Book Title: Kavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Author(s): Yashovijay
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “અહો ! શ્રુતજ્ઞાનમ્” ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર ૧૮૩ કાવ્યપ્રકાશ ઉલ્લાસ ૨ અને ૩ ટીકા ઉપાધ્યાય યશોવિજયજી : દ્રવ્ય સહાયક : શ્રી કચ્છવાગડ સમુદાયના અધ્યાત્મયોગી પૂ. આ. શ્રી કલાપૂર્ણસૂરીશ્વરજી મ.સા.ના શિષ્ય પૂ. આ. શ્રી તીર્થભદ્રસૂરીશ્વરજી મ.સા. ની પ્રેરણાથી શ્રી કનક-કલાપૂર્ણ પદ પ્રવજ્યા સમિતી તરફથી જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી : સંયોજક : શાહ બાબુલાલ સરેમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૫ (મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543 સંવત ૨૦૭૧ ઈ. ૨૦૧૫ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६५ (ई. 2009) सेट नं.-१ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। પુસ્તકનું નામ ક્રમાંક પૃષ્ઠ કર્તા-ટીકાકાર-સંપાદક पू. विक्रमसूरिजी म.सा. पू. जिनदासगणि चूर्णीकार पू. मेघविजयजी गणि म. सा. 001 002 003 004 005 006 007 008 009 010 011 012 013 014 015 016 017 श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद - 05. 018 019 020 021 022 023 024 025 026 027 028 029 श्री नंदीसूत्र अवचूरी श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी श्री अर्हद्गीता भगवद्गीता श्री अर्हच्चूडामणि सारसटीकः श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं श्री मानतुङ्गशास्त्रम् अपराजितपृच्छा शिल्प स्मृति वास्तु विद्यायाम् शिल्परत्नम् भाग - १ शिल्परत्नम् भाग - २ प्रासादतिलक काश्यशिल्पम् प्रासादमञ्जरी राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र शिल्पदीपक वास्तुसार दीपार्णव उत्तरार्ध જિનપ્રાસાદ માર્તણ્ડ जैन ग्रंथावली હીરકલશ જૈન જ્યોતિષ | न्यायप्रवेशः भाग-१ दीपार्णव पूर्वार्ध | अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग - १ | अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-२ प्राकृत व्याकरण भाषांतर सह तत्त्पोपप्लवसिंहः शक्तिवादादर्शः क्षीरार्णव वेधवास्तु प्रभाकर पू. भद्रबाहुस्वामी म.सा. पू. पद्मसागरजी गणि म.सा. पू. मानतुंगविजयजी म.सा. श्री बी. भट्टाचार्य | श्री नंदलाल चुनिलाल सोमपुरा श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री श्री प्रभाशंकर ओघडभाई श्री विनायक गणेश आपटे श्री प्रभाशंकर ओघडभाई श्री नारायण भारती गोंसाई श्री गंगाधरजी प्रणीत श्री प्रभाशंकर ओघडभाई श्री प्रभाशंकर ओघडभाई શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલ સોમપુરા श्री जैन श्वेताम्बर कोन्फ्रन्स શ્રી હિમ્મતરામ મહાશંકર જાની श्री आनंदशंकर बी. ध्रुव श्री प्रभाशंकर ओघडभाई पू. मुनिचंद्रसूरिजी म. सा. श्री एच. आर. कापडीआ श्री बेचरदास जीवराज दोशी श्री जयराशी भट्ट, बी. भट्टाचार्य श्री सुदर्शनाचार्य शास्त्री श्री प्रभाशंकर ओघडभाई श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 238 286 84 18 48 54 810 850 322 280 162 302 156 352 120 88 110 498 502 454 226 640 452 500 454 188 214 414 192 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 824 288 30 | શિન્જરત્નાકર प्रासाद मंडन श्री सिद्धहेम बृहदवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-१ | श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-२ श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-३ श्री नर्मदाशंकर शास्त्री | पं. भगवानदास जैन पू. लावण्यसूरिजी म.सा. પૂ. ભાવસૂરિની મ.સા. 520 034 (). પૂ. ભાવસૂરિ મ.સા. श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-3 (२) 324 302 196 039. 190 040 | તિલક 202 480 228 60 044 218 036. | श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-५ 037 વાસ્તુનિઘંટુ 038 | તિલકમન્નરી ભાગ-૧ તિલકમગ્નરી ભાગ-૨ તિલકમઝરી ભાગ-૩ સખસન્ધાન મહાકાવ્યમ્ સપ્તભફીમિમાંસા ન્યાયાવતાર વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વલોક સામાન્ય નિર્યુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક 046 સપ્તભીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા નયોપદેશ ભાગ-૧ તરષિણીકરણી નયોપદેશ ભાગ-૨ તરકિણીતરણી ન્યાયસમુચ્ચય ચાદ્યાર્થપ્રકાશઃ દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ 053 બૃહદ્ ધારણા યંત્ર 05 | જ્યોતિર્મહોદય પૂ. ભાવસૂરિની મ.સા. પૂ. ભાવસૂરિન મ.સા. પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) પૂ. લાવણ્યસૂરિજી. શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. દર્શનવિજયજી પૂ. દર્શનવિજયજી સ. પૂ. અક્ષયવિજયજી 045 190 138 296 (04) 210 274 286 216 532 113 112 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર ભાષા | 218. | 164 સંયોજક – બાબુલાલ સરેમલ શાહ શાહ વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન हीशन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, महावाह-04. (मो.) ८४२७५८५८०४ (यो) २२१३ २५४३ (5-मेल) ahoshrut.bs@gmail.com महो श्रुतज्ञानमjथ द्धिार - संवत २०७5 (5. २०१०)- सेट नं-२ પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને ડી.વી.ડી. બનાવી તેની યાદી. या पुस्तsी www.ahoshrut.org वेबसाईट ५२थी ugl stGirls sी शाशे. ક્રમ પુસ્તકનું નામ ता-टी815२-संपES પૃષ્ઠ 055 | श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहदन्यास अध्याय-६ | पू. लावण्यसूरिजी म.सा. 296 056 | विविध तीर्थ कल्प प. जिनविजयजी म.सा. 160 057 लारतीय टन भए। संस्कृति सनोमन पू. पूण्यविजयजी म.सा. 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्त्वलोकः श्री धर्मदत्तसूरि 202 059 | व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका श्री धर्मदत्तसूरि જૈન સંગીત રાગમાળા श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी | 306 061 | चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश) | श्री रसिकलाल एच. कापडीआ 062 | व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय |सं श्री सुदर्शनाचार्य 668 063 | चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी सं पू. मेघविजयजी गणि 516 064| विवेक विलास सं/. | श्री दामोदर गोविंदाचार्य 268 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध | पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा. 456 066 | सन्मतितत्त्वसोपानम् | सं पू. लब्धिसूरिजी म.सा. 420 06764शमाता वही गुशनुवाह गु४. पू. हेमसागरसूरिजी म.सा. 638 068 | मोहराजापराजयम् सं पू. चतुरविजयजी म.सा. 192 069 | क्रियाकोश सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया 428 070 | कालिकाचार्यकथासंग्रह सं/. | श्री अंबालाल प्रेमचंद 406 071 | सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका | सं. श्री वामाचरण भट्टाचार्य 308 072 | जन्मसमुद्रजातक सं/हिं श्री भगवानदास जैन 128 मेघमहोदय वर्षप्रबोध सं/हिं श्री भगवानदास जैन 532 on જૈન સામુદ્રિકનાં પાંચ ગ્રંથો १४. श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी 376 060 322 073 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 075 076 સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી 077 1 ભારતનો જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પસ્થાપત્ય 079 શિલ્પ ચિન્તામણિ ભાગ-૧ 080 बृह६ शिल्प शास्त्र भाग - १ 081 बृह६ शिल्प शास्त्र भाग - २ જૈન ચિત્ર કલ્પબૂમ ભાગ-૧ જૈન ચિત્ર કલ્પવ્રૂમ ભાગ-૨ 082 ह शिल्पशास्त्र भाग - 3 O83 आयुर्वेधना अनुभूत प्रयोगो भाग-१ 084 ल्याए 125 ORS विश्वलोचन कोश 086 | Sथा रत्न छोश भाग-1 0875था रत्न छोश भाग-2 હસ્તસગ્રીવનમ્ 088 089 090 એન્દ્રચતુર્વિશનિકા સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા गुभ. शुभ, गुभ. गुभ. शुभ श्री साराभाई नवाब श्री साराभाई नवाब श्री विद्या साराभाई नवाब श्री साराभाई नवाब सं. श्री मनसुखलाल भुदरमल श्री जगन्नाथ अंबाराम शुभ. शुभ. शुभ. शुभ, गु४. सं.हिं श्री नंदलाल शर्मा गुभ. गुभ. सं सं. श्री जगन्नाथ अंबाराम श्री जगन्नाथ अंबाराम पू. कान्तिसागरजी श्री वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री श्री बेचरदास जीवराज दोशी श्री बेचरदास जीवराज दोशी पू. मेघविजयजीगणि पू.यशोविजयजी, पू. पुण्यविजयजी आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी 374 238 194 192 254 260 238 260 114 910 436 336 230 322 114 560 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार क्रम 272 240 सं. 254 282 466 342 362 134 70 316 224 612 307 संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | पुस्तक नाम कर्ता टीकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक 91 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१ वादिदेवसूरिजी सं. मोतीलाल लाघाजी पुना 92 | | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-२ वादिदेवसूरिजी | मोतीलाल लाघाजी पुना 93 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-३ बादिदेवसूरिजी | मोतीलाल लाघाजी पुना 94 | | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-४ बादिदेवसूरिजी मोतीलाल लाघाजी पुना | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-५ वादिदेवसूरिजी | मोतीलाल लाघाजी पुना 96 | पवित्र कल्पसूत्र पुण्यविजयजी साराभाई नवाब 97 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-१ भोजदेव | टी. गणपति शास्त्री 98 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-२ भोजदेव | टी. गणपति शास्त्री 99 | भुवनदीपक पद्मप्रभसूरिजी | वेंकटेश प्रेस 100 | गाथासहस्त्री समयसुंदरजी सं. | सुखलालजी 101 | भारतीय प्राचीन लिपीमाला | गौरीशंकर ओझा हिन्दी | मुन्शीराम मनोहरराम 102 | शब्दरत्नाकर साधुसुन्दरजी सं. हरगोविन्ददास बेचरदास 103 | सबोधवाणी प्रकाश न्यायविजयजी ।सं./ग । हेमचंद्राचार्य जैन सभा 104 | लघु प्रबंध संग्रह जयंत पी. ठाकर सं. ओरीएन्ट इन्स्टीट्युट बरोडा 105 | जैन स्तोत्र संचय-१-२-३ माणिक्यसागरसूरिजी सं, आगमोद्धारक सभा 106 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-१,२,३ सिद्धसेन दिवाकर सुखलाल संघवी 107 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-४.५ सिद्धसेन दिवाकर सुखलाल संघवी 108 | न्यायसार - न्यायतात्पर्यदीपिका सतिषचंद्र विद्याभूषण एसियाटीक सोसायटी 109 | जैन लेख संग्रह भाग-१ पुरणचंद्र नाहर | पुरणचंद्र नाहर 110 | जैन लेख संग्रह भाग-२ पुरणचंद्र नाहर सं./हि पुरणचंद्र नाहर 111 | जैन लेख संग्रह भाग-३ पुरणचंद्र नाहर सं./हि । पुरणचंद्र नाहर 112 | | जैन धातु प्रतिमा लेख भाग-१ कांतिविजयजी सं./हि | जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार 113 | जैन प्रतिमा लेख संग्रह दौलतसिंह लोढा सं./हि | अरविन्द धामणिया 114 | राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह विशालविजयजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 115 | प्राचिन लेख संग्रह-१ विजयधर्मसूरिजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 116 | बीकानेर जैन लेख संग्रह अगरचंद नाहटा सं./हि नाहटा ब्रधर्स 117 | प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग-१ जिनविजयजी सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 118 | प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग-२ जिनविजयजी सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 119 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-१ गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्वस गुजराती सभा 120 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-२ गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्बस गुजराती सभा 121 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-३ गिरजाशंकर शास्त्री फार्बस गुजराती सभा 122 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-१ | पी. पीटरसन रॉयल एशियाटीक जर्नल 123|| | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-४ पी. पीटरसन रॉयल एशियाटीक जर्नल 124 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-५ पी. पीटरसन रॉयल एशियाटीक जर्नल 125 | कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत इन्स्क्रीप्शन्स पी. पीटरसन | भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपा. 126 | विजयदेव माहात्म्यम् | जिनविजयजी सं. जैन सत्य संशोधक 514 454 354 सं./हि 337 354 372 142 336 364 218 656 122 764 404 404 540 274 सं./गु 414 400 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार 754 194 3101 276 69 100 136 266 244 संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६८ (ई. 2012) सेट नं.-४ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम | पुस्तक नाम कर्ता / संपादक भाषा | प्रकाशक 127 | महाप्रभाविक नवस्मरण साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 128 | जैन चित्र कल्पलता साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 129 | जैन धर्मनो प्राचीन इतिहास भाग-२ हीरालाल हंसराज गुज. हीरालाल हंसराज 130 | ओपरेशन इन सर्च ओफ सं. मेन्यु. भाग-६ पी. पीटरसन अंग्रेजी | एशियाटीक सोसायटी 131 | जैन गणित विचार कुंवरजी आणंदजी गुज. जैन धर्म प्रसारक सभा 132 | दैवज्ञ कामधेनु (प्राचिन ज्योतिष ग्रंथ) शील खंड सं. | ब्रज. बी. दास बनारस 133 || | करण प्रकाशः ब्रह्मदेव सं./अं. | सुधाकर द्विवेदि 134 | न्यायविशारद महो. यशोविजयजी स्वहस्तलिखित कृति संग्रह | यशोदेवसूरिजी गुज. | यशोभारती प्रकाशन 135 | भौगोलिक कोश-१ डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात बर्नाक्युलर सोसायटी 136 | भौगोलिक कोश-२ डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी 137 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-१,२ जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 138 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-३, ४ जिनविजयजी हिन्दी । जैन साहित्य संशोधक पुना 139 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-१, २ जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 140 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-३, ४ जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 141 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-१,२ ।। जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 142 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-३, ४ जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 143 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-१ सोमविजयजी गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 144 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-२ सोमविजयजी | शाह बाबुलाल सवचंद 145 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-३ सोमविजयजी गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 146 | भाषवति शतानंद मारछता सं./हि | एच.बी. गुप्ता एन्ड सन्स बनारस 147 | जैन सिद्धांत कौमुदी (अर्धमागधी व्याकरण) रत्नचंद्र स्वामी प्रा./सं. | भैरोदान सेठीया 148 | मंत्रराज गुणकल्प महोदधि जयदयाल शर्मा हिन्दी | जयदयाल शर्मा 149 | फक्कीका रत्नमंजूषा-१, २ कनकलाल ठाकूर सं. हरिकृष्ण निबंध 150 | अनुभूत सिद्ध विशायंत्र (छ कल्प संग्रह) मेघविजयजी सं./गुज | महावीर ग्रंथमाळा 151 | सारावलि कल्याण वर्धन सं. पांडुरंग जीवाजी 152 | ज्योतिष सिद्धांत संग्रह विश्वेश्वरप्रसाद द्विवेदी सं. बीजभूषणदास बनारस 153| ज्ञान प्रदीपिका तथा सामुद्रिक शास्त्रम् रामव्यास पान्डेय सं. | जैन सिद्धांत भवन नूतन संकलन | आ. चंद्रसागरसूरिजी ज्ञानभंडार - उज्जैन हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार २ | श्री गुजराती श्वे.मू. जैन संघ-हस्तप्रत भंडार - कलकत्ता | हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार 274 168 282 182 गुज. 384 376 387 174 320 286 272 142 260 232 160 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार क्रम विषय संपादक/प्रकाशक प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। पुस्तक नाम 154 उणादि सूत्रो ओफ हेमचंद्राचार्य 155 | उणादि गण विवृत्ति कर्त्ता / संपादक पू. हेमचंद्राचार्य पू. हेमचंद्राचार्य 156 प्राकृत प्रकाश-सटीक 157 द्रव्य परिक्षा और धातु उत्पत्ति 158 आरम्भसिध्धि सटीक 159 खंडहरो का वैभव 160 बालभारत 161 गिरनार माहात्म्य 162 | गिरनार गल्प 163 प्रश्नोत्तर सार्ध शतक 164 भारतिय संपादन शास्त्र 165 विभक्त्यर्थ निर्णय 166 व्योम वती - १ 167 व्योम वती - २ 168 जैन न्यायखंड खाद्यम् 169 हरितकाव्यादि निघंटू 170 योग चिंतामणि- सटीक 171 वसंतराज शकुनम् 172 महाविद्या विडंबना 173 ज्योतिर्निबन्ध 174 मेघमाला विचार 175 मुहूर्त चिंतामणि- सटीक 176 | मानसोल्लास सटीक - १ 177 मानसोल्लास सटीक - २ 178 ज्योतिष सार प्राकृत 179 मुहूर्त संग्रह 180 हिन्दु एस्ट्रोलोजी भामाह ठक्कर फेरू पू. उदयप्रभदेवसूरिजी पू. कान्तीसागरजी पू. अमरचंद्रसूरिजी दौलतचंद परषोत्तमदास पू. ललितविजयजी पू. क्षमाकल्याणविजयजी मूलराज जैन गिरिधर झा शिवाचार्य शिवाचार्य संवत २०६९ (ई. 2013) सेट नं. ५ - - यशोविजयजी व्याकरण व्याकरण व्याकरण धातु ज्योतीष शील्प प्रकरण साहित्य न्याय न्याय न्याय उपा. न्याय भाव मिश्र आयुर्वेद पू. हर्षकीर्तिसूरिजी आयुर्वेद ज्योतिष पू. भानुचन्द्र गणि टीका ज्योतिष पू. भुवनसुन्दरसूरि टीका शिवराज ज्योतिष ज्योतिष पू. विजयप्रभसूरी रामकृत प्रमिताक्षय टीका ज्योतिष भुलाकमल्ल सोमेश्वर ज्योतिष भुलाकमल्ल सोमेश्वर ज्योतिष भगवानदास जैन ज्योतिष अंबालाल शर्मा ज्योतिष पिताम्बरदास त्रीभोवनदास ज्योतिष काव्य तीर्थ तीर्थ भाषा संस्कृत संस्कृत प्राकृत संस्कृत/हिन्दी संस्कृत हिन्दी संस्कृत संस्कृत / गुजराती संस्कृत/ गुजराती हिन्दी हिन्दी संस्कृत संस्कृत संस्कृत संस्कृत / हिन्दी संस्कृत/हिन्दी संस्कृत / हिन्दी संस्कृत संस्कृत संस्कृत संस्कृत/ गुजराती संस्कृत संस्कृत संस्कृत प्राकृत / हिन्दी गुजराती गुजराती जोहन क्रिष्टे पू. मनोहरविजयजी जय कृष्णदास गुप्ता भंवरलाल नाहटा पू. जितेन्द्रविजयजी भारतीय ज्ञानपीठ पं. शीवदत्त जैन पत्र हंसकविजय फ्री लायब्रेरी साध्वीजी विचक्षणाश्रीजी जैन विद्याभवन, लाहोर चौखम्बा प्रकाशन संपूर्णानंद संस्कृत युनिवर्सिटी संपूर्णानंद संस्कृत विद्यालय बद्रीनाथ शुक्ल शीव शर्मा लक्ष्मी वेंकटेश प्रेस खेमराज कृष्णदास सेन्ट्रल लायब्रेरी आनंद आश्रम मेघजी हीरजी अनूप मिश्र ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट भगवानदास जैन शास्त्री जगन्नाथ परशुराम द्विवेदी पिताम्बरदास टी. महेता पृष्ठ 304 122 208 70 310 462 512 264 144 256 75 488 226 365 190 480 352 596 250 391 114 238 166 368 88 356 168 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम 181 182 183 श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543ahoshrut.bs@gmail.com शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार संवत २०७१ ( ई. 2015) सेट नं.-६ - - - 192 पुस्तक नाम काव्यप्रकाश भाग-१ काव्यप्रकाश भाग-२ काव्यप्रकाश उल्लास-२ अने ३ 184 नृत्यरत्न कोश भाग-१ 185 नृत्यरत्न कोश भाग-२ 186 नृत्याध्याय 187 संगीरत्नाकर भाग-१ सटीक 188 संगीरत्नाकर भाग २ सटीक 189 संगीरत्नाकर भाग-३ सटीक 190 संगीरत्नाकर भाग-४ सटीक 191 संगीत मकरन्द संगीत नृत्य 'अने नाट्य संबंधी जैन ग्रंथो 193 न्यायविंदु सटीक 194 शीघ्रबोध भाग-१ थी ५ 195 शीघ्रबोध भाग-६ श्री १० 196 शीघ्रबोध भाग- ११ थी १५ 197 शीघ्रबोध भाग-१६ थी २० 198 शीघ्रबोध भाग- २१ थी २५ 199 अध्यात्मसार सटीक 200 | छन्दोनुशासन 200 | मग्गानुसारिया प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची । यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। विषय कर्त्ता / संपादक पूज्य मम्मटाचार्य कृत पूज्य मम्मटाचार्य कृत उपा. यशोविजयजी श्री कुम्भकर्ण नृपति श्री कुम्भकर्ण नृपति श्री अशोकमलजी श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव नारद श्री हीरालाल कापडीया पूज्य धर्मोतराचार्य पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य गंभीरविजयजी एच. डी. बेलनकर श्री डी. एस शाह भाषा संस्कृत संस्कृत संस्कृत संस्कृत संस्कृत संस्कृत / हिन्दी संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत गुजराती संस्कृत हिन्दी हिन्दी हिन्दी हिन्दी हिन्दी संस्कृत/गुजराती संस्कृत संस्कृत/गुजराती संपादक / प्रकाशक पूज्य जिनविजयजी पूज्य जिनविजयजी यशोभारति जैन प्रकाशन समिति श्री रसीकलाल छोटालाल श्री रसीकलाल छोटालाल श्री वाचस्पति गैरोभा श्री सुब्रमण्यम शास्त्री श्री सुब्रमण्यम शास्त्री श्री सुब्रमण्यम शास्त्री श्री सुब्रमण्यम शास्त्री श्री मंगेश रामकृष्ण तेलंग मुक्ति-कमल श्री चंद्रशेखर शास्त्री -जैन मोहन ग्रंथमाला सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा नरोत्तमदास भानजी सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ट्रस्ट पृष्ठ 364 222 330 156 248 504 448 444 616 632 84 244 220 422 304 446 414 409 476 444 146 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम पुस्तक नाम 202 | आचारांग सूत्र भाग - १ नियुक्ति + टीका 203 | आचारांग सूत्र भाग - २ निर्युक्ति+ टीका 204 | आचारांग सूत्र भाग - ३ निर्युक्ति+टीका 205 | आचारांग सूत्र भाग-४ नियुक्ति+टीका 206 | आचारांग सूत्र भाग - ५ निर्युक्ति+ टीका 207 सुयगडांग सूत्र भाग - १ सटीक 208 | सुयगडांग सूत्र भाग - २ सटीक 209 सुयगडांग सूत्र भाग - ३ सटीक 210 सुयगडांग सूत्र भाग-४ सटीक 211 सुयगडांग सूत्र भाग - ५ सटीक 212 रायपसेणिय सूत्र 213 प्राचीन तीर्थमाळा भाग १ 214 धातु पारायणम् 215 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग - १ 216 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-२ 217 | सिद्धम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-३ 218 तार्किक रक्षा सार संग्रह 219 श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद - 380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७२ (ई. 201६) सेट नं.-७ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची । 220 221 वादार्थ संग्रह भाग - १ (स्फोट तत्त्व निरूपण, स्फोट चन्द्रिका, प्रतिपादिक संज्ञावाद, वाक्यवाद, वाक्यदीपिका) | वादार्थ संग्रह भाग - २ ( षट्कारक विवेचन, कारक वादार्थ, समासवादार्थ, वकारवादार्थ) वादार्थ संग्रह भाग-३ (वादसुधाकर, लघुविभक्त्यर्थ निर्णय, शाब्दबोधप्रकाशिका) 222 | वादार्थ संग्रह भाग-४ (आख्यात शक्तिवाद छः टीका) कर्त्ता / टिकाकार भाषा श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री मलयगिरि गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ. श्री धर्मसूरि सं./ गुजराती श्री यशोविजयजी ग्रंथमाळा संस्कृत श्री हेमचंद्राचार्य आ. श्री मुनिचंद्रसूरि श्री हेमचंद्राचार्य सं./ गुजराती श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य सं./ गुजराती श्री हेमचंद्राचार्य सं./ गुजराती आ. श्री वरदराज संस्कृत विविध कर्ता संस्कृत विविध कर्ता संस्कृत विविध कर्ता संस्कृत रघुनाथ शिरोमणि संस्कृत संपादक / प्रकाशक श्री माणेक मुनि श्री माणेक मुनि श्री माणेक मुनि श्री माणेक मुनि श्री माणेक मुनि श्री माणेक मुनि श्री माणेक मुनि श्री माणेक मुनि श्री माणेक मुनि श्री माणेक मुनि श्री बेचरदास दोशी श्री बेचरदास दोशी राजकीय संस्कृत पुस्तकालय महादेव शर्मा महादेव शर्मा महादेव शर्मा महादेव शर्मा पृष्ठ 285 280 315 307 361 301 263 395 386 351 260 272 530 648 510 560 427 88 78 112 228 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीयशोमारती-जैन-प्रकाशन-पुष्पम्-५ श्रीमम्मटाचार्य-विरचितः सटीकस्तदनुसारि-हिन्द्यनुवादभूषितः काव्य-प्रकाशः [द्वितीय-तृतीयोल्लासात्मकः] --टीकाकारा:न्यायविशारद-न्यायाचार्य-महोपाध्याय. पू. श्रीमद् यशोविजयजीमहाराजाः प्रधान-सम्पादकः संयोजकश्च पू० जैनमुनिः श्रीयशोविजयजीमहाराजः -साहित्यकला-रत्नम् हिन्दी-भाषानुवादकः डॉ० हर्षनाथमिश्र : एम० ए० (सं० हि०), पी-एच० डी० व्याकरण-साहित्याचार्यः सम्पादक उपोद्घातलेखकश्च डॉ० रुद्रदेवत्रिपाठी एम० ए० (सं० हि०), पी-एच. डी. साहित्य-सांख्ययोगदर्शनाचार्यः, काव्य-पुराणतीर्थः अनुसन्धानविभागप्रवाचकोऽध्यक्षश्चश्रीलालबहादुरशास्त्रीकेन्द्रीयसंस्कृत-विद्यापीठम्, नई दिल्ली-२१ प्रकाशिका श्रीयशोभारतीजैनप्रकाशनसमितिः बम्बई Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका : श्रीयशोभारतीजनप्रकाशनसमितिः द्वारा-जे० चित्तरंजन एण्ड कम्पनी . ३१२, मेकर भवन ३, २१, न्यू मरीनलाइन्स, बम्बई-४००.०२० प्रथमावृत्तिः प्रतयः ५०० मूल्यम् २५-०० रूप्यकारिण वि. सं. २०३२] [ई० स० १९७६ वीर सं. २६०१ © सर्वेऽधिकाराः प्रकाशिका-समित्यधीनाः । प्राप्तिस्थान-यशोभारती जैन प्रकाशन समिति द्वारा- कान्तिलाल डी० कोरा ५-४८ महावीर जैन विद्यालय अगस्त क्रान्तिमार्ग, बम्बई-२६ मुद्रक : विशाल प्रिंटिंग प्रेस, रूपनगर, दिल्ली (मूल एवं सात टीका भाग) अमर प्रिंटिंग प्रेस, ८/२५ विजय नगर-दिल्ली। (शेष भाग) Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Yashobharati Jain Publication Series-$5 KAVYA-PRAKASH OF ACHARYA-MAMMATA (2nd & 3rd ullasa only) With the Sanskrit Commentary By Nyaya-visharada, Nyāyāchārya, Mahopadhyaya SRIMAD YASHOVIJAYAJI MAHARAJ Chief Editor Jain muni. Shri. Yashovijayaji Maharaj Sahitya-Kala-ratna Hindi Translator Dr. Harsha Nath Mishra M. A., Ph. D. Vyakarana-Sahityacharya Editor and Preface Writer Dr. Rudra Deo Tripathi, M. A., Ph. D. Sahitya-Sankhya-yoga-Darshanacharya, Readar Reasarch Department Shri L. B. S Skt. Vidyapeeth, New Delhi-21 Publisher Shri Yashobharati Jain Prakashan Samiti Bombay Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Publisher Shri Yasbobharti Jain Prakasban Samiti c/o, M/s J. Chittaranjan & Co. 312, Maker Bhawan 101 21, New Marine Lines, Bombay-4000020 (India) First Edition Copies /500 Price Rs. 25.00 Vikrama Samyat-2032; Vir samvat 2601;. A. D. 1976 Shri Yashobharati Jain prakashan Samiti BOMBAY Distribution Center Shri Yasho Bharti Jain prakashan Samiti Clo, Kanti Lal D. Kora. 46. Mahavir Jain Vidyalaya, August Kranti Marg. BOMBAY-26 Printers : Vishal Printers, Roop Nagar, Delhi Amar Printing Press, 8/25, Vijay Nagar, Delhi Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्य-प्रकाश के प्रधान सम्पादकीय पुरोवचन एवं सम्पादकीय-उपोद्धात में चचित विषयों की सूची विषय प्रधान सम्पादकीय पुरोवचन उपक्रम 'काव्य-प्रकाश' एक ग्रन्थ मणि.. काव्य-प्रकाश की सर्वमान्य विशेषताएं मम्मट की विद्वत्ता और काव्यप्रकाश का दिशासूचन काव्यप्रकाश के मूल का स्वरूप-परिचय उपाध्यायजी द्वारा रचित प्रस्तुत टीका के सम्बन्ध में -पुण्यात्मा पुण्यविजयजी द्वारा लिखित प्रेसकॉपी उपाध्याय जी के स्वहस्ताक्षर की उपलब्ध प्रति काव्यप्रकाश के प्राद्य टीकाकार कौन थे ? मेरी भावना और चिन्ता सम्पादन की विधि प्रस्तुत टीका में क्या है ? . . कुछ प्रस्तुत कृति के सम्बन्ध मेंपाण्डुलिपि परिचय अभिवादन प्रकाशनसम्बन्धी भावी चित्र प्रधान सम्पादकनुं पुरोवचन (गुजराती भाषा में) ___ उपोद्घात (सम्पादकीय) १. कवि और काव्य . २. काव्यशास्त्र का उदय और परम्परा ३. नाट्यविधानमूलक ग्रन्थ और ग्रन्थकार ४. केवल अलङ्कार-विधानमूलक ग्रन्थ और ग्रन्थकार ५. काव्यलक्षण से अलङ्कार-पर्यन्त विवेचक ग्रन्थ और ग्रन्थकार ६. केवल रस-विवेचक ग्रन्थ और ग्रन्थकार ७. केवल ध्वनि, केवल वृत्ति, ध्वनि-विरोध प्रादि के ग्रन्थ और ग्रन्थकार ५. छन्दःशास्त्रीय ग्रन्थ और ग्रन्थकार ६. कवि और काव्यशिक्षा के ग्रन्थ और ग्रन्थकार १०. टीका और टीकाकार Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंन विद्वानों द्वारा प्रणीत काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ ऐतिहासिक पर्यालोधन जैनाचार्यों द्वारा किए गए काव्यशास्त्रीय-चिन्तन के प्रकार १. कवि शिक्षा-ग्रन्थ मोर ग्रन्थकार (५ ग्रन्थ और ११ टीकाएँ) २. अलङ्कार-ग्रन्थ और ग्रन्थकार (२१ ग्रन्थ तथा १८ टीकाएं) ३. नाट्यशास्त्र के ग्रन्थ पौर ग्रन्थकार (१ अन्य तथा १ टीका) ४. छन्दःशास्त्र के अन्य पोर अन्धकार (३ ग्रन्थ तथा टीकाएँ) ५. भजन काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों पर जैन माचार्यों की टीकाएं (१३ ग्रन्थ तथा २ टीकाएँ) ६. पर्जन छन्दःशास्त्रीय ग्रन्थों पर जन प्राचार्यों की टीकाएँ (३ ग्रन्थ तथा टीकाएँ) वाग्देवतावतार आचार्य मम्मट जन्मस्थान तथा जन्मकाल-सम्बन्धी धारणाएं काव्यप्रकाश और उसका महत्त्व काव्यप्रकाश का टीका-साहित्य काव्यप्रकाश के टीकाकार १. 'सङ्कत'-प्राचार्य मणिक्यचन्द्रसूरि (सन् १११५ ई० जन्मकाल) २. काव्य-प्रकाश-सङ्केत-राजानक रुय्यक (रुचक) (सन् ११३५-६० ई० अनुमानित) ३. काव्यादर्श-सङ्कत-सोमेश्वर भट्ट (सन् १२२५ ई० अनुमानित) ४. बालचित्तानुरञ्जनी-(नरहरि) सरस्वती तीर्थ (सन् १२४१-४२) ५. काव्यप्रकाश-दीपिका-पुरोहित जयन्त भट्ट (सन् १२९४ ई० रचनाकाल) ६. काव्यप्रकाश-विवेक-श्रीधर ठक्कूर तर्काचार्य (तेरहवीं शती ई. का प्रथम चरण) ७. काव्यप्रकाश-दीपिका-महामहोपाध्याय श्रीचण्डीदास (सन् १२७० ई. के निकट) . ८. साहित्य-चूडामणि-लौहित्य भट्ट गोपालसूरि (१३वीं शती ई०) ६. तत्त्व-परीक्षा-सुबुद्धि मिश्र (तेरहवीं शती ई० का उत्तरार्ध) १०. काव्य-प्रकाश-दर्पण-विश्वनाथ कविराज (१३२५ से १३७५ ई.) ११. साहित्य-दीपिका-भास्करभट्ट (चौदहवीं शती ई०) १२. लघूटीका-श्रीविद्याचक्रवर्ती (१४वीं शती ई०) १३. सम्प्रदाय-प्रकाशिनी-(बृहट्टीका)-श्रीविद्याचक्रवती (१४वीं शती ई.). १४. टीका-प्रच्युतठक्कुर तर्काचार्य (सन् १४२५ ई० से १५०० ई०) १५. टीका-वाचस्पति मिश्र (सन् १४५० से १५०० ई.) १६. काव्य-दर्पण-म. म. रलपाणि (मनोपर) ठक्कुर (सन् १४५० ई० से १५०० ई०) १७. टीका-म० म० पक्षधर मिश्र (सन् १४५४ ई.) १८. टीका-पद्मनाभ मिश्र (१४वीं शती ई०) १९. टीका-रत्नेश्वर मिश्र (१४वीं शती ई०) २०. टीका-पुण्डरीक विद्यासागर (१५वीं शती ई० से पूर्व) २१. विस्तारिका-परमानन्द चक्रवर्ती भट्टाचार्य (१५वीं शती ई०) Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. सारबोधिनी - श्रीवत्सलाञ्छन भट्टाचार्य ( १५वीं शताब्दी ई०) २३. टीका - यशोधरोपाध्याय (सन् १५०० ई० के निकट ) २४. काव्य-प्रदीप -- छाया - म० म० गोविन्द ठक्कुर (१५वीं शती ई० का अन्तिम भाग ) २५. उदाहरण- दीपिका - म० म. गोविन्द ठक्कर (१५वीं शती ई० का अन्तिम भाग ) २६. मधुमती - रवि (पाणि) ठक्कुर (सन् १५२५- १६२० ई० ) २७ टीका - मुरारि मिश्र (सन् १५५० से १६०० ई०) २८. काव्यप्रकाश- भावार्थ - रामकृष्ण (भट्ट) (सन् १५५० ई० ) २६. काव्य- कौमुदी - म० म० देवनाथ ठक्कुर 'तर्कपञ्चानन' (सन् १५७५ ई० ) ३०. टीका — उपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी गरणी (सन् १९७५ ई० ) ३१. बृहट्टीका - महोपाध्याय सिद्धिचन्द्रगरिण (सन् १५८८ से १६६८ ई० ) ६३. काव्य - प्रकाश खण्डन - ( विवृति) महोपाध्याय सिद्धिचन्द्र गरिण (सन् १५८८-१६६६ ई० ) ३३. टीका - तिरुवेङ्कट (सन् १६०० ई० के निकट ) ३४. रहस्य प्रकाश — रामनाथ उपाध्याय (सन् १६०० ई० के निकट ) ३५. टीका - हर्षकुल ( जैन मुनि) (१६वीं शताब्दी ई०) से १७००) ४१. (काव्यालङ्कार ) - रहस्य - निबन्ध - भास्कर - ( १७वीं शती ई० से कुछ पूर्व) ४२. सारदीपिका - गुण रत्नगरि (सन् १६१० ई० ). .४३. कमलाकरी - कमलाकर भट्ट (सन् १६१२ ई० ) ४४. नरसिंहमनीषा - म० म० नरसिंह ठक्कुर (सन् १६००-१००० ई० ) ४५. मणिसार - श्रज्ञातनामा (१७वीं शती ई० का प्रारम्भ ) ४६. दीपिका - शिवनारायणदास 'सरस्वती कण्ठाभरण' (१७वीं शती ई० का प्रारम्भ ) ४७. रहस्य प्रकाश – जगदीशभट्टाचार्य ( १७वीं शती ई० का पूर्वभाग ) ४८. सारसमुच्चय - राजानक रत्नकण्ठ (सन् १६४८ से १६८१ ई०) ४६. लीला - भवदेव (सन् १६४९ ई० रचनाकाल ) ५०. निदर्शना (सारसमुच्चय ) - ) - राजानक श्रानन्द (सन् १६६५ ई० रचनातिथि ) ५१. काव्यप्रकाशादर्श - महेश्वर भट्टाचार्य (महेश) (सन् १६७५ ई० २०२५ ई०) ७१ ७६ ३६. टीका - रुचिकर मिश्र (१६वीं शती ई०) ३७. टीका - गदाधर चक्रवर्ती भट्टाचार्य ( १६वीं शती ई० शती ई० का अन्तिम भाग ) ३८. कवि नन्दिका - रामकृष्ण (सन् ( १५५० से १६५० ई० ) ३६. टीका - म० म० पण्डितराज ( १७वीं शताब्दी ई० से कुछ पूर्व ) ४०. काव्यप्रकाश तिलक ( जयरामी अथवा रहस्यदीपिका ) – जयराम न्यायपञ्चानन भट्टाचार्य (५०० ५२. काव्य-प्रकाश-विवरण -म० म० गोकुलनाथ उपाध्याय (सन् १६७५ से १७७५ ई०) ५३. उदाहरण- चन्द्रिका -- तत्सत् वैद्यनाथ ( १६८३ ई० रचना समाप्ति काल ) ५४. टीका – विजयानन्द (सन् १६८३ ई० पाण्डुलिपि की तिथि ) ७७ ७८ ७६ 11 13 :: ५० 33 ८१ ८२ ८२ 3 31 ८४ ८५ ८६ ८७ ८५ ० Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५. प्रभा (प्रटीका)-तत्सत् बैद्यनाथ (१६८४ ई० रचना प्रारम्भकाल) ५६. सुमनोमनोहरा-गोपीनाथ (१७वीं शती ई० का अन्तिम भाग रचनाकाल) ५७. टीका-नारायण दीक्षित (१७वीं शती ई० का अन्तभाग) ५८. बृहद् उद्द्योत-नागेश भट्ट (१७वीं शताब्दी का उत्तरार्ध) ५६. लघु उद्योत-नागेश भट्ट (१७वीं शती ई० का उत्तरार्ध) ६०. उदाहरण-दीपिका प्रथवा 'प्रदीप' नागेशभट ई० (१७वीं शती ई० का उत्तरार्ध) ६१. विषमपदी-शिवराम त्रिपाठी (१५वीं शती ई० का प्रारम्भ) ६२. सुधासागर (शुभोदधि)-भीमसेन दीक्षित (सन् १७२२ ई०) ६३. साहित्य-कौमुदी-बलदेव विद्याभूषण (१७वीं शती ई० का प्रारम्भ) ६४. (क) कृष्णानन्दिनी स्वोपज्ञ टिप्पणी-बलदेव विद्याभूषण (१७ श० प्रा०) ६५. तात्पर्य विवृति--म० म० महेशचन्द्रदेव न्यायरत्न (१८८२ ई० रचनाकाल) ६६. बालबोधिनी-म० म० वामनाचार्य झलकीकर (१८८२ ई० रचनाकाल) ६७. नागेश्वरी-पं० हरिशङ्कर शर्मा (१९वीं शती ई०) ६८. टीका-जीवानन्द विद्यासागर (१९वीं शती ई०) ६६. चन्द्रिका-कवीन्द्राचार्य (सन् १९४८) ७०. मधुसूदनी-पं. मधुसूदन शास्त्री (१९७२ ई० रचनापूर्तिकाल) ७१. टीका-सदाशिव दीक्षित (१९७२ ई०) ७२. बाल-बोधिनी-विद्यासागरी-छज्जूरामशास्त्री विद्यासागर (१६७४ ई०) काव्य-प्रकाश के अल्प-परिचित तथा अपरिचित टीकाकार १. अर्थनिर्णय २. प्रवचूरि-टिप्पणी-राघव (समय अज्ञात) ३. मानन्दवर्षिनी-रुचिमिश्र ४. मालोक-प्रज्ञात ६. उत्तेजिनी, काव्यप्रकाशोत्तेजनी अथवा सर्वटीका-विभञ्जनी--वेदान्ताचार्य ७. उदाहरण-दर्पण-डॉ० पी० वी० काणे ८. उदाहरण-विवरण टीका-(ले० प्रज्ञात) ९. ऋजुवृत्ति-नरसिंह सूरि १०. कारिकार्थप्रकाशिका (अर्थप्रकाशिका)-रघुदेव न्यायालङ्कार ११. कारिकावली-कलाधर १२. काव्यदर्पण-मधुमतिगणेश १३. काव्यदीपिका-साम्बशिव १४. काव्यनौका-ले० प्रज्ञात १५. काव्यप्रकाशखण्डन अथवा काव्यामततरङ्गिणी-ले. अज्ञात १६. काव्यप्रकाश-विवेकिनी-रेहलदेव १ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. काव्यप्रकाशसारे रामचन्द्र १८. काव्यप्रकाशिका पुरुषोत्तमदेव कवि १२. कौमुदी २०. टिप्पण २१. टिप्पण २२, टिप्पणी प्रथवा काव्यप्रकाशसन्दर्भदाद, २३. टिप्पणी २४. टीका, २५. टीका - कल्याण उपाध्याय २६. टीका - कृष्ण मित्रांचायं नैयायिक २७. टीका - तरुणवाचस्पति २८. टीका - भानुचन्द्र २९. टीका - मिश्र मणिकण्ठ द्विवेदी मुनि ३०. टीका विद्यारण्य ३१. टीकाराजानन्द ३२. तत्वबोधिनी - ले० श्रज्ञात ३६. व ३४. दीपिका ३५. चोतन बालकृष्ण ३६. दीपिनी- कृष्णकान्त विद्याविनोद - ३७. पदवृत्ति - नागराज केशव ३८. बोधिनी ३१. बुधमनोरञ्जनी-मल्लारि लक्ष्मण शास्त्री ४०. पञ्चिका वृहस्पति रायमुकुटमणि ४१. मङ्गलमयूखमालिका - वरदायें ४२. मधुरसा - कृष्ण द्विवेदी ४३. रसप्रकाश-- कृष्ण शर्मा ४४. रहस्य — विकास ४५. विमर्शनी ४६. विवरण ४७. वृति ४८. ध्याख्या - यज्ञेश्वर यज्वन् ४९. लोकवीपिका जनान विबुध ५०. सत- दामोदर ५१. सब्जीवनी १२. सारबोधिनी भट्टाचार्य ११. साहित्यचन्द्र ५४. साहित्यचन्द्र नरसिंह सूरि १०१ 21 १०२ ") " " " "1 १०३ " " " 27 " - 222 = " " " 〃 >> " 31 " १०४ " 10 " " " " १०५ " " " Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ १०७ 1१०८ +५५. सुधानिधि-तिरुवेङ्कट ५६. सुबोधिनी-दामोदर ५७. सुबोधिनी (सुखबोधिनी)-वेङ्कटाचल सूरि अंग्रेजी अनुवाद ४. ट्रीटाइज आफ-ह्रटोरिक्स-म० म० सर गङ्गानाथ झा (१६वीं शती) २. अनुवाद टिप्पणी तथा भूमिका-डा० एच० डी० वेलनकर ३. अनुवाद टिप्पणी तथा भूमिका-श्री पी० पी० जोशी ४. अनुवाद एवं भूमिका-प्रो. चांदोरकर १५. अनुवाद एवं भूमिका-श्री एस० वि० दीक्षित ६. अनुवाद एवं विस्तृत भूमिका-श्री प्र० ब० गजेन्द्रगड़कर ७. अनुवाद-डा० एच० डी० शर्मा ८.पोइटिक लाइट-सम्प्रदाय प्रकाशिनी सहित अनुवाद-डा० रामचन्द्र द्विवेदी ६. 'रस-प्रकाश' सहित व्याख्या तथा भूमिका–डा० एस० एन० शास्त्री हिन्दी अनुवाद १. अनुवाद-डा०हरिमङ्गल मिश्र '२. सविमर्श-शशिकला-डा० सत्यव्रत सिंह '३. काव्यप्रकाशदीपिका-स्व. प्राचार्य विश्वेश्वर सिद्धान्तशिरोमणि ४. विस्तारिणी एवं प्रभा-डा. हरदत्तशास्त्री तथा श्रीनिवासशास्त्री ५. बालक्रीडा-प्राचार्य मधुसूदन शास्त्री मराठी, गुजराती और कन्नड़ अनुवाद १. टीका (मराठी)-पं. अर्जुनवाडकर मंगूलकर २. मराठी-अनुवाद-श्री बा० कृ० सावलापुरकर ३. गुजराती अनुवाद-स्व० श्री प्रानन्दशङ्कर बापूजी ध्रुव ४. तथा ५ गुजराती अनुवाद-डा० प्रार० सी० पारेख एवं श्री प्रार०वी० पाठक ६. कन्नड़ अनुवाद-डा. कृष्णमूर्ति श्री यशोविजयजी उपाध्याय कृत काव्यप्रकाश की प्रस्तुत टीका टीका का उपलब्धांश प्रथम उल्लास का विवेच्य-विषय रितीय उल्लास का विवेच्य-विषय लक्षणा के भेद ध्यम्जना-विचार तृतीय उल्लास का विवेच्य-विषय टीकाकार का दायित्व निर्वाह अपनी बात प्रधानसम्पादक मुनि श्रीयशोविजयजी महाराज : संक्षिप्त परिचय ११९ ११२. ११६. १२१ :१२४ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका १-महोपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी महाराज का चित्र २-काव्य-प्रकाश की प्रस्तुत टीका की टीकाकार द्वारा लिखित प्रति का एक पत्र ३-पूज्य श्री पुण्यविजय जी द्वारा लिखित प्रतिलिपि का एक पृष्ठ ४-समर्पण-पत्र ५-प्रकाशकीय निवेदन ६-न्यायविशारद, न्यायाचार्य, महोपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी महाराज का संक्षिप्त जीवन-चरित्र ७-प्रधानसम्पादकीय पुरोवचन ८-उपोद्घात-काव्यशास्त्र के आलोक में 'काव्यप्रकाश, उसका टीका-साहित्य एवं प्रस्तुत टीका' : एक समीक्षात्मक अनुचिन्तन द्वितीय उल्लास ( काव्यगत शब्दार्थ-स्वरूप निरूपरणात्मक ) विषय द्वितीय उल्लास की अवसर-संगति 'क्रमेण शब्दार्थयोः स्वरूपमाह' की व्याख्या काव्यगत शब्द के तीन भेद और उनके निर्दिष्ट क्रम से लिखने का कारण सूत्र ५ में 'त्रिधा' लिखने का तात्पर्य तथा वाचकादि के लक्षण : काव्यगत अर्थ के तीन भेद पर्य का चतुर्थ भेद 'तात्पर्य' अभिहितान्वयवाद अन्विताभिधानवाद 'तात्पर्यार्थोऽपि केषुचित्' पर प्रदीपकार का मत त्रिविध शब्दार्थों की व्यञ्जकता एवं 'सर्वेषाम्' (सूत्रक) की व्याख्या में मतमतान्तर शाब्दी और प्रार्थी व्यञ्जना वाच्य की व्यञ्जकता का उदाहरण (परमत एवं उपाध्यायजी की स्वमतानुसार व्याख्या) लक्ष्य अर्थ की व्यञ्जकता का उदाहरण (परमत और स्वमतानुसार व्याख्या) व्यङ्गय अर्थ की व्यञ्जकता का उदाहरण (, वाचक का लक्षण ('साक्षात् सङ्कतितम्' की व्याख्या एवं विविध विचार) Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्केत-ग्रह-विचार, 'सङ्केतितश्चतुर्भेद': की अवसर-सङ्गति (जात्यादि में, केवल जाति में, अपोह में और जातिविशिष्ट व्यक्ति में शक्तिग्रह माननेवालों के मत का निरूपण एवं अन्त में व्यक्तिवाद की स्थापना) व्याकरण-सम्मत चतुर्विध सङ्केतित अर्थ का विश्लेषण 'उपाधिश्च द्विविधः' इत्यादि वृत्ति की व्याख्या 'उक्तं हि वाक्यपदीये' इत्यादि वृत्ति पर टीकाकार का मत वस्तुधर्म के दो भेद 'सिद्ध और साध्य' का विश्लेषण यहच्छात्मक उपाधि की व्याख्या एवं अन्य टीकाकारों के मत और उनकी अयुक्तता बताते हुए टीकाकार का स्वमत यहच्छाशब्द के सम्बन्ध में प्राचीन आचार्यों का मत परम-अणु-परिमाण की गुणों में गणना का स्पष्टीकरण (टिप्पणी में) गुण शब्द आदि दोषों की शङ्का और उसका निवारण उपर्युक्त विवेचन पर टीकाकर का अभिमत मीमांसादर्शन सम्मत 'जाति' रूप एकविध सङ्केतित अर्थ का विश्लेषण एवं टीकाकार का अभिमत 'तद्वान् अपोहो वा' इत्यादि वैयायिक मत का स्पष्टीकरण नैयायिक तथा बौद्ध मत का स्पष्टीकरण (टिप्पणी में) सङ्कतित अर्थ ही मुख्यार्थ है - मुख्यार्थ शब्दार्थ का चौथा भेद नहीं अथवा अभिधा-निरूपण लक्षणा-निरूपण (लक्षणा का सामान्य लक्षण) (यहाँ टीका का कुछ अंश खण्डित है जिसका हिन्दी अर्थ में समन्वय किया गया है।) टिप्पणी में-नागेश भट्ट द्वारा स्वीकृत लक्षणा का बीज 'तात्पर्यानुपपत्ति' लक्षणा के दो भेद १-उपादान-लक्षणा तथा २-लक्षण-लक्षणा उपादान-लक्षणा के दो उदाहरण और उनपर विस्तृत चर्चा 'गौरनुबन्ध्यः' में उपादान-लक्षणा माननेवाले मुकुलभट्ट तथा मण्डनमिश्रादि मीमांसकों के मत का खण्डन, मधुमतीकार की व्याख्या, टीकाकार-सम्मत व्याख्या, सुबुद्धिमिश्र का मत एवं अन्य चर्चाएँ अर्थापत्ति लक्षणा नहीं लक्षण-लक्षणा का उदाहरण 'उभयरूपा चेयं शुद्धा' का विवेचन शुद्धा लक्षणा में शुद्धा पदार्थ क्या है ? (अन्यमत तथा स्वमत निरूपण) शुद्धा तथा गौणी-विषयक मुकुलभट्ट का मत टीकाकार का मत उपादान-लक्षणा और लक्षण-लक्षणा के शुद्धागत तत्त्व का विवेचन 'भेदाविमो च' कारिका की सपदकृत्य व्याख्या गौरणी को लक्षणा न मानकर वृत्त्यन्तर माननेवाले का मत और उसका खण्डन 'स्वार्थसहचारिगुणा भेदेन, इत्यादि की व्याख्या- स्वसम्मतपक्ष Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अविनाभावोऽत्र सम्बन्धमात्रम्' पर विवेचन शुद्धा सारोपा और साध्यवसाना के उदाहरण तथा शङ्का-समाधान 'मेदाविमौ च' कारिका की वृत्ति की व्याख्य 'लक्षणा तेन षड्विधा' की 'प्रादिभेदाभ्याम्' इस वृत्तिग्रन्थ के साथ व्याख्या पार्थसारथि मिश्र द्वारा स्वीकृत गोरगी वृत्ति के ६ भेदों का अन्य लक्षरणा - भेदों में अन्तर्भाव 'लक्षणा तेन षड्विधा' की विविध व्याख्या (चण्डीदास के अनुसार ) गौणी के उपादान और लक्षण लक्षरणारूप भेद नहीं लक्षणा के निर्दिष्ट षड्विधात्व का स्वमतानुसार तथा तात्पर्य, निरूढा और प्रयोजनवती लक्षणा के लक्षण लक्षणा से व्यञ्जना की घोर गमन - 'प्रयोजनं हि व्यापारगम्यमेव' की व्याख्या प्रयोजनवती लक्षरणा के १२ भेद तथा तच्च गूढमगूढं वा' की सवृत्ति (सोदाहरण) व्याख्या 'तदेषा कविता त्रिधा' की व्याख्या लाक्षणिक शब्द किसे कहते हैं ? 'तभूर्लाक्षणिकः ' 'तत्र व्यापारी व्यञ्जनात्मकः' लिखने का रहस्य प्रयोजन की वाच्यता का निराकरण 'स्वाद' प्रयोजन के लिए व्यञ्जना की अनिवार्यता 'शैत्यादि' अनुमान - गम्य नहीं अभिधा व्यापार व्यङ्ग्य को नहीं बता सकता 'हेत्वभावान्न लक्षणा' की व्याख्या प्रयोजन की लक्ष्यता का निराकरण हेतु की प्रसिद्धि दिखाने के लिए 'लक्ष्यं न मुख्य' (सूत्र २६) की व्याख्या प्रदीपकार, सुबुद्धि मिश्र तथा अन्य मतों के अनुसार उपर्युक्त सूत्र की व्याख्या प्रयोजन को लक्ष्य मानने पर मूलक्षयकारिणी अनवस्था रूप दोष 'प्रयोजनेन सहितं लक्षणीयं न प्रयुज्यते' की व्याख्या 'ज्ञानस्य विषयो' उदाहृतम्' पर सुबुद्धिमिश्र तथा मधुमतीकार आदि अन्य मत और अन्य शस्त्रार्थ 'विशिष्ट लक्षणा नैवम्' की व्याख्या तथा स्वमत "विशेषाः स्युस्तु लक्षिते" की धवसङ्गति और कुछ विभिन्न व्याख्याएँ अभिधामूला व्यञ्जना संयोगादि के द्वारा किसका किस पर नियन्त्रण ? 1 संयोग-विप्रयोग आदि की व्याख्या तथा उदाहरण 'इत्थं संयोगादिभि:' इत्यादि वृत्ति की व्याख्या 'भद्रात्मनो' इत्यादि पद्य में व्यग्य निर्धारण की प्रक्रिया तथा विविध शा-समाधान व्यञ्जना से होनेवाले अत्राकरणिक अर्थ अभिषेय ही क्यों होते हैं ? 'तद्युक्तो व्यञ्जकः शब्दः ' की व्याख्या एवं स्वमत 'अर्वोऽपि व्यञ्जकस्तत्र, इत्यादि की व्याख्या ८७ ८५ ६० ६५ ६५ ६७ ६८ १०० १०१ १०२ १०५ १०६ १०६ - १०७ १०७ १०८ ** ११० ११० १११ ११२ ११५ ११६ ११८ १२४ १२८ १३१ १३३ १३८ १३६ १४० १४३ ** Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय उल्लास (अर्थव्यञ्जकता निरूपणात्मक) उल्लास - सङ्गति, अर्थ के भेद 'अर्थाः प्रोक्ताः पुरा तेषाम्' की व्याख्या पर प्रदीपकार तथा स्वयं का मत प्रार्थी व्यञ्जना के भेद, वक्तृवोद्धव्यकाकूनाम्' इत्यादि की प्राचीन सम्मत एवं स्वमतानुसारी व्याख्या 'वाक्यवाच्यान्य सन्निधिः' इत्यादि की व्याख्या तथा अन्य विवेचन १- वक्ता के वैशिष्ट्य में व्यञ्जना का उदाहरण 'अइ पिहुल' इत्यादि २. बोद्धव्य के वैशिष्टय में व्यञ्जना का उदाहरण ''ि इत्यादि तथा त्रिविध प्रयों के व्यञ्जकत्व की उद्भावना १ काकु के वैशिष्टय में व्यञ्जना का उदाहरण 'तथाभूतां दृष्ट्वा इत्यादि 'न च वाच्यसिद्धपङ्गमत्र काकुः' इत्यादि पक्ति का तात्पर्य 'केचित्' शद्ध से सूचित मत और उसका खण्डन, मधुमतीकार का मत 'अपरे तु' शब्द से सूचित मत, सुबुद्धिमिश्र का मत 'इतरे तु' शब्द से सूचित मत, प्रदीपकार का मत एवं स्वयं टीकाकार का मत लक्ष्यार्थ और व्ययार्थ की व्यञ्जकता का उदाहरण ४- वाक्य वैशिष्ट्य में व्यञ्जना का उदाहरण लक्ष्य तथा व्यङ्गयार्थों की व्यञ्जकता ५- बाध्य वैशिष्टय में व्यञ्जना का उदाहरण लक्ष्यादि अर्थों की व्यञ्जकता का प्रदर्शन , ६ - अन्यसन्निधि के वैशिष्ट्य में व्यञ्जना का उदाहरण, लक्ष्यार्थ और व्यङ्ग्यार्थ में भी व्यञ्जना की उद्भावना ७- प्रस्ताव के वैशिष्टय में व्यञ्जना का उदाहरण देश के वैशिष्टय में व्यञ्जना का उदाहरण १-काल के वैशिष्टय में व्यञ्जना का उदाहरण, लक्ष्यार्थ और व्यङ्गधार्थ की व्यञ्जकता १०- चेष्टा के वैशिष्टय में व्यञ्जना का उदाहरण तथा स्वमतानुसारी व्याख्या उपर्युक्त दस भेदों के पृथक पृथक उदाहरण देने के कारण तथा मतान्तर 'वक्त्रादीनां मिथः' की व्याख्या द्विकादिभेद के उदाहरण का दिग्दर्शन और उदाहरण 'श्वरत्र' पर प्रश्नोत्तर प्रार्थी व्यञ्जना में शब्द की सहकारिता का प्रतिपादन आर्थी व्यञ्जना के नामकरण का रहस्य, मधुमतीकार तथा परमानन्द प्रभृति आचार्यों की विविध व्याख्या और प्रस्तुत टीकाकार का स्वमत आर्थी व्यञ्जना में शब्द के तथा शाब्दी में अर्थ के सहकारी व्यञ्जकत्व को स्वीकृति मौर अधम काव्यत्व की व्यावृत्ति १४७ १४७ ૪ १४६ १५० १५१ १५२ १५३ १५४ १५५ १५६ १५१ १६० १६१ १६२ १६३ १६४ १६६ १६७ १६८ १७० १७० १७१ १७१ १७२ १७३ परिशिष्ट १- काव्य प्रकाश के द्वितीय और तृतीय उल्लास के सूत्रों की अकारादि क्रम से सूची १७५ २- काव्यप्रकाश के द्वितीय और तृतीय उल्लास के मूल, टीका, धनुवाद एवं टिप्पणी में उदाहृत पदों की धकारादि क्रम से सूची १७६ ३- श्रीमद् यशोविजयजी महाराज ( टीकाकार) द्वारा रचित ग्रन्थों की सूची १७७ ४-मुनि श्री यशोविजयजी महाराज (प्रधान संपादक) द्वारा रचित ग्रन्थ एवं अन्य कृतिकलाप की सूची १८१ - ०: Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुलाते तथा दीक्षा के सम्बन्ध में बालक को ज्ञान हो उस पद्धति से प्रेरणा देते। रत्नपरीक्षक जौहरी जिस प्रकार हीरे को परखता है तथा उसके मूल्य का अनुमान निकालता है, उसी के अनुसार गुरुवर्य नयवियजी ने भी जसवन्त के तेजस्वी मुख, विनय तथा विवेक से पूर्ण व्यवहार, बुद्धिमत्ता, चतुरता, धर्मानुरागिता आदि गुणों को देखकर भविष्य के एक महान् नररत्न की झांकी पाई । जसवन्त के भविष्य का प्रङ्कन कर लिया। गुरुदेव श्री नयविजय जी महाराज ने स्थानीय जैन श्रीसंघ की उपस्थिति में बालक जसवन्त को जनशासन के चरणों में समर्पित करने अर्थात् दीक्षा देने की मांग की। जैनशासन को ही सर्वस्व माननेवाली माता ने सोचा कि 'यदि मेरा पुत्र घर में रहेगा तो अधिक से अधिक वह धनाढ्य बनेगा, देश-विदेश में प्रख्यात होगा या कुटुम्ब का भौतिक हित करेगा।' गुरुदेव ने जो कहा है उस पर विचार करती हैं तो मुझे लगता है कि 'मेरा पुत्र घर में रहेगा तो सामान्य दीपक के समान रहकर घर को प्रकाशित करेगा किन्तु यदि त्यागी होकर ज्ञानी बन गया तो सूर्य के समान हजारों घरों को प्रकाशित करेगा, हजारों प्रात्माओं को प्रात्मकल्याण का मार्ग बताएगा। अतः यदि एक घर की अपेक्षा अनेक घरों को मेरा पुत्र प्रकाशित करे, तो इससे बढ़कर मुझे और क्या प्रिय हो सकता है ? मैं कैसी बड़भागी होऊँगी ? मेरी कुक्षी रत्नकुक्षी हो जाएगी।' ऐसे विचारों से माता के हृदय में हर्ष और प्रानन्द का ज्वार उठा, जैनशासन को अपनाई हई माता ने उत्साहपूर्वक गुरु और संघ की आज्ञा को शिरोधार्य किया और अपने प्रतिप्रिय कुमार को एक शभ चौवड़िये में गुरु श्रीनयविजयजी को समर्पित कर दिया। यह भी एक धन्य क्षण था । इस प्रकार जैन-शासन के भविष्य में होनेवाले जयजयकार का बीजारोपण हया। जसवन्त को भागवती दीक्षा धर्मात्मा सोभागदे ने वैरागी और धर्मसंस्कारी जसवन्त को शासन के चरणों में अर्पित कर दिया। छोटे से कनोडं ग्राम में ऐसे उत्तम बालक को दीक्षा देने का कोई महत्त्व नहीं था, अतः श्रीसंघ ने अनुकूल साधन-सामग्री वाले निकटस्थ पाटण नगर में ही दीक्षा देने का निर्णय लिया। पिता नारायणजी का पाटण शहर के साथ उत्तम सम्बन्ध था । इसलिये हमारे चरित्रनायक पुण्यशाली जसवंतकुमार की भागवती दीक्षा शुभ-मुहूर्त में 'अरणहिलपुर' के नाम से प्रसिद्ध पाटण शहर में बड़ी धूमधाम से सम्पन्न हुई। पद्मसिंह की विरक्ति और दीक्षा बचपन से ही बालक जसवन्त के वैराग्यपूर्ण संस्कारों का प्रभाव उसके भाई पद्मसिंह पर पूर्णतया पड़ रहा. था अतःअपने भाई को संयम के पथ पर जाते हुए देखकर जसवन्त के भाई ‘पद्मसिंह' का मन भी वैराग्य के रंग में रंग गया। धर्मात्मा माता-पिता उसमें सहायक बने और पद्मसिंह द्वारा दीक्षा लेने की उत्कट भावना व्यक्त करने पर उसे भी उसी समय दीक्षा दी गई। जैनश्रमण परम्परा के नियमानुसार गृहस्थाश्रम का नाम बदलकर जसवन्त का नाम -'जसविजय' 'यशोविजय' और पद्मसिंह का नाम 'पविजय' रखा गया। इन नामों का समस्त जनता ने जयनादों की प्रचण्ड घोषणा के साथ अभिनन्दन किया। जनता का प्रानन्द अपार था। चतुर्विध श्रीसंघ ने सुगन्धित अक्षतों द्वारा पाशीर्वाद दिये। दोनों पुत्रों के माता-पिता ने भी अपने दोनों पुत्रों को आशीर्वाद देकर उनको बधाई दी। अपनी कोख को प्रकाशित करने वाले दोनों बालकों को चारित्र के वेश में देखकर उनकी आँखें अश्रु से भीग गईं। घर में उत्पन्न प्रकाश पाज से जगत् को प्रकाशित करनेवाले पथ पर प्रस्थान करेंगे, इस विचार से दोनों के हृदय मानन्दविभोर हो गए। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयम-साधना और धार्मिक शिक्षा पहले छोटी दीक्षा दी जाती है, बाद में बड़ी। अतः इस दीक्षा के पश्चात् बड़ी दीक्षा के योग्य तप किया। पूरी योग्यता प्राप्त होने पर उन्हें बड़ी दीक्षा दी गई। तदनन्तर गुरु नयविजयजी विहार करके अहमदाबाद पधारे । वहाँ विविध प्रकार का धार्मिक शिक्षण प्रारम्भ किया। तीब्र बुद्धिमत्ता के कारण वे तेजी से पढ़ने लगे। पढ़ने में एकाग्रता और उत्तम व्यवहार को देखकर श्रीसंघ के प्रमुख व्यक्तियों ने बालमुनि जसविजय में भविष्य के महान् साधु की अभिव्यक्ति पाई । बुद्धि की कुशलता, उत्तर देने की विलक्षणता आदि देखकर उनके प्रति बहुमान उत्पन्न हुआ, धारणा शक्ति का अनूठा परिचय मिला। वहाँ के भक्तजनों में 'धनजी सुरा' नामक एक सेठ थे। उन्होंने जसविजयजी से प्रभावित होकर गुरुदेव से प्रार्थना की कि 'यहाँ उत्तम पण्डित नहीं हैं अतः विद्याधाम काशी में यदि इन्हें पढ़ने के लिए ले जाएँ तो ये द्वितीय हेमचन्द्राचार्य जैसे महान और धुरन्धर विद्वान् बनेंगे।' इतना निवेदन करके धनजी भाई ने इस कार्य के लिये होनेवाले समस्त व्यय का भार उठाने तथा पण्डितों का उचित सत्कार करने का वचन भी दिया। विद्याधाम काशी में शास्त्राध्ययन गुरुदेव यशोविजय के साथ उत्तम दिन विहार करके परिश्रम-पूर्वक गुजरात से निकलकर दूर सरस्वतीधाम काशी में पहुँचे । वहाँ एक महान विद्वान् के पास सभी दर्शनों का अध्ययन किया । ग्रहण-शक्ति, तीवस्मृति तथा प्राश्चर्यपूर्ण कण्ठस्थीकरण शक्ति के कारण व्याकरण, तर्क-न्याय आदि शास्त्रों के अध्ययन के साथ ही वे अन्यान्य शास्त्रों की विविध शाखाओं के पारङ्गत विद्वान् भी बन गये। दर्शन-शास्त्रों का ऐसा आमूल-चूल अध्ययन किया कि वे 'षड्दर्शनवेत्ता' के रूप में प्रसिद्ध हो गये। उसमें भी नव्यन्याय के तो बेजोड़ विद्वान् बने तथा शास्त्रार्थ और वाद-विवाद करने में उनकी बुद्धि-प्रतिभा ने अनेक प्रमारण प्रस्तुत किये। वहाँ आपको अध्ययन करानेवाले पण्डितजी को प्रतिदिन एक रूपया दक्षिणा के रूप में दिया जाता था। सरस्वती-मन्त्र-साधना काशी में गङ्गातट पर रहकर उपाध्यायजी ने 'ऐकार' मन्त्र द्वारा सरस्वतीमन्त्र का जप करके माता शारदा को प्रसन्न कर वरदान प्राप्त किया था जिसके प्रभाव से पूज्य यशोविजय जी की बुद्धि तर्क, काव्य और भाषा के क्षेत्र १. 'यशोदोहन' में 'इस दीक्षा का समय वि. सं. १६६८ दिया है तथा यह दीक्षा हीरविजयजी के प्रशिष्य एवं विजयसेन सरि जी के शिष्य विजय देवसूरिजी ने दी थी' ऐसा उल्लेख है। देखो पृ. ७ । २. वहीं इसके लिए दो हजार चांदी के दीनार व्यय करने का भी उल्लेख है। ३. इस संबंध में वि. सं. १७३९ में स्वरचित 'जम्बूस्वामी रास' में स्वयं उपाध्यायजी ने निम्नलिखित पंक्तियाँ दो हैं शारदा सार दया करो, प्रापी वचन सुरंग। तू तूटी मुझ ऊपरे, जाप करत उपगंग॥ तर्क काव्यनो ते सदा, दीधो वर अमिराम । भाषा पण करी कल्पतरु शाखासम परिणाम ॥ इसी प्रकार 'महावीर स्तुति' (पद्य १) तथा 'अज्झत्तमतपरिक्खा' की स्वोपज्ञवृत्ति की प्रशस्ति (पद्य ३) मैं भी ऐसा ही वर्णन किया है। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ re में कल्पवृक्ष की शाखा के समान पल्लवित, पुष्पित एवं फलवती बन गई। तब से ही श्री यशोविजय जी महाराज विभिन्न शास्त्रों का स्वयं आलोडन करके उन पर टीका आदि का निर्माण और उत्तमोत्तम काव्य रचनाएँ करने लगे । शास्त्रार्थ एवं सम्मानित पदवीलाभ एक बार काशी के राज-दरबार में एक महासमर्थ दिग्गज विद्वान् -- जो अजैन थे— के साथ पू. उपाध्याय जी ने अनेक विद्वज्जन तथा अधिकारी वर्ग की उपस्थिति में शास्त्रार्थ करके विजय की वरमाला धारण की थी । उनके अगाध पाण्डित्य से मुग्ध होकर काशीनरेश ने उन्हें 'न्यायविशारद' विरुद से सम्मानित किया था। उस समय जैन संस्कृति के एक ज्योतिर्धर और जैन प्रजा के इस सपूत ने जैनधर्म और गुजरात की पुण्यभूमि का जय-जयकार करवाया तथा जैनशासन का अभूतपूर्व गौरव बढ़ाया । श्रागरा में न्यायशास्त्र का विशिष्ट अध्ययन काशी से विहार करके आप आगरा पधारे और वहाँ चार वर्ष रह कर किसी न्यायाचार्य पण्डित से तलस्पर्शी अभ्यास किया । तर्क के सिद्धान्तों में आप उत्तरोत्तर पारङ्गत होते गये । वहाँ से विहार करके गुजरात के अहमदावाद नगर में पधारे। वहां श्रीसंघ ने विजयी बनकर आनेवाले इस दिग्गज विद्वान् मुनिराज का पूर्ण स्वागत किया । श्रवधान प्रयोग तथा सम्मान उस समय अहमदाबाद में महोबतखान नामक सूबा राज्य कार्य चला रहा था। उसने पूज्य उपाध्याय जी की विद्वत्ता के बारे में सुनकर आपको ग्रामन्त्रित किया। सूबे की प्रार्थना पर आप वहाँ पधारे और १८ श्रवधान प्रयोग कर दिखाए। ' सूबा प्रापकी स्मृतिशक्ति पर मुग्ध हो गया । श्रापका भव्य सम्मान किया और सर्वत्र जैनशासन के जयजयनाद द्वारा एक अभूतपूर्व कीर्तिमान स्थापित किया । उपाध्याय पद प्राप्ति वि० सं० १७१८ में श्रीसंघ ने तत्कालीन तपागच्छीय श्रमरणसंघ के अपरणी श्रीदेवसूरिजी से प्रार्थना की कि 'यशोविजयजी महाराज बहुश्रुत विद्वान् हैं और उपाध्याय पद के योग्य हैं। अतः इन्हें यह पद प्रदान करना चाहिए ।' इस प्रार्थना को स्वीकृत करके सं० १७१८ में श्रीयशोविजयजी गरणी को उपाध्याय पद से विभूषित किया गया । शिष्यसम्पदा की दृष्टि से उपाध्याय जी महाराज के अपने छह शिष्य थे, ऐसी लिखित सूचना प्राप्त होती है । २ उपाध्याय जी ने स्वयं लिखा है कि 'न्याय के ग्रन्थों की रचना करने से मुझे 'न्यायाचार्य' का विरुद विद्वानो १. इसी प्रकार श्री यशोविजयजी ने वि. सं. १६७७ में जैनसंघ के समक्ष आठ बड़े प्रवधान किए थे, जिसका उल्लेख उनकी हिन्दी रचना 'अध्यात्मगीत' में मिलता है । २. इन शिष्यों के नाम — हेमविजय, जितविजय पं. गुणविजयगणि, दयाविजय, मयाविजय, मानविजयगरिण आदि प्राप्त होते हैं । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने प्रदान किया है।' इसके अतिरिक्त आपको न्यायविशारद, कवि, लघुहरिभद्र, कूर्चालीशारद तथा ताकिक प्रादि विरुदों से भी विद्वानों ने अलंकृत किया था।२।। उपाध्यायजी ने अनेक स्थानों पर विचरण किया था किन्तु प्रमुख-रूप से वे गुजरात और राजस्थान में रहे होंगे ऐसा उनके ग्रन्थों एवं स्तुतियों से ज्ञात होता है। स्वर्गवास एवं स्मारक 'सुजसबेली' के आधार पर उनका अन्तिम चातुर्मास बड़ौदा शहर के पास डभोई (दर्भावती) गाँव में हुआ और वहीं वे स्वर्गवासी हुए। इस स्वर्गवास का वर्ष सुजसबेलि के कथनानुसार सं० १७४३ था तदनन्तर उनका स्मारक डभोई में उनके अग्निसंस्कार के स्थान पर बनाया गया और वहाँ उनकी चरण-पादुका स्थापित की गई। पादुकाओं पर १७४५ में प्रतिष्ठा करने का उल्लेख है। निष्कर्षरूप परिचय उपाध्याय जी के जीवन का निष्कर्षरूप परिचय 'यशोदोहन' नामक ग्रन्थ में मैंने दिया है वही परिचय यहाँ भी उद्धृत करता हूँ जिससे उपाध्याय जी के जीवन की कुछ विशिष्ट झाँकी होगी। "विक्रम की सत्रहवीं शती में उत्पन्न, जैनधर्म के परम प्रभावक, जैनदर्शन के महान् दार्शनिक, जैनतर्क के महान् तार्किक, षड्दर्शनवेत्ता और गुजरात के महान् ज्योतिर्धर, श्रीमद् यशोविजयजी महाराज एक जैन मुनिवर थे। योग्य समय पर अहमदाबाद के जैन श्रीसंघ द्वारा समर्पित उपाध्याय पद के विरुद के कारण वे 'उपाध्याय जी' बने थे। सामान्यतः व्यक्ति 'विशेष' नाम से ही जाना जाता है किन्तु इनके लिए यह कुछ नवीनता की बात थी कि जनसंघ में आप विशेष्य से नहीं अपितु 'विशेषण' द्वारा मुख्यरूप से जाने जाते थे। "उपाध्यायजी ऐसा कहते हैं, यह तो उपाध्याय जी का वचन है" इस प्रकार उपाध्यायजी शब्द से श्रीमद् यशोविजयजी का ग्रहण होता था। विशेष्य भी विशेषण का पर्यायवाची बन गया था। ऐसी घटना विरल व्यक्तियों के लिए ही होती है। इनके लिए तो यह घटना वस्तुतः गौरवास्पद थी। इसके अतिरिक्त श्रीउपाध्याय जी के वचनों के सम्बन्ध में भी ऐसी ही एक और विशिष्ट एवं विरल घटना है। इनकी वाणी, वचन अथवा विचार 'टंकशाली' ऐसे विशेषण से प्रसिद्ध हैं। तथा 'उपाध्यायजी की साख (साक्षी) आगमशास्त्र' अर्थात शास्त्रवचन ही हैं। ऐसी भी प्रसिद्धि है। आधुनिक एक विद्वान् आचार्य ने आपको 'वर्तमान काल के महावीर' के रूप में भी व्यक्त किया था। १. जैसलमेर से लिखित पत्र में आपने लिखा था कि-"न्यायाचार्य विरुद तो भट्टाचार्यई न्याय ग्रन्थ रचना करी देखी प्रसन्न हई दिऊं छई।" २. तर्कभाषा (प्रशस्ति पद्य ४) तत्त्वविवेक (प्रारम्भ पद्य २) तथा सुजसबेलि में इनका उल्लेख है। ३. देखिए 'यशोदोहन' पृ. ६-१२ में सम्पादकीय निवेदन । यह ग्रन्थ गुजराती भाषा में 'प्रो० हीरालाल रसिकदास कापड़िया' द्वारा लिखित है तथा यशोभारती जैन प्रकाशन समिति, बंबई से प्रकाशित हया है। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज भी श्रीसंघ में किसी भी बात पर विवाद उत्पन्न होता है तो उपाध्यायजी द्वारा रचित शास्त्र प्रथवा टीका के 'प्रमाण' को अन्तिम प्रमाण माना जाता है। उपाध्यायजी का निर्णय कि मानो सर्वज्ञ का निर्णय । इसीलिए इनके समकालीन मुनिवरों ने आपको 'श्रुतकेबली' ऐसे विशेषण से सम्बोधित किया है। श्रुतकेवली का अर्थ है 'शास्त्रों के वंश अर्थात् श्रुत के बल में केवली के समान इसका तात्पर्य यह है कि सर्वज्ञ के समान पदार्थ के स्वरूप का स्पष्ट वर्णन कर सकनेवाले । ऐसे उपाध्याय भगवान् को बाल्यावस्था में ( प्राय: आठ वर्ष के निकट) दीक्षित होकर विद्या प्राप्त करने के लिए गुजरात में उच्चकोटि के विद्वानों के प्रभाव तथा धन्य किसी भी कारण से गुजरात छोड़कर दूर सुदूर अपने गुरुदेव के साथ काशी के विद्याधाम में जाना पड़ा और वहाँ उन्होंने छहों दर्शनों तथा विद्याज्ञान की विविध शाखा - प्रशाखानों का आमूलचूल अभ्यास किया तथा उस पर उन्होंने प्रद्भुत प्रभुत्व प्राप्त किया एवं विद्वानों में 'षड्दर्शनवेत्ता' के रूप में विख्यात हो गए । काशी की राजसभा में एक महान् समर्थ दिग्गज विद्वान्, जो कि अजैन था, उसके साथ अनेक विद्वान् तथा अधिकारी वर्ग की उपस्थिति में प्रचण्ड शास्त्रार्थ करके विजय की वरमाला पहनी थी। पूज्य उपाध्यायजी के प्रगाध पाण्डित्य से मुग्ध होकर काशीनरेश ने उन्हें 'न्यायविशारद' विरुद से अलंकृत किया था। उस समय जैन संस्कृति के एक ज्योतिर्धर ने जैन प्रजा के एक सपूत ने जैनधर्म और गुजरात की पुण्यभूमि का जय-जयकार करवाया था तथा जैन शासन की शान बढ़ाई थी । ऐसे विविध वाङ्मय के पारङ्गत विद्वान् को देखते हुए आज की दृष्टि से उन्हें दो-चार नहीं, अपितु अनेक विषयों के पी-एच० डी० कहें तो भी अनुचित न होगा । भाषा ज्ञान एवं प्रन्थ रचना भाषा की दृष्टि से देखें तो उपाध्यायजी ने अल्पज्ञ अथवा विशेषज्ञ, बालक अथवा पण्डित, साक्षर अथवा निरक्षर, साधु अथवा संसारी सभी व्यक्तियों के ज्ञानार्जन की सुलभता के लिए जैनधर्म की मूलभूत प्राकृतभाषा में, उस समय की राष्ट्रीय जैसी मानी जानेवाली संस्कृत भाषा में तथा हिन्दी और गुजराती भाषा में विपुल साहित्य का सर्जन किया है । उपाध्यायजी की वारणी सर्वनयसम्मत मानी जाती है अर्थात् वह सभी नयों की अपेक्षा से गर्भित है । विषय की दृष्टि से देखें तो आापने श्रागम, तर्क, न्याय, अनेकान्तवाद, तत्वज्ञान, साहित्य, अलङ्कार, छन्द, योग, अध्यात्म, आचार, चारित्र, उपदेश आदि अनेक विषयों पर मार्मिक तथा महत्त्वपूर्ण पद्धति से लिखा है । संख्या की दृष्टि से देखा जाए तो उपाध्याय जी की कृतियों की संख्या 'अनेक' शब्दों से नहीं अपि तु 'संकड़ों' शब्दों से बताई जा सके इतनी है। ये कृतियाँ बहुधा प्रागमिक और तार्किक दोनों प्रकार की हैं। इनमें कुछ पूर्ण तथा कुछ अपूर्ण दोनों प्रकार की हैं तथा कितनी ही कृतियाँ अनुपलब्ध हैं। स्वयं श्वेताम्बर - परम्परा के होते हुए भी दिगम्बराचार्यकृत ग्रन्थ पर टोका लिखी है। जैन मुनिराज होने पर भी अर्जन ग्रन्थों पर टीकाएँ लिख सके हैं । यह आपके सर्वग्राही पाण्डित्य का प्रखर प्रमाण है। दशैली की दृष्टि से यदि हम देखते हैं तो आापकी कृतियाँ लण्डनात्मक प्रतिपादनात्मक और समन्वयात्मक 7 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। उपाध्यायजी की कृतियों का पूर्ण योग्यतापूर्वक पूरे परिश्रम के साथ अध्ययन किया जाए, तो जैन आगम अथवा जैनतर्क का सम्पूर्ण ज्ञाता बना जा सकता है। अनेकविध विषयों पर मूल्यवान् अति महत्त्वपूर्ण सैकड़ों कृतियों के सर्जक इस देश में बहुत कम हुए हैं उनमें उपाध्याय जी का निःशङ्क समावेश होता है। ऐसी विरल शक्ति और पुण्यशीलता किसी-किसी के ही भाग्य में लिखी होती है। यह शक्ति वस्तुतः सद्गुरुकृपा, सरस्वती का वरदान तथा अनवरत स्वाध्याय इस त्रिवेणी-सङ्गम की आभारी है। उपाध्याय जी 'अवधानकार' अर्थात् बुद्धि की धारणा शक्ति के चमत्कारी भी थे।' अहमदाबाद के श्रीसंघ के समक्ष और दूसरी बार अहमदाबाद के मुसलमान सूबे की राज्यसभा में आपने अवधान के प्रयोग करके दिखलाये थे। उन्हें देखकर सभी आश्चर्य मुग्ध बन गए थे। मानव की बुद्धि-शक्ति का अद्भुत परिचय देकर जैन-धर्म और जैन साधु का असाधारण गौरव बढ़ाया था। उनकी शिष्य-सम्पत्ति अल्प ही थी। अनेक विषयों के तलस्पर्शी विद्वान् होते हुए भी 'नव्य-न्याय' को ऐसा आत्मसात् किया था कि वे 'नव्यन्याय के अवतार' माने जाते थे। इसी कारण वे 'तार्किक-शिरोमणि' के रूप में विख्यात हो गए थे। जनसंघ में नव्यन्याय में आप अनन्य विद्वान् थे। जैनसिद्धान्त और उनके त्यागवैराग्य-प्रधान आचारों को नव्यन्याय के माध्यम से तर्कबद्ध करनेवाले एकमात्र अद्वितीय उपाध्यायजी ही थे। उनका अवसान गुजरात के बड़ौदा शहर से १६ मील दूर स्थित प्राचीन दर्भावती, वर्तमान डभोई शहर में वि० सं० १७४३ में हा था। ग्राज उनके देहान्त की भूमि पर एक भव्य स्मारक बनाया गया है जहाँ उनकी वि० सं. १६४५ में प्रतिष्ठा की हई पादुकाएँ पधराई गई हैं । डभोई इस दृष्टि से सौभाग्यशाली है। इस प्रकार संक्षेप में यहाँ उपाध्याय जी के व्यक्तित्व तथा कृतित्व को छूनेवाली घटनाओं की संक्षेप में सच्ची झाँकी कराई गई है।" इस प्रसंग में आपकी स्मृति-तीव्रता के दो प्रसंग भी बहुचर्चित हैं । जो इस प्रकार हैं १. बचपन में जसवन्त कुमार जब अपनी माता के साथ उपाश्रय में साधु महाराज को वन्दन करने जाता था, उस समय उनकी माता ने चातुर्मास में प्रतिदिन 'भक्तामर स्तोत्र' सुनकर ही भोजन बनाने और खाने का नियम लिया था। एक दिन वर्षा इतनी आई कि रुकने का नाम ही नहीं लेती थी। ऐसी स्थिति में माता सोभागदे ने भोजन नहीं बनाया। मध्याह्न का समय भी बीतता जा रहा था। तब बालक जसवन्त ने माता से पूछा कि आज भोजन क्यों नहीं बनाया जा रहा है तो उत्तर मिला-'वर्षा के न रुकने से उपाश्रय में जाकर भक्तामर-सुनने का नियम पूरा नहीं हो रहा है। अतः रसोई नहीं बनाई गयी।' यह सुन जसवन्त ने कहा-मैं आपके साथ प्रतिदिन वह स्तोत्र सुनता था अतः वह मुझे याद है ऐसा कह कर वह स्तोत्र यथावत् सुना दिया। इस प्रकार बाल्यावस्था में ही उनकी स्मृति तीव्र थी। २. एक बार वाराणसी में जब अध्ययन पूर्ति पर था और पू० यशोविजयजी ने वाद में विजय प्राप्त कर ली थी तब अध्यापक महोदय अपने पास पाण्डुलिपि के रूप में सुरक्षित एक न्यायग्रन्थ को पढ़ाने में संकोच करने लगे। वे यह समझते थे कि यदि यह ग्रन्थ भी पढ़ा दिया तो मेरे पास क्या रहेगा? उपाध्याय जी इस रहस्य को समझ गये थे। अतः एक दिन वह ग्रन्थ देखने के लिए विनयपूर्वक मांग लिया और मिलने पर रात्रि में स्वयं तथा अपने अन्य सहपाठी मुनिवर ने उस पूरे ग्रन्थ को कण्ठस्थ करके प्रातः लौटा दिया। कहा जाता है कि उस ग्रन्थ में प्रायः १० हजार श्लोकप्रमाण जितना विषय निबद्ध था। यह भी उनकी धारणा-शक्ति का अपूर्व उदाहरण है। -सम्पादक Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रधान-सम्पादकीय पुरोवचन - ले. मुनि यशोविजय उपक्रम विद्वानों द्वारा अनुमानित रूप से निर्धारित समय के अनुसार ग्यारहवीं शती के उत्तरार्ध में वाग्देवतार जैसे मम्मट नामक गृहस्थ प्राचार्य द्वारा रचित 'काव्यप्रकाश' नामक सुविख्यात ग्रन्थ के दूसरे और तीसरे उल्लास पर सत्रहवीं शती में विद्यमान तार्किकशिरोमणि, षड्दर्शनवेत्ता, अनेक ग्रन्थों के रचयिता परमपूज्य उपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी महाराज द्वारा रचित यह टीका सर्वप्रथम प्रकाशित हो रही है, इससे समग्र साहित्यानुरागी जगत् एक अच्छी सी प्रानन्द की लहरी का अनुभव किये बिना नहीं रह सकेगा। किन्तु मैं तो अत्यन्त आनन्द के साथ गौरव का अनुभव कर रहा है। मेरे लिये प्रानन्द और गौरव के दो कारण हैं, पहला कारण यह है कि एक महापुरुष की संस्कृतभाषा में रचित साहित्यादि की तथा कतिपय दार्शनिक सिद्धान्तों की तर्कबद्ध विवेचना करनेवाली एक महान् कृति के उत्तरदायित्व से मैं मुक्त हो रहा हूं तथा इसी के कारण एक प्रकार की भारहीनता का अनुभव कर रहा हूँ। दूसरा कारण यह है कि न्यायशास्त्र से पूर्ण टीका जिसका कि अनुवाद होना कठिन था, उसका अनुवाद सुशक्य होकर हिन्दी भाषान्तर सहित यह कृति प्रकाशित हो रही है। सामान्य मान्यता ऐसी है कि तार्किक-नैयायिक कठोर स्वभाववाले होते हैं। क्योंकि तर्क युक्तियाँ मथवा पदार्थज्ञान में कोई आनन्द नहीं आता, ये तो मस्तिष्क का दही बनानेवाले हैं। अतः प्रायः साहित्यकार शीघ्र नहीं बनते । क्योंकि साहित्यकार वही बन सकता है जिसके हृदय में मृदुता, कोमलता अथवा सरसता की मात्रा अधिक हो । इतना होते हुए भी 'वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि' इस कालिदासोक्ति का अनुसरण करनेवाले महर्षि अवश्यकता होने पर वज्र से भी अविक कठोर तथा कड़क हो सकते हैं और अवसर आने पर पुष्प से भी अधिक सुकोमल हृदय का अनुभव करवा देते हैं। और ऐसी भी विद्वानों की उक्ति है कि 'श्रेष्ठ विद्वान् काव्य-साहित्य के क्षेत्र को हीन मानते हैं और कहते हैं कि 'शास्त्रज्ञ न बन . सकने वाले लोग कवि' बनते हैं। परन्तु उपाध्यायजी के लिये ये उक्तियां निरर्थक सिद्ध हुई और उन्होंने भारतीय साहित्यनिधि की एक विख्यात कृति पर अपनी लेखिनी चला कर अपनी सर्वाङ्गीण प्रतिभा का दर्शन कराया तथा इसके द्वारा जैन साहित्य और जैन श्रीसंघ को वस्तुतः गौरव प्रदान किया। एक ही व्यक्ति ने ज्ञान की विविध शाखा-प्रशाखाओं पर इतना विपुल और विस्तृत साहित्य का सर्जन किया है कि जिसका मूल्याङ्कन करना बहुत कठिन है। ज्ञान-विज्ञान की अनेक शाखामों को पुष्पित-पल्लवित करने की अदम्य स्फूर्ति रखनेवाले परोपकार-रसिक उपाध्यायजी श्रीमद् यशोविजयजी जैसे बहुश्रुत और बहुमुखी विद्वान् ने काव्य जैसे विषय को भी नहीं छोड़ा। १. इसके लिये एक उक्ति भी प्रसिद्ध है कि-'शास्त्रषु भ्रष्टाः (हीनाः) कवयो भवन्ति' अर्थात् शास्त्र नहीं पढ़ __ सकनेवाले व्यक्ति कवि बनते हैं । किन्तु उपाध्याय जी के लिये यह उक्ति नहीं घटती थी। