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काव्य-प्रकाशः
तटप्रत्ययानन्तरं झटित्येव व्यञ्जनया तत्प्रतीतेरिति भावः । एवं च वृत्तावप्यसामर्थ्यं मन्थरता, समर्थ इति पाठे यथा विलम्बेन तटं प्रतिपादयितुं समर्थस्तथा प्रयोजनं नैवेत्यर्थ इत्याहुः ।
वयं तु 'असमर्थ' इति पाठे इवशब्दः प्रयोजनमित्यनन्तरं योज्यः तेन यथा प्रयोजनं प्रतिपादयितु' 'असमर्थो' विरतत्वान्न तथा तटं प्रतिपादयितुं विरामदोषाभावादित्यर्थः, 'समर्थ' इति पाठे विरामदोषसत्त्वादिति व्याचक्ष्महे ।
सुबुद्धिमिश्रास्तु कारिकानुपस्थापितमपि युक्त्यन्तरमाह - नापीति । यथा तटं बोधयितुं गङ्गाशब्दो लक्षणारूपसम्बन्धज्ञानं विनाऽसमर्थस्तत् सम्बन्धज्ञानोपयोगिनं मुख्यार्थ - बाधादिकमपेक्षते तथा लक्षणात्मक-तीरसम्बन्धज्ञानं विना न पावनत्वादि बोधयितुमसमर्थो येन बाधाद्यपेक्षां कुर्यात् शैत्यादेस्तीरावृत्तित्वेन तत्सम्बन्धं विनैव गङ्गा-शब्दस्य शैत्यादिबोधकत्वादित्यर्थः । प्रवाह सम्बन्धज्ञानस्य शैत्यादिकं बोधयितुमपेक्षणं च न लाक्षणिक पदार्थान्वयबोधोत्तरकालीनवृत्तिकव्यञ्जनायाम्,
क्योंकि तट की प्रतीति के बाद वह जल्दी ही इस तरह वृत्ति में पठित " असमर्थ " का अर्थ सामर्थ्यं रहित, मन्थरता से युक्त या विलम्बित मानना चाहिए ।
वृत्ति में आये हुए 'समर्थ' पाठ का सम्बन्ध बिठाने के लिए ऐसी शब्द-योजना करनी चाहिये कि "गङ्गा शब्द तट को बताने में जैसे विलम्ब से समर्थ होता है उस तरह प्रयोजन को बताने में उसे विलम्ब नहीं होता, इस लिए वह प्रयोजन में स्खलद्गति नहीं है ।
हम तो इसकी व्याख्या इस तरह करते हैं कि 'असमर्थ' इस पाठ में 'इव' शब्द 'प्रयोजनम्' के बाद जोड़ना चाहिए तव वाक्प होगा "नापि गङ्गाशब्दस्तटं प्रयोजनमिव प्रतिपादयितुमसमर्थः " । अर्थात् जैसे गङ्गा शब्द (लक्षणा के द्वारा ) तटार्थबोध के बाद लक्षणा के विरत हो जाने के कारण प्रयोजन को बताने में असमर्थ है; वैसे वह तट का बोध कराने में असमर्थ नहीं है; क्योंकि तटार्थबोधनकाल में उसमें विरामदोष नहीं आया है।
" समर्थ: " पाठ मानने पर वाक्य को वह जैसा है वैसा ही रहने देना चाहिये "नापि गङ्गाशब्दस्तटमिव प्रयोजनं प्रतिपादयितुं समर्थः " अर्थात् गङ्गाशब्द तट की तरह (लक्षणा वृत्ति के द्वारा ) प्रयोजन की प्रतीति कराने में समर्थ नहीं है क्योंकि प्रयोजनरूपार्थ के बोधनकाल में उसमें विराम दोष आ गया है ।
सुबुद्धि मिश्र का मत है कि कारिका के द्वारा अप्रस्तुत युक्त्यन्तर का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि "नापि गङ्गाशब्दः" इत्यादि । अर्थात् गङ्गाशब्द लक्षणारूप सम्बन्धज्ञान के बिना तट को बताने में असमर्थ होकर जैसे उस सम्बन्धज्ञान के लिए उपयोगी मुख्यार्थबाधादि की अपेक्षा करता है, उसी तरह लक्षणात्मक तीर सम्बन्धज्ञान के बिना पावनत्वादि की प्रतीति कराने में वह असमर्थ नहीं है जिससे कि वह बाधादि की अपेक्षा करे। शैत्यादि धर्म तीर में या तीर पर रहनेवाला धर्म नहीं है, इसलिए तीर सम्बन्धज्ञान के बिना ही गङ्गा-शब्द शैत्यादि का बोध करा देता है ।
शैत्यादि के बोधन के लिए प्रवाह के साथ शैत्यादि के सम्बन्धज्ञान की अपेक्षा, लाक्षणिक (तीरादि ) पदार्थ के अन्वयबोध के उत्तरकाल में आनेवाली व्यञ्जना वृत्ति में नहीं होती है किन्तु लक्षणा में ही होती है । अन्यथा व्यञ्जना की तरह लक्षणा में भी प्रवाह सम्बन्धज्ञान की अपेक्षा न करें और लक्षणा से तट और शैत्य दोनों की एकसाथ उपस्थिति मानें तो अन्वययोग्यता न होने के कारण पहले एक तो शैत्य का तीररूपी अधिकरण में अन्वय नहीं होगा