Book Title: Kavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Author(s): Yashovijay
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 269
________________ द्वितीय उल्लासः स्य प्रतीतिश्च प्रयोजनमिति विशिष्टें लक्षणा । तत्किं व्यज्जनयेत्याह [सू० २८] प्रयोजनेन सहितं लक्षरणीयं न युज्यते ॥ १७ ॥ ११७ भानमिति वाच्यम्, परम्परासम्बन्धेन तीरे गङ्गात्वभानवदुपपत्तेः । ( न च तीरे ) पि गङ्गा [ त्व ] भानं व्यञ्जनयैवेत्यत्रापि तथात्वे व्यञ्जना समागतैवेति वाच्यम्, लक्ष्यतावच्छेदकस्य वृत्त्यन्तराप्रतिपाद्यत्वात् । ( शैत्यादि) प्रतीतेर्व्यञ्जनाजन्यत्वपक्षे तीरत्वस्यैव लक्ष्यतावच्छेदकतया तद्भानार्थं वृत्त्यन्तराकल्पनावच्छेत्यादेरपि लक्ष्यतावच्छेदकत्वोपगमेन तद्भानार्थं वृत्त्यन्त राकल्पनादिति भावः । गङ्गातट इत्यनन्तरं गङ्गात्वेनोपस्थित इति शेषः । अधिकस्यार्थस्य (पावनत्वादिवैशिष्ट्यरूपस्य ) अत्राप्यवश्यापेक्षणीयस्येति शेषः, प्रयोजनं प्रयोजकं युक्तिरित्यर्थः । तथा च गङ्गायां घोष इत्यत्र व्यञ्जनया शै (त्यपावनत्व वैशिष्ट्य रूपेण) प्रत्ययो ( न तीर) - निष्ठतया, अपेक्षितश्च तथेति न व्यञ्जनयोपपत्तिरिति तां विहाय विशिष्टे लक्षणेत्यर्थ इति [ भावः । अत्र केचित् ] शैत्यादिबोधे वैशिष्ट्यज्ञानानुपपत्तिः लक्षणातः प्राग्वैशिष्टयाभाने न तत्र [विशिष्टे बनेगी । निरूढा लक्षणा से इसका पार्थक्य इतने से ही सिद्ध हो जायगा । इसलिए जब लक्ष्यतावच्छेदक में लक्षणा नहीं मानी जायगी तो मुख्यार्थबाधाभावादि के कारण लक्षणा नहीं होगी, इस तरह के कथन के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं है भला, तो बताइए कि शैत्यादि का, जो प्रवाहनिष्ठ हैं, तट में उपस्थित नहीं होने के कारण तटावच्छेदकतया भान कैसे होगा ? वाह, परम्परा – सम्बन्ध से गङ्गा निष्ठ शैत्यादि का भान तीर में उसी तरह सम्भव है जिस तरह तीर में गङ्गात्व का भान होता है। 'तीर में गङ्गात्व का भान व्यञ्जना से ही होता है; इसलिए पूर्वोक्त स्वीकृति में व्यञ्जना आ ही गयी' ऐसा नहीं कहना चाहिए क्योंकि लक्ष्यतावच्छेदक को अन्य वृत्ति का प्रतिपादक नहीं माना गया है। लक्ष्य जैसे लक्षणाप्रतिपाद्य है; वैसे ही लक्ष्यतावच्छेदक भी लक्षणा प्रतिपाद्य ही "शैत्यादि की प्रतीति व्यञ्जना से होती है" इस पक्ष में तीरत्व ही लक्ष्यतावच्छेदक माना जाता है। उस तीरत्वरूप लक्ष्यतावच्छेदक के भान के लिए जैसे अन्य वृत्ति की कल्पना उस पक्ष में नहीं की जाती है; उसी तरह विशिष्ट में (शैत्यादि विशिष्ट तीर में ) लक्षणा मानने के पक्ष में भी शैत्यादि को लक्ष्यतावच्छेदक मानने पर उसके (लक्ष्यतावच्छेदक - शीतत्वादि के ) भान के लिए अन्य वृत्ति की कल्पना नहीं करनी होगी। वृत्ति में "गङ्गावास्त" इसके बाद "गङ्गात्वेन उपस्थिते " इसका शेष मानना चाहिए अर्थात् जोड़ना चाहिए । 'अधिकस्यार्थस्य' यहाँ भी "अवश्यापेक्षणीयस्य " का शेष समझना चाहिए । 'प्रयोजनम्' का अर्थ है प्रयोजक या युषित। इस तरह 'शेष' द्वारा पूरित वाक्य का अर्थ होगा 'गङ्गात्वेन उपस्थित तट पर घोष' इससे अधिक और स्वीकार करने योग्य पावनत्वादि विशिष्टरूप अर्थ की प्रतीति को ही प्रयोजक या युक्ति मान कर विशिष्ट में लक्षणा मानने से ही इष्टसिद्धि हो जायगी फिर व्यञ्जना से क्या लाभ ? प्रश्नकर्ता का तात्पर्य यह है कि "गङ्गायां घोष: " में व्यञ्जना के द्वारा होनेवाली शैत्य-पावनत्वादि की प्रतीति तोरनिष्ठ (तीर में) नहीं हो सकती है वैसी अपेक्षा चल है कि शैत्यादि की प्रतीति तीरनिष्ठ हो । वह व्यञ्जना से हो नहीं सकती। इसीलिए व्यञ्जना के द्वारा काम नहीं सकता। यही कारण है कि व्यञ्जना न मानकर यहाँ विशिष्ट में लक्षणा माननी चाहिए। कोई प्रश्नकर्ता का तात्पर्य इस तरह बताते हैं कि 'शैत्यादिबोध के लिए वैशिष्टघज्ञान की उपपत्ति लक्षणा से नहीं हो सकती, क्योंकि लक्षणा से पहले वैशिष्ट्य का भान नहीं होता था, अत: विशिष्ट में लक्षणा हो नहीं

Loading...

Page Navigation
1 ... 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340