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'यशोभारती जैन प्रकाशन ग्रन्थमाला' की ओर से प्रकाशित होने वाली यह पांचवीं कृति है। 'काव्य-प्रकाश' एक ग्रन्थ-मरिण 'काव्य-प्रकाश' (अपर नाम 'साहित्य-सूत्र' ) काव्यशास्त्र की श्रेणी में ग्रन्थमणि' माना जाता है । इस ग्रन्थ की रचना इतना अधिक अर्थगम्भीर तथा सूक्ष्म रहस्यों से पूर्ण है कि इसकी थाह प्राप्त करने के लिये समय-समय पर उत्पन्न अनेक विद्वानों ने विविध टीकारों के द्वारा इसकी अर्थपूर्णता एवं इसकी महत्त्वपूर्ण विलक्षण वैशिष्टय की गहनता को मापने के निरन्तर प्रयत्न किये हैं । इस ग्रन्थ पर निर्मित ७० से अधिक टीकाएं इसका प्रबल प्रमाण हैं । इतने अधिक विवरण और टीकाएँ बन जाने पर भी इस विषय के पारङ्गत विद्वानों के मन में भाज भी यह ग्रन्थ दुर्गम बना हुआ है। यही कारण है कि समय-समय पर किसी न किसी सर्जक विद्वान् का हृदय काव्यप्रकाश के क्षेत्र को परिमार्जित तथा परिषिक्त करने के लिए उत्कण्ठित हुए बिना नहीं रहता। इस ग्रन्थ पर केवल संस्कृत टीकाएँ ही हैं, ऐसा भी नहीं है; विविध प्रदेशों की अन्य अनेक भाषाओं में भी इसके भाषान्तर-अनुवाद हुए हैं तथा हो रहे हैं। काव्य-प्रकाश की सर्वमान्य विशेषताएँ _ 'काव्यप्रकाश' का यह सार्वभौम महत्त्व उसकी अनेक विशिष्टताओं के कारण अपने माप उभर पाया है। ये विशेषताएँ क्या हैं इसका यदि संक्षेप में उल्लेख किया जाए तो वह इस रूप में किया जा सकता है १. काव्यसम्बन्धी प्राचीन काल से प्रवृत्त मान्यताओं का दृढता-पूर्वक विश्लेषण । २. स्वसमय तक निर्धारित विषयों का सूक्ष्मता से निरीक्षण और परीक्षण । ३. सुप्रसिद्ध विद्वान् प्रानन्दवर्धन द्वारा प्रस्थापित तीसरी शब्दशक्ति 'व्यञ्जना' की पुष्टि करते हुए ध्वनि की प्रस्थापना । ध्वनि सिद्धान्त के विरोधी वैयाकरण, साहित्यिक, वेदान्ती, मीमांसक और नैयायिकों द्वारा उठायी गई आपत्तियों का प्रबल युक्तियों द्वारा खण्डन । ४. वैयाकरण गार्ग्य, यास्क, पाणिनि आदि प्राचार्यों द्वारा उपमा के लक्षण तथा अलङ्कार-शास्त्र के कतिपय नियमों का व्यवस्थित प्रतिष्ठापन। ५. भरतमुनि से लेकर भोजराज तक लगभग १२०० वर्षों के समय में चर्चित अलङ्कार-शास्त्र के व्यापक विषयों का स्वतन्त्र मन्थन कर 'नवनीत' के रूप में उपस्थापित सारभूत विवेचन, अलं कारों का यथार्थ मूल्यांकन, काव्यलक्षण, शब्दशक्ति, ध्वनि, रस-सूत्रगत अर्थ का निष्कर्ष, दोष, १. काव्याचार्य भामह, दण्डी, उद्भट, वामन तथा रुद्रट आदि विद्वानों ने जिन काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों की रचना की है, वे सभी पद्य में रचित हैं तथापि उन्हें 'सूत्र' नाम दिया गया है मम्मट ने तो नया मार्ग स्वीकृत कर गम्भीरार्थक कारिका एवं वृत्ति में सूत्रपद्धति से ही ग्रन्थ -रचना की है। अत: इसके लिये 'सूत्र' शब्द का प्रयोग किया गया है। तथा इसके अनेक टीकाकारों ने भी इस ग्रन्थ के लिए 'सूत्र' शब्द का ही प्रयोग किया है। २. म० म० गोकुलनाथ उपाध्याय में लिखा है कि मन्थान-मन्दर-गिरि-भ्रमण-प्रयत्नाद् रत्नानि कानिचन केनचिदुद्धतानि । नन्वस्मि साम्प्रतमपार-पयोधिपूर-गर्भावटस्थगित एष गरणो मणीनाम् ॥ -काव्यप्रकाश टीका विवरण, ३०४ प्रथम पद्य Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुण, रीति और अलङ्कारों का यथार्थ मूल्य निर्धारण । ६. अपने से पूर्ववर्ती ग्रन्थकारों की ज्ञातव्य अच्छाइयों का संग्रह तथा उपेक्षणीय' विषयों का परित्याग। ७. संक्षिप्त सूत्रशैली में अनेक विषयों का व्यवस्थित आकलन आदि । मम्मट की बहुमुखी प्रतिभा-पाण्डित्य द्वारा वणित अनेक विशेषताओं के कारण यह ग्रन्थ एक 'माकर'२ (खान) ग्रन्थ बन गया है तथा यह इतना अधिक सर्वमान्य जैसा और प्रमाणभूत बन गया है कि अनेक ग्रन्थकारों ने अपने ग्रन्थों में 'तदुक्तं काव्यप्रकाशे' ऐसा कह कर इसका अत्यन्त आदर करते हुए इस ग्रन्थ की प्रामाणिकता पर मुद्रा (मुहर) अङ्कित की है। मम्मट की विद्वत्ता और काव्यप्रकाश का दिशासूचन ___ मम्मट केवल काव्यशास्त्र के ही ज्ञाता नहीं थे अपितु वे व्याकरण', वेदान्त, मीमांसा, न्याय, सांख्य आदि शास्त्रों के भो श्लाघनीय ज्ञाता थे। यह बात उनके मूल और टीका के विवेचन से प्रमाणित होती है। अन्य दर्शनों के विशाल ज्ञान के कारण ही रसास्वाद के स्वरूप-दर्शन में ब्रह्मरसास्वाद के साथ तुलनात्मक चर्चा की है। माया, प्रपञ्च अथवा मोक्षप्राप्ति से सम्बद्ध दिये गये उदाहरण, रसास्वाद, मितयोगिता ज्ञान, मितेतर ज्ञान की विलक्षणता, निर्विकल्प तथा निर्विकल्पक ज्ञान को सविषयक मानना अथवा नहीं ? ये सभी बातें उनके वेदान्तविषयक विशाल ज्ञान को अभिव्यक्त करती हैं। न्यायशास्त्र के भी वे अच्छे ज्ञाता थे। साथ ही मम्मट शब्द, उसका अर्थ और शक्तियों के बारे में गम्भीरता-पूर्वक प्रामाणिक विवेचन करते हैं। उन्होंने 'यत्' शब्द की 'तत्' शब्द के साथ साकांक्षता और निराकांक्षता की चर्चा की है। वहाँ उनका पाण्डित्य स्पष्ट रूप से झलक उठता है । तथा भीमसेन के उद्गारों को देखें तो उन्होंने मम्मट को 'वाग्देवतावतार' अर्थात् सरस्वती के समान कहा है। काव्यप्रकाश के मूल का स्वरूप-परिचय अब हम यहाँ तो काव्यप्रकाश का अल्प-स्वल्प अर्थात् नाममात्र का ही परिचय देते हैं। इस ग्रन्थ के दस उल्लास हैं और प्रत्येक उल्लास किसी न किसी विशिष्ट हेतु का पूरक होने से निम्नलिखित नामविषयों से अलङ्कृत है। प्रथम उल्लास-काव्य-प्रयोजन कारण स्वरूपविशेष निर्णय द्वितीय उल्लास-शब्दार्थस्वरूप-निर्णय तृतीय उल्लास-अर्थव्यञ्जकता-निर्णय लास-ध्वनि भेद-प्रभेद निरूपण १. 'नाट्यशास्त्र' काव्य का अंग होते हुए भी उसे काव्यप्रकाश में स्थान नहीं दिया गया है जबकि 'साहित्य-दर्पण' में विश्वनाथ ने स्थान दिया है। . २. देखो का०. प्र०. सू०. ७, तथा पांचवें उल्लास में महिमभट्ट के मत का खण्डन । ३. 'वैयाकरण सिद्धान्तमञ्जूषा' तो काव्यप्रकाश को प्रमाणभूत ग्रन्थ बताती है। ४. मम्मट शैवमतानुयायी तथा शवागमज्ञ थे। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम उल्लास-ध्वनि-गुरणीभूत व्यंग्य, संकीर्ण भेद निरूपरण षष्ठ उल्लास- शब्दार्थचित्र निरूपण सप्तम उल्लास-दोषदर्शन अष्टम उल्लास--- गुणालङ्कार भेद नियतगुण-निर्णय नवम उल्लास- शब्दालङ्कार-निर्णय दशम उल्लास- अर्थालङ्कार-निर्णय स्तुत्य प्रतिपादन शैली द्वारा मम्मट ने कारिका, सूत्रवृत्ति एवं उदाहरणों के द्वारा विषय को व्यक्त किया है । सूत्रात्मक शैली होने से अर्थगाम्भीर्य बहुत है। सूत्र में संक्षिप्तार्थ सूचक सीमित शब्दप्रयोग के कारण यह ग्रन्थ सदा क्लिष्ट और दुगम' प्रतीत हो यह स्वाभाविक है।। ___ इसमें कतिपय उदाहरण भी दुर्गम तथा दोषपूर्ण हैं और इसी कारण इसे समझने के लिए भिन्नभिन्न विद्वानों ने टीकाओं की रचना की है अतः टीकाओं की संख्या की मात्रा अद्भुत कही जा सके ऐसी संख्या पर पहुँच गयी हैं। मुझे लगता है कि संस्कृत में यह एक ही ग्रन्थ ऐसा होगा कि जिस पर सौ-सौ टीकाएं बनी हों! ग्रन्थ का संक्षिप्त परिचय देकर अब इसकी टीका के सम्बन्ध में विचार करते हैं। उपाध्यायजी द्वारा रचित प्रस्तुत टोका के सम्बन्ध में काव्यप्रकाश के केवल दो उल्लासों पर उपाध्यायजी द्वारा निर्मित प्रस्तुत टीका का उल्लेख जैन, अजैन किसी ने नहीं किया है। केवल कुछ जैन विद्वानों को ही जैन ज्ञानभण्डार से काव्यप्रकाश की प्रति उपलब्ध होने से उनको इसका प्राभास था अवश्य, किन्तु प्राप्त पाण्डुलिपि अत्यधिक खण्डित और अशुद्ध थी, इसकी प्रतिलिपियाँ भी हुई किन्तु वे भी वैसी ही हुई और अत्यधिक अशुद्ध होने के कारण ही इस कृति को प्रकाशित करने का उत्साह किसो का जागृत नहीं हुआ। नहीं तो अन्य कृतियाँ जिस प्रकार प्रकाशित हुई उसी प्रकार यह भी हो जाती। पुण्यात्मा पुण्यविजयजी द्वारा लिखित प्रेसकॉपी ऐसी स्थिति में मेरे सहृदयी प्रात्ममित्र, प्रखर संशोधक विद्वद्वर्य स्वर्गस्थ आगमप्रभाकर पुण्यनामधेय श्रीपुण्यविजयजी महाराज जिनका नश्वर देह इस धरती पर विद्यमान नहीं है और जिनको स्मृति माज भी हृदय को गद्गद कर देती है। जिनका मुझपर हार्दिक प्रेम तथा अकारण पक्षपात था और जो १. काव्यप्रकाशस्य कृता गृहे गृहे टीका तथाप्येष तथैव दुर्गमः। सुखेन विज्ञातुमिमं य ईहते धीरः स एतां निपुणं विलोक्यताम् ॥ -टीकाकार महेश्वराचार्य २. सम्पादक-डा० श्री रुद्रदेवजी त्रिपाठी ने प्रायः समस्त टीकाओं और टीकाकारों का सुन्दर परिचय इस ग्रन्थ के 'उपोद्घात' में दिया है। उपाध्यायजी ने इनसे अधिक उल्लासों पर टीका निर्मित की हो, ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिला है। उनकी अभिरुचि के विषयानुरूप महत्त्व के उल्लास ये दो ही थे। अनुमानतः ऐसा प्रतीत होता है कि काव्यप्रकाश के अन्य भाग का उन्होंने स्पर्श नहीं किया होगा। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ मेरे प्रति प्रात्मीय श्रद्धा रखते थे। ऐसे उन पुण्यात्मा के पास प्रायः बीस वर्ष पूर्व मुझे रहने का अवसर मिला तब उपाध्यायजी से सम्बन्धित जो कुछ सामग्री उनके पास थी वह मुझे देना प्रारम्भ की। उसमें उन्होंने स्वहस्त से लिखित काव्यप्रकाश की प्रेसकॉपी भी बड़े उत्साह और उदारता से मुझे प्रदान की। उस कॉपी के मोती के समान सुन्दर अक्षर सुस्पष्ट और सुन्दर मरोड़वाली एक सर्वमान्य कृति की प्रेसकॉपी को देखकर मैंने अपार आनन्द का अनुभव किया। मुझे लगा कि अन्य महत्त्व के अनेक कार्यों के रहते हुए भी उनकी श्रुतभक्ति की कैसी लगन और उपाध्यायजी के प्रति कैसी अनन्य निष्ठा थी कि उन्होंने समय निकाल कर (क्लिष्ट हस्तप्रति के आधार से) स्वयं प्रेसकॉपी की। उनके द्वारा की हुई प्रेसकॉपी अर्थात् सर्वाङ्ग सुव्यवस्थित प्रतिलिपि के दर्शन। (उनके द्वारा लिखित प्रेसकॉपी का फोटो ब्लॉक इस ग्रन्थ में छपा है उसे देखें।) वर्षों के पश्चात् इस कॉपी का कार्य हाथ में लिया और हमारे अर्थात् 'श्रीमुक्तिकमल जैन मोहनमाला' और अन्य भण्डार की, इस तरह दो भण्डारों की, दो पाण्डुलिपियाँ मँगवाई, अन्यत्र इसकी पाण्डुलिपि उपलब्ध नहीं थी । ये दोनों प्रतियाँ प्रायः अशुद्ध और पाठों से खण्डित थीं। इतना होते हुए भी दोनों पाण्डुलिपियाँ कहीं कहीं एक दूसरे की पूरक हों ऐसी होने से ये प्रेस कॉपी के साथ मिलाने में यत्र-तत्र सहायक हुई और तदनन्तर उनके आधार से पूर्णतः नयी ही प्रेसकॉपो तैयार करवाई गई। उपाध्यायजी के स्वहस्ताक्षर की उपलब्ध प्रति यह प्रेसकॉपी तैयार होने के बाद अहमदाबाद के भण्डार से पुण्यात्मा मुनिप्रवर श्रीपुण्यविजय जी महाराज को स्वयं उपाध्यायजी के हाथ की लिखी हुई एक प्रति मिल गई । उन्होंने मुझे तत्काल शुभ समाचार भेजे और मेरे लिये शीघ्र ही उसकी फोटोस्टेट कापी निकलवाकर मुझे भेज दी। मैंने उस प्रतिलिपि को देखकर भावपूर्ण नमन किया। मेरे प्रानन्द का पार नहीं रहा। बिना किसी प्रकार के मिटानेबिगाड़ने आदि के चिह्न के सुन्दर अक्षरों में लिखी हुई प्रति देखना यह भी एक प्रकार का लाभ ही है। यह पाण्डुलिपि मिल जाने पर पहले तैयार की गई प्रेसकॉपी के साथ मैंने उसका मिलान किया और खण्डित पाठों को पूर्ण किया। परिश्रम तो पर्याप्त हुआ किन्तु अशुद्ध पाठ शुद्ध हो गये। इससे मेरा भार हलका हुआ और परिणामस्वरूप मुझे पूर्ण सन्तोष हुआ कि अब यह कृति पूर्णरूपेण शुद्ध पाठ के रूप में दे सकंगा। वर्षों तक यह प्रेसकॉपी मेरे पास पड़ी रही। अन्य कार्य चलते थे, अतः इसे रखे रहा। काव्यप्रकाश के प्राद्य टीकाकार कौन थे? काव्यप्रकाश की रचना ग्यारहवीं शती के उत्तरार्ध में हुई और उसके पश्चात् इस ग्रन्थ के यथार्थ अर्थ का ज्ञान कराने के लिये सर्वप्रथम टीका बनाने का गौरव एक जैनाचार्य को ही प्राप्त हुआ। यह घटना भी जैनसमाज के लिये गौरवास्पद बनी। इन प्राचार्य श्री का नाम था माणिक्यचन्द्रजी । इससे वे सबसे प्राचीन टीकाकार के रूप में प्रसिद्ध हए । इन्होंने टीका का नाम 'सङ्केत' रखा तथा इसकी रचना १०१६ (ई. सन् ११६०) में हुई। इसके पश्चात् प्रायः साढ़े पांच सौ वर्ष बीत जाने पर १७-१८वीं शताब्दी में उपाध्यायजी द्वारा नव्यन्याय की पद्धति को माध्यम बनाकर केवल दो उल्लासों पर की गई यह टीका आज प्रकाशित हो रही है। इस ग्रन्थ की टीका विद्यार्थी जगत् में अधिक उपादेय बने इसके लिये इसका भाषान्तर करवाना Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचित समझकर (डॉ० रुद्रदेव त्रिपाठी के परामर्श से) इसका दायित्व व्याकरण-साहित्याचार्य, डॉ. हर्षनाथ मिश्र को सोंपा गया था। उन्होंने भी इस क्लिष्ट कार्य को पूरे उत्साह के साथ पूर्ण किया तदर्थ वे भी धन्यवादाह हैं। आज के युग में यह और इसके समान ही दुर्गम माने जानेवाले अन्य ग्रन्थों के पठन-पाठन का स्तर बहुत कम हो गया है। अतः इस ग्रन्थ को पढ़नेवाले दो-चार निकलें तब भी अहोभाग्य ! किन्तु हमारा तो उद्देश्य है कि जैसे "भूतकाल में काल के गर्त में उनकी अनेक कृतियाँ समा गईं, वैसा न हो और ये कृतियाँ सुरक्षित बनी रहें", इस दृष्टि से ही यह प्रयत्न है। जैनधर्म का सिद्धान्त है कि 'सौ में से एक व्यक्ति ही यदि धर्म का पालन करे तो सामनेवाले प्रेरक का पुरुषार्थ सफल है।' प्रसिद्ध नाटककार आचार्य श्री भवभूति की 'उत्पत्स्यतेऽत्र मम कोऽपि समानधर्मा' इस उक्ति का विचार करें तो भविष्यकाल में ऐसे ही दूसरे यशोविजय के निर्माण में ये कृतियाँ निमित्त बनेंगी तब वस्तुतः हमारा प्रयास सफलता का वरण करेगा। मेरी भावना और चिन्ता मेरे मन में वर्षों से एक उत्साह-एक भावना रहती थी कि पू० उपाध्यायजी की मेरे द्वारा शक्य ऐसी कृतियों का संशोधन, सम्पादन अथवा अनुवाद आदि का कार्य मैं स्वयं करके उनकी श्रुतसेवा का यत्किञ्चित् लाभ क्यों न प्राप्त करूं ? अतः मैं प्रतिवर्ष इसके लिए यथायोग्य यथाशक्ति प्रयत्नशील रहता था, किन्तु पहले तो मेरे नित्यमित्र शरीर की चिरस्थायी बनी हुई प्रतिकूलता और इसके कारण उपजने वाले कार्यान्त राय तथा दूसरी मेरी विविध कारणों से विविध प्रकार की व्यस्तता, इस कारण मझे लगा कि अब मुझे इस सम्बन्ध की ममता अथवा मोह को छोड़ ही देना चाहिये। किन्तु साथ ही यह विचार भी आता कि मोह-ममता को छोड़ तो दूं पर कार्य का भार उठानेवाला यदि कोई नहीं मिले तो क्या करना ? इसी बीच भले ही दीर्घकाल के बाद, किन्तु मेरे पुराने मित्र साहित्य-सांख्ययोगाचार्य डॉ० रुद्रदेव त्रिपाठी का दिल्ली से बम्बई आना हुआ, तब वे मुझे मिलने आये, उस समय मैंने उनसे कहा कि "पण्डितजी ! अब अकेले हाथों सभी उत्तरदायित्वों का वहन कर सकूँ ऐसी मेरी स्थिति नहीं रही, इस कार्य में अन्य कोई सहायक नहीं है. यह देखते हुए यदि अब मैं प्रस्तुत कार्य की ममता अथवा मोह पर पूर्ण थवा अर्धविराम नहीं लगाऊँ तो प्रस्तुत प्रकाशन प्रकाशनों का प्रकाश कब देखेंगे? यह चिन्ता बनी रहती है।" उन्होंने मेरी विवशतापूर्ण यह बात सुनी और सहृदयी परमोत्साही पण्डितजी ने मेरे कार्य में सहयोगी बनने को सहर्ष स्वीकृति दी। तब मैंने इन्हें 'स्तोत्रावली' तथा 'काव्यप्रकाश' की संशोधित एवं सम्पादित प्रेसकॉपियां छपाने के लिये दीं। दिये हुये कार्य को यथासमय करके प्रथम स्तोत्रावली' का मुद्रणसम्पादनादि कार्य पूरा किया और वह ग्रन्थ 'यशोभारती जैन प्रकाशन' के चतुर्थ पुष्प के रूप में प्रकाशित भी हो गया है। अब आज काव्यप्रकाश के एक अंश की टीका का प्रकाशन भी इनके पूर्ण परिश्रम के बाद प्रकाशित हो रहा है, अतः पण्डितजी को बहुत-बहुत हार्दिक धन्यवाद देता है। यह प्रकाशन मेरे द्वारा स्वीकृत पद्धति और दी गई सूचना तथा परामर्श के अनुसार होने से इस. का मुझे सन्तोष हुआ है। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादन की विधि इसका सम्पादन १-मूल, २ वृत्ति, ३-टीका, ४-अनुवाद तथा ५-पाद टिप्पण से युक्त होने से पञ्चपाठी हुआ है। साथ ही विद्वत्तापूर्ण विविध जानकारी से युक्त परिश्रमपूर्वक लिखा गया उपोद्घात है, जिसमें पण्डितजी ने विस्तार से अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों का परिचय, जैनाचार्यों द्वारा प्रणीत काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ, काव्यप्रकाश की विशिष्टता, इसकी अनेक टीकाओं का परिचय तथा प्रस्तुत टीका की समीक्षा दी है। इसके अतिरिक्त परिशिष्ट प्रादि से भी ग्रन्थ को अलङ कृत किया है। ___ कतिपय कठिन अथवा त्रुटित स्थलों के अनुसन्धान में तर्क-न्यायरत्न, सौजन्यमूर्ति, सहृदयी, विद्वद्वर्य पं. श्रीईश्वरचन्द्रजी शर्मा ने जो सहयोग दिया उसके लिये वे भी बहुत अभिनन्दन के अधिकारी हैं । प्रस्तुत टोका में क्या है ? काव्यप्रकाश के केवल दूसरे और तीसरे उल्लास पर प्रकाशित की गई इस टीका में पूज्य उपाध्यायजी ने 'काव्यगत शब्दार्थ स्वरूप-निरूपण' तथा 'अर्थव्यञ्जकता-निरूपण' से सम्बन्धित ऊहापोहों को नैयायिक शैली में प्रतिपादित करते हुए पूर्ववर्ती नौ टीकाकारों का (नामपूर्वक निर्देश करके) तथा प्रायः चौदह अन्य ग्रन्थकारों के मतों का विवेचेन किया है । इस विवेचन के प्रसङ्ग में उपाध्यायजी ने किसी तरह के साम्प्रदायिक दुराग्रह को स्थान नहीं दिया है अपितु तटस्थ रूप से ही अपने पूर्वगामियों के विविध मतों का उल्लेख करते हुए अपने मतों का उपस्थापन किया है और वह भी बहुत ही स्पष्टता के साथ किया है । कुछ प्रस्तुत कृति के सम्बन्ध में जैसा कि पहले कह गया हूँ उसके अनुसार पूज्य उपाध्याय जी के हस्ताक्षरवाली जो प्रति प्राप्त हुई उस प्रति में प्रारम्भ के १ से ६ पत्र नहीं हैं और सातवें पत्र से दूसरे और तीसरे उल्लास की टीका का प्रारम्भ हुआ है। अतः तर्क उठता है कि इन पूर्व पत्रों में क्या पहले उल्लास की टीका रही होगी जो कि उत्तरकाल में नष्ट हो गई होगी ? निर्णय करने के लिए कोई साधन उपलब्ध नहीं है, किन्तु दूसरे ढंग से विचार करने से ऐसा भी लगता है कि "उपाध्यायजी का प्रिय विषय 'न्यायावतार' पुरुष होने से नव्यन्याय का हो रहा है तथा नव्यन्याय का उपयोग किया जा सके ऐसे लाक्षणिक उल्लास मुख्यरूप से द्वितीय और तृतीय ही हैं । अतः इन दोनों पर ही उन्होंने टीका की होगी" ऐसा मानने के लिये मन अधिक प्रेरित होता है। पाण्डुलिपि के प्रारम्भ के छः पृष्ठ उनकी किसी अन्य कृति के भी हो सकते है जो नष्ट हो गये होंगे अथवा इससे पृथक हो गये होंगे । जो हो सो हो । यदि हेमचन्द्राचार्यजी कृत 'काव्यानुशासन' पर उपाध्यायजी द्वारा रचित 'अलंकार-चूडामणि' टीका उपलब्ध हो जाती तो कदाचित् काव्यप्रकाश के प्रथम अथवा अग्रिम उल्लासों पर उन्होंने टीका बनाई थी अथवा नहीं ? इसका निर्णय करना सरल हो जाता। दूसरा दुर्भाग्य यह है कि उपाध्यायजी की कुछ कृतियों की एक से अधिक हस्तलिखित प्रतिलिपियाँ भी उपलब्ध नहीं होती हैं। पाण्डुलिपि परिचय ___दो उल्लासवाली एक पाण्डुलिपि पालीताणा जैनसाहित्य मन्दिर' में स्थित 'श्री मुक्तिक मल मोहन ग्रन्थभण्डार' से प्राप्त हई थी किन्तु वह बहुत ही अशुद्ध थी। ऐसी ही पाण्डुलिपि दूसरे भण्डार से Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी मिली थी किन्तु यह पाण्डुलिपि किसी विशिष्ट परिचय को प्राप्त नहीं होने से मैं इसका परिचय नहीं दे रहा हूँ। कुछ समय पश्चात् उपाध्याय भगवन्त के स्वहस्त से लिखित पाण्डुलिपि जो प्राप्त हुई तथा जो आज 'श्री लालभाई दलपत भाई विद्यामन्दिर' में विद्यमान है उसी प्रति की फोटोस्टेट कॉपी मेरे पास है, जिसमें प्रारम्भ के १ से ६ तक के पत्र नहीं है और बीच में भी कोई-कोई पत्र नहीं है। ये पत्र एक समान अक्षरों से नहीं लिखे गये हैं । अक्षर छोटे-बड़े हैं और यही कारण है कि प्रतिपृष्ठ में पंक्तियों की संख्या में भी एक प्रमुख अर्थात् १६ से २२ पंक्ति का अन्तर देखने में आता है। इसीलिये प्रतिपङ्क्ति के अक्षरों की संख्या में भी अन्तर रहे यह स्वाभाविक है । यह अन्तर ५२ से ६२ अक्षरों के बीच का है । प्रति का आकार २५/११ सें० मीटर है। अभिवादन ___ अन्त में इस अवसर पर पूज्य गुरुदेव, सहायक, साधु, साध्वी, मेरे साथ कार्य करने वाले, संस्था के ट्रस्टी, मन्त्रीगण, नामी-अनामी सहायक तथा दानदाताओं आदि का मैं अभिवादन करता हूं। प्रकाशन-सम्बन्धी भावी चित्र उपाध्यायजी के अनेक ग्रन्थों का जो उत्तरदायित्व मेरे सिर पर था वह महाप्रभावक श्रीपार्श्वनाथ प्रभु तथा स्व० उपाध्यायजी महाराज, भगवती श्री पद्मावतीजी और श्री सरस्वतीजी एवं पूज्य गुरुदेवों की सत्कृपा से मेरे द्वारा अशक्य कोटि का ऐसा कार्य होते हुए भी शक्य होकर अब किनारे पहुंचने पाया है तथा मझे लगता है कि उनकी प्रसिद्ध छोटी-बड़ी समस्त कृतियों का प्रकाशन वि० सं० २०३३ में पर्ण हो जाएगा और वर्षों से मेरे सिर का भार इतने अंशों में हलका होने से परम प्रसन्नता और एक कर्तव्य के निर्वाह का श्वासोच्छ्वास लेने का भाग्यशाली बनूंगा। द्रुतविलम्बित छन्द की गति से चल रहे इस कार्य के प्रसंग में जनसंघ तथा मेरे सहयोगी कार्यकर्ता आदि का मैं पर्याप्त अपराधी बन गया था किन्तु अब इस अपराध से मुक्ति पाने के दिन निकट आ रहे हैं ऐसा लगता है। उसके पश्चात् सद्भाग्य होगा तो 'उपाध्यायजी, एक अध्ययन' (जीवन और कार्य) पर विस्तार से लिखना चाहता हूँ। तथा उपाध्यायजी की लगभग सभी गुजराती कृतियों वाला 'गुर्जरसाहित्यसंग्रह' उनके उस समय की भाषा में छपवाने तथा पुनर्मुद्रण की अपेक्षावाली कृतियों को छपाने और अनुवाद कराने की ओर लक्ष्य देने की धारणा बनाई है। यह धारणा कितनी फलीभूत होगी यह तो ज्ञानी जानें। जैनं जयति शासनम् । भाषाढ़ कृष्ण दशमी दि. २३/७/७६ बालकेश्वर, बम्बई Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રધાન સંપાદકનું પુરોવચન લે, મુનિયવિજ્ય ઉપામ : - વિદ્વાને એ અનુમાનિત રીતે નક્કી કરેલ સમય મુજબ અગિયારમી સદીના ઉત્તરાર્ધમાં વાગદેવતાવતાર જેવા મસટ નામના ગૃહસ્થાચાર્યશ્રીએ રચેલા કાવ્યપ્રકાશ' નામના સુવિખ્યાત ગ્રંથના બીજા અને ત્રીજે ઉલ્લાસ ઉપર, સત્તરમી સદીમાં થએલા તાકિ શિરોમણિ, ષઙર્શનત્તા, સંખ્યાબંધ પ્રથાના રચયિતા શ્રી પરમપૂજ્ય ઉપાધ્યાય શ્રીમદ્દ વિજયજી મહારાજે રચેલી ટીકા પહેલવહેલી જ પ્રગટ થઈ રહી છે, તે માટે સમગ્ર સાહિત્યાનુરાગી જગત્ આથી એક આનંદની લહરીને અનુભવ કર્યા વિના નહીં રહે. પણ તે અત્યન્ત આનંદ સાથે ગૌરવને પણ અનુભવ કરી રહ્યો છું, મારા માટે આનંદ અને ગૌરવનાં બે કારણે છે. પહેલું કારણ એ છે કે એક મહાપુરુષની સંસ્કૃત ભાષામાં રચાયેલી સાહિત્યાદિકના તથા કેટલાક દાર્શનિક સિદ્ધાન્તનું તર્કબદ્ધ વિવેચન કરનારી એક મહાન કૃતિના પ્રકાશનની જવાબદારીમાંથી હું મુક્ત થઈ રહ્યો છું અને તેથી એક પ્રકારની હળવાશ અનુભવી રહ્યો છું. બીજું કારણ ન્યાયપૂર્ણ ટીકા જેનું ભાષાંતર થવું દુઃશક્ય છતાં તેનું ભાષાંતર સુશક્ય બનીને હિન્દી ભાષાંતર સાથે આ કૃતિ પ્રચંટ થઈ રહી છે. સામાન્ય માન્યતા એવી છે કે તાનિયાયિ, કઠોર સ્વભાવવાળા હોય છે, કેમ કે તર્ક દલીલે, કે પદાર્થજ્ઞાનમાં કંઈ આનંદ નથી આવતા. તે ભેજાનું દહીં કરે તેવી બાબત છે, એટલે યાયિકે જલદી સાહિત્યકાર બનતા નથી, સાહિત્યકાર તે જ બની શકે કે જેના હૃદયમાં મૃદુતા-કોમલતા કે સરસતાનું પ્રમાણ વધુ હોય. એમ છતાં “વઝા હોfજ કૃમિ ન”િ ની કાલિદાસક્તિને ભજનારા આ મહર્ષિએ જરૂર પડે ત્યારે વેજથી પણ વધુ કઠોર-કડક થઈ શકે છે ને અવસરે ફુલ કરતાં યે વધુ સુકમલ હૃદયને અનુભવ કરાવે છે. વળી એમ પણ વિકતવાયકા છે કે શ્રેષ્ઠવિાને કાવ્યસાહિત્યના ક્ષેત્રને હીણું સમજે છે અને કહે છે કે પંડિત ન થઈ શકે તેવા લેકે 'કાવ્ય-કવિતાઓમાં ઝુકાવે છે. પરંતુ ઉપાધ્યાયજી માટે આ ઉક્તિ નિષ્ફળ પુરવાર થઈ અને એમણે ભારતીય સાહિત્યનિધિની એક ખ્યાતનામ કૃતિ ઉપર પિતાની કલમ ચલાવી પોતાની સર્વાગી પ્રતિભાનાં દર્શન કરાવ્યાં. અને એ દ્વારા જેને સાહિત્ય અને જેન શ્રીસંઘને ખરેખર ! ગૌરવ બક્યું છે. જ્ઞાન-વિજ્ઞાનની અનેક શાખાઓને પુપિત–પલ્લવિત કરવાની અદમ્ય ધગશ ધરાવનાર, પરોપકાર રસિક ઉપાધ્યાયજી શ્રીમદ્દ યશોવિજયજી જેવા બહુશ્રુત અને બહુમુખી વિદ્વાને કાવ્ય જેવા વિષયને પણ છોડ્યો નહિ અને આ રીતે જૈન શ્રીસંઘને ખરેખર ગૌરવ બક્યું છે. એક જ વ્યક્તિએ જ્ઞાનની વિવિધ શાખા-પ્રશાખા ઉપર એટલું વિપુલ અને વિસ્તૃત સાહિત્યનું સર્જન કર્યું છે કે જેનું મૂલ્યાંકન કરવું અતિ કિલષ્ટ છે. ૧. આ માટે એક ઉક્તિ પણ પ્રસિદ્ધ છે કે--સાપુ અા જવા મવતિ | શાસ્ત્ર ન ભણી શકે તે કવિ થાય છે. પણ ઉપાધ્યાયજી માટે આ ઉક્તિ ઘટમાન ન હતી. Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કાવ્યપ્રકાશ એક ગ્રન્થમણિ : કાવ્યપ્રકાશ (અપરનામ-સાહિત્યસત્ર) કાવ્યશાસ્ત્રની શ્રેણિમાં ‘ગ્રંથમણિ ગણાય છે. આ ગ્રન્થની રચના એટલી બધી અર્થગંભીર અને ઉંડા રહસ્યથી પૂર્ણ છે એને જ મેળવવા સમયે સમયે થયેલા અનેક વિદ્વાનોએ વિવિધ ટીકાઓ દ્વારા એની અર્થપૂર્ણતાને, તેમજ એની મહત્વપૂર્ણ વિલક્ષણ ખૂબીઓના ઉંડાણને માપવા અથાગ પ્રયત્નો કર્યા છે. આના ૫૨ રચવામાં આવેલી ૭૦થી વધુ ટીકાઓ એનો પ્રબળ પુરાવો છે. આટલા બધા વિવરણ-ટીકાઓ રચાયાં હોવા છતાં, આ વિષયના પારંગત વિદ્વાનોને મન, હજ પણ આ ગ્રંથ દુર્ગમ જ રહ્યો છે. અને એથી જ સમયે સમયે કોઈને કોઈ વિદ્વાનને કાવ્યપ્રકાશનું ખેતર ખેડવાનું મન લલચાયા વિના રહેતું નથી, આ ગ્રંથ ઉપર માત્ર સંસ્કૃતમાં જ ટીકાઓ છે એવું પણ નથી. વિવિધ પ્રદેશોની વિવિધ ભાષાઓમાં પણ આના ભાષાંતર થયાં છે અને થઈ રહ્યાં છે. કાવ્ય પ્રકાશની સર્વમાન્ય વિશિષ્ટતાઓ : કાવ્યપ્રકાશનું આ સાર્વભૌમ મહત્વ તેની વિશિષ્ટતાઓના કારણે સ્વયં પ્રફુટિત થયું છે. તેની વિશેષતાઓ શું છે, તેનું આ દિગદર્શન કરાવવું હોય તે આ રીતે કરાવી શકાય ૧. કાવ્ય સંબંધી આ પ્રાચીનકાળથી ચાલી આવતી માન્યતાઓનું મજબૂત પણે કરેલું વિશ્લેષણ ૨. પિતાના સમય સુધી નિશ્ચિત થએલા વિષયોનું તેમણે સુમરીતે કરેલું નિરીક્ષણ અને પરીક્ષણ. ૩. ખ્યાતનામ આનંદવર્ધન પ્રસ્થાપિત ત્રીજી શબ્દશક્તિ વ્યંજનાનું સમર્થન કરવા સાથે ધ્વનિની કરેલી પ્રતિષ્ઠા, વનિ સિદ્ધાન્તના વિરોધી એવા વૈયાકરણીઓ, સાહિત્યકાર, વેદાન્તીએ, મીમાંસક અને નૈયાયિકાએ ઉઠાવેલી આપત્તિઓનું પ્રબલ યુક્તિ દ્વારા ખંડન. ૪. વૈયાકરણ ગા, યાસ્ક, પાણિની વગેરે આચાર્ય દ્વારા પ્રતિપાદિત ૩૪માનાં લક્ષણો અને અલ. કારશાસ્ત્રનાં કેટલાક નિયમનું વ્યવસ્થિત વ્યવસ્થાપન. ૫. ભરતમુનિથી ભેજ સુધીના લગભગ ૧૨૦૦ વર્ષના સમય દરમિયાન ચર્ચાએલા અલંકાર શાસ્ત્રના વ્યાપક વિષયો ઉપર સ્વતંત્ર મન્થન કરી નવનીતની જેમ આપેલું સારભૂત વિવેચન, અલંકારનું યથાર્થ મૂલ્યાંકન, કાવ્યનું લક્ષણ, શબ્દશક્તિઓ, ધ્વનિરસસૂત્રગત અને નિષ્ઠ, દેષ, ગુણ, રીતિ અને અલંકારોનું કરેલું યથાર્થ મૂલ્યાંકન. ૧. કાવ્યાચા-ભામહ, દરડી, ઉદ્ભટ, વામન, સ્ટંટ વગેરે વિદ્વાનોએ જે કાવ્યશાસ્ત્ર વિષયક ગ્રંથ રરમાં તે બધાંય પદ્યમાં રચ્યાં છે, છતાં તેમને “સૂત્ર'ની સંજ્ઞા અપાઈ છે, પણ મમ્મટે નવી રાહ સ્વીકારીને ગંભીરાર્થકકારિકા અને વૃત્તિમાં સૂત્ર પદ્ધતિએ જ ગ્રન્થ રચના કરી છે, તેથી 'જ આ ગ્રન્થને સૂત્ર કહેવાય છે. તેમજ કાવ્યપ્રકાશના કેટલાય ટીકાકારોએ આ ગ્રન્થ માટે “સ શબ્દ પ્રયોગ પણ કર્યો છે. ૨. મ. મ. ગોકુલનાથ ઉપાધ્યાયે લખ્યું છે કે– मन्थानमन्दरगिरिभ्रमणप्रयत्नाद् रत्नानि कानि चनकेन चित्तानि । नन्वस्ति साम्प्रतमपारपययोधिपूर गर्भावरस्थगितऐषगणोऽमणीनाम् ॥ -ફા. પ્ર. ટીકા, Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩ ૬. પાતાનાથી પૂર્વે થઈ ગયેલા ગ્રન્થકારાની જ્ઞાતવ્ય ઉત્તમ બાબતાને સંગ્રહ અને ઉપેક્ષણીય બાબતાના પરિત્યાગ. ૭. સક્ષિપ્ત સૂત્રશૈલીમાં અનેક વિષયાનુ કરેલુ વ્યવસ્થિત સંકલન વગેરે. મમ્મટની બહુમુખી પ્રતિભા—પાણ્ડિત્યે વર્ણવેલી અનેક વિશેષતાઓના કારણે આ ગ્રન્થ એક આકર (ખાણુ) ગ્રન્થ બની ગયા છે. અને એ એટલા બધા સમાન્ય જેવા અને પ્રમાણભૂત બની ગયો છે કે અનેક ગ્રન્થકારાએ પોતાના ગ્રંથમાં ‘તત્યુત્ત' દાબ્યપ્રજાશે' એમ કહીને તેને અતિ સમાદર કરીને ગ્રંથની પ્રામાણિકતા ઉપર મહેાર-છાપ મારી આપી છે. મમ્મટ માત્ર કાવ્યશાસ્ત્રના જ જ્ઞાતા ન હતા. તેઓ વ્યાકરણ, વેદાન્ત, રમીમાંસા, ન્યાય, સાંખ્યાદિ શાસ્ત્રના પણ શ્લાઘનીય જ્ઞાતા હતા. જે વાત તેમના મૂલ અને ટીકાના વિવેચનથી પૂરવાર થાય છે. અન્ય દનેાના વિશાળ જ્ઞાનના કારણે જ રસાસ્વાદના સ્વરૂપદર્શનમાં બ્રહ્મરસાસ્વાદ જોડે તુલનાત્મક ચર્ચા કરી છે. માયા, પ્રપંચ કે માક્ષ પ્રાપ્તિને લગતાં આપેલાં ઉદાહરણા, રસાસ્વાદ, ખિતયેાગિતાજ્ઞાન, તેિતરજ્ઞાનની વિલક્ષણતા, નિર્વિકલ્પ તથા નિર્વિકલ્પક જ્ઞાનને વિષયક માનવું કે કેમ ? આ બધી બાબતે તેમના વેદાન્ત વિષયક વિશાળ જ્ઞાનને છતું કરે છે. વળી ન્યાયશાસ્ત્રના પણ તેઓ સારા જ્ઞાતા હતા. વળી ‘મમ્મટ' શબ્દ તેના અર્થ અને તેની શક્તિ વિષે ગંભીરપણે પ્રામાણિક વિવેચન કરે છે. તેમણે પર્ શબ્દની સત્ શબ્દ સાકાંક્ષતા અને નિરાકાંક્ષતાની ચર્ચા કરી છે. ત્યાં તેમની પડિતાઈ સ્પષ્ટપણે ઝળકી ઊઠી છે. અને ભીમસેનના ઉદ્ગારને જોઈએ તા તેમણે મમ્મટને વાવતાવતાર' અર્થાત્ સરસ્વતીના અવતાર જેવા કલા છે. અન્યપ્રકાશ મૂલના સ્વપ પશ્ચિય : હવે આપણે અહીં તા કાવ્ય પ્રકાશના સ્વલ્પ નામ માત્રના પિરચય કરીએ. આ ગ્રન્થનાં દશ ઉલ્લાસ છે. અને દરેક ઉલ્લાસ કોઈને કોઈ વિશિષ્ટ હેતુના પૂરક હોવાથી નીચે જણાવેલા નામ–વિષયથી અલંકૃત છે. પ્રથમ ઉલ્લાસ–કાવ્ય પ્રયાજન કારણ સ્વરૂપ વિશેષ નિય. દ્વિતીય ઉલ્લાસ-શબ્દાર્થ સ્વરૂપ નિણૅય. તૃતીય ઉલ્લાસ–અર્થ વૃં જક્તા નિય ચતુર્થં ઉલ્લાસ—ધ્વનિભેદ–પ્રભેદ નિરૂપણુ પંચમ ઉલ્લાસ—ધ્વનિ—ગુણીભૂત, વ્યંગ્ય સંકીર્ણભેદ નિરૂપણુ ષષ્ઠે ઉલ્લાસ-શબ્દાર્થ ચિત્ર નિરૂપણુ સપ્તમ ઉલ્લાસ–દોષ દર્શન અષ્ટમ ઉલ્લાસ–ગુણાલંકારભેદ નિયતગુણુ નિહ્ય, નવમ ઉલ્લાસ–શબ્દાલંકાર નિય, દશમ ઉલ્લાસ–અર્થાલંકાર નિર્ણય. આ પ્રમાણે વિષયા છે. ૧. જુઓ હા. ત્ર, સૂ, ૭ તેમજ પાંચમા ઉલ્લાસમાં મહિમભટ્ટ મતનું ખંડન ૨. હૈ, જિ. મંજૂષા તા કાવ્યપ્રકાશને પ્રમાણભૂત ગ્રન્થ લેખે છે. Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રતિપાદનની દષ્ટિએ મમ્મટ કારિકા-સૂત્રવૃત્તિ અને ઉદાહરણો દ્વારા વિષયને વ્યક્ત કર્યો છે. તેની રચનામાં સૂત્રાત્મક શૈલી હેવાથી અર્થમાંભીર્ય ઘણું છે. સૂત્રમાં સંક્ષિપ્તસૂચક સીમીત શબ્દ પ્રયોગોના કારણે ગ્રન્થ સદા કિલષ્ટ અને દુર્ગમ લાગે તે સ્વાભાવિક છે. કેટલાંક ઉદાહરણુદિ પણ દુર્ગમ દેજવાળાં છે. અને આજ કારણે એને સમજાવવા માટે જાતજાતના વિદાએ ટીકાઓ રચી તેથી ટીકાની સંખ્યાનું પ્રમાણ અદૂભૂત કહી શકાય તેવા આંકડે પહોંચી ગયું છે. મને લાગે છે કે સંસ્કૃતમાં આ એક જ ગ્રન્થ હશે કે જેના પર લગભર્ગ સે સો ટીકાઓ રચાઈ હેય ! ઉપાધ્યાયજી કૃત પ્રસ્તુત ટીકા અંગે : કાવ્યપ્રકાશના માત્ર બે ઉલ્લાસ પૂરતી રચેલી ઉપાધ્યાયજી કૃત પ્રસ્તુત ટીકાને ઉલ્લેખ જૈનઅજેન કેઈએ કર્યો નથી. ફક્ત કેટલાક જૈન વિદ્વાનને જ જૈન જ્ઞાન–ભંડારમાંથી કાવ્યપ્રકાશની પિાથી ઉપલબ્ધ થતાં એનો ખ્યાલ હતા. પ્રાપ્ય પોથી વધુ પડતી ખંડિત અને અશુદ્ધ હતી, એની નકલ થઈ તે પણ તેવી જ થઈ અને વધુ પડતી અશુદ્ધિ હોવાનાં કારણે જ કદાચ આ કૃતિ પ્રકાશિત કરવાને ઉત્સાહ કોઈને જાગ્યો નહીં હોય, નહીંતર બીજી કૃતિઓ જેમાં પ્રકાશિત થઈ તેમ આ પણ થઈ હોત ! યાત્મા શ્રી પુણ્યવિજ્યજીની પ્રેસ કેપી: એવામાં મારા સાહદયી આત્મમિત્ર, પ્રખરસંશોધક, વિદર્ભ, સ્વર્ગસ્થ આગમ પ્રભાકર પુરજામધેય શ્રી પુણ્યવિજયજી મહારાજ જેઓશ્રીને અક્ષર દેહ આ ધરતી પર વિદામાન નથી. અને જેમની સ્મૃતિ આજે પણ લાગણી વિવશ બનાવે છે. જેઓશ્રીને મારા પર હાર્દિક પ્રેમ અને અકારણ પણ પાત હતા અને મારા પ્રત્યે આત્મીય શ્રદ્ધા રાખતા હતા. તેઓની પાસે મારે વ ર્ષ ઉર રહેવાનું થયું. ત્યારે ઉપાધ્યાયજી અંગેની જે કંઈ સામગ્રી તેઓશ્રી પાસે હતી તે મને આપઢા માંડી. તેમાં તેઓશ્રીએ પોતે સ્વહસ્તે લખેલી કાવ્યપ્રકાશની પ્રેસ કોપી પણ ખૂબ ઉત્સાહ અને ઉદારતાથી મને જાણ કરી. એ કેપીના મોતી જેવા સુંદર અક્ષરો, સુસ્પષ્ટ અને સુંદર મરોડવાળી એક સર્વમાન્ય કિતિની ઉપાધ્યાયજીની પ્રેસ કેપી જોઈ મેં અનહદ આનંદ અનુભવ્યું. મને થયું કે અન્ય મહત્વનાં અનેક કાર્યો વચ્ચે પણ તેઓશ્રીની શ્રુતભક્તિની કેવી લગન ! અમે ‘ઉપાધ્યિાયજી પ્રત્યેની અનન્ય લાગણી ! સમય કાઢીને (કિલષ્ટ હસ્ત પ્રત ઉપરથી) સ્વયં પ્રેસ કેપી કરી. તેઓશ્રીની પ્રેસ કોપી એટલે સર્વાગ સુવ્યવસ્થિત નકલનાં દર્શન. તેઓશ્રીની લેખિત પ્રેસ કેપીમો ટેબ્લેક આ ગ્રન્થમાં છાપ્યો છે તે જુઓ. વર્ષો બાદ આ પ્રેસ કોપીનું કાર્ય હાથ પર લીધું અને અમારા હસ્તકના શ્રીમુક્તિ કમલ જૈન મહા१. काव्यप्रकाशस्य कृता गृहे गृहे तथाप्येष तथैव दुर्गमः ।। सुखेन विशातुमिमं य ईहते धीरः स एतां निपुणं त्रिलोक्यताम् ।। ટીકાકાર મહેશ્વરાચાર્ય.. - , , , - સંપાદક પંડિત શ્રી શુકદેવજીએ લગભગ તમામ ટીકાઓ અને ટીકાકાને સુંદર પંધિય આ ગ્રન્થના ઉદ્દઘાતમાં આપ્યો છે. ૩. ઉપાધ્યાયજીએ વધુ ઉલ્લાસ પર ટીકા કરી હોય એવો કોઈ પુરાવો મળે નથી. એમના સના આતના ઉલ્લાસ આ બે જ હતા. અનુમાનતઃ લાગે કે કાવ્યપ્રકાશના અન્યભાગને સ્પસ્ય વહીં બk , Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ માલાની અને બીજ ભંડારની, એમ બે ભંડારોની બે પ્રતિએ મંગાવી, અન્યત્ર આ પી ને ન હતી. આ બન્ને પ્રતિઓ ઠીક ઠીક રીતે અશુદ્ધ અને પાઠોથી ખંડિત હતી. એમ છતાં બન્ને પ્રતિ એક બીજાને કયાંક કયાંક પૂરક થાય તેવી હેવાથી તે પ્રેસ કેપી સાથે મેળવવામાં ક્યાંક ક્યાંક સહાયક બની. અને તે પછી તે ઉપરથી તદ્દન નવી જ પ્રેસ કેપી તૈયાર કરાવી. ઉપાધ્યાયના સ્વસ્થતાક્ષરની મળી આવેલી પ્રતિ - આ પ્રેસ કોપી તૈયાર થયા બાદ અમદાવાદના ભંડારમાંથી પુણ્યાત્મા મુનિપ્રવર શ્રી પુણ્યવિજયજી મહારાજને ખુદ ઉપાધ્યાયજીના હાથની લખેલી પ્રતિ મળી ગઈ. તેઓશ્રીએ મને તપ્ત જ શુભ સમાચાર પાઠવ્યા અને મારા માટે તેઓશ્રીએ તરત જ ફોસ્ટેટ પી લેવડાવી મને મોક્લી આપી. મેં જોઈ પ્રસ્તુત પોથીને ભાવભીનું નમન કર્યું. મારા આનંદનો પાર રહ્યો નહિ. ચેકચાક વિનાની, સુંદર અક્ષરમાં લખાયેલી પ્રતિ જેવી એ પણ એક હા છે. આ પોથી મળતાં તૈયાર થયેલી પ્રેસ કોપી જોડે મેં મેળવી લીધી. અને ખંડિત પાઠ પૂર્ણ કર્યા. પરિશ્રમ ખૂબ થયો પણ અશુદ્ધ પાઠો શુદ્ધ થવા પામ્યા એટલે હળવે થઈ ગયો અને ફળસ્વરૂપે મને પરમતેય થયે હવે આ કૃતિ તદ્દન શુદ્ધ પાઠ રૂપે આપી શકીશું એમ થયું. - વર્ષો સુધી આ પ્રેસ કેપી મારા પાસે પડી રહી. બીજા કામે ચાલતાં હતા એટલે તે રાખી મૂકી હતી. કાવ્યપ્રકાશના આઇ ટીકાકાર કરું? કાવ્યપ્રકાશની રચના અગિયારમી સદીના ઉત્તરાર્ધમાં થઈ અને તે પછી એ મળ્યા યથાર્થ અર્થનું જ્ઞાન કરાવવા માટે પહેલી જ ટીકા રચવાનું માન એક જૈનાચાર્યના જ ફાળે આવ્યું. એ ધને પિણ જેને માટે ગૌરવરૂપ બની. આ આચાર્યશ્રીજીનું નામ હતું માણિજ્યચન્દ્રજી. સહુથી પ્રાચીન ટીકાકાર તરીકે તે પ્રસિલિને પામ્યા. એમને ટીકાનું નામકરણ સંત રાખ્યું. અને એની રચના વિ. સં. ૧૦૧૬ (ઈ. સ. ૧૧૬૦)માં થઈ છે, ત્યાર પછી લગભગ સાડા પાંચ સૈકાઓ વીત્યાબાદ ૧૭–૧૮મી શતાબ્દિમાં ઉપાધ્યાયજીએ નિબન્યાયની પદ્ધતિને માધ્યમ બનાવીને બે ઉલ્લાસની કરેલી ટીકા આજે પ્રગટ થઈ રહી છે. ' આ ગ્રન્થની ટીકા વિદ્યાર્થી આલમમાં વધુ પ્રચલિત બને એ માટે તેનું ભાષાંતર કરાવવું સમુચિત જણી તેની જવાબદારી વ્યાકરણ સાહિત્યાચાર્ય ડે. શ્રી હર્ષનાથમિશ્રને સોંપવામાં આવી હતી. તેઓએ પણ આ કિલષ્ટ કાર્યને પૂરા ઉત્સાહથી પાર પાડ્યું તે બદલ તેઓ પણ ધન્યવાદાઈ બન્યા છે.' . આજના યુગમાં આ અને આના જેવા દુર્ગમ ગણાતા ગ્રન્થના પઠનપાઠનને મારે ખૂબ ઉતરી ગ છે. એટલે આ ગ્રન્થને ભણનારા ઈન, મન, તીન નીકળે તેય અહેભાગ્ય ! પણ અમારે ઉદ્દેશ ભૂતકાળમાં, કાળની ગર્તામાં તેઓશ્રીની અનેક કૃતિઓ ગરકાવ થઈ ગઈ, તેવું હવે ન બને અને તે કૃતિઓ સુરક્ષિત બની રહે, એટલા ખાતર જ આ પ્રયત્ન છે, જેનધર્મને સિદ્ધાન્ત છે કે તેમાંથી એક વ્યક્તિ ધર્મ પાળે તે ય સામાને પુરુષાર્થ સફળ છે. પ્રસિદ્ધ નાટકકાર આચાર્યશ્રી ભવભૂતિને સર્વત્ર મન જોષિ સમાન ની શક્તિ વિચારીએ ત્યારે ભાવિકાળમાં બીજા યશોવિજયને પકવવામાં આ કૃતિઓ જે નિમિત્ત બનશે ત્યારે ખરેખર ! અમારા પ્રયાસ સફળતાને વરશે. Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સારી ભાવના, ચિંતા અને અન્યવાદઃ મારા મનમાં વર્ષાથી એક ઉમળકા—એક ઝંખના રહેતી હતી કે, ‘પૂ॰ ઉપાધ્યાયજીની મારાથી શકય એવી કૃતિઓનાં સંશાધન, સપાદન કે અનુવાદ કરવાનું કાર્યાં હું પાતે જ કરીને તેઓશ્રીની શ્રુતસેવાના યુકિચિત લાભ હું શા માટે ન લઉ” ? એટલે હું હરસાલ આ માટે યથાયોગ્ય યથાશક્તિ પ્રયત્નશીલ રહેતા. પણ પ્રથમ તા મારા નિત્યમિત્ર શરીરની ચિરસ્થાયી બનેલી પ્રતિકૂળતા અને એના લીધે ઊભા થતાં કાર્યાતરાયા અને ખીજું મારી વિવિધ કારણેા સર વિવિધ રાકાણા, આ કારણે મને થયું કે હવે મારે એ' દિશાના મમતા કે મેાહ જતા કરવાં જાઈએ. પણ સાથે એ વિચાર આવતા કે મેાહ–મમતા જતા તા કરે પણ મારા કાર્ય બાજ ઉપાડનાર જો કાઈ ન મળે તે! શું ? દરમિયાન ભલે લાંબા ગાળે પણ મારા જુના મિત્ર યાગ—સાંખ્યાચાય* શ્રી સ્વદેવજી ત્રિપાડીને દિલ્હીથી મુંબઈ આવવાનું થયું, ત્યારે તેઓ મને મળવા આવ્યા, ત્યારે તેમને મેં કહ્યું કે પડિતજી હવે એકલા હાથે બધી જ જવાબદારી વહન કરી શકું તેવી સ્થિતિ મારી નથી રહી અને આ બાબતમાં મને અન્ય કાઈ સહાયક નથી, એ જોતાં જો હવે પ્રસ્તુત કાની મમતા કે મેાહ ઉપર પૂર્ણવિરામ કે અધ વિરામ હુ" નહીં મૂકું તા પ્રસ્તુત પ્રકાશને, મહાશનના પ્રકાશ જ્યારે જોશે? એ ચિંતા રહે છે ! તેમણે મારી આ ભરી વાત સાંભળી. સહૃદયી, પરમેાત્સાહી પડિતજીએ મારા કાના સહકારી થવાની સહ સ્વીકૃતિ આપી, અને મે એમને સ્તાત્રાવલી' અને કાવ્યપ્રકાશ'ની મારી સશાધિત અને સંપાતિ પ્રેસ કાપીએ છાપવા માટે આપી, સાંપેલુ” કા યથાસમયે કરીને પ્રથમ સ્તાત્રાવલીનું મુદ્રણ, સપાદનાદિ કાય પાર પાડયુ, જે પ્રકાશન યશાભારતીના ચેાથા પુષ્પ તરીકે પ્રકાશિત પણ થઈ ગયું. હવે આજે યશાભારતીના પાંચમા પુષ્પ તરીકે કાવ્યપ્રકાશના એક અશનું પ્રકાશન પણ તેમના પૂરા પરિશ્રમને અંતે પ્રકાશિત થઈ રહ્યું છે ત્યારે પતિને ખૂબ હાર્દિક ધન્યવાદ આપું છું. આ પ્રકાશન મારી પસંદ કરેલી પદ્ધતિ અને આપેલી સૂચના સલાહને અનુસરીને પડિતજીએ કર્યું" હાવાથી તેના મને સતાષ ઉપજ્યા છે, સપાદન અગે આ. પ્રકાશન ૧. મૂળ, ૨. વૃત્તિ, ૩. ટીકા, ૪. અનુવાદ તથા ૫. પાઇટિપ્પણુથી પંચપાડી બન્યુ છે, સાથે વિદ્વત્તાપૂર્ણ અને માહિતીપૂર્ણ પરિશ્રમપૂર્વક લખેલા ઉપાદ્ઘાત છે. જેમાં પડિતજીએ વિસ્તારથી અનેક મહત્વપૂર્ણ વિષયાનેા પરિચય, જૈનાચાર્યો દ્વારા પ્રણીત કાવ્યશાસ્ત્રીય ગ્રન્થા, કાવ્યપ્રકાશની વિશિષ્ટતા, તેની અનેક ટીકાઓને પરિચય, તેમજ પ્રસ્તુત ટીકાની સમીક્ષા આપી છે. ઉપરાંત પરિશિષ્ટાદિ વગેરેથી ગ્રન્થને અલંકૃત કર્યો છે. કેટલાંક કઠિન કે ત્રુટિત સ્થળાના અનુસંધાનમાં તર્ક ન્યાયરત્ન સૌજન્યમૂતિ, સહૃદયી, વિદ્વ પં. શ્રી ઈશ્વરચંદ્રજી શર્માએ જે સહયેાગ આપ્યા તે માટે તે પણ ખૂબ અભિનંદનના અધિકારી છે. પ્રસ્તુત ટીકામાં શુ છે ? કાવ્યપ્રકાશના માત્ર ખીન ઉલ્લાસ ઉપર પ્રકાશિત થએલી આ ટીકામાં પૂજ્ય ઉપાધ્યાયજીએ કાવ્યંગત શબ્દાર્થ સ્વરૂપ નિરૂપણ અને અર્થવ્ય‘જકતા નિરુપણ'ને લગતા ઉહાપાહાન નૈયાયિક શૈલીમાં પ્રતિપાદન કરતાં લગભગ પૃવી નવ ટીકાકારોના નામપૂર્વક નિર્દેશ કર્યો છે, અને લગભગ ચૌદ વિભિન્ન ગ્રન્થકારાનાં મતાનુ` વિવેચન કર્યું' છે. આ વિવેચન પ્રસ`ગે ઉપાધ્યાયજીએ કાઈ સાંપ્રદાયિક Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ e દુરાગ્રહ સેવ્યો નથી. પણ તટસ્થ રીતે જ પેાતાના પુરાશામીના વિવિધ મતાના ઉલ્લેખ કરવા સાથે પોતાને માન્ય મતાનું ઉપસ્થાપન કર્યું છે, અને તે ઘણી સ્પષ્ટતા સાથે કર્યું” છે, પ્રસ્તુત કૃતિ અ ંગે કંઈક પહેલા કહી ગયા તેમ પૂજ્ય ઉપાધ્યાયજીના હસ્તાક્ષરવાળી જે પ્રતિ મળી તે પ્રતિમાં શરૂઆતના ૧ થી ૬ પાનાં નથી, સાતમા પાગાથી ખીન્ન ત્રીજા ઉલ્લાસની ટીકાના પ્રારંભ થાય છે, એટલે સહેજે તર્ક થાય કે શું પહેલા ઉલ્લાસની ટીકા હશે અને તે ટીકા પાછળથી નષ્ટ થઈ ગઈ હશે ? નિય કરવાને માટે કાઈ સાધન ઉપલબ્ધ નથી, પણુ ખીજી રીતે વિચારતાં એમ પણ લાગે કે ઉપાધ્યાયજી પોતે ન્યાયાવતાર' પુરુષ હેાવાથી તેમના પ્રિય વિષય નવ્યન્યાયનેાજ રહ્યો છે, અને નવ્યન્યાયને ઉપયોગ કરી શકાય તેવા લાક્ષણિક ઉલ્લાસા મુખ્યત્વે ખીજા--ત્રીજા ખેજ છે, એટલે આ બે જ ઉપર ટીકા કરી હેાય તેમ માનવા મન વધુ પ્રેરાય. પ્રતિના શરૂઆતના છ પાનાં એમનો ખીજી કાઈ કૃતિના પણ હેાઈ શકે, જે નષ્ટ થઈ ગયાં હોય કાં અલગ પડી ગયા હાય, જે ડાય જો હેમચન્દ્રાચાર્યજી કૃત કાવ્યાનુશાસન ઉપરથી ઉપાધ્યાયજીએ રચેલી ‘અલ”કાર ચૂડામણિ' ટીકાઉપલબ્ધ થઈ હાત તા કદાચ કાવ્યપ્રકાશના આદ્ય કે અગ્રિમ ઉલ્લાસે પર ટીકા કરી હતી કે મ? તેને નિÖય કરવાનું કદાચ સરળ થાત. ખીજી કમનસીબી એ છે કે ઉપાધ્યાયજીની કેટલીક કૃતિઓની એકથી વધુ હસ્તલિખિત નકલ ઉપલબ્ધ હેાતી નથી. પ્રતિ પરિચય : ખે ઉલ્લાસવાળી એક પ્રતિ પાલીતાણા જૈનસાહિત્યમંદિરમાં રહેલા શ્રો મુક્તિકમલ જૈનમેાહન ગ્રન્થ ભંડાર'માંથી મળી હતી. પણ તે ઘણી જ અશુદ્ધ હતી. આવી જ પ્રતિ ખીન્ન ભડારમાંથી મળી હતી. પણ તે ઘણી જ અશુદ્ધ હતો. આવીજ અશુદ્ધ પ્રતિ બીજા ભંડારમાંથી પણ મળી હતી. આ પ્રતિ કાઈ વિશિષ્ટ પરિચયને પ્રાપ્ત ન હેાવાથી તેના પરિચય આપતા નથી. સામાન્ય રીતે એક પ્રતિ ઢાઈએ ઉતારી મેટા ભાગે તેના ઉપરથીજ ખીજી નકલા થતી હતી. એટલે જેવી પહેલી હોય તેવા જ ખીજીના જન્મ થાય. પાછળથી ઉપાધ્યાયજી ભગવંતે સ્વહસ્તે લખેલી પ્રતિ જે મળી અને જે પ્રતિ આજે શ્રી લાલભાઈ દલપતભાઇ વિદ્યામંદિર'માં વિદ્યમાન છે, તેજ પ્રતિની ફાટાસ્ટેટ' ક્રાપી મારી પાસે છે. જેમાં પ્રારંભના ૧ થી ૬ પાનાં નથી. અને વચમાં પણ કાઈ કાઈ પાનાં નથી આ પાનાં એક સરખાં માપનાં અક્ષરાથી લખાયાં નથી. અક્ષરા નાનાં મેટાં છે, અને એના કારણે પ્રતિપૃષ્ઠમાં લીંટીઓની સખ્યામાં પણ સારા એવે એટલે ૨૨ થી ૧૬ ૫ક્તિ વચ્ચેના તફાવત જોવા મળે છે. એથી જ પ્રતિ પ"ક્તિના અક્ષરાનાં ધારણમાં પણ તફાવત રહે તે સ્વાભાવિક છે. આ તફાવત ૬૨ થી પર અક્ષર વચ્ચેના છે પ્રતિને આકાર ૨૫ × ૧૧ સે, મીટરનેા છે. અભિવાદન અન્તમાં આ તકે પરમપૂજ્ય ગુરુદેવા, સહાયક સાધુ-સાધ્વીઓ, મારા સહકાર્યકરા, સંસ્થાના ટ્રસ્ટી–મંત્રીઓ, નામી અનામી સહાયકા અને દાતારા વગેરેનું અભિવાદન કરૂ છે, Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મકાન અગેનું વિચિત્ર ઉપાધ્યાયજીના સંખ્યાબબ્ધ ગ્રન્થની જે જવાબદારી શિરે હતી તે, મહાપ્રભાવક ભગવાનની પાર્શ્વનાથ પ્રભ, ઉપાધ્યાયજી મહારાજ, ભગવતીશ્રી પદ્માવતી દેવી, શ્રી સરસ્વતીજી અને પૂ. ગુરુદેવાની. સતકૃપાથી અને નિત્યકર્મમાં સહાયક મુનિરાજ શ્રી વાચસ્પતિવિજ્યજીં આદિના સહકારથી, મારાથી અશક્ય લટિનું કાર્ય પણ શકય બનીને હવે કિનારે પહોંચવા આવ્યું છે, અને લાગે છે કે તેઓશ્રીની અપ્રસિદ્ધ નાની મોટી તમામ કૃતિઓનું પ્રકાશન ૨૦૩૩ માં પૂર્ણ થશે અને ત્યારે વર્ષોથી મારા શિર પર ભાર આટલા પૂરત હળવો થતાં પરમ પ્રસન્નતા અને એક ફરજ અદા કર્યાને શ્વાસોચ્છવાસ લેવા ભાગ્યશાળી બનીશ ! કુત્તાવિલાબિત છન્દની ગતિથી થઈ રહેલા આ કાર્ય અંગે જૈન સંઘ, મારા સહકાર્યકરે વગેરેને હું છક ઠીક અપરાધી બની ગયા હતા, પણ હવે આ અપરાધમાંથી મુક્તિ મેળવવાના દિવસે નજીક આવી રહ્યા છે એમ લાગે છે. તે પછી સદ્દભાગ્ય હશે તે ઉપાધ્યાયજી એક અધ્યયન (જીવન અને કાર્ય) ઉપર એક નવા દષ્ટિથી વિસ્તારથી લખવા ઈચ્છું છું. તેમ જ ઉપાધ્યાયજીની લગભગ તમામ ગુજરાતી કૃતિઓવાળા ગુર્જર સહિત્ય સંગ્રહ તેઓશ્રીવી તે વખતની ભાષામાં છપાવવા તેમજ પુનર્મુદ્રણ માગતી કૃતિઓ છપાવવા અને અનુવાલન કરાવવા તરફ લક્ષ્ય આપવા ધારણા રાખી છે, તે કેટલી ફળશે તે તે જ્ઞાની જાણે! . જૈન જ્ઞાતિ જનમ્ | ૧. ઉપાધ્યાયજીની લગભગ નાની મોટી તમામ ગુજરાતી કૃતિઓ આ સંગ્રહની અંદ જે આજે અનુપ્લબ્ધ છે. કાં તો જે રીતે છપાય તે રીતે મુકિત થઈ શકે અર્થ આજે લોકમુખે ચઢાવવા માટે આજ ઉપયોગી બને. પણ ભાષાશાસ્ત્રીઓ માટે તે તે વખતની ભાષામાં છપાયેલ સંગ્રહ ઉપયોગી બને. આ કૃતિનું નામકરણ તે વખતના સંજોગોની સામે ભલે ગુર્જર સાહિત્ય સંગ્રહ.” રાખ્યું પણ તેથી આ કૃતિ જનની છે કે જન કૃતિઓની છે એને લેશમાત્ર ખ્યાલ આવે તેમ નથી તે પછી ઉપાધ્યાયજીની કૃતિને આ સંપ્રડ છે એ જાણવાની વાત જ કયાં રહો ! કન Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपोद्घात काव्यशास्त्र के आलोक में - काव्यप्रकाश, उसका टीका-साहित्य एवं प्रस्तुत टीका - एक समीक्षात्मक अनुचिन्तन कवि और काव्य 'कवि' शब्द वेदों में अनेक बार प्रयुक्त हुआ है। वहाँ इस शब्द के प्रयोग अग्नि, सूर्य, सोम, मेधावी, अनुचान तथा कान्तदर्शी के अर्थों में किए गए हैं । यही शब्द 'उपनिषद् युग' में ब्रह्म का बाचक बना और कालान्तर में भी अपनी मूल धुरी के आसपास घूमनेवाले अर्थों को संवृत करता हुआ पर्याप्त प्रख्यात बन गया। आज जिस अर्थ में कवि शब्द रूढ है उसकी पूर्वभूमिका बहुत रोचक है जिसे हम संक्षेप में इस प्रकार जान सकते हैं संस्कृत व्याकरण के अनुसार वर्णनार्थक 'क' धातु से इसकी निष्पत्ति हुई है।' 'क शब्दे' और 'कुछ शब्दे' जैसे शब्दार्थक कु धातु भी इस शब्द की सिद्धि के स्रोत माने गए हैं और व्युत्पत्ति होती है 'कवते (भ्वादि), कौति (प्रदादि), कवति (तुदादि) और 'कवयतीति वा कविः' इस प्रकार व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-वर्णन स्तुति करनेवाला= कवि । मधु'मन्तं तनूनपाझं दे बेषु' नः कवे । प्रद्या कृणुहि दीतये ॥ १।११२४ ॥ कविमग्निमुपस्तुहि सत्यधर्माणमध्यरे।' - देवममीवचातन ॥ १।१।२३ ॥ इत्यादि कहते हुए अग्नि को पहले कवि कहा है जबकि अन्यत्र 'कविक्रतु'-कवि की प्रज्ञा बतलाया है।' यही कवि 'अनूचान, स्तोता, स्तुतिगायक, अङ्गिरा, गवेषक और बृहस्पति' के रूप में व्यक्त किया गया है गणानां त्वा गणपति हवामहे कवि कवीनामुपश्रवस्तमम्' । ज्येष्ठराजं ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पत मानः शृण्वन्नतिभिः सीदसादनम् ।। १. 'कवि शब्दश्च 'कवृ वर्णनो (स्तुतौ च)' (इत्यस्य धातो: काव्यकर्मणो रूपम् । -काव्यमीमांसा-३३११३ २. 'अग्निर्होता कविक्रतुः' इत्यादि । (ऋ० १२११५) Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ इसी प्रकार 'अंशुं दुहन्ति स्तनयन्तमक्षितं कवि कवयोऽपसो मनीषिणः ।१ तथा- उदीरय कवितमं कवीनामुनत्तमभि मध्वा · श्रुतेव ।२ इत्यादि मन्त्रों में सोम और सूर्य के अर्थों में कवि शब्द का प्रयोग हमा है। एतरेय ब्राह्मण में कवि का 'पितर'' और शतपथ में 'विद्वान्' अर्थ अभिप्रेत है किन्तु उपनिषदों में प्राय: कवि शब्द का प्रयोग ब्रह्म के लिए ही हुआ है । यथा-- स पर्यगाच्छुकमकायमवरणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम् । कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान व्यवधाच्छाश्वतीम्य: समाभ्यः । । यही ब्रह्म उत्तरकाल में प्रकृति-तत्त्वान्वेषी, सामाजिक नेता, विचारक ऋषि आदि विभिन्न स्तरों को पार करता हा प्रजापति के रूप में शब्दसृष्टि का यथेच्छ-विधाता कहलाया। अपारे काव्यसंसारे कविरेव प्रजापतिः । यथाऽस्मै रोचते विश्वं तत्तथा परिवर्तते ॥ ऐसे कवि का कर्म ही 'काव्य' कहलाता है। कवि कभी अपने मानस-प्रत्यक्ष से और कभी जागतिक-प्रत्यक्ष से भावों को जब शब्ददेह प्रदान करता है तो उसे काव्य की संज्ञा दी जाती है। नैसगिक लावण्य से युक्त गद्य-मयी, पद्यमयी अथवा उभयरूप सङ्कलना की कोई एक इकाई 'काव्य' के रूप में जनमानस को आन्दोलित करती है, हठात् अपनी ओर आकृष्ट करती है और भावों के सरोवर में नहला कर एक अपूर्व आनन्द प्रदान करती है। लौकिक काव्य का प्रारम्भिक स्वरूप केवल 'सूक्ति' तक ही सीमित था । तत्कालीन समाज गोष्ठियों में कवि के मुख से किसी अनूठी सूक्ति को सुनने के लिए उत्कण्ठित रहता था । गुप्त सम्राट् (समुद्रगुप्त) (३२० से ३७८ ई०) के प्रयाग के अभिलेख (३५० ई०) में कहा गया है कि अध्येयः सूक्तमार्ग्यः कविमतिविभवोत्सारणं चापि काव्यं, को नु स्याद् योऽस्य न स्याद् गुरगमति विदुषां ध्यानपात्रं य एकः ।। इसके अनुसार--सूक्तमार्ग की जिसकी सुभाषित-रचनाएँ पठनीय हैं और जिसका काव्य भी अच्छी सक्तियों के कारण अन्य कवियों के कल्पना विभव को उखाड़ देनेवाला है' इत्यादि कहते हुए सूक्ति को काव्य का तत्त्व व्यक्त किया है। राजशेखर ने भी कवि की वाणी-काव्य को सूक्तिधेनु कहा है या दुग्धापि न दुग्धेव कविदोग्धभिरन्वहम् । हृदि नः सन्निधत्तां सा सुक्तिधेनुः सरस्वती ॥ -काव्यमीमांसां अ०३ १. ऋग्वेद ८।७२।६। २ वहीं ५।४२॥३॥ ३. ए व तेन पूर्वे प्रेतास्ते वै कवयः ।६।२०। ४. ये वै विद्वांसस्ते कवयः ७११४।४। ५. ईशावास्योपनिषद्, ८ । ६. साहित्यदर्पण, प्रथम परिच्छेद-विश्वनाथ । ७. कवेः कर्म स्मृतं काव्यम् । काव्यकौतुक-भट्टतौत Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - इसीलिए साधक कवि भगवती सरस्वती से थिरकती हुई सूक्तियों की कामना करते थे' और सर्वत्र सूक्ति, सुभा. षित और काव्य समानार्थक बनकर प्रयुक्त होते थे। ये ही सूक्तिगर्भ रचनाएँ उत्तरोत्तर विकसित होकर काव्य के प्रमुख उपादान शब्द के श्रव्य-धर्म और अर्थ के भावो दबोधन-धर्म को अधिक प्रश्रय देती हुईं भावनाओं का उद्दीपन, अनुरञ्जना एवं अलङ्करण को आत्मसात् करने लगी। 'काव्य' का कलेवर एवं उस कलेवर का रचना-विधान परिष्कृत रूप लेकर प्रकट होने लगा। इसका एक अच्छा परिणाम यह भी निकला कि-'प्रारम्भ में कवि केवल उपदेशक माना जाता था, वह अपनी अभिव्यञ्जना-शैली के कारण सम्मोहन-मन्त्र-पाठक बन गया । उसकी वाणी का तात्पर्य ज्ञात न होनेपर भी लोग चित्रवत् स्थित होकर उस का आनन्द लेने लगे । कविवर जगद्धर ने ठीक ही कहा हैशब्दार्थमात्रमपि ये न विदन्ति तेऽपि, यां मर्छनामिव मृगाः श्रवणैः पिबन्तः । संरुद्ध-सर्वकरण-प्रसरा भवन्ति, चित्रस्थिता इव कवीन्द्रगिरं नुमस्ताम् ॥ -स्तुति कुसुमाञ्जलि ५। १७ । काव्यशास्त्र का उदय और परम्परा 'जब वस्तु का विस्तार होता है तो ग्राहक-वर्ग उसकी तरतमता का विचार करता है।' अनवरत काव्य सृष्टि ने सहृदय श्रोताओं को तथा पाठकों को उसके अतिशय गुणों को परखने के लिए प्रेरित किया । फलतः विभिन्न तत्त्वज्ञों ने काव्य के मामिक तत्त्व इंढ निकाले । 'ध्वन्यात्मकता, लयात्मकता, लाक्षणिकता, सानुप्रासिक शब्दयोजना, आलङ्कारिक उक्तिवक्रता, स्वाभाविकता, प्रभावोत्पादकता' आदि अनेक विचार काव्य-चिन्तन के सन्दर्भ में प्रस्तुत हए और स्वरूप मातहभतामहो ! तिमयी नादक-रेखामयी, सा त्वं प्राणमयी हुताशनमयी बिन्दु-प्रतिष्ठामयी। 'तेन त्वां भुवनेश्वरी विजयिनी ध्यायामि जायां विमोस्त्वत्कारुण्य-विकाशिपुण्यमतयः खेलन्तु मे सूक्तयः ॥ ५ ॥ __ -भुवनेश्वरी स्तोत्र २. कस्त्वं भोः ! कविरस्मि काऽप्यभिनवा सूक्तिः सखे ! पठ्यताम् । -काव्यमीमांसा पृ० ३३ ३. नतत्त्व-वैज्ञानिक काव्य का उदय आदिम मानव की तन्त्रमन्त्रात्मक भाषा से मानते हैं और प्रभाव को दृष्टि से अनेक प्रगतिवादी पालोचक काव्य को 'आदिम भावाभिव्यञ्जन-प्रणाली' (Primitive Mode of expression) घोषित करते हैं। मन्त्र-भाषा की तरह काव्य-भाषा में भी श्रोता को सम्मोहित करने की अपूर्व शक्ति पाई जाती है । इस सम्मोहन-प्रक्रिया में काव्य की लय, पदशय्या, वीप्सा, अनुप्रास, अप्रस्तुत और बिम्ब मुख्य हाथ बटाते हैं, वे श्रोता को कुछ क्षणों के लिए जागृत अवस्था से दूर एक तन्द्रिल-स्वप्निल लोक में उसी तरह पहुँचा देते हैं जैसे कोई मनोविश्लेषक किसी रोगी को सम्मोहित कर उसे किसी अतीन्द्रिय मानसलोक में पहुँचा देता है। -भारतीय साहित्यशास्त्र और काव्यालङ्कार, पृ०६ । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ परिज्ञान की ललक बढ़ती गई। इसी प्रसंग में दो बातें विचारणीय बनीं जो १- काव्य- शरीर-विज्ञान और २ काव्य शरीर रचना-विज्ञानरूप हैं । प्रथम विज्ञान की दृष्टि से अध्ययन करते हुए 'शब्दार्थ, रीति, गुण, अलङ्कार, ध्वनि, रस' आदि का विवेचन अपेक्षित हुआ और द्वितीय विज्ञान के आधार पर काव्य के आन्तरिक तत्त्व काव्य-सत्य का विचार उपयोगी माना गया जिसमें शरीर को सचेतन रखने की प्रक्रिया का अध्ययन भी प्रमुख था । इस तरह काव्य के शिल्प-विधान और अभिव्यञ्जना प्रकार को पृथक्-पृथक् दृष्टि से देखते हुए प्राचार्यों ने जो विचार उपस्थापित किए वे ही 'शास्त्र' का रूप लेकर मार्गदर्शक बने । ऐसे काव्यशास्त्रीय सिद्धान्तों की विचारणा विदग्धगोष्ठियों में प्रायः होती रहती थी और काव्य के सिद्धान्तों का जब शास्त्रीय निरूपण प्रौढता की ओर अग्रसर हुआ तो साहित्य - विद्या को भी श्रान्वीक्षिकी (आत्मविद्या), त्रयी, वार्ता और दण्डनीति के साथ पाँचवी विद्या' का स्थान मिला। कवि के श्रम का मूल्याङ्कन करने के लिए कुछ मानदण्ड स्थापित हुए जो कवित्व की कृशता होने पर भी उसके कृतश्रम होनेपर विदग्धगोष्ठी में विहरण की क्षमता प्रकट करते थे । इसके अतिरिक्त श्रुतियों में वारणी के प्रयोग तथा अर्थज्ञान- पूर्वक प्रयोग" के लिए दिए गए तत्त्व भी इस दिशा में प्रेरक हुए । सम्भवतः इन्हीं कारणों ने 'काव्यशास्त्र' के निर्माण की प्रेरणा दी होगी ? महाकवि कालिदास ने भी काव्य-रचना के गुण-दोष विवेचन का संकेत करते हुए कहा है कि तं सन्तः श्रोतुमर्हन्ति सदसद्व्यक्तिहेतवः । हेम्नः संलक्ष्यते ह्यग्नी विशुद्धिः श्यामिकाऽपि वा ॥ १. 'पञ्चमी साहित्यविद्या' इति यायावर: । सा हि चतसृणामपि विद्यानां निस्यन्दः । २. शब्दानां विविनक्ति गुम्फनविधीनामोदते सूक्तिभि:, सान्द्र लेढि रसामृतं विचिनुते तात्पर्यमुद्रां च यः । पुण्यः सङ्घटते विवेक्तृविरहादन्तर्मुखं ताम्पति, केषामेव कदाचिदेव सुधियां काव्यश्रमज्ञो जनः ॥ ३. कृशे कवित्वेऽपि जनाः कृतश्रमा विदग्धगोष्ठीषु विहर्तुमीशते । ४: सतुमिव तितंउना पुनन्तो॒ यत्र॒ षीरा॒ मन॑सा॒ वाच॒मप्र॑त । घना 'सखा॑यः स॒ख्यानि जानते भद्वेषां लक्ष्मीनिहिताधिवाचि ॥ - काव्यमीमांसा पृष्ठ १० ६. रघुवंश महाकाव्य, सर्ग १ श्लोक १० । -बहीं, पृ० ३४ - काव्यादर्श, १।१०५ ॥ - ऋग्वेद ८ श्रष्ट. २ प्र. २३ वर्ग ५. (क) उ॒तवः॒ पश्य॒ नव॑व॒शं वाच॑मु॒त स्वः शृण्वन् न श्रृंगोत्येनाम् । उ॒तो व॑स्मै॑ त॒न्वँ १ विस॑त्र जा॒येव॒ पत्य॑ऽउश॒ती सुवासाः ॥ वहीं ॥ (ख) स्थाणुरयं पुरुषः किलाभूदधीत्य यो विजानाति नार्थम् । योऽथंज्ञ इत्सकलं भद्रमनुते नाकमेति ज्ञानविधूतपाप्मा || - निरुक्त १।१८ | Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इससे यह सिद्ध है कि पहले लक्ष्य और बाद में लक्षण बने। लाक्षणिक साहित्य की परम्परा भी बहुत प्राचीन है। ईसा से ५०० वर्ष पूर्व भरत के 'नाट्यशास्त्र' में न केवल नाटकीय विधाओं के ही लक्षण हैं अपि तु रस, मलटार, छन्द आदि सभी का उसमें समावेश है। उत्तरकाल के प्राचार्यों ने विवेच्य विषयों में काव्याङ्ग के रूप में निम्न विषयों को स्थान दिया है (१) काव्य स्वरूप [काव्य लक्षण, काव्य भेद, काव्यप्रयोजन और काव्यहेतु], (२) शब्दशक्ति [अभिधा, लक्षणा, व्यञ्जना], (३) ध्वनि, (४) गुणीभूत व्यङ्गय, (५) दोष, (६) गुण, (७) रीति (८) अलङ्कार (6) नाट्यविधान, (१०) छन्द, (११) रस और (१२) नायक-नायिका-भेद । अन्य प्राचार्य साहित्यशास्त्रीय पदार्थों का विभाग इस प्रकार मानते हैं-(१) काव्य (२) शब्द, (३) अर्थ, (४) वृत्ति, (५) गुण, (६) दोष, (७) अलङ्कार, (८) रस, (६) भाव, १०) स्थायिभाव, (११) विभाव, (१२) अनुभाव और (१३), व्यभिचारी भाव ।' इस प्रकार काव्य-शास्त्र के वर्ण्य-विषय कहीं १०, कहीं १२ और कहीं १३ बतलाए हैं। परन्तु रस का अन्तर्भाव ध्वनि में और नायक-नायिका भेद का रस में किया जा सकता है। इसी प्रकार विभावादि का भी रस में अन्तर्भाव है। अतः संख्या पर कोई एक निर्णय नहीं लेना ही उपयुक्त है। उत्तर काल के प्राचार्यों ने इसी लिये काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों के प्रणयन में भिन्न-भिन्न दृष्टि अपनाई है । यथा १-कुछ आचार्यों ने नाट्य-विधान को ही स्वतन्त्र महत्त्व दिया है, २. कुछ ने केवल अलङ्कार को प्रधानता दी है, ३-कतिपय काव्य-लक्षण से प्रारम्भ कर अलङ्कारान्त विवेचन करते हैं किन्तु उसमें नायक-नायिका-निरूपण __ को स्थान नहीं देते, ४. अन्य नाट्यशास्त्रीय सभी अंगों के साथ अलङ्कारान्त विवेचन करते हैं । ५-छन्द को साथ लेकर वर्णन करने वाले प्राचार्य विरल ही हैं जब कि छन्द के विवेचक प्राचार्य अन्य विषयों को पूर्णत: छोड़ गए हैं। ६-कविशिक्षा और काव्यमीमांसा जैसे ग्रन्थों का विषय काव्यशास्त्रीय होते हए भी उपर्युक्त पद्धति से कुछ ही भिन्न है तथा ये ग्रन्थ विविध प्रकारों से कवित्व प्राप्ति और काव्य तत्त्वों की समीक्षा करते हैं। ७-कुछ प्राचार्य केवल एक अङ्ग का ही निरूपण करते हैं । ८-कतिपय प्राचार्य केवल टीका निर्माण द्वारा ही अपने प्राचार्यत्व को सिद्ध करने में सफल हए है अतः यह भी एक विरल मार्ग ही है। इस पाठ प्रकारों के माधार पर काव्यशास्त्रों के निर्माण की परम्परा अतिविस्तृत होती गई जिसकी संक्षिप्त तालिका इस प्रकार है१. नाट्य विधान मूलक प्रन्थ और ग्रन्थकार १. नाट्यशास्त्र-भरतमुनि २. दशरूपक-धनञ्जय, ३. नाठ्यलक्षण-रत्नकोश-सागरनन्दी ४. नाट्यदर्पण-रामचन्द्र तथा गुणचन्द्र ५. भावप्रकाशन-शारदातनय, ६. रसार्णवसुधाकर शिंगभूपाल । १. 'साहित्योदशः' पदार्थोद्देश-प्रथम भाग पृ० १-२, विद्यामार्तण्ड पं० सीताराम शास्त्री। हरियाणा शेखावाटी ब्रह्मचार्याश्रम, भिवानी Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. नाटकपरिभाषा-शिंग (सिंह) भूपाल । ८. नाटकचन्द्रिका-रूपगोस्वामी ६. नाव्यप्रदोप-सुन्दर मिश्र । आदि ये रचनाएँ ईसा पूर्व पाँचवी शती से लेकर ईसा की सोलहवीं शती तक हुई हैं । इन ग्रन्थों में भरत के नाटयशास्त्र पर जिन प्राचायों ने टीकाएं लिखी हैं उनमें-भट्ट उद्भट, भट्ट लोल्लट, श्रीशंकुक, भट्ट नायक और आचार्य अभिनव गुप्त आदि प्रमुख हैं। आजकल इनमें से अभिनव गुप्त कृत 'अभिनव-भारती' टीका ही उपलब्ध और सर्वत्र सम्मानित है। प्राचार्य विधेश्बर तथा प्रो. बाबूलाल शास्त्री ने हिन्दी भाष्यों से भी इसे अलङ्कृत किया है। २. केवल अलङ्कार-विधानमूलक ग्रन्थ और ग्रन्थकार १. काव्यालङ्कार-सारसङ्ग्रह-उद्भट २. अलङ्कार सर्वस्व-रुय्यक ३. अलङ्कार-रत्नाकर-शोभाकर मिश्र ४. कुवलयानन्द--अप्पय दीक्षित ५. अलङ्कार-दीपिका-पाशाधर भट्ट ६. अलङ्कार-कौस्तुम-विश्वेश्वर ७. अलङ्कार-सुक्तावली-विश्वेश्वर ८. अलङ्कार-प्रदीप- , एवं अन्य ग्रन्थ इस दृष्टि से उत्तरकाल में लिखे गए ग्रन्थों में कुछ ग्रन्थ केवल शब्दालङ्कार अथवा उसके चित्र-काव्यमूलक भेदों को व्यक्त करने की दृष्टि से उदाहरण प्रधान भी लिखे गए हैं और कुछ केवल अर्थालङ्कार. अथवा उनके कतिपय भेदों की विवेचना को लक्ष्य में रखकर लिखे गए हैं। ३.काव्यलक्षण से अलङ्कार पर्यन्त विवेचक ग्रन्थ और ग्रन्थकार १. काव्यालङ्कार-भामह २. काव्यादर्श-दण्डी ३. काव्यालङ्कार-सूत्र-वामन ४. काव्यालङ्कार-रुद्रट ५. अग्निपुराण-वेदव्यास ६. विष्णुधर्मोत्तरपुराण-वेदव्यास ७. श्रृंगार-प्रकाश-भोजराज ८ सरस्वती-कण्ठामरण-भोजराज' ६. काव्यप्रकाश-मम्मट १०. काव्यानुशासन-हेमचन्द्र ११. वाग्भटालङ्कार-वाग्भट (प्रथम) १२. चन्द्रालोक-जयदेव १३. अलङ्कार-चिन्तामणि-अजितसेन १४. एकावली-विद्याधर ".प्रतापरुद्रयशोभूषण-विद्यानाथ १६. साहित्यदर्पण-विश्वनाथ १७. श्रृंगारार्णवचन्द्रिका-विजय वणों १८. अलङ्कारशेखर--केशव मिश्र १६. अलङ्कारकौस्तुभ-करणपूर २०. काव्यचन्द्रिका-कविचन्द्र २१. रसगङ्गाधर-जगन्नाथ २२. नजराजयशोभूषण-नरसिंह । कवि आदि इनके अतिरिक्त भी यह परम्परा आगे बढ़ती रही है। किन्तु इनमें कभी किसी ने किसी एक विषय को अधिक तो कभी किसी ने न्यून बनाकर विवेचन किया है। साथ ही यत्र तत्र कुछ विषयों को घटाया-बढ़ाया भी गया है जिनमें नाट्य-शास्त्रीय अङ्ग, रस और ध्वनि आदि के वर्णन प्रमुख हैं। ४. केवल रस-विवेचक ग्रन्थ और प्रन्थकार १. शृंगारतिलक-रुद्र भट्ट २. रसतरङ्गिणी-भानुदत्त ३. रसमञ्जरी-भानुदत्त 1. भक्तिरसारणव-रूपगोस्वामी ५. उज्ज्वलनीलमरिण-रूपगोस्वामी ६. रसचन्द्रिका-विश्वेश्वर १-ऐसे शब्दालङ्कार-परक तथा चित्रालङ्कार-परक प्रन्थों का समीक्षात्मक परिचय हम अपने डी.लिट. के शोध-प्रबन्ध 'शब्दालङ्कार-साहित्य का समीक्षात्मक सर्वेक्षण' में दे रहे हैं। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह पद्धति अधिक विस्तृत तो नहीं हुई है किन्तु ऐसे रस-परक ग्रन्थों का निर्माण लघु-दीर्घ रूप में (नायकनायिका वर्णनात्मक) प्राज भी चल रहा है। ५. कतिपय प्राचार्यों ने केवल ध्वनि, केवल वृत्ति प्रथवा ध्वनि-विरोध आदि विषयों को भी प्रमुखता देते हुए कुछ ग्रन्थ लिखे हैं, जिनमें प्रमुख ये हैं१. ध्वन्यालोक-प्रानन्दवर्धन, २. अमिधावृत्तिमातृका-मुकुलभट्ट, ३. वक्रोक्तिजीवत-कुन्तक, ४. व्यक्तिविवेक-महिमभट्ट, ५. वृत्ति-वातिक-अप्पयदीक्षित, ६. त्रिवेणिका-पाशाधर, ७. प्रौचित्यविचारचर्चा-क्षेमेन्द्र, ७. शब्द-व्यापार-विचार मम्मट । इन ग्रन्थकारों ने अन्य मतों का खण्डन करके स्वमत प्रतिपादन किया है अतः ये 'सम्प्रदाय-प्रवर्तक प्राचार्य' भी माने गये हैं। साथ हो इनके अनुयायी वर्ग ने मतपोषण के लिये भी कुछ ग्रन्थों की रचना की है। ६. छन्दःशास्त्रीय ग्रन्थ और ग्रन्थकार १. पिङ्गल छन्दःसूत्र-पिङ्गल, २. छन्दःकौस्तुभ तथा वृत्तचन्द्रोदय-भास्कर राय, ३. छन्दोविचिति-जानाश्रयी माधव शर्मा, ४. जयदेवच्छन्द:-जयदेव, ५. छन्दोऽनुशासन - जयकीर्ति, ६. वृत्तरत्नाकर-केदारभट्ट ७. सुवृत्ततिलक-क्षेमेन्द्र, ८. श्रुतबोध- कालिदास, ६. छन्दोऽनुशासन-हेमचन्द्र, १०. छन्दोमजरी-गङ्गादास । प्रादि का-याङ्गों में अत्यावश्यक इस अङ्ग की पूर्ति में और भी कई छोटे-बड़े प्रयास हुए है और हो रहे हैं जिनका परिचय यहाँ देना सम्भव नहीं है। इस साहित्य के कुछ प्रसिद्ध टीकाकार भी अपनेग्राप में अपूर्व देन देने में पर्याप्त सफल रहे हैं। ७. कवि और काव्य-शिक्षा के ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार १. कविशिक्षा-बप्पभट्टि, २. काव्यमीमांसा-राजशेखर, ३. कविकण्ठाभरण-क्षेमेन्द्र ४. कविशिक्षा-जयमङ्गलसूरि ५. काव्यकल्पलता-अमरचन्द्र और अरिसिंह ६. कविशिक्षा-विनयचन्द्र ७. कविकल्पलता-देवेश्वर, ८. काव्यशिक्षा-गङ्गादास १. कविसमयकल्लोल-अनन्तार्य १०. कविकण्ठहार-प्रज्ञातनामा कवि-शिक्षा अथवा काव्य-शिक्षा की दिशा में ऐसे और भी कुछ ग्रन्थ लिखे गए हैं जो एकाङ्गी होते हुए भी बहुत महत्त्व रखते हैं। समस्यापूर्ति, छन्दोविलास एवं अनुकृतिकाव्य भी इसी अङ्ग के पूरक हैं। ८. टोका और टीकाकार उपर्युक्त विभिन्न शैली के ग्रन्थों पर अनेक प्राचायों ने टीकाएँ लिखी हैं। टीकाकार का दायित्व ग्रन्थकार की अपेक्षा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होता है क्यों कि जो बात मूल में संक्षेप में कही गई हो अथवा संकेत रूप में कही गई हो उसे भी यथावत् समझ कर उसके पूर्वापर सम्बन्ध को स्पष्ट करते हुए विषयवस्तु को वह प्रस्तुत करता है। ऐसे कई मान्य ग्रन्थ हैं जिन पर एक से अधिक टीकाएं ही नहीं अपितु प्रटीकाएँ भी बनी हैं। उन सबका नामत: उल्लेख विस्तार भय से यहाँ नहीं किया जा रहा है। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन विद्वानों द्वारा प्रणीत काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ वैसे तो काव्यशास्त्र के ग्रन्थों की श्रृंखला में सभी प्राचार्यों द्वारा प्रणीत ग्रन्थों का समावेश हो जाता है, उसमें किसी सम्प्रदाय विशेष का स्वतन्त्र निर्देश अपेक्षित नहीं होता। किन्तु प्रस्तुत ग्रन्थ के अन्यतम टीकाकार श्रीमद्यशोविजयजी महाराज की काव्यशास्त्रीय सेवा के सन्दर्भ में उनसे सम्बद्ध जैन-विद्वानों-प्राचार्यों की सेवा का स्वतन्त्र रूप से निदर्शन यहाँ उपयुक्त प्रतीत होता है। साथ ही इस प्रकार के निदर्शन से एक पूरी परम्परा का चित्र भी हमारे समक्ष उपस्थित हो सकेगा। इस दृष्टि से हम 'जैन विद्वानों द्वारा प्रणीत काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय, प्रस्तुत कर ऐतिहासिक पर्यालोचन भगवान महावीर स्वामी के जन्म से पूर्व भी किसी काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ का निर्माण स्वतन्त्र रूप से हुआ होगा किन्तु आज उसका कोई प्रमाण हमें प्राप्त नहीं होता है। अधिक से अधिक विक्रम की नौंवी शती के प्रारम्भ से लाक्षणिक साहित्य के ग्रन्थ का प्रारम्भ हुआ प्रतीत होता है। सर्वप्रथम जैन लेखक बप्पभट्रि सरि हैं । काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों की टीका का प्रारम्भ वैक्रमीय बारहवीं शती का पूर्वकाल है और प्रथम टीकाकार श्री नमिसाधु हैं। इसी काल में रामचन्द्र गुरणचन्द्र ने 'नाटचदपण' की रचना से एक पृथक महत्त्वपूर्ण कृति प्रस्तुत की है। प्राचार्य हेमचन्द्र का काव्यानुशासन तथा नरेन्द्रप्रभसूरि का 'अलंकार-महोदधि' ये दो ग्रन्थ इस परम्परा में स्वोज्ञवृत्तियों से समन्वित हैं और क्रमश: गद्य एवं पद्यमय कृतियों में अन्यापेक्षा से विशाल हैं। काव्याङ्ग में समाविष्ट छन्दःशास्त्र की रचना का प्रारम्भ इन सब से पूर्व विक्रम की छठी शती में ही इस परम्परा में हो गया था। सर्वप्रथम कृति 'छन्दःशास्त्र' है जो दिगम्बर जैन प्राचार्य 'पूज्यपाद' द्वारा रचित है। यह परम्परा विक्रम की अठारहवीं शती तक अच्छी विकसित हुई तथा कई महत्वपूर्ण ग्रन्थ हमारे समक्ष प्राये। आगमों में बहधा ऐसे वर्णन मिलते हैं जिनमें काव्यशास्त्रीय अलङ्कार और रस का स्वरूप हमें उपलब्ध होता है। उपमा, अर्थान्तरन्यास, श्रृंखला-यमक प्रादि से अलङ्कृत स्थल सहज ही मिल जाते हैं किन्तु टीकाओं में इसकी कोई लाक्षणिक विवेचना उस काल में हुई हो, ऐसा प्रमाण नहीं मिलता है । जैनाचार्यों द्वारा किये गये काव्यशास्त्रीय-चिन्तन के प्रकार यह स्वाभाविक है कि वैराग्यपथ के पथिक को अन्यान्य शास्त्रों के चिन्तन की कोई अपेक्षा ही नहीं रहती है। १-'अनुयोगद्वार-सूत्र' में "रिणदोसं सारमंत च, हेउजुत्तमलंकियं" इत्यादि पाठ मिलता है । २-विक्रम की दूसरी-तीसरी शती में जैनाचार्य श्रीसमन्तभद्र ने अपनी रचना 'स्तुतिविद्या' में अनेकविध चित्रालद्वारों का प्रयोग किया है, जो लक्ष्य के रूप में है। ३-वैसे जैन विद्वानों ने अलंकार-ग्रन्थों की रचना पहले प्राकृतभाषा में की है। जैसलमेर-भण्डार की ग्रन्थसूची में सं० ११६१ पर प्राकृतभाषा में रचित 'मलकार-दापरण' का नाम मिलता है। किन्तु यह अब तक प्रकाशित नहीं हुआ है। