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काव्यप्रकाशः
राजधानीरूपाद्देशाद्राजनि । चित्रभानुविभातीति दिने रवौ रात्री वह्नौ। मित्रं भातीति सुहृदि । मित्रो भातीति रवौ। इन्द्रशत्रुरित्यादौ वेद एव, न काव्ये स्वरो विशेषप्रतीतिकृत् । राजधानीरूपादित्यत्र पदार्थादिति शेषः, परमेश्वरस्य विष्णोः शिवस्य भानं वैकुण्ठे कैलासे वा, राजधान्यां तु राज्ञ एवेति राजधानीदेशे नियमनम् । इन्द्रशत्रुरिति । इन्द्रशत्रुरित्यत्रान्त्यपदोदात्तत्वे षष्ठीतत्पुरुषसमासेनेन्द्रस्य शातनकर्मत्वं पूर्वपदोदात्तत्वे बहुव्रीहिसमासेनेन्द्रस्य शातनकर्तृत्वं लभ्यत इति भावः । न काव्य इति । बाहुल्येनेति शेषः, दृष्टिः पङ्कजवैरिणीत्यादौ तुल्यन्यायेन काव्येऽपि तत्सम्भवादिति प्रदीपकृतः। काव्येषूदात्तादीनां नार्थविशेषनियामकता तथात्वेऽनुरूपस्वरेणार्थविशेषावगतौ श्लेषभङ्गप्रसङ्गः, मानना चाहिए। परमेश्वर विष्णु वैकुण्ठ में शोभा पाते हैं और परमेश्वर शिव के विराजने का स्थान कैलास है । राजधानी में तो राजा के ही शोभित होने की सम्भावना है। इसीलिए यहाँ राजधानीरूप देश में नियमन हुआ है।
काल के कारण शब्दार्थ के नियमन का उदाहरण 'चित्रभानुर्भाति' है। चित्रभानु शब्द सूर्य और अग्नि दोनों के लिए आता है। दिन में चित्रभानुर्भाति का अर्थ सूर्य होगा और रात में अग्नि । यह नियमन काल के कारण हुआ।
व्यक्ति (लिङ्ग) के कारण अर्थविशेष नियमन का उदाहरण है "मित्रं भाति' और 'मित्रो भाति । मित्र शब्द सुहृद् और सूर्य अर्थ में प्रयुक्त होता है इसलिए अनेकार्थक है। परन्तु 'मित्रम् में नपुंसक लिङ्ग के कारण वह सुहृद अर्थ में नियमित हो जाता है और "मित्रो भाति" में पुलिङ्ग होने से वह 'सूर्य' अर्थ में नियन्त्रित हो जाता है।
"इन्द्रशत्रः" आदि में वेद में ही स्वर अर्थ-विशेष का बोधक होता है काव्य में नहीं। इसलिए उसके लौकिक उदाहरण नहीं दिये हैं।
वेद में स्वरभेद के कारण अर्थभेद की व्याख्या करते हुए टीकाकार लिखते हैं-इन्द्रशत्रुरिति । 'इन्द्र शत्रु' यहाँ "समासस्य" सूत्र से अन्तोदात्त होने पर षष्ठीतत्पुरुष समास माना जायगा, ऐसी स्थिति में इसका अर्थ होगा इन्द्र को सताने वाला, 'इन्द्रकर्मकशातनम्' इन्द्रकर्मकशत्रता। पूर्वपद में उदात्त उच्चारण करने का तात्पर्य होगा कि यहाँ बहुब्रीहिसमास है क्योंकि बहुव्रीहिसमास में ही पूर्वपद के प्रकृतिस्वर का विधान है, इस तरह इसका अर्थ होगा "इन्द्रकर्तृ कशातनम्" अर्थात् इन्द्र ही शत्रुता का कर्ता होकर असुरों को सताये । इस तरह तत्पुरुष में 'इन्द्र को सतानेवाले असुरों की वृद्धि' ऐसा अर्थ होता; जोकि अभीष्ट था परन्तु बहुव्रीहि के कारण अर्थ होगा "शत्रु को सतानेवाला इन्द्र बढ़े"। यह अर्थभेद स्वर के कारण हुआ । इसलिए वेद में स्वरभेद भी अनेकार्थक शब्दों के अर्थविशेष में नियमन का कारण होता है । परन्तु काव्यमें स्वरकृत अर्थ की विशेषता स्वीकार नहीं की गयी है। स्वर के कारण शब्द को एक अर्थ में नियन्त्रित मानने पर श्लेष अलङ्कार का उच्छेद हो जाएगा। क्योंकि श्लेष का प्रासाद एक शब्द से या समानाकारक एक शब्द से अनेक वाच्यार्थ के प्रकट होने की प्रक्रिया पर स्थित है। स्वर के द्वारा एक अर्थ में शब्द के नियमन की स्थिति में अनेक वाच्यार्थ के प्रकट होने की सम्भावना ही कहाँ शेष रह जाती है ?
प्रदीपकार ने 'न काव्ये' इस प्रतीक के आगे "बाहुल्येन" पद का शेष माना है। बाहुल्येन के अध्याहार से यह तात्पर्य निकलता है कि 'वेद में जैसे स्वर को अभिधानियामक मानने का बाहल्य है, वैसे काव्य में स्वर को सब जगह अभिधा का नियामक नहीं माना गया है। काव्य में भी 'इन्द्रशत्र:' की तरह "दृष्टिः पङ्कजवैरिणी" में स्वर के द्वारा तत्पुरुष के निर्णय के माध्यम से अर्थविशेष का नियमन देखा जाता ही है। इसलिए वृत्ति का तात्पर्य इतना ही मानना चाहिए कि काव्य में वेद की तरह स्वरद्वारा के अर्थ नियमन का बाहुल्य नहीं है। १. टी० अत्रेति राजधानीरूपदेशेन परमेश्वरस्य राजनि नियमनम् ।