता कि वह अन्यलध अर्थात् अनुमान या अर्थापत्ति प्रमाणलभ्य है । अनन्यलभ्य नहीं होने उसे शब्दार्थ नहीं मानते ।
'अनन्यलभ्य' का शब्दार्थ है जो अन्य लभ्य न हो। अन्य शब्द सापेक्ष शब्द है अर्थात् अन्य शब्द सुनते ही जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि किससे अन्य ? उत्तर होगा वृत्ति से। क्योंकि शाब्दबोध में वृत्ति से उपस्थित अर्थ ही भासित होता है। इसलिए वृत्ति ही उपस्थित है, उसी से अन्य लिया जाना चाहिए। इस तरह 'अनन्यलभ्य' का तात्पर्य हुआ “वृत्यन्तरालम्प"-वृत्ति से भिन्न (अनुमानादि प्रमाणों) से जो लभ्य न हो, इस प्रकार के अर्थ को ही शब्दार्थ मानना चाहिए । (वाक्य में भासित होनेवाला) संसर्गरूप अर्थ तो वृत्ति (अभिधा) से भिन्न आकांक्षा के ज्ञानरूप अन्य (तत्त्व) से लन्ध होने के कारण अनन्यलभ्य नहीं है। अथवा वह संसर्गरूप अर्थ पद की शक्तिरूप अभिधावृत्ति से अन्य वाक्यमर्यादा (आकांक्षादि) से लभ्य होने के कारण अन्य लभ्य है, अनन्य लभ्य नहीं है। इसलिए तात्पर्याख्य वृत्ति माननी चाहिए। तात्पर्याख्य वृत्ति मानने पर सम्बन्ध या संसर्गरूप अर्थ की उपस्थिति भी वृत्ति (तात्पर्यावृत्ति) से ही होगी। इसलिए वह अर्थ भी वृत्यन्तराप्रतिपाद्य होने के कारण शाब्दबोध में भासित होगा। जैसा कि हुप्रा करता है। इसलिए उस (संसर्गरूप) अर्थ की उपस्थिति भी तात्पर्य नाम की वृत्ति से भिन्न (किसी अन्य प्रमाण) का विषय नहीं सिद्ध होती (इसलिए उसे शाब्दबोध में भासित होने में कोई बाधा नहीं होगी)।
तात्पर्याख्य वृत्ति से उपस्थित होने पर भी यदि उस संसर्गरूप अर्थ को अभिधावृत्ति से भिन्न (वृत्ति) से उपस्थित होने के कारण वृत्त्यन्तर (प्रथम वृत्ति अभिधा से भिन्न वृत्ति से) प्रतिपाद्य होने के कारण अन्य लभ्य मानें तो अभिधा से भिन्न लक्षणा और व्यञ्जना-वृत्ति मानना व्यर्थ हो जायगा। तात्पर्य यह है कि "वृत्त्यन्तराप्रतिपाद्यत्वम्" इस पद में वृत्ति पद से केवल अभिधा का ही यदि ग्रहण करें तो 'गङ्गायां घोषः' यहाँ तीर अर्थ की उपस्थिति भी वृत्त्यन्तर से होने के कारण उस अर्थ को भी अनन्यलभ्य नहीं कहा जायगा और ऐसा होने पर उसका भी शाब्दबोध में भान नहीं होगा। इसलिए वृत्ति पद से सभी प्रकार की वृत्तियों का ग्रहण करना चाहिए। ऐसी स्थिति में लक्षणावृत्ति से उपस्थित अर्थ को जैसे अनन्यलभ्य कहते हैं। उसी तरह तात्पर्यायवत्ति से उपस्थित अर्थ को भी 'अनन्यलभ्य' मानना ही चाहिए। इसी तात्पर्य को टीकाकार ने आखण्डलकार्थ कहा है। आखण्डलक का अर्थ है सार । As a whole का जो तात्पर्य है वही तात्पर्य आखण्डलक का है।