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि उसकी प्रज्ञा यदा-कदा विसी प्रकार के शारत्रचिन्तन के लिए उसे बाध्य भी करती है, तो वह प्रभू की वाणीप्रागमशास्त्र के तत्त्व को समझने का प्रयास करता है अथवा स्वाध्यायोपयोगी साहित्य का परिशीलन करते हए ही अपनी प्रतिभा का उचित उपयोग कर लेता है। यह दृष्टिकोण बहुत समय तक जैन साधु-समुदाय में व्याप्त रहा; उसमें भी दिगम्बर-सम्प्रदाय में इस दृष्टिकोण का प्रभाव कुछ अधिक काल तक बना रहा। श्वेताम्बर सम्प्रदाय के प्राचार्यों ने सारस्वत-साधना में प्रारम्भ में व्याकरण और तदनन्तर साहित्यादि विभिन्न साहित्याङ्गों के अध्ययनाध्यापन के साथ-साथ नबीन ग्रन्थ-निर्माण के द्वार भी उद्घाटित किये। फल यह हया कि दिगम्बर सम्प्रदाय के प्राचार्यों ने साहित्य के क्षेत्र में भी पर्याप्त चिन्तन प्रारम्भ किया और अनेक अभिनव रचनाएँ प्रस्तुत की। इस चिन्तन में रचनाओं की दृष्टि से चार पद्धतियों का पालम्बन लिया गया । १. स्वतन्त्र ग्रन्थरचना, २. स्वरचित ग्रन्थ पर स्वोपज्ञ टीका-वृत्ति प्रादि का निर्माण, ३. जनेतर विद्वानों द्वारा रचित प्रमुख ग्रन्थों पर टीकानों को रचना तया ४. जैनाचार्यों द्वारा रचित ग्रन्थों पर टोकानों की रचना। इन पद्धतियों में एक ओर लेखक का मौलिक चिन्तन तो है ही साथ ही अपने द्वारा निर्धारित सिद्धान्तों की भी प्रस्थापना हो गई है। साहित्य के लाक्षणिक ग्रन्थों में भरत के नाट्यशास्त्र के समनन्तर काल से हो ऊहापोह तथा मत-मतान्तरों का समावेश हो गया था। प्राचार्यों ने अपने-अपने मतों की प्रस्थापना के लिए एक-दूसरे का खण्डन-मण्डन भी प्रारम्भ कर दिया था और काव्यात्मवाद, रसबाद, अलङ्कार-रीति-वक्रोक्ति-पौचित्य आदि से सम्बद्ध वादों की भी परम्पराएं प्रस्तुत करने के लिये ग्रन्थ लिखने प्रारम्भ कर दिये थे ऐसी स्थिति में जैन विद्वान् कैसे मौन रह सकता था ? यही कारण है कि उपर्युक्त चार पद्धतियों के ग्रन्थ जैनाचार्यों ने भी निर्मित किये। इन ग्रन्थों की संक्षिप्त तालिका इस प्रकार है जैनाचार्यों द्वारा रचित काव्यशास्त्र मूलग्रन्थ ४६ स्वोपज्ञटीका १३ जनेतर ग्रन्थों की टीका ३१ अन्य जैनाचार्यों की टीकाएँ २३ १. कविशिक्षा ५ २. अलंकार २१ ३. नाट्यशास्त्र १ . ४. छन्द १६ कल्पलता ३ अलंकार ७ नाट्यशास्त्र १ छन्द-२ १. काव्यादर्श-१ २. काव्यालङ्कार-२ ३. काव्यप्रकाश-७ ४. सरस्वतीकण्ठाभरण-१ ५. चन्द्रालोक-१ ६. विदग्धमुखमण्डन-७ ७. श्रुतबोध ६ ८. वृत्तरत्नाकर ६ १. वाग्भटालंकार १२ २. काव्यानुशासन १ ३. काव्यकल्पलता १ ४. अलङ्कारचिन्तामणि १ ५. जयदेवच्छदस् २ ६. छन्दोनुशासन (हैम) २ ७. छन्दःशास्त्र १ ८. छन्दोऽनुशासन २ ६. छन्दःकोष १ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ चार विषयों पर जैनाचार्यों ने कार्य किया है। टीकाएँ ३१ तथा जैनाचार्यों के ग्रन्थों की टीकाएँ प्राचार्यों ने भी कुछ साहित्यशास्त्र पर लिखा है' परिचय इस प्रकार है इस तालिका के अनुसार यह स्पष्ट हो जाता है कि मूलतः कविशिक्षा, अलङ्कार, नाट्यशास्त्र और छन्द इन इनमें मूल ग्रन्थों की संख्या ४५, स्वोपज्ञ टीकाएं १३ जेनेतर ग्रन्थों की २३ हैं जो कुल मिला कर ११२ की संख्या तक पहुँचती है। आधुनिक और यह क्रम चल ही रहा है । इन ग्रन्थों और ग्रन्थकारों का क्रमिक [१ - कविशिक्षा प्रन्थ और प्रत्यकार ] १. कविशिक्षा जैन सम्प्रदाय के प्राचायों की काव्यशास्त्रीय कृतियों में यह सर्वप्रथम कृति श्रीमयमट्टि सूरि द्वारा ई० स० ७६३ के निकट रचित है। इसका सूचन विनयचन्द्र सूरि कृत 'कविशिक्षा' से प्राप्त होता है । वहाँ प्रारम्भ में कहा गया है कि - " बप्पभट्टि गुरु की वाणी में विविध शास्त्रों को देखकर मैं 'कविशिक्षा' कहूँगा ।" इसी आधार पर अनुमान किया जाता है कि 'वप्पभट्टि' ने 'यह ग्रन्थ लिखा होगा। इनकी ग्रन्थ रचनाओं में तारागण महाकाव्य' और 'चतुर्विंशतिका' भी स्मरणीय हैं किन्तु अब 'चतुविशतिका' के अतिरिक्त अन्य कोई रचना उपलब्ध नहीं है। २. कचिशिक्षा श्रीजयमङ्गल मूरि की यह कृति १९४३ ई. के लगभग निर्मित है। इसमें ३०० श्लोक प्रमाण में तत्कालीन नृपति सिद्धराज जयसिंह की स्तुति में निर्मित पर्योों के दृष्टान्त देते हुए कविशिक्षा की चर्चा की गई है। प्रो. पिटर्सन ने इस कृति के प्रारम्भ और अन्त के कुछ पद्यों का उद्धरण अपनी रिपोर्ट पृ० (७८.६०) में दिया है । यह कृति ताडपत्रीय पाण्डुलिपि के रूप में सम्भात (गुजरात) स्थित शान्तिनाथ भण्डार' में सुरक्षित है। ३. काव्यकल्पलता - वायड गच्छीय जिनदत्त सूरि के शिष्य 'अमरचन्द्र सूरि' और 'अरिसिंह' इन दोनों की यह कृति है। इसका रचनाकाल १२२७ ई. माना जाता है। चार प्रदानों में विभक्त प्रायः ४५२ पयों की इस कृति के पहले छन्दः सिद्धि प्रतान में ५ स्तबक हैं, जिनमें १ - अनुष्टुप् शासन, २- छन्दोऽभ्यास, ३- सामान्य शब्दक, ४- वाद तथा ५-स्थिति-विषयों पर विस्तार से विवेचन हुआ है। द्वितीय प्रतान में चार स्तबक है जिनमें शब्दों की व्युत्पत्ति, अनुप्रास सम्बन्धी शब्दसङ ग्रह तथा अन्य आवश्यक वाक्यों का संग्रह दिया हैं अतः इसका नाम 'शब्दसिद्धि' प्रतान रखना उचित ही है। तृतीय श्लेष सिद्धि' प्रदान में शब्दों के भिन्न-भिन्न पर्व, लिष्ट शब्द संग्रह तथा चित्रकाव्यादि को ५ स्तबकों में व्यक्त किया है। चौथे 'प्रसिद्धि' प्रतान में किस वस्तु का किस वस्तु के साथ साम्य दिखलाना चाहिये. इससे सम्बन्धित विषय को सात स्तबकों में प्रस्तुत किया है। इस ग्रन्थ पर हुई टीकाओं का परिचय इस प्रकार है (१) कविशिक्षा (वृत्ति) - यह ३३५७ श्लोक प्रमाण स्वोपज्ञवृत्ति है। इसमें मूलग्रन्थ के विषयों को स्पष्ट करने की दृष्टि से दोनों श्राचार्यों ने पर्याप्त विस्तार किया है। इसी में ग्रन्थकारों की क्रमशः 'काव्यकल्पलता - परिमल, काव्यकल्पलता-मञ्जरी, लङ्कार प्रबोध तथा छन्दोरत्नावली' नामक अन्य चार रचनाओं का उल्लेख भी है। (२) काव्यकल्पलता - परिमल - यह ११२२ श्लोक प्रमाण द्वितीय स्वोपज्ञ वृत्ति है । डॉ० डे० ने इसे मूलग्रन्थ का संक्षिप्त रूप अथवा पूरक ग्रन्थ भी कहा है (सं. का. शा. का इति पृ. २४२ प्रथम भाग ) । १. आचार्य धर्मपुरुषरसूरि विरचित साहित्य-शिक्षा मञ्जरी' भाग १-२ का इसमें समावेश किया जा सकता है। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) काव्यकल्पलता-मञ्जरी- यह भी तृतीय स्वोपज्ञ वृत्ति है किन्तु अब तक यह अनुपलब्ध ही है। इसके 'मञ्जरी' नाम से यह अनुमान किया जा सकता है कि यह 'परिमल' से पूर्व निर्मित हुई होगी। (४) मकरन्द-यह वृत्ति 'अकबर शाहि' के राज्य काल में हुए तपागच्छ के श्रीहीरविजयसूरि के शिष्य शुभविजय गरिण ने ई० स० १६०८ में बनाई है। इसका प्राकार ३१६६ श्लोक-प्रमाण उल्लिखित है। ये सलीम अथवा जहांगीर के समय में हुए हैं। (५) वृत्ति-३२५० श्लोक प्रमाणवाली इस वृत्ति का सूचन 'जिनरत्नकोश' (खण्ड १, पृष्ठ ८५) में श्रीयशोविजय गरिण द्वारा रचित वृत्ति के रूप में किया गया है। ये यशोविजयजी न्यायविशारद, न्यायाचार्य, काव्यप्रकाश के टीकाकार ही हैं अथवा कोई अन्य ? यह निश्चित नहीं कहा जा सकता। (६) पल्लव-यह वृत्ति विबुधमन्दिर गणि द्वारा निर्मित है। साथ ही इसकी दो टीकाएँ १. 'कल्पलताविवेक' तथा २. 'कल्प पल्लवशेष' नाम से उपलब्ध होती हैं। इसकी पाण्डुलिपि का लेखनकाल ई० स० ११४८ है तथा इसका प्रारम्भ निम्नलिखित पद्य से होता है "यत् पल्लवेन विवृत दुर्बोधि (घ) मन्दबुद्धिश्चापि । क्रियते कल्पलतायां तस्य विवेकोऽयमतिसुगमः ।। इसमें मूल के प्रतीक देते हुए कल्पलता को विबुधमन्दिर, पल्लव को इस मन्दिर का कलश तथा शेष को इसका ध्वज कहा गया है। कविशिक्षा नामक वृत्ति सहित 'काव्यकल्पलता' का प्रकाशन वाराणसी स्थित 'चौखम्बा संस्कृत पुस्तकालय' से सन् १८६० तथा उसके पश्चात् हुया है। श्री जगन्नाथ होशिंग ने इसका सम्पादन किया है। गायकवाड सरकार (बड़ौदा) की ओर से इसका मराठी अनुवाद भी प्रकाशित किया गया है। रामशास्त्री वाराणसी तथा वामनशास्त्री, बम्बई ने भी इसे प्रकाशित किया है। ४. कविशिक्षा-श्रीविनयचन्द्र सूरि की यह कृति ई. स. १२२८ के निकट की है। इन्होंने पार्श्वनाथचरित्र' आदि बीस प्रबन्धों की रचना भी की है। कुछ विद्वान् ई. स. १२२६ में 'मल्लिनाम-चरित्र' की रचना करने वाले तथा उदयसिंह रचित 'धर्मविधिवृत्ति' के संशोधक विनयचन्द्र को ही इस कविशिक्षा के प्रणेता मानते हैं। यह कबिशिक्षा 'विनय' अंक से अंकित है। इसके प्रारम्भ में बप्पभट्टि मूरि की कविशिक्षा को इसके प्रणयन में हेतुभूत माना गया है तथा इसमें तत्कालीन चौरासी देश सौराष्ट्र, लाट आदि का कुछ परिचय भी दिया है जिसका उल्लेख 'जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास' ग्रन्थ में मिलता है। श्री लालचन्द्र भगवान गाँधी का कथन है कि यह 'कविशिक्षा' रविप्रभ गणीश्वर के शिक्षाशतक' का शिक्षण देने वाली है।' ५. कविकल्पलता-मालव-नरेश के अमात्य वाग्भट के पुत्र देवेश्वर' की यह चौदहवीं शती के मध्यभाग की १. 'पत्तनस्या प्राच्यजन भाण्डागारीय ग्रन्थसूची" भाग १, प्रस्तावना प० ४८ में इसका नाम देवसेन दिया है तथा श्री लालबहादुर शास्त्री के० सं० वि० दिल्ली में प्राप्त पाण्डुलिपि (सं० १८६४ में लिखित) में देवेन्द्र नाम दिया हमा है। 'बिब्लियोथिका इण्डिका' संस्करण में इनके 'चन्द्रकलाप ग्रन्थ का भी उल्लेख है। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रचना है । यह ग्रन्य अमरचन्द्र की 'काव्यकल्पलता' को ही आदर्श मानार अनुकृति के रूप में लिखा गया है। यही कारण है कि इसमें अनेक नियम, लक्षण और उदाहरण काव्यकल्पलता से यथावद् गृहीत हैं। इसमें-(१) छन्दोभ्यास, (२) सामान्य शब्द, (३) वर्ण्यस्थिति और, (४) अनुप्रास सिद्धि (?) नामक चार कुसुमों में क्रमश: ३४, ७८, ५६ और ३८ पद्यों से प्रथम स्तबक पूर्ण किया है। द्वितीय स्तबक (१) उद्दिष्ट वर्णन (२) वर्ण-वर्णन, (३) ?, (४) संख्या नाम एवं (५) मिश्र ऐसे पाँच कुसुमों में क्रमश: ४ पद्य एवं गद्य, १८ पद्य एवं गद्य, २७ पद्य एवं गद्य २७ तथा १८ पद्यों द्वारा पूर्ण किया है । तृतीय स्तबक (१) राजदर्शन, (२) गंगास्तुति, (३) भगवदीरण, (४) ब्राह्मण-सम्भाषण, (५) तडागादि वर्णन और (६) वादितर्जन नामक छह कुसुमों में पूर्ण हुमा है। इन कुसुमों में प्रायः गद्य का ही प्रयोग हुआ है और इस पूरे स्तबक का 'कथास्तबक' नाम भी दिया है। चौथा स्तबक (१) अर्थोत्पादन, (२) अद्भुत, (३) चित्र, (५) रूपकादिक, (५) [2] (६)समस्यापूरणोपाय और (७)समस्या नामक सात कुसुमों से पूर्ण हुआ है। विभिन्न उदाहरणों का इनमें प्रकीर्ण रूप से सकलन किया गया है। इस ग्रन्थ की ५ टीकाएँ निम्नलिखित हैं (१) स्वोपज्ञटोका—यह स्वयं देवेश्वर ने लिखी हैं। (२) टीका--श्रीबेचाराम सार्वभौम । (हिन्दू कामेंटेटर' खण्ड-३ में बनारस से प्रका०) (३) टीका-श्रीरामगोपाल कविरत्न । (४) बालबोधिका-श्रीसूर्यकवि (१६वीं शती का पूर्वार्ध) रामकृष्णविलोमकाव्य के कर्ता (५) विवेक-(अज्ञातकर्तृक) कलकत्ता संस्कृत कालेज (scc) कैटलाग vii, 8. इनके अतिरिक्त महादेव की 'पदार्थ द्योतनिका' तथा शरच्चन्द्र शास्त्री आदि को और भी कुछ टीकाएँ इस पर निर्मित हैं । इसका प्रकाशन लालभाई दलपन भाई संस्कृत विद्यामन्दिर, अहमदाबाद से हुअा है । इस प्रकार उपर्युक्त कविशिक्षायों के पर्यायलोचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि 'काव्य-मीमांसा' के क्षेत्र में राजशेखर की 'काव्यमीमांसा' से लगभग २०५ वर्ष पूर्व ही जैनाचार्य बप्पभट्टि सूरि ने इस विषय का सूत्रपात कर दिया था और उनकी 'कविशिक्षा' उस समय उनके लिये प्रेरणा-प्रद रही होगी जो कि आज अनुपलब्ध है। साथ ही यह भी निश्चित है कि इस दिशा में जैनाचार्यों के प्रयास ही अधिक रहे हैं क्योंकि अन्य प्राचार्यों में रुय्यक की 'साहित्यमीमांसा, क्षेमेन्द्र का कविकण्ठाभरण, अनन्तार्य का कविसमयकल्लोल और किसी अज्ञात लेखक का कविकण्ठहार' आदि इस तरह के ग्रन्थ कुछ ही बने हैं। [२-अलङ्कार-ग्रन्थ और ग्रन्थकार ] १-वाग्मटालङ्कार-महाराजा सिद्धराज के समकालीन एवं उनके द्वारा सम्मानित विद्वान् वाग्मट सन् १९३३ ई. के लगभग (प्राकृत नाम बाहड) प्रथम की यह कृति है। वाग्भट के पिता का नाम सोम था और ये सिद्धराज के महामन्त्री थे । इस ग्रन्थ के पांच परिच्छेदों में प्राय: २६० पद्य हैं। प्रत्येक परिच्छेद का अन्तिम पद्य भिन्न छन्द में है जवकि अन्यत्र अनुष्टुप् का ही प्रयोग हुआ है । तीसरे परिच्छेद में प्रोजोगुण का वर्णन गद्य में किया गया है। वेबर की वलिन पाण्डुलिपि संख्या १७१८ में एक छठा अध्याय भी है जिस में यमक अलकार का विवेचन है। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय की दृष्टि से प्रथम परिच्छेद में क्रमश: काव्यशिक्षण, काव्यरचना हेतु, काव्य-निर्माणोपयोगी प्रसंग तथा कवियों के पालन योग्य नियम दिये हैं। द्वितीय परिच्छेद में काव्य-निर्माण के लिये उपयोगी-'संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और भूतभावा'-चार भाषाएँ, काव्य के गद्य-पद्यरूप भेद तथा पद, वाक्य एवं अर्थगत दोषों का विचार किया गया है। तीसरे परिच्छेद में दस गुणों की व्याख्या और उनका विवरण है जबकि चौथे परिच्छेद में शब्दालंकार के चित्र, वक्रोक्ति, अनुप्रास और यमक ऐसे चार भेद अर्थालङ्कार के ३५ भेद तथा वैदर्भी और गौडी रीति का विचार किया गया है । पांचवें परिच्छेद में श्रृंगारादि नौ रस और नायक-नायिकाभेदों की चर्चा करते हए कुछ अन्य आवश्यक विषयों पर प्रकाश डाला गया है । ग्रन्थ में उदाहरणों की योजना प्रायः स्वयं लेखक ने की है । इसमें 'नेमिनिर्वाण-महाकाव्य' (वाग्भट कृत) से यमक के उदाहरण भी संगृहीत हैं। यह ग्रन्थ जन सम्प्रदाय का प्रथम प्रलङ्कार-ग्रन्थ होने के कारण जैन और अजैन विद्वानों में पर्याप्त पाहत हुआ है, यही कारण है कि इस पर कई टीकाएँ लिखी गई हैं। इनमें जैन टीकाएं इस प्रकार हैं (१) व्याख्या-सोमसुन्दर सन्तानीय श्रीसिंहदेव गणि रचित १३३१ श्लोक प्रमाण। यह मूल ग्रन्थ के साथ 'काव्य माला' ग्रन्थ संख्या ४८ में सन् १९०३ में प्रकाशित हुई थी। तदनन्तर अन्य प्रावृत्तियां भी विभिन्न प्रकाशको ने की हैं। –तपागच्छीय विशालराज के शिष्य सोमोदयगरिण ने ११६४ श्लोक प्रमाण यह टीका लिखी है। (३) टीका-खरतरगच्छीय जिनप्रभसूरि सन्तानीय जिनतिलक सूरि के शिष्य उपाध्याय राजहंस की यह रचना है । इसकी एक पाण्डुलिपि सन् १४२६ ई. में लिखी हुई है । (४) टीका-जिनराजसूरि के शिष्य जिनवर्धन सूरि (१४०५-१४१६) ने इसका निर्माण किया है। इसकी एक पाण्डुलिपि सन् १५५३ की लिखी हुई प्राप्त होती है । यह 'ग्रन्थमाला' ३ में सन् १८८६-६० में प्रकाशित हुई थी। (५) वृत्ति--वरतर गच्छीय श्रीरत्नधीर के शिष्य वाचनाचार्य श्री ज्ञानप्रमोद गरिण ने इस वृत्ति की रचना २९५६ श्लोक प्रमाण में सन् १६२६ में लिखी है । इसका नाम 'ज्ञानप्रमोदिका' है। (६) टोका-इसके रचयिता सकलचन्द्र के शिष्य श्रीसमयसुन्दर गणि हैं। यह १६५० श्लोक प्रमाण है और इसका निर्माण सन् १६३५ में अहमदाबाद में हरिराम के लिये किया गया था। (७) टीका-इसके कर्ता क्षेमहंसगणि हैं । यह टीका 'समासाश्रय-टिप्पण' नामक है । (८) टोका-इसके कर्ता कुमुदचन्द्र हैं । () टोका- इसके कर्ता के रूप में वर्धमान सूरि का उल्लेख किया जाता है किन्तु यह शङ्कास्पद है। (१०) टीका-इसके कर्ता का नाम अज्ञात है। सम्भवत: यह 'प्रवचूरि' है। (११) टिप्पणी-यह टिप्पणी कन्नड-लिपि में लिखित प्राप्त होती है। 'कन्नड प्रान्तीय ताडपत्रीय ग्रन्थ सूची' पृ० १६७ में इसके लेखक का नाम बालचन्द्र दिया है । ये दिगम्बर जैन हैं । - (१२) गुजराती बालावबोध--'सट्ठिसयपगरण' के कर्ता जैन गृहस्थ मारवाड़ी श्रीनेमिचन्द्र भण्डारी ने इसकी रचना की है। (१३) गुजराती बालावबोष-खरतर गच्छ के मेरुसुन्दर ने सन् १४७८ में इसकी रचना की है। इसके Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૬ प्रारम्भ में ५ और अन्त में २ पद्य संस्कृत में हैं। यत्र-तत्र सस्कृत में विवरण भी दिया है। अलंकार शास्त्र के ग्रन्थों पर गुजराती बालावबोध बहुत कम प्राप्त होते हैं अत: इनका महत्त्व अधिक है। . इनके अतिरिक्त जनेतर विद्वानों में कृष्ण शर्मा और श्री गणेश-ग्रादि ने भी इस ग्रन्थ पर टीकाएँ लिखी हैं। २-काव्यानुशासन-इसके प्रणेता कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्रसूरि हैं। ये 'पूर्णतल्ल' गच्छ के प्रभावशाली प्राचार्य थे। इनका जन्म सन् १०८८ ई० में हुआ था। ये व्याकरण, कोश, छन्द, अलंकार, काव्य, न्याय, तत्त्वज्ञान, योग और अन्यान्य विविध विषयों के पारदर्शी विद्वान् थे अतः इन सभी विषयों पर प्रभावशाली ग्रन्थों की रचनाएँ की है। प्रस्तुत ग्रन्थ सन ११४२ ई० की रचना है। यह पाठ अध्यायों में विभक्त है तथा इसमें क्रमश: २५, ५६, १०, ६, ६, ३१, ५२ तथा १३ सूत्र हैं जो मिलकर २८८ होते हैं। प्रथम अध्याय में 'काव्य के प्रयोजन, हेतु, लक्षण, शब्दार्थस्वरूप तथा मुख्य, गौण, लक्ष्य एवं व्यङग्य ऐसे चार प्रकार के अर्थों का विचार किया गया है। द्वितीय अध्याय में रस, स्थायी, व्यभिचारी और सात्त्विक रते हुए अन्तिम चार सूत्रों में काव्य के उतमादि तीन प्रकारों का विचार है। तीसरे अध्याय में शब्द, अर्थ, वाक्य तथा रस के दोषों का विवेचन है। चौथे अध्याय में गुणों की चर्चा है । पाँचवे अध्याय में अनुप्रास, यमक, चित्र, श्लेष, वक्रोक्ति और पुनरुक्ताभास इन छह शब्दालंकारों का वर्मन है । छठे अध्याय में 'संकर' सहित १ अर्थालङ्कारों का निरूपण हुआ है। सातवां अध्याय नायक, नायिका के भेद तथा प्रतिनायक के स्वरूप का विचारक है। प्राठवां अध्याय काव्य के दृश्य और श्रव्य ऐसे दो प्रकार समझाकर इनके उपप्रकारों के विवेचन से पूर्ण हया है । इस ग्रन्थ पर निम्नलिखित टीकाएँ प्राप्त होती हैं (१) स्वोपज्ञ टीका-इस ग्रन्थ पर 'प्रलङ्कार-चूडामरिण' नामक टीका स्वयं ग्रन्थकार ने लिखी है जो २८०० श्लोक प्रमाण है। यह सरल है और इसमें विवादग्रस्त विषयों पर विचार नहीं किया गया है जब कि विषय की पुष्टि के लिए ६७ प्रमाण और ७४० उदाहरण दिए गए हैं जो शृङ्गार-तिलक तिल कमञ्जरी, दशरूपक, नाट्यशास्त्र तथा उसकी अभिनवगुप्तकृत टीका से लिए गए हैं। (२) स्वोपज्ञ-विवेक-'काव्यानुशासन' तथा 'अलङ्कार-चूडामणि' दोनों को लक्ष्य में रखकर काव्यशास्त्रीय सक्ष्मचिन्तन की दृष्टि से प्राचार्यश्री ने इस वृत्ति की रचना की है। इसमें अनेक विषयों की विचारणीय बातों पर बचार हपा है तथा २०१ प्रमाण एव ६२४ उदाहरणों का समावेश इसकी महत्ता में अभिवृद्धि करते हैं। छन्दोऽनुशासन, भगवद्गीता, नाट्यशास्त्र, काव्यमीमांसा आदि अनेक ग्रन्थो के उद्धरण इसकी विवेचना-गत विशिष्टता को स्पष्ट करते हैं। (३) वृत्ति-काव्यानुशासन की 'अलङ्कार-चूडामणि' टीका को लक्ष्य में रखकर न्यायाचार्य श्रीमद् यशोविजयजी महाराज ने भी एक वृत्ति की रचना की थी। इसका प्रमाण उन्हीं के एक ग्रंथ 'प्रतिमाशतक' की स्वोपज्ञ टीका में 'प्रपञ्चितं चैतदलङ्कारचूडामरिणवृत्तावस्माभिः' इत्यादि वाक्य से मिलता है । किन्तु अब यह अप्राप्य है। यह ग्रन्थ उपर्युक्त दोनों टीकाओं से युक्त निर्णयसागर प्रेस-बम्बई से 'काव्यमाला' (७०) में सन् १९०१ में तथा उसके बाद मूल, टीका और वृत्ति के अतिरिक्त ताडपत्र पर लिखित प्रज्ञातकर्तृक टिप्पणी एवं प्राकृत पद्यों की संस्कृत छाया के साथ ६ अनुक्रमणिका और डॉ. मानन्दशंकर बापुभाई ध्रुव जी की पूर्ववचनिका सहित प्रथम खण्ड तथा श्री रसिकलाल छोटालाल परीख के अंग्रेजी उपोद्घात एवं प्रो० रामचन्द्र पाठवले के अंग्रेजी टिप्पण सहित द्वितीय Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ खण्ड के रूप में 'महावीर जैन विद्यालय बम्बई' से सन् १९४८ में प्रकाशित हुया है। इस रप श्रीलावण्यसूरि जी ने भी एक टीका लिखी थी। इस ग्रन्थ पर डॉ० छगनलाल शास्त्री तथा एक अन्य विद्वान् ने शोधकार्य करके पी-एच० डी० उपाधि के शोधप्रबन्ध भी प्रस्तुत किए हैं। मलङ्कार-प्रबोध- 'पद्मानन्द-महाकाव्य प्रादि कृतियों के निर्माता श्रीअमरचन्द्रसूरि (सन् १२२३ के लगभग) की इस रचना का उल्लेख 'कास्यकल्पलता-वृत्ति' में किया गया है। जैसा कि कृति का नाम है. उसके अनुसार इसमें अलङ्कारों का विवेचन होगा ऐसा लगता है । यह पुस्तक अनुपलब्ध है। ४. अलङ्कारमहोदधि-श्रीनरचन्द्र सूरि के शिष्य श्रीनरेन्द्रप्रभ सूरि ने इस ग्रन्थ की रचना सन् १२२३ ई० के आसपास की है। ये मन्त्रीश्वर वस्तूपाल के समकालीन थे और उन्हीं की अभ्यर्थना से प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना की थी। 'विवेक-कलिका' और 'विवेक-पादप' नाम से दो सूक्तिसंग्रह, काकूस्थ-केलि-नाटक, वस्तुपाल-प्रशस्ति-दो तथा 'गिरनार के वस्तुपालसम्बन्धी प्रशस्तिःलेखों में से एक लेख' का निर्माण इनकी कृतियों में प्रमुख हैं। यह ग्रन्थ पाठ तरंगों में विभक्त है तथा सभी तरंगों में दिये गये पद्यों की संख्या तीन सौ चार है। इन तरंगों में क्रमशः १. काव्यप्रयोजन एवं काव्यभेद, २. शब्दवैचित्र्य, ३. ध्वनि, ४. गुणीभूतव्यंग्य, ५. दोष, ६. गुण, १७. शब्दालङ्कार और ८. अर्थालङ्कारों का निरूपण है । (१) स्वोपज्ञवृत्ति-ग्रन्थकर्ता ने ग्रन्थरचना के २ वर्ष बार ४५०० श्लोक प्रमाण इस वृत्ति का निर्माण किया है। इसमें प्राचीन कवियों की कृतियों से उदाहरण के रूप में ६८२ पद्य उद्धृत किये गये हैं। यह ग्रन्थ- 'अलङ्कार-तिलक' नामक स्वोपज्ञ वृत्ति के साथ 'काव्यमाला' (४३) में छपा है। तदनन्तर 'गायकवाड़' पौर्वात्य ग्रन्थमाला-बड़ोदा से पं. श्रीलालचन्द्र भगवान् गाँधी के सम्पादन में छपा है। इसमें परिशिष्टादि भी सङ्कलित हैं।' ५. काव्यानुशासन-इस नाम को यह द्वितीय कृति है ; सन् १२६२ ई० के निकट वाग्भट द्वितीय ने इसका . निर्माण किया है। इनके पिता का नाम नेमिकुमार था। काव्यानुशासन (पृ० ३१) में इन्होंने वाग्भट प्रथम का नामोल्लेख किया है अतः ये वाग्भट द्वितीय हैं यह निर्विवाद है ।२ १. इस ग्रन्थ के 'हिन्दी अनुवाद सम्पादन एवं समीक्षा' को अपने शोध का विषय बनाकर डॉ० आशा देवालिया वाचस्पति (डि.लिट०) उपाधि के लिये इन पंक्तियों के लेखक (डॉ० रुद्रदेव त्रिपाठी) के निर्देशन में शोधकार्य कर रही है। २. प्राचार्य विश्वेश्वर सिद्धान्त शिरोमणि ने काव्य-प्रकाश (हिन्दी अनुवाद सहित) की भूमिका (पृ०८०) में वाग्भट की चर्चा करते हुए इन्हें वाग्भटालङ्कार और काव्यानुशासव का एक ही कर्ता माना है। साथ ही उनका कथन है कि ये अनहिलपट्टन के राजा जयसिंह के महामात्य थे। इनकी रचनाओं में-१-वाग्भटालङ्कार, २-काव्यानुशासन, ३-नेमिनिर्वाणमहाकाव्य, ४-ऋषभदेवचरित, ५-छन्दोऽनुशासन और प्रायुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रन्थ ६-अष्टाङ्गहृदय' की गणना भी की है। किन्तु जैन विद्वान् 'अष्टाङ्ग-हृदय' के रचयिता वाग्भट को इन दोनों से भिन्न ही मानते हैं - द्रष्टव्य-"जैन संस्कृत साहित्यनो इतिहास" भाग-१ पृ० १५५ तथा १७४ । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ यह ग्रन्थ पांच अध्यायों में विभक्त है। प्रथम अध्याय में-काव्य सम्बन्धी विषयों का निरूपण है जिनमें 'प्रयोजन, हेतु, कविसमय, लक्षण, गद्य-पद्यादि भेद, महाकाव्य, आख्यायिका, कथा, चम्पू और मिश्रकाव्यों के लक्षण तथा दस रूपक, गेय प्रादि का विवेचन है। द्वितीय अध्याय में पदगत और वाक्यगत दोष एवं दस गुणों की चर्चा है। तीसरे अध्याय में तिरसठ अर्थालंकारों का निरूपण है जिनमें 'अन्य, अपर, आशिष, उभयन्यास, पिहित, पूर्व, भाव, मत और लेश' नामक अलंकार भी हैं जो अन्यत्र प्रचित हैं। चौथा अध्याय शब्दालंकारों का निरूपक है। इसमें चित्र, इलेष अनुप्रास, वक्रोक्ति, यमक और पुनरुक्तवदाभास के प्रकार एवं उपप्रकारों का विवेचन है । पाँचवें अध्याय में रस, विभाव अनुभाव और व्यभिचारीभाव, नायक-नायिका-प्रकार, काम की दस दशाएं तथा रस-दोषों की चर्चा है। मुख्यत यह सूत्रात्मक शैली में निर्मित है। १. स्वोपज्ञवृत्ति-ग्रन्थकार ने अपने प्राशय को व्यवस्थित रूप से समझाने के लिये स्वयं वृत्ति की रचना भी की है तथा उसमें काव्यप्रकाश, काव्यमीमांसा, वाग्भटालंकार, नेमिनिर्वाण काव्यादि अनेक ग्रन्थों का उपयोग किया है। ६. अलङ्कारसार-यह कृति 'अलङ्कारसङ्ग्रह' और 'काव्यालङ्कारसार-सङ्कलना' नाम से भी पहचानी जाती है । सन् १३५५ ई. के निकट इसकी रचना 'खण्डिल' गच्छ के प्राचार्य भावदेव सूरि ने की है। इसमें पाठ अध्याय हैं जिनमें क्रमशः ५, १५, २४, २५, ४६, ५ तथा ८ पद्य हैं। इस प्रकार कूल १३३ पद्यों की यह लघु कृति काव्य के सभी . अङ्गों पर प्रकाश डालती है। इसके पहले अध्याय में -काव्य का फल और काव्य का स्वरूप' विवेचित है। दूसरा अध्याय-शब्द और अर्थ के स्वरूप' का निरूपक है। तीसरे अध्याय में-शब्दगत और अर्थगत दोष बतलाये हैं। चौथे में गुणों पर प्रकाश डाला है। पांचवें में शब्दालंकार और छठे में अर्थालङ्कारों का निरूपण हुआ है। सातवें में रीति और पाठ में भाव-विभाव और अनुभावों का स्वरूप प्रालिखित है। इन विषयों के आधार पर ही अध्यायों के नामों की भी योजना की गई है। इसकी प्रत्येक पुष्पिका में कर्ता ने स्वयं को 'कालकाचार्य-सन्तानीय' कहा है तथा अन्त में 'प्राचार्य भावदेव' के नाम से अपना परिचय दिया है। प्राचार्य भावदेव ने पार्श्वनाथ-चरित्र' (संस्कृत) जइदिणचरिया' तथा 'कालककहा' (प्राकृत) की भी रचनाएं की हैं। 'अलङ्कार-सार' का प्रकाशन 'गायकवाड़ ओरियण्टल सीरिज बड़ौदा' से प्रकाशित 'अलङ्कार-महोदधि' ग्रन्थ के परिशिप्ट में हुआ है।' अलङ्कार-मण्डन-मण्डनान्त आठ कृति, 'कवि-कल्पद्रम-स्कन्ध' और 'चन्द्रविजय' के रचयिता के रूप में प्रसिद्ध गृहस्थ मन्त्री मण्डन की यह कृति १४२८ ई० के लगभग निर्मित है। यह पाँच परिच्छेदों में विभक्त है। इसमें काव्य के लक्षण, प्रकार, रीति, दोष, गुण, रस और अलङ्कारों का विमर्श दिया है। इनकी अन्य रचनाएं १. उपसर्गमण्डन (व्याकरण), २. कादम्बरी-मण्डन ३. काव्य-मण्डन, ४. चम्पू-मण्डन, ५. शृङ्गार-मण्डन, ६. सङ्गीत-मण्डन और ७. सारस्वत-मण्डन' हैं । महेश्वर नामक कवि ने अपनी काम्य-मनोहर नामक कृति में मन्त्री मण्डन के चरित्र का ग्रथन किया है। प्रस्तुत 'अलंकार-मण्डन' और कुछ अन्य कृतियाँ 'हेमचन्द्राचार्य समा'-पाटण (गुजरात) से १९७५ ई. में छप चुकी हैं । इनकी पाण्डुलिपियाँ भी वहीं के भण्डार में सुरक्षित हैं। १. इस ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद सहित सम्पादन स्वतन्त्र रूप से इन पंक्तियों के लेखक ने किया है, जी प्रकाशनाधीन है। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. अलङ्कार-चिन्तामरिण- इस ग्रन्थ के प्रणेता दि० आचार्य अजितसेन (ई. सन् १२५०-६० के निकट) हैं। यह पांच परिच्छेदों में विभक्त है । इसमें काव्यशास्त्र के विभिन्न विषयों का विस्तारपूर्वक विवेचन हुआ है। विषयवस्तु एवं रचना-प्रक्रिया की दृष्टि से 'अलङ्कार-चिन्तामणि' का प्रथम परिच्छेद एक सौ छह पद्यों में 'कवि-शिक्षा' सम्बन्धी विषयों को सम्यक प्रकार से विवेचित करता है। यहीं पञ्चम पद्य में अत्रोदाहरणं पूर्वपुराणादि-सुभाषितम् । पुण्यपूरुष-संस्तोत्रपरं स्तोत्रमिदं ततः ॥ यह कहकर पूरे ग्रन्थ को स्तोत्र सिद्ध किया है। काव्यलक्षण, कवि की योग्यता, काव्य-हेतु, महाकाव्य के वर्ण्यविषय, कविसमय, काव्यभेद-निरूपण प्रादि इसके प्रधान विषय हैं। द्वितीय परिच्छेद में शब्दालंकारों के चार भेदों का निरूपण एक सौ नवासी पद्यों में हुआ है। यहीं चित्रालंकारों के ४२ भेद बतलाये हैं । तृतीय परिच्छेद वक्रोक्ति, अनुप्रास और यमक के भेद-प्रभेदों से सम्पन्न है। ४१ पद्यों में यहाँ यमक के ११ भेद और अन्य उपभेदों का सोदाहरण विवेचन स्पहरणीय है। चतुर्थ परिच्छेद अर्थालंकारों का निरूपक है। यहां ३४५ पद्यों में प्रायः ७२ अर्थालंकारों का निरूपण करते हुए प्राचार्य अजितसेन ने साधर्म्य और सादृश्य के अतिरिक्त अलंकारों के वर्गीकरण के लिये-१. अध्यवसाय २-विरोध-मूलकत्व ३-वाक्यन्याय-मूलकत्व ४-लोक-व्यवहार-मूलकत्व ५-तर्कन्याय-मूलकत्व ६-शृंखलावैचित्र्य, ७-अपह्नव-मूलकत्व तथा ८-विशेषण-वैचित्र्यहेतुकत्व को भी आधार माना है। साथ ही १-अलंकार के लक्षणों में विच्छेदक पदों का प्रयोग एवं पदों की सार्थकता २-अलंकारों के पारस्परिक अन्तर का विश्लेषण, ३-उपमा के भेद-प्रभेदों का नयी दृष्टि से विचार-विनिमय तथा ४-स्वमत की पुष्टि के लिये अन्य अलंकारशास्त्रियों के वचनों का प्रस्तुतीकरण जैसी विशेषताओं से इस परिच्छेद का महत्त्व भी निखर आया है। पञ्चम परिच्छेद में 'रस, नीति, शब्दशक्तियाँ, वृत्तियाँ गुण, दोष एवं नायक-नायिका के भेदों का विवेचन किया गया है। इस परिच्छेद में ४०६ पद्य हैं। यहाँ नाटक और ध्वनि सम्बन्धी विचारों को छोड़कर काव्यशास्त्र-सम्बन्धी सभी आवश्यक चर्चाएं समाविष्ट हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ दो भागों में विभक्त है लक्षण और लक्ष्य-उदाहरण । लक्षण-सम्बन्धी सभी पद्य अजितसेन द्वारा रचित हैं तथा लक्ष्य-सम्बन्धी सभी पद्य अन्य जैनग्रन्थों से लिए गये हैं। वैसे यह ग्रन्थ भोज के 'सरस्वतीकण्ठाभरण' से प्रभावित है किन्तु इसके प्रत्येक विषय को विज्ञान के धरातल पर प्रतिष्ठित करने का पूरा प्रयास आचार्य अजितसेन ने किया है। ___ इस ग्रन्थ का प्रथम प्रकाशन सन् १९०७ ईसवी में सोलापुर से हुआ था और इसी का हिन्दी अनुवाद एवं विस्तृत भूमिका सहित दूसरी बार प्रकाशन 'भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, वाराणसी' से सन् १९३० में हना है। ९. शृङ्गार-मञ्जरी- श्रीअजितसेन के नाम से यह एक लघूकाय ग्रन्थ भी प्राप्त होता है। इसमें तीन परिच्छेद हैं। इसकी रचना प्रायः सन् १२४५ में हुई है। ग्रन्थ की प्रशस्ति में लिखा है कि राज्ञी विट्ठलदेवीति ख्याता शीलविभूषणा। तत्पुत्रः कामिरायाख्यो 'राय' इत्येव विश्रुतः ।। तद्भूमिपालपाठार्थमुदितेयमलङिक्रया । संक्षेपेण बुर्घषा यद्भात्रास्ति (?) विशोध्यताम् ॥ इस ग्रन्थ की उपलब्ध दोनों प्रतियों में शृङ्गारमञ्जरीनामालङ्कार' ऐसा अन्त में लिखा है तथा काव्य के शृङ्गारकारी तत्त्वों का इस में संक्षिप्त संग्रह है। १०. शृङ्गारार्णव-चन्द्रिका प्राचार्य विजयकोति के शिष्य श्री विजयवर्णी द्वारा रचित (ई० सन् १२५०) Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० यह ग्रन्थ दस परिच्छेदों में विभक्त है। यह युवक नरेश कामिराय प्रथम बंगनरेश की प्रेरणा से लिखा गया था । काव्यशास्त्रीय - परम्परा के ग्रन्थों की रचना-प्रक्रिया से कुछ भिन्न प्रकार से इस ग्रन्थ का प्रारम्भ हुआ है। प्रथम परिच्छेद में 'वर्णगरणफलविचार' ६३ पद्यों में किया गया है । कविशिक्षा की दृष्टि से यह उपादेय है । द्वितीय परिच्छेद में - काव्यगत शब्दार्थ निश्चय, काव्यहेतु कथन, १- रौचिक २ वाचिक, ३-प्रार्थ, ४- शिल्पिक, ५ मार्दवानुग, ६ - विवेकी ७- भूषणार्थी नामक सात प्रकार के कवि तथा ४ प्रकार के अर्थो का निरूपण किया गया है । इसमें ४२ पद्य हैं । तृतीयपरिच्छेद १३० पद्यों का है जिसमें 'रस-भाव- निश्चय' को प्रमुखता दी गई है। चतुर्थ परिच्छेद में १६३ पद्यों द्वारा नायक-नायिकाभेदों का निश्चय प्रस्तुत हुआ है । पञ्चम परिच्छेद में 'दशगुणनिश्चय' ३१ पद्यों में किया गया है। षष्ठ, सप्तम और अष्टम परिच्छेदों में क्रमशः रीति, वृत्ति और शय्या-पाक आदि का वर्णन १७, १६ और १० पद्यों में है । नवम परिच्छेद में 'अलङ्कार निर्णय' की दृष्टि से चार शब्दालङ्कार और चालीस प्रर्थालङ्कारों का १३० पद्यों में विवेचन हुआ है । अन्तिम दसवां परिच्छेद 'गुणदोषनिर्णय' नामक है। जिसके १६७ पद्यों में पद, वाक्य और प्रर्थदोष तथा गुणों का निरूपण किया गया है। इस ग्रन्थ का प्रकाशन 'भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी, ने किया है । ११. श्रलङ्कार-संग्रह — इसके रचयिता श्री अमृतनन्दि हैं। इसके छह प्रकरणों में क्रमशः १ - वर्णगरण विचार, २- शब्दार्थनिर्णय, ३-रसवर्णन, ४- नेत्रभेदनिर्णय, ५ - प्रलंकारनिर्णय तथा ६ - गुणनिर्णय' का विवेचन किया गया है। इस कृति की पाण्डुलिपियों के बारे में 'जिनरत्नकोश' के भाग १, पृ०१७ में उल्लेख है । १२. काव्यलक्षरण - जैनग्रन्थावली ( पृ० ३१६) में इस अज्ञातकर्तृक कृति का उल्लेख है तथा इसका आकार २५०० श्लोक प्रमाण बताया | अन्य विशेष जानकारी नहीं मिल पाई है । १३. काव्याम्नाय - जैन ग्रन्थावली ( पृ० ३१५ ) में २० पत्रवाली इस कृति के निर्माता अमरचन्द्र का उल्लेख है किन्तु जिनरत्नकोश (खण्ड १, पृ. ६१ ) में इसके बारे में यह संशय किया गया है कि यह जयदेव के चन्द्रालोक की टीका भी हो सकती है ? १४. प्रक्रान्तालङ्कार-वृत्ति - जिनहर्ष के शिष्य द्वारा रचित इस कृति का उल्लेख 'जिनरत्नकोश' ( खण्ड १, पृष्ठ २५७ ) में किया गया है और बताया गया है कि इसकी ताडपत्रीय प्रति पाटण- गुजरात के भण्डार में है । १५. कर्णालङ्कार- मञ्जरी - जैनग्रन्थावली ( पृ० ३१५) में ७० पद्यों की इस कृति का उल्लेख करते हुए इसके कर्ता का नाम त्रिमल्ल दिया है। किन्तु जिनरत्न कोश में इसका नाम नहीं है । १६. अलङ्कार - चूर्णि अलङ्कारावचूरि-- जिनरत्नकोश ( खण्ड १, पृ. १७) में यह कृति उल्लिखित है । यह पृष्ठ की लघु कृति है । ३५० पद्यों की प्रायः १५०० श्लोक प्रमाण पाँच परिच्छेदवाली इस कृति में मूलकृति के प्रतीक भी दिए गए हैं। इसके प्रारम्भ भाग से ज्ञात होता है कि इसमें रस, नायक-नायिकाभेद आदि का विवेचन होगा । । १७. रूपकमञ्जरी - गोपाल के पुत्र रूपचन्द्र की १०० वली ( पृ० ३१२) में किया है। जिनरत्नकोश में इसका नाम नहीं है नाममाला' के नाम पर यह परिचय दिया हुआ है । यह रचना ई० स० की जाती है कि इसमें रूपक अलंकार के सम्बन्ध में विवेचन होगा ! श्लोक प्रमाणवाली इस कृति का उल्लेख जैन ग्रन्था किन्तु ( खण्ड १, पृ० ३३२ ) में 'रूपकमञ्जरी १ ८७ की है । नाम के आधार पर यह कल्पना १८- २०. रूपकमाला -- यह उपाध्याय पुण्यनन्दन की कृति है तथा इस पर समयसुन्दर गरिए ने सन् १६०६ में टीका भी लिखी है। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१ इसी नाम की एक अन्य कृति पाश्चन्द्रसूरि ने सन् १५२१ में बनाई है। एक अन्य अज्ञातकर्ता के के नाम से भी इस नाम की कृति का उल्लेख मिलता है । २१. कोक्ति-शिका जैन ग्रन्थावली (१० ३१२) के अनुसार यह 'रत्नाकर' की कृति है। सम्भवतः इसमें वक्रोक्ति-सम्बन्धी ५० पद्यों का संग्रह होगा ! ये ग्रन्थ इस बात के साक्षी हैं कि अलङ्कारशास्त्र को विवेचना में जैन मनीषियों ने पर्याप्त योग दिया है तथा अनेक विषयों पर अपनी नवीन उद्भावनाओं को प्रस्तुत करने में भी वे पीछे नहीं रहे हैं। [ ३. नाट्यशास्त्र के ग्रन्थ और ग्रन्थकार ] १. नाट्यदर्पण - यह रामचन्द्र और गुणचन्द्र नामक दो विद्वानों की कृति है। वे दोनों आचार्य हेमचन्द्र के शिष्य थे अतः इनका समय सन् १०६८ से ११७३ माना जाता है । ये अपने गुरु के समान ही बहुश्रुत थे। कविकटार मल्ल, स्वातन्त्र्यत्रिय शतावधानी यादि अनेक उपाधियों से विभूषित रामचन्द्रसूरि धौर उनके सहयोगी गुरुभाई चन्द्र ने लगभग सौ ग्रन्थों की रचना की थी। नाट्यशास्त्र के क्षेत्र में इनका 'नाट्यदण' अत्यन्त महत्वपूर्ण है। नाट्यदर्पण चार विवेकों में विभक्त है। इसकी मूल कारिकाएँ क्रमशः चारों विवेकों में ६५, ३७, ५१ और ५४ कुल मिला कर २०७ है 'नाटक-निर्णय' नामक प्रथम विवेक में नाटकसम्बन्धी सभी बातों का निरूपण है। रूपक के बारह भेदों को जिन्हें वाणीरूप आचारादि बारह प्रङ्गरूप भी कहा है। द्वितीय विवेक का नाम प्रकरणाद्येकादश-निर्णय' है और इसमें प्रकरण से लेकर बीबी तक ११ रूपकों का विवेचन दिया है। तृतीय विवेक का नाम 'वृति रस-मावाभिनय- विचार' रखा गया है। इसके अनुसार इसमें भारती यादि चार वृति शृङ्गार से शाम तक नौ रस, नौ स्थायीभाव तंतीस व्यभिचारी भाव रसादि पाठ प्रनुभाव और चार अभिनयों पर प्रकाश डाला है। चौचा विवेक 'सर्वसाधारण-लक्ष-निर्णय' नामक है जिसमें सभी रूपकों पर घटाने योग्य लक्षण दिए गए हैं। . १. स्वोपज्ञवृत्ति - दोनों प्राचार्यों ने अपने ग्रन्थ पर प्रायः ४५०० अनुष्टुप् प्रमाण की यह वृत्ति लिखी है । इस विषय की पुष्टि के लिए जैन तथा जनेतर ग्रन्थों के उदाहरण दिए गए हैं तथा भरत के 'नाट्यशास्त्र', धनञ्जय के 'दशरूपक' तथा हेमचन्द्र के 'काव्यानुशासन' के कई उद्धरण भी हैं और कुछ स्वरचित नाटकों का भी नामनिर्देश किया है। कुछ ग्रन्थों में 'नाट्यदर्पण' का उल्लेख भी मिलता है किन्तु सम्भवतः वह ग्रन्थ कोई अन्य ग्रन्य रहा होगा क्योंकि वे अंश इस ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं हैं। जैन विद्वानों में नाट्यशास्त्र पर लिखित यही ग्रन्थ आज उपलब्ध होता है। रायप्पसेराइज्ज नामक उपाङ्ग (०२३) की वृत्ति में मलयगिरि सूरि ने नाट्यविधिप्राभूत' (नायविहिपाहुड) नामक ग्रन्थ का उल्लेख किया है। इस प्राभूत में नाट्यशास्त्र का निरूपण होगा ! किन्तु यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। [ ४- छन्दः शास्त्र के ग्रन्थ और ग्रन्थकार ] १. छन्दः शास्त्र जैन सम्प्रदाय के प्राचायों द्वारा प्रणीत छन्द शास्त्रीय ग्रन्थों में सर्वप्राचीन इस नाम का यह ग्रन्थ प्राप्त होता है। विक्रम की छठी पाती में उत्पन्न, जैनेन्द्रव्याकरण आदि ग्रन्थों के रचयिता आचार्य पूज्यपाद की यह कृति है । जयकीर्ति ने अपने 'छन्दोऽनुशासन' में जिन पूज्यपाद की कृति का उपयोग किया था, वह यही ग्रन्थ है किन्तु यह ग्रन्थ अब तक प्राप्त है । २. जयदेवच्छन्दस्-तमि साधु, स्वयम्भू, कविदर्पणकार तथा जयकीर्ति आदि सभी जैन ग्रन्थकारों ने जयदेव को बहुत महत्त्व दिया है, इस आधार पर तथा वैदिक छन्दों का निरूपण करने पर भी जनेतर सम्प्रदाय में Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ लोकप्रिय न होने से अनुमान किया गया है कि जयदेवच्छन्दस् के कर्ता जयदेव जैन ही हैं । इनका समय सन् ८९३ ई० माना जाता है । इस में पाठ अध्याय हैं जिनमें क्रमशः संज्ञा, गायत्री, अन्य वैदिकछन्द और लोकिक छन्दों का विचार किया गया है। इस पर निम्नलिखित ३ टीकाएँ हैं १. विवृति-मुकुल के पुत्र हर्षट (ई० सन् ११२४ से पूर्व) की यह विवृति है। जयदेव ने मूल में 'मुनि' और 'संतव' के मत का उल्लेख किया है। इसमें मुनि का अर्थ हर्षट ने पिङ्गल किया है । २-३-वृत्ति तथा टिप्पण--वृत्ति के निर्माता वर्धमान और टिप्पण के श्रीचन्द्र हैं। ३. छन्दोऽनुशासन-कन्नडी दि० जैन जयकीर्ति की यह रचना है। इस पद्यात्मक कृति में-जनाश्रय, जयदेव, पिङ्गल, पूज्यपाद, माण्डव्य और सैतव की छन्दोविषयक कृतियों का उपयोग किया गया है। इसमें '१. संज्ञा, २. समवृत्त, ३. अर्धसमवृत्त, ४. विषमवृत्ति, ५. आर्याजाति, मात्रा-समक जाति, ६. मिश्र, ७. कर्णाटविषय भाषाजाति और ८. प्रस्तारादि-प्रत्यय' नामक पाठ अधिकार हैं। यह रचना केदार के 'वृत्तरत्नाकर' तथा हेमचन्द्राचार्य के 'छन्दोऽनुशासन' के मध्यवर्ती काल की होने से बहुत महत्त्व की मानी जाती है। ४. छन्दःशास्त्र-'बुद्धिसागर-व्याकरण' के रचयिता श्री बुद्धिसागर सूरि (सन् १०२३ई. इसके भी रचयिता) हैं । इसका विशेष परिचय प्राप्त नहीं है। ५. छन्दःशेखर-इसके कर्ता राजशेखर (सन् ११२२ ई०) हैं। इसमें पांच प्रकरण हैं तथा प्रारम्भ के प्रकरणों में अपभ्रंश के छन्द तथा अन्तिम में संस्कृत छन्दों का निरूपण किया गया है। ६. छन्दोऽनुशासन-इसके निर्माता कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य हैं। यह पाठ अध्यायों में विभक्त है तथा इसमें ७६४ सूत्र हैं। इसके चौथे अध्याय में प्राकृत के सभी मात्रिक छन्दों का, पांचवे में अपभ्रंश के छन्दों का, छठे में षट्पदी और चतुष्पदी के प्रकार तथा सातवें में द्विपदी आदि का विचार अन्य पूर्ववर्ती ग्रन्थों की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है। इसीलिए यह कृति संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश इन तीनों भाषाओं के छन्दों का प्रातिनिध्य करती है। इस पर तीन टीकाएं इस प्रकार प्राप्त होती हैं १. स्वोपज्ञवृत्ति-जैनग्रन्थावली (पृ० ३१७) के अनुसार इसी का नाम 'छन्दश्चूगमरिण' है। इसमें मूल के अतिरिक्त भी छन्दोविषयक विभिन्न बातों को सोदाहरण स्पष्ट किया गया है । २. वृत्ति-मूल कृति अथवा उसकी स्वोपज्ञ वृत्ति पर न्यायाचार्य श्री यशोविजयजी गरिण द्वारा इस वृत्ति के निर्माण का उल्लेख 'जैनग्रन्थावली' (पृ० १०७) में हुपा है। पर यह उपलब्ध नहीं है। ३. टीका-यह वर्धमान सूरि द्वारा निर्मित है। ७. रत्नमञ्जूषा-अज्ञात कर्तृक यह २३० सूत्रात्मक संस्कृत छन्दःशास्त्र है। इस पर किसी प्रज्ञातनामक की टीका भी है जो जैन द्वारा लिखित है । संज्ञा, अर्धसमवृत्त, मात्रासमक वर्ग (जिनमें नत्यगति और नटचरण का भी समावेश है), विषम वृत्त तथा अन्य वर्णवृत्तों का विचार आठ अध्यायों में यहाँ प्रस्तुत हमा है। इस कृति का भाष्यसहित सम्पादन प्रो० हरिदामोदर वेलणकर ने किया है तथा यह 'समाष्यरत्नमञ्जूषा' के नाम से 'भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी' से प्रकाशित हुई है। ६. छन्दोरत्नाबली-प्रायः विक्रम की तेरहवीं शती में वर्तमान 'वेणीकृपाण' श्रीप्रमरचन्द्रसूरि की ७०० Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक प्रमाणवाली यह कृति प्रकरणों में विभक्त है। ग्रेन्यकार ने अपनी अन्य कृति 'काव्यकल्पलता' में इसका उल्लेख किया है। इसमें प्राकृत पद्य भी बहुत से उदाहृत हैं । ६. छन्दोऽनुशासन-इस कृति के कर्ता नेमिपुत्र वाग्भट हैं। ग्रन्थकार ने अपने काव्यानुशासन की स्वोपज्ञ वृत्ति में इसका उल्लेख किया है तथा पत्तनभाण्डाग रीय ग्रन्थ सूची' (भा-१, पृ० ११७) में इस छन्दोऽनुशासन के अवतरण दिए हैं। १. स्वोपज्ञवत्ति-वाग्भट ने स्वयं यह वत्ति बनाई है। १०. छन्दःशास्त्र-इसके कर्ता रामविजय गणि हैं। ११. छन्दस्तत्व-अञ्चलगच्छ के धर्मनन्दन गरिण की यह रचना है और इस पर 'स्वोपज्ञ वृत्ति' भी है। १२. रत्नमञ्जूषा-छन्दोविचिति--यह अज्ञातकर्तक रचना बारह विभागों में विभक्त है और इस पर किसी ने टीका भी लिखी है ऐसा 'जिनरत्नकोश' (खण्ड १, पृ० ३२७) में उल्लेख है। १३. छन्दोऽलङ्कार-यह अज्ञातकर्तृक रचना है और इसकी किसी ने टीका भी लिखी है। १४. अजितशान्ति-छन्दोविवरण-नन्दिषेण द्वारा रचित 'अजितशान्तिस्तव' में प्रयुक्त छन्दों के लक्षणों का विचार इसमें होगा ! ऐसा अनुमान है। १५.१६-१७. गाथारत्नकोष गाथारत्नाकर तथा छन्दोरूपक-इन कृतियों का नामतः उल्लेख मिलता है। १८. पिङ्गल-सारोद्धार-यह ५२६ श्लोकप्रमाणवाली कृति पिङ्गलकृत छन्दोविषयक कृति के साररूप में होगी ! ऐसा ज्ञात होता है। १६. नन्दिताल्यवृत्ति-यह नन्दिताब्य के गाहालक्खण पर रत्नचन्द्र की संस्कृत वृत्ति है। २०. छन्दःकोशटीका-नागपुरीय तपागच्छ के रत्नशेखर सूरि ने ७४ गाथानों में प्राकृत के 'छन्दःकोश' की रचना की है उस पर राजरत्न के शिष्य चन्द्रकीर्ति ने यह टीका लिखी है। .. २१. छन्दःसुन्दर टोका -यह किसी 'छन्दःसुन्दर' नामक ग्रन्थ की टीका होगी ! ऐसा अनुमान है। इस प्रकार इन छन्दःशास्त्रीय ग्रन्थों में १८ ग्रन्थ और ३-वृत्तियाँ-टीकाएँ हैं जो जैन विद्वानों के द्वारा की गई इस शास्त्र की सेवा के लिए अपूर्वयोग मानी जाती हैं । [३-अजैन काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों पर जैन प्राचार्यों की टीकाएँ] १. काव्यावर्श टीका-प्राचार्य दण्डी के काव्यादर्श' पर द अपरनाम वादिसिंह सूरि ने यह टीका निर्मित की है । इसकी एक पाण्डुलिपि बंगलिपि में ई० सन् १७०१ की लिखी प्राप्त होती है । २. काव्यालङ्कार-वृत्ति--(१) आचार्य रुद्रट द्वारा रचित 'काव्यालङ्कार' पर इस वृत्ति की रचना थारापद्र गच्छ के शालिभद्र सूरि के शिष्य 'नमि साधु' ने ई० सन् १०६८ में की है। इनकी अन्य रचना 'पावश्यक वृत्तिचैत्यवन्दनवृत्ति' है। प्रस्तुत वृत्ति में नमिसाधु ने अपने पूर्ववर्ती किसी अन्य प्राचार्य द्वारा रचित वृत्ति का उपयोग किया है तथा अपनी वृत्ति में कतिपय ग्रन्थकार और उनके अन्यों का उल्लेख भी किया है। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाहा ३. काव्यालङ्कार-निबन्धन-(२) रुद्रट को ही कृति पर यह द्वितीय टीका 'सपादलक्ष' देश से निकल कर मालवा की धारानगरी में रहकर विद्याभ्यास करनेवाले दिगम्बर जैन पं० प्राशाधर ने बनाई है। इसी टीकाकार ने 'सागारधर्मामृत' तथा 'अनगारधर्मामृत' पर भी क्रमशः ई० सन् १२३६ तथा १२४३ में टीकाएँ लिखी हैं । अतः प्रस्तुत 'निबन्धन' का समय भी इसी के बीच माना गया है। ४. से ६. काव्य-प्रकाश-संकेत एवं अन्य ६ टीकाएँ-मम्मट के 'काव्यप्रकाश' पर निर्मित इन सात टीकानों का परिचय हम आगे स्वतन्त्ररूप से प्रस्तुत करेंगे । अतः वहीं देखें । १०. सरस्वतीकण्ठाभरण-पदप्रकाश-महाराजा भोजदेव के काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ 'सरस्वती-कण्ठाभरण' पर पद-प्रकाश, नामक इस टीका के निर्माता हैं पार्श्वचन्द्र के पुत्र 'प्राजड़'। इस टीका की पुष्पिका तथा अन्य टीकांश पत्तन०भा० ग्रन्थ-सूची (भाग१, पृ० ३७-३६) में उद्घत हैं। ११. चन्द्रालोक-टीका 'काव्याम्नाय'-जिनरत्नकोश (खण्ड १, पृ. ११) में इस टीका के बारे में संकेत किया है जो संशयपूर्ण है। १२. विदग्धमुखमण्डन-धर्मदास नामक बौद्ध विद्वान् द्वारा प्रणीत इस ग्रन्थ के चार परिच्छेदों में प्रहेलिका और चित्रकाव्यों का विवेचन हुआ है । इस पर जैन विद्वानों ने लगभग आठ टीकाएँ बनाई हैं, जो इस प्रकार हैं (१) प्रवचूरिण-इसके रचयिता 'खरतर' गच्छ के प्राचार्य महान् स्तोत्रकर श्री जिनप्रभसूरि हैं। (२) टीका- खरतर' गच्छ के ही जिनसिंह सूरि के प्रशिष्य और लब्धिचन्द्र के शिष्य जिनचन्द्र ने यह टीका ई० स० १६१२ में लिखी है। (३) वृत्ति --सत्रहवीं शती के विनयसुन्दर के शिष्य बिनयरत्न की यह कृति है। (४) टोका-ई० सन् १६४२ में खरतर गच्छ के सुमतिकलश के शिष्य विनयसागर ने इस टीका की रचना की है। (५) टीका-इसके कर्ता भीमविजय हैं। (६) प्रवचूरि--जिनरत्नकोश (खण्ड १, पृ० ३५५) में इस अज्ञातकर्तृक कृति का उल्लेख हुआ है तथा इसका प्रारम्भ 'स्मृत्वा जिनेन्द्रमपि' से बतलाया है। (७) टीका-इस टीका के बारे में 'भारतीय विद्या' वर्ष २, अंक ३ में श्री अगरचन्द नाहटा के 'जनेतर ग्रन्थों पर जैन विद्वानों की टीकाएँ' शीर्षक लेख में कुकुदाचार्य-सन्तानीय द्वारा रचित कहा गया है। (E) बालावबोध-सट्ठिसयगपयरण, वाग्भटालङ्कार आदि अनेक ग्रन्थों पर बालावबोध की रचना करने वाले उपाध्याय मेरुसुन्दर ने १५४४ श्लोकप्रमाण इस बालावबोध की रचना की है। इसमें प्रारम्भिक ५ पद्य संस्कृत में हैं और यत्रतत्र संस्कृत में विवरण एवं गुजराती में अर्थ दिया है। [ ६-अजैन छन्दःशास्त्रीय ग्रन्थों पर जैन प्राचार्यों को टोकाएँ] (१)श्रतबोध-वृत्ति-महाकवि कालिदास के नाम से प्रसिद्ध इस ४४ पद्य की कृति पर नानक अपरनाम जीमूतानन्द के शिष्य हंसराज ने यह वृत्ति ई० सन् १५८८ के निकट निर्मित की है। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ (२) वृत्ति-नागपूरीय 'तपा' गच्छ के चन्द्रकीति सूरि के शिष्य हर्षकीर्ति सुरि द्वारा सत्रहवीं शती में यह वृत्ति बनाई गई है। (३) वृत्ति-यह नयविमल द्वारा रचित है । (४) वृत्ति-यह वाचक मेघचन्द्र के शिष्य की रचना है। इसका प्रारम्भ 'श्रीमत्सारस्वतं धाम' से होता है। इसका उल्लेख पिटर्सन की द्वितीय रिपोर्ट के परिशिष्ट (१० २२५) में दिया गया है। (५) वृत्ति-यह कान्तिविजय द्वारा रचित है। (६) टोका-यह माणिक्यमल्ल की कृति है। (१) वृत्तरत्नाकर वृत्ति-केदार भट्ट के इस ग्रन्थ पर 'उपाध्याय-निरपेक्षा' नामक वृत्ति का निर्माण तेरहवीं शती के विद्वान् 'कविसभाशृङ्गार' विरुद से विभूषित तथा मेघदूत के टीकाकार श्री प्रासड ने किया है। (२) वृत्ति-'वादी' देवसूरि के सन्तानीय जयमङ्गल सूरि के शिष्य सोमचन्द्र गणि ने ई० सन् १२७२ में यह वृत्ति निर्मित की है। (३).टिप्पनक-'खरतर' गच्छ के जिनभद्रसूरि के शिष्य क्षेमहंस ने इसकी रचना की है। ये पन्द्रहवीं शती के पूर्वार्ध में विद्यमान थे। (४) बालावबोध-'खरतर' गच्छ के मेरुसुन्दर ने इस बालावबोध की रचना की है। ये सोलहवीं शती में हुए हैं । कुछ भाग संस्कृत में और शेष गुजराती भाषा में यह व्याख्या होगी। (५) वृत्ति-यह वृत्ति समयसुन्दर गणि ने ई० सन् १६३७ में निर्मित की है। (६) वृत्ति-इसके रचयिता हर्षकीति सूरि के प्रशिष्य तथा अमरकीति के शिष्य यशःकीति हैं। इस प्रकार अर्जन छन्दःशास्त्रीय मुख्य दो ग्रन्थ 'श्रुतबोध' तथा 'वृत्तरत्नाकर' पर जैन विद्वानों ने बार टीकाएं लिखी हैं जो उनके छन्दः-सम्बन्धी अध्ययनानुराग की प्रतीक हैं। इस प्रकार साहित्य-शास्त्र की चिन्तन-परम्परा में जहाँ गृहस्थवर्ग ही प्रायः अध्ययन, अध्यापन तथा विवेचन आदि में संलग्न रहा है वहीं हमारा मुनिवर्ग भी इस शास्त्र के चिन्तन में जागरूक रहा है। सारस्वत साधना में श्लीलअश्लील अथवा लौकिक-अलौकिक की भावना से ऊपर उठकर वाग्देवी की अर्चना करना ही प्रमुख लक्ष्य रहता है। ताटस्थ्यभाव से सत्य को सत्य कहने की क्षमता सच्चे साहित्यकार का देवी गुण है। इसी गुण को मुखरित रखने में जैन मुनिवर्ग भी सदा अग्रणी रहा है । यह बात उपर्युक्त कृति-निचय के निदर्शन से सत्य परिलक्षित होती है। साम्प्रदायिक दुराग्रह की सीमा को लांघ कर 'विश्वमेकनीडम्' की भावना से लिखा गया साहित्य ही वस्तुतः साहित्य कहलाता है। सहभाव का उद्रेक भी तभी होता है, जब कि उसमें केवल सत्य, शिव और सुन्दर का ही सात्त्विक प्रतिबिम्ब अडित किया गया हो। इसीलिये कहा गया है कि साहित्यं पुरुषोत्तमस्य विमला विद्योतते स्फाटिकी, मूतिर्यत्र विलोकनात् स्फुटतरं बाह्य तथाभ्यन्तरम् । सर्व तत्त्वमवलि तत् सहृदयो यल्लोक-शोकापह, सत्यं मङ्गलरूपि सुन्दरतरं भास्वत्प्रभावान्वितम् ॥ (रुद्रस्य) Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाग्देवतावतार आचार्य मम्मट जन्मस्थान तथा जन्मकाल सम्बन्धी धारणाएँ सरस्वतीधाम काश्मीर में उत्पन्न आचार्य मम्मट का काल विभिन्न विद्वानों ने श्रनेकविध ऊहापोहों के आधार पर ईसा को ग्यारहवीं शती को माना है। इनके जीवन परिचय को अभिव्यक्त करने के लिये 'काव्य - प्रकाश' की ई० सन् १६६५ के निकट निर्मित 'सारसम्मुच्चय' अपर नाम 'निदर्शना' टीका के उपसंहार भाग की ' इति शिवागमप्रसिद्धघा त्रिशतस्व दीक्षा- क्षपित सकल-मल-पटलः प्रकटित- सत्स्वरूप- चिदानन्दघनो राजानककुल- तिलको 'मम्मटनामा देशिकवर: • इत्यादि - पङ्क्तियाँ और 'सुधासागर' नामक 'काव्य प्रकाश' की टीका में प्रदत्त परिचय-पद्य प्रस्तुत किये जाते हैं । इन उद्धरणों के प्रथम अंश से मम्मट की शिवागमज्ञता एवं तदन्तर्गत दीक्षित होकर उपासना द्वारा मानवजन्म सार्थकता १. 'शब्दब्रह्म सनातनं न विदितं शास्त्रः क्वचित् केनचित्, तद्देवी हि सरस्वती स्वयमभूत् काश्मीरदेशे पुमान् । श्रीमज्जयटगेहिनी सुजठराज्जन्माप्य युग्मानुजः, श्रीमन्मम्मटसंज्ञयाऽऽश्रिततनुं सारस्वत सूचयन् ॥ ४ ॥ मर्यादां किल पालयन् शिवपुरीं गत्वा प्रपख्यादराद, शास्त्रं सर्वजनोपकाररसिकः साहित्यसूत्रं व्यधात् । तद्वृत्ति च विरच्य गूढमकरोत् काव्यप्रकाशं स्फुटं, वैदग्ध्यैकनिदानमथषु चतुर्वर्गप्रदं सेवनात् ॥ ५ ॥ कस्तस्य स्तुतिमाचरेत् कविरहो को वा गुणान् वेदितुं, शक्तः स्यात् किल मम्मटस्थ भुवने वाग्देवतारूपिण: ? श्रीमान् कैयट प्रोटो ह्यवरजो यच्छात्रतामागतो, aroori निगमं यथाक्रममनुव्याख्याय सिद्धि गतः ॥ ६ ॥ ( सुधासागरी टीका, प्रारम्भ भाग) भीमसेन की यह टीका मम्मट के लगभग ६०० वर्षों के बाद सन् १७२३ में लिखी गई है, अतः इसमें कल्पना और किंवदन्ती का आश्रय ही अधिक लिया गया हो, ऐसा सम्भव है । वैसे काश्मीरी पण्डितों की परम्परागत प्रसिद्धि के अनुसार मम्मट 'नैषधीयचरित' के रचयिता महकवि हर्ष के मामा माने जाते हैं और इस सम्बन्ध में— 'तव वत्र्त्मनि वर्ततां शिवं' इत्यादि नैषध के द्वितीय सर्गस्थ पद्य से सम्बन्धित किंवदन्ती भी प्रचलित है । १. काव्यप्रकाश की प्रारम्भिक मङ्गलरूप 'नियतिकृत नियमरहितां' इत्यादि श्रार्या काश्मीरिक शैवागम के पूर्ण परिचय की प्रतीक है और इसी दर्शन की पृष्ठभूमि पर रस- दर्शन की स्थापना भी मम्मट ने की है । विशेष के लिए द्रष्टव्य- इसी आर्या की 'डॉ० सत्यव्रत सिंह कृत 'चन्द्रकला हिन्दी व्याख्या' । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ प्राप्ति के अतिरिक्त 'राजानक" कुल में उत्पत्ति प्रकट होती है, जो प्रायः सर्वमान्य है । किन्तु भीमसेन द्वारा जैयट की पत्नी के गर्भ से सम्ब का जन्म वाराणसी में अध्ययन और कंपट तथा चौवट की लघुभ्रातृता शिष्यत्व प्रावि बातें विभिन्न प्रमाणों से संशय-पूर्ण सिद्ध हुई हैं। टकारान्त नाम से इनका काश्मीरजन्मा होना अवश्य ही मान्य है। यद्यपि मम्मट ने कहीं अपने देश काल का सङकेत नहीं दिया है किन्तु इनके पूर्वापरवर्ती 'भोजदेव' (सन् १०२२ ) तथा 'माणिक्यचन्द्र' (सन् १९६०) के आधार पर ईसा की ग्यारहवीं शती को इनका स्थितिकाल तथा काव्यप्रकाश का रचनाकाल माना है । मूल ग्रन्थ 'काव्यप्रकाश' और 'शब्द-व्यापार- विचार' के परिशीलन से सहज स्पष्ट हो जाता है कि मम्मट अनेक शास्त्रों के मर्मज्ञ थे । पातजल-महाभाष्य वाक्यपदीय, शावर भाष्य तथा भट्ट कुमारित, मुकुल भट्ट प्रादि के व्याकरण, मीमांसा और तर्कसम्मत मतों का अपने ग्रन्थ में समायोजन-समालोचन एवं साहित्यशास्त्रीय पूर्ववर्ती भरत, भामह, दण्डी प्रभूति प्राचार्यों के विचारों का परिशीलन-पर्यालोचन इस बात का साक्षी है कि इनकी बहुशता वस्तुतः आश्चर्यकारक थी। इतना होते हुए भी ये मुख्यतः वैयाकरण थे, यह बात काव्य-प्रकाश के अनेक उद्धरणों से स्पष्ट है। ' मम्मट के इसी सर्वङ्कष पाण्डित्य को ध्यान में रखकर उन्हें वाग्देवतार, ध्वनिप्रस्थापनाचार्य, ध्वनि स्था पनपरमाचार्य, ग्रादि प्रत्यन्त आदरणीय पदावलियों से सम्बोधित किया गया है । काव्यप्रकाश और उसका महत्व । अलङ्कारशास्त्र के ग्रन्थ प्रोताओं की गुदी परम्परा में प्राचार्य मम्मट तथा उनकी अमर रचना 'काव्य'प्रकाश' का नाम बहुत ही आदरणीय बन गया है । काव्यप्रकाश की रचना से पूर्व विभिन्न आचार्य इन्हीं विषयों को अनेक दृष्टियों से विवेचित कर रहे थे । मम्मट का युग इस दृष्टि से नवीन चेतना-युग के रूप में विकसित होना चाहता या महाकवियों की काव्यसृष्टि के समीक्षण के साथ ही अनुभूति की गहराई व्यक्त करने के लिये "रस की अभि व्यक्ति, उतिपय वकोक्ति, भङ्गीमखिति ध्वनि और गुणीभूतव्यङ्ग तथा रसध्यनि" जैसी नवीन चेतनाओं द्वारा 'काव्य-दर्शन' का स्वरूप उपस्थित किया जा रहा था काश्मीर के दार्शनिक और साहित्यिक वातावरण में पलकर मेधावी मम्मट ने अपनी बहुमुखी प्रतिभा से उपर्युक्त सभी तत्वों को प्रात्मसाद करते हुए एक ऐसी समन्वयात्मक कृति की श्रावश्यकता का अनुभव किया और उसके परिणाम स्वरूप 'काव्यप्रकाश' का निर्माण हुप्रा । ध्वनिवाद के कुछ समर्थक प्राचीन अलङ्कारशास्त्र को ध्वनिवाद की दृष्टि से नवीन रूप देने की जो अपेक्षा रखते थे उसकी पूर्ति ध्वनिवादी अलङ्कारशास्त्ररूप 'काव्यप्रकाश' की रचना से मम्मट ने की और साथ ही साथ इसमें काव्यसमीक्षा के सभी आवश्यक सिद्धान्तों का भी प्रामाणिक सङ्कलन प्रस्तुत किया। डॉ. सत्यव्रतसिंह ने ठीक ही कहा है कि "मम्मट के हाथ से 'काव्यप्रकाश' काव्यालोचना के 'विज्ञान' के रूप में निकलता है किन्तु मम्मट के हाथ में 'काव्यप्रकाश' काव्यालोचना की 'कला' है काव्यप्रकाश का लेखक पहने पक्ति, व्युत्पत्ति पर प्रभ्याससम्पन्न सहृदय है धौर उसके बाद काव्यालोचक है ।" १. डॉ० सत्यव्रत सिंह मम्मट का वाराणसी में अध्ययन भी समीचीन ही मानते हैं २. 'बि' शब्द का दोष प्रकरण में समावेश देखकर विश्वनाथ ने 'काव्यप्रकाश किया है। ३. उद्धरणों के लिए देखें झलकीकर की भूमिका पृ० ८०१ । (वहीं भूमिका पृ० ६७ ) में काश्मीर का सङ्केत Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . अलङ्कार-शास्त्र की प्राचीन मान्यताओं का शृङ्खला-बद्ध वैज्ञानिक विवेचन प्रस्तुत करने के कारण उत्तरवर्ती काव्यशास्त्र के प्राचार्य इसी से प्रेरणा प्राप्त करते रहे हैं यही कारण है कि काव्यप्रकाश को 'अलङ्कार-शास्त्र का प्रस्थान ग्रन्थ' माना गया है। यह सूत्रशैली में लिखित और विषय-बाहुल्य से खचित होने के साथ ही भरत से लेकर भोजराज तक प्राय: १२०० वर्षों में अलङ्कार-शास्त्र के विषय में जिस विशाल साहित्य का निर्माण हया उसके सम्पर्ण सारतत्त्व से परिपूर्ण है। यद्यपि यह अब निश्चित-सा है कि 'काव्यप्रकाश' का निर्माण अकेले मम्मट ने नहीं किया है अपितू, इसमें 'अल्लट' नामक एक अन्य काश्मीरिक प्राचार्य का भी पूर्ण सहयोग रहा है। किन्तु यह सहयोग कितने अंश में है इस विषय में कुछ मतभेद भी हैं । तथापि 'माणिक्यचन्द्र' और 'रुचक' जैसे मम्मट के निकटकालीन टीकाकारों की निम्न पंक्तियों से इस ग्रन्थ का युग्मकर्तृत्व स्पष्ट है । पंक्तियाँ इस प्रकार हैं - १ 'अथ चायं ग्रन्थोऽन्येनारब्धोऽ परेण च समापित इति द्विखण्डोऽपि सङ्घटनावशादखण्डायते। (माणिक्यचन्द्रीय सङ्केत टीका) २ 'एतेन महामतीनां प्रसरणहेतुरेष ग्रन्यो ग्रन्थकृताऽनेन कथमप्यसमाप्तत्वादपरेण च पूरितावशेषत्वाद् द्विखण्डोऽपि ।' (रुचकीय सङ्कत टीका)। इसी प्रसङ्ग में राजानक आनन्द ने अपनी 'काव्यप्रकाश-निदर्शना' टीका में लिखा है कि 'कृतः श्रीमम्मटाचार्यवयः परिकरावधि । प्रन्थः सम्पूरितः शेषं विधायाल्लटसूरिणा ॥' इससे यह स्पष्ट है कि मम्मट ने परिकरालङ्कार तक ग्रन्थ-रचना को और शेष की पूर्ति अल्लट सूरि ने की। किन्तु कुछ अन्य प्राचार्य दोनों (मम्मट' और अल्लट) की सम्मिलित कृति भी मानते हैं। 'काव्य प्रकाश' के तीन भाग क्रमशः १-कारिका, २-वृत्ति और ३-उदाहरण हैं । इनमें उदाहरण तो विभिन्न ग्रन्थों से संगृहीत हैं ही, किन्तु कारिका और वृत्ति इन दोनों के बारे में भी दो मत प्रचलित हैं। प्रथम मत है किकारिकाएँ भरत मुनि की हैं और वृत्ति मम्मट की । जब कि द्वितीय मत है कि इन दोनों के रचयिता मम्मट ही हैं। इन में पहला मत विद्याभूषण और महेश्वर नामक टीकाकारों का है और दूसरा मत जयराम नामक टीकाकार का है। प्राचार्य विश्वेश्वर सिद्धान्त-शिरोमणि ने अपनी काव्यप्रकाश की हिन्दी टीका की भूमिका में अनेक दृष्टि से विचार स्पष्ट करके जयराम के मत को ही उचित माना है जो कि वास्तविक प्रतीत होता है। काव्यप्रकाश का महत्त्व कितना अधिक है और क्यों ? इस बात को जानने के लिए निम्नलिखित बातें साररूप में ज्ञातव्य हैं १. 'काव्य प्रकाश' को रचना के कुछ वर्षों के पश्चात् ही इस पर टोका-निर्माण को परम्परा का आविर्भाव हुआ और वह आज भी प्रचलित है। २. इस पर साहित्य के अतिरिक्त अन्य सम्प्रदाय के अनुयायियों द्वारा भी निरन्तर टोकानों की रचना होती रही है। ३. इस में १४२ कारिका (सूत्र), वृत्ति और ६२० उदाहरणों द्वारा संक्षेप में ही सर्वाङ्गीण विषयों का विवेचन किया गया है। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ ४. काव्यशास्त्र के क्षेत्र में शताब्दियों से प्रचलित मतों का सार संग्रह इसमें समाविष्ट है । ५. नाट्य सम्बन्धी शास्त्र को छोड़ कर काव्यशास्त्र के सभी अंगों का व्यापक विवेचन इसकी विशेषता है । ६. अनेक नये सिद्धान्तों के विकास का यह मूलस्रोत है । ७. प्राचीन आचार्यों पर श्रद्धा रखते हुए भी इसमें यथावसर उनकी समालोचना करके वास्तविक पक्ष की स्थापना की गई है । ८. विभिन्न प्राचार्यों का श्राधार रखते हुए भी अपने स्वतन्त्र विचारों का प्रकाशन करने में संकोच नहीं किया गया है। ऐसे ही गुणों के कारण काव्यप्रकाश को अलङ्कार- शास्त्रों की परम्परा में प्रमुख स्थान प्राप्त हुआ है तथा यह भावी भाष्य तथा व्याख्याओं का उद्गमस्रोत बना हुआ है। डॉ० आदित्यनाथ झा ने उचित ही लिखा है कि काव्यानुशासन- विवेचन- कोविदानां, प्रज्ञा- सुवर्ण- निकषोपलतां दधानः । स्वल्पैः पदैविवृतमूरिगभीरतत्त्वः, 'काव्य-प्रकाश' इह कस्य न सुप्रशस्यः ॥ दोषा गुणा ध्वनिरलङ्कृतयः समस्ताः शास्त्रान्तरीयमनुबन्धि तथाऽर्थतत्वम् । काव्य प्रकाश मुकुरे प्रतिबिम्बकल्पं प्राकाशि मम्मट बुधेन नवक्रमेण ॥ यत्सूरिभिर्निगदितं पदवाक्य-मान-शास्त्रेषु काव्य- सहकारि-विचार-हारि । स्फोटादिजैमिनि नयानुगतञ्च किञ्चिद्, बौद्धोदितश्च विनिवेदितमत्र युक्त्या ॥ सूक्ष्मेक्षिका- समधिगम्यमुपेय वस्तु, सूत्रात्मकैर्गुरु भीरगिरां प्रवाहैः । श्रास्वादयन् सहृदयानु विशदं यशः स्वं श्रीमम्मट: स्फटिकमन्दिरवच्चकार ॥ १ काव्यप्रकाश का टीका - साहित्य 'टीका, साहित्य की गूढ निधियों की कुञ्जी है' अथवा 'टीका गुरूणां गुरुः' जैसी महत्त्वपूर्ण सूक्तियों से टीकाओं का महत्त्वं सर्वविदित है । विचारों को परिष्कृत करके पाठकों तक पहुँचाने का कार्य टीका के माध्यम से प्रतिसरल हो जाता है । ग्रन्थकार जब जिस परिप्रेक्ष्य में ग्रन्थ की रचना करता है उसका स्थायी प्रभाव ग्रन्थ में चिरनिहित होता है, किन्तु समय के प्रवाह में ज्ञान का प्रवाह भी बढ़ता रहता है इस लिए प्रत्येक चिन्तक अपनी-अपनी दृष्टि से ग्रन्थकार की भावनाओं को उसके ग्रन्थ के आलोक में ही अभिव्यक्त करना चाहता है । यही कारण है कि संस्कृतसाहित्य के ग्रन्थों पर न केवल टीकाएँ ही हुई हैं अपितु कतिपय टीकाओं की प्रटीकाएँ भी बनती रही हैं, और ये टीकाएं 'टीक्यते गम्यते प्रन्थार्थीsनया' इस व्युत्पत्ति को सार्थक करती रही हैं । जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि - "काव्यप्रकाश-भावी भाष्य और व्याख्यानों का उद्गमस्रोत बना हुआ है" तदनुसार इस ग्रन्थ की अनेक टीकाएँ हुई हैं जिनका परिचय तथा इन टीकाकारों में जैन टीकाकारों का कितना, किस प्रकार का योगदान हुआ है ? इस दृष्टि से यहाँ संक्षेप में क्रमिक परिचय दिया जा रहा है । १. द्रष्टव्य - महामहोपाध्याय सर गङ्गानाथ झा कृत 'काव्य-प्रकाश' के अंग्रेजी अनुवाद ग्रन्थ में भूमिका भाग । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१] 'सङ्कत' प्राचार्य माणिक्यचन्द्रसूरि ( सन् १११५ ई० जन्मकाल) काव्य प्रकाश वो अब तक उपलब्ध टीकानों में माणिक्य चन्द्र सूरि द्वारा रचित 'सङ्केत' टीका अति प्राचीन है। इस टीका में अन्य किसी टीकाकार का उल्लेख न होने से इसकी प्राचीनता सिद्ध होती है। इसकी रचना का समय स्वयं टीकाकार ने रस वक्त्र-१२ग्रहाधीशवत्सरे मासि माषवे । काव्ये काव्य-प्रकाशस्य सङ्केतोऽयं सथितः ॥ १२॥' यह लिखकर व्यक्त किया है। इसके अनुसार इस टीका की समाप्ति का समय सन् १९५६ ई० है। किन्तु इस सम्बन्ध में 'वक्त्र' शब्द के अर्थभेद को ध्यान में रखकर कुछ विद्वान् वि० सं० १२४६ और १२६६ भी मानते हैं। श्रीमाणिक्य चन्द्र सूरि 'राज' गच्छ के सागरचन्द्र मुनीन्द्र के शिष्य थे। रचनागत प्रौढ़ता को देखते हुए यह अनुमान करना स्वाभाविक होगा कि उस समय इनकी आयु प्रायः ४०-४५ वर्ष की अवश्य रही होगी अतः इनका समय १११५ ई. मानना उचित है। इन्होंने टीका के अन्त में दी गई 'पुष्पिका' के पद्यों में श्रीशीलभद्र, भरतेश्वर सूरि, वेरस्वामी और नेमिचन्द्र सूरि का वर्णन करते हुए अपने परमगुरुओं का उल्लेख किया है तथा अपने मतिवैभव की उपलब्धि में. . श्रीनेमिचन्द्र और सागरचन्द्र सूरि का बहुत बड़ा योग व्यक्त किया है। १. काव्य-प्रकाश-सङ्केत टीका का अन्तिम पद्य । २. डॉ० सांडेसरा (गायकवाड़ ओरियण्टल इन्स्टीटयूट-बड़ौदा के क्यूरेटर) ने अपने प्रबन्ध-Literary Cirele of Mahamatya vastupala' में वक्त्र' शब्द के ब्रह्मा से सम्बद्ध होने पर ४ तथा 'गुह' से सम्बद्ध होने पर ६ की संख्या के रूप में अर्थ मानकर वस्तुपाल के समय के साथ माणिक्यचन्द्र सूरि के स्थितिकाल का साम्य दिखाया है। किन्तु प्रो. रसिकलाल सी० परीख ने अपनी सोमेश्वरकृत काव्य-प्रकाश की संकेत टीकासम्बन्धी प्रकाशन की प्रस्तावना में इसे उचित नहीं माना है । द्रष्टव्य-काव्यप्रकाश (द्वितीय भाग), राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर (प्रकाशन १९५६ ई० । ३. श्रीशीलभद्रसूरीणां पट्ट मारिणक्यसन्निभाः। परम ज्योतिषो जाता भरतेश्वरसूरयः ॥ ३ ॥ भरतेन परित्यक्तोऽस्मीति कोपं वहन्निव । शान्तो रसस्तदधिकं भेजे श्रीमरतेश्वरम् ॥४॥ पवं तन्वलञ्चके वेरस्वामिमुनीश्वरः। अनुप्रद्योतनोद्योतं दिवमिन्दुमरीचिवतु ॥५॥ वाञ्छन् सिद्धिवधू हसन सितरुचि कोा रति रोदयन्, पञ्चेषोर्मथनाद् वहन भववनं कामन् कषायद्विषः । त्रस्यन् रागमलङ्घनाघनशकृद्भस्त्रास्त्यजन योषितो, बिभ्राणः शममद्भुतं नवरसी यस्तुल्यमस्फोरयत् ॥ ६ ॥ षतर्को-ललना-विलास-वसतिः स्फूर्जत्तपोहर्पतिस्तत्पट्टोदयचन्द्रमा: समजनि श्रीनेमिचन्द्रप्रभुः । निःसामान्यगुणभुवि प्रसृमरैः प्रालेयर्शलोज्ज्वलयश्चक्रे करणभोजिनो मुनिपतेय॑थं मतं सर्वतः ॥ ७॥ यत्र प्रातिमशालिनामपि नृणां सञ्चारमातन्वतां, सन्देहै। प्रतिभा-किरीट-पटली सद्यः समुत्तार्यते । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस टीका में भामह, दण्डी, उद्भट, वामन, अभिनव गुप्त, मुकुल और भोजराज के अभिप्रायों का उल्लेख हमा है तथा टीकाकार ने स्वरचित काव्य के उदाहरण भी यत्र-तत्र प्रस्तुत किए हैं। टीकाकार के दायित्वों का उचित निर्वाह करते हुए श्रीमाणिक्यचन्द्र सूरि ने जहाँ संक्षिप्त विवरण की अपेक्षा थी वहां संक्षित और जहाँ विस्तार आवश्यक था वहाँ विभिन्न प्रमाणों द्वारा विषय को विशद करने का प्रयास किया है। इस टीका के सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है कि गुरणानपेक्षिरणी यस्मिन्नर्थालङ्कारतत्परा । प्रौढाऽपि जायते बुद्धिः 'सङ्केतः सोऽयमभुतः ॥१॥ नानानन्यसमुद्धतरसकलरप्येव संसूचितः, 'सङ्केतो'ऽर्थ लवर्लविष्यति नृणां शके विशङ्कतमः । निष्पन्ना ननु जीर्ण-शीर्ण-वसन!रन्ध्र-विच्छित्तिमिः, प्रालेय-प्रथितां न मन्थति कथं कन्था-व्यथां सर्वथा ॥२॥ यह टीका 'अपने और अन्य विद्वानों के लिए' निर्मित की थी। इसके सम्बन्ध में उन्होंने स्वयं लिखा है कि'काव्य प्रकाश-सहकेतः स्वान्योपकृतये कृतः ॥११॥ सङ्कत में कुछ स्थलों पर जो महत्त्वपूर्ण विवेचन दर्शनीय हैं, उनमें १. लक्षणा-सूत्र' की व्याख्या, २. 'गङ्गायां घोषः' पर शास्त्रीय चर्चा, ३. 'मुखं विकसितस्मितं' तथा 'स्निग्ध श्यामल' पद्य की व्याख्या, ४. रसप्रकरण में पाए हुए विभिन्न मतों की चर्चा, ५. रसों के विभाग आदि का निरूपण, ६. पञ्चमोल्लास. में 'श्रतिलिङ्गस्थान' प्रादि की चर्चा एवं ७. अष्टम तथा नवम उल्लास में गुणों और यमक के स्वकृत उदाहरण प्रादि । द्वितीय उल्लास में अपने प्रबन्ध की महत्ता में इन्होंने लिखा है किसशब्दार्थ-शरीरस्य कालङ्कार-व्यवस्थितिः। यावत् कल्याणमारिणक्य-प्रबन्धो न निरीक्ष्यते ॥ इसी प्रकार नवम उल्लास के प्रारम्भ में 'सकेत' को लोकोत्तर भी कहा है । प्रत्येक उल्लास के प्रारम्भिक पद्यों में इसी प्रकार के कुछ न कुछ भाव प्रकट किए हैं किन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं है कि ये किसी प्रकार के अभिमान से व्याप्त थे। इन्होंने अपनी नम्रता भी बड़े अच्छे शब्दों में व्यक्त की है। यथा नोरन्ध्र विषमप्रमेयविटपि-वातावकोणे सदा, तस्मिंस्तर्कपथे यथेष्टगमना जज्ञे यदीया मतिः ॥८॥ यस्मात् प्राप्य पृथुप्रसाद-विशवा विद्योपदेशात्मिका, पत्री मुक्तिकरीमतीव जडता-वस्त्वन्विता मन्मतिः । विक्षिप्य भ्रमशोल्किकात् कलयतो लब्धाश्रयं मानसे, मेध्ये वाङ्मय-पत्तनं प्रविशति द्वारि स्थिता तत्क्षरणात् ॥६॥ मदमदनतुषारक्षेपपूषा विभूषा, जिनवदनसरोजावासिवागीश्वरीयाः । युमुखमखिलतर्कग्रन्थपङ्क रुहारणां, तदनु समजनि श्रीसागरेन्दुर्मुनीन्द्रः ।। १० ॥ १. इस पद्य में नानापन्थ-समुपति' वाले अंश को देखकर डॉ. सत्यव्रत सिंह (हिन्दी 'शशिकला के व्याख्यानकार) ने उपोद्घात' (पृ. २) में यह लिखा है कि टीका के रचयिता की उक्ति इस बात का संकेत करती है कि सम्भवत: इस टीका के पहले भी काव्यप्रकाश-सम्बन्धी कुछ साहित्य रचा जा चुका था।' किन्तु यह तर्कसङ्गत नहीं है क्यों कि इससे ऐसा कोई भाव प्रकट नहीं होता। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ वैधेयेन विधीयते कथमहो सङ्केतकृत् साहसम् । ( प्रारम्भ प. २.) १ दोषान्मतिविभ्रमाच्च यदर्थहोनं लिखितं मयाऽत्र । तत्सर्वमायैः परिशोधनीयं प्रायेण मुह्यन्ति हि ये लिखन्ति ॥ (अन्तिम भाग पद्य १) इस प्रकार 'सङ्केत' की रचना द्वारा प्राचार्य माणिक्यचन्द्र सूरि ने जहां 'काव्यप्रकाश के प्रारम्भिक टीका १. समग्र पद्य इस प्रकार है नानाग्रन्थ-चतुष्पथेषु निभृतीभूयोच्चयं कुर्वता, प्राप्तंरकरण: कियद्भिरभितः प्रज्ञधिशून्यात्मना । सर्वालङ्कृति - माल भूषरणमरणौ 'काव्य - प्रकाशे' मया, वैधयेन विधीयते कथमहो सङ्केतकृत साहसम् ॥ २ ॥ तथा वहीं यह भी स्पष्ट किया है कि यह टीका अपनी अनुस्मृति, जडोपकार एवं चित्तविनोद के लिए बना रहा हूँ, अन्य किसी कारण से नहीं । न प्राग्ग्रन्थकृतां यशोऽधिगतये नाऽपि ज्ञता- ख्यातये, स्फूर्जदबुद्धिजुषां न चापि विदुषां सत्प्रीतिविस्फीतये । प्रक्रान्तोऽयमुपक्रमः खलु मया किं तर्ह्य गर्ध्यक्रम, स्वस्यानुस्मृतये जडोपकृतये चेतोविनोदाय च ॥ ३ ॥ ( टीका का प्रारम्भ भाग ) इसी प्रकार प्रत्येक उल्लास के प्रारम्भ में अपनी टीका 'सङ्केत' का महत्त्व दिखलाते हुए लिखे गये निम्न पद्य भी दर्शनीय हैं सम्यक्शब्दविभागश्रीस्तेषां न स्यादवीयसी । परिच्युता न सङ्केताद् येषां मतिनितम्बिनी || - तृतीय उल्लास मनोवृत्ते ! मोक्तुं निबिडजडिमोढाऽपि परितः, परस्मै चेत् काव्याद्भुतपरिमलाय स्पृहयसि । समुद् वैदग्ध्यध्वनि सुभगसर्वार्थजनने, तदा सङ्केतेऽस्मिन्नवहितवतीं सूत्रय रतिम् ॥ - चतुर्थ उल्लास सङ्केतगमने दत्तां मनः सुमनसां जनः । ध्वनिर्यत्र गुणीभूतः श्रोत्रानन्दी निरूपितः ॥ . - पञ्चम उल्लास सङ्केततिरेषैव ज्ञानश्रीभुक्तयेऽद्भुता । वर्णनाविषयीचक्रे यत्र वाणीगतध्वनिः ॥ षष्ठ उल्लास सङ्केतवर्त्मनाऽनेन सम्यग्घटनतत्पराः । मदयन्ति विदग्धानां मनांसि सुमनो गिरः || -सप्तम उल्लास araणी काव्यप्रकाशस्य गुणतस्वविवेचिनी । सङ्केतेनैव घटते यदि कस्यापि धीमतः ॥ -भ्रष्टम उल्लास गुणानपेक्षिणी यस्मिन्नर्थालङ्कारतत्परा । प्रौढापि जायते बुद्धिः सङ्केतः सोऽयमद्भुतः ॥ - नवम उल्लास Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार' होने का सूयश अजित किया है, वहीं कात्यप्रकाश के विभिन्न टीकाकारों में 'प्रथम जैन टीकाकार' होने का गौरव भी सहज प्राप्त किया है । इनकी इस टोका ने अन्य टोकानों का द्वार खोला और टीकामार्गानुयायियों का पथ प्रशस्त किया।' इनकी अन्य रचनाएँ 'पार्श्वनाथचरित' तथा 'रत्नायन' अथवा 'कुबेरपुराण' हैं। कतिपय विद्वानों ने 'सङ्कत' टीका के उद्धरणों और रचना-प्रक्रिया के आधार पर रुचक और रुय्यक को एक ही मानकर पहले टीकाकार रुचक, द्वितीय सोमेश्वर और ततीय माणिक्य चन्द्र यह क्रम स्वीकार किया है। इसका समर्थन सर्वाधिक रूप से सोमेश्वर के 'काव्यादर्श, काव्यप्रकाश सङ्कत' के सम्पादक श्री रसिकलाल छोटालाल परीख ने तुलना के लिए (१) रुचक और सोमेश्वर तथा (२) सोमेश्वर और माणिक्यचन्द्र के पाठांशों का क्रमिक चयन करते हए परस्पर एक-दूसरे का सम्बन्ध और ग्राह्य-ग्राहक-भाव व्यक्त किया है। उनका कथन है कि रुचक से सोमेश्वर ने पाठांश लेकर विस्तृत किए हैं और सोमेश्वर के पाठांशों से मारिणक्यचन्द्र ने अपनी टीका को समृद्ध किया है। माणिक्यचन्द्र सरि::प्रथम टोकाकार १. किन्तु यह चिन्तन अथवा ऐसी स्थिति संस्कृत-साहित्य में नवीन नहीं है । ऐसे अनेक ग्रन्थ और टीकाएं हैं जिनमें यही स्थिति है और उनके नामोल्लेख, कालनिर्देश प्रादि के अभाव में विचारक अनेक कल्पनाएँ करते रहे हैं। भारवि के अनुकरण पर 'शिशुपाल-वध' का कवन तो मान्य है ही, किन्तु सिंहल स्थित कुमारदास का उसी के समान उसी काल में रचित 'जानकीहरण' अनुकरण कैसे कहा जा सकता है ? जब कि यातायात सौविध्य नहीं था। ऐसे और भी दृष्टान्त मिल जाते हैं । अतः कालिदास की यह उक्ति-ततो गृहीतं नु मृगाङ्गनाभिस्तया गृहीतं तु मृगाङ्गनाभ्य: ?' यह कहना कठिन ही है। २. इसके विपरीत कविशेखर बद्रीनाथ झा ने अपनी भूमिका में लिखा है कि यत्तु काश्मीरिक-राजानकतिलकसूनुना मलकस्य गुरुणाऽलङ्कारसर्वस्वकारेण रुय्यकेरणायं सङ्कत: कृत इति केनचिल्लिखितम्, तच्चिन्तनीयमेव, शब्दश्लेषनिरूपणे नवमे, शब्दालङ्कारसङ्करनिरूपरणे व्यतिरेकालङ्कार-निरूपणे च दशमे काव्यप्रकाशोल्लासे रुय्यकमतस्य मम्मटेन निराकृतत्वाद्, रुय्यकस्य मम्मटात् प्राचीनत्वात् । (गोकुलनाथोपाध्याय कृत विवरण सहित-काव्यप्रकाश, सरस्वती भवन-ग्रन्थमाला ८६ वाराणसेय सं० वि० वि०) इसके आधार पर रुय्यक मम्मट से पूर्ववर्ती माने गये हैं । ३. म०म० पी० वी० कारणे के 'संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास' ग्रन्थ हिन्दी सं० पृ० ३४४-४५ में भी यह प्रश्न उठाया गया है किन्तु वहाँ निर्णय अपूर्ण ही है। तथ १. रुचक और रुय्यक एक ही हैं या नहीं? इस का जयरथ की पंक्ति के अतिरिक्त कोई प्रमाण नहीं है। २. रुय्यक के पालंकारिक अंश मम्मट ने लिए हैं, अतः रुय्यक मम्मट से पूर्ववर्ती हैं । ३. टीकांशों के संक्षेप-विस्तार तथा साम्य उपर्युक्त क्रम की अपेक्षा विपरीत क्रम से भी हो सकते हैं । ४. आलोच्य विचारों का साम्य और एक कालावच्छिन्न चिन्तन वातावरण के अनुसार होते हैं। अत: रुय्यक ने जो बात काश्मीर में रहते हुए सोची वही वैसी ही गुजरात १. इस 'सङ्कत' टीका का प्रकाशन 'पानन्दाश्रम मुद्रणालय, पूना' से १९२१ ई० में ग्रन्थाङ्क ८६ के रूप में तथा 'मैसूरुराजकीय ग्रन्थमाला' के ग्रन्थांक ६० के रूप में १९२२ ई० में हुआ था। प्रकाशन की भूमिका । म०म० अभ्यङ्करशास्त्री ने लिखी है। २. 'पार्श्वनाथ चरित' में दी गई वंशावली और 'संकेत' की वंशावली में साम्य है। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪ मैं माणिक्यचन्द्र ने और कान्यकुब्ज में सोमेश्वर ने सोची होगी, यह भी सम्भव है। रुचक, रुय्यक और सोमेश्वर के स्थितिकाल कल्पनारूढ पोर वादग्रस्त हैं जब कि माणिक्यचन्द्र का समय निश्चित है अतः हम इन्हें ही प्रथम टीकाकार के रूप में यहाँ मान रहे हैं । [२] काव्य-प्रकाश सङ्केत राजानक ( रुचक) रुय्यक (सन् ११३५-६० ई० अनुमानित ) राजनक मम्मट के ही देश काश्मीर में राजानक रुचक ने काव्यप्रकाश पर यह उस देश के निवासियी में पहली टीका लिखी है। रुचक के नाम के विषय में विद्वानों में कुछ मतभेद है। यह मतभेद इसलिये उत्पन्न हुआ है कि 'अलङ्कर र सर्वस्व' के टीकाकार जयरथ ने उपसंहार में - 'राजानकरुय्यकस्य राजानकरुचकापरनाम्नोऽलङ्कारसर्वस्वकृतः इत्यादि पंक्ति लिखी है और इससे यह प्रकट होता है कि 'राजानक रुय्यक' ही 'राजानक रुचक' हैं और साथ ही शारदादेशवासी होने तथा ईसा की बारहवीं शती का मध्यभाग (११३५ - ११६०३.) इनका स्थितिकाल होने के कारण रुचक यक ही काव्यप्रकाश के सर्वप्रथम टीकाकार भी माने गये हैं। दूसरा पक्ष इस बात को नहीं मानता है। इस पक्ष का कहना है कि 'रुय्यक मौर रुचक एक नहीं है।' इसके समर्थन में उनका कथन है कि रुयक के मतों का उल्लेख और उनकी समालोचना स्वयं मम्मट ने की है। अतः रुय्यक मम्मट से पूर्ववर्ती हैं। ऐसे ही कुछ प्राधारों पर अब तक यह अनिश्चित ही है कि रुचक और रुय्यक में से किसी यह टीका है ? अधिक पक्ष रुवक को स्वतन्त्र मानने वालों का है। श्री रसिकलाल छोटालाल परीख ने सोमेश्वर के काव्यादर्श को रुचक का उपजीव्य सिद्ध किया है। इस दृष्टि से ये सोमेश्वर से पूर्ववर्ती हैं। इनका मङगलाचरण एवं उपक्रमसूचक पक्ष इस प्रकार हैं पेन शिवलेषो मालेव्वसुरसुभ्रुवाम् । नासाच्यंयेवाऽऽशु स शुभायास्तु यः शिवः ।। (भारम्भ ) ज्ञात्वा धीतिलकात् सर्वालङ्कारोपनिषदसम् । काव्यप्रकाशस तो रखकेनेह लिख्यते || ( प्रत ) इस संकेत में प्रमुख - प्रमुख अंशों पर सङ्केतात्मक टिप्परगी दी गई है । रुचक ने ही काव्यप्रकाश के अन्तिम पद्य 'इत्येष मार्गों विदुषां विभिन्नो' इत्यादि पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि "महामतीनां प्रसरखहेतुरेव प्रत्यो ग्रन्थकृता कथमप्यसमाप्तत्वात् परेण च पूरितावशेषत्वाद् द्विखण्डो ऽप्यखण्डता यदवमासते तत्र सङ्घटनैव साध्वी हेतु न हि सुघटितस्य सन्धिबन्धः कदाचिल्लक्ष्यत इत्यर्थशक्त्या ध्वन्यते ।" इससे काव्यप्रकाश की महत्ता और द्विकर्तृकता पर प्रकाश पड़ता है। सुबोध्य बनाना ही इनका लक्ष्य रहा है तथापि रुचक ने भामह, उद्भट, खट प्रादि के यत्रतत्र मम्मट की प्रालोचना भी की है। विवेश्य अंशों को संकेतरूप में मन्तथ्यों को पुरस्कृत करते हुए इस टीका का प्रकाशन पं. शिवप्रसाद भट्टाचार्य के सम्पादकत्व में कलकत्ता घोरिएण्टल जर्नल १९३४-१५ १. पं० वामनाचार्य भलककर तथा कविशेखर बद्रीनाथ भा प्रभृति का यही प्रभिमत है। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग २ में तथा डॉ.पार. सी. द्विवेदी सम्पादित 'दि पोइटिक लाइट' भाग २ के परिशिष्ट में 'मोतीलाल बनारसीदास दिल्ली' ने १९७० ई. में किया है। [ ३ ] काव्यादर्श-सङ्कत- सोमेश्वर भट्ट ( सन् १२२५ ई० अनुमानित ) ये भरद्वाजवंशीय भट्ट देवक के पुत्र थे। इनकी टीका में किसी प्राचीन टीकाकार का नामोल्लेख नहीं हुआ है। केवल भट्टनायक, मुकुल, भट्टतोत, रुद्रट तथा भामह जैसे स्वतन्त्र ग्रन्थकारों के नाम मिलते हैं। संस्कृत-साहित्य के इतिहास में सोमेश्वर नामक मीमांसक तथा नैयायिक विद्वानों के नाम भी आते हैं किन्तु उनमें से ये कौनसे हैं यह निश्चित नहीं कहा जा सकता। झलकीकरजी ने काव्यप्रकाश के सप्तम उल्लास की ‘एवं देशकालवयोजात्यादीनां' इत्यादि पंक्ति की व्याख्या में 'यथा कान्यकुब्जदेशे उद्धतो वेषो दारुणो व्यवहारः' इत्यादि के आधारपर इन्हें कान्यकुब्ज का निवासी माना है। प्रस्तुत टीका का सम्पादन करते हुए श्री रसिकलाल छोटालाल परीख ने इनकी टीका के उद्धरणों से रुचक के तथा माणिक्यचन्द्र के संकेतों से साम्य एवं पूर्वापरभाव निश्चित किया है। तदनुसार ये रुचक से प्रभावित थे । अत: इनका समय रुचक के बाद का ही है। म. म. काणे ने 'काव्यादर्शसंकेत' की एक पाण्डुलिपि जो कि भाऊ दाजी के संग्रह में है, उसका लेखनकाल वि० सं० १२८३ बताया है और लिखा है कि यह प्रति किसी अन्य प्रति से उतारी गई है। इसके अनुसार इस टीका का समय १२२५ ई० ठहरता है। किन्तु यह सर्वमान्य स्थितिकाल नहीं बन पाया है। इनकी किसी अन्य रचना का भी पता नहीं चला है किन्तु इनके द्वारा ७वें और १०वें उल्लास में 'ममंव' ऐसा सूचित किए हुए दो सूर्यस्तुति सम्बन्धी पद्यों से अनुमान किया जाता है कि ये अच्छे कवि भी थे और इन्होंने सूर्य-सम्बन्धी कोई नाटक अथवा स्तोत्र लिखा होगा। इस टीका का सम्पादन विभिन्न परिशिष्टों के साथ प्रा० रसिकलाल छोटालाल परीख ने १९५६ ई० में किया है तथा 'राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर (राजस्थान)' दो भागों में प्रकाशित किया है। [ ४ ] बालचित्तानुरउजनी- (नरहरि) सरस्वती तीर्थ ( सन् १२४१-४२ ई० ) .. 'श्रीसरस्वती तीर्थ के पूर्वज आन्ध्रप्रदेश के 'त्रिभूवनगिरि' नामक गांव के निवासी थे। इनका 'वत्स' गोत्र था। इनके कुल में परम्परा से विविध शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन होता रहता था। इनके पिता का नाम 'मल्लिनाथ' (रघुवंश आदि काव्यों के टीकाकार कोलाचल-मल्लिनाथ से भिन्न) तथा माता का नाम 'नागम्मा' था। ये सोमयाजी थे। मल्लिनाथ और नागम्मा के क्रमशः नारायण तथा नरहरि दो पुत्र हुए। नारायण एक अच्छे विद्वान और धनधान्य से समृद्ध थे। द्वितीय पुत्र नरहरि का जन्म सन् १२४२ ई० में हुआ। नरहरि विद्याध्ययन के लिए काशी गए और वहां अनेक शास्त्रों का अध्ययन किया तथा परिपक्व ज्ञान के फलस्वरूप संसार को असारता जान कर वहीं संन्यास ग्रहण कर लिया। संन्यास आश्रम में इनका नाम 'सरस्वती तीर्थ' हो गया। तभी अापने काव्य-प्रकाश की 'बालचित्तानुरञ्जनी' १. उपलब्ध पाण्डुलिपि के अन्त मेंभरद्वाजकुलोत्तंसभट्टदेवकसूनुना। सोमेश्वरेण रचितः काव्यादर्शः सुमेधसा ॥ सम्पूर्णश्च..."। संवत् १२८३ वर्षे प्राषाढवदि १२ शनी लिखितमिति ॥ ऐसा लिखा है। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका का निर्माण किया। प्रस्तुत टीका के प्रारम्भ और अन्त के पद्यों में यह सब स्पष्टरूप से पद्यवर रूप में प्रति हा है। इन्होंने 'स्मृतिदर्पण' नामक धर्मशास्त्र ग्रन्थ और 'तरत्न' एवं उसकी 'दीपिका' टीका की रचनाएं की की थीं। १. अपना परिचय इस टीका के प्रारम्भ में इस प्रकार दिया है विषातकामः सुकृतं गरीयः, क्षमातलं स्वर्ग इवावतीर्णः । मालम्बनं सर्वविशेषणानां, जयत्यखण्डस्थितिरान्ध्रवेशः ॥ ५॥ फलमिव सुकृताना लोकषाच्या समग्रं, विगलितमिव ममो नाकलोकस्य खण्डम् । नगरमतिगरीयः सर्वसंसारसारस्त्रिभुवनगिरिनाम्ना तत्र विख्यातमास्ते ॥६॥ तत्रामवत् सकलशास्त्रविचारपात्रं, श्रीवत्सगोत्रसुरकाननपारिजातः।। अन्यविधातरवलम्बनमाप्तवाचा, रामेश्वरः कलिकलङ्ककथान्तरायः ॥ ७॥ प्रासीत प्रमाणपदवाक्यविचारशील:, साहित्यसूक्तिविसिनीकलराजहंसः । ब्रह्मामृतग्रहरणनाटितलोमवृत्तिस्तस्यात्मजो निपुरणधीनरसिंहमट्टः ॥ ८ ॥ तस्मादचिन्त्यमहिमा महनीयकोति: श्रीमल्लिनाथ इति मान्यगुरगो बभूव ।। यः सोमयागविधिना कलिखण्डनाभिरद्वैतसिद्धिमिव सत्ययुगं चकार ॥६॥ लक्ष्मोरिव मुराराते: पुरारातेरिवाम्बिका । तस्य धर्मवयूरासोन्नागम्मेति गुरणोज्ज्वला ।। १० ।। ज्येष्ठस्तदीयतनयो विनयोदितश्रीनारायणोऽभवदशेषनरेन्द्रमान्यः ।। वाग्देवताकमलयोरपि यस्य गात्रे सीमाविवादकलहो न कदापि शान्तः ॥ ११ ॥ विरिञ्चेः पर्यायो भुवि सदवतारः फरिणपतेस्त्रिदोषो दोषारणा सकलगुणमारिणक्यजलषिः । अवाचां प्राचां वा सकलविदुषां मौलिकुसुम, कनीयांस्तत्सूनुर्जयति नयशाली नरहरिः ॥ १२ ॥ सवसुग्रहहस्तेन (१२६८) ब्रह्मणा समलङ कृते । काले नरहरेजन्म कस्य नासीन्मनोरमः ॥ १३ ॥ तत्काले सह मङ्गलेन गुरुणा मित्रेण लेभे वणिगराशिस्तु प्रमदाश्रयेण समभूदुच्च: सकाव्यो बुधः । सस्केतुः शुभहेतवे द्विजपतिर्जातः कुलोरागतो, मैत्रः शान्तिमयं दधार कलशं जन्मोत्सवाडम्बरे ॥ १४॥ .. विचार्य सर्व सुखमेव दुःखं, सुधामये ब्रह्मणि लोलुपस्य । संन्यस्यतस्तस्य बभूव सार्था, "सरस्वतीतीर्थ' इति प्रसिद्धिः ॥ १५ ॥ तर्के कर्कशकेलिना बलवतां वेदान्तविधारसे, मोमांसागुणमांसलेन परितः सांख्येऽप्यसङ्ख्योक्तिना। साहित्यामृतसागरेण फणिनो व्याख्यासु विद्यावता, काश्यां तेन महाशयेन किमपि ब्रह्मामृतं पीयते ॥ १६॥ काश्यां सरस्वतीतीर्थयतिना तेन रच्यते । टोका काव्यप्रकाशस्य बालचित्तानुरञ्जनी ॥ १७ ॥ इसी प्रकार टीका के अन्त में लिखा है कि पञ्च क्लेशानजषुर्जगति सुकृतिना दुश्चर्ये तपोभियेषां चेतो रविन्दे स किल पुरहरो वासमङ्गीचकार । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत टीका में किसी अन्य टीकाकार का उल्लेख नहीं है । केवल आठवें उल्लास में "राजा भोनो गुणानाह विशति चतुरश्च यान् ।" वामनो दश तान् वाग्मी भट्टस्त्रीनेव भामहः ॥" यह उल्लेख किया है । अतः इसकी प्राचीनता निःसन्दिग्ध है। इस टीका का केवल एक अंश (१-२-३ तथा १० उ० पर) 'काव्य-प्रकाश' के एस० एस० सुखटण कर सम्पादित संस्करण के अन्तर्गत बम्बई से १६३३, १९४१ में प्रकाशित है। पाण्डुलिपि के उद्धरण पीटर्सन की रिपोर्ट में भाग १, पृ०७४ तथा IOC, भाग ३ पृ० २२५ इत्यादि में छपे हैं । [५] काव्यप्रकाश-दीपिका-पुरोहित जयन्त भटट् (सन् १२६४ ई० रचनाकाल) ये गुजरात के नरेश सारङ्गदेव के महामात्य, पुरोहित श्रीभरद्वाज भट्ट के पुत्र थे। इनके पिता श्रुति, स्मृति दर्शन, साहित्य आदि विषयों के पूर्ण ज्ञाता और गुर्जरेश्वर से पर्याप्त सम्मान प्राप्त थे । जयन्त भट्ट ने 'काव्य-प्रकाशदीपिका' में कहीं-कहीं मुकुल भट्ट का भी उल्लेख किया है। अन्य किसी टोकाकार का नाम नहीं आया है। इन्होंने अपना परिचय दीपिका के अन्त में इस प्रकार दिया है संवत् १३५० वर्षे ज्येष्ठवदि ३ रवौ, अधेह प्राशापल्ली-समावासित-श्रीमद्विजयकटके सकलाराति-भूपालमौलिमुकुटालङ्कारभूषित-पादपङ्कज-महाराजाधिराजश्रीसारङ्गदेवकल्याणविजयराज्ये साहित्यबिसिनीविकासनकभास्करस्य सकलालङ्कारविवेक-चतुरमानसमानसराजहंसस्य षट्दर्शनपारावार-पोतायमानावान्तरप्रतिभानिमज्जनक-महापोतस्य निखिलपुराणपुराणीकृतमार्गतरविद्वज्जनमनोऽज्ञानमहान्धकारसंहारसहस्रकरस्य श्रुतिस्मृतिमहार्थनिर्धान्तविभ्रान्तविद्वज्जनमनोऽज्ञानतिमिरपरिहारचन्द्रोदयस्य श्रीमद्गुर्जरमणलेशमुकुटालङ्कार-प्रमापरिचुम्बनबहुलीकृत-चरणनखकिरखस्य महामात्य-पुरोहितश्रीमदभरद्वाजस्याङ्गभुवा पुरोहितश्रीजयन्तभट्टन सकलसुधीजनमनोऽज्ञानतिमिरविनाशकारणं विरचितेयं काव्यप्रकाशदीपिका'। तथा-श्रीमदभरद्वाज-पदाम्बुजीयप्रसादतो ग्रन्थरहस्यमेतत् । विज्ञाय किञ्चित् कृतवानु जयन्तस्तत्र प्रमाणं सुधियां वितर्कः॥ . इस प्रकार प्रस्तुत टीका की रचना का उद्देश्य भी "विद्वानों के मन पर विद्यमान अज्ञानतमःपटल को दूर करमा" बताया गया है। येषां पादारविन्दे स्मृतिरपि जडताहारिणी देहभाजां, तेष्टीकेयं सरस्वत्युपपदविलसत्तीर्थसंज्ञैरकारि ॥१॥ साहित्यकमुदकानननिद्राविद्राणयामिनीनाथाः । काव्यप्रकाशटोकां व्यरीरस्ते सरस्वतीतीर्थाः ।। २ । एवं सरस्वतीतीर्थयतिना तेन निर्मिता । टीका काव्यप्रकाशस्य मुदे स्याद्विदुषां चिरम् ॥ ३ ॥ १. ये सारङ्गदेव-शाङ्गदेव तृतीय बघेला सम्राट थे। इन्होंने पट्टन में १२७७-१२६७ ई० तक राज्य किया था। द्र० भण्डारकर रिपोर्ट, १८८३-८४ पृ० ११-१८ । पीटर्सन रिपोर्ट भाग २ पृ० १७, २० । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस टीका के अन्य नाम 'दीपक' और 'जयन्ती' भी हैं। परमानन्द चक्रवर्ती तथा रत्नकण्ठ ने जयन्त भट्ट को उल्लेख किया है। रत्नकण्ठ का तो कथन भी है कि मैंने अपनी टीका 'जयन्ती' के आधार पर लिखी है। काव्यप्रकाश के प्रारम्भिक टीकाकारों में जयन्त भट्ट का भी विशेष महत्त्व है। इस टीका का संक्षिप्त सार भाण्डारकर की रिपोर्ट १८८३-८४ के परिशिष्ट पृष्ठ ३२६ में उपलब्ध है। [६] काव्यप्रकाश-विवेक- श्रीधर ठक्कुर' तर्काचार्य ( तेरहवीं शती ई० का प्रथम चरण) . तर्काचार्य श्रीधर ठक्कुर मैथिल ब्राह्मण थे। इनका स्थितिकाल ईसवीय तेरहवीं शती का प्रथम चरण माना गया है। ये तीरभूक्ति के शासक शिवसिंहदेव के 'सन्धिविग्रहिक' थे। इनके सम्बन्ध में कुछ परिचय मिथिलातत्त्वविमर्श, तीरभुक्ति का इतिहास तथा 'रायल एशियाटिक सोसायटी, कलकत्ता' में स्थित 'काव्यप्रकाश-विवेक की अन्तिम पुष्पिका “समस्त-विरुदावली विराजमान-महाराजाधिराज-श्रीशिवसिंहभुज्यमान, तीरभुक्तो गजरथपुरे सत्प्रक्रियसपाध्याय-विद्यापतीनामाज्ञया खौवालसं-श्रीदेवशर्म-वलियाससं-श्रीप्रभाकराभ्यां लिखितंषा पुस्ती, ल. : स. २६१, (सं० १३६६) इति ।" में प्राप्त निर्देश से ज्ञात होता है। श्रीधर ठक्कुर ने भनेक शास्त्रीय तत्त्वों पर अपने विचार भी व्यक्त किये हैं, जिनकी समालोचना के लिए उत्तरवर्ती टीकाकारों को अवसर मिला है। 'विवेक' की एक पाण्डुलिपि १४०५ ई० में मिथिला में तैयार की गई थी। (शास्त्री केट. ASB. MSS. vi, cclxxi-) इसी पाण्डुलिपि के पृष्ठान्त विवरण में 'तर्काचार्य ठक्कुर' ऐसा उल्लेख है । चण्डीदास तथा विश्वनाथ ने 'सन्धि-विग्रहिक' उपाधि के साथ श्रीधर का उल्लेख किया है । अत: श्री सुशीलकुमार डे ने भी इनका समय १३वीं शती ई० का प्रथम चरण माना है। यह टीका भी प्राचीनतर है। इसका प्रकाशन 'चौखम्बा संस्कृत सीरिज, वाराणसी' से अभी-अभी हुआ है। इससे पूर्व यह पं० शिवप्रसाद भट्टाचार्य के सम्पादकत्व में संस्कृत कालेज, कलकत्ता' से १६५६ ई० में १.४ उल्लास सहित प्रथम भाग के रूप में प्रकाशित हुई थी। [७ ] काव्यप्रकाश-दीपिका- महामहोपाध्याय श्री चण्डीदास ( सन् १२७० ई० के निकट ) ये उत्कलवासी कापिजलवंशीय विलासदास के पुत्र थे। 'काव्यप्रकाश-दीपिका की कलकत्तास्थित 'रायल एशियाटिक सोसायटी' की ३७६७ संख्यक पाण्डुलिपि में दी हुई पुष्पिका-"इति कापिञ्जल-कुलतिलक-षड्दर्शनीयचक्रवति-महाकविचक्रचूडामरिण - सहृदयगोष्ठीगरिष्ठ-महामहोपाध्याय-महापात्र- श्रीचण्डीदासकृतकाव्यप्रकाशदीपिकायाम्" से इनका परिचय कुछ अंशों में प्राप्त होता है। इसी वंश में विश्वनाथ कविराज का. भी जन्म हुआ था। चण्डीदास के पितामह नारायणदास थे,' जिनका उल्लेख विश्वनाथ ने भी 'साहित्य-दर्पण' में किया है। इन्हीं आधारों पर ये विश्वनाथ के प्रपितामह के अनुज के पुत्र माने गये हैं । १. इन्होंने त्रिकलिंग के राजा नरसिंह के दरबार में धर्मदत्त को पराजित किया था। इसकी रचना लेखक ने अपने मित्र लक्ष्मण भट्ट के अनुरोध पर की थी। प्रस्तुत दीपिका में (पृ० १६८ पर) खमनकृत का उल्लेख है। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत टीका के निर्माण को हेतु टीकाकार ने - काव्यप्रकाशतरुरेष कुसम्प्रदाय-व्याख्या-विलोलमरुदाकुलितप्रतानः । सिक्तः पुनश्च प्रतिपल्लवतामपंतु, श्रीचण्डिदासकविवागमृतप्रपाहै ।। इत्यादि कथन द्वारा "दुर्व्याख्याओं के कारण काव्यप्रकाशरूपी वृक्ष का सूखना देखकर उसे पुन: सिक्त करना" बतलाया है।' इस टीका के (डॉ० डे के अनुसार) मुख्यतः उड़िया, मैथिली और वाराणसी के लेखकों ने-जिनमें नरसिंह ठक्कुर, कमलाकर, गोविन्द, वैद्यनाथ और नागोजी भट्ट हैं, अपनी-अपनी काव्य-प्रकाश की टीकानों में तथा विश्वेश्वर के 'अलङ्कार-कौस्तुभ' में उद्धरण दिये हैं। इस टीका की इण्डिया आफिस में जो पाण्डुलिपि है, वह बंगला-लिपि में हैं। चण्डीदास ने स्वरचित 'ध्वनिसिद्धान्त' तथा 'साहित्यहृदयदर्पण संग्रह' ग्रन्थ का भी उल्लेख किया है। इसका प्रकाशन (दो भागों में) पं० शिवप्रसाद भट्टाचार्य के सम्पादकत्व में वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय से १६३८ ई० में हुआ है । इसमें 'इण्डिया आफिस, लन्दन तथा कोलबुक-संग्रह का भी उपयोग हुआ है। [८] साहित्य-चूडामणि- लौहित्य भट्ट गोपाल सूरि ( १३वीं शती ई० ) ये भट्ट गोपाल के नाम से परिचित एवं भानुदत्त की 'रसमञ्जरी' और रुद्र के 'शृङ्गारतिलक' के टीकाकार हरिवंश भट्ट द्रविड़ के पुत्र और नसिंह भट्ट के पौत्र हैं।२ वामन के काव्यालङ्कार-सूत्र की गोपेन्द्र तिप्पभूपाल' (१४२८.४६ ई०) कृत 'कामधेनु' टीका में कई बार इनका उल्लेख हुया है। इस आधार पर इनका समय १३वीं शती का माना जा सकता है। एक अन्य मान्यता के अनुसार ये भट्ट गोपाल रस तथा भाव के लोकप्रिय लेखक 'भाव-प्रकाशन' के रचयिता शारदातनय के पिता थे । शारदातनय के स्वयंलिखित विवरण के अनुसार इनका गोत्र काश्यप था । इनका निवास स्थान १. डॉ० डे ने भी 'हिस्ट्री प्राफ संस्कृत पोइटिक्स' में टीका की रचना का उद्देश्य-'अपने मित्र लक्ष्मण भट्ट का अनुरोध बताया है । इसी प्रकार एच०पी० शास्त्री केटलॉग (ASB. MSS. Vi CCIXvi) ने 'दीपिका' के लेखक चण्डीदास के विषय में एक विचित्र जानकारी दी है । जिसके अनुसार 'ये बंगाल के निवासी (मुखकुल) में उत्पन्न थे। इनका परिवार गङ्गातट पर उद्धरणपुर से चार मील पश्चिम में 'केतुग्राम' नामक स्थान पर रहता था। शास्त्रीजी के मतानुसार चण्डीदास का साहित्य-रचना काल १५वीं शती का मध्यभाग अथवा कुछ पहले था।' २. कुमारस्वामी (विद्यानाथ की एकावली की टीका रत्नापरण के कर्ता) और के० पी० त्रिवेदी के अनुसार । ३. इनके दूसरे नाम 'गोविन्द' अथवा स्वकथित नाम के अनुसार 'तिरपुरहर' भी हैं। ४. म० म० काणे ने इनका समय १७५० ई० के लगभग माना है। दे०पू०५०५, तथा पृ० ५४६ पर वहीं 'साहित्य-चडामणि' के लेखक भट्ट गोपाल का नाम देकर लिखा है कि-'पुस्तक में लेखक ने 'प्रदीपकृत साहित्यदर्पणश्रीपाद' का उल्लेख किया है। रचनाकाल संवत् १६४०; जब कि लेखक १६ वर्ष के थे। ५. प्रार्यावर्ताहयेशे स्फीतो जनपदो महान् । 'मेहत्तर' इति ख्यातस्तस्य दक्षिणमागतः। प्रामो माठरपूज्याख्यो द्विजसाहस्रसम्मितः । तत्र 'लक्ष्मण'नामासीद्विप्रः काश्यपवंशजः ।। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० आर्यावर्त अथवा उत्तर भारत के मेरूत्तर प्रदेश के अन्तर्गत 'माठरपूजा' ग्राम था । भट्ट गोपाल के पिता का नाम कृष्ण (?) तथा पितामह का नाम लक्ष्मण भट्ट था । लक्ष्मण भट्ट वेद के परम विद्वान् थे और उन्होंने वेदभूषण' नामक ग्रन्थ की रचना की थी। काशी में रहते हुए लक्ष्मण भट्ट ने भगवान् विश्वनाथ की उपासना के फलस्वरूप पौत्र या पुत्र (?) प्राप्त किया जिसका नाम 'गोपाल' रखा गया। ये आगे चलकर अष्टादश विद्यानों में पारङ्गत हए और इन्हींने काव्यप्रकाश की प्रस्तुत टीका लिखी है। इस टीका का प्रकाशन आर० हरिहर शास्त्री तथा के० साम्ब सदाशिव शास्त्री द्वारा (दो खण्डों में संस्कृत सीरिज से १६२६ तथा १६३० ई० में हुआ है। [ 8 ] तत्व-परीक्षा (?)- सुबुद्धि मिश्र ( तेरहवीं शती ई० का उत्तरार्ध) . काव्यप्रकाश की 'नरसिंहमनीषा, सारसमुच्चय, विस्तारिका एवं न्यायाचार्य यशोविजयजी उपाध्याय को टीका तथा सुधासागरी में सुबुद्धिमिश्र का काव्य-प्रकाश के टीकाकार के रूप में स्मरण और समालोचन हुआ है। पीटर्सन ने अपनी दूसरी रिपोर्ट (पृ० १७) में इसकी चर्चा की है। इसी आधार पर इनका समय तेरहवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध माना जाता है। इनका मिथिला के पजीप्रबन्ध में नाम न होने से ये मैथिल नहीं थे ऐसा भी अनुमान किया जाता है। नरसिंहमनीषा में इति सुबुद्धेः कौबुद्धयमपास्तम्' कहकर तुच्छता व्यक्त की गई है जब कि उपाध्यायजी की टीका में प्रायः पाठ बार 'सुबुद्धिमिधास्तु' कह कर इनके मतों का उल्लेख तथा आवश्यक आलोचना आदि की गई है। आफेक्ट ABOD २०८अ, IOC iii, ११३०/५६६ पृ० ३२६' ने सुबुद्धिमिश्र को 'सुबुद्धिमिश्र-महेश्वर' कहा है । उनके इस प्रकार के वर्णन से तथा हॉल (वासवदत्ता की भूमिका पृ. ५४) के कथन से ज्ञात होता है कि यह शब्द 'महेश्वर' न होकर 'माहेश्वर' है और अभिनव गुप्त तथा विद्याधर की तरह शेव-लेखक को परिलक्षित करता है। अतः सुबुद्धि मिश्र का 'महेश्वर' अथवा 'माहेश्वर' गोत्रनाम रहा होगा। आफेक्ट ने ही सुबुद्धि मित्र को वामन के 'काव्यालङ्कारसूत्र' पर 'साहित्य-सर्वस्व' नामक टीका का रचयिता माना है। पीटर्सन ने (ii, पृ० १७ में ) इनके तत्वपरीक्षा' अथवा 'शब्दार्थतत्त्व-परीक्षा' ग्रन्थ या टीका का भी उल्लेख किया है। [१०] काव्य-प्रकाश-दर्पण- विश्वनाथ कविराज ( १३२५ से १३७५ ई० ) उत्कल निवासी विश्वनाथ महाकवि चन्द्रशेखर के पुत्र थे। काव्यप्रकाश की प्रस्तुत टीका में विश्वनाथ ने त्रिंशता क्रतुभिविष्णु तोषयामास वेदवित् । वेदानां भाष्यमकरोन्नाम्ना यो वेदमूषणम् । तस्य श्रीकृष्णनामासीत् पुत्रः कृष्ण इवापरः । वेदानधीत्य निखिलान शास्त्राण्यप्यखिलानि च ॥ स पुत्रार्थी महादेवं वाराणस्यामतोषयत् । तस्यासीद् 'भट्टगोपाल' नामा सूनुः सुलोचनः ।। अष्टाशदसु विद्यासु बहुशः स कृतश्रमः । उपास्य शारदादेवी पुत्रो लेभे गुणोत्तरम् ॥ (भावप्रकाशन, शारदातनय) १. डॉ. एस. के. डे ने, 'संस्कृत काव्यशास्त्र के इतिहास, भाग १ पृ० १४८ में तथा प्रो० बाबूलाल शुक्ल ने 'हिन्दी नाट्यशास्त्र' भाग १ की भूमिका पृ० ३६-३७ में इस विषय की चर्चा की है जिनमें परस्पर कुछ भेद है २. डॉ. पी. वी. कारणे ने टीका का नाम 'तत्त्वपरीक्षा' ही माना है। 'द्रष्टव्य संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास' (अनु० डॉ. इन्द्रचन्द्र शास्त्री) ० ५१६ । ३. श्रीचन्द्रशेखरमहाकविचन्द्रसूनु-श्रीविश्वनाथकविराजकृतं प्रवन्धम् । यह साहित्यदर्पण में कहा गया है। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१ नारायण को 'प्रस्मतपितामह' कहा है जब कि साहित्य-दर्पण में 'अस्मद् वद्धपितामह' कहा है। 'एषां च षोडशानां लक्षणाभेदानामिह दर्शितान्युदाहरणानि मम 'साहित्यदपणेऽवगन्तव्यानि' तथा 'अनुमान' अलङ्कार के विषय में-'तदुक्तं मत्कृते साहित्यदर्पणे' इत्यादि काव्यप्रकाशदर्पण' में कहे गए वाक्यों के अनुसार प्रस्तुत टीका का निर्माण साहित्यदर्पण की रचना के पश्चात ही हया है। इनका समय अनेक ऊहापोहों के आधार पर म. म. काणे तथा एस० के० डे ने १३०० से १३५० ई० माना है जब कि म०म० दुर्गाप्रसाद ने (साहित्यदर्पण की भूमिका में) साहित्यदर्पण की रचना १३:५ ई० में मानी है। ये त्रिकलिगेश्वर के सान्धिविग्रहिक थे तथा इन्होंने१-राघवविलास-महाकाव्य २-प्रभावती-परिणय ३-कुवलयाश्वचरित-प्राकृत काव्य ४-चंद्रकला-नाटिका ५-प्रशस्तिरत्नावली-षोडशभाषामयी ६-साहित्यदर्पण-काव्यशास्त्र ७-नरसिंहविजय-काव्य ८-काव्यप्रकाशदर्पण-टीका आदि पाठ ग्रन्थों की रचना की थी। प्रस्तुत दर्पण टीका में विश्वनाथ के लिए 'सङ्गीत-विद्या-विद्याधर', 'कलाविद्या-मालती-मधुकर' तथा विविधविद्यार्णवकर्णधार' जैसे विशेषणों का प्रयोग हुआ है। प्रस्तुत टीका में ही, चण्डीदास, श्रीधर और वाचस्पति मिथ आदि के नामों का उल्लेख किया है। यहीं प्रारम्भ और अन्त भाग में विश्वनाथ ने लिखा है कि -- प्रारम्भ-प्रमातृप्रमाणप्रमेयप्रपञ्च-प्रसति प्रमिण्वन्ति यां योगिवर्याः। गिरां देवतां दैवतं देवतानां प्रबोधं प्रदेयादियं मत्प्रबन्धे ।। १ ।। टीका काव्यप्रकाशस्य दुर्बोधानुप्रबोधिनी । क्रियते कविराजेन विश्वनाथेन धीमता ॥ २ ॥ इह सर्वग्रहग्रस्ताः कुर्वन्ति कुधियो मुदा । न दोष: किन्तु कुत्रापि विचिन्वन्तु गति चिरात् ॥३॥ अन्त-लक्ष्मीर्वक्षो मुरारेस्विरिति कवयगते(?) भॊगमालाङ्गमौने, मौनि सिन्धुः स्वराणामधिवसति बिधे विता यावदस्य । तावत् काव्यप्रकाशा'"त्ववधिगमान वारमासार्ककोटि व्याख्या विख्यातिमेषा कविमुकुटमणेविश्वनाथस्य यायात् ॥१॥ इति श्रीमन्नारायणचरणारविन्द-मधुकरालङ्कारिकचक्रवति-ध्वनिप्रस्थापन-परमाचार्याष्टादशभाषाविलासिनोभुजङ्ग-सङ्गीतविद्याविद्याधर-कलामालतीमधुकर-विविधविद्यार्णवकर्णधार-सान्धिविग्रहिक-महापात्र-श्रीविश्वनाथकविराजकृतौ काव्यप्रकाशदर्पणेऽर्थालङ्कारनिर्णयो' नाम दशम उल्लासः । इति । यदुगिरि बलिराजस्वामी तथा के. एस. रामस्वामी शास्त्री ने 'भाव-प्रकाशन' की भूमिका के अन्त में इन्हीं गोपाल भट्ट के काव्यप्रकाश का टीकाकार होने पर सन्देह प्रकट किया है, जो इस प्रकार है-- Some Scholars identify Bhatta gopāla the Commentator of the Kav aprakasha of Mammata with Bhattagopāla the father of Śāradātanaya. This identification may not be quite correct but it is certainly probale because of two considerations, Viz, (1) that the commentator Bhațțagopala does not quote any author or work later than Mammața and (2) that he is at the same time quoted by the aothors like Kumārssvāmin and others in the early . part of the 15th. century. Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ इन सब दृष्टियों से विश्वनाथ का व्यक्तित्व, वैदुष्य एवं व्यापकता का प्राभास सहज हो जाता है। [११] साहित्य-दीपिका-भास्करभट्ट' ( चौदहवीं शती ई.) भास्कर भट्ट की प्रस्तुत टीका के बारे में श्रीवत्सलाञ्छन, गोविन्द ठक्कुर, भीमसेन रलकण्ठ तथा परमानन्द चक्रवर्ती ने उल्लेख किया है। अतः ये इन सब से प्राचीन हैं। इसी आधार पर इनका समय ईसा की चौदहवीं शताब्दी माना गया है। म०म० पी०वी० कारणे ने इस 'साहित्य-दीपिका' टीका का ही अपर नाम 'काव्यालङ्काररहस्य-निबन्ध' माना है, जब कि कविशेखर श्री बद्रीनाथ झा आदि अन्य विद्वानों ने इस निबन्ध का रचयिता लाटमास्कर मिश्र को माना है। 'काव्यप्रकाशे टिप्पण्यः सहस्र सन्ति यद्यपि' यह उक्ति भट्ट भास्कर की ही है। इस टीका के कुछ अंश राजेन्द्रलाल मित्र की 'नोटिसेस आफ एम० एस० एस०' १-१० में प्रकाशित हुए हैं । [१२] लघुटोका- श्रीविद्याचक्रवर्ती ( १४वीं शती ई०) इस टीका का उल्लेख लेखक ने अपनी बहट्टीका' (पृ० ६२) तथा अलङ्कारसर्वस्व की 'सञ्जीविनी टीका (पृ० ३७) में किया है । विशेष परिचय 'बृहट्टीका' के परिचय में प्रागे दिया है । [ १३ ] सम्प्रदाय-प्रकाशिनी (बृहट्टीका)- श्रीविद्याचक्रवर्ती ( १४वीं शती ई०) ये शंव मतावलम्बी दक्षिण भारत के लेखक हैं। इन्होंने रुय्यक के 'अलंकार-सर्वस्व' की 'सञ्जीवनी' टीका के अन्त में - काव्यप्रकाशेऽलङ्कार-सर्वस्वे च विपश्चिताम् । प्रत्यादरो जगत्यस्मिन् व्याख्यातमुभयं ततः ॥ इत्यादि लिखकर उक्त टीका का निर्देश किया है। मद्रास कैटलॉग में सख्या १ ८२६.२८ पृ० ८६२७, बर्नल ५५, संस्करण (त्रिवेन्द्रम् संस्कृत सीरिज-पृ० १६२) में 'बृहती' का उल्लेख है। इसी टीका में इससे पूर्व लिखित 'लघुटीका' की सूचना प्राप्त होती है। मल्लिनाथ के निर्देशानुसार इनका समय १४वीं शती के अन्त से पूर्व निर्धारित किया गया है। ये १४वीं शती के प्रारम्भ में श्रीबल्लाल तृतीय (१२६१-१३४२) के सभारत्न थे। (वी. राघवन् A BORT x १६३३, पृ० २५६)। इन्हीं को 'रस-मीमांसा' रस-विषयक तथा 'भरत-संग्रह' नाटयविषयक ग्रन्थों का लेखक भी माना गया है। सम्प्रदाय-प्रकाशिनी' के अन्त में इन्होंने लिखा है कि सम्यक समापिता सेयं श्रीविद्याचक्रवतिना । टोका काव्यप्रकाशस्य सम्प्रदाय-प्रकाशिनी ॥ काव्यप्रकाशेऽलङ्कारसर्वस्वे च सचेतसाम । येनादरो महांस्तेन व्याख्यातमुभयं सह ॥ यस्मिन्नशे झटिति न मवत्यर्थसंवित्तिरस्यां, सोंऽशो मूले विषमविषमो मूलमालोक्य भूयः । तत्सङ्गत्या पुनरिह मनाग दृष्टिराधीयते चेद्, भावः सूक्ष्मो व्रजति विदुषां हस्तमुक्तामरिणत्वम् ॥ सूक्ष्मामव्याकुलामत्र शास्त्र युक्त्युपबंहिताम् । मीमांसामुपजीवन्तु कृतिनः काव्यतान्त्रिकाः ।। १. न्यू केटलागस केटलागरम में 'मिश्र' लिखा है। द्वि० भा० २. डॉ. एस के० डे ने इनका समय पन्द्रहवीं शती की समाप्ति से पूर्व का माना है। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मातहा और वहीं स्वविषयक परिचायिका पुष्पिका में "इति संस्कृतसार्वभौम प्राकृतपृथ्वीश्वर-शौरसेनीशिरोमणि-मागधीमकरध्वज-पैशाचीपरमेश्वरापभ्रंशराजहंसामशरिकचक्रवति-ध्वमिप्रस्थापनपरमाचार्य-काव्यमीमांसा-प्रभाकर-सहृदय-शिरोमणि-सहजसर्वज्ञ-परमयोगीश्वर-श्रीमस्त्रि. भुवनविद्याचकतिवंशावतंस-महाकविश्रीविद्याचक्रवर्ति-कृतो 'सम्प्रदाय-प्रकाशिन्यां' 'काव्यप्रकाश-बृहटीका'यां दशम उल्लास: ।" इस प्रकार लिखा है । तदनुसार इनके पिता श्री त्रिभुवनविद्याचक्रवर्ती बड़े प्रसिद्ध विद्वान् थे और ये 'महाकवि थे' इतना विशेष ज्ञात होता है। इस टीका का प्रकाशन 'त्रिवेन्द्रम् संस्कृत सीरिज' से सन् १९२६, १६३० में भट्ट गोपाल की टीका के साथ हुआ है । तथा डा. रामचन्द्र द्विवेदी,' (प्राध्यापक तथा विभागाध्यक्ष संस्कृत, उदयपुर विश्वविद्यालय) के टोकानुसारी अंग्रेजी अनुवाद एवं रुय्यक-रचित 'काव्यप्रकाश-संकेत' सहित प्रकाशन 'मोतीलाल बनारसीदास-दिल्ली' से दो भागों में हुमा है। [ १४ ] टोका-अच्युतठक्कुर तर्काचार्य (सन् १४२५ ई० से १५०० ई०) ये प्राचार्य ईसा की पन्द्रहवीं शती के पूर्वार्ध में तीर भूक्ति के अधिपति महाराजाधिराज शिवसिंह के अमात्य-प्रवर रत्नपाणि के पिता थे। यह बात रत्नपाणि की टीका में उल्लिखित पद्य से ज्ञात होती है । टीका अप्रकाशित है। [१५ ] टोका-वाचस्पति मिश्र ( सन् १४५० से १५५० ई०) यह अनामा टीका म० म० अभिनव वाचस्पति मिश्र मैथिल की है। ये मैथिल ब्राह्मणों में सुप्रसिद्ध सदपाध्याय गिरिपति मिश्र के पत्र 'स्वरोदय' के व्याख्याकार नरहरि मिश्र के पिता और 'सहल्यापरिमाण' मादि ग्रन्थों के निर्माता म०म० केशवमिश्र के पितामह थे । युवावस्था में मिथिलाधीश भैरवसिंह की सभा में तथा वार्धक्य में रामभद्र सिंह की सभा में प्रधान-पण्डित पद को प्रापने मण्डित किया था। इनका स्थिति समय सन् १४५० ई० से १५५० ई० के बीच 'तीरभुक्ति' के इतिहास में माना गया है। इन्होंने अपने जीवन में प्रायः ४१ ग्रन्थों की रचना की थी। इनका अन्तिम ग्रन्थ 'पितृमक्ति-तरङ्गिणी है जिसके अन्त में लिखा है कि शास्त्रेदश स्मतो त्रिशनिबन्धा येन यौवने । निमितास्तेन चरमे वयस्येषा विनिर्ममे ॥ कुछ लोग साङ स्यादि समस्त दर्शनों के व्याख्याकार वृद्ध वाचस्पति को ही काव्यप्रकाश का टीकाकार मानते हैं यह उचित नहीं है क्योंकि उनका स्थितिकाल ८७६ ई० है। अतः वे मम्मट से प्राचीन ही हैं। चण्डीदास, विश्वनाथ तथा भीमसेन ने अपनी-अपनी काव्यप्रकाश की टीकामों में इनका उल्लेख किया है । टीका के विषय में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। [१६] काव्य-दर्पण- म०म० रत्नपाणि (मनोधर) ठक्कुर ( सन् १४५० ई० से १५०० ई०) ये मिथिलेश शिवसिंह के अमात्य श्री अच्युत ठक्कुर के पुत्र थे। अतः इनका समय पन्द्रहवीं शती का उत्तरार्ध है। इन्होंने अपनी टीका में १. डॉ. द्विवेदी ने प्रस्तुत टीकाकार पर विशेष अध्ययन कर अलंकार- सर्वस्व की 'सञ्जीविनी' टीका का भी सम्पादन प्रकाशन किया है। अतः श्रीविद्याचक्रवर्ती के परिचय के लिए उक्त ग्रन्थ का अवलोकन भी अपेक्षित है। २. मैथिलद्विजपजी प्रबन्ध में भी इसका परिचय दिया है। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ शिवसहा मिथिलेशादवाप यो मन्त्रितां विबुधः । तस्याच्युतस्य सूनुर्बभूव भुवि रत्नपाणिरथम् ॥ यह पद्य लिखकर अपना परिचय दिया है। रत्नपारिण का उपनाम 'मनोधर' था। अग्रिम टीकाकारों ने 'इति मनोधरप्रभृतयः' लिखकर ही इनका उल्लेख किया है । [ १७ ] टोका - म० म० पक्षधर मिश्र ( सन् १४५४ ई० ) इनका वास्तविक नाम 'जयदेव मिश्र' है किन्तु शास्त्र - विचारणा में किसी दुर्बल पक्ष का आश्रय लेकर भी अपने बुद्धिवैभव से उसका सम्यक् समर्थन करने के कारण ये 'पक्षधर' नाम से प्रसिद्ध हो गये। अपनी काव्य- कुशलता के कारण इन्हें 'पीयूषवर्ष' उपाधि से भी अलङ्कृत किया गया था। शाण्डित्य गोत्रीय मैथिल पं० महादेव मिश्र के ये । पुत्र मौर अपने पितृव्य म० म० हरिमिश्र से सकल शास्त्रों का अध्ययन करके इन्होंने गङ्ग ेश उपाध्याय की न्यायचिन्तामरिण पर 'आलोक' एवं वर्धमान उपाध्याय की 'द्रव्य किरणावली' पर 'प्रकाश' नामक टीकाएँ तथा 'न्यायपदार्थमाला', 'प्रसन्नराघव' (नाटक) और 'चन्द्रालोक' जैसे २२ ग्रन्थों की रचना की थी। इनके द्वारा १४५४ ई० की 'अमरावती' में लिखित 'विष्णुमहापुराण' की प्रति का यह अन्तिम पद्य इनके स्थिति समय का परिचायक है aria तं शम्भुनयनैः सङ्ख्यां गते ( ३४५) हायने, श्रीमङ्गो महीभुजो गुरुदिने मार्गे च पक्षे सिते । षष्ठयां ताममरावतीमधिवसतु या भूमिदेवालया, श्रीमत्पक्षधरः सुपुस्तकमिदं शुद्धे व्यखीदिदम् ॥ यह पुस्तक श्राज भी दरभङ्गा जिले के 'योगियाड़' गाँव में स्व० नैयायिक केशवशर्मा के घर में विद्यमान है । यह अमरावती प्राचीन कमला नदी के किनारे पर 'कोइलख' गाँव से ६-७ मील दूर थी, सोलहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में विपक्षियों से आक्रान्त होने पर मिथिलाधिपति महेश ठक्कुर के मध्यम पुत्र अच्युत ठक्कुर ने इसे नामशेष कर दिया था, ऐसा 'मिथिला तत्त्वविमर्श' का मत है। तथा कवि शेखर बद्रीनाथ झा का यही अभिमत है । [१८] टीका - पद्मनाभ मिश्र ( १४वीं शती ई० ) ये पं० महाकवि विद्यापति के समकालिक, मैथिल दीर्घघोष (दिघवर) वंशीय, 'वाणीभूषण' नामक छन्द:शास्त्रीय ग्रन्थ के निर्माता, मिथिलेश गणेश्वर सिंह के पुत्र कीर्तिसिंह के सभापण्डित दामोदर मिश्र के पुत्र थे । इन्होंने 'सुधाकर' आदि अनेक ग्रन्थों की रचना की थी । कमलाकर भट्ट ने अपनी टीका में इस टीका का उल्लेख किया है । इनका समय ईसा की चौदहवीं शती सम्भव है ।" [ १६ ] टीका- रत्नेश्वर मिश्र ( १४वीं शती ई० ) भोज के 'सरस्वतीकण्ठाभरण' पर 'रत्नदर्पण' नामक टीका के लेखक के रूप में प्रसिद्ध रत्नेश्वर मिश्र हो इस टीका के रचयिता हैं । ये रामसिंह देव के आश्रित थे तथा उन्हीं की प्राज्ञा से कण्ठाभरण की इन्होंने टीका लिखी थी । यह बात सरस्वती - कण्ठाभरण के तृतीय परिच्छेद के अन्तिम पद्यों में कही गई है १. कविशेखर श्री बद्रीनाथ झा का यह मत है । द्र० का० प्र० 'विवरण- भूमिका' पृ० ८ । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरामसिहदेवाज्ञामादाय रचितो मया । दर्पणाख्यः सदा तेन तुष्यतां श्रीसरस्वती।। रत्नेश्वरो नाम कवीश्वरोऽसौ, विराजते काव्यसुधाभिषेक । दुस्तकं वक्ताहतदुर्विदग्धां वसुन्धरां पल्लवयन्नजनम् ॥ प्रय स्फुरतु वाग्देव्याः कण्ठाभरणकोतुकम् । मयि ब्रह्ममनोवृत्तो कुरणे रत्नदर्पणम् ॥ इसके आधार पर ये उत्तम कवि, टीकाकार तथा विरक्तस्वभाव के थे । सरस्वती-कण्ठाभरण की टीका में ही इन्होंने अपने द्वारा रचित काव्यप्रकाश की इस (अनामा) टीका का उल्लेख किया है। तथा इन्हीं के काव्यप्रबन्धविषयक कविसरणदीपिका' नामक ग्रन्थ का उल्लेख हरप्रसाद शास्त्री ने 'एशियाटिक सोसायटी' बंगाल के कैटलाग भाग ४ में पाण्डुलिपि सं० ४७१५ ए० ऑफ ८०६६ पृ० ४७१-७३ पर किया है । [ २० ] टोका-पुण्डरीक विद्यासागर ( १५वीं शताब्दी ई. से पूर्व ) ये बङ्गाल के निवासी थे। इनका उल्लेख श्रीवत्सलाञ्छन की सारबोधिनी टीका में हुआ है । इसी आधार पर इनका समय १५वीं शताब्दी से पूर्व माना गया है। प्रत्यक्षरूप से विद्यासागर' यह किसी टीकाकार की उपाधि है, ऐसी डा. डे की मान्यता है। साथ ही उनका कथन है कि-'विद्यासागर नामक एक लेखक ने भट्ट पर 'कलादीपिका' नामक टीका लिखी है। भरत मल्लिक (४७३ पर) तथा 'प्रमरकोश' पर अपनी टीका में रामनाथ ने इनका उल्लेख किया है। पं० शिवप्रसाद भट्टाचार्य (श्रीधर कृत काव्यप्रकाश-टीका की भूमिका पृ०३०) के मत से ये मम्मट के टीकाकार पण्डरीक विद्यासागर हैं जो १५वीं शती के प्रथम चरण में हए हैं। इन्होंने दण्डी तथा वामन पर भी टीकाएँ लिखी हैं। [ २१ ] विस्तारिका- परमानन्द चक्रवर्ती भट्टाचार्य ( १५ वीं शती ई०) गौडीय न्यायनय प्रवीण परमानन्द चक्रवर्ती विस्तारिका' में 'इति मिश्राः' कहकर सुबुद्धिमिश्र, 'इति दीपिकाकृतः' से जयन्त भट्ट और 'यच्चोक्त विश्वनाथेन' से 'काव्यदर्पणकार' विश्वनाथ का स्मरण करते हैं। प्रदीपकार प्रादि ने इनको उद्धत किया है साथ ही न्यायाचार्य यशोविजयजी ने भी इनका उल्लेख किया है अतः ये इनसे पूर्ववतीं हैं। इसी प्राधार पर इनका स्थितिकाल विश्वनाथ के पश्चात् १४००-१५०० ई. के बीच माना गया है । भट्टाचार्य होने के आधार पर यह निश्चित है कि ये बङ्गवासी थे। इनके गुरु का नाम ईशान न्यायाचार्य था । ये चक्रवर्ती महाशय एक प्रसिद्ध नयायिक थे। गङगेशोपाध्यायरचित 'चिन्तामणि' पर इनका लक्षणगादाधरी ग्रन्थ 'चक्रवति-लक्षणम्' नाम से प्राप्त होता है । काव्यप्रकाश के सातवें उल्लास पर लिखी अपनी टीका में इन्होंने - अन्धा दोषान्धकारेषु के वा न स्युविपश्चितः । नाहन्तु दृष्टिविकलो, धृतचिन्तामणिः सदा ।। यह पद्य लिखकर अपना 'चिन्तामरिण-पाण्डित्य' व्यक्त किया है। इन्होंने 'नैषध' (IOC. Vii पृ० १४३८) पर भी एक टीका लिखी है। इनकी टीका के प्रकाशन का उपक्रम कलकत्ता के राष्ट्रीय संस्कृत महाविद्यालय के अन. सन्धान विभाग द्वारा हा है तथा पीटर्सन की रिपोर्ट भाग २, पृ० १०८-१०६ पर एबं एच० पी० शास्त्री के कैटलाग ASB. MSS. VI. सख्या ४८३/२४६२ में इसके कुछ अंश प्रकाशित हुए हैं। [२२ ] सारबोधिनी- श्रीवत्सलाञ्छन भट्टाचार्य ( १५वीं शताब्दी ई० ) ये बङ्गाल के निबासी थे । इन्होंने अपनी टीका में सुबुद्धिमिश्र, विद्यासागर, भास्कर, जयराम, विश्वनाथ मौर तत्त्वबोधिनीकार के साथ ही प्रतापरुद्रयशोभूषणकार विद्यानाथ का नामोल्लेख किया है। वैसे यह टीका परमानन्द इनके सम्बन्ध में अन्य ऊहापोह के लिये डा० डे, म. म. काणे तथा प्रो० सप्रे के ग्रन्थ भी दर्शनीय हैं। विद्यानाथ के 'प्रेतापरुद्रीय' का भी इन्होंने उल्लेख किया है। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रवर्ती को "विस्तारिका" का पूर्णत: अनुसरण करती है। इधर पण्डितराज जगन्नाथ ने 'रसगङ्गाधर' में इति श्री. वत्सलाञ्छनोदाहरणमपास्तम्' कहकर इनके मत का खण्डन भी किया है। इन्हीं सब का पाश्रय लेकर इनका स्थितिकाल १४वीं ई० से ११वीं शती के बीच माना जाता है। इनके अन्य नाम 'श्रीवत्स शर्मा', 'श्रीवत्स वर्मा' अथवा केवल 'वत्सवर्मा' हैं । हाल ने 'वासवदत्ता' की भूमिका में इस टीका का उल्लेख (पृ.५४ पर) किया है तथा 'सारबोधिनी' हेश्वर अथवा श्रीवत्सलाच्छन रचित माना है किन्तु महेश्वर-सूबुद्धि मिश्र और श्रीवत्सलाञ्छन दोनों भिन्न-भिन्न व्यक्ति हैं। प्रोफेक्ट १.७७८b, २. १६b, १०८, ३. पृ. ३४२ के अनुसार श्रीवत्स ने 'काव्य-परीक्षा' नामक स्वतन्त्र ग्रन्थ भी लिखा था जिसके पाँच अध्यायों में मम्मट के अनुसार ही वर्ण्यविषय में साम्य है। मम्मट की कारिकाएं तथा उदाहरण भी इसमें पर्याप्त गृहीत हैं। अत: इसे भी एक प्रकार से काव्य-प्रकाश की टीका ही मानकर रत्नकण्ठ ने इसका उल्लेख किया है। प्रस्तुत 'दीपिका' टीका के निर्माण का हेतु व्यक्त करते हुए टीकाकार ने अवतरणिका में लिखा है कि श्रीमल्लक्ष्मणमट्टानां सुहृवामनुशासनात् । ध्वनिप्रकरणस्याय रहस्यं वर्णयामहे ।। और अन्त में काव्यप्रकाशतरुरेष कुसम्प्रदायव्याख्याविलोल-मरुदाकुलित-प्रतानः। सिक्तः पुनश्च प्रतिपल्लवतामुपेतु श्रीचण्डिदासकविवागमृतप्रवाहैः ॥ लब्धप्रख्या दीपिका ध्वान्तनाशे ख्यातेऽन्वास्येऽदीपि काव्यप्रकाशे । येयं कालामोचितस्वप्रकाशा विष्टया बापामोचिताद्धाऽवतात् सा। इति कापिजलकुलतिलक षड्दर्शनीचक्रवति-महाकविचक्रचूडामणि-सहृदयगोष्ठीमरिष्ठ महामहोपाध्याय-भी. चण्डीदासकृतौ 'काव्यप्रकाशदीपिकायां' दशम उल्लासः । महाकवि चण्डीदास ने प्रस्तुत टीका में विषय को गम्भीरता से समालोचित किया है तथा अपने विचारों को दृढ़ता से अभिव्यक्त किया है। इन्होंने 'प्रबोध-चन्द्रोदय' नाटक पर भी टीका लिखी है, जिसका प्रमाण निम्न पद्य है प्रणम्य सर्वामरवृन्दवन्धं मायामृगेन्द्र कविचण्डिदासः । प्रबोधचन्द्रोदयदुष्प्रबोधपदार्थजातं विशदीकरोति ॥ इसके अतिरिक्त इनके 'ध्वनिसिद्धान्त-संग्रह' का भी उल्लेख प्राप्त है। प्रस्तुत टीका का (तीन भागों में) सुसम्पादन श्रीशिवप्रसाद भट्टाचार्य ने किया है तथा इसका प्रकाशन-'बाराणसेय संस्कृत विश्वाविद्यालय' की सरस्वतीभवन-ग्रन्थमाला के क्र० ४६ में तीन भागों में हुआ है। इसके प्रथम भाग का प्रकाशन १८३३ ई० में हुआ था और दूसरा भाग भी उसी समय छपा था किन्तु वह अपूर्ण रहा । ततीय भाग में ५वें उल्लास से अन्त तक का भाग है । कुल पृ० सं० ५७० में यह पूर्ण है। [ २३ ] टीका- यशोधरोपाध्याय ( सन् १५०० ई० के निकट ) महाकवि भानुदत्त मिश्र ने 'रसपारिजात' के दसवें पल्लव में विद्या कामगवी तस्या वत्सो वाचस्पतिः कविः। दोग्या सिद्धान्तमुग्धानामेक एव यशोधरः। कहते हुए यशोधर को सर्वतन्त्रस्वतन्त्र वाचस्पति मिश्र से अर्वाचीन दिखाया है। म०म० नरसिंह ठक्कुर की नीषा' में इनका नाम पाया है तथा विद्याकर ने अपने विद्याकरसहस्रक' में Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 अध्यापिताऽसि विधुमुखि कौशलमिवाद्भुतं केन । गच्छसि यथा यथा बहिरहह ममान्तस्तथा तथा विशसि ॥ ६८८॥ यह पद्य यशोधरोपाध्याय के नाम से संगृहीत किया है। न्यायाचार्य यशोविजयजी उपाध्याय ने भी अपनी टीका में इनके नाम का उल्लेख किया है तथा स्वयं यशोधर ने अपनी अन्य रचना 'कामसत्र-व्याख्या' में भदन्त रविदत्त का उल्लेख किया है, अतः इनका स्थितिसमय पन्द्रहवीं शती मानना उचित है। [२४ ] काम्य-प्रदीप-'छाया'- म०म० गोविन्द ठक्कुर ( १५वीं शती ई० का अन्तिम भाग) ये मिथिला के निवासी थे। मैथिल श्रोत्रिय 'घूसोत' वंश में उत्पन्न श्रीकेशव ठक्कूर तथा सोनोदेवी के ज्येष्ठ पुत्र थे । जैसा कि 'प्रदीप' के आद्यन्त में स्वयं इन्होंने लिखा हैप्रादि में सोनोदेव्याः प्रथमतनयः केशवस्यात्मजन्मा, श्रीगोबिन्दो रुचिकरकवेः स्नेहपात्रं कनीयान । श्रीमन्नारायचरणयोः सम्यगाधाय चित्तं, ध्यात्वा सारस्वतमपि महः काव्यतत्त्वं व्यनक्ति । ज्येष्ठे सर्वगुणः कनीयसि वयोमात्रेण पात्रे धियां, गात्रेण स्मरगर्वखर्वरणपरे निष्ठाप्रतिष्ठाश्रये । श्रीहर्षे त्रिदिवं गते मयि मनोहीने च कः शोधयेदत्राशुद्धमहो महत्सु विधिना मारोऽयमारोपितः॥१॥ परिशीलयन्तु सन्तो मनसा सन्तोषशीलेन । इममद्भुतप्रदीपं प्रकाशमपि यः प्रकाशयति ।।२॥ दीपिका द्वितयं काव्ये प्रदीप-द्वितयं सुतौ । स्वमतौ सम्यगुत्पाद्य 'गोविन्दः' शर्म विन्दति ॥ ३॥ . 'रुचिकर' इनके सौतेले भाई थे। इनके प्रपितामह रविठक्कुर और पितामह बुद्धिकर ठक्कुर थे। इन्होंने अपने भाई श्रीहर्ष का जो उल्लेख किया है वह नैषधकार श्रीहर्ष से भिन्न है। हयग्रीवोपासक, ताकिक एवं मालकारिक वडामणि बाल के जैसोर' जिले के जमीदार श्रीभवानन्दराय के पाश्रय में रहकर इन्होंने 'पृजाप्रदीप' प्रादि ग्रन्थों की भी रचना की थी। 'पूजाप्रदीप' के प्रारम्भ में इनका यह पद्य न इलाधन्ते त्रिदशगुरवे यस्य विद्या विदन्तो, नासेवन्ते जलधितनयां येन दृष्टाः कृपाम् । नाकाक्षन्ति क्वचिदपि सुधां यस्य काव्यं पिबन्तः, सन्तः ! सोऽयं जयति जगति श्रीभवानन्दरायः ।। श्रीमत्केशवतनयो गोविन्दस्तन्निवेश (मनु) वर्ती। प्रकटयति धर्मपदवी पूजाकर्म-प्रदीपेन ॥ १. द्रष्टव्य प्रस्तुत ग्रन्थ के पृ०६१ तथा १२ । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा मन्तिम पद्य श्रीमद्भवानन्द-निवेशवी गोविन्दशर्मा गुरुमक्तियुक्तः । उपासकानामुपकारहेतोः पूजा-प्रदीपं कृतवान् विमृश्य ॥ इस बात के प्रमाण हैं। प्रदीप टीका में भास्कर भट्ट तथा चण्डीदास भट्टाचार्य के नामोल्लेख मिलते हैं। इन की यह टीका काव्यप्रकाश-प्रदीप', 'काव्य-प्रदीप' और 'प्रदीप' नाम से भी विख्यात है । 'काव्य-प्रदीप' को विदूतसमाज में अत्यन्त सम्मान प्राप्त हमा है जिसके परिणाम-स्वरूप वैद्यनाथ तत्सत् की 'प्रभा' तथा 'उदाहरण-चन्द्रिका' और नागेश भट्ट की 'उद्योत' नामक प्रटीका लघु एवं बृहद् (जिसे 'लध्वी' और 'बृहती' कहते हैं) सर्वत्र प्रसिद्ध हैं। श्रीगोविन्द ठक्कूर मुख्यतः ताकिक थे। 'मुख्यार्थबाधे तद्योगे' इत्यादि लक्षणा-सूत्र की व्याख्या में इनके द्वारा स्वीकृत तार्किक पद्धति का व्याख्यान इसका परिचायक है । 'प्रदीप' और 'उद्योत' का समन्वित अध्ययन करने से यह बात और भी पुष्ट हो जाती है। प्रदीप में कहीं-कहीं व्याकरण के लक्षणहीन उल्लेख भी प्रतीत होते हैं। .. नरसिंह ठक्कूर की वंशावली के आधार पर गोविन्द ठक्कुर से पांचवीं पीढ़ी में ये हुए हैं तथा प्रदीप में विश्वनाथ का और कमलाकर भट्ट द्वारा प्रदीप का उल्लेख करने के आधार पर इन दोनों के बीच उत्पन्न मानकर इनका समय पन्द्रहवीं शती का अन्तिम भाग माना गया है। केवल "प्रदीप" के साथ काव्य-प्रकाश का प्रथम प्रकाशन 'पण्डित' पत्रिका के ४ अंकों (१० से १३) में १८८८.१८९१ ई. तक हुआ था। वैद्यनाथ तत्सत् की 'प्रभा' के साथ १८६१ और १६१२ ई० में निर्णयसागर प्रेस. बम्बई से, नागोजी भट्ट के "उद्योत" के साथ (केवल १, २, ७, १० उल्लास) पूना के डी०टी० चांदोरकर के संपादन : कमशः १८६६, १८६८ तथा १६६५ ई० में पूना से, 'प्रदीप', 'उद्योत', 'प्रभा', रुचक के ‘संकेत" एवं नरहरि सरस्वती तीर्थ की "बालचित्तानुरजनी', के साथ (केवल १, २, ३, १० उल्लास) श्री एस०एस० सुखटणकर के सम्पादन में बम्बई से १६३३ और १९४१ ई० में, "प्रदीप" तथा "उद्योत" के साथ सम्पूर्ण ग्रन्थ का प्रकाशन पं. वासुदेव शास्त्री प्रभ्यंकरजी के सम्पादन में 'पानन्दाश्रम, पूना' से ई. स. १६११ में हुआ है। इससे यह सहज अनुभव होता है कि 'काव्य-प्रदीप' छाया के प्रति विद्वानों का पूर्ण अनुराग रहा है। -[ २५ ] उदाहरण-दीपिका- म०म० गोविन्द ठक्कुर ( १५वीं शती ई० का अन्तिम भाग) . गोविन्द ठक्कुर की यह द्वितीय टोका है। यह मूल ग्रन्थपाठ के अन्तर्गत उदाहरणार्थ दिए गए पद्यों की विशद व्याख्या है। डॉ० सुशीलकुमार डे का अनुमान है कि स्टीन ने (पृ. २८,६०, २६६ पर) जिस श्लोकदीपिका' का उल्लेख किया है, वह यह उदाहरणदोपिका' ही है क्योंकि इस ग्रन्थ के दूसरे पद्य में 'काव्यप्रदीप' का निर्देश किया गया है। वैद्यनाथ तत्सत् ने अपनी टीका में दीपिकाकार' शब्द से जो उल्लेख किया है, वह जयन्त भट्ट की 'दीपिका' के बारे में न होकर गोविन्द ठक्कुर की इस 'उदाहरणदीपिका' का ही है। क्योंकि ‘उदाहरणचन्द्रिका' में दीपिकाकार के नाम से जिस मत का उपपादन किया है वह जयन्त भट्ट की दीपिका' में उपलब्ध नहीं होता है। 'उदाहरण-दीपिका' और 'उदाहरण-चन्द्रिका' ये दोनों टीकाएँ काव्यप्रकाश के उदाहरणों की व्याख्या के लिये ही लिखी गई हैं। प्रतः 'उदाहरण. १. सप्तम उल्लास में "न्यूनपदत्व' और 'च्युतसंस्कृति' के उदाहरण में यह बात द्रष्टव्य है। २. द्रष्टव्य-संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास (हिन्दी अनुवाद) भाग १, पृ० १५० । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रिका' में दूषणार्थं अथवा भूषणार्थ यदि उद्धरण देने हैं तो वे 'उदाहरण- दीपिका' से ही दिये जाने उचित हैं । " [२६] मधुमति - रवि (पारिण) ठक्कुर ( सन् १५२५ - १६२० ई० ) पूर्वोक्त अच्युत ठक्कुर के पौत्र तथा म० म० रत्नपाणि के पुत्र थे। अतः इनका समय सोलहवीं शताब्दी का पूर्वार्ध है । न्यायाचार्य श्री यशोविजयजी उपाध्याय ने अपनी टीका में 'मधुमतीकार' के नाम से इनका उल्लेख और समालोचन किया है। श्रा० विश्वनाथ के समान इनके 'कुल ' में भी निरन्तर तीन पुरुषों ने 'काव्यप्रकाश' की टीका के रूप अर्चना की है जो इस वंश की श्लाघनीय साहित्यसेवा है। इन्होंने स्वयं को गौरी तथा मनोधर अथवा रत्नपाणि का पुत्र एवं अच्युत का पौत्र कहा है। अच्युत मिथिला के राजा शिवसिंह अथवा शिवसिद्ध के मन्त्री थे । ( मनोधर ) रत्नपारिण की काव्यप्रकाश पर 'काव्यदर्पण' टीका है उसी टीका के आधार पर रवि ने अपनी प्रस्तुत टीका लिखी है । कमलाकर तथा नरसिंह ने मधुमतिकार एवं भीमसेन ने पिता और पुत्र दोनों का उल्लेख किया है। प्रस्तुत टीका का यह नाम इन्होंने अपनी पुत्री के नाम पर रखा है । [२७] टीका - मुरारि मिश्र ( सन् १५५० से १६०० ई० ) शाण्डिल्य गोत्री मंथिल श्रीकृष्ण मिश्र के पुत्र तथा म० म० केशव मिश्र और रामभद्र के अन्तेवासी थे । मोरङ्ग के नृपति लक्ष्मीनारायण से छठे त्रिविक्रम नारायण इनके श्राश्रयदाता थे । भीमसेन ने इनका उल्लेख किया है। प्रस्तुत टीका के अतिरिक्त इन्होंने 'शुभकर्मनिर्णय' आदि अन्य अनेक ग्रन्थों की भी रचना की थी । 'शुभकर्म- निर्णय' में इनका परिचयात्मक पद्य इस प्रकार है विज्ञायाखिलशास्त्रममलं श्रीरामभद्राद् गुरो मिश्रात् केशवतः स्मृतीरथ तयोः सारं विविच्य स्वयम् । पादाम्भोजयुगं प्रणम्य शिवयोः सङ्ख्यावतां प्रीतये, ७६ ord ' शुभकर्मनिर्णय' म श्रीमान् मुरारिः कृती ॥ 'अनर्घ राघव' के निर्माता मुरारि इनसे पृथक् हैं क्योंकि रत्नाकर कवि ने 'हरविजय महाकाव्य ' में उनका स्मरण किया है और उनका काल नवम शती है । अतः वे मम्मट से पूर्ववर्ती थे । म० म० केशव मिश्र के पितामह यदि वाचस्पति मिश्र को मानते हैं तो उसके आधार पर श्री मिश्र का समय १५५० से १६०० ई० के मध्य माना जा सकता है । [ २८ ] काव्यप्रकाश भावार्थ - रामकृष्ण (भट्ट) (सन् १५५० ई० ) 'नारायणभट्टी' प्रादि ग्रन्थों के कर्ता नारायण भट्ट के पुत्र एवं 'भाट्टवातिक' तथा 'काव्यप्रकाश' के व्याख्याकार और 'निर्णय सिन्धु' स्मृतिनिबन्ध के रचयिता 'कमलाकर भट्ट' के पिता थे। ये महाराष्ट्र के निवासी विश्वामित्र गोत्रोत्पन्न रामकृष्ण भट्ट ही इस टीका के कर्ता हैं ऐसा विद्वानों का मत है। इनका यह परिचय कमलाकर भट्ट काव्य - प्रकाश की 'कमलाकरी टीका' के इस पद्य से प्राप्त होता है के श्रीमन्नारायणाख्यात् समजनि विबुधो 'रामकृष्णाभिधान' - स्तत्सूनुः सर्वविद्याम्बुधि-निजचुलुकीकारतः कुम्भजन्मा । टीकi काव्यप्रकाशे कमलपदपरस्त्वाकरोऽरीरचद् यः, श्री पित्रोः पादपद्मं रघुपतिपदयोः स्वं श्रमं प्रापयच्च ॥ १. द्रष्टव्य, प्रो० धुंडिराज गोपाल सप्रेरचित - 'आचार्य मम्मट', पृ० ३३ । २. इस टीका का नाम कहीं-कहीं दीर्घं ईकरान्त 'मधुमती' भी लिखा है । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Go इसी के प्राधार पर इनका समय कमलाकर के समय १७१२ ई० से पूर्व १५५० ई० के आसपास का है। प्रस्तुत टीका के अन्य नाम 'कवि-नन्दिनी' अथवा 'नन्दिनी' भी हैं। प्रोफैक्ट १, १०२ स २, २० A तथा २. १६६B में इसका सूचन है। [ २९ ] काव्य- कौमुदी - म० म० देवनाथ ठक्कुर 'तर्कपञ्चानन' ( सन् १५७५ ई० ) म० म० गोविन्द ठक्कुर के प्राठ पुत्रों में से देवनाथ छठे पुत्र थे । प्रधिकरणकोमुदी, स्मृतिकौमुदी और तन्त्रकौमुदी की रचना भी इन्हीं की हैं। प्रस्तुत "काव्यकौमुदी” की रचना का कारण अपने पूज्य पिताजी के द्वारा प्रणीत काव्य-प्रदीप' के सम्बन्ध में किये गये प्रक्षेपों का निवारण रहा है। काव्यकौमुदी के मङ्गलाचरण के पश्चात् इन्होंने लिखा है कि य एष कुरुते मनो विपदि गौरवीणां गिरा, स वामन इवाम्बरे हरिणलाच्छनं वाञ्छति । लिलेखिपति सिंहिकार मरणकेसरं फेरवत्, पतङ्ग इव पावकं नृहरिमावकं धावति ।। तथा - विन्यस्तं दूषणं येन गौरवीषु निरुक्तिषु । विन्यस्यत्यस्य शिरसि तर्कपञ्चाननः पदम् ॥ इस टीका का उल्लेख कमलाकर भट्ट तथा नरसिंह ठक्कुर ने किया है। अतः इनका स्थितिकाल सोलहवीं शती का अन्तिम चरण था । शास्त्रार्थ विचार की प्रगल्भता के कारण इन्हें 'तर्क - पञ्चानन' जैसी पदवी से सुशोभित किया गया था । इन्हीं के पुत्र महामहोपाध्याय रामानन्द ठक्कुर ने 'रसतरङ्गिणी' की रचना की थी, जो 'मिथिला संस्कृत विद्यापीठ दरभङ्गा' से प्रकाशित है । [ ३० ] टीका - उपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी गणो (सन् १५८३ से १६८६ ई० ) गुजरात प्रदेश के पाटण शहर के निकटस्थ 'कनोडु' गाँव में 'नारायण जैन' के पुत्र 'सोभागदे' के गर्भ से उत्पन्न 'जसवंत कुमार' ही बाद में दीक्षित होकर 'उपाध्याय यशोविजय' के नाम से प्रसिद्ध हुए । इनका ग्रन्थरचनाकाल ऐतिहासिक वस्त्रपट तथा इनके स्वहस्त से लिखित पाण्डुलिपियों के आधार पर सन् १५८३ से १६८६ ई. माना गया है । ये न्यायशास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित तथा महाकवि थे । इनके द्वारा रचित प्राकृत, संस्कृत, गुजराती एवं हिन्दी ( मिश्रित ) ग्रन्थों की संख्या बहुत विशाल है। साथ ही स्वरचित एवं अन्य विद्वानों द्वारा रचित ग्रन्थों की टीकाएँ भी लिखी हैं । काव्यप्रकाश की प्रस्तुत टीका केवल 'द्वितीय' एवं 'तृतीय' उल्लास पर ही उपलब्ध हुई है । टीका का कोई स्वतन्त्र नाम नहीं दिया है । मूलतः नैयायिक होने के नाते लेखक ने प्रस्तुत टीका में - 'भट्टमत, गुरुमत, प्रदीपकृत्, परमानन्द, सुबुद्धिमिश्र, मीमांसकमत, चंडीदास, वैनाशिक, वैभाषिक, मणिकार, मधुमतीकार, यशोधरोपाध्याय, पार्थसारथिमिश्र, नृसिंहमनीषाकार तथा प्रालङ्कारिकों के मतों को उद्धृत करते हुए खण्डन-मण्डन किया है। विषय प्रतिपादनशैली प्रभिनव होने के साथ-साथ नव्यन्याय शैली से पुष्ट है । यह टीका हिन्दी अनुवाद सहित मुनि श्री यशोविजयजी के प्रधान सम्पादकत्व (डॉ० रुद्रदेव त्रिपाठी ने सम्पादित कर ) 'यशोभारती जैन प्रकाशन समिति बम्बई' से प्रकाशित की है । [३१] बृहट्टीका - महोपाध्याय सिद्धिचन्द्रगरि (सन् १५८८-१६६६ ई० ) प्रस्तुत टीका का उल्लेख 'काव्य - प्रकाश खण्डन' में 'यः कौमारहरः' इत्यादि पद्य में 'कतिपयाक्षरों की द्विरावृत्ति १. भावक का तात्पर्य अवि मेषों का समुदाय ऐसा है । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होने से अनुप्रास नहीं है' यह कह कर 'विशेष विचारस्त्वस्मत्कृत - बृहट्टी कातोऽवसेयः' ( प्रथम उल्लास पृ० ३ ) - - किया है । किन्तु यह अद्यावधि उपलब्ध नहीं है । - ( विवृति) - महोपाध्याय सिद्धिचन्द्र गरि (सन् १५८८-१६६६ ई० ) तथा अनेक ग्रन्थ [ ३२ ] काव्य - प्रकाश- खण्डन - ( ये भानुचन्द्र गरिण के शिष्य, शतावधानी, अकबर बादशाह द्वारा 'खुशफहम' पदवी प्राप्त और वृत्तियों के रचयिता के रूप में ख्यातिप्राप्त जैन श्राचार्य थे । प्रस्तुत खण्डन के अन्त में दी गई प्रशस्ति'इति पावशाह श्रीकश्वर सूर्यसहस्रनामाध्यापक- श्रीशत्रुञ्जय तीर्थकर मोचनाचनेक- सुकृत विधायक महोपाध्यायश्री भानुचन्द्रगरण - शिष्याष्टोत्तरशतावधान साधन प्रमुदित-पादशाहश्रीचकम्बरप्रदत्त सुष्फलमापराभिधान - महोपाध्यायचोसिद्विचन्द्रगणिविरचिते काव्यप्रकाश-खण्डने वशम उल्लासः समाप्तः ।' से इनका यह परिचय प्राप्त होता है। इनका स्थितिकाल १५८८ ई० से १६६६ ई० निश्चित है । पण्डितरा जगन्नाथ के ये समकालीन थे। इनके जीवन एवं कृति प्रादि के विषय में इन्हीं के द्वारा रचित 'भानुचन्द्रचरितम् " नामक विशिष्ट ग्रन्थ में यथेष्ट लिखा गया है । महोपाध्याय सिद्धिचन्द्र ने प्रस्तुत टीका, एक आलोचनात्मक दृष्टि से की है । काव्य - प्रकाश में प्रतिपादित जिन विचारों के विषय में ग्रन्थकार का कुछ मतभेद रहा है, उस मतभेद को प्रकट करने के लिए इसकी रचना की गई है, न कि उसके सर्वमान्य ग्रन्थगत सभी पदार्थों का खण्डन इसमें प्रभिप्रेत है । प्राचार्य मम्मट ने काव्यरचना-विषयक जो विस्तृत विवेचन काव्यप्रकाश में किया है, उसमें से किसी लक्षरण, किसी उदाहरण, किसी प्रतिपादन एवं किसी निरसनसम्बन्धी उल्लेख को सिद्धिचन्द्र ने ठीक नहीं माना है और इसीलिए उन्होने अपने मन्तव्य को व्यक्त करने के लिए प्रस्तुत रचना का निर्माण किया है। इसी प्रकार काव्यप्रकाश के पुराने और नये टीकाकारों के भी जिन विचारों के साथ इनका मतभेद हुआ है, उन विचारों का भी इसमें निरसन हुआ है। वैसे ये जगन्नाथ की भाँति 'नव्य' थे। ये एक नवीन काव्य - सिद्धान्त की स्थापना में यत्नशील थे । तथापि ऐसा करने में इनका हेतु केवल पदार्थतत्त्व की मीमांसा प्रदर्शित करने का रहा है न कि किसी प्रकार के स्वमताग्रह अथवा परदोषान्वेषण का रचना के आरम्भ में खण्डनकार ने स्वयं लिखा है प्राह्मा: क्वापि गिरो गुरोरिह परं दूष्यं परेषां वचो— वृन्दं मन्वधियां वृथा विलपितं नास्माभिरुदृङ्कितम् । अत्र स्वीय विभावनेकविदितं यत् कल्पितं कौतुकाद्, वाविष्यूहविमोहनं कृतधियां तत्प्रीतये कल्पताम् ॥ ४ ॥ X X X X पररचित काव्यकण्टकशतखण्ड [ खण्ड ] नताण्डवं कुर्मः । कवयोऽद्य दुर्बुरूढाः स्वैरं खेलन्तु काव्यगहनेषु ॥ तावानुवादपूर्वक 'काव्यप्रकाशखण्डन' मारभ्यते १५ ॥ इससे यह स्पष्ट है कि यह सब कौतुकमात्र की दृष्टि से प्रयास किया गया है। १. सिंधी जैन ग्रन्थमाला - भारतीय विद्या भवन, बम्बई से १८वें पुष्प के रूप में मुद्रित । ( इत्यादि) Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसका प्रकाशन 'सिंघी जैन ग्रन्थमाला' (ग्रन्थाङ्क ४०) मे प्रा. रसिकलाल छोटालाल परिख के सम्पादक में (वि. सं. २००६) में हुया है।' [ ३३ ] टोका- तिरुवेङ्कट ( सन् १६०० ई० के निकट ) ये चिन्नतिम्म के पुत्र तथा तिरुमल गुरु के पौत्र थे । नाम से यह स्पष्ट है कि ये दक्षिणभारतीय थे। इन्होंने अपनी टीका में भट्ट गोपाल की टीका का उल्लेख किया है। इसी आधार पर इनका समय सोलहवीं शती निर्धारित किया जा सकता है । मद्रास 'केटलाग, ए. ३१८ पर इसका निर्देश है। ३४ ] रहस्यप्रकाश- रामनाथ उपाध्याय ( सन् १६०० ई० के निकट ) यदि ये मैथिल हों, तो आजकल नेपाल राज्य के अन्तर्गत (पहले स्वतन्त्र) मोरङ्ग देश के अधिपति और सोरमदेवी के पति कंस-नारायण के सभापण्डित थे और 'रागतरङ्गिणी' में इनके द्वारा रचित गीत के म०म० लोचनकवि द्वारा उदाहृत होने के कारण इनका स्थितिकाल ईसा की सोलहवीं शती माना जा सकता है। डॉ० डे ने इनका नाम रामनाथ विद्यावाचस्पति: लिखा है तथा इन्हें बंगाली टीकाकार बतलाया है। वहीं यह भी लिखा है कि प्रोफेक्ट १०२ ए. पर इसका उल्लेख है। भवदेव की 'संस्कारपद्धति' पर इनकी टीका की रचना १६२३ ई० में हुई थी। ( देखिए प्रोफेक्ट i, ५१६ ए.) [३५] टीका- रुचि( कर ) मिश्र ( १६वीं शती ई०) 'नरसिंह मनीषा' में 'मिश्र' नाम से जिसका उल्लेख हुआ है, वे ये ही रुचिकर मिश्र हैं। ये म० म० गोविन्द ठक्कुर की विमाता से उत्पन्न बड़े भाई रुचिकर से भिन्न हैं । अन्य जानकारी प्राप्त नहीं है। [ ३६ ] टीका- हर्षकुल (जैन मुनि) ( १६वीं शताब्दी ई० ) ये विक्रम की सोलहवीं शती में उत्पन्न एवं जैन सम्प्रदाय के 'तपा' गच्छ में दीक्षित जैन मुनि थे। इनका विशेष परिचय एवं टीका सम्बन्धी ज्ञातव्य प्राप्त नहीं है। 'जैन संस्कृत साहित्यनो इतिहास भाग १, पृ. २२८ में श्री कापड़िया ने इसका उल्लेख मात्र किया है। [ ३७ ] टीका- गदाधर चक्रवर्ती भट्टाचार्य ( १६वीं शती० ई० का अन्तिम भाग) बङ्गाल के पवनमण्डलान्तर्गत 'पक्ष्मीपाश' नामक गाँव में इनका जन्म हुआ था। इनके पिता का नाम जीवाचार्य था। आपने नवद्वीप में रहकर हरिराम तर्क वागीश से समग्र न्यायशास्त्र का अध्ययन किया था। इनका जन्मकाल ई०१६वीं शताब्दी का अन्तिम भाग माना गया है। रघूनाथ शिरोमणि के 'तत्त्वचिन्तामणि-दीधिति' ग्रन्थ पर १. 'काव्यप्रकाशखण्डन' को माध्यम बनाकर दिल्ली विश्वविद्यालय से पी-एच०डी० उपाधि के लिये हमारे मित्र श्री विश्वप्रकाशजी (व्याख्याता श्री ला० ब. शास्त्री के० सं० विद्यापीठ) अपना शोधप्रबन्ध प्रस्तुत कर रहे हैं। २. यह निर्देश कविशेखर श्री बद्रीनाथ झा ने गोकुलनाथी विवरण की भूमिका में पृ०६ पर दिया है। ३. द्र० संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास भाग १, पृ० १६१ । ४. इसका निर्देश कविशेखर श्री बद्रीनाथ झा ने 'विवरण' की भूमिका पृ० ११ में किया है। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनी टीका के लिये गदाधर बहुत प्रसिद्ध है । मित्रा ने १५२७ Sc. C. ७. १३ में इसका उल्लेख किया है। [३८] कवि-नन्दिका- रामकृष्ण ( सन् १५५० से १६५० ई० ) इस टीका का प्रपर नाम 'नन्दिनी' भी दिया गया है। काव्यप्रकाश का भावार्थ इसमें संकलित किया है। इस टीका का रचना काल ई० १६०१ ई. माना है, अतः इनका स्थिति काल सन् १५५६ १६५० ई० के बीच रहा है। P३६ ] टीका- म०म० पण्डितराज ( १७वीं शताब्दी ई. से कुछ पूर्व) रलकण्ठ ने 'सार-समुच्चय' में इस टीका का उल्लेख किया है। ये धर्म-शास्त्रज्ञ महेश ठक्कुर के शिष्य रघुनन्दनराय ही थे। इन्हें पण्डितराज जगन्नाथ मानना, भूल होगी। स्टीन ने पाण्डुलिपि ११६४ पृ०६०, २६६ पर इनका उल्लेख किया है, (प्रौफेक्ट i १९ A)। स्टीन की पाण्डुलिपि केवल द्वितीय उल्लास तक ही है और मिश्र तथा प्रत्यभिज्ञाकार के अतिरिक्त उसमें किसी भी अधिकारी आचार्य का वर्णन नहीं है। म०म० डॉ० गङ्गानाथ झा ने अपने 'काव्यप्रकाश' के अंग्रेजी अनुवाद-प्रकाशन की भूमिका में इस टीका की पाण्डुलिपि का (जो कि १६३७ ई० में तैयार की हुई है) सूचन करते हुए प्रस्तुत टीका का आदि और अन्त का भाग इस प्रकार सूचित किया है - (प्रारम्भ) रघुवंशजलधिचन्द्रं रावणवरदन्ति-पारोन्द्रम् । सीतामुदित-मयूरोमुदिरमुदारमहं कलये ॥१॥ मोलो निधाय पाणी वाणीमनिशं नमस्कृत्य । पडितराजः कुरुते टोका काध्य-प्रकाशस्य ॥२॥ इयताऽपि बुद्धिविभवेन मोहतो यामुष्य मावशतवर्णनोद्यमः। अपि सत्सु सत्सु गुरणभावगौरवाववधेहि वारिण करवाणि साहसम् ॥ ३ ॥ बलिशादपि वक्रदः कुलिशादपि कठिनकर्माणः । गरलादपि मम्ममिदो ये केचन तान्नमस्कुर्मः ॥४॥ हरमौलिगलितगङ्गावोचिविचित्राशयाः सुधियः । मत्कृतिमतिदीर्घकृपापातसुधारसेन सिञ्चन्तु ॥५॥ इत्यादि । और अन्त में उल्लासमुपसंहरति तदेत इति । इतीति ग्रन्थसमाप्ती॥ इति महामहोपाध्याय-श्रीमत्पण्डितराजविरचितकाग्यप्रकाशटीकायां दशमोल्लासः ॥ यह टीका 'मिथिला महाराज संस्कृत पुस्तकालय' में है। इसका समय ई० सत्रहवीं शती से कुछ पूर्व माना गया है। १. न्यायशास्त्र के प्रसिद्ध टीकाग्रन्थ निर्मातामों में गदाधर भट्ट के नाम से विख्यात होते हुए भी इनकी इस टीका का अधिक परिचय व्याप्त नहीं हुआ, यह पाश्चर्य ही है। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४० ] काव्य-प्रकाशतिलक- जयरामी अथवा रहस्यदीपिका जयराम न्यायपञ्चानन भट्टाचार्य (सन् ५०० से १७०० ई० के बीच ) इस टीका का उल्लेख श्रीवत्सलाञ्छन तथा भीमसेन ने किया है। पीटर्सन की रिपोर्ट में इसका कुछ अंश पृ० १०८.१०६ में प्रकाशित हुआ है। इसी टीका को 'जयरामी' और 'रहस्यदीपिका' भी कहा जाता है। ये 'न्यायसिद्धान्तमाला', 'न्यायकुसुमाञ्जलि' तथा 'तत्त्व-चिन्तामणि दीधिति' नामक ग्रन्थों के टीकाकार से अभिन्न हैं। इन्हीं ग्रन्थों से प्रतीत होता है कि ये नैयायिक थे। ये रामचन्द्र (अथवा रामभद्र) भद्राचार्य सार्वभौम के शिष्य तथा जनार्दन व्यास के . गुरु कहे जाते हैं । विश्वेश्वर ही ऐसे लेखक हैं जिन्होंने (न्याय पञ्चानन की उपाधि के साथ, अपने 'अलङ्कार-कौस्तुभ, में प्राय: ६ बार इनके विस्तृत उद्धरण दिए हैं। इन्हें कृष्णनगर (बंगाल) के राजा रामकृष्ण का संरक्षण प्राप्त था । इनका समय सन १६६४ ई० माना है। पीटर्सन की रिपोर्ट भाग २ पृ० १०७ तथा राजेन्द्रलाल मित्रा के नोटस पृ० १४४७ में भी इस टीका के उद्धरण दिये गए हैं। [४१ ] (काव्यालङ्कार)-रहस्य-निबन्ध - भास्कर ( १७वीं शती ई० से कुछ पूर्व ) ये भास्कर पूर्वोक्त भास्कर से भिन्न हैं । 'नरसिंहमनीषा' में लाटभास्कर मिश्र के नाम से इनका उल्लेख हुआ है। प्रतः ईसा की सत्रहवीं शती से पूर्व इनका स्थिति काल माना जाता है। [ ४२ ] सारदीपिका- गुणरत्न गणि ( सन् १६१० (?) ई० ) ये 'खरतर' गच्छ के जिनमाणिक्य सूरि के प्रशिष्य तथा विनयसमुद्र गणि के शिष्य थे । इन्होंने यह टीका अपने शिष्य रत्नविशाल के अध्ययनार्थ प्राय: १० हजार श्लोक प्रमाण में बनाई थी। 'भाण्डारकर प्रोरियण्टल इंस्टीट्यूट, . पूना' की हस्तलेख सूची खण्ड १२, पृष्ठ ११२ पर इसका निर्देश है । इसकी हस्तलिखित प्रति सं० १७४२ में लिखित है। [ ४३ ] कमलाकरी- कमलाकर भट्ट ( सन् १६१२ ई० ) धर्मशास्त्र के क्षेत्र में कमलाकर भट्ट का नाम बहुत प्रसिद्ध हैं। इन्होंने स्मृति एवं मीमांसा पर कई ग्रन्थलिखे हैं । इनका निवास वाराणसी में था।' कहा जाता है कि इनके वंशज अब भी वाराणसी में विद्यमान हैं। ये राम कृष्ण भट्ट तथा उमादेवी के पुत्र थे। परिवार की दृष्टि से इनके प्रपिता का नाम रामेश्वर भट, पितामह का नाम नारायण भट्ट और बड़े भाई का नाम दिनकर भट्ट था । आश्वलायन शाखीय तथा विश्वामित्र गोत्रीय महाराष्ट्र ब्राह्मण कूल में इनके पूर्वज सभी विद्याव्यसनी एवं शास्त्रमर्मज्ञ हए हैं। फलतः ये भी श्रोत, स्मार्त, कर्मकाण्ड, धर्मशास्त्र, मीमांसा एवं वेदान्त दर्शन के अच्छे पण्डित थे ।२ प्रस्तुत काव्यप्रकाश की टीका के निर्माण का हेतु इनका पुत्र अनन्त भट्ट रहा है। वैसे इन्होंने टीका में लिखा है कि १. वाराणसी के भट्ट परिवार में कमलाकर के स्थान के लिये बी० एन० माण्डलिक के 'व्यवहार-मयूख' पृ० १२६ में तथा भण्डारकर रिपोर्ट (१८८३-८४ पृ० ५०-१) में भी देखिये । २. इन्होंने चार अध्याय पर्यन्त 'रामकौतुक' ग्रन्थ की भी रचना की थी, जो कि राजा राजसिंह के मन्त्री, गरीबदास के अनुरोध पर हुई थी, ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशे टिप्पण्यः सहस्र सन्ति यद्यपि । ताम्यस्त्वस्या विशेषो बः पण्डितः सोऽवधार्यताम् ।। कमलाकर भट्ट ने इस टीका के अन्त में अपना परिचय निम्न लिखित पद्यों से दिया है गुणिनोऽनन्तपुत्रस्य विनोदाय सतां मुदे । कमलाकर-संज्ञेन श्रम एष विनिर्मितः ॥ तन्दुस्तकमेघः फरिणपतिमणितिः पाणिनीये प्रपञ्चे, न्याये प्रायः प्रगल्मः प्रकटितपटिमा भट्टशास्त्रप्रघट्टे । प्रायः प्राभाकरीये पथि मथितदुरूहान्त-वेदान्तसिन्धुः, श्रोते साहित्यकाव्ये प्रखरतरगतिधर्मशास्त्रेषु यश्च ।। येनाकारि प्रोद्मटा वातिकस्य, टोका चान्या विशतिम्रन्थमाला। श्रीरामाछ्योरपिता निर्णयेषु, सिन्धुः शास्त्रे तत्त्वकौतूहले च ॥ इन पद्यों तथा 'श्रीमन्नारायणाख्यात' इत्यादि रामकृष्ण भट्ट के परिचय में प्रदत्त पद्य से इनके प्रखर पाण्डित्य एवं अनेक शास्त्रों के मर्मज्ञ होने का प्रमाण मिलता है। इन्होंने अपनी टीका में 'सोमेश्वर' सरस्वती तीर्थ, चण्डीदास, मधुमतीकार, रविभट्टाचार्य, पद्मनाभ, परमानन्दचक्रवर्ती, देवनाथ, श्रीवत्सलाञ्छन और प्रदीपकार आदि काव्यप्रकाश के टीकाकारों के नाम उल्लिखित किए हैं । स्वतन्त्र ग्रन्थकारों के रूप में केवल भोजराज तथा अप्पयदीक्षित के ही नामों का उल्लेख है। ये बालबोधिनीकार के विद्यागुरु, सखाराम भट्ट के अतिवृद्धपितामह तथा महाराष्ट्रीय थे। इन्होंने 'निर्णय-सिन्धु' की रचना के अन्त में वसुऋतुऋतमू (१६६८) मिते गतेऽब्दे, नरपतिविक्रमतोऽथ याति रोद्रे । तपसि शिवतिथी समापितोऽयं रघुपतिपादसरोरुहेऽपितश्च ॥ यह पद्य खिला है । अत: इनका समय ई० सन् १६११-१२ माना गया है। इस टीका का प्रकाशन वाराणसी से सन् १८६६ में IOC ३ सं० ११४३/३६१, पृ० ३२७ पर उद्धरणसहित श्रीपपाशास्त्री के सम्पादन में हुआ है। इसका 'प्रो० बाबूलाल शास्त्री शुक्ल उज्जैन' ने भी सम्पादन करके संस्करण तैयार किया है जो प्रकाशनाधीन है। [४४ ] नरसिंहमनीषा- म० म० नरसिंह ठक्कुर ( सन् १६०० १७०० ई० ) ____ इनकी टीका में-चण्डीदास, लाटभास्कर मिश्र, सुबुद्धिमिश्र, मधुमतीकार रवि भट्टाचार्य, कौमुदीकार, आलोककार, यशोधरोपाध्याय, मरिणसार, रुचिकर मिश्र, परमानन्द चक्रवर्ती और प्रदीपकार प्रादि काव्यप्रकाश के टीकाकारों का उल्लेख हुमा है। ये गदाधर ठक्कुर के पुत्र थे। इनका घुसौत-विप्रवंश था। रविकर ठक्कुर से ये पाठवें पुरुष थे। इन्होंने कमलाकर भट्ट की टीका को 'अभेदावगमश्च प्रयोजनम्' इस पंक्ति की व्याख्या में अपने मत का समर्थन करने के लिए 'इति नवीनाः' कहते हुए उद्धृत किया है। इसी के आधार पर इनका समय सत्रहवीं शती ई० का पूर्वार्ध माना गया है। इन्होंने अपनी टीका में स्वरचित किसी काव्य के अनेक पद्य उदाहृत किए हैं। 'ताराभक्ति-सुधार्णव' नामक तन्त्रग्रन्थ की रचना भी इन्होंने की थी। ये न्यायशास्त्र के प्रमाड पण्डित थे। भीमसेन ने सुधासागरी में 'न्यायविद्यावागीश' कह कर इन्हें सम्बोधित किया है। दोषनिरूपणात्मक सातवें उल्लास में इनके विद्याभव और विनयादि से सम्बद्ध यह पञ्च प्राप्त होता है Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोषप्रदानपटवो बहवोऽपि धूर्ता, मूका भवन्ति कठिने सरले प्रगल्माः । मातर्भवानि ! करवाणि ततोऽत्र का', मा कुण्ठितोऽस्तु मयि ते करुणाकटाक्षः ॥ इनकी लेखनशैली भी नैयायिकता से पूर्ण है । 'नरसिंह-मनीषा' केवल सप्तम उल्लास के पद दोष तक हो उपलब्ध होती है। [ ४५ ] मणिसार- अज्ञातनामा ? ( सत्रहवीं शती ई० का प्रारम्भ ) 'नरसिंह-मनीषा' में नरसिंह ठक्कुर ने इस टीका का उल्लेख किया है। इसी आधार पर इनका समय ईसा की सत्रहवीं शती का प्रारम्भ माना गया है। अन्य जानकारी प्राप्त नहीं है। [ ४६ ] दोपिका- शिवनारायणदास 'सरस्वतीकम्ठाभरण' ( १७वीं शती ई० का प्रारम्भ ) श्री शिवनारायणदास के पिता का नाम दुर्गादास था। 'सरस्वतीकण्ठाभरण' इनकी सम्मानित पदवी थी। बेबर ने अपनी सूची के प्रथम भाग में ८१६ संख्या पर तथा प्रौ] क्ट ने प्रथम भाग की १०२ ए. संख्या पर इसका उल्लेख किया है। इनके अन्य ग्रन्थों के बारे में भी प्रोफेक्ट i, में ६४६ बी० पर निर्देश है। [४७ ] रहस्यप्रकाश- जगदीश भट्टाचार्य ( १७वीं शती ई० का पूर्वभाग) ये नवद्वीप बङ्गाल के निवासी और गदाधर भट्ट के सहपाठी थे। इन्होंने 'शम्दशक्तिप्रकाशिका' एवं 'न्याय. चन्तामणि दीषिति-व्याख्या' का प्रणयन किया था। ये भवानन्द तर्कवागीश के शिष्य थे और उन्हीं के लालन-पालन में न्यायशास्त्र में निष्णात बने थे । दीधिति टीका पर 'जागदीशी' टीका इन्हीं की है। जागदीशी के नाम से उनकी टीकाएं भी हैं। इन्हें 'तर्कालङ्कार' नाम से भी सम्बोधित किया जाता है। प्रौफेक्ट ने भाग १, १०१ (मित्रा १६५१) में इसका उल्लेख किया है। इसकी पाण्डुलिपि इनके शिष्य ने शक १५७९%१६५७ ई. में तैयार की थी। [ ४८ ] सारसमुच्चय- राजानक रत्नकण्ठ ( सन् १६४८ से १६८१ ई० । धौम्यायन गोत्रोत्पन्न, शङ्करकण्ठ के पुत्र तथा अनन्तकवि के पौत्र रत्नकण्ठ ने काव्यप्रकाश की 'सारसमन्वय नामक इस टीका में अपने से पूर्ववर्ती अनेक प्रसिद्ध टीकाकारों की टीकाओं का सार सङ्कलित किया है। तो १. वामनाचार्य झलकीकर ने नरसिंह ठक्कुर को प्रदीपकार का वंशज ही माना है । तथा उसके कारण-(१) ठक्कुर उपनाम साम्य एवं (२) प्रदीपकार के प्रति मतभेद रहने पर भी प्रादर तथा सुबुद्धि मिश्र और परमानन्द के खण्डन में तुच्छभाव प्रकटन-दिए हैं। २. यह अभिमत कविशेखर श्री बद्रीनाथ झा ने व्यक्त किया है। ३. डा० एस० के० डे ने 'जगदीश तर्कपञ्चान न भट्टाचार्य' का उल्लेख करते हुए इन्हें उक्त बंगालवासी से भिन्न माना है, जबकि कविशेखर बद्रीनाथ झा तथा श्री धुण्डीराज सप्रेमादि विद्वानों ने प्रसिद्ध नैयायिक बंगवासी को ही 'रहस्यप्रकाश' का कर्ता माना है। ४. पीटर्सन रिपोर्ट भाग २, प्र. १७ प्रादि पर इनके द्वारा उल्लिखित लेखकों की सूची दी गई है। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७ भास्कर की 'साहित्यदीपिका' श्रीवत्स की 'सार-बोधिनी', सुबुद्धिमिश्र तथा पण्डितराज की टीकाएँ, परमानन्द की 'विस्तारिका' और गोविन्द की 'प्रदीप' का समावेश है। इसी में 'तत्त्वपरीक्षा' और 'रसरत्न-दीपिका' नामक दो अन्य टीकामों के नाम भी हैं। स्टीन (भूमिका पृ०७ आदि) के कथनानुसार ये 'राजतरङ्गिणी' की मूल पाण्डुलिपि (codex archetypus) ने तैयार की थी। इन्होंने ही रुय्यक के संकेत की पाण्डुलिपि ई० १६५५ में 'अमर' पर रायमुकुट की टीका तथा १६७३ ई० में त्रिलोचनदास की 'कातन्त्रचन्द्रिका' की अनुलिपि तैयार की थी। इन्होंने १६७२ ई० में युधिष्ठिर-विजयकाग्य की टीका (पौफेक्ट i, ४८६ बी., स्टीन, उपर्युक्त ग्रन्थ) तथा 'स्तुतिकुसुमाञ्जलि-टीका' (शिष्यहिता) की रचना १६८१ ई० में निर्मित की थी। इसी के आधार पर इनका साहित्य-रचना काल १६४८ से १६८१ ई० माना गया है। इनके उद्धरण पीटर्सन की रिपोर्ट ii, पृ० १२६ (तथा ii, १६ प्रादि) में दिये गये हैं। { ४E ] लोला- भवदेव ( सन् १६४६ ई० रचनाकाल ) ये मिथिला निवासी कृष्णदेव के पुत्र तथा भवदेव ठक्कुर के शिष्य थे। इन्होंने 'वेदान्त-सूत्र' पर भी टीका लिखी है। प्रोफेक्ट ii, २० तथा मद्रास कैटलॉग १२८२४-२५ में इसके उद्धरण दिए हैं। इस टीका के अन्तिम पद्य से ज्ञात होता है कि ये शाहजहाँ के राज्यकाल में हुए थे तथा इन्होंने प्रस्तुत टीका की रचना शक १५७१=१६४६ ई० में पटना में की थी। [ ५० ] निदर्शना (सारसमुच्चय)-- राजानक प्रानन्द ( सन् १६६५ ई० रचनातिथि ) ये काश्मीर के निवासी, शंवागम के ज्ञाता एवं स्वयं शव थे। इन्होंने निदर्शना में प्राचार्य मम्मट के लियेषटत्रिशत्तत्त्व-दीक्षाक्षपितान्तर्मल-पटलत्वादिशाम्भवप्रवर-सूचक विशेषणों का टीका के उपक्रम में प्रयोग किया है। साथ ही शिवागम में प्रसिद्ध ३६ तत्त्वों का प्रतिपादन करते हुए व्याख्या में इस दर्शन पर भी प्रकाश डाला है। यही कारण है कि इस टीका के 'दर्शन-निदर्शन', शितिकण्ठ-विबोधन' तथा 'पानन्दी' जैसे अन्य नाम भी प्राप्त होते हैं । बूह्नर की काश्मीर-रिपोर्ट पृ. ६६ की पादटिप्पणी के अनुसार पृष्ठान्त विवरण में 'इति श्रीमद्राजानकान्वयतिलकेन राजानकानन्दकेन विरचितं काव्यप्रकाश-निदर्शनम्' ऐसा कहा गया है । जब कि-- स्टीन की जम्मू पाण्डुलिपि में-'इति श्रीकाव्यदर्शने शितिकण्ठविबोधने काव्योह शदर्शनं प्रथमम्'२ ऐसा विवरण दिया है। पीटर्सन के विचार में सम्भवतः टीका का १. पूरा पाठ इस प्रकार है "शिवागमप्रसिद्धघा षट्त्रिंशत्तत्त्वदीक्षाक्षपितमलपटलः प्रकटितसत्स्वरूपश्चिदानन्दघनो राजानककलतिलको मम्मटनामा देशिकवरो लोकिककाव्यस्य प्रकाशने प्रवृत्तोऽपि 'प्रात्मतत्त्वं ततस्त्यक्त्वा विद्यातत्त्वे नियोजयेत्' इत्यादि । (प्रथम उल्लास का प्रथम भाग) तथा 'नियतिकृतनियमरहिता' इत्यादि की टीका के प्रारम्भ में "ग्रन्थस्य काव्यप्रकाशापरनाम्नः शिवतत्त्वप्रकाशस्यारम्भे चिकीर्षायां विघ्नास्तत्प्रकाशप्रतिबन्धकाः स्वस्वरूपाख्यातेर्भेदप्रख्याकारणं मायादयः पाशभूताः' इत्यादि लिखकर इसी दर्शन के अनुसार व्याख्या की है। २. इस टीका की (अष्टम उल्लासान्त) एक प्रति श्रीलालबहादुरशास्त्री केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ, दिल्ली के पाण्डुलिप संग्रह में भी प्राप्त है। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ वास्तविक नाम 'निवर्शन' है। 'शितिकण्ठविबोधन' वैकल्पिक अथवा विवरणात्मक नाम है जो शितिकण्ठ अथवा शिव से सम्बन्धित है जिसे टीका के पाठ में सिद्ध किया है। हॉल ने 'वासवदत्ता' की भूमिका पृ०१६ में यह मानकर कि यह ग्रन्थ शितिकण्ठ रचित है तथा प्रामाद को समर्पित किया है, गलती की है। (डॉ. डे, सं. का. शा. का.इ. भा० १, पृ. १५४-१५५) । दक्षिण महापाठशाला डेक्कन कालेज, पूना की हस्तलिखित पुस्तकानुक्रमणी में प्रानन्द कवि को श्रीकण्ठ' कहा गया है। प्रस्तुत टीका के प्रारम्भ मेंप्रणम्य शारदां काव्य-प्रकाशो बोषसिद्धये । पदार्थविवृतिद्वारा स्वशिष्येभ्यः प्रवर्यते । इत्यादि पद्य दिया है। [ ५१ ] काव्यप्रकाशादर्श- महेश्वर भट्टाचार्य ( महेश ) ( सन् १६७५ ई० १७२५ ई० ) ये बङ्गाल में प्रचलित 'दायभाग' की टीका के कर्ता एवं न्यायालङ्कार' उपाधि से विभूषित थे। इन्होने प्रादर्श में परमानन्द चक्रवर्ती का उल्लेख किया है तथा 'उदाहरण-चन्द्रिका' में वैद्यनाथ तत्सत् ने इनका उल्लेख किया है । अतः इन दोनों के मध्य १६-१८वीं शताब्दी इनका स्थितिकाल है ऐसा तात्पर्यविवृत्ति'कार का मत है । 'आदर्श' का दसरा नाम 'भावार्थ चिन्तामणि' है। जीवानन्द विद्यासागर द्वारा कलकत्ता से १८७६ ई० तथा कलकत्ता संस्कृत सीरिज में १९३६ में इसके संस्करण प्रकाशित हुए हैं। [ ५२ ] काव्यप्रकाश-विवरण- म० म० गोकुलनाथ उपाध्याय ( सन १६७५ से १७७५ ई.) मिथिला के विद्या और तप की सिद्धि को प्राप्त विद्वानों की प्रावासभूमि के रूप में सुप्रसिद्ध 'मङ्गलवनी' (मंगरोनी) नामक ग्राम में 'फरणदह' ब्राह्मणों के वंश में उत्पन्न महामहोपाध्याय रुचिपति के वृद्धपौत्र, सदुपाध्याय हरिहर के प्रपौत्र, सदूपाध्याय रामचन्द्र के पौत्र तथा म० म० विद्यानिधि पीताम्बर और उमादेवी के पुत्र म०म० गोकुलनाथ का जन्मसमय सत्रहवीं शती का अन्तिम चरण माना जाता है। इसका प्राधार इन्हीं के द्वारा प्रणीत 'मासमीमांसा' ग्रन्थ में दिए हए 'अस्मिन्नेवैकत्रिशदधिकषोडशशताडिते (१६३१ ) शककाले वैशाखो मलमासः' इत्यादि वाक्य को माना गया है। यह समय १७०६ ई० का है। प्रायः ६० वर्ष की आयु में इनका स्वर्गवास हा था । उस समय इनके वियोग से दुःखित म०म० रामेश्वर शर्मा नामक शिष्य ने यह पद्य लिखा था, जो कि इनकी प्रौढ़ विद्वत्ता का भी परिचायक है -- मातर्गोकुलनाथनामक गुरोवरिदेवि तुभ्यं नमः, पृच्छामो भवती महीतलमिदं त्यक्त्वैव यद् गच्छसि । भूलोके वसतिः कृता मम गुरौ स्वर्गे तथा गोष्पती, पाताले फरिणनायके भगवति ! प्रोढिः क्व लग्धाधिका ॥ म० म० गोकुलनाथ ऐसे सारस्वतकुल में उत्पन्न हुए थे जिसमें अनेक सिद्ध उपासक तथा विद्या-वैभव सम्पन्न पुरुष हुए हैं। इनके ज्येष्ठ भ्राता म० म० त्रिलोचन तथा म०म० धनञ्जय और अनुज म०म० जगद्धर भी अपने क्षेत्र के सुप्रसिद्ध विद्वान् थे। म. म. रघुनाथ (सर्वस्व दानदाता) और म. म. लक्ष्मीनाथ नामक इनके दो पुत्र थे। इन्होंने कुलपरम्परा से प्राप्त सिद्धसारस्वत मन्त्र का पुरश्चरण करके सरस्वती की कृपा प्राप्त की थी, उसी का यह परिणाम था कि इनकी प्रतिभा सर्वतन्त्र स्वतन्त्र थी। मिथिलाधीश राघवसिंह तथा टिहरी गढ़वाल के नरेश फत्तेशाह से इन्हें पूर्ण सम्मान प्राप्त था। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य-रचना की दृष्टि से इनके लगभग तीस ३० ग्रन्थों का नामोल्लेख इन्हीं के 'अमृतोदय' नाटक की भूमिका, 'पदवाक्य रत्नाकर' के प्रामुख, 'मिथिलातत्त्वविमर्श', 'तीरभूषित का इतिहास' तथा 'मिथिलानध्यन्यायेतिहाप्स' से प्राप्त होता है । इनके जीवन में इनकी पुत्री कादम्बरी' का प्रकाल में ही गङ्गा के जल में डूब जाने से इनको गहरा प्राघात हुआ था। जिसके परिणामस्वरूप इन्होंने लिखा है कि प्रावां वाव प्रकृतिकृपणो दूरमुद्यम्य बाहू, विक्रोशावः करुणवचनं पुत्रि ! कादम्बरीति । कोऽसौ लोकक इव विषयः कि पूरं को निवासी, यस्मिन्नस्मद्विमुखहृदया त्वं निलीय स्थितासि ॥ वत्से कादम्बरि तव परं लोकमासादयन्त्या, गङ्गा गङ्गाधर इति पितृद्वन्द्वमासीत् सहायः । हेतोः कस्मादपि हि पितरौ द्वरतस्त्यक्तवत्या, दीर्घः पन्थाः कथमितरथा लङ्गितोऽभूद भवत्या ।। स्पृष्ट्वा स्पृष्ट्वा प्रथममभवत् कोतिता चिन्तिता वा, हेतुपुत्रश्रवरगनयनस्वान्तसन्तापशान्तेः । सैवेदानों स्मृतिमुपगता शिष्यमाणेन नाम्ना, निर्दिष्टा वा दहति दुहिता हन्त ! कादम्बरी माम् ॥ प्रस्तुत 'काव्यप्रकाश-विवरण' में अमृतोदय, शिवशतक, रसमहार्णव, मदालसा नाटक तथा पदवाक्यरत्नाकर का उल्लेख हा.है। विवेचन की दृष्टि से ग्रन्थत्व के निर्वचन, काव्यलक्षण, वाच्यादि अर्थों के निरूपण, वाचक शब्द के लक्षण, लक्षणा और व्यञ्जना के विवेचन, संयोगो विप्रयोगश्च इत्यादि कारिका के विवरण, 'तथाभूताम्' इत्यादि में अर्थव्यजनोत्थ काकुध्वनि के स्थापन, वाच्य और व्यङ्ग्य के समान व्यङग्यों के भी पौर्वापर्य-प्रदर्शन, साङ्ग रसादि असंलक्ष्यक्रम व्यङ्ग्य के निरूपण, ध्वनिसङ्कर के उदाहरण तथा गुणीभूतव्यङ्ग्यनिरूपण में इनके द्वारा की गई वस्तूविवेचना तथा दार्शनिक पालोचनापद्धति से विवरण को सर्वातिशायी माना गया है। १. इन ग्रन्थों के नाम इस प्रकार हैं १. रश्मिचक (न्यायतत्त्वचिन्तामणि-विवरण), २. मालोकविवरण (पक्षधरीय न्यायचिन्तामणि का आलोक व्याख्यान) ३. दीधिति विद्योत (रघूनाथीय चिन्तामणि दीधिति टीका) ४. न्यायसिद्धान्ततत्त्व ५. दिक्काल-निरूप ६. लाघव-गौरव-रहस्य, ७. कुसुमाञ्जलि विवरण, ८ बौद्धाधिकार-विवरण, ६. शक्तिवाद, १०. मक्तिवाट ११. पद-वाक्यरत्नाकर, १२. खण्डनकुठार, १३. मिथ्यात्वनिरुक्ति (अद्वैतमत-स्थापना) १४. कुण्टकादम्बरी, १५ कादम्बरीप्रदीप (द्वैतनिर्णय टीका) १६. कादम्बरी कीर्तिश्लोक, १७. कादम्बरी-प्रश्नोत्तरमाला, १८. काव्यप्रकाशविवरण, १६. रसमहार्णव (रस निबन्ध) २०. शिवस्तुति (शिवशतक) २१. प्रशोचनिर्णय (स्मृतिनिबन्ध) २२ वत्ततरङ्गिणी, २३. एकावली २४. शुद्धिविवेक, २५. मासमीमांसा, २६. सूक्तिमुक्तावली, २७. मदालसा नाटक, २८. अमृतोदय नाटक. २६. प्राधाराधेयभावतत्त्वपरीक्षा तथा ३०. विशिष्ट वैशिष्टयबोध । इनमें कुछ ग्रन्थ छप चुके हैं और शेष छपने की प्रतीक्षा में हैं। २. टीका में प्रत्येक उल्लास के प्रारम्भ और अन्त में क्रमशः दिये गये इनके ये पद्य परिशीलनीय हैं नत्वा परमात्मानं श्रीगोकुलनाथशर्मरणा रचिता। काव्यप्रकाशकाशय-टीका प्रीत्यै सतामस्तु ॥१॥ प्रतीव जर्जरः पोतस्तरणीयो महार्णवः । केवलं परिहासाय स ममायमुपक्रमः ॥ २॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह विवरण केवल पांचवे उल्लास के कुछ प्रश तक ही उपलब्ध हुमा है। इसका सम्पादन तीन पाण्डुलिपियों के आधार पर कविशेखर श्रीबद्रीनाथ झा ने किया है तथा यह 'सरस्वतीभवन ग्रन्थमाला' से ८६ संख्या में वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय' से १९६१ ई० में प्रकाशित हुआ है। [ ५३ ] उदाहरणचन्द्रिका- तत्सत् वैद्यनाथ ( १६८३ ई० रचनासमाप्ति काल ) प्रस्तुत टीका 'काव्यप्रकाश' के उदाहरणों में पाए हए पद्यों की व्याख्या एवं तत्सम्बन्धी विवेचन को लक्ष्य में रखकर लिखी गई है। इसमें चण्डीदास, सुबुद्धि मिश्र, दीपिका कार, चक्रवर्ती, महेश आदि पूर्वटीकाकारों का नामोल्लेख हुप्रा है । यहाँ दीपिकाकार से इनका तात्पर्य जयन्त भट्ट न होकर गोविन्द भट्ट को मानना चाहिए क्यों कि वैद्यनाथ ने जिस मत का उपपादन दीपिकाकार के नाम से किया है वह जयन्त भट्ट की टीका में नहीं मिलता । साथ ही गोविन्द भट ने जो 'उदाहरण-दीपिका' लिखी है वह भी उदाहरणों की व्याख्यारूप है। अतः उदाहरणसम्बन्धी दूषण अथवा भूषण की चर्चा इसी की हो, यह उचित ही है। यहीं महेश का जो नामोल्लेख है उससे महेश्वर भट्टाचार्य का ग्रहण किया जाना उचित है क्यों कि 'इति महेश:' कहकर यहाँ जिस अंश का उल्लेख किया गया है वह महेश्वर की प्रादर्श' टीका में प्राप्त होता है। वैद्यनाथ ने अपने कालादि के विषय में 'उदाहरणचन्द्रिका' के अन्त में लिखा है कि मनल्पकविकल्पिताखिलसवर्थमन्जूषिकां, सदन्वयविबोधिकां विबुधसंशयोच्छेदिकाम् । उदाहरणयोजनाजनन-सज्जनालादिकामुदाहरणचन्द्रिकां भजत वैधनाथोदिताम् ॥१॥ वियद बेद मुनि क्षमा मिमितेऽग्वे कातिके सिते । बुधाष्टम्यामिमं ग्रन्थं वैद्यनाथोऽभ्यपूरयत्॥२॥ इति श्रीमत्पद-वाक्य-प्रमाणाभिज्ञ-धर्मशास्त्र-पारावारपारीण-तत्सविट्ठलमट्टात्मज-श्रीरामभट्टसरिसन्ना बंद्यनाथेन रचितायां काव्यप्रकाशोदाहरणविवृतावदाहरणचन्द्रिकायां दशम उल्लास: सम्पूर्ण इति । सम्भेदोऽयमनेकशास्त्रसरितामावर्तते सर्वतो, यत्रामू_मयन्ति मम्मटगिरां गूढाशया ग्रन्थयः । • एतस्योत्तरणे ममावतरतस्तीरं तरण्डं मवेदेको दुर्घटवस्तुजात घटनाकृत्ये पटुर्घजटिः॥३॥ लक्ष्मी तडित्पयोदस्य कारुण्यामृतबिन्दुभिः । विरराम मरुप्रान्तकान्तारतरणथमः ॥ ४॥ उदघातिनीयमवनिर्भवनं विदूरे, पान्था: स्खलन्ति विषमेण च सञ्चरन्ते । हस्तावलम्बमिह मे वितनोतु गौरी-वक्षोजपर्वतपुलिन्दवपुः पुरारिः ॥५॥ रसस्यान्तन मज्जन्ति रसमम्तन बिभ्रति । पारेपूरमलाबूनि प्रयान्ति तरसा बलात ॥६॥ मन्थानमन्दरगिरिभ्रमणप्रयत्नाद, रत्लानि कानिचन केनचिदुद्धृतानि । नन्वस्ति साम्प्रतमपारपयोधिपूर-गर्भावटस्थगित एष गरगो मणीनाम् ॥७॥ निगमाङ्ग गणेधन्वन्यनूपे चाध्वनि ध्वने: । समं प्रचरत: कृष्णपाथोद ! त्वयि निर्भरः ॥ ॥ पादाः पादकराक्रमेण शनकैर्गत्या नितम्बोच्चया, वक्रोच्चावचमार्गदुर्गतरणद्रोत्येन गण्डोपलाः। एषा मेखलया निबन्धहढया तीर्णा मया मेखला, प्राप्तो मध्यमसानुरत्र गिरिजाहस्तावलम्बो गतिः ॥६॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ इसके आधार पर ये (महादेव तथा वेणी के पुत्र एवं नागोजी भट्ट के शिष्य मैथिल वैयाकरण वैद्यनाथ से भिन्न) तत्सत् वंशीय विट्ठलभट्ट के पौत्र तथा श्रीरामभट्ट (रामबुध अथवा रामचन्द्र) के पुत्र थे। भीमसेन और नागेश भट्ट ने इनका उल्लेख किया है। इनके द्वारा सूचित समय के अनुसार उक्त चन्द्रिका का रचना काल सन् १६८३ ई है। इन्होंने काव्यप्रकाश पर गोविन्द ठक्कुर को टीका 'काव्यप्रदीप' पर 'प्रभा' टीका तथा कुवलयानन्द पर पलडारचन्द्रिका' टीका भी लिखी है । ये नैयायिक थे। 'तिष्ठेत् कोपवशात्' इत्यादि ३१९वें उदाहरण में 'स्वयि' नयर्थी को कियार्थोपपवस्य' इत्यादि सूत्र से 'कर्मणि चतुर्थी' ऐसा न कहकर 'तुमर्थाच्च भाववचनात' इस सत्र से चतुर्थी कही है। 'उदाहरण चन्द्रिका' के उद्धरण पीटर्सन की रिपोर्ट भा० २, ए, १०८ में, Scc. vii, ५४ में तथा 10C. iii, ११५१९४३ में दिये हैं। [ ५४ ] टीका-विजयानन्द ( सन् १६८३ ई० पाण्डुलिपि की तिथि ) इस टीका की पाण्डुलिपि 'डेक्कन कालेज पूना' के कंटलॉग में पृ० ४४ पर दिए गए संकेत के अनुसार प्राप्त होती है । पाण्डुलिपि में दी गई तिथि १६८३ ई० है । अतः यह इस समय से कुछ पूर्व निर्मित हुई होगी। [ ५५ ] प्रभा (प्रटीका)- तत्सत् वैद्यनाथ ( १६८४ ई० रचना प्रारम्भकाल ) तत्सत वैद्यनाथ ने ही यह प्रटीका गोविन्द ठक्कुर की काव्यप्रदीप' नामक टीका पर लिखी है । इसकी रचना इन्होंने 'उदाहरणचन्द्रिका' की रचना के बाद ही की है। इसका प्रमाण हमें इस 'प्रभा' के प्रथम उल्लास में स्वयं वैद्यनाथ ने 'तददोषौ शब्दार्थों' इस सूत्र के प्रसङ्ग में लिखा है कि-"उदाहरणश्लोकार्थस्तु विस्तरेणास्मत्कृतोदाहरणचन्द्रिकायां द्रष्टव्यः" इति से प्राप्त है। इन्होंने प्रभा में मूलभूत 'प्रदीप' के अनुसार नैयायिक मत से ही व्याख्यान किया है. जो कि उद्योतकार के समान है वैयाकरण मत के अनुसार नहीं। इस आधार पर इनका नैयायिक होना स्पष्ट है। प्रस्तुत 'प्रभा' के अन्त में लिखित-'इति श्रीमत्सकलशास्त्रधुरन्धरतत्सदुपास्य-श्रीराममट्टसनुवैधनाथकृतायां काव्यप्रदीप-व्याख्यायां प्रमाख्यायां दशम उल्लासः।" यह पुष्पिका भी उदाहरणचन्द्रिका की पुष्पिका से साम्य रखती है। . 'इस प्रटीका का प्रकाशन प्रदीप' के साथ श्रीदुर्गाप्रसाद तथा के० पी० परब द्वारा, निर्णय सागर प्रेस-बम्बई से १८६१, १९१२ ई० में हुआ है। बम्बई से ही १६३३ और १९४१ ई० में श्री एस० एस० सुखटणकर के सम्पाद में भी प्रकाशन हुआ है। [ ५६ ] सुमनोमनोहरा- गोपीनाथ ( १७वीं शती ई० का अन्तिम भाग र० का० ) ये 'साहित्यदर्पण' की 'प्रभा' टीका तथा 'रघुवंत' के टीकाकार श्री गोपीनाथ 'कविराज' के नाम से (अाधुनिक नहीं) प्रसिद्धि प्राप्त थे। प्रोफेक्ट भाग १, पृ० १.१ बी० मद्रास Trm C.७१२ पर तथा प्रौफेक्ट ई० भा० १५० १६२ बी० पर भी इनका उल्लेख है। रघुवंश की टीका इन्होंने १६७७ ई० में लिखी थी, इसी के आधार पर यह समय माना गया है। १. इसकी एक पाण्डुलिपि श्री लालबहादुरशास्त्रीय केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ दिल्ली के अनुसन्धान विभाग में भी है। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५७ ] टोका-नारायण दीक्षित ( १७वीं शती ई० का अन्त भाग ) ये रंगनाथ दीक्षित के पुत्र तथा बालकृष्ण दीक्षित के भ्राता थे। रंगनाथ ने 'विक्रमोर्वशीयम्' पर प्रपनी टीका १६५६ ई० में समाप्त की थी। अतः इनका समय १७वीं शती ई० का अन्तभाग निर्धारित किया गया है प्रोफे क्ट भा० १, १०१ बी० (२०२ ए० पृ० १५५ द्रष्टव्य है)। [५८ ] बृहद उद्योत- नागेशभट्ट ( १७वीं शताब्दी का उत्तरार्ध ) यह टीका म०म० गोविन्द ठक्कुर रचित काव्य-प्रकाश की व्याख्या पर लिखी हुई प्रटीका है। नागेश भट्ट का. अपर नाम नागोजी भट्ट भी है। इन्होंने चण्डीदास, उदाहरण-दीपिकाकार तथा परमानन्द चक्रवर्ती का अपनी टोका में उल्लेख किया है। तथा कहीं 'इति केचित्, इत्यन्ये इति परे, इति दाक्षिणात्याः इति कुवलयानन्दकृत्' लिखा है। इनका वंश परिचय इनके ही शब्देन्दुशेखर, वैयाकरणसिद्धान्तमञ्जूषा, उद्द्योत, मर्मप्रकाश तथा अन्य अनेक ग्रन्थों के प्रारम्भ और अन्त भागों में दिया है । तदनुसार ये आश्वलायनशाखीय महाराष्ट्र ब्राह्मण, 'काले' तथा 'उपाध्याय' उपनामक पं० शिवभट और सतीदेवी के पुत्र थे। इनका निवासस्थान वाराणसी था और 'शृगवेरपुर' (इलाहाबाद के निकट प्राज का शिंग दौर') के राजा रामसिंह के कृपापात्र थे। 'वैयाकरण-सिद्धान्त कौमुदी' महावैयाकरण के निर्माता भट्रोजी दीक्षित के पौत्र श्रीहरि दीक्षित के शिष्य तथा बालम्भट्ट उपनामक वैद्यनाथ के गुरु थे । "याचकानां कल्यतरोररिकक्षहताशनात् । शृङ्गवेरपुराधीशाद् रामतो लब्धजीविकः । नागेशभट्टः कुरुते प्रणम्य शिवया शिवम् । काव्यप्रदीपकोद्योतमति गूढार्थसंविदे ।। इति श्रीमदुपाध्यायोपनामक-शिवभट्टसुत-सतीगर्भज-नागोजीभट्टकृते लघुप्रदीपोद्योते दशम उल्लासः' इत्यादि पंक्तियों से इनका परिचय होता है। भानूदत्त की 'रसमञ्जरी' पर इनकी 'इण्डिया आफिस' की पाण्डुलिपि की तिथि माघ, संवत् १७६६ फरवरी १७१३ ई० की है। यह तथा ऐसे ही कुछ अन्य आधारों को दृष्टि में रखते हुए इनका जन्म समय १७वीं शती का अन्तिम चरण माना गया है। इनके बारे में यह किंवदन्ती प्रचलित है कि बचपन में इनका मन अध्ययन में नहीं लगता था। फलत: ये विद्या. भ्यास को छोड़ स्वेच्छानुसार मित्रों के साथ व्यर्थ समय बिताया करते थे। एक बार इनके कुलक्रमागत पौरोहित्य वत्ति के प्रसङ्ग से इनका कोई यजमान वाराणसी आया और उसने 'पण्डित सभा' की। उसमें जो प्रमुख पण्डित के बैठने का प्रासन था उस पर ये धृष्टतापूर्वक जा बैठे। तब किसी पण्डित ने इनकी भर्त्सना की, जिसके परिणामस्वरूप ग्लानि का अनुभव करते हए इन्होंने यह निर्णय किया कि "या तो मैं सरस्वती को प्रसन्न कर विद्याप्राप्त करूँगा, नहीं तो स्वयं उनको अपनी बलि चढ़ा दूंगा।" . . इस निर्णय के अनुसार किसी से मन्त्रग्रहण कर दिनरात उसका जप किया और विद्या प्राप्त की। श्रीनागेश भट्ट का बहुमुखी वैदुष्य उनके द्वारा रचित (१) बृहन्मञ्जूषा, (२) लधुमञ्जूषा, (३) परमलघुमञ्जूषा (४) बृहच्छब्देन्दुशेखर (५) लघुशब्देन्दुशेखर, (६) परिभाषेन्दुशेखर (७) लघुशब्दरत्न (८) मट्टोजीदीक्षितकृत कौस्तुभ की 'विषमी' नामक टीका (8) कैयट कृत प्रदीप व्याख्या और व्याकरण महाभाष्य की व्याख्या उद्द्योत-नामकव्याख्या का ज्ञापक संग्रह (१०) प्रत्याख्यान-संग्रह तथा (११) एकश्रुतिवाद नामक व्याकरण का ग्रन्थ (१२) प्रायश्चितेन्दशेखर (१३) प्राचारेन्दुशेखर (१४) तीर्थे दुशेखर (१५) श्राद्धेन्दुशेखर (१६) कालेन्दुशेखर प्रादि बारह शेखर रा Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा अन्य, अशौचनिर्णय, सापिण्डय प्रदीप आदि धर्मशास्त्रीय ग्रन्थ, योगशास्त्र पर 'योगवृत्ति', बाल्मीकिरामायणटीका', अध्यात्म-रामायण टीका और दुर्गासप्तशती की टीका के अतिरिक्त काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों पर (१) काव्यप्रकाश की टीका'काव्य प्रदीप' पर 'बृहद् उद्द्योत' तथा (२) 'लघु उद्द्योत' (३) काव्यप्रकाश पर 'उदाहरण-दीपिका' अथवा 'प्रदीप (४) रसगडाधर पर 'गुरुमर्मप्रकाशिका' (५) कुवलयानन्द पर 'अलङ्कार-सुधा' तथा (६) विषमपद व्याख्या षट्पदानन्द, (७) रसमञ्जरी पर 'प्रकाश' एवं (८) रसतरङ्गिणी पर एक टीका लिखी है। 'काव्यप्रदीप' पर लिखी यह टीका प्रदीपकार के प्राशय को प्रकट करने में बहुत सफल सिद्ध हुई है। इसमें उदाहरण के रूप में उपस्थापित पद्यों की व्याख्या करते समय वैद्यनाथ की 'उदाहरणचन्द्रिका' को ही अविकल, विकल अथवा परिष्कृत रूप में प्रस्तुत किया गया है तथापि वैद्यनाथ की 'प्रभा' का व्याख्यान जहाँ इन्हें ठीक नहीं प्रतीत हा है वहाँ तथा जहां उन्होंने कोई व्याख्यान नहीं किया है, ऐसे स्थलों पर अपने मतानुसार अभिनव व्याख्या की है। इसका प्रकाशन-'उद्द्योत' और 'प्रदीप' सहित, आनन्दाश्रम सीरिज में १९११ ई० में तथा सं० पाठ प्रदीपसहित अध्याय १, २, ७ और १० उल्लास अपनी अंग्रेजी भूमिका सहित प्रो० चान्दोरकर द्वारा पूना से किया गया है। [ ५६ ] लघु उद्योत-नागेश भट्ट ( १७वीं शती ई० का उत्तरार्ध) ___ नागोजी भट्ट की ही यह प्रटीका 'बृहद् उद्द्योत' में वर्णित किसी विषय को कुछ संक्षिप्त करके अथवा कहीं भिन्न आनुपूर्वी से तात्पर्य को व्यक्त करते हुए शब्दभेद से लिखी गई है। टीकाकार ने जिस प्रकार व्याकरण ग्रन्थों में बृहद् और लघु नाम से एक ग्रन्थ को दो रूपों में लिखा है, उसी प्रक्रिया का यहां भी अनुकरण हुआ है। [ ६० ] उदाहरण-दीपिका अथवा 'प्रदीप- नागेश भट्ट ई० ( १७वीं शती ई० का उत्तरार्ध) नागेश भट्ट की यह तीसरी काव्यप्रकाश पर लिखी हुई स्वतन्त्र टीका है । इसका उल्लेख तथा उद्धरण स्टीन ने अपनी रिपोर्ट में पृ० २७, २६८ पर तथा प्रोफेक्ट ने भाग २ पृ० १९वी. पर किया है। [६१ ] विषमपदी-शिवराम त्रिपाठी ( १८वों शती ई० का प्रारम्भ ) इनके पिता का नाम कृष्णराम, पितामह का नाम त्रिलोक चन्द्र तथा भाइयों के नाम गोविन्दराम, मकुन्दराम और केशवराम थे। शिवराम त्रिपाठी के ग्रन्थों और टीकाओं की संख्या ३४ है। स्टीन ने अपनी रिपोर्ट में पृ० २९२ पर सचित किया है कि इनके 'रावणपुरवध' नामक ग्रन्य के अन्त में लेखक ने अपनी रचनामों का उल्लेख किया है। इनके ग्रन्थों में 'रसरत्नहार' तथा उसकी 'लक्ष्मी-विहार' नामक टीका सं० काव्यमाला गुच्छक (१८७०) पृ० ११८-१४० पर छपी है। 'अलङ्कार-समुद्गक, वासवदत्ता की टीका, छन्दःशास्त्रविषयक-काव्य-लक्ष्मी-प्रकाश' अथवा विहार' तथा सिद्धान्तकौमुदी पर 'विद्याविलास' नामक टीका आदि हैं । ये अपेक्षाकृत अर्वाचीन लेखक हैं, क्योंकि इन्होंने 'परिभाषेन्द शेखर' के उद्धरण दिये हैं। अतः इनका समय १८वीं शती का प्रारम्भ माना गया है। फिटज एडवर्ड हॉल, बिग्लियोथिका इण्डिका संस्करण १८५६ में इन्हें वासवदत्ता का टीकाकार तथा प्रस्तुत 'विषमपदी' आदि के लेखक शिवराम से अभिन्न माना है। 'जर्नल ऑफ दि अमेरिकन पोरियण्टल सोसायटी २४, ५७-६३' में इनके सम्बन्ध में विशेष जानकारी दी गई है। अन्य ग्रन्थों का विवरण प्रौफेक्ट । ६५२ बी० तथा स्टीन का जम्मू कैटलॉग पृ० २६२ पर द्रष्टव्य है। कलहान ने 'विषमपदी' के बारे में सेन्ट्रल प्राबिन्स कैटलॉग' में पृ० १०७ पर उल्लेख किया है। टीका के नाम के आधार पर यह Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहा जा सकता है कि यह टीका काव्यप्रकाश के क्लिष्ट पदों को स्पष्ट करने की दृष्टि से लिखी गई है। [ ६२ ] सुधासागर ( शुभोदधि )- भीमसेन दीक्षित ( सन् १७२२ ई.) प्राचार्य दीक्षित ने अपनी टीका में प्राय: १७ टीकाकारों का उल्लेख किया है और उनमें बङ्गीय नैयायिक अधिक हैं। साथ ही इस टीका में इन्होंने अपना परिचय भी यथेष्ट रूप में दिया है। यथा श्रीमच्छाण्डिल्यवंशे कृतविविधमख: कीतिमान् दीक्षितोऽभूद, गङ्गादास: प्रसिद्धः सुरगुरुस दृश: कान्यकुब्जाग्रगण्यः । तस्माद् वीरेश्वराख्यस्तनय इह महामाग्यवान विष्णुभक्तो, जातः सङ्कीर्तनीयः सकलबुधजनभूपतीनां समासु ॥२॥ तस्माच्छोमुरलीधरो हि कवितापाण्डित्यपुण्यावधिजतिस्तस्य सुतौ त्रिलोचन-शिवानन्दो गुणस्तत्समो । शैवे वा पथि वैष्णवे समरस: श्रीमच्छिवानन्दतः, सञ्जातः किल 'भीमसेन' इति सद्विद्याविनोदी कविः ॥ ४॥ और वहीं काव्यप्रकाश की प्रस्तुत टीका के बारे में लिखते हुए वे कहते हैं क्वाहं मन्दमतिः क्व चातिगहन: काव्यप्रकाशाभिधो, ग्रन्थः कुत्र सहायता कलियुगे कुत्रास्ति शिष्टादरः । युक्तो नैव महाप्रबन्धरचने यत्नस्तथापि ध्र वं श्रीकृष्णाघ्रिसरोजसेवनपरः शङ्ख न किञ्चित् क्वचित् ॥६॥ X शक्यः पण्डितमानिनां न विजयः साक्षात् कथञ्चित् सुराचार्येणापि पुनः सतामनुचितः प्रौढ़ा च वाग्देवता। इत्यालोच्य विवादबुद्धिविधुरो गर्विष्ठ गर्वापहप्रन्थं विद्वदमन्दसम्मदपवं कुर्वे सुधासागरम् ॥ १४ ॥ X व्याख्यातं हि पुराऽत्र यः सुकवयः सर्वे महापण्डितास्ते वन्द्याः सुतरां न तेषु मम कोऽप्यस्त्याग्रहः स्पधितुम् । किन्तुग्रन्थसहस्र सारमपि यवृत्त्या विरुद्धं वचस्तत्क्षन्तुं न समुत्सहे न च पुनर्भीतिः सुरेज्यादपि ॥ १७ ॥ अभ्यास. पञ्चमाब्वात् सकलसुखपरित्यागपूर्व कृतो यो, नानाशास्त्रेषु नित्यं निशिततरधियाऽत्यन्तरागानुवृत्त्या। तस्येदानों फलं मे भवतु सहृदयस्वान्तसन्तोषकारि, श्रीमत्काव्यप्रकाशोज्ज्वलविवृतिमयं श्रीसुधासागराख्यम् ॥ १८ ॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार शाण्डिल्यवंशीय कान्यकुब्ज गङ्गादास दीक्षित के वश में शिवानन्द के पुत्र भीमसेन दीक्षित भगवद्भक्त, अनेक शास्त्रों के मर्मज्ञ तथा कवि थे। इन्होंने यद्यपि अन्यान्य पूर्ववर्ती टीकाकारों का उल्लेख किया है तथापि मुख्यरूप से गोविन्द ठक्कुर की 'काव्यप्रदीप', श्रीवत्सलाञ्छन की 'सारबोधिनी' और परमानन्द चक्रवर्ती की विस्तारिका टीका के मूलांशों का उद्धरण पर्याप्तरूप में लिया है। किन्तु जहाँ काव्यप्रकाश के विरुद्ध कुछ लिखा गया है उसका अपने मतानुसार युक्ति-प्रयुक्ति द्वारा खण्डन करने में सोच भी नहीं किया है। प्राचार्य भीमसेन प्रमुखतः वैयाकरण थे, इसीलिए इन्होंने "इति तार्किकाः, इति जरन्नयायिकाः, इति नवीनताकिका" इत्यादि वाक्यों द्वारा ताकिकों के मतों का निर्देश करके खण्डन किया है। श्रीदीक्षित के 'अलङ्कार-सारोद्धार' तथा 'कुवलयानन्दखण्डन' नामक ग्रन्थों की रचना का भी काव्यप्रकाश की इस टीका में दिए गए उल्लेखों से पता चलता है। 'कुवलयानन्दखण्डन' का लेखन अजितसिंह (१६८०.१७२५ ई.) के राज्य में जोधपुर में हुआ था। इसका समय काव्यप्रकाश की सुधासागरी टीका के अन्त में इन्होंने इस प्रकार दिया हैसंवद्ग्रहाश्वमुनिभू (१७७६) मासे मधौ सुदि । त्रयोदश्यां सोमवारे समाप्तोऽयं सुधोदधिः ॥१॥ इस ट्रीका का प्रकाशन म० म० नारायणशास्त्री खिस्ते के सम्पादन में 'चौखम्बा संस्कृत सीरिज, के ५६ वे ग्रन्थ के रूप में वाराणसी से १७२७ ई० में हप्रा है। [६३ ] साहित्यकौमुदी-बलदेव विद्याभूषरण ( १७वीं शती ई० का प्रारम्भ ) ये केवल विद्याभूषण के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। राधादामोदरदास तथा गोपालदास के शिष्य और उद्धवदास के गुरु थे। स्वयं वैष्णव एवं चैतन्यसम्प्रदाय के अनुयायी होने के कारण इन्होंने अनेक वैष्णव ग्रन्थों की भी रचना की है। मध्व तथा चैतन्य-मतानुयायियों में समन्वय स्थापित करने का सदा इनका प्रयत्न रहा। मूलतः ये उड़ीसा के निवासी थे। काव्यप्रकाश की कारिकानों को सूत्र अथवा भरतसूत्र कहते हुए इन्होंने अपनी टीका को भरतसूत्रवृत्ति' अपर नाम 'साहित्यकौमुदी' दिया है। इसकी योजना काव्यप्रकाश के अनुरूप ही है किन्तु शब्द एवं अर्थगत अलड्रारों पर ग्यारहवां अध्याय अतिरिक्त है । इस तरह यह एक टीका होने के साथ ही स्वतन्त्र ग्रन्थ भी कहा जाता है। इनकी उपर्यक्त टीका के अतिरिक्त अन्य रचनाएँ 'वेदान्त-सूत्र' पर 'गोविन्द भाष्य' तथा 'प्रमेय-रत्नावलो' हैं। प्रोफेक्ट के कथनानुसार 'उत्कलिका-वल्लरि' पर इनकी टीका १७६५ ई. में लिखी गई थी। [ ६४ ] (क) कृष्णानन्दिनी स्वोपज्ञ टिप्पणी- बलदेव विद्याभूषण (१८ श० प्रा०) बलदेव विद्याभूषण ने ही स्वरचित 'साहित्यकौमुदी' पर स्वोपज्ञ टिप्पणी लिखी है। प्रालवार ग्रन्थसूची, प्राफेक्ट, भाण्डारकर, पीटर्सन एवं विश्वभारती (१४६६) की सूक्तियों में इसका उल्लेख हुआ है। 'कृष्णानन्दिनी' सहित 'साहित्यकोमुंदी' का प्रकाशन श्री शिवदत्त तथा के० पी० परब के सम्पादन में निर्णय सागर प्रेस, बम्बई से १८६७ ई० में हुआ है। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ [ ६५ ] तात्पर्य विवृति- म०म० महेशचन्द्रदेव न्यायरत्न (१८८२ ई० रचनाकाल ) ये बङ्गाल के रहनेवाले तथा कलकत्तास्थित राजकीय महाविद्यालय के प्रधान आचार्य थे। इन्होंने अपनी इस टीका को १८८२ ई० में पूर्ण किया था। यही समय वामनाचार्य झलकीकरजी का भी रहा है। एक-दूसरे से दूर-दूर रहते हुए भी ये परस्पर परामर्श करके अपनी-अपनी टीकाएं लिख रहे थे।' इस विवृति का आकार छोटा ही है किन्तु यह सरल एवं बालोपयोगी है । इसमें जयराम, वैद्यनाथ, नागेश और प्रानन्द कवि की टीकाओं का उल्लेख भी हया है। इसका प्रकाशन कलकत्ता से हुआ था। [६६ ] बालबोधिनी- म० म० वामनाचार्य झलकीकर (१८८२ ई० रचनाकाल) ये महाराष्ट के झलकी' ग्राम के निवासी थे। इनके माता-पिता का नाम सरस्वती और रामचन्द्र था तथा न्यायकोशकार श्री भीमाचार्य झलकीकर के ये लघूभ्राता थे। इनका गोत्र शालङ्कायन और तैत्तिरीय शाखा थी। ये पूर्णप्रज्ञ सिद्धान्तानुयायी एवं विट्ठल प्रभु के भक्त थे । काव्यप्रकाश को उपर्युक्त व्याख्या के अन्त में आपने अपना परिचय इस प्रकार दिया देशे महा महाराष्ट्रे पनने पुण्यनामके । प्रधानपाठशालायामाङ ग्लभूपनियोगतः ॥ अलङ्कार-व्याकरणाध्यापकेन सुमेधसा । कर्णाटके जनपदे नानाविद्याविभूषिते ॥ बिजापुरप्रान्तजुषा झलकोग्रामवासिना । सरस्वतीगर्भभुवा महाराष्ट्रद्विजन्मना ॥ रामचन्द्रतनूजेत वामनाचार्यशर्मणा । काव्यप्रकाशटीकेयं प्रथिता बालबोधिनी॥ शाके वेदनमोऽष्टेन्दु (१८०४) प्रमिते मासि कातिके । सम्पूरिता शुक्लपक्षे टोकेयं प्रतिपत्तियो । प्रस्तत टीका में अनेक प्राचीन टीकाकारों की टीकाओं का पालोडन कर आवश्यक सामग्री का सङ्कलन किया गया है। स्वयं वामनाचार्यजी ने इसके सम्बन्ध में लिखा है - प्रयत्नेन च सगृह्य समालोच्य च यत्नतः । सारं ताम्यः समुत्य टीकेयं क्रियते मया ॥ बालबोधिनी में पूर्वाचार्यों का अभिप्राय कहीं-कहीं अविकल रूप से तो कहीं अनुवाद के रूप में दिया है। उदधत सामग्री में टीकाकारों के नाम भी दिए हैं और जहाँ व्याख्या सुलभ नहीं हुई वहाँ स्वयं ने ब्याख्या की है। इसमें अनेक स्थलों पर मतभेदपूर्वक की गई व्याख्याओं का तथा उद्धृत उदाहरणों के सन्दर्भ आदि का उल्लेख एव कठिन स्थलों का व्याख्यान तथा भावार्थ देने से टीका का कलेवर बढ़ गया है किन्तु इससे बालकों को बोध देने का उद्देश्य अवश्य पूर्ण हुआ है। इस टीका के निर्माण के समय विद्वान् टीकाकार ने तत्कालीन विद्वानों से परामर्श भी लिया था जिनमें पण्डित रामकृष्ण भाण्डारकर, पं० भीमाचार्यजी, महेशचन्द्रदेव आदि प्रमुख थे। इसका प्रथम प्रकाशन १८८३ ई० में हया था और आज तक उत्तरोत्तर शुद्धि-वृद्धि सहित कई संस्करण छप चुके हैं । इसकी भूमिका में टीकाकारों के बारे में अनेक तथ्य प्रस्तुत किये हैं जो उत्तरवर्ती अध्येताओं के लिये परमोपयोगी सिद्ध हुए हैं। टीका की रचना का उद्देश्य इन्होंने निम्न पद्य से व्यक्त किया है। काव्यप्रकाश-गम्भीर-भावबोधो न चान्यतः । इति हेतोर्मया यत्नः कृतोऽयं विदुषां मुदे ॥ आजकल यही एक काव्य प्रकाश की ऐसी टीका है, जिसका अध्ययन-अध्यापन में बहुत ही प्रचार है। १. कहीं कहीं 'विवृति' के स्थान पर 'विवरण' नाम भी दिया है। भलकीकरजी ने अपने काव्यप्रकाश और उसकी टीकावाले संस्करण की भूमिका में इनके साथ हए पत्र-व्यवहार का उल्लेख किया है । द्र०. पृ०. ३० । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६४ ] नागेश्वरी - पं० हरिशङ्कर शर्मा ( १६वीं शती ई० ) ये मिथिला के अन्तर्गत वृद्धवाचस्पति के जन्मस्थल 'ठाढ़ी' नामक ग्राम में उत्पन्न हुए थे। इन्होंने 'पातञ्जलमहामाध्य' का 'विवरण' एवं कुछ अन्य ग्रन्थों की रचना की थी। इसी परम्परा में काव्यप्रकाश की 'नागेश्वरी' टीका बनी है। इनका समय १६वीं शती का उत्तरार्ध है। इसका प्रकाशन वाराणसी से श्री डी० प्रा० शास्त्री द्वारा (चौखम्बा ) काशी संस्कृत सीरिज क्र० ४९ में सन् १९२६ में हुआ है । [ ६५ ] टीका- जीवानन्द विद्यासागर ( १६वीं शती ई० ) इसका प्रकाशन कलकत्ता से १८६६ तथा १८६७ में हुआ है । श्री जीवानन्द विद्यासागर ने संस्कृत-साहित्य के उद्धार के लिए बड़ा प्रयत्न किया था। कलकत्ता में रहते हुए इन्होंने जहाँ साहित्यिक ग्रन्थों का प्रकाशन किया वहीं स्वयं टीका-प्रटीकाएँ लिखकर भी साहित्यिक की श्रीवृद्धि की है। कुछ नाटकों पर भी इनकी टीकाएं प्राप्त होती हैं। काव्यप्रकाश पर इनकी इस टीका का उल्लेख कंटलागस कंटलागरम् में हुआ है। महेश्वर न्यायालङ्कार रचित 'आदर्श' टीका का सम्पादन भी इन्होंने १८७६ में करके प्रकाशित किया था । [ ६६ ] चन्द्रिका कवीन्द्राचार्य [ सन् १९४८ ] कं० कं में इसका सूचन है । ६७ - [ ६७ ] मधुसूदनी - पं० मधुसूदन शास्त्री ( १६७२ ई० रचना पूर्तिकाल ) प्रस्तुत टीका के कर्ता काशी हिन्दूविश्वविद्यालय के साहित्यविभाग के भूतपूर्व प्राध्यापक तथा वहाँ की प्राच्यशाखा के प्रमुख पं० रामजीलाल शास्त्री के पुत्र पं० मधुसूदन शास्त्री हैं। इन्होंने अपनी टीका के अन्त में अपना वंशपरिचय, टीका - निर्माण का उद्देश्य एवं रचनाकाल आदि का स्पष्ट उल्लेख किया है। कुछ पद्य इस प्रकार हैं प्रासूत रामो विदुषां वरेण्यो वक्तावरी श्री मधुसूदनार्यम् । महात्मनस्तस्य कृतौ व्यरंसीत् काव्यप्रकाशे मधुसूदनीयम् ॥ ग्रन्थे दृढे सुमतिनाऽपि न बोद्धुमर्हा, व्याख्याशतैरपि च गड्डलिकाप्रवाहैः । थे, तेत्र धीभिरनुशीलन मार्गतो मे, दोषाः स्वतः स्फुरणमायुरतो न पङ्कम् ॥ X X X काशी हिन्दू विश्वविद्यालये साहित्यभागके । अध्यक्षत्वं तथा प्राच्यशाखाप्रमुखतां भजन ॥ X X X नन्द - हष्टि - वियदश्वि सम्मिते वत्सरे घवल-माधवे शिवे । पूर्णतामियमगात् कृतिस्तथा सद्गतिर्भगवती प्रसीदतात् ॥ इसके अनुसार यह 'मधुसूदनी' काव्यप्रकाश का अनुशीलन वि० सं० २०२६ में पूर्ण हुआ है। इसी टीका को लक्ष्य में रखकर शास्त्रीजी ने 'बालक्रीडा' नामक हिन्दी टीका भी लिखी है । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ ____टीका के लेखन में शास्त्रीजी ने पर्याप्त चिन्तन प्रस्तुत किया है तथा 'काव्यप्रकाश' में 'लेखाशुद्धि', 'विषया. शुद्धि' तथा 'प्रसङ्गासङ्गति' के आधार पर शुद्धिपूर्वक प्रायः नवीन पाठ जोड़ने की भी प्रेरणा दी है। .. श्रीमधुसूदन शास्त्रीजी ने 'काव्यमीमांसा' की टीका लिखने से प्रारम्भ करके रसगङ्गाधरादि प्रायः १८ प्रन्यों पर टीकाएँ लिखी हैं। ... इस टीका का प्रकाशन 'ठाकुर प्रसाद एण्ड सन्स, बुकसेलर-वाराणसी' ने सन् १९७२ ई. में किया है। [६८] टीका- सदाशिव दीक्षित ( १९७२ ई०) सोलन (शिमला-हिमाचल प्रदेश) में म०म० श्रीमथुरानाथ जी दीक्षित के पुत्र श्रीसदाशिव दीक्षित ने इस टीका के बारे में स्वरचित 'कर्पूरस्तवराज' की टीका के पृष्ठान्त-विवरण में उल्लेख किया है। सम्भवत: यह पंजाब विश्वविद्यालय की परीक्षा में निर्धारित काव्यप्रकाश के कुछ अंशों पर लिखी गई (?) टीका होगी। [६६ ] बालबोधिनी-विद्यासागरी-- छज्जूराम शास्त्री विद्यासागर (१९७४ ई०) म० म०पं० छज्जूरामजी शास्त्री विद्यासागर वर्तमान में दिल्ली में निवास करते हैं । प्राचीन पीढ़ी के पण्डित होने के नाते इनका वैदुष्य व्यापक है। न्यायादि दर्शन, व्याकरण तथा साहित्य में बहुत-सी कृतियाँ इन्होंने लिखी हैं। प्रस्तुत टीका की रचना के प्रारम्भ में टीकाकार ने मङ्गलाचरण में ही लिखा है कि प्रणिपत्य गणाधीश मातरं पितरं तथा । उद्भट काव्यसाहित्ये मम्मटं च बुधोत्तमम् ।। कुरुक्षेत्रप्रजनिना, इन्द्रप्रस्थनिवासिना । महामहोपाध्यायेन छज्जूरामेण शास्त्रिणा ॥ वामनाचार्य-टीकातः सारमाकृष्य यत्नतः । काव्यप्रकाशस्य निधेः कुजिकेय विधीयते ।। तथा प्रथम उल्लास के अन्त में "इति महामहोपाध्यायछज्जूरामशास्त्रिविद्यासागरेण कृतायां काव्य-प्रकाशटोकायां परीक्षात्यायां काव्यस्वरूपनिर्णयो नाम प्रथम उल्लासः ।' इन उद्धरणों से ज्ञात होता है कि शास्त्रीजी की यह टीका झलकीकरजी की टीका के सारांश के रूप में तैयार हुई थी, इन्हीं अंशों के अन्त में लिखा गया है कि यह 'कुञ्जिका' है, इसका नाम 'परीक्षा' है। कहीं 'बालबोधिनी' नाम दिया है तो कहीं 'विद्यासागरी'। उपलब्धांश के निरीक्षण से यह ज्ञात होता है कि यह टीका परीक्षार्थियों की सुविधा के लिये बनाई गई थी। १. यह टीका तैयार करके शास्त्रीजी ने प्रकाशनार्थ दी थी, किन्तु दुर्दैववश वह लुप्त हो गई। इसका प्रथम उल्लास ही प्रतिलिपि के रूप में अभी प्राप्त है। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्य-प्रकाश के अल्प-परिचित तथा अपरिचित टीकाकार उपर्युक्त टीकाकारों के अतिरिक्त काव्यप्रकाश के ऐसे भी बहुत से टीकाकार हैं जिनके देश, काल अथवा टीकानाम आदि पूर्ण रूप से प्राप्त नहीं होते हैं। इन में कुछ अल्प-परिचित हैं जिनके टीकाकार के रूप में संकेत यत्र तत्र अन्यों से प्राप्त होते हैं, कुछ ऐसे भी हैं जिनकी टीका के नाम ही प्राप्त हैं किन्तु लेखक के नाम नहीं। इस प्रकार के उल्लिखित टीकाकार तथा टीकाओं के नाम हम यहाँ अकारादि क्रम से प्रस्तुत कर रहे हैं[१] अर्थनिर्णय - इस टीका का उल्लेख अनी (Ani) पब्लिक/पण्डित लाइब्रेरी, पो० बेनी बाजार, सिलहट (आसाम) की 'हस्तलिखित ग्रन्थ-सूची' में है, ऐसा 'केटलागस कैटलागरम्' में अंकित है। जैसलमेर (राज.) से इसके मुद्रित होने का भी संकेत है। [ २ ] अवचूरी-टिप्पणी- राघव (समय अज्ञात) यह अवचूरि अत्यन्त संक्षिप्त टिप्पणी मात्र है । इसमें न तो किसी टीकाकार का नामोल्लेख है और न ही अपने विषय में कुछ लिखा है। केवल पञ्चम उल्लास के अन्त में "इति पञ्चमोल्लासमे राघवेनावचूरितः" इतना ही उल्लेख है । यह अवचूरि भी सम्पूर्ण न होकर केवल सप्तम उल्लास के अर्धभाग तक ही है। कई विद्वानों ने राघव को सुरि, प्राचार्य और जन भी लिखा है पर यह संशयपूर्ण ही है। झलकीकरजी ने अपनी काव्यप्रकाश की भूमिका के पृ० ३६ पर इसका उल्लेख किया है । इसकी पाण्डुलिपि जैसलमेर सूची पृ० ३४ पर अङ्कित है। [३] प्रवचूरि- (?) ...... यह अवचूरि उपयुक्त अवचूरि से भिन्न है। इसका लेखक कौन था ? यह ज्ञात नहीं हो पाया है । इसके बारे में कविशेखर श्री बद्रीनाथ झा ने म०म० गोकुलनाथोपाध्याय कृत काव्यप्रकाश की 'विवरण' टीकावाले. ग्रन्थ को भूमिका पृ० १४ में लिखा है । उनके मत में यह भी किसी जैन प्राचार्य को लघुटीका है। [ ४ ] मानन्दवधिनी-हचिमिश्र भीमसेन दीक्षित ने काव्यप्रकाश के एक टीकाकार के रूप में इसका उल्लेख 'चिमिश्र' के नाम से किया है। यह रुचिकर मिश्र से भिन्न कोई टीकाकार है। [५] पालोक- प्रज्ञात नरसिंहमनीषा' में नरसिंह ठक्कर ने इस टीका का उल्लेख किया है। इसके मामगत साम्य के माधार पर कछ लोगों की कल्पना है कि इस टीका के रचयिता पक्षधर मिश्र ही हैं, क्योंकि उन्होंने 'न्यायचिन्तामणि' पर जिस प्रकार 'पालोक' टीका लिखी है उसी प्रकार 'काव्यप्रकाश' पर भी यह 'मालोक' टीका लिखी होगी। यह अभिमत कविशेखर श्री बद्रीनाथ झा का है। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६ ] उत्तेजिनी, काव्यप्रकाशोत्तेजनी अथवा सर्वटीका-विभञ्जनी- वेदान्ताचार्य काञ्चीके श्रीनिवासाध्वरी के द्वितीय पुत्र, भारद्वाज गोत्रीय थे। ये कोचीन के महाराजा रविवर्मा तथा उनके भतीजे कोल वर्मा के आश्रित थे। इन्होंने १०वें उल्लास के उदाहरण रविवर्मा की प्रशस्ति में दिए हैं। इसका उल्लेख 'कन्ट्रीब्यूशन प्रॉफ केरल टु संस्कृत लिटरेचर' पृ० १६३-४ में दिया है। इसी लिए दसवें उल्लास का अपरनाम 'रविराजयशोभूषण' भी है। प्रस्तुत टीका का उल्लेख डी० सी० एस० एम० एस० एस० ग्रन्थ सं० २२ पर भी हमा है। इसके लेखक ने अपना परिचय ग्रन्थ के अन्त में इस प्रकार दिया है "इति श्रीमदभारद्वाजकुलजलधि-तपोनिधि-गुरुशरग्रामाधिराज-कृत-गङ्गास्नानाग्निष्टोमादि-नित्यान्नदान-सरस्वती-सहोदरश्रीनिवासाध्वयंवरतन - सहज-सर्वतन्त्र-स्वतन्त्र-षड भाषाकविशेखर-तर्कविद्यामिनवगौतम-श्रीवेदान्ताचार्य विरचितायां सवंटीकाविभजन्यां काव्यप्रकाशोत्तेजन्यां दशम उल्लासः । इसके अनुसार ये भारद्वाज कुल में उत्पन्न, 'गुरुशर' गाँव के निवासी, श्रीनिवासाध्वरी के द्वितीय पुत्र तथा सर्वज्ञ श्रीनसिंहदेशिक के भाई वेदान्ताचार्य के नाम से प्रख्यात थे। ये अनेक भाषाओं में काव्य-रचना करते थे और न्यायादि अन्यशास्त्रों के भी मर्मज्ञ थे। प्रस्तुत टीका के प्रति अनुराग न रखनेवालों पर व्यङ्गय करते हुए इन्होंने लिखा है कि ये केचिवत्र रसशालिषु सत्कवीनां, सूक्तेषु कर्णपथगामिषु नाद्रियन्ते । ते मालतीपरिमलेष्वपि कन्दलत्सु नासापुटं करतलेन पिदध्युरेवम् ॥ लेखक ने 'प्राशीमल्ल' के दीर्घजीवन की कामना करते हुए भी एक पद्य 'श्रीरामक्षितिपानुज' इत्यादि दिया है। इसकी पाण्डुलिपि का निर्देश जो कि दशम उल्लास मात्र है, 'ए टिन्नल कैटलाग आफ मैन्स्क्रिप्टस' गवर्नमेंट मोरियण्टल मैन्स्क्रिप्ट्स लायब्रेरी मद्रास के तृतीय भाग के १. संस्कृत सी० अंश पृ० ३८७८ पर ग्रन्थसंख्या २७१६ में दिया है। [७] उदाहरण-दर्पण- डॉ० पी० वी० काणे द्वारा उल्लिखित यह टीका केवल उदाहरणों पर है। [८] उदाहरण-विवरण टोका- (ले० अज्ञात) इसका उल्लेख डॉ० पी० वी० काणे ने किया है । यह केवल उदाहरणों की टीका है। [6] ऋजुवृत्ति-नरसिंहसरि ये तिम्मजी मन्त्री के पुत्र और रंगनाथ के पौत्र थे । यह टीका केवल काव्यप्रकाश को कारिकामों पर निर्मित केरोफेक्ट भा० २, १६बी मद्रास ८.३८१ में इसका उल्लेख हुआ है। इन्होंने एक अन्य काव्यप्रकाश टीका "साहित्या चन्द्र' नाम से भी लिखी है। [१०] कारिकार्यप्रकाशिका (अर्थप्रकाशिका)- रघुदेव न्यायालङ्कार भौफेक्ट, २० में (उल्लास २ के लगभग अन्त तक होने का) उल्लेख है । डॉ० पी० वी० कासे के अनुसार Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ रघुदेव ने 'काव्यप्रकाशकारिकार्य प्रकाशिका' में केवल उन्हीं कारिकाओं की व्याख्या की है, जो उनके विचार से भरत विरचित हैं। देखो - राजेन्द्रलाल मित्र के नोटिस, भाग १०, क्रम संख्या ४२४२ ।' (सं० का० शा० का इति० पृ० ५२६ ) बीकानेर ग्रन्थसूची, मंसूर लायब्रेरी तथा रायल एशियाटिक सोसायटी, कलकत्ता की सूचियों में इसकी प्रतियाँ होने का उल्लेख है । [ ११ ] कारिकावली - कलाधर यह टीका कारिकाओं के सारांश के रूप में निर्मित है। इसका संकेत KBod ५०१ से प्राप्त होता है । [१२] काव्यदर्पण - मधुमतिगणेश प्रोफेक्ट, १०२ए पर इस टीका का उल्लेख है । [१३] काव्यदीपिका- साम्बशिव इनके पिता का नाम सूर्यनारायण प्रध्वरीन्द्र तथा पितामह का नाम धर्मदीक्षित था। इसका उल्लेख 'राजस्थान रिपोर्ट' तथा 'सेन्ट्रल इण्डिया रिपोर्ट' में पृ० ४ पर हुम्रा है । [१४] काव्यनौका - ले० श्रज्ञात लाहौर के स्व० पं. राधाकृष्ण जी द्वारा संकलित हस्तलिखित पुस्तक सूची पत्र पृ० ४१ में इसका निर्देश है । [१५] काव्यप्रकाशखण्डन अथवा काव्यामृततरङ्गिरणी - ले० श्रज्ञात इस टीका का उल्लेख 'राजेन्द्रलाल मित्र द्वारा दी गई हस्तलिखित ग्रन्थ विषयक सूचना' के अन्तर्गत हुआ है । [१६] काव्यप्रकाश-विवेकिनी - रेहलदेव रेहलदेव के पिता का नाम पद्मनाभ तथा पितामह का नाम नृसिंह था। राजस्थान रिपोर्ट तथा सेन्ट्रलइण्डिया रिपोर्ट पृ० 8 पर इसका सूचन है । [१७] काव्यप्रकाशसार - रामचन्द्र मूल 'काव्यप्रकाश' के विषय की साररूप व्याख्या होने के कारण टीका का नाम 'काव्यप्रकाशसार' रखा गया होगा, जो कि उचित ही है । औफ्रेक्ट सूची भाग १, पृ. १०२ बी० में इसका उल्लेख है। इसकी पाण्डुलिपि इलाहाबाद में है । [१८] काव्यप्रकाशिका - पुरुषोत्तमदेव कवि इसका सूचन कवि ने अपने 'शिवकाव्य' में दिया है। [१९] कौमुदी नरसिंह ठकुर ने इस टीका का सूचन किया है । [२०] टिप्परग इसका सूचन 'कैटलागस कैटलागरम्' में है । इसका प्रारम्भ - 'वचनसन्दर्भरूपस्य ग्रन्थस्य प्रारिप्सितत्वेन स्तोतुमुचितायाः' इत्यादि अंश से हुआ है। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रष्टव्य BORI, 671 ऑफ 1886-92. BORi. D. xii. 117 पिटर्स. IY. P. 25 (No. 671) [ २१ ] टिप्पण कै० कै० में सूचन है। इसका प्रारम्भ-कवेर्यथा कृतौ प्रायस्तथैव व्याकृताविह । व्याकर्तुरपि दोषाः स्यु इत्यादि बताया है । M. T. 5171 (a) गवर्नमेंट ओरियण्टल मैन्युस्क्रिण्ट लायब्रेरी, मद्रास की सूची में द्रष्टव्य । [२२] टिप्पणो अथवा काव्यप्रकाशसन्दर्भवादकै. कै. में इसका प्रारम्भ प्रसीदतु तथा देवं यथा व्याकृतिषु स्फुटम् । साधुत्वतारतम्यस्य भवेद बोद्धा बुधो जनः । दिखलाया है। MT. ३६७२ (imc) ३६८६ (imc) [ २३ ] टिप्पणी ___ के० के० में an. BORI. ३७२ आफ १८६५-६८ (मूल सहित) BORI. D. XII ११६. (d. 1614 A. B.) इसका सूचन है। · [२४] टोका कै० के० में इसका प्रारम्भ- साहित्यं शिक्योरूपमच्याहतमनुत्तमम्' 10, ७९-१०) से बतलाया है। [२५] टीका- कल्याण उपाध्याय डॉ. गंगानाथ झा ने काव्यप्रकाश के अपने अंग्रेजी अनुवाद में पृ.६ पर इस टीका का निर्देश किया है। टीका का नाम अज्ञात है। [ २६ ] टोका-कृष्णमित्राचार्य नैयायिक ये रामनाथ के पुत्र भौर देवीदत्त के पौत्र थे। इनकी रचनाओं के लिए प्रोफेक्ट सूची भाग १, १२१ बी. तथा प्रस्तुत टीका के सम्बन्ध में पृ० १२० बी० पर उल्लेख है। [ २७ ] टोका- तरुणवाचस्पति . कै० के० में त्रिपुरिणत्तुर की सूची के प्रथम भाग में पृ० ३२० B से इसका सूचन करते हुए यह सन्देह किया है कि क्या यह इनकी टीका है ? ये दण्डी के काव्यादर्श के टीकाकार ही हों तो इनका समय १३वीं शती का पूवार्ध है। [२८] टीका-भानुचन्द्र मौफैक्ट i. १०१ बी. में इसका निर्देश है। इन्होंने दण्डी के 'दशकुमार-चरित' पर भी टीका लिखी है। कहीं इसे वृत्ति भी कहा है। इसकी पाण्डुलिपि का कुछ अंश 'दहेलानो उपाश्रय, अहमदाबाद, में था। जो कि अब श्री लालभाई दलपतभाई विद्यामन्दिर में भेट हो गया है। । २९ रोका- मिश्र मरिणकण्ठ द्विवेदी मुनि . कै०० में इसका सूचन है। बीकानेर में इसकी पाण्डुलिपि सं. ३६०० पर प्रथम तथा द्वितीय उल्लासात्मक है। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ [३०] टीका-विद्यारण्य ___ मैसूर की संस्कृत हस्तग्रन्थ सूची में इसके होने का उल्लेख के० के० में हुआ है। पृ० २८२ पर भी इसका सूचन है। [३१ ] टोका- राजानन्द मद्रास कैटलॉग ११८२० में इसके उद्धरण दिये हैं तथा प्रौफंक्ट भाग २, २० ए० में इसका उल्लेख हुआ है। टीका का कोई नाम नहीं दिया गया है। [३२] तत्त्वबोधिनी-ले० प्रज्ञात श्रीवत्सलाञ्छन द्वारा "प्रजातकर्तृकायास्तत्वबोधिन्याः" तथा "प्रधिकं तत्त्वबोधिन्यां द्रष्टव्यम्" इन बाक्यों से 'सारबोधिनो' में इस टीका का उल्लेख किया गया है। कुछ विद्वानों का कथन है कि-'भट्रोजी दीक्षित के शिष्य तथा संन्यास ग्रहण करने के पश्चात् श्रीवामनेन्द्र सरस्वती के शिष्य ज्ञानेन्द्रसरस्वती ने ही वैयाकरणसिद्धान्तकौमदी की 'तत्वबोधिनी' टीका के समान काव्यप्रकाश की यह 'तत्त्वबोधिनी' टीका लिखी है। इसका सूचन कविशेखर धीबद्रीनाथ झा ने अपनी भूमिका में पृ० १३ पर किया है। [३३ ] दर्पण क० के० के अनुसार an BOR1 ३२ माफ १६१६-१८, २. माफ १६१७-१८) में इसका सूचन है। किन्तु डिस्क्रप्टिव कंटलाग में सूचन नहीं है । [ ३४ ] दीपिका के० के० में इसका सूचन है और यह रिपोर्ट प्राफ राज० तथा सी० पाइ० पृ०६ पर अंकित है। [ ३५ ] द्योतन-बालकृष्ण के० के० में सूचन करते हुए इसका उज्जैन की हस्तलिखित अन्तिम सूची ३५२ पर उल्लेख बताया है। यह प्रति प्रब वहाँ ५६२६ पर अंकित है तथा इसके कुल १५ पत्र ही वहाँ हैं । प्रारम्भ के पत्र १ से १०४ तक नहीं है। इसकी प्रतिलिपि राधाकृष्ण व्यास ने सं० १९१५ में की थी। [ ३६ ] दीपिनी-कृष्णकान्त विद्याविनोद के. के. में इसका सूचन है। [ ३७ ] पदवृत्ति- नागराज केशव प्रोफ़ेक्ट भाग १, पृ० १०१ बी. पर इसका निर्देश है। तथा किलहान सम्पादित हस्तलिखित ग्रन्थ सूची के आधार पर कैट० कैट० १०२ में सूचन हुआ है। [ ३८ ] बोधिनो कै० के० में इसके बारे में कहा गया है कि 'लखनऊ म्यूजियम' में इसकी पाण्डुलिपि है। [ ३६ ] बुधमनोरञ्जिनी-मल्लारि लक्ष्मण शास्त्री इसका प्रकाशन तेलुगु लिपि में मद्रास से १८९१ ई० में हुआ है। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४० ] पञ्चिका- बृहस्पति रायमुकुट मरिण प्रस्तुत टीका का स्वयं टीकाकार ने स्वरचित 'मेघदूत' की टीका में उल्लेख किया है, ऐसा हरप्रसाद शास्त्री ने अपनी रिपोर्ट २२५ पर सूचन किया है । देखो IHO १७ १०४५८ इस सम्बन्ध में 'डेट आफ वर्क्स प्राफ रायमुकुट' में दिनेशचन्द्र भट्टाचार्य ने विचार किया है-- द्रष्टव्य IHO १७, १९४१, पृ० ४७० [ ४१ ] मङ्गलमयूखमालिका-वरदार्य इनके पिता का नाम देवराज था । T. A. १८६२ (B) (inc) इसका उल्लेख "कैटलागस कैटलागरम्" में हुमा है। [४२ ] मधुररसा-कृष्ण द्विवेदी प्रौफेक्ट के i, १०१ बी० में इसका उल्लेख है। के० के० पं० काशीनाथ कुन्टे की लाहोर की रिपोर्ट में पृ० २० पर इसका सूचन होना बताया है। [ ४३ ] रसप्रकाश-कृष्ण शर्मा रॉयल एशियाटिक सोसायटी-बंगाल की पाण्डुलिपियों के परिचय में (५ भाग, सं० ४८४२-६५८१-पृ० ४१६/२० पर केवल २० पृष्ठों तक १-२ अध्याय का सूचन किया है। तथा HSP संख्या ५८ में केवल पांचवें उल्लास तक की उद्धरण दिया है । 'केटलागस कैटलागरम्' में विश्वभारती की हस्तग्रन्थ सूची में २४८६ (उ० २) होने का भी सूचन है। [ ४४ ] रहस्य-विकास के० के० में इसका सूचन हुआ है तथा नवद्वीप (बंगाल) की हस्तग्रन्थ सूची पृ० ६७३ में इसका निर्देश है ऐसा बताया है। [ ४५ ] विशिनो के० के० में इसका सूचन किया गया है तथा त्रिपुणीतुरा की हस्तग्रन्थ सूची के विभाग २ में पृ० २५८ पर इसका उल्लेख है। [ ४६ ] विवरण __ के० के० में इसका सूचन है तथा यह उल्लेख मिथिला की ग्रन्थसूची के २ भाग में पृ० १७ में होना बतलाया है। [७] वृत्ति कुछ प्राचार्यों ने काव्यप्रकाश की कारिकाओं को भरतमुनि प्रणीत मान कर उन्हें 'लघुकाव्यप्रकाश' के नाम से व्यक्त करते हुए उन पर टीकाएँ लिखी हैं । जिनमें से यह एक वृत्ति भी है। यहाँ प्रारम्भ में 'हेरम्ब शारदा देवीं "व्याख्यास्ये मूलकारिकाः" लिखा है। भा० प्रो० इ० पूना की सूची में इसका उल्लेख मिलता है। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ [४८ ] व्याख्या– यज्ञेश्वर यज्वन् मद्रास कैटलाग १२८२१ में इसके उद्धरण दिए हैं। मद्रास गवर्नमेन्ट हस्त-सूची, खण्ड २२, पृ० २६२३ पर भी सूचना है। इसके प्रारम्भ तथा अन्त में इस प्रकार लिखा है "स्त्रीणामदार: श्रीकान्तः श्रियं दिशतु मे प्रभुः। पस्याहुरीक्षरणमिदं विश्वं नगमसूक्तयः ॥ १॥ उपास्य विदुषो वृद्धान् यज्वा यज्ञेश्वराह्वयः । व्याख्या काव्यप्रकाशस्य विदधाति यथामात ॥२॥" "इति यज्ञेश्वरविरचिते काव्यप्रकाशाख्याने दशम उल्लासः ।" [ ४६ ] श्लोकदीपिका- जनार्दन विबुध इनके गुरु का नाम 'अनन्त' है। इन्होंने 'रघुवंश' तथा 'वृत्त-रत्नाकर' की भी टीकाएं लिखी हैं । कहीं इन्हें व्यास भी कहा है किन्तु डा० डे का मत है कि 'ये जयराम न्यायपञ्चानन के शिष्य, विट्ठल व्यास के पौत्र, बाबूजी व्यास के पुत्र, प्रसिद्ध लेखक जनार्दन व्यास से भिन्न हैं। इसका प्रोफेक्ट भाग १, १०१ बी, भाग २, १६ बी० (तथा १ स्टीन की रिपोर्ट ६१ में अपूर्ण) उल्लेख है। दे० पृ० १६०, सं० का० शा० का इति० भाग १ पृ० १६० । [ ५० ] सङ्केत- दामोदर (?) ० के० में इसका सूचन है । यह स्टीन ने अपनी रिपोर्ट में २६१ (D) 'उज्जन D P. ६५' का उल्लेख किया है। किन्तु हमने स्वयं उज्जैन जाकर वहाँ के सिन्धिया प्राच्यविद्या-मन्दिर की प्रति निकलवा कर देखी है, जो कि प्राचार्य माणिक्यचन्द्र की 'सङ्कत' टीका ही है और वहाँ दामोदर रचित कोई टीका नहीं है। अतः यह भ्रम से ही लिखा गया है। [ ५१ ] सजीवनी के० के० में यह सूचन है तथा विद्याचक्रवर्ती की 'सम्प्रदाय-प्रकाशिनी' में इसका उल्लेख होना बतलाया है । [ ५२ ] सारबोधिनी- भट्टाचार्य के० के० में इसकी सूचना है । मण्डलिक लायब्रेरी, फरग्यूसन कालेज पूना की हस्तग्रन्थसूची में पृ० ७० पर भी इसका उल्लेख है। [ ५३ ] साहित्यचन्द्र-नरसिंह (नसिंह) सूरि ये तिम्माजी मन्त्री के पुत्र थे तथा इनके पितामह का नाम रंगप्रभु था। ये वेल्लमकोण्ड परिवार के थे। 'अड्यार लाइब्रेरी, मद्रास' की सूची में इसका अंकन है। का०प्र० की 'ऋजुवति टीका के लेखक भी ये ही हैं तथा पालवार १०४६ एक्स्ट्रा २१८ पर भी उल्लेख है। [ ५४ ] साहित्यचन्द्र काव्यप्रकाश में आनेवाली कारिकाओं पर रचित यह टीका है, जिन्हें यहाँ भरत-विरचित कहा गया है। इस Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ का उल्लेख व्हलर की सूची में उद्धरण क्रम संख्या १०४६ पर हुआ है। [ ५५ ] सुधानिधि-तिरुवेङ्क: [ ५६ ] सुबोधिनी-दामोदर कै० के० में इसका उल्लेख है। [ ५७ ] सुबोधिनी (सुखबोधिनी)- वेङ्कटाचल सूरि __इस टीका का उल्लेख औफ्रक्ट i, १०२ ए० में तथा हरप्रसाद शास्त्री ने रायल एशियाटिक सोसायटी बंगाल की पाण्डलिपि के कैटलॉग भाग ५ में संख्या ४८३७/८७३६ पृ० ४१५ पर किया है । रायल एशियाटिक सोसायटी भाग ६, में ए०४८३७ पर भी इनका उल्लेख है। इनके अतिरिक्त कुछ अन्य टीकामों अथवा टीकाकारों के नाम भी विद्वानों में चचित हैं किन्तु उनका कोई वास्तविक आधार नहीं मिलने से विशेष विस्तार नहीं किया है। काव्यप्रकाश को अन्य भाषा में प्रणीत टीकाएं तथा अनुवाद काव्यप्रकाश पर लिखा हुमा टीका-साहित्य पर्याप्त अधिक होते हुए भी विद्वानों ने उसके मनन और मन्थन की प्रवृत्ति से संन्यास नहीं लिया, अपितु "इस महान् ग्रन्थ के अास्वाद से अन्य भाषाभाषी समुदाय भी वञ्चित न रहे" इस प्रधान लक्ष्य को ध्यान में रखकर अंग्रेजी, हिन्दी, मराठी, गुजराती और कन्नड़ भाषाओं में भी अनुवाद किये गये जो कि न केवल शाब्दिक अनुवाद ही हैं अपितु भाष्य, समालोचना और टीका की प्रक्रिया को भी अपने में प्रावजित किये [ १. अंग्रेजी अनुवाद ] विश्वविद्यालयों की उच्च परीक्षाओं में 'काव्यप्रकाश' का पाठ्यग्रन्थ के रूप में अध्यापन प्रारम्भ हो जाने पर अंग्रेजी भाषा के माध्यम से काव्य प्रकाश को समझने-समझाने की आवश्यकता बढ़ गई। फलस्वरूप कुछ महाविद्यालयों के प्राचार्यों ने इस दिशा में प्रयास किया और कुछ नोट्स-जिनमें परीक्षा में निर्धारित अंशों पर टिप्पणी, स्पष्टीकरण और काव्यशास्त्रीय तत्त्वों का पूर्वापर निर्देशन करते हुए ग्रन्थांश समझाने का लक्ष्य था-लिखे गये। ये ग्रन्थ किसी प्राचीन टीका के साथ अथवा ग्रन्थ के अन्त में टिप्पणी के साथ प्रकाशित हुए। दूसरी और ऐसे ही प्रकाश्य ग्रन्थ प्रारम्भ में अंग्रेजी में लिखित विस्तृत भूमिका से संयुक्त कर प्रकाशित किये गए। जब कि कुछ विद्वानों ने स्वतन्त्र व्याख्यानरूप से पूरे काव्यप्रकाश का अंग्रेजी अनुवाद भी प्रस्तुत किया । ऐसे ग्रन्थकारों का परिचय इस प्रकार है - [१] ट्रीटाइज आफ हटोरिक्स'- म० म० सर गङ्गानाथ झा (१६वीं शती) काव्यप्रकाश का यह सर्वप्रथम अंग्रेजी अनुवाद है । इसमें डा० झा ने एक अधिकृत विद्वान होने के नाते अनेक वैदृष्य-पूर्ण विचारों के द्वारा यत्र-तत्र प्राचार्य मम्मट के अभिप्रायों को मार्मिक ढंग से प्रौढभाषा में अभिव्यक्त किया है। कुछ नवीन टीकाओं का उल्लेख होने से यह भी कहा जा सकता है कि इसमें न केवल स्वयं के चिन्तन का ही सार समाविष्ट है अपितु अन्य पूर्ववर्ती टीकाकारों के विचारों का भी प्रादर हमा है। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ इसका प्रथम प्रकाशन 'पण्डित-पत्रिका' के १८-१६ के अंकों में ई० सन् १८६६.६६ में हुआ था। तदनन्तर वाराणसी में सन् १८६६ तथा १६१८ में इसका पुनमुद्रण हुअा। बम्बई में भी इसके १, २ और १० उल्लासों का सन् १९१३ में प्रकाशन हुआ था। इसी प्रकार और भी संस्करण इसके प्रकाशित होते रहे हैं। इसके पश्चात् भारतीय विश्वविद्यालयों में जैसे-जैसे इस ग्रन्थ के अध्ययन को स्थान मिला, उसी के अनुसार छात्रों की सुविधा को लक्ष्य में रखकर केवल पाठ्यक्रम में निर्धारित प्रशों के ही अनुवाद तथा टिप्पण लिखे गए, जो कि पूरे ग्रन्थ पर न होकर कतिपय अशों के ही अनुवाद थे। अत: डा० झा का ही यह अनुवाद सम्पूर्ण तथा सर्वोपरि है। [ २ ] अनुवाद, टिप्पणी तथा भूमिका- डॉ. एच० डी० वेलनकर । यह काव्यप्रकाश के प्रथम और द्वितीय उल्लास पर लिखित अनुवाद है। इसी के साथ लेखक ने अपनी प्रावश्यक टिप्पणी भी अंग्रेजी में दी है। भूमिका में काव्यप्रकाश की महत्ता एवं विवेच्य विषयों का विमर्श भी प्रस्तुत किया है । इसका प्रकाशन बम्बई से हुआ है। 1 ३ ] अनुवाद, टिप्पणी तथा भूमिका- श्री पो० पी० जोशी श्री जोशीजी ने इसमें प्रथम और द्वितीय उल्लास के अतिरिक्त दशम उल्लास भी अनूदित किया है । साथ ही टिप्पणी (नोट्स) भी दी है। इसका भूमिका भाग भी मननीय है। [४] अनुवाद एवं भूमिका-प्रो. चांदोरकर इसमें गोविन्द ठक्कुर के 'काव्यप्रदीप' तथा नागोजी भट्ट के 'उद्द्योत' के साथ क्रमश: प्रथम, द्वितीय, सप्तम और दशम इन चार उल्लासों का अनुवाद एवं भूमिका दी है । [५] अनुवाद एवं भूमिका- श्री एस० वि० दीक्षित अंग्रेजी में विस्तृत भूमिका-पूर्वक इसमें क्रमशः 'प्रथम, तृतीय तथा दशम' उल्लास का अनुवाद है। [६] अनुवाद एवं विस्तृत भूमिका-श्री प्र० बा० गजेन्द्रगड़कर श्री अच्युताचार्य बालाचार्य गजेन्द्रगड़करजी ने अपनी विस्तृत भूमिका के साथ इस अनुवाद में 'प्रथम, तृतीय तथा दशम' इन तीन उल्लासों का समावेश किया है। यह अनुवाद प्रतिप्रिय रहा है। अतः इसके संस्करण क्रमशः परिवद्धित भी हुए। डॉ० एस० एन० गजेन्द्रगड़कर ने भी इसमें संवर्द्धन किया है। [७] अनुवाद- डॉ० एच० डी० शर्मा इसमें प्रथम, ततीय तथा दशम इन तीनों उल्लासों का अंग्रेजी अनुवाद सम्पादित है। [८ ] पोइटिक लाइट-'सम्प्रदाय-प्रकाशिनी' सहित, अनुवाद-डॉ० रामचन्द्र द्विवेदी उदयपुर के विश्वविद्यालय में प्राध्यापक डॉ. द्विवेदी ने विद्याचक्रवर्ती की 'सम्प्रदाय-प्रकाशिनी' संस्कृत टीका के साथ अपना अग्रेजी अनुवाद इसमें दिया है। परिशिष्ट में रुय्यक की टीका भी संकलित है। इसका प्रकाशन दो भागों में दिल्ली से हुआ है। [ 8 ] 'रस-प्रकाश' सहित व्याख्या तथा भूमिका-- डा० एस० एन० शास्त्री श्रीकृष्ण शर्मा की 'रसप्रकाश' टीका के साथ इसमें प्रथम से पञ्चम उल्लास तक डॉ० शास्त्री ने अपनी अंग्रेजी व्याख्या प्रकाशित की है जो कि प्रथम भाग के रूप में सन् १९७. में प्रकाशित हुई है। साथ ही भूमिका भी है। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ [२. हिन्दी अनुवाद ] राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रति जनसाधारण की अभिरुचि की अभिवृद्धि को देखते हुए तथा हिन्दी को अध्यापनभाषा के रूप में स्वीकृति मिल जाने पर कुछ विद्वानों ने हिन्दी में टीका, विशद व्याख्या और भूमिका-सहित काव्यप्रकाश की समर्चा प्रारम्भ की। इस प्रवृत्ति की यह विशेषता रही है कि इसमें सम्पूर्ण ग्रन्थ को अनूदित किया है, किसी एकांश को नहीं । टीकाकारों का लक्ष्य ग्रन्थ के अर्थ को सरल तथा विशदरूप से समझाने का रहा है और शास्त्रार्थ-प्रणाली को भी यथासम्भव सुबोध बनाया गया है। [ १ ] अनुवाद- डा. हरिमङ्गल मिश्र 'काव्य-प्रकाश' को हिन्दी भाषा के माध्यम से सर्वप्रथम सुलभरूप से समाज के साहित्यरसिकों के समक्ष प्रस्तुत करने का श्रेय स्व० डॉ० मिश्र को प्राप्त है। इसमें मूल के प्रामाणिक अर्थ का सावधानी से उपस्थापन और ' टीका-टिप्पणी के विस्तार में न जाकर मम्मट के विचारों को यथावत् सरल भाषा में दिया गया है। इसका प्रकाशन हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग से हा था। [ २ ] सविमर्श-शशिकला- डा. सत्यव्रत सिंह यह अनुवाद संस्कृत की भाष्य-परम्परा का पूरक है। अनुवाद के साथ दी हुई विशद टिप्पणियां पूर्ववर्ती टीकाकारों की दृष्टि से कुछ भिन्न दृष्टि को लक्ष्य में रखकर लिखी गई हैं, जिनमें मम्मट द्वारा अपने विवेचन में जिन पूर्वाचार्यों के विचारों का प्राश्रय लिया गया है उनका स्रोत-- न केवल साहित्य ग्रन्थों से अपितु अन्य व्याकरण, दर्शन आदि ग्रन्थों से भी उद्धत किया है। विषय की गम्भीरता का बोध कराने के लिए मत-मतान्तरों का विवेचन भी उत्तम है। लेखक ने 'उपोद्घात' में स्वयं लिखा है कि-' "यह 'सविमर्श शशिकला'-व्याख्या काव्यप्रकाश के अध्ययन की प्राचीन परम्परा का ही एक अनुसरण है। इसका बीज इस लेखक के हृदय में काव्यप्रकाश के अध्ययनकाल में ही जम चुका था जिसका श्रेय इस लेखक के साहित्यविद्यागुरु श्री को० अ. सुब्रह्मण्यम् अय्यर ( अध्यक्ष-संस्कृत विभाग तथा कला यिभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय) को है । जिन्होंने प्राचार्य मम्मट की काव्यालोचना-सम्बन्धी विचारधारा और समसामयिक काश्मीर की दार्शनिक और साहित्यिक गतिविधि का समन्वय निदर्शित कर काव्यप्रकाश के एक नवीन अध्ययन की प्रेरणा दी है।" डॉ. सिंह ने ७२ पृष्ठों की विस्तृत भूमिका में भी पर्याप्त मननीय विषयों की चर्चा की है। अतः यह अपनी कोटि को एक प्रकार से 'मान' टीका बन गई है। इसका प्रकाशन चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी की 'विद्याभवन संस्कृत ग्रन्थमाला-१५' में मुद्रित होकर दोतीन संस्करणों में हुआ है। [ ३ ] काव्यप्रकाश दीपिका- स्व. प्राचार्य विश्वेश्वर सिद्धान्तशिरोमरिण संस्कृत के महत्त्वपूर्ण शास्त्रीय ग्रन्थों के भाष्य-पद्धतिमूलक अनुवादकर्तामों में प्राचार्य विश्वेश्वर का स्थान Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ इलाघनीय है। निरुक्त, ध्वन्यालोक, तर्कभाषा एवं नाट्यदर्पण जैसे ग्रन्थों के अनुवाद की परम्परा में ही काव्यप्रकाश का यह अनुवाद लेखक ने 'काव्यप्रकाश-दीपिका' के नाम से लिखा है। इसमें प्राय: प्रत्येक स्थल पर सम्बन्धित विषयों के स्पष्टीकरण के लिये पूर्वापर-विवेचनों का उल्लेख करते हुए अपने अभिमत को भी स्थान दिया गया है। दार्शनिक तत्त्वों की प्रचलित व्याख्या और शास्त्रार्थों के निगूढ तत्त्वों की अन्थियों को भी सुलझाने का इसमें प्रयास हया है तथा साथ ही यत्रतत्र मम्मट की आलोचना भी की गई है। लेखक ने ग्रन्थ की विस्तृत भूमिका में भरत से प्राचार्य विश्वेश्वर (पर्वतीय) तक के पालङ्कारिकों के इतिहास का भी समावेश करते हुए उनके सम्बन्ध में प्रवर्तित धारणामों का ऊहापोहपूर्वक विवेचन दिया है। यह अनुवाद बहुत लोकप्रिय हुआ है। . यह ग्रन्थ 'ज्ञानमण्डल, वाराणसी से १९६० ई. में तथा उसके बाद चार-पांच संस्करणों में प्रकाशित हो चुका है। [ ४ ] विस्तारिणी एवं प्रभा- डा. हरदत्त शास्त्री तथा श्रीनिवास शास्त्री समीक्षात्मक भूमिका, भाषानुवाद, व्याख्या एवं विवेचन से युक्त इस अनुवाद का कार्य सम्पादन डॉ० श्रीनिवास शास्त्री.( कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के प्राध्यापक) ने नवतीर्थ, वेदान्त-व्याकरणाचार्य डॉ० श्रीहरिदत्त शास्त्री के निर्देशन में किया है। विस्तारिणी टीका पूरे ग्रन्थ का अनुवाद है। सम्भवतः यह अनुवाद पहले छपाया गया था और बाद में इसी का पल्लवन करके प्रभा-अनुवाद छापा गया है । विषयप्रवेशरूप भूमिका में अलङ्कारशास्त्र से सम्बन्धित विषयों का वर्णन प्राय: ४२ पृष्ठों में हुआ है । 'प्रभा' में मूल अनुवाद के अतिरिक्त प्रावश्यक विषयों का स्पष्टीकरण भी दिया है और प्रभा के पश्चात् 'टिप्पणी' का स्पष्ट शीर्षक देकर उसमें भी विस्तार से विवेचन किया है। इस दृष्टि से यह टीका भी पूर्ववर्ती हिन्दीटीकाकारों की लेखन-परिपाटी को आगे बढ़ाती है। इसका प्रकाशन 'साहित्य भण्डार, मेरठ (उ.प्र.) से हुआ है । तथा इसके सन् १९७० ई. तक तीन संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं । 'प्रभा' में 'संकेत' और 'चन्द्रिका' के कतिपयांशों का सम्पादन तथा छात्रोपयोगी टिप्पणी भी दिये गये हैं । यह छात्र संस्करण है। [५] बालक्रीडा-प्राचार्य मधुसूदन शास्त्री ( वर्तमान काल ) प्रस्तुत हिन्दीटीका लेखक' ने अपने द्वारा रचित 'मधुसूदनी' नामक संस्कृत टीका के साथ ही प्रकाशित की है। सामयिक उपयोगिता को लक्ष्य में रखकर टीकाकार ने अपने विवरण को भाषा की दृष्टि से प्रपुष्ट करते हुए कहीं संस्कृत टीका का सार दिया है तो कहीं वहाँ के संकेतित विषय को अधिक स्पष्ट किया है । पाँचवें और दसवें उल्लास में 'मधुसूदनी' कृश हो गई है तो 'बालक्रीड़ा' प्रपुष्ट । ऐसा लगता है कि ये दोनों संस्कृत-हिन्दी टीकाएँ एक-दूसरी की कथनसम्बन्धी आवश्यकताओं को पूर्ण करने की दृष्टि से ही लेखक ने द्विधा श्रम द्वारा लिखी हैं। हाँ, इतना अवश्य है कि इसमें अनेकत्र अस्पृष्ट विषयों को-जो कि पूर्वाचार्यों द्वारा प्रसिद्ध मानकर संकेत से समझाए गए थे, वे पुन: समझाकर विवेचित कर दिए गए हैं। इसका प्रकाशन मधुसूदनी के साथ ही हुआ है। १. लेखक का परिचय संस्कृत टीका 'मधुसूदनी' के विवरण में दिया है । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० [ ३-५ मराठी, गुजराती और कन्नड अनुवाद ] भारत की अन्य प्रादेशिक भाषाम्रों में जो भाषाएँ समृद्ध मानी जाती हैं उनमें भी काव्य प्रकाश की लोकप्रियता ने प्रसार पाया है। इस दृष्टि से निम्नलिखित अनुवाद उपलब्ध होते हैं [१] टोका ( मराठी ) - पं० अर्जुन वाडकर मंगूलकर यह विस्तृत टीका काव्यप्रकाश के कुछ भाग पर लिखी हुई है। इसका प्रकाशन सन् १९६२ में पूना (महाराष्ट्र) से 'देशमुख एण्ड कम्पनी' ने किया है । [२] मराठी अनुवाद- श्री बा० कृ० सावलापुरकर यह अनुवाद सन् १९५४ में भीमा कुलकर्णी ने नागपुर (महाराष्ट्र) से प्रकाशित किया है, जो कि इस भाषा का पहला अनुवाद कहा जा सकता है। [३] गुजराती धनुवाद स्व० श्री श्रानन्दशर बापूजी ध्रुव यह गुजराती भाषा में प्रथम अनूदित हुम्रा है। इसके लेखक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में भी रहे हैं तथा अनेक ग्रन्थों पर मननपूर्ण साहित्य का आलेखन भी इनके द्वारा हुआ है । कालिदास के 'विक्रमोर्वशीयम्' के गुजराती अनुवाद 'पराक्रमनी प्रसादी की भूमिका में कालिदास के काल निर्धारण के लिये इन्होंने छन्द को आधार मानकर मीमांसा भी की है। [ ४ तथा ५ ] गुजराती अनुवाद डॉ० धार० सी० पारेख एवं श्री प्रार० बी० पाठक इन अनुवादों के बारे में विशेष जानकारी प्राप्त नहीं हो पाई है। किन्तु गुजराती साहित्यकारों ने इसका निर्देश किया है । [ ६ ] कन्नड अनुवाद - डा० कृष्णमूर्ति धारवाड़ विश्वविद्यालय के संस्कृतविभागःध्यक्ष डॉ० कृष्णमूर्ति ने यह अनुवाद कन्नड़ भाषा के माध्यम से काव्यप्रकाश के अध्येताओं की सुविधाओं को ध्यान में रखकर किया है। इसका प्रकाशन भी धारवाड़ से ही हुआ है। इसमें काव्यप्रकाश में उदाहृत पद्यों का अनुवाद भी कन्नड़ पचों में किया है। ध्वन्यालोक आदि कुछ ग्रन्थों के कन्नड़ अनुवाद का श्रेय भी इन्हें प्राप्त है । इनके अतिरिक्त देश की अन्य प्रादेशिक भाषाओं में भी किसी न किसी रूप में 'काव्य - प्रकाश' ने अपना प्रकाश अवश्य ही फैलाया होगा जिसका परिचय हम प्राप्त नहीं कर पाये हैं। इसी प्रकार उपर्युक्त भाषाओं में उपरि निर्दिष्ट अनुवादों के अतिरिक्त भी अनुवाद अथवा टिप्पण हुए और हो रहे होंगे जो स्वाभाविक ही हैं । इस प्रकार महामनीषी मम्मट की अपूर्व देन के रूप में काव्य प्रकाश का सम्मान भारतीय वाङ्मय के चिन्तकों में उत्तरोत्तर बढ़ता रहा है। भारतभूमि का मानचित्र बनाकर उसमें जिन स्थानों में इस ग्रन्थ पर टीकाएँ हुई हैं उनका उल्लेख किया जाए तो एक भरा-पूरा रूप उसमें निखरा हुआ प्रतीत होगा इसमें कोई प्रत्युक्ति नही है।" १. इस सम्बन्ध में हमारा विचार है कि यथासमय एक ऐसा ग्रन्थ धाचार्य मम्मट पर तैयार करें जिसमें मम्मट के काव्य प्रकाश पर उपलब्ध टीकापरिचय के साथ ही इस पर लिखे गए लेख, विवेचन तथा विभिन्न ग्रन्थ ई हुई सामग्री का भी निर्देश हो। इसे हम अंग्रेजी ढंग की बिब्लिओग्राफी के रूप में तैयार करने का प्रयत्न कर रहे हैं । विद्वानों से निवेदन है इस सम्बन्ध में वे अपने सुझाव तथा अपेक्षित सामग्री प्रदान कर हमें अनुगृहीत करें। (सम्पादक) Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री यशोविजयजी उपाध्याय कृत काव्यप्रकाश की प्रस्तुत टीका टोका का उपलब्धांश विविध टीकानों के रहते हए भी जैसे अन्य टीकाकारों ने नवीन टीकानों के निर्माण द्वारा 'ग्रन्थ' एवं 'ग्रन्थकार' के हृदय को समझने-समझाने के उत्तरोत्तर प्रयास किये, उसी प्रकार न्याय-विद्या के पारगामी उपाध्याय 'श्रीयशोविजयजी महाराज' ने भी इस टीका का निर्माण किया । यह टीका बहुत प्रयत्न करने पर भी पूर्ण प्राप्त नहीं हो पायी है और अब कहीं ऐसा कोई सङ्कत भी नहीं मिलता है कि जिससे उपलब्ध 'दो उल्लासों की टीका के अतिरिक्त कहीं कुछ अन्य अंश मिलने की सम्भावना हो । अतः अब यही कहा जा सकता है कि १-ग्रह टोका द्वितीय और तृतीय उल्लास पर ही बनी होगी और प्रागे इसका निर्माण ही नहीं किया होगा क्योंकि लेखक के प्रिय विषय 'न्याय' का इस अंश में ही समावेश हो जाता है। २. यह भी सम्भव है कि अग्रिम टोका बनाई हो और वह नष्ट हो गई हो। किन्तु प्रस्तुत टीका में कहीं 'पने वक्ष्यामः' जैसा कोई सूचन नहीं मिलता है। प्रस्तु, अब एक प्रश्न और होता है कि 'क्या प्रथम उल्लास पर टीका बनाई गई थी?' इसका उत्तर भी निश्चित रूप में तो कुछ कहा नहीं जा सकता किन्तु प्रधान-सम्पादक को प्राप्त पाण्डुलिपि में प्रारम्भ के ६ पृष्ठ उपलब्ध नहीं हैं तथा टीका में द्वितीय उल्लास के प्रारम्भ का पृष्ठ ७वा है। इसके आधार पर यह अनुमान सहज ही होता है कि 'प्रारम्म के ६ पृष्ठों के दोनों भागों को मिलाकर १२ पृष्ठ की टोका प्रथम उल्लास की रही होगी। साथ ही इसके प्रारम्भ में मङ्गलाचरण और प्रारम्भ-सम्बन्धी पद्य आदि भी नहीं हैं। इस प्रकार यह टीका केवल द्वितीय और तृतीय उल्लास पर ही मिली है, इसमें भी बीच-बीच में कुछ अंश खण्डित हैं । तथापि इसके सामूहिक पर्यवेक्षण से श्रीउपाध्यायजी की अनूठी प्रतिभा के दर्शन किये जा सकते हैं। प्रस्तुत टीका में विशेष रूप से समालोचित विषय का समुचित चिन्तन से यह अवश्य स्पष्ट हो जाता है कि टीकाकार के दायित्व का निर्वाह करते हुए पू० उपाध्यायजी ने इसमें कतिपय महत्त्वपूर्ण विचार प्रस्तुत किये हैं, जिनका संक्षिप्त दिग्दर्शन इस प्रकार है - प्रथम उल्लास का विवेच्य विषय प्रस्तुत टीका की पूर्वभूमिका पहले उल्लास के विचारों पर बनी है। जिसमें प्रथम उल्लास की (पृष्ठ भूमि) प्राचार्य मम्मट ने 'तबदोषो शब्दार्थों सगुणावनलकृती पुनः क्वापि' इस कारिकांश से लोकोत्तर-वर्णना-निपुण कविकर्मीभूत काव्यस्वरूप का लक्षण दिया है। उनके मत में दोषरहित अलङ्कार-विशिष्ट शब्द और अर्थ दोनों मिलकर Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ शब्द 'काव्य' हैं । तात्पर्य यह कि 'काव्य एक धर्मी है जिसके १. दोषामाव, २. गुरणसाहित्य एवं ३. अलङ्कार-वैशिष्टय ये तीनों धर्म हैं।' 'सति कुड ये चित्रम्' इस उक्ति के अनुसार जसे भित्ति अथवा फलक के रहने पर ही चित्र बनाना सम्भव है, उसी प्रकार धर्मी का स्वरूप अवगत हो जाने पर ही धर्म का स्वरूप जाना जासकता है। इसलिये प्रथम उल्लास में आचार्य मम्मट ने धर्मी के १. 'ध्वनि, २. गुरणीभूतव्यङ्ग्य तथा ३. चित्र' ये तीन विभाग बतलाये हैं और तीनों के उदाहरण भी प्रस्तुत किये हैं । इन तीनों के १. 'उत्तम, २. मध्यम और ३. अधम काव्य ये भी पर्यायान्तर हैं। अधमकाव्य अथवा चित्रकाव्य के दो भेद हैं । १. शब्दचित्र और २. अर्थचित्र । शब्दार्थरूपी काव्य का लक्षण पूर्णरूप से तभी ज्ञात हो सकता है जबकि उनके समस्त पदार्थ विशेष रूप से प्रतिपादित किए जाएँ। इस दृष्टि से प्राचार्य मम्मट ने क्रमशः अग्रिम उल्लासों में उन समस्त पदार्थों का यथाशक्ति प्रतिपादन किया है। द्वितीय उल्लास का विवेच्य विषय मिस्थानीय शब्दार्थ में प्रथम 'शब्द' का विवेचन द्वतीय उल्लास का प्रमुख विषय है। काव्य का उपकरण अथवा माध्यम शब्द माना गया है। प्राचार्य मम्मट ने शब्द के तीन प्रकार-१. वाच्य, २. लक्ष्य और ३. व्याय प्रदर्शित किये हैं। वाचक की वाच्यार्थ में, 'प्रभिधा' वृत्ति है । लाक्षणिक की लक्ष्यार्थ में 'लक्षणा' वृत्ति है। तथा व्यंजक शब्द की व्यङ्गधार्थ में व्यजना' वृति है। यह अभिधा, लक्षणा और व्यञ्जना क्या वस्तु है ? इसका प्रतिपादन प्राचार्य मम्मट ने इस प्रकार किया है - अर्थ वृत्ति १. वाचक १. वाच्य (अभिधेय) १. अभिधा २. लाक्षणिक (लक्षक) २. लक्ष्य २. लक्षणा ३. व्यञ्जक ३. व्यङ्ग्य (वस्तु, अलङ्कार रसादि) ३. व्यअना ४. तात्पर्यार्थ ४. तात्पर्याख्या तात्पर्य तथा उसकी वृत्ति तात्पर्याख्या भट्ट कुमारिल ने स्वीकृत की है। उनके मत में अभिधा वृत्ति केवल वाच्यार्थों को उपस्थित करके क्षीण हो जाती है। अतः उन पदार्थों का परस्पर सम्बन्धबोधन करानेवाली तात्पर्याख्या वत्ति ही है। इसीलिये पदार्थ-संसर्गबोध के लिये तात्पर्याख्या वृत्ति प्रावश्यक होती है।' प्रभाकर मिश्र ने 'पदों की प्रन्वित पदार्थों में शक्ति-अभिधा मान लेने पर तात्पर्याख्या वृत्ति की कोई प्रावश्यकता ही नहीं रह जाती है। ऐसा प्रतिपादित किया है । अन्वित पदार्थ वाच्यार्थ होने पर अन्वय अर्थात् संसर्ग भी अभिधा वृत्ति का ही प्रतिपादक हो जाता है । अन्वय विशेषोपस्थिति के लिये आकांक्षा ही पर्याप्त है। इस तरह अभिहितान्वयवादी कुमारिल भट्ट तथा अन्विताभिधानवादी प्रभाकर मिश्र का मत साहित्यशास्त्र में बहुत प्रचलित है। प्राचार्य मम्मट ने भी "पाकाक्षा-योग्यता-सन्निधिवशाद् वक्ष्यमारणस्वरूपारगां पदार्थानां समन्वये तात्पर्यार्थो विशेषवपुरपदार्थोऽपि वाक्यार्थः समुल्लसतीत्यभिहितान्वयवादिनो मतम् । वाच्य एव वाक्यार्थ इत्यन्वितामिधानवादिनः ।" यह कहकर दोनों मतों का प्रतिपादन किया है । इन दोनों मतों में अन्तर इतना ही है कि १. 'पदार्थमात्र अभिधा का विषय होता है और उनका संसर्ग तात्पर्याख्या वृत्ति का विषय होता है। (यह अभिहितान्वयवादी भट्ट का मत हैं।) तथा Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. संसर्ग सहित पदार्थ अभिधावृत्ति का विषय है। अभिधा के अतिरिक्त तात्पर्याख्या वृत्ति की कोई प्रावश्यकता नहीं है । (यह अन्विताभिधानवादी मिश्र का मत है । ) इस प्रकार हम इन दोनों के मतों की गणना इस रूप में कर सकते हैंमट्ट मत में- अमिधा-बाच्यार्थ । तात्पर्याख्या- वाच्यार्थ संसर्ग (तात्पर्याथं)। प्रमाकर मिश्र मत में-अभिषा-प्रन्वितपदार्थ (पदार्थ, तत्संसर्ग)। इस प्रकार द्वितीय उल्लास के प्रस्तुत पालोच्य विषय के सम्बन्ध में टीकाकार पूज्य उपाध्यायजी ने व्यक्त किया है कि "शब्दार्थ-निरूपण में शब्द की प्रधानता अर्थ की अपेक्षा अधिक है प्रत: पहले शब्द का और तदनन्तर अर्थ का निरूपण सुसंगत है.। लक्षणा अभिधा के अधीन होती है और व्यञ्जना दोनों के अधीन होती है। जैसे-अभिधामूला व्यञ्जना और लक्षणामूला व्यञ्जना। चमत्कृत का प्रतिपादन करने के लिये व्यञ्जनावाद की प्रावश्यकता होती है। यदि व्यञ्जनावाद को हम साहित्य से महिममट्टादि की भांति निकाल दें, तो यह कथमपि सम्भव नहीं है कि रसादि का मनुभव हो सके। विशेषकर अर्थविषयक चमत्कार के लिये व्यञ्जनावाद उतना ही आवश्यक है जितना कि तप्ति के लिये भोजन ।” 'यद्यपि एक ही शब्द वाचक, लक्षक और व्यञ्जक हो सकता है किन्तु इनका विभाग किस तरह होगा?' यह शङ्का हो सकती है तथापि 'सम्बन्धभेद से वाचक प्रादि तथा व्यञ्जक प्रादि की व्यवस्था करनी चाहिये।-सम्बन्ध भेदाद भेदमङ्गीकृत्य तथा विभागात्" इत्यादि । (टीका पृ० ३)। अभिप्राय यह है कि-"जैसे एक ही व्यक्ति पाकक्रिया के सम्बन्ध से वाचक तथा अध्यापन प्रादि क्रिया के सम्बन्ध से अध्यापक प्रभति हो सकता है, उसी प्रकार वाच्य, लक्ष्य और व्यङ्ग्य अर्थ के सम्बन्ध से एक ही शब्द में वाचक, लक्षक तथा व्यञ्जक प्रादि का व्यवहार हो सकता है । अर्थात् उपाधि के भेद से विभाग उपपन्न हो सकता है।" आचार्य मम्मट ने १. 'वाच्य २. लक्ष्य और ३. व्यङ्ग्य इन प्रत्येक के अर्थों को 'व्यजक' माना है। उसी प्रसंग में लक्ष्यार्थ व्यङ्ग्यार्थ का व्यञ्जक किस प्रकार हो सकता है इसका उदाहरण देते हुए 'साधयन्ती सखि! सुभग क्षणे क्षणे इत्यादि (पद्य ७५०२०) में-'मेरे प्रिय के साथ अनुचित सम्बन्ध करके तूने बड़ी शत्रता दिखाई है, इस प्रकार का लक्ष्यार्थ और प्रिय की ऐसी कामुकता एक महान् अपराध है'- ऐसा व्यंग्यार्थ व्यञ्जक होता है। इस सन्दर्भ में __"तथा च नायमन्यत्रानुरक्तो वृथैव भवत्या मानवत्याऽयमुपतापितोऽनुनयमहतीति त्वद्वचनेनानुनयार्थ प्रेषितां त्वामेवोपभुक्तवानिति त्वयेदानीमपि चेतितव्यमिति व्यङ्ग्यत्वेन च मयाऽतः परमस्य मुखमपि न विलोकनीयं, मदनुनयाथ त्वयाऽपि न यतनीयमिति व्यङ्यान्तरमपि कराक्षिप्तमिति वयं विलोकयामः।" (पृ २२) इत्यादि कहा है। जिसका तात्पर्य है कि-'हे सखी तूने झूठ ही कहा था कि आपका प्रिय किसी भी दूसरी नायिका में अनुरक्त नहीं है। तुमने व्यर्थ ही मान बढ़ाकर उसे सन्तप्त कर दिया है। इसलिये तुम अपने प्रणय-व्यापार से उसे प्रसन्न कर सकती हो।' इसी के आधार पर मैंने तुमको ही उसे मेरे प्रति अनुकूल बनाने के लिये भेजा था। किन्तु उसने तुम्हारे साथ ही Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुचित व्यापार किया । अत: 'तुम्हें अब सावधान हो जाना चाहिये। मैं तो अब उसका मुंह भी नहीं देखूमी। तुम भी यह काम करके उसके अनुनय के लिये कभी परिश्रम मत करना ।' ऐसा व्यंग्य लक्षित होता है। यहाँ व्यङ्ग्य की सूक्ष्मता बताकर उपाध्यायजी महाराज ने अपनी अनूठी प्रतिभा और मनोवैज्ञानिक सूझ-बूझ का परिचय दिया है। अर्थ के शब्दाधीन होने के कारण प्रथम शब्दों का निरूपण किया गया है तदनन्तर अर्थों का। शब्दों में भी वाचक शब्द के अधीन लक्षक और व्यञ्जक शब्द होने के कारण प्रथम वाचक शब्द का निरूपण है । "साक्षात् सङ्केतितं योऽर्थमभित्ते स वाचकः" (सू०६ पृ० २५) इस तरह सङ्कत के द्वारा जो शब्द जिस अर्थ का वाचक हो, वह शब्द उस अर्थ का वाचक होता है। उदाहरण—'गङ्गायां घोषः' यहां गङ्गाशब्द प्रथम सङ्कत द्वारा जलप्रवाह-विशेष अर्थ का बोधन करता है। इसलिये गङ्गा शब्द जलप्रवाह-विशेष अर्थ का वाचक होता है । किस शब्द का किस अर्थ में संकेत है ? इसका निश्चय न होने पर शब्द श्रुत होने पर भी उस शब्द से अर्थबोध नहीं होता है। अतः शब्द से अर्थबोध की प्राप्ति के लिये मध्य में संकेतग्रह होना चाहिये। संकेत में कहीं तो ईश्वर की इच्छा ली जाती है और कहीं प्राप्त पुरुषों की। वह संकेत किस अर्थ में मानना चाहिये । इस प्रसंग में मम्मट ने बहुत-से मत प्रदर्शित किये हैं। जैसे 'जात्यादि तिरेव वा' इत्यादि । अभिप्राय यह है कि व्यवहार में शब्द से व्यक्ति-विशेष में ही अर्थक्रिया की प्रतीति होती है। कोई भी व्यक्ति 'गाम प्रानय' इस तरह के वाक्यों को सुनकर गो आदि व्यक्ति के ही पानयन में प्रवृत्त होता है। इसलिए व्यवहार से गो आदि शब्दों का गो प्रादि सास्नादिमान् व्यक्ति में ही शक्तिग्रह सिद्ध होता है। इसलिए गो आदि शब्दों का सङ्कत गो आदि सास्नादिमान् व्यक्ति में ही होना चाहिए। किन्तु देश-काल के भेद से व्यक्ति अनन्त होने के कारण उनमें सङ्कतग्रह होना असम्भव है। यदि किसी भी व्यक्ति-विशेष में शक्ति-(सङ्केत) ग्रह कर लेने पर बिना सङ्कतग्रह के ही अपर-अपर व्यक्ति का बोध वैसे ही स्वीकार कर लें तो उस-उस अर्थबोध का-उसउस संकेत का कार्य-कारणभाव ही नहीं हो सकता है। इसलिए उन्होंने प्रथमकल्प में जात्यादि में सङ्केतग्रह सूचित किया है। जात्यादि शब्द से उपाधि समझनी चाहिए। उपाधि दो तरह की होती है एक वस्तुधर्म, दूसरा यहच्छासनिवेशित अर्थ । वस्तुधर्म भी दो प्रकार का होता है एक सिद्ध और दूसरा साध्य । सिद्ध पदार्थ दो प्रकार का होता है प्रथमपदार्थों का प्राणप्रदधर्म तथा द्वितीय-विशेषाधान हेतु । पदार्थों का प्राणप्रद धर्म जाति होता है जिसे गोत्व आदि कहते हैं। उसका स्वरूप श्री भत हरि ने स्वोपज्ञ वाक्यपदीय में 'न हि गौः स्वरूपेण गौन प्यगौः गोत्वाभिसम्बन्धात्त गौः' इस शब्द से यह सूचित किया है कि गोत्वरूपी पदार्थप्रद धर्म के अभाव में गो में तो 'गौः' इस तरह का गोव्यवहार ही कर सकते हैं । या 'प्रगोः' में गवेतर का ही व्यवहार कर सकते हैं। विशेषाधानहेतु शब्द से शुक्लादि गुण समझाया गया है। क्योंकि द्रव्यवस्तु की सत्ता निश्चित हो जाने पर उनका प्रयोग द्रव्यवस्तु में कर सकते हैं। साध्यधर्म से क्रियासमूह समझना चाहिए । 'वक्तृयदृच्छासंनिवेशित अर्थ' से स्वयम् मम्मट ने 'डित्यादिशब्दा. नामत्यन्तबुद्धिनिर्णाह्य संहृतक्रमं स्वरूपं वक्त्रा यहच्छया डित्थादिष्वर्येषूपाषित्वेन संनिवेश्यत इति सोऽयं संज्ञारूपो यहच्छात्मक इति ।' इस शब्द से गो आदि शब्दों की जो पानुपूर्वी संज्ञात्मक प्रसिद्ध है तदाश्रित शब्दों को सूचित किया है। उसमें प्रमाण रूप से महर्षि पतञ्जलि का व्याकरणमहाभाष्यवचन 'गौः शुक्लश्चलो डित्थ इत्यादौ चतुष्टयो शम्दानां प्रवृत्तिः इति महाभाष्यकारः' इस तरह दिया है । अत: १-जाति, २-गुण, ३-क्रिया और ४-यहच्छात्मक संज्ञा शब्द ये चार तरह के अर्थ होते हैं। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनः सर्वेषां शम्दानां जातिरेव प्रवृत्तिनिमित्तमित्यन्ये' 'इस शब्द से शुक्लत्व, पाकत्व, डिस्थत्व आदि धर्म वाच्यार्थ होगा' ऐसा मत प्रदर्शित किया है । 'तद्वान' शब्द से जात्याश्रय व्यक्ति ही शब्दार्थ होता है ऐसा सूचित किया है । 'अपोहो वा' शब्द से बौद्धाचार्य धर्मकीति आदि सम्मत इतरव्यावृत्ति को पदार्थत्व सूचित किया है। यह विस्तृतविचार मम्मट ने साहित्यानुपयोगी समझकर यद्यपि छोड़ दिया है तथापि जात्यादि, जाति, जातिमान् और अपोह ये शब्दार्थ हो सकते हैं यह तो स्पष्ट ही उन्होंने कहा है। प्राचार्य मम्मट ने अभिधेयार्थ को मुख्य-अर्थ और अभिधा को प्रथम शक्ति के रूप में स्वीकृत किया है। यहीं वाचकशब्द की परिभाषा को परिष्कृत करते हुए उपाध्यायजी ने 'अथ सतविषयतावच्छेदकेन रूपेण साक्षात सतविषयार्यप्रतिपादकत्वं' (पृ. २६) इस शब्द से वाचकत्व का स्वरूप प्रदर्शित करते हए अन्त में यस्मिन् शब्दे यदा यदर्थविषयस्य साक्षात् संकेतस्य ग्रहः प्रतिपत्तिजनकः स तदा तस्य वाचकः' (पृ. २६-२७) इस तरह वाचक का परिष्कृत लक्षण बताया है। . इसी प्रसंग में प्रदीपकार का मत प्रस्तुत करके उस पर अपना विचार भी स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया है (द्र. पृ. २८-२९) । अभिप्राय यह है प्रत्येक शब्द यत्किञ्चित् अर्थ का प्रतिपादक होने के कारण वाचक को लाक्षणिक मादि से भिन्न बताने के लिए यत्तच्छन्दघटित ही वाचकत्वस्वरूप समझाना होगा। इसलिए 'गङ्गायां घोषमत्स्यौ' इस तरह के वाक्य में गङ्गा शब्द तीर का वाचक नहीं हो सकता है। क्योंकि जिस शब्द में जिस समय में यदर्थ विषयक साक्षात् सङ्कतह शाब्दबोधजनक होता है। उस समय में वह शब्द उस अर्थ का वाचक है। प्रस्तुत वाक्य में गङ्गा शब्द, तीर विषयक साक्षात् सङ्कतग्रह शाब्दबोधजनक न होने के कारण तीररूपार्थ का वा सङ्केत की परिभाषा 'तस्माद् व्यवहारकोशादिव्यङग्योऽतिरिक्त एव पदार्थः सङ्कतसंज्ञकः (प. ३०) इस शब्द से 'भस्माच्छन्दादयमों बोडव्यः' इत्यादि ईश्वरेच्छा से विलक्षण पदार्थान्तर सङ्कत को सूचित किया है। जो कि मीमांसक आदि प्रसन्नता से मान्य कर सकते हैं। इसी प्रकार प्राणप्रदत्व 'यावद्वस्तुसम्बन्धित्वम् नतु यावद्वस्तुस्थायित्वं नीलपीतादीनामपि नित्यत्वेन यावद वस्तुस्थायित्वात्..."(पृ. ३५) इत्यादि शब्द से बहुत सुन्दर परिष्कार बताया है । .. यद्यपि परिभाषा की योजना नव्य नैयायिक की शैली से अछूती नहीं रही है तथापि निर्दुष्ट परिभाषा बनाने के लिए उपाध्यायजी ने भरसक प्रयत्न किया है। तथा जात्यादि के बीच वस्तुतः कोन वाच्यार्थ हो सकता है ? इस विषय में मीमांसक आदि की चर्चा करते हुए 'तस्माद् व्यक्तिपक्ष एव क्षोदक्षमः "पृ०५२।' इस शब्द से जात्यवच्छिन्न व्यक्ति में ही बाचकता सिद्ध की है। यद्यपि यह मत इनका स्वतन्त्र नहीं है, क्योंकि नंयायिकों ने भी 'जात्याकृतिव्यक्तयः पदार्थाः' ऐसा गौतमसूत्रानुसारी उसी तरह का सिद्धान्त प्रदर्शित किया है तथापि श्रीउपाध्यायजी ने भनेकान्तवादी सिद्धान्त के प्रतिपादक होते हुए भी स्थान-स्थान पर नैयायिक मत से सिद्ध पदार्थों को मादर की दृष्टि से स्वीकार करना कर्तव्य समझा है। 'प्रत्र प्रतिभाति-शक्तिस्तावत् पदार्थान्तरमित्युक्तम्, तच्च""(इत्याद्यारभ्य) नापि कुन्ताः प्रविशन्तीत्यादौ कन्तधरत्वप्रकारकबोधाभ्युपगमनिबन्धनोक्तदोषप्रसङ्ग इति' (पृ० ५८) इत्यन्तं वाक्य से बड़ा ही मार्मिक पदार्थान्तर सङ्कत. पदार्थ को समझाते हए गङ्गादि शब्द को तीर यमुनादि अर्थ का अवाचकत्व सिद्ध किया है तथा इसी बीच प्रसंगवश प्रतेक अन्य टीकाकारों के मतों का विवेचन भी दिया है जिनमें मणिकार, सुबुद्धि मिथ, मधूमतीकार आदि प्रमुख हैं। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्षणा के भेद लक्षणा शुद्धा गौरणी सारोपा-साध्यवसाना उपादान लक्षणा लक्षणलक्षणा सोरोपा-साध्यवसाना सारोपा-साध्यवसाना प्राचार्य मम्मट ने 'लक्षणा तेन षड्विधा'। (सू. १७) इस कारिकांश से प्रथम १. शुदा और २. गौरणी ये दोनों लक्षणा के भेद बताये हैं। तदनन्तर शुद्धा के १. 'उपादानलक्षणा और २. लक्षणलक्षणा ये दो भेद पुन: बताकर गौणी के 'सारोपा और २. साध्यवसाना' ये दोनों भेद बताकर लक्षणा के छः भेद बताए हैं। प्रागे जाकर पुनः १. गूढव्यङ्ग्या २. अगूढव्यङ्ग्या तथा ३. प्रव्यङग्या इस तरह लक्षणा के तीन भेद बताए हैं। यहाँ शुद्धात्व का परिष्कार उपाध्यायजी महाराज ने 'भत्र ब्रूमः' (पृ.० ७४) इत्यादि शब्द से गौणीपदवाच्य 'भिन्नत्वव्याप्यलक्षणाविभाजकोपाधिमत्त्व'रूप किया है । अभिप्राय यह है कि जिस स्थल में सादृश्यसम्बन्धमूलक लक्षणा होती है उसे 'गुरणादामता' इस व्युत्पत्ति से गौणी कहते हैं । और जहाँ सादृश्य से इतर स्वसामीप्यभाव, अवयवावयविभाव आदि सम्बन्ध लेकर लक्षणा होती है उसे शुद्धा लक्षणा कहते हैं। जहां उपचार का मिश्रण होता है उसे गौणी पौर जहाँ उपचार का अमिश्रण होता है वहाँ शुद्धा लक्षणा मानी जाती है। 'गङ्गायां घोषः' में गङ्गापदार्थ और तीर पदार्थ में सादश्यातिशय को लेकर भेदप्रतीति स्थगित करने की कोई प्रावश्यकता नहीं होती है इसलिए यहाँ शुद्धा मोर 'गौर्वाहीकः' यहाँ पर जाड़य, मान्द्य प्रादि गुणों को लेकर सादृश्यातिशय होने के कारण जलप्रवाह विशेष और तीर अर्थ में भेदप्रतीति का शैथिल्य करना पड़ता है। यहाँ प्राचार्य मम्मट ने स्वयं मुकुलभट्ट का मत खण्डित किया है। उनके मत में वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ इन दोनों का भेदरूप ताटस्थ्य होने पर शुद्धा और भेदरूप ताटस्थ्य न होने पर गौणी लक्षणा सिद्ध होती है। किन्तु शुद्धा का उदाहरण 'गङ्गायां घोषः' है। यहाँ यदि जलप्रवाह और तट ये दोनों भिन्नरूप से प्रतीत हों तो 'गङ्गातटे घोषः' इस तरह का वाक्योच्चारण न कर 'गङ्गायां घोषः' इस तरह के वाक्योच्चारण से तट में जो शक्यतावच्छेदक गङ्गात्व की प्रतीति और उसके गङ्गागतशैत्यपावनत्वादि की प्रतीति जो अभीष्ट है वह कथमपि सम्भव नहीं हो सकती है। गूढत्व का परिष्कार 'सहवयमात्रवेद्यत्वम्' तथा भगूढत्व का परिष्कार 'सहृदयासहृदयवेचत्वम् किया है। हृदय शब्द से प्रतिभा प्रर्थ समझना चाहिए। प्रतिभा का तात्पर्य नवनवोन्मेषशालिनी बुद्धि है। उत्तमत्व. प्रयोजक गूढवती लक्षणा का उदाहरण भाचार्य मम्मट ने मुखं विकसितस्मितंशितवक्रिमप्रेक्षितं, समुच्छलितविभ्रमा गतिरपास्तसंस्था मतिः । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उरी मुकुलितस्तनं जघनमंसबन्धोखरं, बतेन्दुवदनातनौ तरुणिमोद्गमो मोदते ॥ (पृ० १०२) श्लोकार्य यह है कि चन्द्रमुखी के शरीर में यौवन का प्रवेश अत्यन्त ही सुन्दर है । उसका मुंह स्मित, सुगन्धिसम्पन्न बना हुआ है। कटाक्ष वशीकरणसमर्थ प्रतीत होता है। चलना हाव-भाव से भरा हा प्रतीत होता है। बुद्धि मर्यादा-रहित हो गई है । वक्षःस्थल कठिनस्तनयुक्त है । जाँघे अंसबन्ध अर्थात् रतिबन्ध आसन के योग्य हैं। यहाँ उपाध्यायजी महाराज ने 'विकसित' शब्द से मुंह में सौरभ को व्यंग्य माना है। या 'दयितमधुव्रतो. चितमधुमधुराधरमन्दिरत्वं व्यङ्ग्यम्' इस शब्द से नायिका के मुंह में मधुकररूपी नायक के लिए नायिका का प्रधर मधु के समान मधुर प्रास्वादयोग्य अभिव्यङ्ग्य बताया है। 'वशित' शब्द से 'बाल्या मावेन यादृच्छिक प्रवृत्ति-विरहाद् गुरुजनसन्निधानेऽपि निमृतनिजनायकानुनयनिमित्त-नियुक्तपरिजनत्वं व्यङ्ग्यमिति वयम्" इस शब्द से "बाल्यकाल व्यतीत हो जाने पर यौवन के समागमन-समय में स्वच्छन्द होकर धूम नहीं सकती है। इसलिए माता, पिता प्रादि गुरुजन के समक्ष भी गुप्तप्रेमी के यहाँ अनुनय-विनय करने के लिए दूती मादि परिजन को वश में की हुई है" ऐसा व्यङ्ग्य होता है। 'समुच्छलित' शब्द से "युवक जनों के मन को प्रसन्न करने वाली अथवा प्रियतम के प्राणों का प्राधार लेकर टिकी हुई" ऐसा व्यङ्ग्य माना है। मर्यादावाचक 'संस्था' शब्द से प्रेमोत्कर्ष अथवा 'दयितमुखावलोकनावसरविस्मृतवयस्योपदिष्टमानिनीजनम मौनधारणादि-चेष्टितत्वं व्यङ्ग्यः (पृ० १०२ से १०४ )" इत्यादि कथन से "प्रियतम के मुखदर्शन होते ही स्वसखीप्रभूति से मान के लिए मौनधारण आदि विषयक उपदेश को भूल जानेवाली" इस तरह का व्यङ्ग्य सूचित किया है । 'मुकुलित' शब्द से घनीभूत स्तन होने के कारण रत्यादि काल में मदित होने पर भी काठिन्य को न छोड़नेवाले स्तनों से युक्त, 'अक्षतयौवना'रूपी व्यङ्ग्य अर्थ सूचित किया है। उधुर शब्द से 'यौवनयुवराज-पराजित-कामकारागारत्वं, तहरिणममहीपतिमृगयोपलब्ध-कामुकमृगवागुरात्वं वा० (पृ० १०४) इत्यादि कथन से यौवनरूपी युवराज से पराजित होकर कामरूपी राजा कारागार समझ कर उस नायिका में निवास कर रहे हैं अथवा यौवनरूपी राजा ने शिकार में कामकरूपी मग को फंसाने के लिए नायिकारूपी पाश का अवलम्बन किया है, ऐसा व्यङ्ग्य प्रदर्शित किया है। 'मोवते' शब्द से स्मितादि उद्दीपन-विभावरत्नाकरनायिका है ऐसा व्यङ्ग्य होता है। .. यहां उन-उन शब्दों में स्व-स्व बुद्धिवैभव से सभी टीकाकार-परवर्ती भाचार्यों ने व्यङ्ग्य बताये हैं। किन्तु उपाध्याय जी महाराज की व्यङ्ग्य-कल्पना कुछ और ही अनोखी जात होती है। इसी तरह लक्षणा के प्रसङ्ग में कई युक्तियां इन्होंने अच्छी बताई हैं। व्यञ्जना-विचार व्यञ्जनावाद की स्थापना करते हुए प्राचार्य मम्मट मे लक्षणा से व्यञ्जना का भेद दिखाते हुए 'हेत्वमावान्न लक्षणा' इस शब्द से अर्थात् स्वशक्यसम्बन्धरूपा या शक्यतावच्छेदकप्रकारक पारोपरूपी लक्षणा के लिए १. मुख्यार्थास्वय-बाध, २. मुख्यार्थ के साथ लक्ष्या का प्रसिद्ध सम्बन्ध तथा ३. रूढि, प्रयोजनान्यतर हेतु ये तीनों अनिवार्य हेत बताये हैं। व्यञ्जनावाद में इन तीनों की आवश्यकता नहीं होती है। तथा 'लक्ष्यं न मुख्यं नाप्यत्र बाघो योगः फलेन नो। न प्रयोजनमेतस्मिन न च शब्दः स्खलनगतिः' । सू० २६ ॥ (पृ० १११) Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ इस कारिका से उन्होंने बताया है कि "गङ्गाशब्द का अर्थ स्रोत होने के कारण उसका माधाराधेयभावसम्बन्ध घोषरूपी मुख्यार्थ के साथ बाधित है। इसलिए गङ्गापद की लक्षणा तीर में मानी जाती है। उसी तरह उसका तटरूपी अर्थ करने पर भी यदि घोषपदार्थ के साथ अन्वयबाधा रहती तो शैत्यपावनत्वादि प्रयोजनरूपी व्यङ्ग्यार्थ में लक्षणा वृत्ति स्वीकार कर सकते थे। इस प्रकार मुख्यार्थ सम्बन्ध ही लक्षणा है। शैत्यपावनत्वादि लक्ष्यार्थ मानने पर तटरूपी अर्थ मुख्यार्थ मानना पड़ेगा। किन्तु वह गङ्गापद का मुख्यार्थ नहीं है एवं उसका अन्वय बाधित नहीं है। अत: शैत्यपावनधादि अर्थ के साथ तट अर्थ का कोई प्रसिद्ध सम्बन्ध नहीं है एवं शैत्यपावनत्वादि इस प्रकार अर्थ में लक्षणावृत्ति के लिए कोई प्रयोजनान्तर नहीं है। क्योंकि "गङ्गा शब्द जिस तरह तट अर्थ को नहीं समझा सकता, उसी तरह शैत्यपावनत्वादि प्रयोजन को भी नहीं समझा सकता" ऐसी बात नहीं है। प्रयोजनवती लक्षणा के लिए यदि प्रयोजन में भी लक्षणा स्वीकार करेंगे तो अनवस्था-दोष उपस्थित हो जायगा, जो मूल को भी क्षीण कर देगा। यहाँ 'न च शब्दः स्खलद्गतिः, इस कारिकांश का व्याख्यान करते हुए 'शब्दो लाक्षणिकशब्दः, मुख्यार्थबाधादिनरपेक्ष्येणार्थाबोषकत्वं स्खलद्गतित्वम् ।' 'सुबुद्धिमिश्रास्तु 'नन्वत्रापि निरूढलक्षणा (अनादितात्पर्यवती) लक्षणाऽस्त्वित्यत पाह-न च शब्द इति । स्खलन्ती गति: शत्यादेर्शानं यस्यासौ स्खलद्गतिः शत्यादेरबोधको गङ्गादिः। (पृ० ११२) इत्यादि शब्द से दूसरों का व्याख्यान बताकर पश्चात् अपना मत बताया है। इसमें पहले व्याख्यान का सारांश यह हुआ कि 'मुख्यार्थबाध, मुख्यार्थसम्बन्ध और रूढिप्रयोजनान्यतर हेतू' इन तीनों के प्रभाव में भी लाक्षणिक गङ्गाशब्द शैत्यादि प्रर्थ का बोधक है। सद्धि मिश्र जी का कहना है कि शैत्यपावनत्वादिरूपी प्रयोजन व्यङ्ग्य में निरूढा-लक्षणा नहीं हो सकती है क्योंकि गङ्गादि शब्द व्यञ्जना-व्यापार के द्वारा शैत्यपावनादि अर्थ का बोधक है इसलिए शैत्यपावनत्वादि का ज्ञान गंगादि शब्द से सुलभ है। फिर शैत्यपावनत्वादि में लक्षणा किस तरह हो सकती है ? उपाध्यायजी ने 'वयंव विरम्य व्यापारायोगः स्खलदगतिः" ..", नेत्यर्थः' (पृ० ११२) इस शब्द से जब गङ्गादि शब्द तटादिरूपी लक्ष्यार्थ को समझ कर विरत हो गया तब पूनः लक्षणा वृत्ति से शंत्यपावनत्वादि प्रयोजन रूपी अर्थ को किस तरह समझ सकते हैं? इस तरह का भाव बताया है जो कि युक्तिसंगत है। 'शब्दबुद्धिकर्मणां घिरम्य व्यापाराभावः' इस न्याय से लक्षणावृत्ति भी एक शब्द में पुन:पुनः नहीं हो सकती है। यह अभिप्राय सर्वथा युक्तिसंगत ही है। इसी तरह व्यञ्जनावाद को लक्षणा में गतार्थ करने के लिए पूर्वपक्षियों ने गंगादि शब्द में शैत्यपावनत्वादिविशिष्ट तीरादि अर्थ में लक्षणावृत्ति स्वीकार की है। उसका खण्डन करते हुए प्राचार्य मम्मट ने 'प्रयोजनेन सहितं लक्षणीयं न युज्यते' इस कारिकांश से यह प्रतिपादन किया है कि शैत्यपावनत्वादिप्रतीति प्रयोजन अर्थात् फल है और तरप्रतीति कार्य है। जिस तरह नैयायिक वैशेषिकों के मत में विषयप्रत्यक्ष और तदनुव्यवसाय युगपद् नहीं हो सकते। क्योंकि विषयप्रत्यक्ष के अनन्तर ही विषयसंवेदनाख्य अनुव्यवसायात्मक ज्ञान हो सकता है। इसी प्रकार कुमारिल भद्र के मत में विषय प्रत्यक्ष के अनन्तर ही विषयनिष्ठज्ञातता अथवा प्रकटतारूपी फल उत्पन्न होता है। उसी तरह गङ्गा शब्द से तीरप्रतीति होने पर ही शैत्यपावनत्वादि-प्रत्ययरूपी फल हो सकते हैं न कि तीरप्रत्यय और शैत्यपावनत्वादि प्रत्यय युगपद् हो सकते हैं।' कारणकार्यप्रतीति युगपद् नहीं हरा करती है। यहाँ विशिष्टे लक्षणा नवं' यह मम्मट की कारिका है। उसका व्याख्यान उपाध्यायजी ने 'वयं यद्यत Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ नियमद्वयबलाल शैत्यादिविशिष्टे लक्षणा तदा वीरत्वादिविशिष्टेऽपि सा मास्तु, प्राकाशपदाच्छाश्रयत्वादेरिव तीरत्वा. देरपि वृत्ति विनवोक्तनियमद्वयबलादेव भानोपपत्तेरित्यत पाह-विशिष्ट इति तीरत्वादिविशिष्टे इत्यर्थः । एवं नियमयस्वीकार इत्यर्थः, तथा चेष्टापत्तिरेवावेति भावः । (पृ० १२५) इस तरह के व्याख्यान से अपना अभिनव सिद्धान्त उपस्थित किया है । उनका अभिप्राय यह है कि 'यद्धर्मावच्छिन्नतयोपस्थितस्यैव यत्र शक्यसम्बन्धग्रहस्तत्र तद्धर्मप्रकारकएवं शाब्दबोधः, यच्छन्दाभिषाजन्योपस्थितौ यत्र यः प्रकारतया भासते तच्छन्दवृत्तिलक्षणाजन्योपरिथतावपि तत्रस एवेप्ति नियमो वा' इस वाक्य से पहले ही दो नियम दिखाये है पहला नियम-जिस रूप से उपस्थित अर्थ में सङ्कतग्रह होता है उसी रूप से उस अर्थ का शाब्दबोध में भान होता है। उदाहरण-'घटत्वादि रूप से उपस्थित घटादि अर्थ में घटादि पद का सतग्रह होता है। उस घटत्वादि रूप से ही घटादि अर्थ का 'घटोऽस्ति' इत्यादि वाक्यों से होनेवाले शाब्दबोधों में भान होता है।' २. दूसरा नियम-जिस शब्द की अभिधावृत्ति से उपस्थित प्रर्थ में जो धर्मप्रकार होता है वही उस शब्द को लक्षणावृत्ति से जन्य शाब्दबोध में भी प्रकार होता है। जिस तरह गङ्गाशब्द की अभिधा से उपस्थित स्रोतोविशेष अर्थ में स्रोतस्त्व प्रकारीभूत धर्म है। इसलिए गङ्गावृत्ति से होनेवाले शाब्दबोध में भी स्रोतस्त्वरूप से ही स्रोत अर्थ का भान होता है। इस प्रकार के दोनों नियम मान लेने पर शैत्यादिविशिष्ट तीर अर्थ में लक्षणा नहीं मानी जायगी तो तीरत्वविशिष्ट अर्थ में भी लक्षणा मानने की कोई आवश्यकता नहीं है। जिसके लिए इष्टापत्ति है, इत्यादि व्याख्यान अभिनव ही है। तथा अभिधा, तात्पर्याख्या और लक्षणा इन तीनों वृत्तियों से व्यञ्जना को विलक्षण बताते हुए व्यञ्जनावृत्ति का नामान्तर 'तच्च ध्यजन-ध्वनन-द्योतनादिशब्दवाच्यमवश्यमेषितव्यम्' (पृ० १२६) इस अंश से व्यञ्जना का व्यंजन ध्वनन इत्यादि नामकरण बताया है। उस विषय में तथा च प्रतीत्यनुपपत्त्या साधिते वस्तुनि विवादाभावान्नाम तस्य किमपि क्रियतां तत्र नास्माकमाग्रहः (पृ० २३०) इत्यादि से यों बताया है कि व्यङ्ग्यप्रतीति सर्वानुभव सिद्ध है। व्यङग्य की सत्ता का लोप कथमपि सम्भव नहीं है। उसका नाम यदि व्यञ्जना भी करते हैं तो उसमें कोई दोष नहीं है। यहाँ उपाध्यायजी महाराज ने व्यजना में अर्थापत्ति प्रमाण स्वतन्त्र रूप से उपस्थित किया है। उनका अभिप्राय यह है कि "स्वाधीन शब्दप्रयोग होने पर भी प्रवाचक शब्द का क्यों प्रयोग होता है। इसलिए 'गङ्गायां घोषः' इत्यादि वाक्यों में 'गङ्गातटे' इस शब्द की जगह 'गङ्गायां' इस शब्द का प्रयोग किया गया है। एवम् 'भद्रात्मनः इस पद में द्वयर्थक 'कर' प्रादि शब्द का प्रयोग किया है । इसलिए वहाँ शैत्यपावनत्वादि तीरवृत्ति समझने के लिए तथा हस्ती अर्थ एवम् उस अर्थ के साथ प्रस्तुत राजा अर्थ का उपमालङ्कार समझने के लिए वृत्त्यन्तर व्यञ्जना अवश्य माननी चाहिए।" 'तया च न स्वायत्त इत्याद्यर्थापत्तिरेव तत्र मानमपि तु वाच्यलक्ष्यप्रतीतपदार्थानुपपत्तिरूपार्थापत्तिरेव सर्वत्र व्यजनायां मानम् प्रत एवावाच्यार्थधीकृतित्याहेति भाव इति व्याचक्ष्महे ।' (पृ. १३०-३१) इस कथन से वाच्यादि अर्थप्रतीति के अनन्तर प्रतीत व्यंग्य अर्थ के लिए व्यञ्जना-वृत्ति की आवश्यकता है। इसलिए प्राचार्य मम्मट ने 'प्रवाच्याथंघीकृत व्यापृतिरञ्जनम्, इस शब्द से प्रतीयमान अर्थबोधक व्यञ्जनावृत्ति का प्रतिपादन किया है। तथा अनेकार्थक शब्दस्थल में प्रकरणादि से नियन्त्रित अभिधा प्रकान्त आदि अर्थमात्र का प्रतिपादन कर क्षीण हो जाती है। वहाँ अप्रक्रान्तादि द्वितीय अर्थ एवं उसके साथ प्रतीयमान उपमादि अलङ्कार अभिधामूला व्यंजना से ही गम्य हो सकता है। यहां भर्तृहरि की 'संयोगो विप्रयोगश्च' इत्यादि कारिकाएं प्राचार्य मम्मट ने उपस्थित की हैं। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनका व्याख्यान करते हुए अभिधा-नियन्त्रण के विषय में अपना मत स्वतन्त्र प्रदर्शित किया है। यदि अभिधा नियन्त्रण का अभिधाविषयक अग्रह अर्थ करें? तो यह अर्थ संगत नहीं है। कोशादि से द्वितीय अर्थ में अभिधा का ग्रह . हो सकता है और द्वितीय अर्थ में अभिधाग्रहाधीन संस्कार की उत्पत्ति न होना भी नियन्त्रण पदार्थ नहीं कह सकते है। वितीय अर्थ में अभिधाग्रहोत्तर प्रकरणादि का प्रभाव होने पर द्वितीयार्थ में अभिंघाग्रहाधीन संस्कार होने में कोई बाधक नहीं है । इसलिए “मत्र खूमः-अप्रकृताधर्थगोचराभिधाजन्यशाग्दधबोधत्वमेव प्रकरणाविप्रतिबध्यता. बच्छेदकं...' (पृ. १३३) इत्यादि अप्रक्रान्तद्वितीयाद्यर्थविषयक प्रभिधाधीन शाब्दबोध न होना ही अभिधानियन्त्रण है" इस तरह का अभिनव परिष्कार उपाध्यायजी महाराज ने किया है। संयोग आदि शब्दों का छोटे शब्दों में उन्होंने कितना सुन्दर परिष्कार किया है । उदाहरण१. संयोगो-गुणविशेषः। .. २. विप्रयोग:-संयोगध्वंसो विभागो वा । ३. साहचर्यम्-एककालदेशावस्थायित्वम्, एकस्मिन् कार्ये परस्परसापेक्षत्वं वा।' . ४. विरोधिता-बघ्यघातकभावः सहानवस्थानं च' । ५. अर्थः-प्रयोजनम् । ६. 'प्रकरणं-वक्तृश्रोतृबुद्धिस्थता।' ७. लिङ्ग-संयोगातिरिक्तसम्बन्धेन परस्परव्यावर्तको धर्मः।' ८. शब्दस्यान्यस्य संनिधिः-समासाद्यनधीनसमानार्थकताकशब्दान्तरसमभिव्यवहारः । ६. सामर्थ्यम्-कारणता।' १०. 'नौचिती-योग्यता'। १२. 'देशकालो-प्रसिद्धौ'। १३. व्यक्ति:-लिङ्गं पुंस्त्वादि । १३. स्वरावयः- उदात्तादिः इत्यादि । इनका अर्थ स्पष्ट है। पुनश्च-अभिधामूला व्यंजना और श्लेष इन दोनों का भेद 'तस्मादभिधानियामक-संयोगाद्यमावे श्लेषः, तत्सत्त्वे व्यजनेत्येव परमार्थः।' (पृ० १४०) इस वाक्य से इस तरह प्रदर्शित किया है-जहाँ अभिधावृत्ति का नियन्त्रण करनेवाला सयोगादि पदार्थ हैं। वहां द्वितीयार्थबोधक अभिधामूला व्यंजना है और और जहाँ अभिधानियन्त्रण करनेवाले संयोगादि नहीं हैं वहाँ श्लेष मानना चाहिए। १. वाच्य २. लक्ष्य और ३. व्यङ्ग्य ये तीन तरह के अर्थ होते हैं और उनके प्रतिपादक १. वाचक २. लाक्षणिक तथा ३. व्यञ्जक इस प्रकार तीन तरह के शब्द होते हैं। विशेषता यह है कि व्यञ्जक, शब्द की तरह अर्थ भी हो सकता है। उसमें भी त्रिविध अर्थ-वक्ता एवं बोद्धव्य आदि के वैशिष्ट्य से व्यङ्ग्यार्थव्यंजक हो सकता है। किन्तु व्यंग्यार्थप्रतीति, वक्ता आदि के वैशिष्ट्य रहने पर भी प्रतिभाशाली सहृदय विद्वान् को ही हो सकती है। इसलिए प्राचार्य मम्मट ने 'प्रस्तावदेशकालादेवैशिष्ट्यात् प्रतिभाजुषाम् । योऽयस्यान्यार्थीहेतुापारो व्यक्तिरेव सा ॥ (सू० ३७ पृ० १४६) Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ । इस प्रकार प्रसङ्गोत्थान कर वाच्यादि के त्रिविधार्थ का प्रतिपादन करने के लिये 'मर्थव्यञ्जकता-निरूपणात्मक' तृतीय उल्लास का प्रारम्भ किया है । और कहा है कि उक्त कारिका में जो 'प्रतिभाजुषाम्' पद का प्रयोग किया है। वहाँ प्रतिभा शब्द से वासना या नवनवोन्मेषशालिनी प्रज्ञा समझनी चाहिए और व्यक्ति शब्द से व्यञ्जना-वृत्ति समझनी चाहिए। अभिप्राय यह है कि जहां वक्ता, बोद्धव्य आदि का वैशिष्ट्यरूपी सहकारीकारण विद्यमान होता है वहीं प्रतिभावान व्यक्तियों को व्यङ्ग्यार्थप्रतीति हुआ करती है। इसलिए अर्थमात्र व्यञ्जक होने पर भी सभी स्थलों में सभी को व्यङ्ग्यार्थ-प्रतीति की आपत्ति नहीं होती है। इसलिये व्यङ्यानुमेयवादी शकुक और महिमभट्ट प्रादि का मत भी ठीक नहीं है। उनके मत में व्यङ्ग्य वस्तु, अलंकार और रसादि को अनुमेय स्वीकृत करने पर व्यङ ग्यार्थ प्रतीति के लिए कारणरूप से व्याप्तिज्ञान अपेक्षित होगा उसके विलम्ब से व्यङ्ग्यप्रतीति का विलम्ब स्वाभाविक हो जाए; किन्तु व्यङ्गयार्थ के साथ किसी भी अर्थ का साहचर्यग्रह आदि के प्रभाव में भी प्रतिभावानों को व्यङ्गयार्थप्रतीति देखी जाती है । इसलिए व्यङग्यों को अनुमेय मानकर व्यञ्जनावाद का खण्डन करना निरी मूर्खता ही है । इसी वस्तु को उपाध्यायजी महाराज ने 'तथा च वक्तवैशिष्ट्यादिज्ञानोत्थापितप्रतिमायामेव सत्यां व्यङग्यप्रतीतिः न तु व्याप्त्यादिज्ञानविलम्बे न विलम्ब इति नानुमानेनान्यथासिद्धिय॑जनाया इति भावः' (पृ० १४६) इस कथन द्वारा अनुमितिवाद से व्यञ्जनावाद को पृथक् बताते हुए व्यञ्जनाबाद में व्याप्तिज्ञान की निरपेक्षता और अनुमितिवाद में उसकी अपेक्षा दिखाई है। वक्तृबोद्धव्यकाकूनां' इस कारिका में 'वक्तृ' शब्द से कवि अथवा कविनिबद्ध नायक प्रभति समझना चाहिए । 'बोद्धव्य' पद से बोधनीय पुरुष अथवा स्त्री समझनी चाहिये । 'काकु' शब्द से ध्वनिविकार का बोध होता है। 'प्रस्ताव' शब्द से प्रकरण, 'देश' शब्द से विजनवन, 'काल' शब्द से वसन्त प्रादि ऋतु की चेष्टा समझनी चाहिए। 'वाक्य' शब्द से साकाङक्ष्य पदसमूह और 'वाच्य' शब्द से शक्या समझना चाहिए। कविराज विश्वनाथ ने भी 'सवासनानां नाट्यादी रसस्यानुभवो भवेत् । निर्वासनास्तु रङ्गान्तर्वेश्मकुड्याश्मसंनिभाः ॥ (साहित्यदर्पण) इस पद्य से प्रतिभावानों को ही व्यङ्यार्थास्वाद का सौभाग्य बताया है। उनके मत में भी प्रतिभारूपी वासना से शुन्य पुरुष नाट्यशाला में बैठे रहने पर भी वे वहाँ के खम्भे आदि के समान रसास्वाद के अधिकारी नहीं वक्ता के वैशिष्ट्य अर्थात् वैलक्षण्य से वाक्यार्थ व्यङ्ग्यव्यंजक होता है। उसका उदाहरण प्रतिपृथुलं जलकुम्भं गृहीत्वा समागताऽस्मि सखि | त्वरितम् । श्रमस्वेदसलिलनिःश्वासनिस्सहा विश्राम्यामि क्षणम् ॥ यह पद्य है । , यहां वक्त्री कामिनी का दुःशीलरूपी वलक्षण्य सामाजिकों को पहले से ज्ञात होने के कारण उनके लिए उस पद्य से चोरी की गई रति का गोपन व्यङ्गय होता है। यहाँ उपाध्याय जी महाराज ने 'प्रत्र जलपदं जलपूर्ण लाक्षरिएकं, गृहीत्वेति पदं स्वयमेवोत्थाप्य गृहीतत्वरूपान्तरसंक्रमितवाच्यमिति..."। (पृ० १५१) इत्यादि शब्द से "अकेली जलपर्ण घडे को उठाकर लाने से ही परिश्रम अधिक हा है और परिश्रम अधिक होने से लम्बी सांसे चल रही हैं। इस तरह का लक्ष्यार्थ भी चौर्यरत-गोपनरूपी व्यङ्ग्य अर्थ का व्यञ्जक है ऐसा स्वीकार किया है। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ उसी तरह 'तथा तद्व्यङ्ग्ययोतुं वहत्वायासातिशययोरपि व्यञ्जकत्वमाकलनीयम्' इस शब्द से अकेली होकर' इतने बड़े जल से भरे घड़े को उठाना बहुत बड़ा प्रायास है इस तरह का व्यङ्ग्य भी चौर्यरतगोपनरूपी व्यङ्ग्यान्तर का व्यञ्जक हो सकता है। यहाँ एक ही उदाहरण में १. 'वाच्यार्थघटित वाक्यार्थ, २. लक्ष्यार्थ प्रौर ३. ध्याइग्यार्थ ये तीनों अर्थ व्यंजक है ऐसा बताकर अपनी पूर्ण प्रतिभा का परिचय दिया है। इसी तरह बोद्धव्यवैलक्षण्य से वाच्यार्थ व्यङ्ग्यार्थव्यंजक होता है। उदाहरण"प्रौन्निाप दौर्बल्यं .....॥ (पृ० १५२) इत्यादि है। यहाँ पर बोद्धव्या को कालान्तरावगत दुःशीलरूपी अपराधवाली घोषित किया है। इसलिए बोद्धव्या दुःशीला दूती उस नायिका ने कामुक से उपभोग-कार्यसम्पादन किया है इस तरह का व्यङ्ग्य होता है। .. यहाँ उपाध्यायजी ने "अत्र मम कृते इत्यस्य विपरीतलक्षणया स्वकृत इति मन्दागिन्या इत्यस्य माग्ववत्या इत्यर्थ लक्ष्यस्य व्यञ्जकत्वम, कामकोपभोगेन दतीकामकयोरपराषध्यञ्जने व्यङग्यस्यापि व्यजकत्वमाकलनीयम् ।' (पृ० १५२) इस शब्द से 'मम कृते' शब्द का अपने लिए 'मन्दमागिन्या:' शब्द का भाग्यवती लक्ष्यार्थ तथा 'स्वकामुकोपमोग' ये दोनों मिलकर दूती एवं स्वकामुक का अपराधरूपी व्यङ ग्यान्तर का व्यंजन कर सकते हैं। यहां पर भी त्रिविध अर्थों में व्यङ्ग्यव्यञ्जकता उपाध्याय जी ने स्पष्ट की है। काकुवैलक्षण्य से व्यङ्ग्यार्थप्रतीति का उदाहरण तथाभूतां दृष्ट्वा नृपसदसि पाञ्चालतनयां० (पृ. १५२) इत्यादि यह पद्य है। यह पद्य 'वेणीसंहार' नाटक से प्राचार्य मम्मट ने उद्धृत किया है । भाव यह है कि "भरी हुई राजसभा में रजस्वला अवस्था में भी द्रुपद जैसे राजा की सुपुत्री द्रौपदी के बालों को पकड़ कर दुःशासन खींच रहा है और द्रौपदी व्याकुल होकर प्रतीकार करने के लिए हम लोगों का मुंह देख रही है । इस तरह की कातराक्षी द्रौपदी को देख कर भी, जङ्गल के बीच वल्कलधारी व्याधों के साथ निवास करके भी, विराट् राजा के घर रसोइया प्रादि का निकृष्ट कर्म सम्पादन कर किसी तरह गुप्तावास का समय व्यतीत कर के भी बड़े भाई युधिष्ठिर महाराज, उन दुर्योधन आदि कौरवों के प्रति क्रोध नहीं प्रकट करते हैं । केवल मेरे ऊपर ही क्रोध करना जानते हैं।" यह उक्ति भीम की है। यहां 'नाद्यापि' इस शब्द में नर की जगह काकु है । इसलिए उस काकु के द्वारा 'मुझ पर क्रोध करना ठीक नहीं है। प्रत्युत उन दुर्योधन प्रादि कौरवों के प्रति ही क्रोध करना समुचित हैं। इस तरह का व्यङ्ग्य प्रतीत होता है। यह उदाहरण ध्वनिकाव्य का है न कि गुरणीभूतव्यङ्ग्य (मध्यम काव्य) का । इस बात की प्रासङ्गिक चर्चा करते हुए स्वयम् प्राचार्य मम्मट ने यह सिद्धान्त प्रदर्शित किया है कि 'जहाँ व्यङ्ग्यार्थक्षेप से ही वाच्यार्थप्रतीति उपपन्न हो वहां वाच्यसिद्धयङ्गव्यङ्ग्य नाम का गुणीभूत अर्थात् मध्यम काव्य माना जाता है और उदाहरण Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्नामि कोरवशतं समरे न कोपात्, दुःशासनस्य रुधिरं न पिबाम्युरस्तः। सञ्चूर्णयामि गदया न सुयोधनोरू, सन्धि करोतु भवतां नृपतिः पणेन । यह दिया है। यह पद्य दुर्योधन आदि अशेष कौरवों के क्षय की प्रतिज्ञा किए हुए भीम की उक्ति है। यहाँ पर अशेष कौरवविनाश की प्रतिज्ञा करनेवाले भीम की 'न मथ्नामि' यह उक्ति प्रसङ्गत-सी है। इसलिए 'न मनामि' यहाँ पर काकु के द्वारा 'अवश्य मथन करता है ऐसा व्यङ्गय अर्थ निकाल कर वाच्यार्थ की उपपत्ति की जाती है। यहाँ काकुव्यङ्ग्य 'अवश्य मथन करता हूँ' यह वाच्यार्थ साधक होने के कारण गुणीभूतव्यङ्ग्य का उदाहरण हो जाता है। 'तथाभूतां दृष्ट्वा' पद्य में 'गुरुः प्रचापि खेदं न भजति ?' इस तरह का प्रश्नवाक्य उपस्थित कर के ही काकु, वाच्य सिद्धि का प्रङ्ग हो सकता है न कि स्वतः । इसलिए इसे गुरणीभूतव्यङ्ग्य अर्थात् मध्यमकाल नहीं कह सकते हैं। यहां पर 'सहदेव! गुरुः खेदं मयि जानातीति प्रश्नोपक्रमे श्लोकावतारादत्रापि किमिति गुरुर्मयि खेदं भजति न कुरुध्विति प्रश्नपरत्वे काक्वा ग्राहिते प्रकृतवाक्यार्थादेव' (पृ० १५७) इत्यादि शब्दों से 'मधुमती' काव्यप्रकाशटीकाकार, रवि प्राचार्य, सुबुद्धिमिश्र तथा गोविन्दठक्कुर प्रभृति का मतखण्डन करते हुए 'वयं तु दयितं दृष्ट्वा लज्जा ते ललने [इत्यत्र] पयिर्तववनस्य लज्जाकारणत्वावगमवत्" इति भावः ।' (पृ० १५३) इस ग्रन्थ से स्वमत-प्रदर्शन किया है। उसका सार यह है कि 'दयित दृष्ट्वा लज्जा ते ललने !' यहाँ भले ही दयितदर्शन लज्जा का कारण हो सकता है। लेकिन 'तयाभूतां दृष्ट्वा ' इस स्थल में ताश द्रौपदी का दर्शन भीम के ऊपर होनेवाले क्रोध का हेतु है न कि दुर्योधन आदि कौरवों के ऊपर होनेवाले क्रोध का हेतु है। इस तरह का अर्थ अयोग्य होने के कारण ताश द्रौपदी का दर्शन भीम के प्रति किए जाने वाले क्रोध का हेतु नहीं है अपितु वह कौरवों के प्रति होनेवाले क्रोध का हेतु है यही प्रर्थ पर्यवसित होता है। 'मयिन योग्यः खेवः' इस व्यङ्ग्य का 'मुझ पर होनेवाले क्रोध का हेतु तादृश द्रौपदी का दर्शन यह ठीक नहीं है अपितु कौरवों के प्रति होनेवाले क्रोध का ही हेतु होने योग्य है' ऐसा अभिप्राय लगना चाहिए। यह अर्थ काक से गम्य होता है। इसलिए यह अर्थ 'काकुव्यङ्य' है न कि उसका व्यञ्जक कोई वाच्यार्थ है। तब यह किस तरह अर्थव्यञ्जकता का उदाहरण हो सकता है ? यह आशङ्का 'न च वाच्यसिद्धपङ्गमत्र काकु:' इस शब्द से प्रदर्शित की है। प्रागे जाकर 'भ्रातरं दृष्ट्वायं लज्जते न श्वसुरम्' इस वाक्य को सुनकर 'कुतः' यह प्रश्नवाक्य उपस्थित होने पर 'श्वसुर को देखकर लजाती है न कि भाई को देखकर लजाती है यह व्यङ्ग्य अर्थ जिस तरह वहाँ प्रतीत है उसी तरह यहाँ भी मझ पर क्रोध करना ठीक नहीं है अपितु कौरवों के प्रति क्रोध करना ही ठीक है' यह अर्थ व्यङ्ग्य होता है। इस इस अर्थ का व्यजक प्रथम अर्थ को मानना पड़ेगा, इस तरह समाधान किया है। यहाँ इनकी विचारधारा मधुमती. कार, सुबुद्धिमिश्र, गोविन्द ठक्कुर प्रभृति टीकाकारों की विचारधारा से सर्वथा स्वतन्त्र प्रतीत होती है। द्रष्टव्य (पृष्ठ १५२ से १५६) . उपाध्यायजी की यह एक और विशेषता है कि ये "जब तक प्रत्येक शब्द का अभिप्रेत अर्थ न प्रतीत हो तबतक आगे बढ़कर गहराई की ओर जाना चाहिए" ऐसा सङ्कत पल-पल में करते दिखाई देते हैं। इसलिए कहीं कहीं शब्दखण्ड की तथा नैयायिक, वैशेषिक नियमों की चर्चा भी इन्होंने की है। जो कि आज के मृद्धिशाली विद्यार्थियों के लिए उतनी मावश्यक नहीं होगी। तथापि रहस्यजिज्ञासुओं के लिए इनका विचार अवश्य प्रमोद बढ़ाने वाला होगा। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ जिस तरह नायिका के कटाक्ष भले ही बालकों के लिए प्रमोदावह न हों, लेकिन युवकों के लिए वे अवश्य प्रमोददायी होते हैं। न्यायशास्त्र की सतत चर्चा करने से श्री उपाध्यायजी की बुद्धि भी ऐसी कुशाग्र हो गई थी कि जिससे प्रत्येक स्थल में स्वतन्त्र और गम्भीर विचार करना उनके लिए हस्तामलक जैसा हो गया था। 'तथाभूतां दृष्ट्वा' इस श्लोक में भी 'पत्र प्रश्नरूपव्यङ्ग्यस्य व्यञ्जकत्वे व्यङ्ग्यार्थव्यञ्जनोदाहरणमपीदम्, मयीत्यस्य निरपरावे कूरुष्वित्यस्य सापराधेष्विति लक्षरण्या पदार्थ लक्ष्यस्यापि व्यञ्जकत्वं बोध्यम् ।' (प०१६०) इस कथन से निरपराध मैं और सापराध कौरव के अर्थ को लक्षणा के द्वारा प्रकट करने के कारण दोनों पदों को प्रर्थान्तर में संक्रमित बताते हुए पदार्थ में लक्ष्यार्थ-व्यञ्जकता का भी उदाहरण होने की सम्भावना की है। इसी प्रकार वाक्यवैशिष्ट्य' में व्यञ्जना का उदाहरण तइया' इत्यादि गाथा और 'वाच्यवैशिष्ट्य' में व्यञ्जना का उदाहरण उद्देशोऽय' इत्यादि पद्य को व्याख्याओं में श्रीउपाध्यायजी ने विषय को स्पष्ट करने का पूरा प्रयत्न किया है। 'गोल्लेइ प्रपोल्लमरणा' इत्यादि 'अन्यसन्निधि के वैशिष्ट्य' में दिये गये व्यञ्जना के उदाहरण पर संक्षिप्त किन्तु मार्मिक उद्भावना की गई है (द्रष्टव्य-पृ० १६३) । देशवैशिष्ट्य एवं कालवैशिष्ट्य में दिये गये व्यञ्जना के उदाहरणों पर बड़ी ही उत्तम पद्धति से विषय के अन्तरङ्ग तत्वों को प्रस्फुटित करते हुए व्याकरण-शास्त्र के पाण्डित्य की भलक प्रस्तुत की गई है। (पृ० १६४-६५) । प्रादि पद से ग्राह्य चेष्टा के व्यञ्जकत्व का उदाहरण 'द्वारोपान्तनिरन्तरे' इत्यादि पद्य भी टीकाकार की पालोचना का विषय बना है। इसकी व्याख्या में 'इति कश्चितू' और 'इत्यन्ये' कथन के द्वारा अन्य टीकाकारों का अभिप्राय उपस्थापित करके 'वयं तु-प्रोल्लास्पेत्यनेन त्वदागमनेन ममोल्लासो जातः' यहाँ से प्रारम्भ कर 'तेन च मरणशपथस्तव यदि न समागम्यते भवतेति व्यज्यते- इति पश्यामः' इस व्याख्यांश (पृ. १६८) द्वारा स्वयं का अभिमत प्रदर्शित किया है। इसी प्रकार प्रार्थी व्यञ्जना में शब्द की सहकारिता के प्रतिपादन को लक्ष्य में रखकर भी उपाध्यायजी ने मधमतीकार एवं परमानन्द प्रादि टीकाकारों का मत उपस्थित किया है । तथा अन्त में "घयतनन् यद्यत्र शब्दस्य न व्यजकत्वं तदा" (पृ.१७३) इत्यादि से प्रारम्भ कर "इति व्याचक्ष्महे" (पृ.१७४) तक अपना मन्तव्य प्रस्तुत किया है। टीकाकार का दायित्व-निर्वाह उपर्युक्त पर्यालोचन से एक बात भली भाँति स्पष्ट हो जाती है कि उपाध्यायजी में वे सभी गुण विद्यमान जो कि एक अच्छे टीकाकार में अपेक्षित होते हैं। "विषय का ज्ञान, समझाने की क्षमता, भाषा पर पूर्णाधिकार, गवेषणात्मक दृष्टि, नई सूझ-बूझ,, सत्य के प्रति पक्षपात, ग्रन्थकार के प्रति प्रास्था, मालोचना में स्पष्टवादिता और कर्तव्य के प्रति जागरूकता" जैसे सभी गुणों का सन्निनेश उपाध्यायजी की इस टीका में सहज परिलक्षित हो जाता है और उपर्यक्त विशद-विवेचन इन गुणों के साक्षित्व के लिए सदा उपस्थित-सा प्रतीत होता है। इन्हीं के आधार पर श्रीमद उपाध्याय जी महाराज ने अपने दायित्व का समुचित निर्वाह भी किया है जिसे हम संक्षेप में उक्त रूप में परिज्ञात कर सकते हैं। टीका को विशेषताएं और प्रस्तुत टोका टीका-निर्माण का भी एक स्वतन्त्र शास्त्र है। प्रत्येक विद्वान् इस कार्य में सफल भी नहीं होता। ग्रन्थावगम मात्र के लिये लिखी जानेवाली 'टोक्यते गम्यते ग्रन्थार्थोऽनया' की पूरक टीकाएं तो सर्वसाधारण रूप से लिखी जाती ही हैं। किन्तु 'टीका गुरूणां गुरुः' की उक्ति को चरितार्थ करनेवाली टीकामों का महत्त्व अधिक है। उनकी Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीकाओं की समाज के लिये उपयोगिता ही क्या हो सकती है ? जो कि - दुर्योधं यवती तद् विजहति स्पष्टार्थमित्युक्तिभि:, स्पष्टार्थेष्वतिविस्तृति विवधति व्यर्थः समासादिकैः । प्रस्थानेऽनुपयोगिभिश्च बहुभिर्जल्पे प्रेमं तन्वते, श्रोतॄणामिति वस्तुविप्लवकृतः प्रायेण टीकाकृतः ॥' दुर्बोध्य अंश को स्पष्टार्थ कहकर छोड़ देते हैं, स्पष्टार्थ वाले अंशों को व्यर्थ के समासादि देकर फैला देते तथा प्रस्थान पर ही अनावश्यक कथन द्वारा भ्रम उत्पन्न कर देते हैं । अधिकांश टीकाओं में (चाहे उनका नाम कोई भी - भाष्यादि दिया गया हो ) निम्नलिखित पाँच बातें वश्य होती हैं जो कि व्याख्यान के लक्षण के रूप में स्वीकृत हैं -१३५ पदच्छेदः पार्थोक्तििवग्रहो वाक्ययोजना । प्राोपस्य समाधानं व्याख्यानं पञ्चलक्षरणम् ॥ इसी प्रकार टीका - रचना के प्रमुख तत्वों के बारे में अनेक टीकाकारों ने ऐसे ही और भी महत्त्वपूर्ण कथन किये हैं, जिनमें नौर - उदाहरणवर्षरणीमुचित भावनिष्कर्षिणी मशेष रस पोषिणीमखिलसूरि सन्तोषिणीम् । सकि बन्ध: इलाग्यो व्रजति शिथिलीभावमसकृद्, विचारेणाक्षिप्तो ननु भवति टीकाऽपि किमु सा । न या ग्रन्थग्रन्थिप्रकटनपटुः किन्तु तववो, द्वयं युक्तं कर्तुं प्रभवतितरां कुम्मनृपतिः ॥ ३ उदाहरण प्रस्तुति, भाव- निष्कर्षण, रसपोषण, विद्वत्तोषण तथा ग्रन्थ- ग्रन्थि- श्लथन पूर्वक तथ्य-पुरस्सरण का पूरा प्रयास अपेक्षित माना गया है । टीका पाण्डित्य और मेघा की प्रदभुत परिचायिका होती है । " शब्दज्ञान, प्रसङ्गानुकूल अर्थसंयोजना, पथ की सम्यग्धारणा, युक्तियुक्त प्रतिष्ठापना, गूढ़-गुत्थियों - शंकाधों का निराकरण, प्रचलित पाठभेदों का सन्निवेश, मूल के साथ सङ्गति, विशिष्ट स्थलों की तर्कयुक्त व्याख्या, प्राप्त एवं मान्य ग्रन्थों के उद्धरण द्वारा भर्थ की पुष्टि एवं मार्मिक शों का विश्लेषण" ये टीकाकार की सम्पदाएँ हैं जो कि उसके श्रम को सार्थक और यशस्वी बनाने में सहायक होती हैं । काव्यप्रकाश की प्रस्तुत टीका यद्यपि कुछ अंश पर ही प्राप्त है, तथापि टीकाकार श्रीउपाध्यायजी महाराज ने इसमें उपर्युक्त सम्पदानों का यथावसर पूरी प्रतिभा के साथ समावेश किया है। सत्रहवीं शती में जब यह टीका लिखी १. भोजराजकृत 'पातञ्जलयोगसूत्र' की राजवार्तिक व्याख्या, प्रारम्भांश । २. सुमतीन्द्रयति कृत 'उषाहरण - काव्य-टीका' का प्रारम्भांश । ३. महाकवि जयदेव रचित 'गीत-गोविन्द' की टीका, प्रारम्भ भाग । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 958 जारही थी उस समय उनके समक्ष काव्य-प्रकाश पर लगभग २५ से ३० टोकाएं बन चुकी थीं। स्वय उपाध्यायजी ने छह टीकाकारों का नामतः उल्लेख किया है जिनका प्रासङ्गिक परिचय इस प्रकार है प्रथम और सबसे प्राचीन टीकाकार महामहोपाध्याय 'चण्डीदास' (१२७० ई०) हैं। इनका स्मरणदो-बार हा है। पहला प्रसंग है 'यहच्छात्मक उपाधि का व्याख्यान'। यहाँ म०म० चण्डीदास द्वारा अपनी टीका में 'डित्यादि शब्दानामन्त्यबुद्धिनि हाम्' इत्यादि वृत्ति का जो व्याख्यान किया गया है, उसके बारे में पू० उपाध्यायजी ने दो बातें कही हैं । १. 'चण्डीदासजी का यह मत युक्ति युक्त नहीं है और दूसरी है, २. मम्मट के ग्रन्थ से विरुद्ध होना। (देखिये पृ. ३६) । इसी प्रकार दूसरा प्रसंग है लक्षणा का। जहाँ 'गोर्वाहीकः' इस उदाहरण में उठाये गये गौणी लक्षणा के दो भेद ही क्यों माने गये ?' इस प्रश्न के उत्तर में चण्डीदासजी का विचार प्रस्तुत किया गया है, जिनमें लक्षणा तेन षविषा' इन (सूत्र १७) की संगति बिठाई है और वहाँ स्वयं कुछ न कहते हुए उपाध्यायजी ने प्रदीपकार द्वारा किया गया खण्डन ही उपस्थापित कर दिया है। (द० पृ०६७) दूसरे टीकाकार प्रायः इसी काल के निकटवर्ती सुबुद्धिमिश्र का स्मरण हुआ है। श्रीमिश्र को टीका का नाम 'तत्वपरीक्षा' कहा जाता है। पू० उपाध्याय जी ने अपनी टीका में ग्यारह स्थलों पर इनका नाम-निर्देश किया है तथा कहीं-कहीं 'मिश्राः' कहकर ही सूचना किया है । व्यङ्गयार्थ के व्यञ्जकत्व के उदाहरण प्रसंग में 'पश्य निश्चल नि:स्पन्दा' इस आर्या की व्याख्या इन्होंने किस प्रकार की है, यह दिखाया है, (पृ० २३) किन्तु इस पर टीकाकार ने अपनी कोई टिप्पणी नहीं दी है जबकि संहृतक्रम की व्याख्या (पृ० ३६) में कुछ स्पष्टीकरण भी दिया है। गौरनुबन्ध्यः में निरुद्धा लक्षणा मान सकते हैं अथवा नहीं? इस प्रसंग में सुबुद्धिमिश्र के द्वारा किये गये फक्किकार्थ की चर्चा है तथा उसके सम्बन्ध में अपना वितर्क भी प्रस्तुत किया है। (पृ०६६) इसी प्रकार भट्टमत के सम्बन्ध में इनके द्वारा किया गया व्याख्यान (१० ६६) 'परामिधाने' इसके अर्थ में, (पृ० ८५) वहीं व्याख्यान की आलोचना में, 'न च शम्दः' को अवतरणिका में (पृ० ११२), 'गङ्गायां घोषः' से सम्बद्ध 'नापि गङ्गाशब्दः' इत्यादि की व्याख्या में, पृ० ११४), विशिष्ट में लक्षणा माननेवालों के मत का खण्डन करने के अवसर पर, (पृ० ११८), 'न काव्ये स्वरो विशेषप्रतीतिकृत' के स्पष्टीकरण में (पृ०१३७) तथा काकु के वैशिष्ट्य में व्यञ्जना के उदाहरण--'तमामूतां दृष्ट्वा' इत्यादि पद्य के व्याख्यान (१०१५५) में सुबुद्धि मिश्र का उल्लेख हुया है। एक दो स्थानों पर जो केवल 'मिश्र' का उल्लेख है उसके सम्बन्ध में एक प्राशंका यह भी की जा सकती है कि ये 'रुचिकर मिश्र' अथवा 'रुचिमिश्र' रहे हों। का तीसरे टीकाकार श्री परमानन्द चक्रवर्ती भट्टाचार्य हैं। ये गौडीय न्याय नय-प्रवीण थे और इनकी टीका को नाम 'विस्तारिका' है । उपाध्याय जी के प्रिय विषय के प्रतिपादक होने से उन्होंने अपनी टीका में पांचवार इनका स्मरण किया है। जिनमें सर्वप्रथम 'सर्वेषां प्रायशोऽर्थानां० इत्यादि वें सूत्र की रचना काव्य लक्षण में प्रयुक्त 'सगुणो' पद के लिये ताल-मेल बिठाने के लिये हुई है' इस बात को पुष्ट करने के लिए इति परमानन्दप्रभृतयः कहकर स्मरण किया गया है (पृ०१५) आगे 'अपभ्रंश-शब्दानां वाचक-लाक्षणिकत्व-व्यवहाराभावेन शक्तिलक्षणयोरमावेन व्यानव बसिरति, परमातन्वः' (पृ० ३०-१) ऐसा उल्लेख करके इनके मत का खण्डन किया है। इसी प्रकार 'वृत्त्यन्यतर के द्वारा होनेवाले बोध में विरामदोष नहीं लग सकता' इस बात की पुष्टि में पृ० १२६ पर एवं १० १४४ में 'तयक्तो व्याचक: शब्दः' (सू० ११) की व्याख्या के प्रसंग में इनका स्मरण किया है । प्रर्थस्य ज्यञ्जकत्वे तब (प० १७२) इत्यादि (सूत्र २४) के कारिकांश की व्याख्या में केवल अर्थ व्यजक नहीं मानने का स्पष्टीकरण भी इनके और इनके प्रनयायी अन्य प्राचार्यों के मत की प्रस्थापना के रूप में हमाहा . Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार किये गये स्मरणों में भी एक स्थान पर खण्डन के समय केवल 'परमानन्दः', मण्डन के समय 'परमानन्द चक्रवतिनः' और अन्यत्र तीन स्थलों पर 'परमानन्दप्रभृतयः' लिखकर मौचित्य का निर्वाह किया है। चौथे टीकाकार यशोधर उपाध्याय हैं। इनका स्मरण क्रमशः 'एवमादो च कार्यकारणभावादिः' इत्यादि वृत्ति (पृ. ८६) के प्रसंग में इनके द्वारा दिये गये अभिमत के उल्लेख तथा वहीं आगे (पृ० ६२) में व्यञ्जना मानने के लिये उपस्थापित मत में दर्शनीय है। पांचवें टीकाकार 'प्रदीपकृत्' के रूप में उल्लिखित हैं। प्रदीपकृत् से यहाँ तात्पर्य है 'काव्य-प्रदीप' टीकाकार म०म०गोविन्द ठक्कुर । ये टीकाकार अच्छे नैयायिक थे अत: इनके प्रति पू० उपाध्यायजी का झुकाव भी अधिक रहा है । प्रस्तुत टीका में इनका नौ बार स्मरण हुआ है। सर्वप्रथम 'तात्पर्यार्थोऽपि केषुचित्' के अर्थ-प्रसंग में इनका अभिमत दिया है । (पृ. १२) इसके अतिरिक्त क्रमश: 'साक्षादित्यभिधानक्रियान्वितं' इत्यादि से 'साक्षात् सङकेतितं (सू० ६) की वृत्ति के प्रसंग में (पृ० २८), 'गङ्गासम्बन्धमात्र.' इत्यादि वृत्ति के सम्बन्ध में (पृ० ७७), 'लक्षरणा तेन षड्विधा' के व्याख्यान में (पृ. ६७), 'न च शब्दः स्खलद्गतिः' (सू० २६) के तात्पर्य प्रकाशन में, 'मभिधामूला' व्यञ्जना के प्रसंग में 'सन्निधि' का लक्षण प्रस्तुत करते हुए (पृ० १३३), 'न काव्ये' इस प्रतीक के आगे 'बाहुल्येन' पद का शेष मानने के बारे में (पृ. १३६), 'पर्थाः प्रोक्ताः पुरा तेषाम्' (सू० ३५) की व्याख्या में और 'काकु व्यङ्ग्य से वाच्य की सिद्धि' के अवसर पर इनकी टीका के अंश देकर कहीं स्वकीय विचारों की पुष्टि और कहीं अन्य प्राचार्यों द्वारा की गई मालोचना के उपस्थान में 'प्रदीपकृतः' पद से उद्धृत किया है। ___ छठे टीकाकार 'मधुमतीकार' श्री रविटक्कुर सत्रहवीं शती के प्रारम्भिक चरण में हुए हैं। इनका श्री उपाध्यायजी ने पांच स्थलों पर उल्लेख किया है। सर्वप्रथम 'न वा रूढिरियम्' की व्याख्या का उपस्थापन करके इनका अभिमत दिया है (पृ०६७)। उपचार की व्याख्या में मधुमतीकार ने मम्मट की कारिका का जिस प्रकार का व्याख्यान किया है उसे प्रस्तुत कर उसकी समीचीनता पर इन्होंने अपना मत दिया है (पृ०७९-८०)। ज्ञानस्य विषयो झन्थः (सू० २६) की कारिका-'प्रत्यक्षादेन लादिविषयः' में प्रयुक्त प्रत्यक्ष शब्द का अर्थ मधुमतीकार की सम्मति में 'इन्द्रिय बोधक' है' यह व्यक्त करने में (पृ० ११९) काव्यवैशिष्ट्य में, व्यञ्जना के उदाहरण 'तथाभूतां दृष्ट्वा' के प्रसंग में तथा तृतीय उल्लास के अन्त में प्रार्थीव्यंजना में शब्द की सहकारिता का प्रतिपादन करते हुए भी इनका स्मरण हया है। (पृ० १५५ तथा १७२)। ___ इन छह टीकाकारों के प्रतिरिक्त दूसरे उल्लास के अन्त में 'नसिंहमनीषायाः' इतना लिखा हुआ है किन्तु पाण्डुलिपि में इसके आगे का अंश खण्डित है, अतः यह नहीं कहा जा सकता कि म०म० नरसिंह टक्कुर के प्रति इनके क्या विचार थे? अन्य आचार्य एवं कृतियों के उल्लेख तुलना, वैचारिक पुष्टि एवं स्वमत प्रतिपादन के लिये प्रत्येक टीकाकार अपने से पूर्ववर्ती प्राचार्यों एवं उनके ग्रन्थों को अपनी टीका में उद्धृत करता है। इसी के अनुसार उपाध्यायजी महाराज ने भी इन दो उल्लासों की टीका में निम्नलिखित प्राचार्य एवं ग्रन्थादि के मत, व्याख्यांश अथवा उनके अभिमतों पर स्वयं के विचार दिये हैं Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ प्राचार्य नाम एवं ग्रन्थ उद्धरण स्थान १. मणिकार - ( चिन्तामणिकार श्री गङ्गेग उपाध्याय) पृ० ५७ तथा ६२ २. पार्थसारथि मिश्र - ( मीमांसादर्शन के प्रतिपादक एवं ग्रन्थकार) पृ० ६५ ३. महाभाष्यकार - ( व्याकरण महाभाष्यकार पतंजलि ) पृ० ४४, ४६ ४. मण्डनमिश्र - (कुमारिल भट्टानुयायी, मीमांसक तथा ग्रन्थकार) पृ० ४६, ६५ ५. मट्टम - ( मीमांसक कुमारिल भट्ट) पृ० ५०, ५३, ६९, ७१, ११८ तथा १२९ ६. मीमांसकमत - पृ० ३४, ४५ ६५ तथा ६६ ७. गुरुमय- ( मीमांसक प्रभाकर मिश्र) पृ० १०, ४६ तथा ७० ८. म्याथमत, न्यायादिनय तथा ९. नैयायिकमत - पृ० १०, २१, ३४, ३६, ५२, ५०, ११८, १४२ । १०. नव्य - पृ० ८७ तथा १२ ११. वाक्यपदीय - (भर्तृहरि विरचित) पृ० ३६, १२. बालङ्कारिक - पृ० ३१, १३. जव: - ( प्रभाकर मिश्र की 'बृहती' पर 'ऋजुविमला' टीका) पृ० १८ १४. वैशेषिकमत - (वैशेषिक दर्शन सम्मत करणाव मत) पृ० ४२ १५. वैनाशिकादिमत भौर वैभाषिक मत - - (शून्यवादी बौद्धों का मत ) पू. ४६ इनके अतिरिक्त कुछ स्थानों पर अन्य प्राचार्य 'इसि निबन्धारः पृ. १३८, प्राञ्चः ' तथा प्राचीनमते' पृ० - ३१, ५३, ११८, १४० तथा १५८, 'वृतिकृता' पृ० २१ एवं ' ग्रन्थकार' पृ० २६, ५८ तथा ६३ में संस्मृत हैं । कहींकहीं 'सर्वेषाम' पृ० १३, 'केचित्' पृ० २८, ७१,११५, १३५ तथा १५४, अन्ये तु' पू. ११३, १५२ और १६७, इतरे' पू० १५६, 'कश्चित् पृ० ६७, १६७ 'बहव:' ६५ मोर 'ववचित्' पृ० १६० १७० पदों के द्वारा भी प्रन्यान्य विद्वानों के अभिमत उपस्थापित हुए हैं जो कि टीका के महत्त्व की अभिवृद्धि में पूर्णरूपेण सहयोगी बने हैं । पू० उपाध्यायजी द्वारा दिये गये अपने अभिमत किसी विषय विशेष का खण्डन, मण्डन श्रथवा श्रालोचन कर देना ही टीकाकार के लिये पर्याप्त नहीं होता है, क्योंकि दोषदर्शन में पटु व्यक्ति तो बहुत-से मिल जाते हैं। किसी की स्थापना अथवा प्रतिपादना में 'ननु न च' करना श्रथवा उसे दोषपूर्णं बता देना भी सहज है किन्तु उन उन दोषों के सम्बन्ध में स्वयं का तर्कशुद्ध मत प्रस्तुत करना वस्तुतः एक अनिर्वचनीय साहस पूर्ण कार्य होता है । प्रस्तुत टीकाकार श्री उपाध्यायजी महाराज ने निर्भीकतापूर्वक प्रायः सभी स्थानों पर स्वयं का मत विचार दिया है, जो कि 'वस्तुनस्तु' पृ० १६, २१, ३६ 'वयं तु' पृ० १६, २२, ४३, ४७, ५४, ५५ ६६, ५, ८, १०१, १०३, १०४, ११२, १११, १२५, १२९, १३०, १४४, १४८, १५७ तथा १७३, 'प्रत्र बूम:' पृ० ७२, ६१, १२३, १३२ एवं १४१ 'युक्तमुत्पश्याम:' पृ०५, २७, ७९ घोर 'मम प्रतिभाति, पृ० १००, १३७, 'मदीयव्याख्यानपक्षे' १२६, 'भावमाकलयामः पृ० १५०, 'व्याचक्ष्महे' १३१ तथा 'समीचीनत्वं, मदुत्प्रेक्षितः पन्याः, urdu, प्रस्मन्मनीषोन्मिषति' इत्यादि कथन-प्रसङ्गों से ज्ञात होता है । इस प्रकार अपने सर्वविष दायित्व का निर्वाह करते हुए श्री उपाध्यायजी महाराज ने मर्थप्रकाशन की प्रमुख Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PRE प्रणालियों में १ परोक्ष, २ प्रत्यक्ष ३ उदाहरण एवं स्वतन्त्र प्रणालियों का पूरा उपयोग किया है तथा अपने ज्ञान की 1 सुरभि का मानन्द प्राप्त कराने के लिए सुधी पाठकों के समक्ष एक उत्तम टीका प्रस्तुत की है। इस प्रकार 'काव्य-प्रकाश' वस्तुतः एक 'चिन्तामणि' है, जिसका चिन्तन चिन्तनकर्ता के लिए विविधविषयचिन्तन के मार्गों को उद्घाटित करता रहा है। "जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तेसो" इस उक्ति के धनुसार साहित्य, न्याय, व्याकरण, धर्मशास्त्र, पुराण एवं दर्शनों की दृष्टिवाले प्रत्येक विचारक ने 'काव्य-प्रकाश' में अपने-अपने विचारों का वैशद्य प्राप्त किया है। काव्य - प्रकाश की विषय-वस्तु और भाषा-संयोजना ऐसी सर्वमुखी बन गई है कि गीता के "ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् " की भाँति सबके मनोरथों की पूर्ति का यह स्रोत बना हुआ है। तथा भारत के प्रायः सभी प्रदेशों के आचार्यों ने इसकी टीकात्मक अर्चना की है । • विगत कुछ शताब्दियों में हुए इसके सर्वतोभद्र प्रचार-प्रसार के कारण इसकी १- बाचना' (सामूहिक पाठविचार) को सम्भावनाएं बन रही हैं जिससे नितान्त शुद्ध पाठात्मक स्वरूप प्रस्तुत हो सके। २. पाठान्तरों की पर्यनुबीक्षा के प्रायाम प्रतिविस्तृत होगये हैं क्योंकि भारत के प्रत्येक प्रदेश में सङ्कलित हस्तप्रतियों एवं टीकाओं में बहुत से शब्द, वाक्य एवं विचारांशों में विभिन्नता भाई है। तथा ३. 'तात्पर्य निर्णय' की श्रावश्यकता भी विद्वत्समाज के समक्ष उपस्थित ही है क्योंकि जिसने जैसा समझा वैसा व्यक्त किये जा रहा है। परिणामतः सर्वसाधारण पाठक सन्देह- शिला पर खड़ा कान्दिशीक बन जाता है। ऐसी ही अन्य बहुत-सी बातों का भी इनमें समावेश हो सकता है । arersकाश के ऐसे विराट स्वरूप की अभिव्यक्ति के लिए कोई विराट् योजना बनेगी तो अवश्य ही वह संस्कृतसाहित्य के चिन्तकों के लिए प्रसन्नता का विषय होगा । प्रस्तुत दो उल्लासों की टीका के माध्यम से किया गया यह कार्य जहाँ तक सम्भव हुआ अपने अंश में परिपूर्ण बनाने का प्रयास किया गया है जिसे मनीषी पाठक निश्चय ही उपादेय मानेंगे। ऐसे उत्तमसलन, सम्पादन एवं प्रकाशन के लिये घंटे श्री यशोयको महाराज समस्त संस्कृतानु रागियों के लिए समादरणीय है। ऐसे महनीय साहित्य के जीवन और वृतिला से भी हमारा पाठक समाज परिचित हो तथा उनसे सहयोग एवं प्रेरणा प्राप्त करे" इस दृष्टि से उनका संक्षिप्त जीवन चरित्र एवं कृति-परिचय देना भी मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ । अतः वह यहाँ स्वतन्त्रता रूप से कांगे प्रस्तुत किया गया है। अपनी बात मेरी साहित्यिक कृतियों को उर्वरित बनाने में सर्वाधिक प्रेरक पं० श्री धीरजलाल टोकरी शाह की प्रेरणा से मुझे ऐसे अनुपम विद्वान्, कवि, लेखक, प्रियवक्ता, अवधानकार अनेक ग्रन्थों के संशोधक और मन्त्र- योगादि शास्त्रों के ज्ञाता एवं सफल साधक मुनिवर्य श्री यशोविजयजी महाराज के सांन्निध्य एवं सम्पर्क का सुयोग प्राप्त हुमा श्रोर उनके द्वारा सुसम्पादित प्रस्तुत पूज्य उपाध्याय जी विरचित 'काव्यप्रकाश' के दो उल्लासों की टीका तथा इसके हिन्दी धनुवाद के सम्पादन और उपोद्घात लेखन का जो कार्य प्राप्त हुआ, इसे मैं अपना सौभाग्य हो मानता हूँ। प्रापके निर्देशों से मैं बहुत ही लाभान्वित हुआ है तथा प्रापकी सूक्ष्म दृष्टि एवं प्रकाशन पटुता से मेरे ज्ञान में वृद्धि हुई है। मुनिजी के विविध सामयिक परामशों के प्राधार पर यह कार्य सम्पन्न हुआ है। यद्यपि इस कार्य में बहुतसी त्रुटियाँ भी रही हैं किन्तु वे मेरी असावधानी अथवा अज्ञानता से ही हुई हैं। अतः पाठकगरण त्रुटियों का परिमार्जन करते हुए हमें भी सूचित करें जिससे अग्रिम संस्करण में उनका शोधन किया जा सके । f Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस टीका के अनुवादक डॉ. हर्षनाथ जी मिश्र ने भी मेरे इस कार्य में यथावसर सहयोग दिया है। अतः मैं उनके प्रति अपना का माभार व्यक्त करता हूँ। .. एक बार पुनः श्रद्धेय मुनिराज श्री यशोविजयजी महाराज एवं "यशोभारती जैन प्रकाशन समिति" के अधिकारियों के सौजन्य तथा सौहार्द की सराहना करते हुए मैं अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ और इस ग्रन्थ के सर्वत्र सुसमादर की कामना करता है। प्रलं पल्लवितेन । भा० शु० ऋषिपञ्चमी २०३३ वि० वई दिल्ली २१ विद्वद्वशंवदडॉ. रुद्रदेव त्रिपाठी Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्य-प्रकाश की प्रस्तुत टोका के प्रधान सम्पादक मुनि श्रीयशोविजयजी महाराज (संक्षिप्त जीवन-दर्शन) जन्म एवं परिवार गुजरात की प्राचीन दर्भावती नगरी प्राज मोई' (जिला बड़ोदा) नाम से प्रसिद्ध है। इस ऐतिहासिक नगरी में वि० सं० १९७२ की पौष शुक्ला द्वितीया के दिन बीसा श्रीमाली जाति के धर्म-परायण सुश्रावक 'श्री नाथालाल वीरचन्द शाह' के यहाँ पुण्यवती 'राधिका बहन' की कुक्षि से आपका जन्म हुमा। आपका नाम 'जीवनलाल' रखा गया। पापके तीन बड़े भाई और दो बड़ी बहिनें थीं। प्रापके जन्म से पूर्व ही पिता परलोकवासी हो गए थे। पाँच वर्ष की आयु में माता का भी स्वर्गवास हो गया। इस प्रकार बाल्यावस्था में माता-पिता की छत्रछाया उठ गई थी, किन्तु ज्येष्ठ बन्धु नगीनभाई ने बड़ी ही ममता से मापका लालन-पालन किया, अतः माता-पिता के प्रभाव का आपको अनुभव नहीं हुआ। विद्याभ्यास तथा प्रतिभा-विकास प्राप पांच वर्ष की आयु में विद्यालय में प्रविष्ट हुए और धार्मिक पाठशाला में भी जाने लगे। नौ-दस वर्ष की प्राय में संगीत-कला के प्रति मुख्यरूपेण आकर्षण होने के कारण सरकारी शाला और जैनसंघ की ओर से चल रही संगीत-शाला में प्रविष्ट हुए तथा प्रायः ६-७ वर्ष तक सङ्गीत की अनवरत शिक्षा प्राप्त करके संगीतविद्या में प्रवीण बने। आपकी ग्रहण और धारण-शक्ति उत्तम होने से दोनों प्रकार के अभ्यास में मापने प्रगति को। सुप्रसिद्ध भारतरत्न फैयाजखान के भानजे श्री गुलाम रसूल प्रापके संगीत-गुरु थे। पापका कण्ठ बहुत ही मधुर था भोर गाने की पद्धति भी बहुत अच्छी थी, अतः आपने संगीतगुरु का अपूर्व प्रेम सम्पादित किया था। जैनधर्म में पूजामों को विशिष्ट स्थान प्राप्त है। इन पूजामों में 'सित्तर भेदी पूजा' उसके विभिन्न ३५ रागरागिनियों के ज्ञान के साथ प्रापने कण्ठस्थ कर ली तथा प्रसिद्ध-प्रसिद्ध समस्त पूजाओं की गीत-पद्धति भी सुन्दर रागरागिनी तथा देशी-पद्धतियों में सीख ली और साथ ही साथ गाने की उत्तम प्रक्रिया भी सम्पादित की। विशेषत: नत्यकला के प्रति भी आपका उतना ही माकर्षण था, अतः उसका ज्ञान भी प्राप्त किया और समय-समय पर विशाल पूजा समारोहों में उसके दर्शन भी कराए। इस प्रकार व्यावहारिक तथा धामिक शिक्षण और संगीर एवं नत्य कला के उत्तम संयोग से प्रापके जीवन का निर्माण उत्तम रूप से हरा और आप उज्ज्वल भविष्य की झांकी प्रस्तुत करने लगे। परन्तु इसी बीच ज्ञानी सदगुरु का योग प्राप्त हो जाने से आपके अन्तर में संयम-चरित्र की भावना जगी और आपके जीवन का प्रवाह बदल गया, इसमें भी प्रकृति का कोई गूढ संकेत तो होगा ही ? भागवती दीक्षा और शास्त्राभ्यास वि० सं० १९५७ की अक्षय तृतीया के मङ्गल दिन कदम्बगिरि की पवित्र छाया में परमपूज्य प्राचार्य श्री Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ विजयमोहन सूरीश्वर जी के प्रशिष्य श्री धर्मविजयजी महाराज (वर्तमान प्राचार्य श्री विजय धर्मसूरीश्वरजी महाराज) ने आपको भागवती दीक्षा देकर मुनि श्री यशोविजयजी के नाम से अपने शिष्य के रूप में घोषित किया । इस प्रकार केवल १६ वर्ष की अवस्था में प्रापने संसार के सभी प्रलोभनों का परित्याग करके साधुअवस्था. श्रमणजीवन को स्वीकार किया। तदनन्तर पूज्य श्री गुरुदेव की छाया में रहकर आप शास्त्राभ्यास करने लगे, जिसमें प्रकरणग्रन्थ, कर्मग्रन्थ, काव्य, कोष, व्याकरण तथा प्रागमादि ग्रन्थों का उत्तम पद्धति से अध्ययन किया और अपनी विरल प्रतिभा के कारण थोड़े समय में ही जैनधर्म के एक उच्चकोटि के विद्वान् के रूप में स्थान प्राप्त किया। . बहुमुखी व्यक्तित्व एवं अपूर्व प्रतिभा आपकी सर्जन-शक्ति साहित्य को प्रदीप्त करने लगी और कुछ वर्षों में तो आपने इस क्षेत्र में चिरस्मरणीय रहें ऐसे मंगल-चिह्न अङ्कित कर दिए जिसका संक्षिप्त परिचय इस ग्रन्थ के अन्त में दिया गया है। (व्य प० १११ से १८२) आप जैन साहित्य के अतिरिक्त शिल्प, ज्योतिष, स्थापत्य, इतिहास, मन्त्रशास्त्र तथा योग-अध्यात्म के भी अच्छे ज्ञाता हैं, अत: आपकी विद्वत्ता सर्वतोमुखी है और अनेक जैन-जनेतर विद्वान्, जनसमाज के अग्रणी, कलाकार, सामाजिक कार्यकर्ता तथा प्रथम श्रेणी के राजकीय अधिकारी एवं नेतृवर्ग को आकृष्ट किया है। पाप अच्छे लेखक, प्रिय वक्ता एवं उत्तम अवधानकार भी हैं। पालीताना के ठाकुर श्रीबहादुरसिंहजी, बड़ोदा की महारानी श्री शान्तिदेवी, गोंडल के युवराज, बिलखानरेश, थानादेवली-जेतपूर के दरबार आदि के साथ प्रापके वार्तालाप का प्रसंग पाया है। गुजरात के भूतपूर्व प्रधान रसिक भाई परीख, रतुभाई प्रदाणी, कान्तिलाल घीया, विजयकुमार त्रिवेदी तथा महाराष्ट्र के प्रधान श्री वानखेडे, श्री मधुकर देसाई, श्री शङ्करराव चह्वाण प्रादि तथा प्रसिद्ध देशनेता श्रीमुरारजी देसाई, श्रीयशवन्तराव चह्वाण, श्री एस. के. पाटिल, श्री गुलजारीलाल नन्दा, सुशीला नायर, मदालसा बहन, पूर्णिमा बहन पकवासा प्रादि पूज्य महाराज जी से मिले हैं तथा मापके दर्शन-समागम से प्रानन्द का अनुभव किया है। गुजरात के रविशङ्कर महाराज तथा कलकत्ता के श्रीविजय सिंह नाहर भी कई बार आपके सम्पर्क में आये हैं और अनेक प्रश्नों के बारे में प्रापसे चर्चा-विचारणाएं की हैं। राज्यपाल श्रीप्रकाश जी ने भी आपके आशीर्वाद प्राप्त किये हैं। मतिपूजक सम्प्रदाय के कतिपय प्राचार्य तथा मुनिराजों का तो आपके प्रति उत्तम कोटि का आदरभाव बना हमा ही है साथ ही अन्य सम्प्रदाय के प्राचार्य तथा साधुगण भी आपसे सम्पर्क रखने में प्रानन्द का अनुभव करते हैं। तेरापन्थ सम्प्रदाय के प्राचार्य श्रीतुलसीजी, मुनिश्री नथमलजी, नगराजजी, जशकरणजी, राकेशमुनि, रूपचन्द जी आदि के हृदय में आपने उन्नत स्थान प्राप्त किया है। स्थानकवासी सम्प्रदाय के श्री प्रानन्द ऋषि जी, श्री पुष्कर मुनिजी एवं श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री के साथ भी आपका सम्पर्क बना हुमा है और परस्पर स्नेह तथा सत्संग का आनन्द प्राप्त होता रहा है। श्री अखण्डानन्द सरस्वती जैसे सुप्रसिद्ध संन्यासीजी और वैष्णवसमाज के प्रसिद्ध गोस्वामी श्री दीक्षितजी महाराज, प्रख्यात विद्वान् काका कालेलकर आदि भी आपके समागम से पानन्दित हुए हैं। इसी प्रकार जैन समाज के विविध सम्प्रदायों में प्रमुख कार्यकर्ता सेठ श्री कस्तूरभाई लालभाई, साह शान्ति Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसाद, साह श्रेयांस प्रसाद, श्री चीमनलाल चकुभाई, श्रीदुर्लभजी भाई खेताणी आदि भी भगवान महावीर के २५सोवें निर्वाण महोत्सव को लक्ष्य में रखकर अनेक बार मिलते रहे हैं तथा अनेक आवश्यक प्रश्नों पर कार्यकर्ता प्रादि भी प्रापकी सहृदयता तथा विशाल अनुभव का लाभ लेने के लिए बार-बार मिलते रहे हैं। सुप्रसिद्ध लेखक, कवि और प्राध्यापक भी आपके साथ विचार-विनिमय करने के इच्छुक रहते हैं। पूज्य महाराजश्री संगीत के ज्ञाता हैं, इतना ही नहीं, अपितु संगीतकारों का सम्मान करना भी जानते हैं, इसीलिये सुप्रसिद्ध संगीतकार महेन्द्र कपूर, मुकेश, कल्याणजी प्रानन्दजी, पुरुषोत्तम उपाध्याय, देवेन्द्र विजय पण्डित, शान्तिलाल शाह, मास्टर वसन्त, अविनाश व्यास, पिनाकिन शाह, वाणी जयराम, कौमुदी मुन्शी, हंसा दवे, कमलेश कुमारी, मनुभाई तथा अन्य अनेक प्रसिद्ध-प्रप्रसिद्ध कलाकारों ने आपका परिचय प्राप्त किया है और सन्त-समागम का प्रानन्दानुभव किया है । 'जैन संस्कृति कला केन्द्र' की ओर से उतारी गई रिकाडौं के प्रसंग से भी यह परिचय हुमा है। प्रसिद्ध अभिनेता श्री प्रदीपजी, अभिनेत्री श्रीनरगिस आदि भी आपके दर्शन प्राप्त करके वासक्षेप माशीर्वाद ले चुके हैं । क्या श्रीमान् और क्या धीमान् सभी मुनिराज जी की अपूर्व प्रतिभा से प्रभावित हैं । उदात्त कार्यकलाप जीवन के विविध क्षेत्रों में विकास-प्राप्त व्यक्तियों के इस विस्तृत परिचय के कारण प्रापकी ज्ञानधारा अधिक विशद बनी है, आपके विचारों में पर्याप्त उदात्तता पाई है तथा पाप धर्म के साथ ही समाज और राष्ट्र-कल्याण की हष्टि को भी सम्मुख रखते रहे हैं। धार्मिक अनुष्ठानादि में भी आप की प्रतिभा झलकती रही है तथा उसके फलस्वरूप उपधान-उद्यापन, उत्सवमहोत्सव आदि में जनता की अभिरुचि बढ़े ऐसे अनेक. नवीन अभिगम प्रापने दिए हैं। जैन-जनेतर हजारों स्त्री-पुरुष प्रापसे प्रेरणा प्राप्त करके प्राध्यात्मिक उत्कर्ष प्राप्त कर पाए हैं। अष्टग्रहयुति के समय 'विश्वशान्ति जैन आराधना सत्र' की योजना आपके मन में स्फुरित हुई और पूज्य गुरुदेवों की सम्मति मिलने पर बम्बई महानगरी में उसका दस दिन तक अभूतपूर्व प्रायोजन हमा। उस समय निकाले गए.चलसमारोह में प्रायः एक लाख मनुष्यों ने भाग लिया था। देशभक्ति और राष्ट्ररक्षा में सहयोग इसके पश्चात् राष्ट्र के लिए सुवर्ण की आवश्यकता होने पर आपकी ही प्रेरणा से 'राष्ट्रीय जैन सहकार समिति' की रचना की गई और उस समय के गृहमन्त्री श्रीगुलजारी नन्दा को बुलाकर उसके माध्यम से १७ लाख का सुवर्ण गोल्डबॉण्ड के रूप में प्रपित किया गया। - जैन समाज का एक जैन साधु देशभक्ति और राष्ट्ररक्षा के कार्य में सहयोग प्रदान करे यह जनसंघ के राजनीतिक इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य घटना है। इस सम्बन्ध में तत्कालीन भारत के प्रधानमन्त्री श्री लालबहादुर शास्त्रीजी ने समिति को पत्र लिखकर मुनिराज जी को वन्दना के साथ अभिनन्दन प्रेषित किया था और हार्दिक धन्यवाद दिया था तथा जैन समाज के लिए उन्नत अभिप्राय व्यक्त किये थे। यहाँ इतना और बतला देना आवश्यक है कि राष्ट्र के लिए किये गए इस पुरुषार्थ का सम्मान करने के लिये माप को भारत सरकार की ओर से राष्ट्रीय पदवी अथवा जो योग्य मानी जाए वैसी पदवी देने के लिए चर्चा प्रारम्भ हुई Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थी, किन्तु ये समाचार लेकर जो व्यक्ति प्राये थे उन्हें मुनिजी ने स्पष्ट बतला दिया था कि "मैं सदा धार्मिक पदवियों से भी दूर रहा हूँ, अतः अन्य पदवी के सम्बन्ध में मेरे विचार ही कैसे हो सकते हैं | मैंने तो जो मुझे उचित प्रतीत हुआ वैसा ही अपने कर्तव्य का पालन किया है। उसका इस रूप में प्रतिफल लेने की मेरी तनिक भी इच्छा नहीं हैं।" इतना होने पर भी भक्तजन उसके लिये प्राग्रह करने लगे थे, किन्तु मुनिश्री के द्वारा स्पष्ट शब्दों में निषेध करने पर वह बातचीत शान्त हो गई। मापकी देशभक्ति और राष्ट्ररक्षात्मक प्रवृत्ति से माज भी सारा समाज प्रेरणा प्राप्त कर रहा है और अपनी राष्ट्रीय दृष्टि को मुखरित बना रहा है । अनन्य साहित्यस्रष्टा तथा कलाप्रेमी मुनिजी की विशिष्ट प्रतिभा से साहित्य और कला के क्षेत्र में कई उपयोगी संस्थानों की स्थापना हुई है। अनेक प्रकार के समारोह तथा भव्य प्रदर्शनों की योजनाएं होती रही हैं तथा संस्कृति और कला के क्षेत्र में पू० मुनि जी विशिष्ट योगदान करते रहे हैं। आपके मार्गदर्शन में ही 'यशोमारती जैन प्रकाशन समिति' तथा 'जैन संस्कृति कलाकेन्द्र' जसी संस्थाएँ उत्तम सेवाकार्य कर रही हैं और इसके अन्तर्गत चित्रकला निदर्शन' नामक संस्था भी प्रगति के पथ पर पदार्पण कर अग्रसर हुई है। गत वर्ष मुनिराज द्वारा लिखित संकलित और सम्पादित 'तीर्थकर भगवान श्री महावीर' नामक (गुजराती हिन्दी और अंग्रजी चित्र-परिचय के साथ चित्रमय जीवन को प्रस्तुत करने वाले) ग्रन्थ के प्रकाशन का सम्मान भी इस संस्था को प्राप्त हुमा है। विगत एक दशक से और मुख्य रूप से गत पांच वर्षों से मुनिराज श्री ने विश्ववन्ध भगवान महावीर की शास्त्रीय जीवनकथा को ३५ सुन्दर चित्रों में अंकित करने के लिये भगीरथ पुरुषार्थ किया है। इन चित्रों का निर्माण करने के लिए आपने चित्रकार श्री गोकुलदास कापड़िया को बार-बार परामर्श दिया है, इन्हें भावनामय तथा सुन्दर बनाने के लिए अनेक प्रकार की प्रेरणाएँ दी हैं और उनका एक कलाकार के रूप में सम्मान रखकर उनसे कार्य लिया है।यह ग्रन्थ चिर-स्मरणीय बने इसके लिये प्रत्येक चित्र का परिचय इस प्रकार दिया है कि जिसमें भगवान श्री महावीर की सम्पूर्ण जीवन-कथा शृंखलाबद्ध रूप से आ जाए और उससे वाचक के मन पर भगवान का क्रमिक रेखाचित्र अंकित हो जाए । शास्त्रों का प्राधार लेकर संक्षिप्त शब्दों में यह परिचय तैयार करने का काम बहुत कठिन था, तथापि प्रापकी कुशाग्रबुद्धि और विद्वानों के साथ परामर्श से यह कार्य सफलता से पूर्ण हुआ। विशेष यह कि इस ग्रन्थ का सभी वाचन कर ज्ञान प्राप्त कर सकें इस दृष्टि से परिचयावली का हिन्दी और अंग्रेजी में अनुवाद भी दिया गया है। इस प्रकार चित्रों का परिचय तीनों भाषाओं में देते समय उसके प्रारम्भ में विविध विषय के कलापूर्ण पौर समाज के लिए प्रत्युपयोगी एक-एक शोभन चित्र भी दिये गये हैं, जो जैन संस्कृति, संगीत, योग, भारतीय ज्योतिष, लिपि तथा शिल्प-स्थापत्य का उद्बोधन करते हैं। तथा इस परिचय के नीचे एक-एक कलामय पट्टी देने की प्रापकी मग्रिम सूझ के कारण ग्रन्थ के सौन्दर्य में बड़ी अभिवृद्धि हुई है। इस ग्रन्थ का अत्यन्त भव्य प्रकाशन समारोह दि.१६-६-७४ को 'बिरला मातुश्री सभागार' बम्बई में हुमा था, जिसमें साधु-साध्वी तथा अग्रगण्य नागरिकों की उपस्थिति स्मरणीय थी। इस अवसर पर महाराष्ट्र राज्य के शिक्षामन्त्री १. इसमें गुजराती का हिन्दी अनुवाद इन पंक्तियों के लेखक ने किया है । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ श्री मनन्त जोशी ने इस ग्रन्थ का विधिवत् प्रकाशन किया था और चारों सम्प्रदाय के प्रमुख जन कार्यकर्तामों ने एकसाथ मिलकर यह ग्रन्थ आपके गुरुवर्य परमपूज्य आचार्य श्रोविजय धर्मसूरीश्वरजी महाराज को अर्पित किया था। दूसरे दिन ग्रन्थ की प्रतिभव्य शोभायात्रा निकली जिसमें हजारों स्त्रीपुरुषों ने भाग लिया और उत्साह का अपूर्व वातावरण उपस्थित हुआ था। ग्रन्थ के उद्घाटन प्रसंग पर राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री तथा अन्य मन्त्रिगण तथा भिन्न-भिन्न प्रान्तों के राज्यपाल एवं विद्वान् प्रादि के अनेक सन्देश प्राप्त हुए थे। यह ग्रन्थ महामहिम राष्ट्रपति श्री वी. वी. गिरि, प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी, श्री जगजीवन राम, धो कर्णसिंह मादि को प्रतिनिधि-मण्डल द्वारा समर्पित होने पर उनके द्वारा भी मुक्तकण्ठ से प्रशंसित हुआ। भगवान् महावीर के जीवन को साक्षात् प्रस्तुत करनेवाले ऐसे सुन्दर चित्रों का यह संग्रह सर्वप्रथम प्रकाशित होने के कारण.जन-जनेतर संस्थानों ने इसका हार्दिक सत्कार किया तथा भगवान् महावीर के निर्वाणकल्याणक महोत्सव के प्रसंग पर अनेक स्थानों में इन चित्रों की प्रदर्शनी आयोजित हुई। इसी प्रकार इस ग्रन्थ-सम्पुट के आधार पर कुछ स्थानों पर मन्दिरों की दीवारों पर चित्र भी अङ्कित होने लगे हैं। और भी अनेक रीतियों से इन चित्रों का व्यापक प्रयोग हुमा है। ६१.०० रु. के मूल्य के इस ग्रन्थ की केवल दो माह में ही ४००० प्रतियों का विक्रय भारतीय साहित्य प्रकाशन के इतिहास में एक कीर्तिमान ही है। अब इस चित्रसम्पुट की द्वितीय प्रावृत्ति छप रही है। भगवान महावीर के अतिरिक्त २३ तीर्थंकरों के भविष्य में प्रकट होनेवाले सम्पुट के लिए नवीन चित्र पर्याप्त द्रव्य द्वारा तैयार करवाये जा रहे हैं । जैन साधु की दिनचर्या के रंगीन चित्र भी तैयार हो रहे हैं। यशोभारती की ओर से स्व०पू० उपाध्याय श्री यशोविजयजी विरचित जैनन्याय मादि से सम्बद्ध अनेक ग्रन्थों का मुदण अपने सम्पादन के साथ आप करवा रहे हैं । इस प्रकार साहित्य और कला से सम्बन्धित कतिपय कार्यों में पाप निरन्तर कार्यरत रहते हैं। आपकी साहित्य तथा कला के क्षेत्र में की गई सेवा को लक्ष्य में रखकर जैन-समाज ने आपको 'साहित्यकला रत्न' जैसी सम्मानित पदवी से विभूषित किया है। भगवान् श्रीमहावीर के २५००वें निर्वाण महोत्सव के निमित्त राष्ट्रीय समिति की जो रचना की गई थी, उसमें आपकी विशिष्ट योग्यता को ध्यान में रखकर आपको 'अतिथि-विशेष' के रूप में लिया गया और समिति ने मापकी साहित्य-प्रतिभा, कल्पना-दृष्टि, शास्त्रीय ज्ञान, गम्भीर सूझ-बूझ एवं समन्वय भावना का यथासमय लाभ प्राप्त किया। इस समिति के अनेक सदस्य पूज्य मुनि श्री से सम्पर्क साधते रहे और मापसे सूचना और सलाह लेते रहे कुछ प्रान्तीय समितियों के प्रधान कार्यकर्ता तो स्वयं बम्बई आकर उत्सवों के लिये पूज्य मुनिश्री से मार्गदर्शन प्राप्त करते रहे। आपकी सम्मति से निर्मित 'जनध्वज' तथा 'जनप्रतीक' का जैन समाज में सबसे अधिक समादर हुआ है। इस समिति के कार्य के सम्बन्ध में कुछ स्थानों से विसंवादी स्वर उठे थे और विरोध की प्रवृत्ति भी हुई थी, परन्तु मुनि जी ने निर्भयता और साहसपूर्वक अपना कर्तव्य पूर्ण किया था। परिणामतः समाज के सूत्रधार कार्यकर्ता, लेखक, पत्रकार आदि बहुत प्रभावित हुए और आपका यश चारों भोर चरम सीमा पर पहुँच गया। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दि० २२-७-७४ को पू. मुनिश्री यशोविजयजी महाराज के शुभहस्त से भगवान् महावीराकी मूर्ति अर्पित करने की दृष्टि से आयोजित समारोह के निमित्त भारत के म०म० राष्ट्रपति श्री वी०वी० गिरि महोदय बालकेश्वर आदिनाथ जैन मन्दिर के दर्शन करके उपाश्रय में पधारे तब उपाश्रय में विराजमान ५० पू० प्राचार्य श्री विजयधर्मसूरीश्वरजी म. तथा प०पू० मुनिराज श्री यशोविजय जी महाराज के दर्शन करने का लाभ लिया। उस समय पू० मुनिश्री द्वारा भव्य समारोह में मूर्ति समर्पित होने के पश्चात् प्रायः १० मिनिट तक आपने प्रासंगिक सम्बोधन किया था। भाप जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय के एक श्रद्धेय तथा लोकप्रिय साधु हैं तथापि अन्य सम्प्रदाय भी मापके प्रति बहुत सम्मान की भावना रखते हैं और जनेतर सम्प्रदाय भी आपकी वृत्ति-प्रवृत्ति की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करते हैं । मुनि श्री यशोविजय जी का नाम वस्तुत: प्राज यश मौर विजय का प्रतीक बन गया है। विगत वर्ष पूज्यश्री का एक्सीडेण्ट हो जाने से हाथ में चोट आई तथा उसकी चिकित्सा के लिये विले पारले स्थित नाणावटी हॉस्पीटल में आपको रहना पड़ा। उस समय बम्बई के चारों सम्प्रदाय तथा समाज के अनेक अग्रणी एवं महाराष्ट्र राज्य के मुख्यमन्त्री श्री शङ्करराव चव्हाण भी पाप की सुखशाता पूछने के लिये प्राये थे। इससे मुनिजी की लोकप्रियता का सहज प्राभास हो जाता है। इन्हीं दिनों में प्रानन्दमयी माता से मिलने का भी प्रसंग उपस्थित हुमा था और ऐसे ही अन्य अनेक सन्तों का समागम होता रहता है। जैन श्वेताम्बर सम्प्रदाय द्वारा घाटकोपर में स्थापित अभूतपूर्व २७ फुट के मूर्ति-शिल्प का जो निर्माण हुआ, उसमें मुनिजी की कलादृष्टि का प्रावश्यक योगदान हुआ है। बालकेश्वर में ऐसे ही अभूतपूर्व शिल्पों का निर्माण करवाया है, जिनमें श्री पद्मावतीजी, महावीर चौबीसी, विघ्नहर पादर्वनाथ मादि चिरस्मरणीय हैं। लोककल्याण की कामना पूज्यश्री साहित्य के क्षेत्र में कुछ विशिष्ट योगदान करने की भावना तो रखते ही है, साथ ही मुख्यरूप से वर्तमान पीढी के लाभ के लिए तथा जनसंघ के गौरव की अभिवृद्धि के लिए जनसंघ का सर्वांगीण सहयोग प्राप्त होता रहा तो चित्रकला और शिल्पकला के क्षेत्र में अनेक अभिनव सर्जन करने तथा कुछ न कुछ नई देन देने की भी भावना रखते हैं । जनसमाज, जनसंस्कृति और जनसाहित्य का विदेश में भी गौरव बढ़े, जैनधर्म का प्रचार एवं पर्याप्त विस्तार हो और आनेवाली पीढ़ी जैनधर्म में रस लेती रहे, इसके लिए प्राप सतत चिन्तनशील हैं और तदनुवूल नए-नए मार्ग भी प्रशस्त करते रहते हैं। पू० मुनिजी के इस सर्वतोमुखी विकास में प्रापके दादागुरु प० पू० प्राचार्यदेव श्रीविजयप्रतापसूरीश्वर जी महाराज तथा प्रापके गुरुवर्य प० पू० प्राचार्यदेव श्रीविजयधर्मसूरीश्वरजी महाराज की कृपादृष्टि ने बहुत ही महत्वपूर्ण भाग लिया है। आज भी इन दोनों गुरुवयों की प्राप पर असीम कृपा है और वह आपको भविष्य में केवल भारतवर्ष के ही नहीं, अपित विश्व के एक प्रादर्श साहित्य-कलाप्रेमी साधु के रूप में महनीय स्थान प्राप्त कराएगी, ऐसी पूर्ण प्राशा है। डॉ० रुद्रदेव त्रिपाठी Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्यशोविजयजीमहाराजविरचितटीका तदनुसारि-हिन्द्यनुवादभूषितश्च काव्य-प्रकाशः [द्वितीय-तृतीयोल्लासात्मकः ] Page #152 --------------------------------------------------------------------------  Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायविशारद - न्यायाचार्य -महोपाध्याय - श्रीमद्यशोविजयकृत- टीका- सहितः काव्यप्रकाशः द्वितीय उल्लासः [ काव्यगत - शब्दार्थ-स्वरूपनिरूपणात्मकः ] क्रमेण शब्दार्थयोः स्वरूपमाह मूलसूत्रम् - [५] स्याद्वाचको लाक्षणिकः शब्दोऽत्र व्यञ्जक स्त्रिधा । न्यायविशारद - न्यायाचार्य - महोपाध्याय - श्रीमद्यशोविजयकृता टीका -X अथ लक्षणस्थ पदार्थेषु वक्तव्येषु शब्दार्थयोः प्राधान्यात् तल्लक्षणनिरूपणाय तत्स्वरूपं निरूप्यत इत्याह ' क्रमेणे' ति -- लक्षणे प्रथमं शब्दस्योपादानाद् आदौ शब्दस्य ततोऽर्थस्येति क्रमेणेत्यर्थः । अथ लक्षणायाः शक्त्यधीनतया व्यञ्जनायाश्च तदुभय-मूलत्वेन वाचकादिक्रमेणो द्दिशति - न्यायविशारद, न्यायाचार्य महोपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी महाराज द्वारा रचित टीका का हिन्दी अनुवाद अवसर- संगति :- प्रथम उल्लास में मम्मट ने "तददोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलङ्कृती पुनः क्वापि " इस 'काव्यलक्षण में शब्द और अर्थ दोनों की समष्टि को काव्य कहा है। काव्य के पूर्वनिर्दिष्ट लक्षण को समझने के लिए शब्द और अर्थ के स्वरूप का ज्ञान आवश्यक है । इस लिए ग्रन्थकार ने इस उल्लास में शब्द और अर्थ के स्वरूप का परिचय दिया है। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर ग्रन्थकार ने इस द्वितीय उल्लास का नाम "शब्दार्थ- स्वरूप निर्णय " रखा है। उन्होंने शब्द के वाचक, लक्षक और व्यञ्जक तीन भेद माने हैं और अर्थ के भी वाच्य, लक्ष्य और व्यङ्गय तीन भेद स्वीकार किये हैं । इन तीन प्रकार के शब्दों से तीन प्रकार के अर्थों की प्रतीति के लिए शब्दों की अभिधा, लक्षणा और व्यञ्जना नाम की तीन प्रकार की वृत्तियाँ भी मानी हैं। इस उल्लास में ग्रन्थकार तीन प्रकार के शब्द, तीन प्रकार के अर्थ और तीन प्रकार की शब्द-वृत्तियों का निरूपण करेंगे । टीका :- यद्यपि काव्य के लक्षण में आये हुए (१) 'अदोषों' (२) 'शब्दार्थों' (३) 'सगुणी' (४) 'अनलङ्कृती' तथा (५) पुनः क्वापि' इन पाँचों पदार्थों का वर्णन क्रमश: करना चाहिए था तथापि उन सभी तथाकथित पदार्थों में प्रधान होने के कारण ( अवसर प्राप्त ) शब्दार्थ के लक्षण-निरूपण के लिए (पहले) उनके स्वरूप का निरूपण करते हैं । काव्य लक्षण में (उल्लिखित पदार्थों में शब्दार्थ प्रधान है; इसलिए शब्दार्थ के स्वरूप के निरूपण के समय ) शब्द का प्रथम उल्लेख होने से पहले शब्द का और उसके बाद अर्थ का स्वरूप बताया जायगा । इसी अभिप्राय से यहाँ 'क्रमेण' पद दिया गया है। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ काव्यप्रकाशः अत्रेति काव्ये । एषां स्वरूपं वक्ष्यते । (सू. ५) 'स्याद् वाचक' इति । सूत्रार्थः यद्यपि विभागादेव त्रित्वं सिद्धं तथापि गौणीलक्षणा भिन्नेति न्यूनता व्यञ्जनायां प्रमाणमेव नास्तीत्याधिक्यं च विभागस्येति परविप्रतिपत्तिनिरासायाह । 'त्रिधे'ति — काव्यगत शब्द के तीन भेद 'स्वादवाचक' इति यहाँ (काव्य में) वाचक, लाक्षणिक और व्यञ्जक (भेद से) शब्द तीन प्रकार का होता है। अत्र यहाँ' इससे काव्य में ( यह अर्थ लिया गया है ) इन (वाचक, लाक्षणिक और व्यञ्जक तीनों प्रकार के शब्दों का स्वरूप (आगे) बताया जायगा। तात्पर्य यह है कि न्याय, मीमांसा आदि दर्शनों में वाचक और लक्षक ऐसे दो प्रकार के शब्द तो प्रायः माने गये हैं किन्तु व्यञ्जक नामक शब्द के तीसरे प्रकार का विस्तृत निरूपण साहित्यशास्त्र में ही किया गया है। इस लिए कारिका में 'अत्र' शब्द का खास कर प्रयोग किया गया है। इसका अभिप्राय यह है कि यद्यपि अन्य शास्त्रों में व्यञ्जक शब्द नहीं माना गया है, सम्भवतः उनका काम व्यञ्जक शब्द माने बिना भी चल जाता हो, परन्तु काव्य में तो व्यञ्जक के प्रयोग से जीवन आता है। काव्य का जीवन है चमत्कार । वह तो व्यञ्जक शब्द से ही स्पन्दित होता है । अतः यहाँ काव्य में तीनों प्रकार के शब्द माने जाते हैं। इन में वाचक शब्द से वाच्यार्थ ( मुख्यार्थ ) का बोध होता है । इसलिए सबसे पहले उसी को स्थान दिया गया है। लाक्षणिक शब्द वाचक शब्द पर आश्रित रहता है इसलिए लाक्षणिक शब्द को वाचक शब्द के बाद स्थान दिया गया है। व्यञ्जक शब्द दोनों प्रकार के शब्दों का सहारा लिया करता है। इस लिए व्यञ्जक शब्द को वाचक और लाक्षणिक दोनों प्रकार के शब्दों के बाद तीसरे स्थान पर रखा गया है । यहाँ यह विशेष रूप से जानना चाहिए कि शब्दों का यह तीन प्रकार का विभाग शब्दों की उपाधियों का है; शब्दों का नहीं अर्थात् इस विभाग को उपाधित मानना चाहिए वास्तविक नहीं क्योंकि वाचक, लाक्षणिक और व्यञ्जक शब्दों के बीच कोई निश्चित विभाग- रेखा नहीं खींची जा सकती। वह इसलिए कि 'अमुक शब्द केवल वाचक है, अमुक शब्द केवल लक्षक है और अमुक शब्द केवल व्यञ्जक है' इस प्रकार का कोई निश्चित विभाग शब्दों में नहीं पाया जाता है। गङ्गायां मीनप्रोपोस्त" यहाँ गङ्गा शब्द वाचक है, लक्षक है और व्यञ्जक भी है । अतः एक ही शब्द के वाचक, लक्षक और व्यञ्जक होने के कारण तीन प्रकार का विभाग शब्दों का नहीं माना जा सकता । अपितु इस विभाग को उपाधिकृत ही मानना होगा। जिस प्रकार एक ही व्यक्ति उपाधिभेद से कभी पिता और कभी पुत्र कहा जाता है; उसी प्रकार उपाधियों के भेद से एक ही शब्द कभी वाचक, कभी लक्षक और कभी व्यञ्जक माना जाता है। लक्षणा के शक्ति ( अभिधा) के अधीन होने के कारण और व्यञ्जना के उन ( शक्ति और लक्षणा ) के आश्रित होने के कारण सर्वप्रथम वाचक, उसके बाद लक्षक और उन दोनों के बाद व्यञ्जक शब्द का उल्लेख ( कारिका में किया गया है। अभिप्राय यह है कि वाचक शब्द ही ऐसा शब्द है जिसे अपने अर्थ ( मुख्यार्थ ) को प्रकट करने के लिए शब्द. के अन्य भेदों के व्यापार (लक्षणा या व्यजना) का मुंह नहीं देखना पड़ता वृत्ति ( शक्ति या अभिधा ) से ही प्रकट कर देता है । इसलिए सर्वप्रथम गया है। लक्षक शब्द को अपना अर्थ ( लक्ष्यार्थ) प्रकट करने के लिए लक्षणा व्यापार का सहारा लेना पड़ता है। है। वह अपने अर्थ को स्वयं की मुख्य कारिका में वाचकशब्द को स्थान दिया Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः ननु शास्त्रषु व्यञ्जकशब्दानां नामापि नास्तीत्यत आह । [सूत्र ५] 'काव्य' इति :-चमत्कारविशेषस्यान्यथानुपपत्तेरिति भावः । न च य एव शब्दो वाचकः स एव लाक्षणिको व्यञ्जकश्चेति भेदाभावाद् विभागोऽनुपपन्न इति वाच्यम् । तथात्वेऽपि सम्बन्धभेदाद् भेदमङ्गीकृत्य तथा विभागाद् एवमेवार्थविभागोपपत्तिरित्यनुपदमेव व्यक्तम् । विभागानन्तरं लक्षणस्य जिज्ञासाविषयत्वेनाभिधातुमुचितत्वात् तदनभिधानं समर्थयतिलक्षणा, शक्ति या अभिधा के अधीन है; क्योंकि वह मुख्यार्थ में बाधा आने पर मुख्यार्थ से सम्बद्ध अर्थ को ही बताती है । अतः मुख्यार्थ की उपस्थिति के लिए वाचक शब्द की वृत्ति शक्ति (अभिधा) की वहाँ उपस्थिति अनिवार्य है। इस तरह शक्ति पर आश्रित लक्षणाव्यापार से युक्त लक्षक शब्द को कारिका में द्वितीय स्थान दिया गया है। व्यञ्जक शब्द जिस व्यापार से अपना अर्थ (व्यङ्गयार्थ) बताता है वह है व्यञ्जना । व्यञ्जना के दो मुख्य भेद हैं—अभिधामूला और लक्षणामूला । जैसे 'दुर्गालयितविग्रहो विजयतां राजा उमावल्लभः' यहाँ दुर्ग (किला) के कारण अजित विग्रह (युद्ध) वाले, उमा रानी के पति भानुदेव राजा की जय हो, इस अभिधेयार्थ की प्रतीति के बाद दर्गा (पार्वती) से आलिङ्गित विग्रह (शरीर) वाले उमापति शिवरूप अर्थ तथा दोनों अर्थों में उपमानोपमेयभाव-सम्बन्धमूलक उपमालङ्काररूप व्यङ्गय होने से अभिधामूला व्यञ्जना है। "गङ्गायां घोषः" में तीर अर्थ में लक्षणा के बाद शीतत्वातिशय और पवित्रतातिशयरूपी व्यङ्ग्य की उपस्थिति होने के कारण लक्षणामूला व्यञ्जना है। इस तरह व्यञ्जक शब्द का व्यापार व्यञ्जनाशक्ति और लक्षणा दोनों व्यापारों पर आश्रित है। इसलिए कारिका में व्यञ्जक शब्द का स्थान सबसे अन्त में तीसरे स्थान पर रहा। 'स्थावाचक इति' (टीका) यद्यपि विभाग से ही तीन भेद सिद्ध थे तथापि "त्रिधा" शब्द के उल्लेख से यह बताया गया है कि काव्य में शब्द के तीन ही भेद हैं; न तीन से अधिक हैं और न कम । इसलिए गौणी को लक्षणा से भिन्न मानकर गौण नामक शब्दभेद का कारिका में उल्लेख नहीं होने से कारिकाकार की न्यूनता (कमी) तथा व्यञ्जना के मानने में प्रमाणाभाव के कारण व्यञ्जक शब्द के उल्लेख को अधिक मानने वाले अन्य (विद्वानों) के संशय को दूर करने के उद्देश्य से कारिका में विधा' शब्द का उल्लेख किया गया है। गौणीवृत्ति लक्षणा से अन्य वृत्ति नहीं है। वह लक्षणा का ही एक भेद है। गौण शब्द लाक्षणिक शब्द के अन्तर्गत ही आ जाता है। मुख्यार्थ और लक्ष्यार्थ के बीच जहाँ सादृश्य सम्बन्ध होता है; वहाँ गौगी लक्षणा मानी जाती है। जैसे "अग्निर्मागवकः" यहाँ माणवक में अग्नि के समान तेजस्विता होने के कारण गौणी लक्षणा मानी गयी है। इसीलिए गौणी लक्षणा का एक प्रकार है। वह लक्षणा से भिन्न वृत्ति नहीं है। व्यजना के बिना तो काव्य के प्रयोजनों में 'सकल-प्रयोजन-मौलिभूत सद्यःपरनिर्वृति' अर्थात् विगलित वेद्यान्तरानन्द और कान्तासम्मितोपदेश की प्राप्तिरूप प्रयोजनों की सिद्धि हो ही नहीं सकती है । यही आगे कहते हैं'ननु शास्त्रेषु' इति शास्त्रों में (मीमांसा, न्याय, वेदान्त आदि शास्त्रों में) व्यञ्जक शब्दों का नाम भी नहीं है इस शङ्का के समाधान के लिए वृत्तिकार ने लिखा है कि कारिका में आये हुए 'अत्र' का अर्थ है काव्य में । अर्थात काव्य का कार्य तो व्यञ्जना के बिना चल ही नहीं सकता। इसलिए काव्य में शब्दों के तीन प्रकारों की स्वीकृति अत्यन्त आवश्यक है। इसी को स्पष्ट करते हुए टीकाकार आगे लिखते है'काव्य इति (टोका) काव्य में (उस) चमत्कार-विशेष की उपपत्ति (समर्थन) व्यञ्जक शब्द की स्वीकृति के बिना नहीं की जा सकती जिसके कारण काव्य को अन्य शास्त्रों की अपेक्षा अधिक महत्त्व दिया जाता है। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशा [सू. ६] वाच्यादयस्तदर्थाः स्युःवाच्यलक्ष्यव्यङ्ग्या: । 'एषा मिति 'स्वरूप'-लक्षणं, तथा च शिष्यजिज्ञासानुरोधाद् नेदानीमेव तदुच्यत इति भावः । वृत्त्याश्रयस्य प्रथमं जिज्ञासाविषयत्वाद् अर्थस्यापि व्यञ्जनारूपवृत्त्याश्रयत्वमिति प्रथमतस्तत्र व जिज्ञासेति तान् विभजतेसूत्रार्थः - (सू० ६) 'वाच्यादय' इति-शब्दानामपि लक्षणमर्थघटितमिति तेषां लक्षणमकृत्वाऽप्यर्थविभाग इति नव्याः । ननु वाच्य आदिर्येषां ते वाच्यादय इति विग्रहेणातद्गुणसंविज्ञानबहुव्रीही वाच्यस्याप्रवेशो बहुवचनानुपपत्तिश्च । न च तद्गुणसंविज्ञानबहुव्रीहिणा त्रयाणामुपादानमिति वाच्यम् । लक्षणया त्रयाणामेकलक्ष्यतावच्छेदकप्रकारेणोपस्थितौ भिन्न-भिन्नविभाजकतावच्छेदकावच्छिन्नत्वेनानुपस्थित्या विभागानुपपत्तिः। ___ "गङ्गायां घोषः" में जो गङ्गा शब्द (प्रवाह अर्थ का) वाचक है वही (तीर अर्थ का) लक्षक है और वही (शोतत्व पावनत्वादि अर्थ का) व्यञ्जक है (ऐसी स्थिति में) यह शब्द वाचक ही है, या लाक्षणिक ही है, या व्यञ्जक ही है, यह नहीं कहा जा सकता । इस तरह शब्द का पूर्वोक्त विभाग गलत है, यह शंङ्का नहीं करनी चाहिए क्योंकि (यह विभाग शब्दों का नहीं; किन्तु शब्द की उपाधियों का किया गया है ) जिस प्रकार एक ही व्यक्ति उपाधिभेद अथवा सम्बन्धभेद से भिन्न (कभी पिता और कभी पुत्र) हो जाता है; उसी प्रकार (वाच्य, लक्ष्य और व्यङ्गयरूप) उपाधि के कारण भिन्न मान कर शब्द का विभाग किया गया है। (इस तरह) यह विभाग वस्तुतः शब्द का स्वभावकृत नहीं है; अपितु उपाधिकृत है ? जिस तरह उपाधिभेद से शब्द तीन प्रकार के होते हैं, उसी प्रकार अर्थ भी तीन प्रकार के होते हैं, यह अभी (मूल में) व्यक्त किया जायगा। (शब्द के) विभाग के उल्लेख के बाद लक्षण के सम्बन्ध में जिज्ञासा उत्पन्न होती है अर्थात् वाचक, लाक्षणिक और व्यञ्जक शब्द किसे कहते हैं, यह प्रश्न उठता है। इसलिए यहाँ उनका लक्षण देना उचित था; तथापि उनका लक्षण जो नहीं दिया गया है, उसका कारण बताते हैंकाव्यगत अर्थ के तीन भेद 'एषामिति'-इन (वाचक, लाक्षणिक और व्यञ्जक शब्दों का) स्वरूप (लक्षण) आगे ("साक्षात् सङ्कतितं योऽर्थमभिधत्ते स वाचक: "तद्भुर्लाक्षणिकः" "तयुक्तो व्यञ्जकः शब्दः" सूत्रों मे) बताया जायगा। इसलिए शिष्य की जिज्ञासा के अनुरोध से यही (अभी) उनका लक्षण नहीं बताया गया (आगे के निरूपण से शिष्य की जिज्ञासा शान्त हो ही जायगी इस आशय से और पिष्ट-पेषण से बचने के लिए उनका लक्षण यहां नहीं दिया गया। जिज्ञासू छात्र थोड़ी देर तक अपनी जिज्ञासा पूर्ति की प्रतीक्षा करें या आगे देखकर अपनी जिज्ञासा शान्त कर लें)। दूसरी बात यह भी थी जिससे अर्थ का निरूपण पहले किया गया। जिज्ञासा का प्रथम विषय वृत्त्याश्रय है; क्योंकि वृत्ति विशिष्ट शब्द से उपस्थिति अर्थ ही शाब्दबोध का विषय होता है। अथवा यों कहिए कि जिस अर्थ की उपस्थिति अभिधा, लक्षणा अथवा व्यजनावृत्ति से होती है; उसीका शाब्दबोध में भान होता है । अर्थात् गुड़ का शब्दार्थ मधुर नहीं माना जाता किन्तु Treacle ही माना माता है। इसलिए शब्दार्थ निरूपण प्रकरण में वत्त्याश्रय होने से जैसे शब्द के सम्बन्ध में (१) काव्य प्रकाश सूत्र ६, (२) का. प्र० सूत्र २६ (३) का. प्रा० सूत्र ३३ । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः किञ्च 'ब्राह्मणादीन् भोजय' इत्यत्र निमन्त्रितत्वस्येव अत्रार्थत्वस्यैव लक्ष्यतावच्छेदकत्वं वाच्यम्, तथा चार्थाः शब्दार्था इत्यर्थपर्यवसानेनानन्वयपौनरुक्त्ययोरापत्तिरुद्देश्यतावच्छेदक विधेयतावच्छेदकयोरभेदात् त्रिविधेति पदानुषङ्गेऽपि विभाजकतावच्छेदका नुपस्थितिस्तदवस्थैवेत्यत आह-'वाच्य लक्ष्यव्यङ्गयाः ' इति टीकार्थः । तथा च वाच्य-लक्ष्य-व्यङ्गयान्यान्यत्वमंत्र लक्ष्यतावच्छेदकम्, तद्घटकतया च वाच्यत्वादिविभाजकतावच्छेदकानां वाच्यादिविभाज्यानां चोपस्थित्या नानुपपत्तिः, यद्वा वाच्यपदे शक्त्यादिपदे लक्षणया द्वयेन च वाच्यत्वरूप शक्यतावच्छेदकलक्ष्यत्वव्य ङ्गत्वरूपलक्ष्यतावच्छेदकावच्छिन्नवाच्यादित्रयोपस्थितिरिति 'युक्त मुत्पश्यामः । ५ ननु पदार्थवद् वाक्यार्थस्यापि व्यञ्जनावृत्त्याश्रयतया भट्टमतसिद्धतात्पर्याख्यवृत्ति- प्रतिपाद्यतया च तद्विभागोऽपि कत्तमुचित इति तदकरणाद् न्यूनतेत्यत आह जिज्ञासा जगती है; उसी तरह (आर्थी व्यञ्जना में ) व्यञ्जना रूप वृत्ति के आश्रय होने से अर्थ के विषय में भी जिज्ञासा उत्पन्न होती है । उसे शान्त करने के लिए अर्थ का निरूपण करना आवश्यक था । इस लिए उनका (अर्थों का ) विभाग करते हैं । ( अवसर संगति) वाच्यादय इति वाच्य, लक्ष्य और व्यङ्गय ये तीन उन (वाचक, लक्षक और व्यञ्जक शब्दों) के अर्थ होते हैं । शब्दों के लक्षण अर्थघटित अर्थात् अर्थों को आधार बनाकर ही किये जाते हैं। इसलिए उनका (वाचक, लाक्षणिक और व्यञ्जक शब्दों का ) लक्षण (पहले) नहीं करके अर्थों का विभाग किया गया है। ऐसा नवीन आचार्यों का मत है । समावेश नहीं हो सकेगा तथा साथ अतिरिक्त अर्थ लक्ष्य और व्यङ्गघ यदि "वाच्यादयः " यहाँ, 'वाच्य है आदि जिनके' इस प्रकार विग्रह करने पर 'अतद्गुण-संविज्ञान- बहुब्रीहि ' मानें, तो ( वाच्यादि इस पद में वाच्य नहीं लिया जायगा ) वाच्य का ( अर्थ भेद में) साथ "वाच्यादयः” यहाँ बहुवचन का प्रयोग भी नहीं हो सकेगा। क्योंकि वाच्य के दो ही शेष रह जाते हैं, जिन का समावेश होने से वाच्यादि पद से द्विवचन होकर 'वाच्यादी' होना चाहिए, "वाच्यादयः" नहीं! तद्गुणसंविज्ञानबहुब्रीहि (मानने) से "वाच्यादय:" यह पद तीनों (वाच्य, लक्ष्य और व्यङ्गयों) का बोधक हो जायगा ? ऐसा नहीं कहना चाहिए; क्योंकि ( समास में पृथक् शक्ति नहीं मानने वाले और समस्त पदों में लक्षणा के द्वारा अर्थबोध करने के पक्षपाती नैयायिक के समान मत रखनेवालों के मत में लक्षणा के द्वारा तीनों एकलक्ष्यतावच्छेदकरूप में अर्थात् एकवाच्यादिरूप में उपस्थिति होगी, ऐसी स्थिति में भिन्न-भिन्न विभाजकतावच्छेदकावच्छिन्नत्वरूप से उपस्थिति नहीं होने पर (तीन) विभागों की उपपत्ति नहीं हो सकेगी। उन्हीं वस्तुओं में भेद माना जा सकता है; जिनकी उपस्थिति भिन्न-भिन्न रूप में होती है । वाच्य, लक्ष्य और व्यङ्गय में भेद माना जा सकता है; क्योंकि इनकी वाच्य, लक्ष्य और व्यङ्गय इन विभिन्नरूपों में उपस्थिति होती है। किन्तु यदि वाच्यादि शब्द से ही वाच्य, लक्ष्य और व्यङ्गघ की उपस्थिति हो तो इनमें भेद नहीं मान सकते हैं क्योंकि तीनों की उपस्थिति वाच्यादि एकरूप में होने के कारण इन्हें एक मानना चाहिए, अनेक नहीं। इस तरह " वाच्यादयस्तदर्थाः स्युः " इस सूत्र से अर्थ के जो तीन भेद बताना चाहते थे; वह सिद्ध नहीं हो रहा है यह प्रश्न का अभिप्राय है । इस 'सूत्र प्रयुक्त "वाच्यादयः” शब्द के कारण एक दोष और आ गया है, वह "किञ्च" शब्द से बताते हैं वह दोष हैं— उद्देश्य और विधेय की एकता । में जैसे यदि कोई कहे "ब्राह्मणादीन् भोजय" ब्राह्मणादि को खिलाओ तो समस्त ब्राह्मणादि मानवों को खिलाना असम्भव जानकर " निमन्त्रितान् ब्राह्मणादीन् भोजय" निमन्त्रित ब्राह्मणादि को खिलाओ; यही अर्थ मानना होगा । निमन्त्रित्व यहाँ लक्ष्यतावच्छेदक या उद्देश्यतावच्छेक होगा। ठीक इसी तरह "वाच्यादि" में अर्थत्व ही लक्ष्यतावच्छेदक होगा तब अन्ततोगत्वा सूत्र का रूपान्तर इस प्रकार होगा " अर्था: ( वाच्यादयः) तदर्थाः शब्दार्थाः " । यहाँ उद्देश्यता Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाश [सू. ७]--तात्पर्यार्थोऽपि केषुचित् ॥६॥ आकाङ्क्षासन्निधियोग्यतावशाद्वक्ष्यमाणस्वरूपाणां पदार्थानां समन्वये तात्पर्यार्थों विशेषवपूरपदार्थोऽपि वाक्यार्थः समुल्लसतीत्यभिहितान्वयवादिनां मतम् । (सू० ७) 'तात्पर्यार्थोऽपी'ति तात्पर्याख्यवृत्तिप्रतिपाद्य इत्यर्थः । अत एवाग्रे वक्ष्यति ते चाभिधालक्षणातात्पर्येभ्यो व्यापारान्तरगम्या इति । 'केषु'चिदिति मत इति शेषः तथा च परमतमेतन्न तु ममापीति न न्यूनतेत्यर्थः । न तु स्वमतमेव कथं नेतदत आह टीकार्थः-'पाकाङ्क्ष'ति । तथा चानन्यलभ्यत्वं वृत्त्यन्तराप्रतिपाद्यत्वम्, अस्य तु वृत्तिभिन्नावच्छेदक अर्थ है और विधेयतावच्छेदक भी अर्थ। इस तरह उद्देश्यतावच्छेदक और लक्ष्यतावच्छेदक के अभिन्न होने से सूत्रार्थ ठीक नहीं जमेगा । इसलिए यदि पूर्व सूत्र से “त्रिधा" की अनुवृत्ति करें, तो भी विभाजकतावच्छेदक की अनुपस्थिति (जो प्रथम दोष देते समय दिखायी गयी है) पूर्ववत् रहेगी ही। इसलिए वृत्ति में कहते हैं-वाच्य-लक्ष्य व्यायाः। अब वाच्य, लक्ष्य और व्यङ्गच में से प्रत्येक यहाँ लक्ष्यतावच्छेदक है। उसको लेकर विभाजकतावच्छेदक वाच्यत्व, लक्ष्यत्व और व्यङ्गयत्व की पृथक्-पृथक् उपस्थिति हुई और वाच्य, लक्ष्य और व्यङ्गयरूप विभाज्यों की भी अलग-अलग उपस्थिति हुई इसलिए (विभाग में) कोई अनुपपत्ति नहीं आयी। अथवा हम यों कहना पसन्द करेंगे कि "बाच्यादि पद" के वाच्य पद में शक्ति के कारण और आदि पद में लक्षणा के कारण वाच्यादि पद से वाच्यत्वरूप शक्यतावच्छेदकावच्छिन्न और लक्ष्यत्व तथा व्यङ्गयत्वरूप लक्ष्यतावच्छेदकावच्छिन्न वाच्यादि तीनों की उपस्थिति होती है। अर्थात् वाच्य पद से उसका मुख्य अर्थ शब्दार्थ लिया जाता है, आदि शब्द से उसके दो अर्थ लक्ष्य और व्यङ्गय लिये जाते हैं, इस तरह शक्ति और लक्षणा से वाच्यादि पद वाच्य, लक्ष्य और व्यङ्गय इन तीनों का प्रत्यायक बन जाता है। इसलिए पार्थक्य-साधक धर्मों की उपस्थिति हो जाने से विभाग अनुपपन्न नहीं हुआ। वाक्यार्थरूप अर्थ 'तात्पर्यार्थ'--.. ___ "तात्पर्यार्थोऽपि केषुचित्" इस सूत्र की अवसरसंगति बताते हुए कहते हैं कि-जैसे व्यञ्जनावृत्ति का आश्रय पदार्थ है वैसे ही वाक्यार्थ भी व्यजनावृत्ति का आश्रय है और वह वाक्यार्थ भटट (कुमारिल भटट) के मतानुसार न अभिधेय है और न लक्ष्य; किन्तु तात्पर्यार्थ है, तात्पर्यावृत्ति प्रतिपाद्य है। इस तरह अर्थ के विभागों में तात्पर्यार्थ का परिगणन भी होना चाहिए। तात्पर्यार्थ को अर्थ के भेदों में स्थान न देना (ऐसा न करना) न्यूनता न समझी जाय इसलिए कहते हैं-"तात्पर्यार्थोऽपि केषुचित्" । तात्पर्यार्थ का अर्थ है तात्पर्याख्यवृत्ति प्रतिपाद्य । अर्थात तात्पर्य नामक वृत्ति के द्वारा जो अर्थ प्रतिपादित होता है वह तात्पर्यार्थ है। इसीलिए आगे (विशेषाः स्युस्त लक्षिते, इस सत्र की वृत्ति में स्वयं) कहेंगे कि ('गङ्गायां घोषः' यहाँ तटादि में जो पावनत्वादि विशेषधर्म प्रतीत होते हैं। वे अभिधा, तात्पर्य और लक्षणा के अतिरिक्त किसी अन्य व्यापार से गम्य हैं । यहाँ तात्पर्याख्य व्यापार को अभिधा और लक्षणा के बीच बताने से स्पष्ट प्रतीत होता है कि तात्पर्यार्थ भी एक अर्थ है। केचित्" यहाँ 'मते' का अध्याहार या शेष मानना चाहिए । 'केषुचित्' यहाँ षष्ठी के अर्थ में सप्तमी है। इस तरह केषुचित् का अर्थ होगा "केषाञ्चिन्मते" अर्थात् किन्हीं के मत में तात्पर्यार्थ भी (एक अर्थ) है। तरह तार्यार्थ की स्वीकृति दूसरों का मत है, मेरा नहीं। इसलिए तात्पर्यार्थ को नहीं गिनाने से कोई न्यूनता नहीं आती। इसको दूसरों का मत दिखाने के लिए वत्तिकार लिखते हैं १. षष्ठ्य र्थेऽत्र सप्तमी। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः काक्षाज्ञानरूपान्यलभ्यत्वेन पदशक्त्यात्मकवृत्त्यन्तरलभ्यत्वेन वा नानन्यलभ्यत्वमिति नतात्पर्याख्य वृत्ति का शब्दार्थ इस प्रकार है जिन (पदार्थों) का स्वरूप आगे कहा जायगा, ऐसे (पदों द्वारा अभिहित) पदार्थों का आकांक्षा, योग्यता तथा सन्निधि के बल से परस्पर सम्बन्ध होने पर समन्वय होने में पदों से प्रतीत होनेवाला अर्थ न होने पर भी (तात्पर्य विषयीभूत अर्थ होने के कारण) विशेष प्रकार का तात्पर्यार्थ रूप वाक्यार्थ प्रतीत होता है यह अभिहितान्वयवादियों अर्थात् (कुमारिलभट्ट के अनुयायियों) का मत है। ___ यहाँ वृत्तिकार की पंक्ति दूरान्वयी होने से अधिक क्लिष्ट हो गयी है। "आकांक्षा-योग्यता-सन्निधिवशाद् वक्ष्यमाणस्वरूपाणां पदार्थानाम्” इस प्रकार के वाक्य-विन्यास के स्थान में “वक्ष्यमाणस्वरूपाणां पदार्थानाम् आकांक्षायोग्यतासन्निधिवशात् समन्वये" इस प्रकार का वाक्य-विन्यास होता तो अर्थ समझने में अपेक्षाकृत सरलता होती। इस सन्दर्भ में प्रयुक्त आकांक्षा, योग्यता तथा सन्निधि शब्द दार्शनिक शब्द हैं। इनका तात्पर्य समझे बिना इस प्रकरण को समझना कठिन है। इसलिए उनका तात्पर्य दिया जाता है । "आकांक्षा" श्रोता की जिज्ञासा है। एक पद को सुनने के बाद वाक्य के अन्य पदों को सुने बिना पूरे अर्थ का ज्ञान नहीं होता । इसलिए वाक्य के अगले पद के सुनने की इच्छा श्रोता में उत्पन्न होती है। इसी का नाम आकांक्षा है। जिन पदों के सुनने पर इस प्रकार की आकांक्षा होती है, उनके समुदाय को ही वाक्य कहा जाता है । आकांक्षाविहीन जैसे "गौरश्वः पुरुषो हस्ती शकुनिमंगो ब्राह्मणः" आदि पदों का समूह वाक्य नहीं कहलाता । "योग्यता पदार्थानां परस्परसम्बन्धे बाधाभावः" अर्थात् योग्यता पदार्थों के परस्पर सम्बन्ध के बाधाभाव को कहते हैं । जहाँ पदार्थों के परस्पर सम्बन्ध में बाधा उपस्थित होती है, उस पद-समुदाय को वाक्य नहीं कहा जाता और न उस पदसमूह से वाक्यार्थ बोध ही होता है । जैसे 'वह्निना सिञ्चति' इस पदसमूह में योग्यता नहीं है, क्योंकि अग्नि से सिंचाई नहीं की जा सकती है। इसलिए बह्नि (करण कारक) और सिञ्चन (क्रिया) के परस्पर सम्बन्ध में बाधा होने से योग्यता का अभाव है। इस कारण इसको वाक्य नहीं कहते हैं। ऐसे वाक्य से वाक्यार्थबोध भी नहीं होता। - 'सन्निधि' को भी वाक्यार्थबोध के लिए स्वीकृत कारणों में तीसरा कारण मानते हैं। इसका दूसरा नाम आसति भी है। पदों के अविलम्ब से किये गये उच्चारण को सन्निधि कहते हैं। बुद्धि में व्यवच्छेद या व्यवधान न आना ही आसत्ति है। यदि कोई व्यक्ति घंटे-घंटे भर बाद में पदों का उच्चारण करे तो ऐसे पदों के समूह को वाक्य नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उनमें सन्निधि या आसत्ति का अभाव है। 'गिरिभुक्तम् अग्निमान् देवदत्तन" ऐसे पदसमूह को भी वाक्य नहीं कहते हैं क्योंकि यहाँ आसत्ति नहीं है। "गिरिः अग्निमान्" इस बुद्धि का व्यवच्छेदक शब्द "भुक्तम्" बीच में आ गया है। 'भूक्तम् देवदत्तेन' इस बुद्धि में व्यवच्छेद उपस्थित करने वाला शब्द 'अग्निमान्' बीच में आ गया है। इसलिए इस वाक्य में आसत्ति नहीं है। अभिहितान्वयवाद प्रसिद्ध मीमांसक कुमारिल भद्र तथा उनके अनुयायी पार्थसारथि मिश्र आदि विद्वान् अभिहितान्वयवादी हैं। अभिहितान्वयवाद को स्वीकार करने के कारण ये अभिहितान्वयवादी कहलाते हैं। अभिधावत्ति से प्रतिपादित पदार्थ अभिहित कहलाते हैं और उनमें परस्पर अन्वय स्वीकार करना 'अभिहितान्वयवाद' कहलाता है। इस तरह अभिहितात्वयवाद का तात्पर्य यह है कि पहले पदों से पदार्थों की प्रतीति होती है, इसके बाद उन पदार्थों का परस्पर सम्बन्ध, जो अभिधा के द्वारा पदों से उपस्थित नहीं हुआ था, वाक्यार्थ-मर्यादा से उपस्थित होता है। इस मत में यह माना गया है कि पहले पदों द्वारा पदार्थ अभिहित होते हैं अर्थात् अभिधा शक्ति से पहले पदों का अर्थ उपस्थित होता है। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशः वृत्त्यन्तरविषयत्वं तथात्वेऽपि तत्कल्पने वृत्त्यन्तरमात्रोच्छेदापत्तिरित्याखण्डलकार्थः । बाद में वक्ता के तात्पर्य के अनुसार उनका परस्पर अन्वय या सम्बन्ध होता है; जिससे वाक्यार्थ की प्रतीति होती है। इस प्रकार वाक्यार्थ-बोध के लिए अभिहित पदार्थों का अन्वय मानने के कारण कुमारिल भट्ट आदि का यह सिद्धान्त 'अभिहितान्वयवाद' कहलाता है । इस मत में पदार्यों का परस्पर सम्बन्ध पदों से उपस्थित नहीं होता, किन्तु वक्ता के तलयं के अनुसार होता है। इसलिए इस अर्थ को 'तात्पर्याथ' कहते हैं वही 'वाश्यार्थ' है। वाक्यार्थ या तात्पर्यार्थ बोधक वृत्ति का नाम तात्पर्यवृत्ति है। अभिधा, लक्षणा और व्यञ्जना के अतिरिक्त 'तात्पर्यवृत्ति' को चौथी वृत्ति मानते हैं। मीमांसक व्यजना वृत्ति नहीं मानते हैं इसलिए उनके मत में यह चौथी वृत्ति नहीं, किन्तु तीसरी ही वृत्ति है। अभिहितान्वयवाद में पहले पदों से केवल अन्वय-रहित पदार्थ उपस्थित होते हैं और उसके पश्चात् पदों की आकांक्षा, योग्यता और सन्निधि के बल से तात्पर्य वृत्ति द्वारा उन पदार्थों के संसर्गरूप वाक्यार्थ का बोध होता है। इस तरह मम्मट ने कुमारिल भट्ट के मत का सारांश प्रस्तुत किया है। सिद्धान्त यह है कि 'अनन्यलभ्यो हि शब्दार्थः" । अर्थात् शब्दार्थ उसे मानना चाहिए जो अन्यलभ्य न हो, इसीलिए "पीनोऽयं देवदत्तः दिवा न भुङ्क्ते" यह देवदत्त मोटा है, पर 'दिन में नहीं खाता' यहाँ 'रात में अवश्य खाता होगा' इस प्रकार के अर्थ की जो प्रतीति होती है उसे अनुमेय या अर्थापत्तिबोध माना जाता है। अर्थापत्ति प्रमाण के द्वारा उस अर्थ की उपस्थिति मानी जाती है। वह 'रात्रि भोजन रूप अर्थ शब्दार्थ इसलिए नहीं माना जाता कि वह अन्यलध अर्थात् अनुमान या अर्थापत्ति प्रमाणलभ्य है । अनन्यलभ्य नहीं होने उसे शब्दार्थ नहीं मानते । 'अनन्यलभ्य' का शब्दार्थ है जो अन्य लभ्य न हो। अन्य शब्द सापेक्ष शब्द है अर्थात् अन्य शब्द सुनते ही जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि किससे अन्य ? उत्तर होगा वृत्ति से। क्योंकि शाब्दबोध में वृत्ति से उपस्थित अर्थ ही भासित होता है। इसलिए वृत्ति ही उपस्थित है, उसी से अन्य लिया जाना चाहिए। इस तरह 'अनन्यलभ्य' का तात्पर्य हुआ “वृत्यन्तरालम्प"-वृत्ति से भिन्न (अनुमानादि प्रमाणों) से जो लभ्य न हो, इस प्रकार के अर्थ को ही शब्दार्थ मानना चाहिए । (वाक्य में भासित होनेवाला) संसर्गरूप अर्थ तो वृत्ति (अभिधा) से भिन्न आकांक्षा के ज्ञानरूप अन्य (तत्त्व) से लन्ध होने के कारण अनन्यलभ्य नहीं है। अथवा वह संसर्गरूप अर्थ पद की शक्तिरूप अभिधावृत्ति से अन्य वाक्यमर्यादा (आकांक्षादि) से लभ्य होने के कारण अन्य लभ्य है, अनन्य लभ्य नहीं है। इसलिए तात्पर्याख्य वृत्ति माननी चाहिए। तात्पर्याख्य वृत्ति मानने पर सम्बन्ध या संसर्गरूप अर्थ की उपस्थिति भी वृत्ति (तात्पर्यावृत्ति) से ही होगी। इसलिए वह अर्थ भी वृत्यन्तराप्रतिपाद्य होने के कारण शाब्दबोध में भासित होगा। जैसा कि हुप्रा करता है। इसलिए उस (संसर्गरूप) अर्थ की उपस्थिति भी तात्पर्य नाम की वृत्ति से भिन्न (किसी अन्य प्रमाण) का विषय नहीं सिद्ध होती (इसलिए उसे शाब्दबोध में भासित होने में कोई बाधा नहीं होगी)। तात्पर्याख्य वृत्ति से उपस्थित होने पर भी यदि उस संसर्गरूप अर्थ को अभिधावृत्ति से भिन्न (वृत्ति) से उपस्थित होने के कारण वृत्त्यन्तर (प्रथम वृत्ति अभिधा से भिन्न वृत्ति से) प्रतिपाद्य होने के कारण अन्य लभ्य मानें तो अभिधा से भिन्न लक्षणा और व्यञ्जना-वृत्ति मानना व्यर्थ हो जायगा। तात्पर्य यह है कि "वृत्त्यन्तराप्रतिपाद्यत्वम्" इस पद में वृत्ति पद से केवल अभिधा का ही यदि ग्रहण करें तो 'गङ्गायां घोषः' यहाँ तीर अर्थ की उपस्थिति भी वृत्त्यन्तर से होने के कारण उस अर्थ को भी अनन्यलभ्य नहीं कहा जायगा और ऐसा होने पर उसका भी शाब्दबोध में भान नहीं होगा। इसलिए वृत्ति पद से सभी प्रकार की वृत्तियों का ग्रहण करना चाहिए। ऐसी स्थिति में लक्षणावृत्ति से उपस्थित अर्थ को जैसे अनन्यलभ्य कहते हैं। उसी तरह तात्पर्यायवत्ति से उपस्थित अर्थ को भी 'अनन्यलभ्य' मानना ही चाहिए। इसी तात्पर्य को टीकाकार ने आखण्डलकार्थ कहा है। आखण्डलक का अर्थ है सार । As a whole का जो तात्पर्य है वही तात्पर्य आखण्डलक का है। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः वाच्य एव वाक्यार्थ इत्यन्विताभिधानवादिनः । 1 'वक्ष्यमाणे 'ति । जात्यादीत्यर्थः । अन्वये वुभुत्सिते तात्पर्यार्थस्तात्पर्यरूपवृत्तिप्रतिपाद्यत्वेन परंरभिमतो वाक्यार्थ इत्यभेदेनान्वयः । अपदार्थत्वे हेतुः – विशेषवपुरिति घटानयनादिरूप इत्यर्थः । वादिनामिति बहुवचनेनान्विताभिधानापेक्षयाऽभिहितान्वयपक्षस्य समीचीनत्वं द्योत्यते । वृत्ति में "वक्ष्यमाणस्वरूपाणां पदार्थानाम्" में पदार्थानां का अर्थ है जात्यादि । आगे " सङ्केतितश्चतुर्भेदो जात्यादिर्जातिरेव वा" इस कारिका में जात्यादि को ही पदार्थ रूप में स्वीकार किया गया है । अन्वयबोध अभीष्ट होने पर नामक वृत्ति से प्रतिपाद्य होने के कारण प्रतीत होनेवाला तात्पर्यार्थ ही अन्य विद्वानों (अभिहितान्वयवादियों) के मत में वाक्यार्थ है, इस प्रकार अभेदान्त्रय मानना चाहिए । वाक्यार्थ अपदार्थ है अर्थात् वाक्यार्थ में पदार्थ ही भासित नहीं होता; किन्तु उसमें संसर्ग जो पदार्थ नहीं है वह भी भासित होता है। इसलिए वाक्यार्थ को पदार्थ समुदाय ही नहीं कह सकते हैं; किन्तु अन्वयबोधक संसर्ग - घटित पदार्थ समुदाय ही वाक्यार्थ होता है । इसलिए वाक्यार्थ को "विशेषवपुः " कहा गया है । यही प्रकट करते हुए बताते हैं कि वाक्य को अपदार्थ मानने में हेतु है उसका अर्थात् वाक्यार्थ का पदार्थसमूह की अपेक्षा विशेष (तुन्दिल) वपु (शरीर ) होना । 'घटमानय' में घट पदार्थ है घड़ा, अम् विभक्ति का अर्थ है कर्म, 'आनय' में आपूर्वक धातु का अर्थ है आहरण और लोट् लकार का प्रेरणा । इस तरह यहाँ पदार्थ समूह है घट कर्म आहरण प्रेरणा । वाक्यार्थ है घटक कारणानुकूल प्रेरणा । यहाँ घट और कर्म के बीच, तथा आहरण और प्रेरणा के बीच जो सम्बन्ध है वह पदार्थ नहीं है, किन्तु वाक्यार्थ है । उसकी प्रतीति के लिए तात्पर्यरूप वृत्ति मानना आवश्यक है, अतः वाक्यार्थ और तात्पर्यार्थ दोनों अभिन्न हैं । "अभिहितान्वयवादिनां मतम् " यहाँ " अभिहितान्त्रयवादिनाम्" में बहुवचन का प्रयोग किया गया है। "एकवचनं न प्रयुञ्जीत गुरावात्मनि चेश्वरे" अर्थात् गुरु के लिए, स्वयं तथा ईश्वर के लिए एकवचन का प्रयोग नहीं करना चाहिए इस सिद्धान्त के अनुसार बहुवचन के प्रयोग से यह प्रतीत होता है कि अन्विताभिधानवाद की अपेक्षा अभिहितान्वय अधिक समीचीन है । श्रन्विताभिधानवाद इसका कारण बताते हुए स्पष्ट करते हैं-अयम्भावः अर्थात् प्रभाकर और शालिकनाथ मिश्र आदि अभिधानवादी हैं । वे कहते हैं कि पहले केवल पदार्थ अभिहित होते हैं और बाद में उनका अन्वय होता है; ऐसी बात नहीं है । लेकिन वास्तविक बात तो यह है कि पहले से ही अन्त्रित पदार्थों का अभिधान होता है । अन्वित पदार्थों का ही अभिवान मानने के कारण इस मत को 'अन्त्रिताभिधानवाद' कहा गया है । इस मत में अभिधा अति पदार्थों का ही अभिधान माना गया है। इसलिए अन्वय संसर्ग के बोधन के लिए तात्पर्यवृत्ति की आवश्यकता नहीं पड़ती है। प्रभाकर ने अपने मत के समर्थन में इस प्रकार तर्क उपस्थित किया है कि - पदों से जो पदार्थों की प्रतीति होती है; वह 'सङ्केतग्रह' के बाद ही होती है और 'सङ्केत ग्रहण' व्यवहार से होता है। जैसे एक व्यक्ति जिसको यह ज्ञान नहीं है कि किस शब्द का क्या अर्थ है कौन-सा शब्द किस अर्थ के लिए प्रयुक्त हुआ है, जब अपनी माता को किसी व्यक्ति से "देवदत्त गाम् आनय" यह आज्ञा देते हुए पाता है तो उस समय वह न यह जानता है कि 'देवदत्त' का क्या अर्थ है और उसे न यह ज्ञान है कि 'गाम्' और आनय' का क्या अर्थ है । वह सम्पूर्ण वाक्य को सुनता है और एक व्यक्ति द्वारा गाय को लाते हुए देखता है। वह उस समय अखण्ड वाक्य का अखण्ड अर्थ समझता है। उसे अन्वित का ही बोध होता है। फिर यवासमय 'देवदत्त अश्वम् आनय' 'चैत्र गाम् आनय' 'देवदत्त गाम् बधान' Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशः तथाहि अयं भावः--अन्विते शक्तिमङ्गीकुर्वताऽपीतरान्विते शक्तिरङ्गीकार्या, न त्वानयनाद्यन्विते, शक्त्यानन्त्यप्रसङ्गात् । तथा च विशेषोपस्थितिराकाङ्क्षादि-सहकृतात् पदादेवेति वाच्यम्, एवं च किमन्वये शक्तिकल्पनया प्रकृतसहकारिविशिष्टपदादेव तदुपस्थितेरिति । वाच्य एवेति । न्यायमते यो वाक्यार्थः स वाच्य एव पदार्थ एवेत्यर्थः, वादिन इत्यत्र मतमित्यनूषजनीयम्, वदन्तीत्यध्याहारापेक्षया शीघ्रोपस्थितिकत्वात्, तेनैकवचनेन गौरवं द्योत्यते तद्बीजं चानन्यलभ्यत्वाभावः, गुरुनये जातिशक्तात् पदादेव व्यक्तिबोधवत् तदन्वयबोधसम्भवात् । आदि वाक्यों और व्यवहारों को देखकर वह पद और पदार्थों के ग्रहण और त्याग से देवदत्तादि पदों का अलग-अलग अर्थ जानता है। इस प्रकार व्यवहार से प्राप्त होने वाला यह संकेतग्रह हमेशा केवल-पदार्थ' में नहीं: अपित अन्वित. पदार्थ में ही होता है। इस तरह जब केवल अर्थात् अनन्वित-पदार्थ में संकेतग्रह ही नहीं होता तो 'केवल' अर्थात अनन्वित पदार्थ को उपस्थिति भी नहीं होती। इसलिए अन्वित का ही अभिधान अर्थात् अभिधा से अन्वित-पदार्थों की ही उपस्थिति मानना, उचित है। इस तरह अन्विताभिधानवादी अभिहितान्वयवाद के खण्डन तथा अपने मत के मण्डन में प्रमाण उपस्थित करते हैं। __टीकाकार ने बताया है कि "अभिहितान्वययादिनां मतम्" में बहुवचन के प्रयोग के कारण मम्मट अभिहितास्वयवाद को अन्विताभिधानवाद से अधिक समीचीन मानते थे यह प्रतीत होता है। इसका कारण यह है कि अन्वित में शक्ति मानने वालों के मत में भी (सामान्यरूपेण) इतर-पदार्थान्वित में ही शक्ति माननी होगी; विशेष रूप से आनयनादि पदार्थ से अन्वित में शक्ति नहीं मान सकते; क्योंकि वैसा मानने पर अनन्त शक्ति की कल्पना करने में अनावश्यक गौरव होगा। फिर तो 'गामानय' में गवादि विशेष पदार्थ की उपस्थिति के लिए आकांक्षादि की ही शरण लेनी पड़ेगी अर्थात् यह मानना पड़ेगा कि आकांक्षादि की सहायता से सम्पन्न पद से ही गवादिरूप विशेष पदार्थों की उपस्थिति 'गामानय' इत्यादि स्थल में हो जायगी। ऐसी स्थिति में भी जब आकांक्षादि की सहायता की शरण लेना अनिवार्य ही होता है तो 'अन्वित' में शक्ति कल्पना व्यर्थ ही है; क्योंकि अनन्वित में शक्ति की कल्पना करने वाले कुमारिल भद्र को भी आकांक्षादि की सहायता द्वारा पदों से विशेष की उपस्थिति होती है । इस कल्पना में आकांक्षादि के सहकार की अपेक्षा होती ही है । एवञ्च (इस तरह) अन्वय में शक्ति कल्पना से क्या (लाभ) ? पहले ही अभिहितान्वयवाद के अनुसार आकांक्षादिसहकृत पद से वाक्यार्थ की उपस्थिति हो ही जायगी। अर्थात् अन्त में आकांक्षादि के सहकार की कल्पना करने की अपेक्षा पहले ही उसके सहकार को स्वीकार कर लेना चाहिए। अन्विताभिधानवादी के मत का उल्लेख करते हुए लिखते हैं 'वाच्य एव वाक्यार्थः' । अर्थात् अभिधा अन्वित का बोध कराती है। इसलिए अन्वित पदार्थरूप वाक्यार्थ ही वाच्य है । (इस मत का विस्तृत विवरण पीछे दिया गया है) टोकार्थ न्याय के मत में जो वाक्यार्थ है वह वाच्य ही है अर्थात पदार्थ ही है । "अन्विताभिधानवादिनः' यहाँ 'मतम्' की अनुवन्ति माननी चाहिए। यद्यपि 'अन्विताभिधानवादिनः" को प्रथमा बहुवचन मानकर 'वदन्ति' का अध्याहार करके अन्विताभिधानवादी ऐसा कहते हैं, ऐसा भी अर्थ किया जा सकता है तथापि पूर्ववाक्य में “इति अभिहितान्वयवादिनां मतम्' में 'मतम्' पद के आने से 'मतम्' को उपस्थिति 'बदन्ति' के अध्याहार की अपेक्षा शीघ्र होने से उस पद को प्रथमा-बहुवचन नहीं माना गया और न 'वदन्ति' का अध्याहार किया गया। पाठक के संस्कार में पूर्ववाक्य का 'मतम्' पहले से ही विद्यमान था। इसलिए वदन्ति' के अध्य हार के लिए आकांक्षा ही नहीं जगी। "अन्विताभिधानवादिनः" के आगे 'मतम्' शब्द का सम्बन्ध मानने से एक लाभ यह भी हआ कि इससे मम्मट किस मत को Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लास: किञ्च व्यक्तेरवाच्यत्वे तदन्वयवाच्यत्वानुपपत्तिः क्रियाकारकपदयोः प्रत्येकमितरान्वितस्वार्थबोधकत्वे वाक्यार्थद्वयधीप्रसङ्गश्च । अन्वये शक्तौ पदात्तस्यापि स्मरणे शाब्दानुभवस्य गृहीतविषयत्वेन शब्दस्यागृहीतग्राहित्वलक्षणप्रामाण्याभावप्रसङ्गश्च। न चाशक्यानुभवेऽतिप्रसङ्गादन्वयेऽपि शक्तिरिति अधिक महत्त्व देते हैं, यह भी द्योतित हो गया। पूर्वमत में “वादिनाम्" में बहुवचन और इस मत में 'वादिनः' में एकवचन के प्रयोग ने स्पष्ट कर दिया कि उत्तर मत मम्मट सम्मत नहीं है, क्योंकि इस मत में गौरव होता है (गौरव की प्रक्रिया अभी दिखाई गयी है)। गौरव का कारण 'अनन्यलभ्यत्वाभाव:' दूसरे से लभ्य नहीं होने का अभाव है अर्थात् अन्य लभ्यत्व । गुरु प्रभाकर के मत में जाति में शक्ति रखनेवाले पदों से ही जैसे व्यक्ति का बोध (माक्षेप से) हो जाता है, उसी तरह पदान्वय-बोध भी आकांक्षादि से हो जायगा । अत: अन्वित में शक्ति मानना और फिर अन्वित-विशेष के बोध के लिए आकांक्षादि के सहकार की कल्पना करना गौरवग्रस्त है। ___ तात्पर्य यह है कि जैसे मीमांसक प्रभाकर शब्द का अर्थ जाति मानते हैं। इसलिए उनके मत में 'गो' पद का अर्थ गो जाति होता है। जातिरूप अर्थ "गौः पशुः" यहाँ तो ठीक उतरता है किन्तु "गामानय” यहाँ ठीक नहीं उतरता, क्योंकि पूरी गोजाति का लाना न सम्भव है और वक्ता का तात्पर्य ही वैसा है। वह तो एक गाय लाने की विवक्षा से ही इस वाक्य का प्रयोग करता है। इसलिए गुरु प्रभाकर के मत में व्यक्ति का बोध आक्षेप से होता है । जब गुरु प्रभाकर के मत में जाति अर्थ बताने में शक्त पद से व्यक्ति का बोध हो सकता है तो अपने-अपने अर्थों में शक्तपद से अन्वयबोध भी सम्भव है। इस तरह अन्वयबोध भी तात्पर्यवत्ति के बिना ही हो जायगा। तात्पर्यवत्ति और तात्पर्यार्थ के स्वीकार करने की आवश्यकता नहीं है। इतना ही नहीं, व्यक्ति को शब्दार्थ नहीं मानने पर उस (व्यक्ति) के अन्वय को वाच्य नहीं माना जा सकता। अन्वित में शक्ति मानते हुए भी अन्विताभिधानवादी विशेष रूप से गवानयन में शक्ति नहीं मानते है; किन्तु सामान्य रूप से इतरान्वय में शक्ति मानते हैं विशेष रूप में अर्थात् गवानयन में शक्ति मानने से अश्वानयन, वृषभानयन आदि अनन्त शक्ति मानने का गौरव होगा। परन्तु यहाँ यह प्रश्न उठता है कि वाक्य में किया और कारक दोनों पद होते हैं तो क्या कारकान्वित क्रिया में शक्ति माननी चाहिए या क्रियान्वित कारक में? यदि क्रिया को इतरपदार्थ (कारक) से अन्वित स्वार्थ (क्रियार्थ) बोधक माने तो विनिगमना (साधक और बाधक प्रमाणों) के अभाव में कारक को भी इतरपदार्थ (क्रियापदार्थ) से अन्वित स्वार्थ (कारकार्थ) बोधक मानना पडेगा। ऐसी स्थिति में दो-दो वाक्यार्थबोध होंगे-एक कारकान्वित क्रियार्थप्रकारक शाब्दवोध होगा और दूसरा क्रियान्वित कारकप्रकारक, जोकि अनुभव विरुद्ध है । अन्वय में (पद की शक्ति) मानने पर एक दोष और यह होगा कि पद से उसका (अन्वित पदार्थ का) भी स्मरण हो जायगा। ऐसी स्थिति में शब्द से प्राप्त ज्ञान (शाब्दबोध) को पूर्वगृहीत मानना पड़ेगा ऐसा स्वीकार करने पर शब्द को अगृहीत (अज्ञातग्राहित्व) बोधक होने के कारण जो प्रामाण्य माना गया है; उसका भङ्ग हो जायगा। यदि यह कहें कि अन्वय में शक्ति नहीं मानने पर ऐसे अनुभव में जो शक्यार्थ नहीं है वहाँ अतिव्याप्ति हो जायगी जैसे "ब्राह्मण ! पुत्रस्ते जातः" अर्थात हे ब्राह्मण, तुझे पुत्र हुआ है, यहाँ प्रसन्नतारूप अनुभव को कोई शक्यार्थ नहीं मानता; परन्तु अन्विताभिधान में उसे भी शक्यार्थ मानना पड़ेगा, इसलिए अतिव्याप्ति-दोष के निवारण के लिए अन्वय में भी शक्ति स्वीकार करनी चाहिए तो यह कथन उचित नहीं होगा, क्योंकि स्वरूप-सम्बन्ध से शक्यान्वय को अशक्यान्वय का निवर्तक माना गया है। अर्थात् अन्वित शक्यार्थों का बोध ऐसे बोध को शब्दजन्य मानने में बाधक होगा जो कि शक्यार्थ नहीं है और किसी रूप में अनुभव में भासित होते हैं। ऐसा नियम अभिहितान्वयवाद में भी मानना आवश्यक है अन्यथा अशक्यानुभव को वाक्यार्थ नहीं मानने के लिए कोई प्रमाण नहीं रह जाता है। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशः वाच्यम्, शक्यान्वयत्वस्य स्वरूपसतो नियामकत्वात्, अन्यथा तवाप्यप्रतीकारादिति । प्रदीपकृतस्तु तात्पर्यार्थोऽपोत्यादीनामन्यथाऽर्थमामनन्ति, तथाहि-- ननु वृत्ति प्रतिपाद्यवाच्याद्यर्थववृत्त्यप्रतिपाद्योऽपि वाक्यार्थस्तात्पर्यापरनामधेयोऽस्ति स कुतो नोक्तः ? ___ अत आह-तात्पर्यार्थोऽपोति । केषुचिन्मते, न तु सर्वेषु, केषां तन्मतम् ? इत्यपेक्षायामाह[मूलम् ] 'आकाङ्क्षादीत्याद्यभिहितान्वयवादिनां मतमित्यन्तेन ।' अत एव केषुचिदिति सप्तमीबहुवचनं षष्ठीबहुवचनार्थतया व्याख्यातं वादिनामित्यनेन, अत एवान्विताभिधानवादिन इत्यत्र बहुवचनम् 'अपदार्थोऽपि' पदवृत्त्यप्रतिपाद्योऽपि, तथा चान्वयस्तेषां मते पदवृत्तिप्रतिपाद्यो न भवतीति, स च वाच्यादिभिन्नो वृत्त्यप्रतिपाद्य इत्यर्थः । कथं नैतत् सर्वेषां मतम् ? इत्यपेक्षायामाह 'वाच्य एवेति । तथा च वृत्त्यप्रतिपाद्योऽर्थो नास्त्येव वाक्यार्थस्याप्यभिधारूपवृत्तिप्रतिपाद्यतेवेति न तन्मते पृथक् तस्य विभाग इत्याशयः । अन्विताभिधान प्रदीपकार ने "तात्पर्यार्थोऽपि केषुचित्" इत्यादि का कुछ और अर्थ माना है। वह इस प्रकार है 'वृत्ति (अभिधा, लक्षणा और व्यञ्जना) से प्रतिपादित अर्थ-वाच्य, लक्ष्य और व्यङ्गय-की तरह वृत्ति से अप्रतिपादित अर्थ भी वाक्यार्थ के रूप में प्रतीत होता हैं । उसी का दूसरा नाम तात्पर्यार्थ है । वह (अर्थ भेद में) क्यों नहीं कहा गया ? अर्थात् उसे अर्थ के प्रकारों में क्यों नहीं गिना गया ? इसलिए कहते हैं तात्पर्यार्थोऽपि"। सूत्र में 'केषुचित्' कहा गया है जिसका तात्पर्य है किन्हीं के मत में । अर्थ का एक भेद तात्पर्यार्थ भी है, सबके मत में नहीं। वह मत किनका है इस प्रश्न का उत्तर देते हुए वृत्ति कार ने 'आकांक्षा' यहाँ से लेकर "अभिहितान्वयवादिनां मतम्" यहाँ तक का ग्रन्थ लिखा है। इसीलिए कारिका में 'केषुचित्' जो सप्तनी बहुवचन है, उसको षष्ठीबहुवचनार्थक मानकर व्याख्या करते हए वत्तिकार ने लिखा है "अभिहित न्वयवादिनाम्" और इसीलिए "अन्विताभिधानवादिनः" यहाँ भी (प्रथमा) बहुवचन ही प्रयुक्त हुआ है। बात यह है कि अभिहितान्वयवाद में अन्वय (संसर्ग) पदार्थ नहीं है, इसीलिए उसे अपदार्थ कहा गया है। यहाँ अपदार्थ का अर्थ है पद की वृत्ति (अभिधा आदि) से अप्रतिपाद्य । उनके (अभिहितान्वयवादियों के) मत में अन्वय पदवृत्ति (अभिधादि से) प्रतीतियोग्य नहीं माना गया है। (इसलिए) वह (उनके मत में) वाच्य लक्ष्यादि से भिन्न है; क्योंकि वह वृत्ति से प्रतिपाद्य नहीं है। यह मत सभी का क्यों नहीं है? इस जिज्ञासा की शान्ति के लिए कहते हैं-'वाच्य एव' इत्यादि । अर्थात् मीमांसकों में भी प्रभाकर गुरु आदि का एक दल ऐसा है, जिन्हें अन्विताभिधानवादी कहते हैं वे अन्वित का ही अभिधान मानते हैं। इसलिए उनके मत में वाक्यार्थ वाच्य ही है, न कि तात्पर्यार्थ । इसलिए अर्थ का चौथा भेदतात्पर्यार्थ-मानने की आवश्यकता नहीं है। इसलिए यह मत सबका नहीं माना जा सकता। प्रदीपकार का आशय यह है कि शाब्दबोध में भासित होनेवाला कोई अर्थ ऐसा नहीं है जो वृत्ति से प्रतिपादित न होता हो। वाक्यार्थ की भी अभिधावति से ही प्रतीति होती है; इसलिए वाक्यार्थ भी वाच्य ही है। अत: वाक्यार्थ को अर्थ का चौथा भेदतात्पर्यार्थ मानने की कोई आवश्यकता नहीं है। 'अन्विताभिधानवादिनः" के आगे 'वदन्ति' इस क्रिया का शेष या अध्याहार मानना चाहिए। इस तरह यहां भी बहवचन के आजाने से पूर्वमत के सम्मान का जो तात्पर्य निकाला गया था; वह भी निर्मूल प्रमाणित हो गया। दोनों मतों के स्त्रीकर्ताओं के लिए बहवचन के प्रयोग के कारण किस मत की ओर मम्मट का अधिक झकाब है। यह सिद्ध नहीं होता। बहवचन के प्रयोग को आधार बनाकर किसी एकमत को मम्मट का अपना मत नहीं बताया जा सकता। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः [सू. ८] सर्वेषां प्रायशोऽर्थानां व्यजकत्वमपोष्यते । वादिन इत्यत्र वदन्तीति शेषः । अग्रे वाच्यव्यञ्जकतायां वाक्यार्थस्यैवोदाहरणादत्रागौरवं व्यञ्जनानीचित्यादिति व्याचक्षते ? नन्वर्थस्यापि व्यञ्जनावृत्त्याश्रयत्वेन तद्विभागप्राथम्यमयुक्तं शब्दोपस्थापितार्थस्यैव व्यञ्जकत्वं न पूनरनुमानाद्यपस्थापितस्यापीति शब्दानामावश्यकत्वात् तद व्यञ्जनयवोपपत्तौ किमर्थव्यञ्जनास्वीकारेणेत्यतः । (सूत्र-८) 'सर्वेषा'मिति-एतच्छब्दविशेषणं सर्वेषामर्थानामिति च व्यधिकरणे षष्ठ्यौ , तेनैक इसके विपरीत आगे (सर्वेषां प्रायशोऽर्थानां व्यञ्जकत्वमपीष्यते) इसकी वृत्ति में वाच्य-ठाजकता के उदाहरण में वाक्यार्थ को ही वाच्य मानकर उदाहरण दिया गया है । अर्थात् वाच्य-व्यजकता का जो उदाहरण दिया गया है; वहाँ वास्तव में वाक्यार्थ- व्य कता ही है। इससे सिद्ध होता है कि मम्मट वाक्यार्थ को वाच्य ही मानते थे। इस तरह (अन्विताभिधानवाद में) जो गौरव दिखाया गया था; वह नहीं है। यदि गौरव होता तो मम्मट वाक्यार्थव्यजकता को "वाच्यस्य यथा' शब्द के द्वारा वाच्य-व्यञ्जना का उदाहरण कैसे देते ? इस तरह प्रदीपकार ने 'अन्विताभिधानवाद' को ही अधिक उक्ति संगत और मम्मटाभिमत स्वीकार किया है। अवसर संगति ('नन्वर्थस्यापी'ति) - अर्थ भी व्यञ्जना-बत्ति का आश्रय है। इसलिए अर्थ-विभाग को जो प्राथमिकता दी गयी है; वह अयुक्त जान पड़ती है। शब्द से उपस्थापित अर्थ को ही व्यजक मान सकते हैं, अनुमान या अर्थापत्ति के द्वारा उपस्थापित अर्थ को व्यङजक नहीं मान सकते हैं, इसलिए व्यजकता के उदाहरणों में जब सब जगह शब्द का रहना अनिवार्य ही है; तव शाब्दी व्यञ्जना से ही काम बन जायगा, आर्थी व्यजना या अर्थ-व्यञ्जना मानना व्यर्थ है इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैंत्रिविध शब्दार्थों को व्यञ्जकता . "सर्वेषाम् प्रायशोऽर्थानां व्यञ्जकत्वमधीष्यते" इसका तात्पर्य भिन्न-भिन्न टीकाकारों ने अलग-अलग ढंग से लिखा है। 'प्रदीपकार" ने कारिका में आये हुए 'अपि' शब्द का सम्बन्ध “अर्थानाम" के साथ करके अर्थ कियाहै'सभी प्रकार के अर्थ (वाच्य, लक्ष्य, और व्यङ्गय) भी व्यजक हो सकते हैं । सभी प्रकार के शब्द (वाचक, लाक्षणिक और व्यजक) तो व्यजक होते ही हैं, अर्थ भी व्यञ्जक होते है ।' उद्योतकार ने 'अपि' को यथा स्थान रहने दिया है। उनके मत में कारिका का अर्थ होगा- 'सभी प्रकार के अर्थों में व्यञ्जकता भी होती है। व्यञ्जकता की अवस्था में भी शब्द वाचक और लाक्षाणिक बने रहते हैं। ऐसा नहीं कि जो शब्द या अर्थ व्यजक बन गया वह वाचक या लाक्षणिक नहीं रहा।' प्रस्तुत टीकाकार ने "सर्वेषाम्" को शब्द का विशेषण माना है और 'सर्वेषाम्' और 'अर्थानाम्' दोनों जगह षष्ठी को ब्यधिकरण में षष्ठी स्वीकार किया है। इस तरह इसका अर्थ हआ कि-'सभी शब्दों के अर्थात् पर्याय रूप में स्वीकृत सभी शब्दों के द्वारा उपस्थापित (प्रतीत) होने वाले जितने अर्थ हैं उनकी भी व्यजकता ग्रन्थकार को अभीष्ट है। शाब्दी और प्रार्थी व्यञ्जना तात्पर्य यह है कि व्यञ्जना दो प्रकार की होती है १-~-शाब्दी व्यञ्जना जो किसी शब्द-विशेष के रहने पर रहती है और उसके अभाव में नहीं रहती है । जैसे "उन्नत –पयोधर" यहाँ पयोधर शब्द मेघ वाचक है और 'स्तन' Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशः पर्यायतापन्नानां सकलशब्दानामुपस्थाप्या येऽर्थास्तेषामपि व्यञ्जकत्वमिष्यत इत्यन्वयः । अयमर्थः"उण्णअपओहरे" त्यादौ [का.प्र., ४ उ., ५८ उदा.] पयोधरपर्याया ये जलदजीमूतमुदिरमेघादिशब्दास्तैरुपस्थापितस्यार्थस्य न व्यञ्जकत्वम्, अपि तु पयोधरपदोपस्थापितस्यैवेति भवति तत्र शब्दस्य व्यजकत्वम्, तदन्वयव्यतिरेकानुविधानात्, यत्र तु येन केनचित् पर्यायशब्देन तदर्थोपस्थितौ भवति व्यङ्गयोपस्थितिस्तत्र शब्दविशेषान्वयव्यतिरेकानुविधानात्, यत्र च येन केनचित् पर्यायशब्देन तदर्थोपस्थिती भवति व्यङ्गयोपस्थितिस्तत्र शब्द-विशेषान्वयव्यतिरेकत्यागादर्थस्यैवान्वयव्यतिरेकत्यागादर्थस्यैवान्वय अर्थ का अभिव्यञ्जक । यहाँ शाब्दी व्यञ्जना है क्योंकि यदि पयोधर शब्द को हटाकर मेघ अर्थ के वाचक जीमत, जलद आदि शब्द का प्रयोग किया जाय तो यहाँ 'स्तन' अर्थ की अभिव्यक्ति नहीं होती। इसलिए यहाँ की व्यञ्जना शब्द-विशेष (पयोधर शब्द) के साथ जीती है और उसके साथ ही मरती है। इसलिए "तत्सत्त्वे तत्सत्ता तदभावे तद मावः" रूप अन्वय-व्यतिरेक के कारण यहाँ की व्यञ्जना शाब्दी व्यञ्जना है। २-आर्थी व्यजना जो किसी शब्द-विशेष . के साथ जीती मरती नहीं हैं; उसका अन्वय-व्यतिरेक अर्थ-विशेष के साथ रहता है, शब्द-विशेष के साथ नहीं। जैसे "मातगृहोपकरणमद्य" यहाँ 'मातः' शब्द को बदलकर 'जननि', 'गृहोपकरण' के स्थान पर "सदन तथा सामग्री" आदि कोई भी पर्याय रख दें तो भी व्यङ्गयार्थ की हानि नहीं होती। इस तरह जहाँ शब्दव्यञ्जना पर्यायपरिवृत्ति को सहन नहीं करती; वहाँ आर्थीव्यञ्जना में कोई भी पर्याय रखा जा सकता है। इस तरह जैसे शाब्दी व्यञ्जना शब्दाश्रय होती है, उसी तरह आर्थी व्यजना अर्याश्रय होती है। आर्थी व्यञ्जना में अर्थ ही वत्ति का आश्रय है। इसलिए अर्थ के विभाग को प्राथमिकता देना उचित ही था; क्योंकि व्यञ्जना वृत्ति का आश्रय जैसे शब्द है वैसे अर्थ भी है । 'अयमर्थ' इत्यादि (टीका) इसी बात को कहते हैं कि (शाब्दी व्यञ्जना में) पयोधर के पर्याय जितने जलद-जीमूत-मुदिर और मेघादि शब्द हैं; उनसे उपस्थापित अर्थ को व्यजक नहीं कह सकते हैं क्योंकि ये शब्द 'स्तन' अर्थ के प्रतिपादक नहीं हो सकते) । इसलिए पयोधर पद से उपस्थित होने वाला अर्थ ही व्यजक है। यही कारण है कि यहाँ शब्द को व्यजक माना गया है। व्यङ्गय अर्थ उसी (पयोधर) शब्द के साथ जीता और मरता है । अर्थात् व्यङ्ग्य अर्थ का अन्वय (तत्सत्त्वे तत्सत्ता) और व्यतिरेक (तदभावे तदभावः) पयोधर शब्द-विशेष के साथ है। तत् (पयोधर) शब्द की सत्ता (विद्यमानता) में तत् ('स्तन' रूप व्यङ्गय अर्थ की) सत्ता रहती है और उस पयोधर शब्द के अप्रयोग में (मेघ अर्थ के वाचक अर्थ शब्दों के रहने पर भी) उस व्यङ्गय अर्थ का अभाव हो जाता है । शब्द-परिवर्तन को नहीं सहन करना शाब्दी व्यञ्जना का स्वभाव हुआ करता है। किन्तु जहाँ जिस किसी भी पर्याय शब्द से अर्थ की उपस्थिति होने पर व्यङ्गय की प्रतीति होती है वहां (शाब्दी व्यञ्जना की तरह) शब्द के साथ व्यङ्गय का अन्वय-व्यतिरेक नहीं रहता; अपि तु शब्द विशेष के साथ अन्वय-व्यतिरेक का त्याग रहता है और अर्थ-विशेष के साथ ही अन्वय-व्यतिरेक रहता है । इसलिए (आर्थीव्यञ्जना में) अर्थ ही व्यजक होता है और वहीं वत्त्याश्रय होने के कारण अर्थ-विभाग को प्राथमिकता दी गयी है (वत्ति-विभाग को नहीं)। १. सम्पूर्णा गाथा यथा पंथिन रण एत्य सत्थरमत्थि मणं पत्थरत्थले गामे। उण्ण अपग्रोह: पेख्खिऊण जइ वससि ता वससु ॥ पिथिक नात्र स्रस्तरमस्ति मनाक प्रस्तरस्थले ग्रामे । उन्नतपयोधरं प्रेक्ष्य यदि वससि तदा वस ॥ इति संस्कृतम्] Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ द्वितीय उल्लासः व्यतिरेकानुविधायित्वाइ व्यञ्जकत्वमिति वृत्त्याश्रयत्वेन तद्विभागप्राथम्यमनवद्यमिति न सर्वार्थव्यक्तेwञ्जकत्वम्, अपि तु वक्तृबोद्धव्यादिसहकारिविशेषविशिष्टार्थव्यक्तेरेवेत्यत उक्तं 'प्रायश' इति । __ननु वृत्त्याश्रयविभागे प्रक्रान्ते कस्यचिदर्थस्यापि व्यञ्जनारूपवृत्त्याश्रयत्वमिति तस्मिन् विभजनीये तदन्यवाच्यादीनां विभजनमभुक्तवान्तिमनुहरतीति, अत आह-सर्वेषामिति, सर्वशब्दोऽत्र पूर्वप्रक्रान्तवाच्यादित्रयपरामर्शकः, तथा च व्यञ्जकत्वमपि वाच्यलक्ष्यव्यङ्गयानामर्थानां न तु व्यञ्जकनामा तद्भिन्नोऽर्थः कश्चिदस्तीति स एव व्यञ्जकविभाग इति भावः । ___ अथवा ननु वृत्त्याश्रयत्वं वाच्यलक्ष्ययोरेव, व्यङ्गयस्यापि व्यञ्जकत्वेऽनवस्थापत्तिरिति कथं वाच्यादय इत्यनेन व्यङ्गयग्रहणमित्यत आह-सर्वेषामिति । तथा च व्यङ्गयस्यापि व्यञ्जकत्वमस्त्ये कारिका में 'प्रायश:' पद के निवेश का प्रयोजन बताते हए कहते हैं कि- 'केवल अर्थ की उपस्थिति ही व्यङ्गय के लिए पर्याप्त नहीं होती; किन्तु व्यङ्गय की उपस्थिति के लिए विशेष प्रकार के बक्ता, श्रोता, काकु, प्रकरण आदि की सहायता भी अपेक्षित होती है।' इसी आशय से 'प्रायशः' शब्द का प्रयोग किया गया है । अर्थात् सभी अर्थ की अभिव्यक्ति को व्यजक नहीं मान सकते किन्तु वक्ता और श्रोता आदि के सहकार के कारण विशेष प्रकार की अर्थोपस्थिति हो व्यञ्जक हो सकती है। 'ननु वृत्त्याश्रयविभागे' इत्यादि (टीका) कारिका में 'सर्वेषां' पद के निवेश का प्रयोजन बताने के उद्देश्य से पहले प्रश्न करते हैं कि-वृत्त्याश्रय के विभाग के इस प्रकरण में यदि कोई अर्थ जो वक्त-बोद्धव्य आदि के सहकार से सम्पन्न होकर व्यजक हो रहा है तो व्यजनारूप-वृत्ति का आश्रय होने के कारण उसका विभाग करना तो उचित है, किन्तु उस अर्थ से भिन्न वाच्यलक्ष्यादि का विभाग करना तो 'अभुक्त-वान्ति' की तरह निमल और प्रकरण-विरुद्ध जैसा लगता है। जैसे वमन (उल्टी) में वही चीज गिरती है; जो खायी गयी हो, यदि वमन में कोई ऐसी चीज गिरे जो खायी न गयी हो तो चिन्ता का विषय बन जायेगा, उसी प्रकार अाकरणिक वस्तु (वाच्य आदि) का निरूपण यहां चिन्तनीय बन जायगा ऐसा न हो, इसीलिए कारिका में 'सर्वेषाम्' पद का निवेश किया गया है। यहाँ 'सर्व' शब्द पूर्व वणित, प्रकरणागत वाच्य, लक्ष्य और व्यङ्गच तीनों का परामर्शक (बोधक) है। इस तरह यह ध्वनित हुआ कि वाच्य, लक्ष्य और व्यङ्गय ये सभी प्रकार के अर्थ भी व्यञ्जक हो सकते हैं । किन्तु ये जिन अर्थों के व्यञ्जक होंगे; वे अर्थ भी व्यञ्जक ही कहलायेंगे । वाच्य, लक्ष्य और व्यङ्गय अर्थों की व्यजकता से यह नहीं समझना चाहिए कि व्यजक नाम का कोई भिन्न अर्थ वहाँ आ गया। जो वाच्च या जो लक्ष्य या जो व्यङ्गय, व्यञ्जक बन गया वह वाच्य या लक्ष्य या व्यङ्गय से अतिरिक्त किसी अन्य नाम से अभिहित होने का अधिकारी नहीं बन गया । इसलिए व्यञ्जक का विभाग वही रहेगा; कोई नया नहीं बनेगा। 'अथवा ननु वृत्त्याश्रयत्वम्' इत्यादि (टीका) अथवा वृत्ति (ब्धजना) का आश्रय वाच्य या लक्ष्य अर्थ को ही मानना चाहिए व्यङ्गय को भी (व्यञ्जनावृत्ति का) आश्रय मानकर व्यजक मानने पर अनवस्था-दोष आजायगा, क्योंकि एक व्यङ्गय को दूसरे व्यङ्गय का, दूसरे को तीसरे और तीसरे को चतुर्थ व्यङ्गय का व्यञ्जक मानते जायेंगे। इस प्रकार अनन्त व्यङ्गयव्यञ्जकों की कल्पना की समाप्ति.ही नहीं हो पायेगी। इसलिए "वाच्यादयस्तदर्थाः स्युः" में वाच्यादि पद से व्यङ्ग्य का ग्रहण कैसे हो सकेगा? इस प्रश्न के समाधान में ग्रन्थकारने यह कारिका लिखी है, यह भी माना जा सकता है। इस कारिका ने यह बता दिया कि सभी प्रकार के (वाच्य, लक्ष्य और व्यङ्गय) अर्थ व्यञ्जक हो सकते हैं और उदाहरण Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशः वेति तस्यापि वृत्त्याश्रयत्वान्न विभागोऽनुपपन्नः, व्यङ्गयव्यङ्गयस्यापि तत्त्वे चेष्टापत्तिः, अत एवाग्रे निस्पन्दत्वेन विश्वस्तत्त्वमित्यादिना व्यङ्ग्यधाराप्रदर्शनम्, सर्वस्य व्यङ्गयस्यापि न तथात्वमिति नानवस्थेत्याह–प्रायश इति । तदर्थश्चोक्त एवेति । वस्तुतस्तु ननु व्यञ्जकनामाप्यर्थोऽतिप्रसिद्धस्तदविभागाद् न्यूनत्वमित्या के द्वारा इसे प्रमाणित भी कर दिया है। अब जब व्यङ्गय अर्थ भी वृत्ति (व्यञ्जना वत्ति) का आश्रय होता है; तब "अर्थ के तीन विभाग नहीं हो सकते" यह कहने की अपेक्षा नहीं रही। प्रथम व्यङ्गय की तरह द्वितीय व्यङ्गय या । तृतीय व्यङ्गय आदि यदि व्यञ्जक होते हैं, तो हों, हमें उनका व्यजक होना अभीष्ट ही है। इसीलिए आगे "उअ णिच्चलणिपंदा" इस श्लोक की वृत्ति में वृत्तिकार ने व्यङ्गय की धारा दिखायी है। वहाँ दिखाया गया है कि 'बलाका (बक-पङ्क्ति) के निश्चल होने से उसकी निर्भयता (आश्वस्तता) लक्षणा से सूचित होती है । और उस आश्व तत्व रूप लक्ष्यार्थ से स्थान का जनरहित होना व्यञ्जना से सुचित होता है। इसलिए यह संकेतस्थान हो सकता है, यह व्यङ्गय, जनरहितरूप पूर्ववणित व्यङ्गयार्थ से प्रतीत होता है। अथवा जनरहितत्व रूप व्यङ्ग चार्थ से यह व्यङ्गयार्थ भी प्रतीत, . हो सकता है कि "तुम झूठ बोलते हो, तुम यहां नहीं आये थे, यदि आये होते तो यह बलाक इस प्रकार निश्चल-निस्पन्द नहीं बैठी रहती।' इस तरह एक अङ्गय से दूसरा और दूसरे से तीसरे व्यङ्गय की प्रतीति काव्य में अनिष्ट नहीं, अपितु इष्ट ही है। सभी व्यङ्गय व्यञ्जक नहीं हो सकते; इसलिए अनवस्था-दोष की सम्भावना नहीं है, इसलिए कारिका में कहा गया है 'प्रायशः' । उस (प्रायशः) का अर्थ बताया जा चुका है। प्रायशः का अर्थ है बाहुल्येन, अधिकतर या ज्यादातर । कवि यही चाहते हैं कि तीनों प्रकार के अर्थ व्यञ्जक हों; परन्तु यह इच्छा तभी सफल होती है; जब कि विशेष वक्ता या विशेष प्रकार के श्रोता अथवा प्रकरण आदि की योजना हो। इसलिए व्यङ्गय को व्यञ्जक मानने में जिस अनवस्था दोष की सम्भावना थी; उसका निराकरण वक्त-बोद्धव्य-विशेष को कारण मानने से हो जाता है। इस आशय को प्रकट करने के लिए ग्रन्थकार ने "प्रायशः" शब्द का प्रयोग किया है। टीकाकार का मत वस्तुतः ग्रन्थकार ने यह कारिका किसी और आशय से लिखी है ऐसा प्रतीत होता है । ग्रन्थकार ने द्वितीय उल्लास के प्रथम सूत्र में शब्द को ही व्यञ्जक बताया है। किन्तु अर्थ (वाच्य, लक्ष्य, और व्यङ्गय) भी व्यजक होते देखे गये हैं। ऐसी स्थिति में शब्दमात्र को व्यञ्जक बताकर छोड़ देने से और अर्थ को व्यञ्जक के एक भेद के रूप में नहीं गिनने से ग्रन्थ में न्यूनता आ सकती थी। उस न्यूनता को दूर करने के लिए ग्रन्यकार लिखते हैं 'सर्वेषां प्रायशः, इत्यादि । इस कारिका में अपि शब्द 'व्यजकत्वम्' के आगे जुड़ा हुआ है; उसे अन्वय करते समय 'सर्वेषाम' के आगे जोड़ना चाहिए। इस तरह सूत्र का अर्थ होगा-प्रायः सभी अर्थों की व्यञ्जकता (कवियों को) अभीष्ट होती है। इसलिए सिद्ध हो गया कि जो धर्म, अर्थत्व धर्म से व्याप्य धर्म है; वही विभाजकतावच्छेदक हो सकता है, उस धर्म से युक्त धर्मी को ही अर्थ भेदों में गिनाया जा सकता है। व्यञ्जकत्व धर्म, अर्थत्व का व्याप्य धर्म नहीं है, अपितु उसका व्यापक धर्म है। इसलिए व्यजकत्व रूप में अर्थ का विभाग नहीं किया गया है। तात्पर्य यह है कि किसी का विभाजन करते समय हमेशा यह ध्यान रखना पड़ता है कि भाजक भाज्य से छोटा हो। भाज्य १५ होगा और भाजक ५ तभी तीन विभाग करना उचित होगा। हम देखते भी हैं कि पक्षी का भेद 'कौआ 'तोता' 'मैना' आदि माना जाता है। पक्षी व्यापक है और 'कौआ' 'तोता' 'मैना' आदि व्याप्य। इसलिए पक्षी का भेद कौआ, तोता, मैना आदि के रूप में कर सकते हैं, हम कह सकते हैं कि पक्षी का एक भेद है-'कौआ। परन्तु यह नहीं कह सकते हैं कि "कौए का एक भेद है पक्षी।" इसी तरह वाच्यत्व, लक्ष्यत्व और व्यङ्गयत्व ये तीनों धर्म Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीइ उल्लासः शङ्क्याह -- सर्वेषामिति, अपिः सर्वेषामित्यन्तरं योज्यः । तथा चार्थत्वव्याप्यधर्मस्यैवार्थविभाजकतावच्छेदकत्वं व्यञ्जकत्वस्य चार्थत्वव्यापकत्वेन तदव्याप्यत्वाद् न तेन रूपेण विभाग इत्यर्थः । १७ अथैवं सति वाच्यत्वादेरप्यर्थत्वव्यापकत्वेन तेनापि रूपेण विभागानुपपत्तिः, न च व्यञ्जकत्वस्य शब्देऽपि सत्त्वान्नार्थत्वव्याप्यत्वं वाच्यत्वादेः तत्रासत्त्वादर्थत्वव्याप्यत्वमपीति वाच्यं शब्देऽपि शब्दपदवाच्यत्वाद् अर्थत्वसत्त्वाच्चेति चेद्, न यत्र गङ्गार्थत्वं तत्र गङ्गाशब्दवाच्यत्वमिति न व्याप्तिः लक्ष्यादौ व्यभिचाराद् यत्र गङ्गाशब्दार्थत्वं तत्र व्यञ्जकत्वमित्यत्र च न व्यभिचार इति विशेषव्याप्तेरादरणी अर्थ की अपेक्षा व्याप्य धर्म हैं। इसलिए यह तो कहा जा सकता है कि अर्थ के तीन भेद हैं-वाच्य, लक्ष्य और व्यङ्गय । परन्तु व्यञ्जकत्व-धर्म अर्थत्व-धर्म का व्याप्य धर्म नहीं है, अपितु व्यापक धर्म है । क्योंकि व्यञ्जक शब्द भी होता है; इसलिए व्यञ्जकत्व के आश्रय शब्द और अर्थ दोनों हो सकते हैं और अर्थत्व का आश्रय केवल अर्थ हो सकता है । इसलिए कौए का एक भेद पक्षी है; यह जिस तरह नहीं कह सकते वैसे ही अर्थ का एक भेद व्यञ्जक है; यह नहीं कहा जा सकता । अतः व्यञ्जक रूप में अर्थ का विभाग नहीं बताना ग्रन्थ की न्यूनता का सूचक नहीं है। 'प्रथैवं सतीत्यादि (टीका) पूर्व समाधान को सदोष बताते हुए लिखते हैं कि यदि व्यापकतत्त्व का विभाग मानना गलत है, तो एक दोष यह आयगा कि वाच्य को भी अर्थ का विभाग नहीं माना जा सकता। क्योंकि वाच्यत्व धर्म अर्थत्व की अपेक्षा व्यापक है । "व्यञ्जकत्व तो शब्द में भी है इसलिए व्यञ्जकत्व को अर्थत्व का व्याप्य नहीं कह सकते किन्तु वाच्यत्व आदि धर्म शब्द में नहीं हैं; क्योंकि शब्द वाच्य नहीं है; वह तो वाचक है; इस तरह अर्थत्व धर्म की अपेक्षा वाच्यत्व, लक्ष्यत्व और व्ययङ्गत्व धर्म अल्प-क्षेत्रवर्ती होने के कारण व्याप्य धर्म है इस लिए वाच्य आदि के रूप में अर्थ का विभाग करना ठीक ही है" यह कहना भी ठीक नहीं होगा क्योंकि शब्द पद का 'वाच्य' शब्दरूप 'अर्थ' है, इस लिए वाच्यत्व शब्द में भी है। 'शब्द' भी 'शब्द' शब्द का अर्थ ही है; इसलिए वाच्यत्व धर्म अर्थ की अपेक्षा व्यापक हो गया अथवा 'शब्द' भी 'शब्द' शब्द का अर्थ है इसलिए अर्थत्व शब्द में भी चला गया; अत: अर्थत्व और वाच्यत्व धर्मों में से कोई भी धर्म किसी का न व्यापक रहा न व्याप्य; वे दोनों समकक्ष धर्म बन गये। इसलिए जैसे 'जल' का 'सलिल' भेद नहीं माना जा सकता; उसी तरह अर्थ का इस प्रश्न का उत्तर देते हुए लिखा गया है कि अर्थत्व वाच्यादि धर्म की का अर्थ है वह सनी वाच्य नहीं है । गङ्गा शब्द का लक्ष्यार्थ होने के नहीं है। अतः अर्थव की अपेक्षा वाच्यत्व व्याप्य धर्म हुआ और इसलिए अर्थ का विभाग वाच्य रूप में किया जा सकता है । इसी तरह गङ्गा शब्द के जो-जो अर्थ हैं, वे सभी लक्ष्य नहीं है। प्रवाह भी गङ्गा शब्दार्थ है परन्तु वह लक्ष्यार्थ नहीं हैं । वाच्यत्वादि भेद नहीं माना जाना चाहिए' अपेक्षा व्यापक है क्योंकि जो-जो गङ्गा शब्द कारण तीर भी अर्थ है, परन्तु वह वाच्यार्थ इस तरह लक्ष्यत्व भी अर्थव का व्याप्य ध सिद्ध होता है। यदि ऐसी व्याप्ति माने कि 'जहाँ-जहाँ गङ्गा- शब्दार्थत्व है; वहाँ-वहाँ व्यञ्जकता है' तो व्यभिचार नहीं होगा; क्योंकि गङ्गा शब्द के जितने अर्थ हैं प्रवाह ( वाच्य ), तीर (लक्ष्य) और शीतत्व-पावनत्वातिशय 'व्यङ्गय' सभी व्यञ्जक हो सकते हैं । जहाँ गङ्गा प्रवाह का वर्णन होगा (जैसे गङ्गा-लहरी में ) वहीं वाच्यार्थ भाव ( भक्ति) का व्यञ्जक है । "गङ्गायां घोष: " में तीररूप लक्ष्यार्थं शीतत्वपावनत्व का व्यञ्जक है ही । शीतत्व-पावनत्वादि भी कहीं किसी अर्थ का व्यञ्जक हो सकता है । जैसे यहाँ शीतत्व-पावनत्वातिशय है; इसलिए गर्मी में यही रहेंगे और भगवान् की उपासना करेगें आदि। इस तरह व्यञ्जकत्व और अर्थत्व में व्याप्ति होने से यद्यपि कोई भी धर्म व्यापक नहीं हुआ; किन्तु व्यञ्जक तो शब्द भी होता Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशः तत्र वाच्यस्य यथा माए घरोवप्ररणं अज्ज हु रणत्थि त्ति साहिग्रं तुमए । ता भण किं करणिज्जं एमग्र ण वासरो ठाइ ॥६॥ अत्र स्वरविहारार्थिनीति व्यज्यते । यत्वाद् शैत्यपावनत्वादेरपि क्वचिद् व्यञ्जकत्वादिति मदुत्प्रेक्षितः पन्थाः। विभागे शब्दस्य व्यञ्जकत्वमर्थस्य व्यङ्गयत्वमेवोक्तं काव्यलक्षणेन तु सगुणावित्यनेन गुणाभिव्यञ्जकार्थकेन द्वयोरपीति विरोधपरिहारकत्वेनैतद्ग्रन्थावतारणमिति परमानन्दप्रभृतयः । तत्राष्टमे शब्दानामिवार्थानां गुणाभिव्यञ्जकतानुक्तः अर्थव्यञ्जकतायामसांदृष्टिकत्वप्रयुक्तासत्ताशङ्काप्रक्षालनमेतदिति ऋजवः । माए ति :-'मातः ! गृहोपकरणमद्य खलु नास्तीति साधितं त्वया । तद भण किं करणीयम् एवमेव न वासरः स्थायी ॥६॥ गृहोपकरणम्-अन्नव्यञ्जनादि, साधितं-कथितम् । न च स्वरविहारार्थित्वस्य वाक्यार्थव्यङ्ग्यत्वेन वाच्यव्यङ्ग्योदाहरणत्वासङ्गतिरिति वाच्यम्, अन्विताभिधानपक्षे वाक्यार्थस्यापि वाच्यत्वात्, अभि है। इसलिए अर्थत्व की अपेक्षा व्यञ्जकत्व धर्म व्यापक हो गया। अतः अर्थ का एक विभाग व्यञ्जक है, यह नहीं कहा जा सकता। इस समाधान को टीकाकार ने स्वयं का उद्भावित मार्ग माना है । "इति मदुत्प्रेक्षितः पन्थाः" । विभाग करते समय शब्द को व्यञ्जक और अर्थ को व्यङ्गय ही कहा गया है। परन्तु काव्य-लक्षण में आये हुए 'सगुणो' को शब्दार्थों का विशेषण बनाया गया है। 'गुण' शब्दार्थ का धर्म नहीं है, वह तो रस का धर्म है, इसलिए 'सगुणों' का अर्थ करना पड़ेगा-गुणाभिव्यञ्जक-शब्दार्थों । इस प्रकार वहाँ शब्द की तरह अर्थ को व्यजक स्वीकार करना ही पड़ेगा। तथा पूर्वापर ग्रन्थ में विरोध न रह जाय, इस विचार से ग्रन्थकार ने यह कारिका लिखी है-'सर्वेषाम् प्रायशोऽर्थानां व्यञ्जकत्वमपीष्यते' । विभाग में शब्द मात्र को व्यञ्जक मानना और काव्य-लक्षण में "सगुणों" के तात्पर्य के रूप में शब्द और अर्थ दोनों को व्यञ्जक स्वीकार करना कुछ अटपटा सा लगता था; उसको हटाने के लिए यह कारिका लिखकर ग्रन्थकारने बता दिया कि केवल शब्द ही व्यञ्जक नहीं है, अपितु सभी प्रकार के अर्थ भी व्यञ्जक होते हैं। इस तरह "सगुणो" के तात्पर्य से ताल-मेल बिठाने के लिए इस कारिका की रचना की गयी है ऐसा परमानन्द आदि टीकाकारों का मत है। (ऋजु-सरल) दष्टि रखने वाले विद्वान् तो ऐसा मानते हैं कि:-काव्य प्रकाशकार ने अष्टम उल्लास में जहाँ शब्दों को गुणाभिव्यञ्जक बताया है; वहाँ अर्थों को गुणाभिव्यञ्जक नहीं बताया है। इसलिए अर्थ व्यञ्जक होता है या नहीं, इस प्रकार का सन्देह हो सकता था, उसके निराकरण के लिए--उस शङ्का को धोने के लिए यह कारिका िखी गयी है। वाच्य (की व्यञ्जकता) का (उदाहरण) जैसे-'माए' त्ति इत्यादि। . अर्थ-हे मातः, आज घर में भोजन-सामग्री नहीं रही है, यह बात तुमने बतला दी है। ऐसी स्थिति में यह बताओ कि क्या करना चाहिए, क्योंकि दिन ऐसा ही तो नहीं बना रहेगा (थोड़ी देर में जब सूर्यास्त हो जायगा तो फिर क्या होगा? यहाँ (कहने वाली वधू) स्वच्छन्द विचरण के लिए (अर्थात् उपपति के पास) जाना चाहती है, यह बात व्यङ्गय है। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ faat Me हितान्वयपक्षेऽपि पदार्थसंसर्गरूपवाक्यार्थस्य व्यञ्जकत्वे सम्बन्धिनः पदार्थस्यापि व्यञ्जकत्वात् सम्बन्धिनोऽभावे सम्बन्धाभानात् । वस्तुतोऽन्वयांशे शक्तिज्ञानं न कारणम् अपि त्वाकाङ्क्षादिज्ञानसहकृता शक्तिरेव स्वरूपसतीत्यभिहितान्वयवादार्थः । तथा च शक्तिविषयता तत्रास्त्येवेति सोऽपि वाच्य एवेति न काऽप्यनुपपत्तिः । वयं तु स्वरविहारार्थिनीतिवक्तृविशेषाभिधानं तेन स्वरविहारार्थिनीयमिति कृत्वा व्यज्यते, मातरिति पदेनालङ्घनीयाज्ञत्वं तद्वचनस्थत्वं च, गृहपदेनावश्यकत्वम्, अद्येतिपदेन कालान्तरव्युदासः, त्वयेतिपदेन कुतर्काच्छायम् - [दनम्] तद् 'भणे'तिपदेन स्वोत्प्रेक्षाविरहः, किं करणीयमितिपदेनान्यथासिद्धौ स्वगमनाभावः, वासरपदेन दिनावसाने कुलाङ्गनया मया त्वदाज्ञयाऽप्यन्यसद्मनि न गन्तव्यमिति, इदानीमेवाऽऽज्ञापयेत्यादिरित्यर्थः । अथवा सङ्गमसमयजिज्ञासया सन्निहितमुपनायकं प्रति दिने गते सङ्गमो भविष्यतीत्येवमेवेत्यादिना व्यज्यते तदनुग्राहकतयैव च मातरित्यनेनालङ्घनीयाज्ञत्वं तेन च स्वनिष्ठसङ्केतस्थानगमनालस्य टोका-'गृहोपकरणम्' का अर्थ अन्न-व्यञ्जनादि है तथा 'साधितम्' का अर्थ है कथितम्-अर्थात् "कहा" है। 'स्वच्छन्द विहार के लिए जाना चाहती है' यह व्यङ्गय वाक्यार्थ से अभिव्यक्त होता है वाक्यार्थ को (अभिहितान्वयवाद में) वाच्य नहीं माना गया है, ऐसी स्थिति में इसे वाच्यार्थ-व्यञ्जकता का उदाहरण देना गलत है, ऐसा नहीं मानना चाहिए क्योंकि अन्विताभिधानवाद में वाक्यार्थ को वाच्य माना गया है । अतः अन्विताभिधानपक्ष में वाक्यार्थ और वाच्य दोनों पर्याय-जैसे हैं। इसलिए वाक्यार्थ के व्यञ्जक होने के कारण इसे वाच्यार्थव्यञ्जकता का उदाहरण माना जा सकता है। अभिहितान्वयवाद पक्ष में भी जहाँ पदार्थ को वाच्य माना गया है; पदार्थ वहां संसर्गरूप वाक्यार्थ यदि व्यञ्जक है तो वाक्यार्थ के सम्बन्धी पदार्थ की व्यञ्जकता स्वतः सिद्ध हो जाती है सम्बन्धी के अभाव में सम्बन्ध की प्रतीत ही नहीं हो सकती है। इसलिए पदार्थ को; संसर्ग यदि व्यञ्जक है तो पदार्थ जो वाच्य है, व्यजक कह सकते हैं । इसलिए पूर्वोक्त श्लोक वाच्यार्थ की व्यञ्जकता का उदाहरण हो सकता है। वस्तुतः अभिहितान्वय का अर्थ यह नहीं है कि अभिधा के द्वारा प्रतिपादित पदार्थों का अन्वय और वाक्यार्थ-बोध के प्रति अन्वयांश में शक्तिज्ञान को कारण मानना अनावश्यक है। किन्तु आकांक्षादि ज्ञान से सहकृत 'शक्ति को ही स्वरूप सम्बन्ध से कारण मानना चाहिए। इस तरह आकांक्षादि के सहकार से युक्त शक्ति को स्वीकार करना ही अभिहितान्वयवाद का अर्थ हैं। इस प्रकार वाक्यार्थ में भी शक्ति है ही। शक्ति का विषय होने से वाक्यार्थ भी वाच्य ही है । इसलिए वाक्यार्थ जहाँ व्यञ्जक है; वहाँ वाच्य को भी व्यञक मान ही सकते हैं। ___ हमें तो यहां इस तरह व्यङ्गय प्रतीत होते हैं- "स्वर विहार करने वाली है" इस रूप में वक्तृ-विशेष का कथन किया गया है। इसलिए यह (स्त्री) स्वच्छन्द विहरार्थिनी है इस रूप में व्यङ्गय मानना चाहिए । "मातः" इस पद से उसकी आज्ञा की अनुल्लंघनीयता प्रकट होती है। वक्त्री यहां यह दिखाती है कि वह उसकी आज्ञापालिनी है । गृहोपकरण पद में प्रयुक्त गृह शब्द से उपकरणों के लाने की आवश्यकता और अद्य (आज) पद से दिन में लाने का निषेध व्यङ्गय होता है। 'त्वया' पद से यह प्रतीत होता है कि तूने ही गृहोपकरण का अभाव बताया है, मैंने अपनी ओर से बाहर जाने के लिए कोई मनगढन्त कल्पना नहीं की हैं। "तद् भण" 'इसलिए बोलो' पद • से अपनी इच्छा का अभाव व्यक्त होता है। क्या करना चाहिए; यह प्रश्न यह प्रकट करता है कि यदि तुम किसी और उपाय से काम निकालने की बात सुझा दो तो मैं नहीं जाऊंगी। "वासर" पद से ध्वनित होता है कि दिन छिप जाने पर कुलीन स्त्री होने के कारण मुझे तेरी आज्ञा से भी दूसरों के घर नहीं जाना चाहिए इसलिए इसी समय मुझे (जाने की) आज्ञा दो इत्यादि व्यङ्गच अर्थ प्रतीत होते हैं । ___ अथवा संगम (मिलन) के समय की जिज्ञासा (जानने की इच्छा) से निकट में आये हुए नायक को देखकर नायिका ने इस श्लोक के द्वारा संकेत किया है कि 'दिन छिपने पर संगम होगा' यही यहाँ व्यङ्गय है। "मातः" Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० लक्ष्यस्य यथा - काव्यप्रकाशः * साहेन्ती सहि सुहस्रं खरणे खणे दूम्मिश्रासि मज्भकए । सब्भावणेहकरणिज्जसरिस दाव विरइयं तुमए ॥७॥ विरहः, गृहोपकरणमित्यनेन न केवलं मातुराज्ञैव अपितु ममापि तत्संविधानौत्सुक्यमिति, अद्येत्यनेन दिवसान्तरे व्याजान्तरं नाऽऽसीदिति नाऽऽगतम्, अद्य तु व्याजबीजाभावाभाव इति, त्वयेत्यनेन मयैव कल्पयित्वा प्रतारणा न क्रियतेऽपि तु त्वत्समक्ष मनयैवोक्तमिति त्वयैव श्रुतमिति, किं करणीयमित्यनेन त्वत्समीहितसाधनार्थमियं मयाऽभ्यर्थ्यत एवेति, भरणेत्यनेनोपायान्तरं च यदि तव स्फुरति तदा त्वयैवानेव प्रकारान्तरेणाहं बोधनीयेति व्यज्यतं इत्यर्थं इत्यवलोकयामः । 'साहेती 'ति साधयन्ती सखि ! सुभगं क्षणे क्षरणे दूनाऽसि मत्कृते । सद्भावस्नेहकरणीयसदृशं तावद् विरचितं त्वया ॥७॥ 'साधयन्ती' - अनुनयन्ती, 'दूनाऽसि ' - दुःखिताऽसि, 'मत्कृते' - मदर्थम् । प्रत्रेति । अत्रापि लक्ष्यघटितो इत्यादि पद उस व्यङ्गय की प्रतीति कराता है। जैसे 'मातः ' पद से 'सम्बोध्य की आज्ञा शिरोधार्य है' यह प्रकट होता है और इससे सिद्ध होता है कि माता की आज्ञा मिलते ही वह संगम के संकेत-स्थान पर जाने में आलस्य नहीं करेगी । “गृहोपकरण” यह पद प्रकट करता है कि सामान लाने में न केवल माता की आज्ञा ही प्रेरक है, अपितु वह स्वयं भी सामान जुटाने को उत्सुक है । क्योंकि वह भी अपने को परिवार का एक जिम्मेदार सदस्य समझती है । 'अ' से माता के प्रति तो यह व्यङ्ग्य प्रतीत होता है कि आज तुमने आटा-दाल आदि सामग्री का अभाव बताया है; इसलिए पहले नहीं गयी । और उपपति के प्रति यह प्रतीत होता है कि और दिनों में कोई बहाना नहीं था इसीलिए वह संकेत स्थान पर नहीं आ सकी। आज तो जाने का कारण ( बहाना ) मिल गया है । 'त्वया' पद यह सूचित करता है कि मैंने स्वयं बहाना बनाकर धोखा नहीं दिया है; किन्तु तेरे ( उपपति के ) सामने इसी ने कहा है और तुमने सुना है । “किं करणीयम्” इससे तेरी इच्छा की पूर्ति के लिए मैं इसकी (जिसको माता कहा गया है उसकी ) प्रार्थना कर रही हूँ । भण (बताओ) पद से प्रतीत होता है कि 'यदि तुझे कोई और उपाय दिखता है तो तुम (उपपति) मुझे इसी तरह का कोई अन्य प्रकार बताओ' इत्यादि व्यङ्गघ यहाँ प्रतीत होते हैं । और ' अथवा ' के द्वारा बताये गये प्रथम पक्ष में व्यङ्गय वक्तृ-विशेष के कारण से प्रकट होता द्वितीय पक्ष में वक्तृ और बोद्धव्य दोनों का वैशिष्टय है । द्वितीय पक्ष अधिक चमत्कारी है क्योंकि उसमें दुहरा व्यङ्गय है । लक्ष्य (अर्थ के व्यञ्जकत्व) का (उदाहरण) जैसे- 'साहेन्ती' इत्यादि । अर्थात् — हे सखि, उस सुन्दर का अनुनय-विनय बार-बार करती हुई तूने मेरे लिए बड़ा कष्ट उठाया है । ( अब इसकी आवश्यकता नहीं है ) मेरे प्रति अपनी सद्भावना और स्नेह के सदृश जो तुझे करना चाहिए था, वह तूने कर दिखाया । यहाँ 'साधयन्ती' का अर्थ है 'अनुनय-विनय करती हुई' । दूनासि का अर्थ 'दुःखितासि' 'दुःखी हो' है । 'मत्कृते' का अर्थ है 'मेरे लिए' । * गाथाच्छन्दः । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ द्वितीय उल्लासः अत्र मत्प्रियं रमयन्त्या त्वया शत्रुत्वमाचरितमिति लक्ष्यम् । तेन च कामुकविषयं सापराधत्वप्रकाशनं व्यङ्ग्यम् । वाक्यार्थ एव व्यञ्जकः तेन 'दूनाऽसि' इत्यत्र हर्षिताऽमि 'मत्कृत' इत्यत्र स्वकृत इति, 'सद्भावे'त्यत्रासद्भावेति, 'स्नेहेति विरोधिलक्षणया शत्रुत्वमर्थः । मदित्यादि च पर्यवसितार्थकथनमिति वदन्ति। . वस्तुतः प्रवहन्नीरायां गम्भीरायां नद्यां घोषः प्रतिवसतीत्यत्र मीमांसकमते सप्तम्यन्तपदत्रयरूपवाक्येन तीरं लक्ष्यत इति वाक्ये लक्षणा, न्यायादिनये च नदीपद एव लक्षणा, तत्पूर्व पदद्वयं चानन्वितार्थकमेव । चित्रगुमानयेति बहुव्रीहौ चित्रगोरूपपदद्वयात्मकवाक्ये यथा गोपदे वाऽन्यपदार्थ लक्षणा, तद्वदत्रापि प्रथमार्धे सुभग-क्षणपदं विहायावशिष्टसकल-पदात्मकवाक्ये तद्वाक्यस्थ साधयन्तीति'पदे वा लक्षणया रमयन्तीत्यर्थः, सदृशमित्यन्तोत्तरार्धवाक्ये तत्रस्थसदृशपदे वा लक्षणया शत्र त्वमर्थः, अत एव रमयन्त्येत्येतावतैव प्रथमवाक्यार्थः शत्र त्वमित्येतावतैव चोत्तरवाक्यार्थः प्रशितो वृत्तिकृता । महावाक्ये चावान्तरवाक्यार्थस्योत्तरवाक्यार्थविशेषणत्वेनान्वयानियमात् तादृशबोधार्थं साधयन्तीति प्रथमान्तं अत्रेति-यहां पर भी लक्ष्य अर्थ से घटित वाक्यार्थ ही व्यञ्जक है। इससे विपरीत-लक्षणा के द्वारा "दूनासि' 'दुःखी हो' का अर्थ है प्रसन्न हो। 'मत्कृते' मेरे लिए का अर्थ है 'अपने लिए' 'सद्भाव' और 'स्नेह का 'असद्भाव और शत्रुता' । “मत्प्रियं रमयन्त्या" इत्यादि वृत्ति के द्वारा पर्यवसित अर्थ अर्थात् फलितार्थ कहा गया है। वह इस प्रकार है-'मेरे प्रिय के साथ रमण करके तूने (मेरे साथ) शत्रुता दिखायी है, निबाही है, यह लक्ष्य अर्थ है, इससे कामुक विषयक सापराधत्व प्रकाशन व्यङ्गय है । यह श्लोक वञ्चिता नायिका की उक्ति है। नायिका की भेजी हुई दूती ने उसका संवाद नायक के पास पहचाने के बजाय स्वयं उसके साथ स्वर-विहार करके नायक को धोखा दिया है। यहाँ का व्यङ्गय वक्ता और बोद्धा के वैशिष्टय से है। वस्तुतः पानी के प्रवाह वाली गहरी नदी में घोष वसा हुआ है (प्रवहन्नीरायां गभीरायां नयां घोषः प्रतिवसति) यहाँ मीमांसक के मत में 'तीन सप्तम्यन्त पदात्मक वाक्य से तीरार्थ लक्षित हुआ है' ऐसा माना गया है। (इसलिए मीमांसक के अनुसार यहाँ वाक्य में लक्षणा मानी जायगी।) न्यायादि सिद्धान्त के अनुसार नदी पद में ही लक्षणा मानी जाती है और उस पद (नदी पद) के पूर्व के दोनों पद अनन्वितार्थक (असम्बद्धार्थक) ही माने गये हैं। "चित्रगुमानय" इत्यादि बहब्रीहि-घटित दो पद वाले वाक्यों में जैसे गोपद में लक्षणा करते हैं और चित्रगुण-विशिष्ट गोस्वामी अर्थ का बोध मानते हैं अथवा 'अन्यपदार्थे' में लक्षणा मानकर उक्त अर्थ करते हैं और चित्र पद लक्षणा का विषय नहीं रहता है; उसी तरह यहाँ (साधयन्ती इस श्लोक में) भी प्रथमार्ध में 'सुभग' और 'क्षण' पद को छोड़कर शेष सभी पद समूहात्मक वाक्य में अथवा उस वाक्य के 'साधयन्ती' इस पद में लक्षणा करके 'रमयन्ती' यह लक्ष्यार्थ निकालना चाहिए। सदृशम्' तक के उत्तरार्ध श्लोक के वाक्य में अथवा उस वाक्य के 'सदृश' पद में लक्षणा मानकर 'शत्रुत्व' रूप लक्ष्यार्थ की प्रतीति माननी चाहिए। इसीलिए वृत्तिकार ने "मत्प्रियं रमयन्त्या त्वया शत्रुत्वमाचरितम्” यहाँ 'रमयन्त्या' 'रमण करती हुई' इसी रूप में प्रथम वाक्यार्थ अर्थात् “शत्रुत्वम्" शत्रुता इसी शब्द से 'उत्तर वाक्यार्थ' दिखाया है। महावाक्य में अवान्तर-वाक्यार्थ (मध्यवर्ती वाक्यार्थ) का उत्तर-वाक्यार्थ के साथ विशेषण-रूप में अन्वय हो इस प्रकार का कोई नियम नहीं होने से उस प्रकार के बोध के लिए प्रयुक्त 'साधयन्ती' इस प्रथमान्त पद को "रमयन्त्या" के रूप में तृतीयान्त बनाकर प्रस्तुत करके उसे त्वया का विशेषण बताया गया है, यह मेरी बुद्धि कहती है। "तेन च' इत्यादि वृत्तिगत उत्तर वाक्य के 'कामुकविषयम्' का अर्थ है Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यङ्ग्यस्य यथा उय' णिच्चलणिप्पंदा भिसिणीपत्तम्मि हरेइ बलाया। णिम्मलमरगप्रभाअरणपरिट्ठिया संखसुत्ति व्व ॥८॥ ततीयान्ततयोपदय॑ त्वयेत्यस्य विशेषणतया प्रदर्शितमित्यस्मन्मनीषोन्मिषति । तेन चेति कामूकविषयं कामुकनिष्ठं यत् सापराधत्वं तत्प्रकाशनं तत्प्रतीतिरित्यर्थः । प्रतीतेरेव फलत्वेन व्यङ्गयत्वं न तु तद्विषयस्य, शैत्यपावनत्वादौ च व्यङ्गयत्वव्यवहारो व्यङ्गयायाः प्रतीतेविषयतया भाक्तः, शक्यस्य ज्ञानस्य विषये शक्यत्वव्यवहारवदिति ज्ञापयितुं प्रकाशनपदोपादानम्, वस्तुतः कामुकविषयेति प्रकाशनस्यैव विशेषणं, प्रकाशनं च ज्ञापनं तथा च नायमन्यत्रानुरक्तो वृथैव भवत्या मानवत्याऽयमुपतापितोऽनुनयमहतीति त्वद्वचनेनानुनयार्थ प्रेषितां त्वामेवोपभुक्तवानिति त्वयेदानीमपि चेतितव्यमिति व्यङ्गयत्वेन च मयाऽतः परमस्य मुखमपि न विलोकनीयम्, मदनुनयार्थं त्वयाऽपि न यतनीयमिति व्यङ्गयान्तरमपि कटाक्षितमिति वयं विलोकयामः। 'उयत्ति'-पश्य निश्चलनिःस्पन्दा बिसिनोपत्रे राजते बलाका। निर्मलमरकतभाजनपरिस्थिता शङ्खशुक्तिरिव ॥८॥ __ 'उयत्ति पश्येत्यर्थे देशीयवचनं, चलनं शरीरक्रिया, स्पन्दस्तदवयवक्रिया, वस्तुतो निश्चल'कामुकनिष्ठ' कामुक में स्थित यत्-जो, सापराधत्व अर्थात् अपराध है, तत् प्रकाशनम्-उसकी प्रतीति (व्यङ्गय है), प्रतीति ही फल है इसलिए (फलवती लक्षणा में) प्रतीति को व्यङ्गय मानना चाहिए प्रतीति के विषय (अपराध को, व्यङ्गय नहीं मानना चाहिए। यहाँ यह प्रश्न उठता है कि यदि प्रतीति ही व्यङ्गय है, विषय व्यङ्ग्य नहीं है तो "गङ्गार्या घोषः” में शीतत्वातिशय और पावनत्वातिशय को जो कि प्रतीति का विषय ही है व्यङ्ग्य मानने की परम्परा कैसे चली आ रही है ? इसका समाधान देते हुए लिखते हैं कि ऐसा व्यवहार लाक्षणिक है वस्तुतः प्रतीति व्यङ्गय है, उस व्यङगय प्रतीति का विषय होने के कारण उसमें भी व्यङगयव्यवहार होने लगा। ठीक उसी तरह जिस तरह कि ज्ञान के शक्य होने पर भी लोग विषय को शक्य मानते हैं । अर्थात् घट शब्द का शक्यार्थ घट ज्ञान है; विषयरूप घट नहीं. किन्तु लोग मिट्टी के बने पात्र को जो ज्ञान का विषय है; घट पद का शक्यार्थ मानते हैं । (प्रतीति व्यङ्ग्य के विषय नहीं) इसी बात को सूचित करने के लिए वृत्ति में प्रकाशन पद का उल्लेख किया गया है। वस्तुतः कामुक विषय यह विशेषण प्रकाशन का है (व्यङ्गय का नहीं) प्रकाशन का अर्थ होता है 'ज्ञापन', 'प्रतीति' । इस तरह यह व्यङगध निकला कि 'यह (नायक) दूसरी में अनुरक्त नहीं है, व्यर्थ में ही आपने रूठ कर इसे कष्ट पहुँचाया सन्तप्त किया। इसलिए उसका अनुनय-विनय करना उचित है इस तेरे (दूती के) कथन से प्रेरित होकर अनुनय के लिए भेजी गयी त ही (दूती ही) इससे उपभुक्त हुई। इसलिए तुझे अब भी सावधान रहना चाहिए, यह यहाँ व्यङ्य है। इसलिए मैं इसके बाद उसका मुख भी नहीं देखूगी और मेरे लिए (मुझ पर उसे प्रसन्न करने के लिए) तुझे भी प्रयत्न नहीं करना चाहिए इत्यादि अन्य प्रकार के व्यङ्गय भी यहाँ सूचित होते हैं, ऐसी हमारी (टीकाकार की) राय है। व्यङ्गायार्थ (के व्यञ्जकत्व) का उदाहरण देते हुए-मम्मट ने लिखा है :--'उअ' इति (संस्कृतच्छाया) 'पश्य निश्चलनिष्पन्दा' इत्यादि । अर्थ-देखो, कमल के पत्ते पर निश्चल और बिना हिले-डुले बैठी हई बलाका (बक पंक्तिनिर्मल (हरे रंग की) मरकत मणि की तश्तरी (पात्र) पर रखी हुई शंख और सीपी की तरह प्रतीत होती है ॥८॥ १. (उम०) इति प्रचलितः पाठः। २. गाथासप्तशतीत्याख्यायां (गाथाकोशे) प्रथमशतके चतुर्थपद्यमिदम् । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः अत्र निष्पन्दत्वेन श्राश्वस्तत्वं " तेन च जनरहितत्वम्, अतः सङ्केतस्थानमेतदिति कयाचित् कञ्चित्प्रत्युच्यते । अथवा मिथ्या वदसि न त्वमत्रागतोऽभूरिति व्यज्यते । २३ निरुद्योगेति सम्बोधनपदम्, अत एव वृत्तौ निस्पन्दत्वेनेत्युक्तम् न तु निश्चलत्वेनेत्यतो न पौनरुक्त्यम्, 'शङ्खशुक्तिः' महाशुक्तिः शङ्खः शुक्तिश्चेति वा, अत इत्यत्र वाऽथवेति विकल्पः, अत इत्यादिना सम्भोगेऽथवेत्यादिना विप्रलम्भे व्यङ्ग्यमुपदशितम् । मिश्रास्तु - हे निश्चल ! तदनुसन्धानरहित ! स्वयमेवागत्य पश्य, वराकी अनुकम्प्या मत्सखी बिसिन पत्र राजते निस्पन्दा सम्प्रत्येव निश्चेष्टा अग्रे तु न स्थास्यत्येव, निर्मलेत्यादिना बिसिनीपत्रस्य तत्स्पर्शादितिकाठिन्यं शरीरस्य च विरहातिरेकात् पाण्डुत्वमित्युपमाव्यङ्गयेन पाण्डुत्वेन विप्रलम्भातिशयो व्यङ्गय इत्याहुः । क्रमेणेति । उद्देशक्रमेणेत्यर्थः । अर्थजिज्ञासारूप - प्रतिबन्धकापगमरूपोऽवसर यहाँ बलाका के निस्पन्द होने से उसकी निर्भयता और आश्वस्तता ( लक्षणा से ) सूचित होती है । उस ( आश्वस्तता - रूप लक्ष्यार्थं ) से ( स्थान का ) निर्जन होना (व्यञ्जना से) सूचित होता है । इसलिए यह संकेत स्थान सकता है । यह (बात प्रथम व्यङ्गधार्थ से, फिर व्यञ्जना द्वारा) कोई नायिका किसी से अर्थात अपने कामुक से कह रही है । अथवा "झूठ बोलते हो तुम यहाँ नहीं आये थे । यदि आये होते, तो यह बलाका ऐसी निश्चल निस्पन्द नहीं रह सकती थी" यह (प्रथम व्यङ्ग्यार्थं से व्यञ्जना द्वारा ) सूचित होता है । टीकार्थ - उअ यह 'पश्य' अर्थ में देशी भाषा में प्रयुक्त होता है। चलना शरीर की क्रिया है और स्पन्दन शरीर के अवयवों की क्रिया है । इसीलिए यहाँ पुनरुक्त दोष नहीं हुआ । अन्यथा अनेक स्थानों पर समान अर्थ में प्रयुक्त इन दोनों शब्दों के प्रयोग से यहाँ पुनरुक्त दोष हो जाता। तात्पर्य यह है कि 'चलना' किया-शरीर में होती है उसके होने पर चलनेवाला व्यक्ति एक स्थान से दूसरे स्थान को पहुँच जाता है । परन्तु स्पन्दन किया शरीर के अवयवों की क्रिया है । वह स्थानान्तर प्रापक नहीं होती है। बस या मोटर जब स्टेण्ड पर यात्रियों को उतारने और चढ़ाने के लिए खड़ी रहती है; उस समय भी उसमें स्पन्दन क्रिया रहती है; पर चलन-क्रिया वहां नहीं रहती । इसीलिए कहा गया है 'ffesलने' यहाँ 'किञ्चिच्चलने' का यही भावार्थ है। इसलिए चलनम् और स्पन्दनम् के प्रयोग में भी पुनरुक्ति नहीं होती । वस्तुतः 'निश्चल' इसे नायक के लिए प्रयुक्त सम्बोधन पद मानना चाहिए और अर्थ करना चाहिए निरुद्योग, आलसी । इसीलिए लिए वृत्ति में "बलाकाया निस्पन्दत्वेन" यहाँ निस्पन्दत्व को ही 'आश्वस्तत्व' व्यङ्गय का हेतु कहा . गया है, निश्चलत्व को नहीं । शङ्ख- शुक्ति का अर्थ है महाशुक्ति या द्वन्द्व समास के द्वारा शंख और शक्ति भी अर्थ 'किया जा सकता है। 'अथवा इस शब्द के द्वारा जो पक्षान्तर बताया गया है उसका सम्बन्ध 'अतः सङ्केतस्थानमेतत्' यहीं मानना चाहिए, न कि पूर्ववाक्यों में । " अतः सङ्केतस्थानमेतत्" यहां से लेकर 'प्रति उच्यते' तक के वाक्य से जो व्यङ्गय दिखाया गया है वह संम्भोग श्रृंगार से सम्बद्ध है और "अथवा मिथ्या" इत्यादि वाक्य से दिखाये गये व्यङ्गघ का सम्बन्ध विप्रलम्भ शृंगार से है । मिश्र का कहा कहना है कि हे निश्चल अर्थात् उस (मेरी सखी) की खोज-खबर न रखने वाले ! स्वयं ही तुम आकर देखो, बेचारी मेरी सखी जो अनुकम्पा के योग्य है, बिसिनी के पत्रों पर सो रही है, वह अभी निसान्द (निष्चेष्ट) हो गयी है, आगे तो वह रहेगी ही नहीं, नहीं जीयेगी । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४. काव्यप्रकाशः एवात्र सङ्गतिरिति द्रष्टव्यम् । स्वरूपं लक्षणम् । साक्षादिति । अभिधत्ते प्रतिपादयतीत्यर्थः । न त्वभिधया प्रतिपादयतीति, वाचकशब्दव्यापारस्याभिधात्वेनान्योन्याश्रयाद्, विशेषणान्तरवैयर्थ्याच्च, एतावन्मात्र च चेष्टायां लाक्षणिकशब्दे चातिव्याप्तम्, अतः सङ्केतितमिति । अस्माच्छब्दादयमर्थो बोद्धव्य इत्येवंरूपस्य कोशकाराभिप्रायात्मकसङ्केतस्य तत्राभावाद्, ईश्वरसङ्केतपरत्वे वक्तृयदृच्छाशब्देऽव्याप्तेः न चैवं साक्षात्पदवैयर्थ्यम्, “ यन्नामा यत्र चैत्यादिविषयोऽपि स तादृश" इति व्यव हितसङ्केतविशेषविषयो इस पक्ष में बिसिनीपत्र को मरकत-भाजन कहने से यह प्रतीत होता है कि उस ( वियोगिनी) के स्पर्श से वह (बिसिनी - पत्र ) अति कठोर हो गया था। शरीर को शङ्ख- शुक्ति कहने से प्रतीत होता है कि विरहाधिक्य के कारण शरीर पाण्डु बन गया था इस उपमा व्यङ्गय पाण्डुता से यहाँ विप्रलम्भातिशय व्यङ्गय है । क्रमशः वाचक आदि (तीन प्रकार के शब्दों) के स्वरूप का निरूपण करते हैं । यहाँ क्रमशः का अर्थ है उद्देश्य क्रम से । वाचकादि के स्वरूप के निरूपण में अर्थ-विषयक जिज्ञासा प्रतिबन्धक हो सकती थी । परन्तु अर्थ का निरूपण कर देने के बाद अर्थ-विषयक जिज्ञासा नहीं रही। इस तरह यहाँ अर्थ के बारे में उठनेवाले जिज्ञासारूपी प्रतिबन्धक का निवारणावसर हो संगति है । 'स्वरूप' लक्षण को कहते हैं । वाचक का लक्षण देते हुए कहते हैं : जो (शब्द) साक्षात् संकेतित अर्थ को बताता है; वह वाचक शब्द कहलाता है। लोक व्यवहार में बिना संकेतग्रह के शब्द से अर्थ की प्रतीत नहीं होती है । इसलिए संकेत की सहायता से ही शब्द अर्थ-विशेष का प्रतिपादन करता है । और इसीलिए जिस शब्द का जहाँ जिस अर्थ में अव्यवधान से संकेत का ग्रहण होता है, वह (शब्द) उस (अर्थ) का वाचक माना गया है । मूल में आये हुए शब्द 'अभिधत्ते' का अर्थ है 'प्रतिपादयति' अर्थात् बोध कराता है. बताता है इत्यादि अर्थात् ""अभिधा से प्रतिपादित होता हैं' ऐसा अर्थ नहीं करना चाहिए। क्योंकि ऐसा मानने पर अन्योन्याश्रय दोष होगा । वाचक शब्द के व्यापार को अभिघा कहते हैं । शब्द जब अभिधा व्यापार से अर्थ विशेष को प्रकट करेगा, तब उसका व्यापार अभिधा कहलायेगा । इस तरह अन्योन्याश्रय- दोष हो जायगा । यदि " अभिधत्ते" का अर्थ अभिधा व्यापार के द्वारा बताता है; यह करें तो पूर्वोक्त अन्योन्याश्रय-दोष के अतिरिक्त एक दोष यह भी होगा कि कारिका में प्रयुक्त 'साक्षात् सङ्केतितम्' यह विशेषण व्यर्थ हो जायगा । अभिधा व्यापार से प्रतिपादित जो अर्थ होगा, वह साक्षात् संकेतित ही होगा; फिर वह विशेषण लगाना व्यर्थ होगा, क्योंकि व्यावृत्ति के लिए विशेषण का प्रयोग होता है । 'साक्षात् सङ्केतितम्' से लक्ष्यादि अर्थों की व्यावृत्ति अभीष्ट है; वह तो 'अभिधत्ते' के अर्थ अभिधा द्वारा प्रतिपादित यह अर्थ करने से ही हो जायगा । यदि अभिधत्ते का अर्थ प्रतिपादयति 'बोधयति' बताता है इतना ही करें तो "साक्षात् सङ्केतितम्" अर्थ के इस विशेषण के अभाव में 'अर्थम् यः अभिधत्ते स वाचक:' अर्थात् जो शब्द अर्थ का बोध कराये उसे वाचक कहते हैं, इतना-सा लक्षण करनेपर लाक्षणिक शब्द में भी लक्षण घट जायेगा; इसीलिए वह विशेषण सार्थक होगा । " सङ्केतितम् " इस विशेषण के रहने पर लाक्षणिकशब्द में अतिव्याप्तिदोष नहीं हुआ; क्योंकि गङ्गा शब्द का 'सङ्केत' तीर अर्थ में नहीं है । इसलिए तीरार्थं गंगा शब्द का संकेतित अर्थ नहीं हुआ । 'अस्माच्छब्दादयमर्थो बोद्धव्य:' इस शब्द . से. यह अर्थ समझना चाहिए इसका तात्पर्य है कि कोशकार ने जहाँ जैसा संकेत दिया है; वही अर्थ संकेतित अर्थ माना जायगा । नैयायिक लोग यद्यपि 'अस्माच्छब्दादयमर्थो बोद्धव्य इत्याकारा ईश्वरेच्छा शक्तिः' अर्थात् इस शब्द से यह अर्थं समझना चाहिए इस प्रकार की ईश्वरेच्छा को संकेत मानते हैं, परन्तु हमने कोशकार के अभिप्राय को ही संकेत माना है; इसका कारण यह है कि यदि ईश्वरेच्छा को संकेत मानेंगे तो यदृच्छा शब्द ( मानव की मर्जी से रखे गये डित्थ डवित्थ आदि) में उस प्रकार की ईश्वरेच्छा न होने से अव्याप्ति दोष हो जायगा । अर्थात् यदृच्छा शब्द में वाचक का लक्षण नहीं घटेगा । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचकादीनां क्रमेण स्वरूपमाह द्वितीय उल्लासः ( सू० 8 ) साक्षात्सङ्केतितं योऽर्थमभिधत्ते स वाचकः ॥७॥ २५ पस्थापनाय यत्र चैत्यादिपदं प्रयुक्तम्, तत्र लाक्षणिकेऽतिव्याप्तिवारकत्वात् । द्विरेफादिपदे तादृशस्य कोशकारादिसङ्केतस्य सत्त्वेऽपि व्यवहिततद्विषयत्वेनैव लाक्षणिकतया व्यवह्रियमाणेऽतिव्याप्तिवारकत्वाच्च । ननु तथापि तस्य लाक्षणिकेऽतिव्याप्तिः, तत्र साक्षात्सङ्केतस्यैव शक्यसम्बन्धरूपलक्षणात्वेन शब्दस्यापि तद्विषयत्वात् न च शब्दस्य सङ्केताश्रयत्वेन न तद्विषयत्वम्, अन्यथा तस्यापि शक्यत्वप्रश्न यह उठता है कि वाचक शब्द के लक्षण में साक्षात् पद का निवेश नहीं करने पर भी लक्ष्यार्थ और यङ्घार्थ में कोशकारादि द्वारा संकेत नहीं करने के कारण लाक्षणिक और व्यञ्जक शब्दों की व्यावृत्ति हो ही जायगी फिर 'साक्षात् ' पद का निवेश क्यों किया गया है ? उत्तर यह है कि वट शब्द का संकेतित अर्थ बरगद का पेड़ है। बरगद के पेड़ के पास बसे हुए गाँव को भी दूसरा अर्थ भी संकेतित अर्थ है । यदि साक्षात् पद मानना पड़ेगा। इस तरह लक्षण में अतिव्याप्ति चैत्यादि ( श्मशान में चिता के स्थान पर रोपे गये लोग 'बट' गाँव या 'बट' कह दिया करते हैं। प्रथम अर्थ की तरह का निवेश नहीं करेंगे, तो बट शब्द को 'गाँव' अर्थ का भी वाचक दोष आजायगा । इसी बात को समझाते हुए टीकाकार कहते हैं कि वृक्षादि ) जिस नाम का होता है; उस स्थान को भी उसी नाम से पुकारते हैं। जैसे बनारस में दश अश्वमेघ यज्ञ होने के कारण घाट का नाम ही दशाश्वमेध पड़ गया । पाकिस्तान पर विजय के बाद देहान्त होने के कारण लालबहादुर शास्त्री की श्मशानभूमि का नाम 'विजय घाट' रखा गया। इन उदाहरणों के द्वितीय अर्थ में शब्द का व्यवहित संकेत है, साक्षात् नहीं, वहाँ लाक्षणिक व्यवहित संकेतित अर्थ में अतिव्याप्ति दोष न हो इसलिए साक्षात् पद का निवेश करना अत्यावश्यक है । एक बात और — द्विरेफ पद को कोशकारादि ने भ्रमर अर्थ में संकेतित माना है । किन्तु सम्प्रदाय के अनुसार यह शब्द भ्रमर अर्थ का वाचक नहीं, अपितु इस अर्थ में लाक्षणिक है 1 'द्विरेफ' शब्द 'द्वौ रेफो यस्मिन् शब्दे' इस विग्रह के अनुसार भ्रमर शब्द का वाचक है; क्योंकि दो रेफ 'भ्रमर' इस ध्वनि में ( शब्द में ) है न कि भौंरा अर्थ में । इस लिए बाद में 'द्विरेफं पश्य', 'द्विरेफः कृष्णो भवति' इत्यादि स्थलों में 'तात्पर्यानुपपत्ति- मूलक लक्षणा' की जाती है और 'भ्रमर' अर्थ लिया जाता है । यदि वाचक के लक्षण में साक्षात् पद का निवेश नहीं करेंगे तो कोशकारादि का संकेत होने के कारण वाचक का लक्षण 'द्विरेफ' पद में भी संघटित हो जायगा । इसलिए साक्षात् पद का निवेश किया गया जिससे 'द्विरेफ' शब्द में, जो भ्रमर अर्थ में लाक्षणिक माना जाता है, अतिव्याप्ति दोष न हो। निवेश करने पर दोष नहीं हुआ क्योंकि द्विरेफ शब्द भ्रमर अर्थ में कोशकारादि द्वारा साक्षात् संकेतित नहीं हैं; किन्तु व्यवहित संकेतित है। ● लक्षण में तब भी ( साक्षात् पद के निवेश करने पर भी) लाक्षणिक शब्द (गङ्गायां घोषः इत्यादि में प्रयुक्त गङ्गा शब्द) में अतिव्याप्ति दोष हो ही रहा है; क्योंकि शक्य सम्बन्ध को ही 'लक्षणा' कहते हैं और 'शक्य- सम्बन्ध' का अर्थ साक्षात् संकेत ही है इस तरह लाक्षणिक शब्द भी शक्य-सम्बन्धरूप लक्षणा का विषय हो जायगा; क्योंकि साक्षात् संकेतरूप जो शक्य सम्बन्ध है, उसका विषय शब्द भी है। यदि आप कहें कि शब्द तो संकत का आश्रय है वह संकेत का विषय नहीं हो सकता अन्यथा शब्द को भी शक्य (अर्थ) मानना पड़ेगा ? तो इस कथन में निम्नलिखित युक्ति का विरोध होगा "गामुच्चारयति" में शब्द ही शक्य है; अर्थ नहीं क्योंकि अर्थ का उच्चारण नहीं हो सकता । गो पद किरण, पृथ्वी, इन्द्रिय, गाय आदि अनेकार्थक होने के Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ काव्यप्रकाशः इहागृहीतसङ्केतस्य शब्दस्यार्थप्रतीतेरभावात्सङ्केतसहाय एव शब्दोऽर्थविशेष प्रतिपादयतीति यस्य यत्राव्यवधानेन सङ्केतो गृह्यते स तस्य वाचकः । प्रसङ्ग इति वाच्यम्, गामुच्चारयतीत्यत्र गोपदस्य नानार्थकतया शब्दवाचकत्वेन तस्यापि सङ्केतविषयत्वात्। अथ सङ्केतविषयतावच्छदकेन रूपेण साक्षात्सङ्केतविषयार्थप्रतिपादकत्वं तदर्थः, तत्र गोशब्दस्य साक्षात्सङ्केतविषयतावच्छेदकशब्दत्वरूपेण न गोशब्दजन्योपस्थितिः अपि तु गोशब्दत्वेनवेति नातिव्याप्तिः, न चैवं सङ्केतविषयत्वमर्थविशेषणं व्यर्थमिति वाच्यम्, ग्रन्थकारमते 'गङ्गायां घोष'इत्यादौ सङकेतविषयतावच्छेदकरूपेण गङात्वादिनैव तीरोपस्थितेस्तत्रातिव्याप्तिवारकत्वादिति चेद, मेवा छत्रिणो यान्तीत्याद्यजहत्स्वार्थलाक्षणिकेऽतिव्याप्तेः, तत्राप्येतन्मते छत्रित्वेनैव सकलगन्तणामुपस्थितेः, तात्पर्यसत्त्वे युगपद्वृत्तिद्वयविरोधाभावपक्षे गङ्गायां घोषमत्स्यावित्यादौ एकार्थलाक्षणिकगङ्गापदादावपरार्थमादाय लक्षणातिव्याप्तेः, "भद्रात्मन' इत्यादावभिधामूलव्यञ्जकेऽतिव्याप्तेः, यदृच्छात्मकशब्दवदपभ्रंशेऽप्याधुनिकसङ्केतसत्त्वेन तत्रातिव्याप्तेश्चेत्यतो व्याचष्टे-इहेति, तथा च यस्मिन् शब्दे यदा यदर्थ कारण (किसी अर्थ की उपस्थिति नहीं होने से यहाँ अर्थविशेषणक शब्दविशेष्यक बोध भी नहीं होता किन्तु) यह बोध शुद्ध शब्दपरक है। इसलिए 'शब्द' भी शब्द का 'शक्य' होता है । इस प्रकार अतिव्याप्ति दोष न हो इसलिए "साक्षात् सङ्केतितं योऽर्थम" का अर्थ यह करना चाहिए कि सड़केत-विषयतावच्छेदकरूपेण साक्षात् सङ्केतविषयक अर्थ प्रतिपादक ही वाचक है । गो शब्द से गो शब्द की जो उपस्थिति होती है; वह इसलिए नहीं होती कि गो शब्द का साक्षात् संकेत गो शब्द में है अपितु साक्षात् संकेत गाय अर्थ में है इसलिए संकेत का विषय गाय अर्थ हुआ । उस अर्थ का अवच्छेदक शब्दत्वरूप में तो गाय अर्थ की ही उपस्थिति होगी गो शब्द की नहीं होगी। इसलिए वहाँ अतिव्याप्ति दोष नहीं हुआ। आपने जो वाचक का नव्यन्याय-शैली में लक्षण किया है उसमें अर्थ के साथ 'सड़केत-विषयत्वम्' यह जो विशेषण लगाया है वह यद्यपि व्यर्थ प्रतीत होता है परन्तु वह व्यर्थ नहीं है क्योंकि ग्रन्थकार के मत में 'गङ्गायां घोषः' इत्यादि स्थलों में गङ्गा शब्द से ही तीर की उपस्थिति होती है अर्थात् गङ्गायां घोषः का अर्थ 'तीरे घोषः" यही होता है, गङ्गातीरे घोषः यह नहीं। इस तरह तीर की उपस्थिति गङ्गात्वरूपसङ्केत-विषयतावच्छेदक धर्म से होने के कारण अतिव्याप्ति न हो जाय इसलिए अर्थ में वह विशेषण लगाना आवश्यक था। ऐसा मानने पर भी 'छत्रिणो यान्ति' में अतिव्याप्ति दोष होगा। अधिकतर छत्रधारी और कुछ बिना छत्ते के जानेवालों को देखकर किये गये इस प्रयोग को लाक्षणिक माना जाता है। यहाँ 'अजहतस्वार्था लक्षणा' है । क्योंकि यहाँ मुख्यार्थ का सर्वथा त्याग नहीं हुआ है। वहाँ छत्रित्व रूप से ही सभी जानेवालों की उपस्थिति होती है। इसलिए वाचक का नव्यन्याय शैली में किया गया लक्षण भी यहाँ संघटित होता है। दसरी बात 'गङ्गायां घोषमत्स्यौं' यहाँ गंगाका एक अर्थ लक्ष्य है और दूसरा अर्थ वाच्य । यहाँ गङ्गा शब्द में वाचक का लक्षण चला जायगा; क्योंकि प्रवाहरूपं अर्थ की यहाँ गङगात्वेन उपस्थिति है ही। "भद्रात्मनः" इस श्लोक में जहाँ अभिधामूलक व्यञ्जना मानी गयी है वहाँ भी अतिव्याप्ति दोष हो जायगा। यहच्छाशब्द की तरह अपभ्रंश शब्द में भी आधुनिक संकेत के विद्यमान होने के कारण अतिव्याप्ति दोष हो जायगा इसीलिए वृत्तिकार ने कारिका की निर्दुष्ट व्याख्या "इहागृहीत" आदि शब्दों से की है। इस तरह लक्षण का वाक्यार्थ यह हुआ कि-जिस शब्द में जब जिस अर्थ के लिए साक्षात् संकेत का ग्रहण बोधजनक हो, वह उस समय उस अर्थ का वाचक होगा। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लास: विषयस्य साक्षात्सङ्केतस्य ग्रहः प्रतिपत्तिजनकः स तदा तस्य वाचक इति लक्षणवाक्यार्थः, ग्रहश्च सङ्केतत्वप्रकारको यथार्थश्च विवक्षितः, स्वपरलाक्षणिके तत्त्वेन तद्ग्रहो न कारणम्, अपि तु शक्यसम्बन्धत्वेन ग्रह इति न तत्राऽतिव्याप्तिः, अपभ्रंशे च सङ्केतभ्रमः कारणम् न तु तत्प्रमेति न तत्राप्यतिव्याप्तिः । 'यदा तदे'ति करणाच्च नाजहत्स्वार्थायां न चाभिधामूलव्यञ्जके सा । यदर्थविषयेतिकरणाच्च न गङ्गायां घोषमत्स्यावित्यत्र तीरेऽपि वाचकत्वप्रसङ्गः । न च यत्त्वस्यैकस्याभावान्न लक्षणानगमः, कस्मिन्नर्थ कि वाचकमिति शिष्यजिज्ञासानिवारकस्याननुगतस्यंव लक्ष्यत्वाद, अन्यथा सर्वस्यव यत्किञ्चिदवाचकत्वेन वाचकादीनां लाक्षणिकादिभेदो न स्यादिति यूक्तमुत्पश्यामः । ननु सङ्केतज्ञानस्य यहाँ 'ग्रह' अर्थात्-बोध, संकेतत्व प्रकारक और यथार्थ लिया गया है "गङ्गायां मीनघोषौ" यहाँ जहाँ स्व (वाच्यार्थ प्रवाह) के साथ लक्ष्यार्थ तीर भी है, संकेतत्वेन तीररूप लक्ष्यार्थ की उपस्थिति नहीं होती है; किन्तु शक्यसम्बन्धत्वेन शक्यार्थप्रवाह के साथ सामीप्य-सम्बन्ध होने के कारण उसका 'ग्रहण होता है, इसलिए वहाँ अतिव्याप्ति दोष नहीं हुआ। अपभ्रंश 'गाय' आदि शब्द की अर्थोपस्थिति होने का कारण सङ्केत-भ्रम माना गया है इसलिए वहां अर्थग्रह प्रमा नहीं है। इसलिए वहाँ भी अतिव्याप्ति दोष नहीं हुआ। (लक्षण में) 'यदा' और 'तदा' का निवेश किया गया है इसलिए अभिधामूलक व्यञ्जक “भद्रात्मनो दुरधिरोहतनोः" इत्यादि स्थल में वाचक का लक्षण नहीं घटा और न 'गङ्गायां घोषमत्स्यौ यहाँ तीरार्थोपस्थापन के कारण गंगाशब्द वाचक माना गया। प्रवाहापस्थापन काल में उस (गङ्गा शब्द) से तीर अर्थ की उपस्थिति नहीं होती है। इसी तरह 'अजहत-स्वार्था' लक्षणा में (जहाँ मुख्य अर्थ से युक्त लक्ष्य अर्थ की उपस्थिति होती है) भी वाचक का लक्षण नहीं घटा क्योंकि जिस समय में वहाँ लक्ष्य अर्थ की उपस्थिति होती है उस समय के पूर्वलक्षण में ही संकेतित अर्थ की उपस्थिति हो जाती है। जैसे 'सार्षपं नारिकेलम् ऐङ्गुदञ्चेत्यादीनि तैलानि हेमन्ते सुखानि' यहाँ तैल पद से तिल के तथा सरसों आदि अन्य वस्तुओं के तेलों का बोध होता है। उस बोध में कालभेद है; तिल के बोध-काल में अन्य तेलों का बोध नहीं है। इसलिए अन्य तैलरूप लक्ष्यार्थ ग्राहक शब्दों में वाचक का लक्षण नहीं घटा। . . यद्यपि अमिधामूलक ध्वनिस्थल में, अजहत्स्वार्था लक्षणा में और "गङ्गायां घोषमत्स्यौ स्तः' यहाँ केवल वाच्यार्थ की ही उपस्थिति नहीं है इसलिए वाचक के लक्षण में दिये गये दोष नहीं होंगे; ऐसी शडा उपस्थित होती है। अर्थात् वाचक शब्द उसे कहेंगे जहाँ केवल वाचक का लक्षण घटेगा, जिस शब्द में वाच्य और लक्ष्य दोनों अर्यों की उपस्थापन-शक्ति होने के कारण दोनों के लक्षण घटते हैं, उसे वाचक नहीं माना जायगा। इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि-शिष्य यह नहीं जानता कि किस अर्थ में कौन वाचक है उसके ज्ञान के लिए ही लक्षण बनाया गया है । अतः शिष्य की 'किस अर्थ का कौन शब्द वाचक है ?' इस जिज्ञासा की निवृत्ति के लिए बनाये गये लक्षण का लक्ष्य पूर्वनिश्चित वाचक शब्द नहीं हो सकता। अर्थात् शिष्य को वाचक का पहले से ज्ञान नहीं है। वह तो उस लक्षण को माध्यम बनाकर ही वाचक का ज्ञान करेगा। इसलिए वह लक्षण जहाँ घट जायगा, उसे वह वाचक मान लेगा। इसलिए वाचक के लक्षण में 'यदा' 'तदा' आदि पदों का निवेश करना आवश्यक है। यदि पूर्वोक्त पदों का निवेश नहीं किया जायगा तो सभी पदों में किसी न किसी अर्थ की वाचकता होने के कारण वाचक और लाक्षणिक पदों का भेद नहीं दिखाया जा सकेगा। पूर्वोक्त निवेश करने पर यह दोष नहीं हुआ, क्योंकि गङ्गा शब्द प्रवाह अर्थ के उपस्थापन काल में वाचक है और तीर अर्थ के उपस्थापन काल में लाक्षणिक । संकेतज्ञान को (शाब्द-बोध का) हेतु मानने में प्रमाण का अभाव नहीं है। क्योंकि लोक-व्यवहार में बिना संकेत के शब्द से अर्थ की प्रतीति न होने से संकेत की सहायता से ही शब्द अर्थविशेष का प्रतिपादन करता है (यह सिद्धान्त निश्चित होता है।) इसलिए जिस शब्द का जिस अर्थ में अव्यवधान से संकेत का ग्रहण होता है, वह शब्द उस अर्थ का वाचक होता है। यही बताते हुए लिखते हैं :- "अगृहीतसङ्केतस्य" । इस तरह 'अन्वय-व्यतिरेक' Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ काव्यप्रकाशः हेतुत्वे मानाभावोऽत आह- श्रगृहीतसङ्केतस्येति । तथा चान्वयव्यतिरेकाभ्यामेव सङ्केतज्ञानस्यार्थ - प्रतीतिजनकत्वमिति भावः । सङ्केतसहाय एवेति तद् (ज्, । ज्ञानसहाय इत्यर्थः । प्रदीपकृतस्तु साक्षादित्यभिधानक्रियान्वितं प्रतीत्यन्तरमद्वारीकृत्य प्रत्यायकत्वं च तदर्थ: तेन नाभिधामूलव्यञ्जकेन वाऽजहत्स्वार्थ लाक्षणिकेन वा स्व- परलाक्षणिकेऽतिव्याप्तिः, व्यङ्गयोपस्थिती प्राकरणिक प्रतीतेर्लक्ष्योपस्थितो मुख्यार्थबाधानुरोधेन तत्प्रतीतेर्व्यवधायकत्वाद्, अत एव शक्यलक्ष्योभयपराल्लाक्षणिकादुभयोपस्थितौ लक्ष्यमादायातिव्याप्तिर पास्ता, युगपदुपस्थितेरसम्भवाद् माधुर्यादिव्यञ्जकरेफादिवर्णेऽतिव्याप्तिवारणाय सङ्केतितपदमिति प्राहुः । के द्वारा ही निश्चित होता है कि संकेत-ज्ञान अर्थ-प्रतीति का कारण है। इसलिए संकेतज्ञान को अर्थप्रतीति का कारण मानने में अन्वयव्यतिरेक ही प्रमाण है । तात्पर्य यह है कि 'गो' शब्द का संकेतित अर्थ जानने पर ही 'गाय' अर्थ की प्रतीति उस शब्द से हो सकती है। जो व्यक्ति गो शब्द का संकेतित अर्थं नहीं जानता, वह उस शब्द को सुनकर भी 'गाय' अर्थ की प्रतीति नहीं कर पाता। इसलिए तत्सत्त्वे तत्सत्तारूप अन्वय अर्थात् संकेत-ज्ञान के रहने पर अर्थ - बोध होने तथा तदभावे तदभावः अर्थात् संकेतज्ञान के अभाव में अर्थबोध के अभावरूप व्यतिरेक से यही निश्चित हुआ कि संकेतज्ञान ही अर्थबोध का कारण है । वृत्ति में लिखित " सङ्केत सहाय एव" में संकेत शब्द ( लक्षणा के द्वारा ) संकेतज्ञान का बोधक है, इसलिए 'सङ्केत सहाय एव' का अर्थ है सङ्केतज्ञान की सहायता से ही शब्द अर्थ का वाचक होता है। मूल में जितना शब्द है उतना ही अर्थ करें तो अर्थ अनन्वित हो जायगा; क्योंकि संकेत शाब्दबोध में सहायक नहीं है; किंतु संकेत का ज्ञान सहायक है । प्रदीपकार ने कारिका में आये हुए पद 'साक्षात्' का अन्वय 'अभिधान-क्रिया' अर्थात् 'अभिधत्ते' के साथ माना है। इसलिए प्रदीपकार के अनुसार 'य: जो (शब्द) स केतित अर्थ को साक्षात् कहता है अर्थात् जो शब्द किसी अन्य ज्ञान को द्वार ( माध्यम ) न बनाकर संकेतित अर्थ को कहता है, वह शब्द उस अर्थ का वाचक होता है, ऐसा कारिका का अर्थ होता है।' इसलिए प्रदीपकार की व्याख्या में अभिधामूलक व्यञ्जना, अजहत्स्वार्था लक्षणा और स्वपरलक्षणा के उदाहरणों में अतिव्याप्ति दोष नहीं हुआ। क्योंकि “भद्रात्मनः" इत्यादि में अभिधामूलक ध्वनि की उपस्थिति साक्षात् नहीं होती है किन्तु प्रकरण से आये हुए अर्थ को द्वार बनाकर होती है । 'अजहत्स्वार्था लक्षणा' के 'कुन्ताः प्रविशन्ति' आदि उदाहरणों तथा 'गङ्गायां मीनघोषौ स्तः' इत्यादि स्वपरलक्षणा में मुख्यार्थबाध की अपेक्षा होने के कारण उसको माध्यम बनाकर लक्ष्यार्थं आता है, इसलिए अतिव्याप्ति नहीं होती है । क्योंकि ध्वन्यर्थ और लक्ष्यार्थ की उपस्थिति शब्द से साक्षात् नहीं होती है। इसलिए जो यह कहते थे कि - शक्य और लक्ष्य दोनों की उपस्थिति कराने वाले लाक्षणिक शब्दों में लक्ष्यार्थ को लेकर, वाचक के लक्षण के घटित हो जाने के कारण अतिव्याप्ति दोष हो जायगा, यह भी खण्डित हो गया। क्योंकि एक साथ दोनों अर्थों की उपस्थिति नहीं है । अर्थात् वाच्यार्थ की उपस्थिति हो जाने पर वाच्यार्थ में बाधा को माध्यम बना कर लक्ष्य अर्थ आता है; इसलिए लक्ष्यार्थं का शब्द से साक्षात् अभिधान नहीं होता । कारिका में संकेतित पद का निवेश माधुर्यादि व्यञ्जक रेफादि वर्णों में अतिव्याप्ति दोष के निवारण के लिए किया गया है । यदि कारिका में 'संकेतित' पद का निवेश नहीं किया जायगा; तो वाचक का लक्षण होगा "य: अर्थम् साक्षात् अभिधत्ते स वाचकः" अर्थात् जो अर्थ का साक्षात् अभिधान करता है, वह वाचक है। ऐसी स्थिति में रेफ (लकार) आदि वर्ण माधुर्यगुण रूप अर्थ की साक्षात् प्रतीति करते हैं, इसलिए ये वर्ण माधुर्यादिगुणों के Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः २६ इदं तु चिन्त्यते–'अस्माच्छब्दादयमर्थो बोद्धव्य' इति कोशकाराद्यभिप्रायस्य सङ्केतत्वे कोशकदिर्नानात्वेन लक्षणाननुगमः, न च कोशक देन लक्षणे प्रवेश इति वाच्यम्, गङ्गापदोच्चारयितुरिच्छाविषये शैत्यादावपि गङ्गापदस्थ वाचकतापत्तेः, न चात एव साक्षादिति तद्विशेषणम्, शेत्यादौ त शक्यं लक्ष्यं च बोधयित्वा शैत्यं बोधयत्विति परम्परया तदभिप्रायो न साक्षाद् अत एव न लक्ष्यतीरादावपि तस्य वाचकत्वमिति वाच्यम्, पुमिच्छाया नियन्तुमशक्यत्वात्, किञ्च इदन्त्वशब्दत्वबोद्धव्यत्वतदाश्रयादावपि गङ्गादिपदस्य वाचकत्वप्रसङ्गः, तेषामपि ताशेच्छाविषयत्वात् प्रवाहमात्र विषयताया अपर्याप्तेः । न च तादृशसङ्केतग्रहो यदर्थविषयकशाब्दबोधे कारणं तदर्थे 'स वाचक' इत्युक्तेर्बोद्धव्यत्वादिविषयकशाब्दबोधं प्रति तादृशसङ्केतग्रहस्याकारणतया नातिप्रसङ्ग इति वाच्यम्, गङ्गायां घोषमत्स्या वाचक माने जायेंगे; परन्तु हैं ये उन गुणों के व्यंजक । अतः अतिव्याप्ति दोष हो जायगा। इसीलिए संकेतित पद का निवेश किया गया । निवेश करने पर दोष नहीं हुआ क्योंकि माधुर्यादि में इनका संकेत नहीं किया गया है। (यहाँ) यह विचार प्रस्तुत करते हैं कि-"अस्माच्छब्दादयमर्थो बोद्धव्यः" इस शब्द से यह अर्थ जानना चाहिए इस रूप में प्रतिपादित कोशकारादि के अभिप्राय को संकेत स्वीकार करें तो कोशकार के अनेक होने के कारण संकेत का पूर्वोक्त लक्षण (वस्तु का) ठीक ज्ञान नहीं करा सकेगा। इस लिए कोशकारादि का लक्षण में समावेश नहीं करना चाहिए। कोशकारादि का लक्षण में समावेश नहीं करने पर भी, जहाँ गङ्गा पद का उच्चारण करनेवाला चाहता है कि यह पद शैत्य-पावनत्वादि का भी बोध कराये वहाँ शैत्यादि को उच्चारण-कर्ता की इच्छा का विषय होने से गङ्गा पद को शैत्यादि का वाचक मानना पड़ेगा इस तरह पूर्वलक्षण में अतिव्याप्ति दोष हो जायगा। यदि यह कहा जाय कि इसी दोष के निवारण के लिए "साक्षात्" विशेषण का निवेश कर देंगे अर्थात "अस्मात् शब्दात साक्षादयमों बोद्धव्यः" ऐसा निवेश करने पर कोई दोष नहीं होगा; क्योंकि सभी वक्ता यही चाहते हैं कि गङ्गा पद शक्यार्थ (प्रवाह) और लक्ष्यार्थ (तीर) अर्थ को बताकर बाद में शैत्य अर्थ का बोध कराये, इसलिए शैत्यादि अर्थ के बोधन की इच्छा परम्परा-सम्बन्ध से सिद्ध होती है, साक्षात् सम्बन्ध से नहीं। इसीलिए लक्ष्यार्थ तीरादि के प्रति भी गङ्गा शब्द वाचक नहीं होगा। किन्तु इस तरह पूर्वोक्त लक्षण को निर्दोष बताने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए; क्योंकि (आत्मा की) इच्छा पर नियन्त्रण नहीं किया जा सकता। इच्छा को किसी सीमा में सीमित नहीं कर सकते हैं । इसलिए कुमारसम्भव में की पार्वती कहती है "मनोरथानामगतिविद्यते' । ऐसी स्थिति में कोई वक्ता ऐसी भी इच्छा कर सकता है कि "गङ्गापदं शैत्यमर्थ बोधयतु" ऐसी स्थिति में संकेत का लक्षण बहाँ घट जायगा और अतिव्याप्ति दोष हो जायगा । "अस्माच्छब्दादयमों बोद्धव्यः" इस प्रकार की इच्छा में 'अस्मात्' में इदम् सर्वनामत्व का, शब्दात में शब्दत्व का और बोद्धव्यः में बोद्धव्यत्व का भी समावेश हो गया है इसलिए इनके आश्रयादि में गङगा शब्द का वाचकत्व मानना पड़ेगा जो कि गलत है। तात्पर्य यह है कि "अस्माद् शब्दादयमर्थो बोद्धव्यः" इस प्रकार की इच्छा के विषय को यदि वाचक मानेंगे तो इस इच्छा में समाविष्ट इदमर्थ-शब्द शब्दार्थ और बोद्धव्य शब्दार्थ का वाचकत्व गङगा शब्द में घटित हो जायगा, क्योंकि वे भी उस प्रकार की इच्छा के विषय हैं। प्रवाह मात्र में ही वह विषयता पर्याप्त नहीं है। यदि यह कहें कि उस प्रकार का संकेतग्रह जिस अर्थ के शाब्दबोध का कारण हो; उस अर्थ के प्रति वह वाचक है इस तरह बोद्धव्यात्वादि अर्थ के शाब्दबोध के प्रति गंगा शब्द का संकेत नहीं है इसलिए दोष नहीं होगा, तो ठीक है परन्तु "गङ्गायां घोषमत्स्यौ स्तः" यहाँ गङ्गा शब्द के दो अर्थ तीर और पूर के उभयविषयक ज्ञान Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाश वित्यत्र तीरपुरविषयकज्ञानस्यैकत्वात् तीरविषयकज्ञानं प्रत्यपि तादृशसङ्केतज्ञानस्य कारणतया लाक्षणिकगङ्गादिपदेऽतिव्याप्तेः, अत एव सरस्वतीच्छेव तादृशी न सङ्केतपदार्थः तदिन्छायास्तथात्वे घटशब्दस्य पटे शक्तत्वापत्तेः तदिच्छाया एकत्वात् सर्वविषयत्वाच्च । न च गङ्गाशब्दोपहिततदिच्छा गङ्गाशब्दस्य सम्बन्धो रूपनिरूपितसमवाय इव रूपस्येति वाच्यम्, उपहितत्वस्य दुनिरूपत्वात् साहित्यस्य विषयताया वाऽतिप्रसक्तत्वात्, इच्छायाश्चेतननिष्ठत्वेन शब्दस्य तदनाश्रयतया शक्ततानापत्तिश्च, तस्माद व्यवहारकोशादिव्यङ्गयोऽतिरिक्त एव पदार्थः सङ्केतसंज्ञकः, स च गङ्गादिशब्दनिष्ठ: प्रवाहादिविषयको न तीरशैत्यादिविषय इति नातिप्रसङ्ग इति तदाश्रयो वाचक इत्येव लक्षणमनवद्यमिति दिक् । ___ अपभ्र'शानां वाचकत्वलाक्षणिकत्वव्यवहाराभावेन शक्तिलक्षणयोरभावेन व्यञ्जनैव वृत्तिरिति का स्वरूप एक है, इसलिए तीर विषयक ज्ञान के प्रति भी उस प्रकार के संकेत ज्ञान के कारण होने से लाक्षणिक गङगादि पद में अतिव्याप्ति हो जायगी। अर्थात् जहाँ एक ही पद वाचक और लाक्षणिक दोनों हैं और दोनों का अन्वय आगे के पद में एक साथ होता है जैसे "गङ्गायां घोषमीनी स्तः" यहाँ जहाँ तीर और प्रवाह-विषयक ज्ञान एक है वहाँ “यदर्थविषयकशाब्दबोधे यादृशः सङ्केतग्रहः कारणं स वाचक:" ऐसा कहने पर भी दोष हो जायगा; क्योंकि वक्ता यह चाहता है कि गङ्गा पद तीर और पूर दोनों अर्थों का बोधक हो। इसलिए तीरपूरोभयार्थ-विषयक शाब्दबोध में प्रवाह विषयक संकेतग्रह कारण है ही। तथा तीरार्थोपस्थापक जो गङ्गा शब्द है; उसमें भी वाचक का लक्षण घट जायगा और इस तरह सरस्वती की इच्छा को भी संकेत नहीं मान सकते; क्योंकि सरस्वती की इच्छा तो एक है और सर्ववस्तुविषयिणी है इसलिए 'घट' शब्द को 'पट' अर्थ का वाचक मानना पड़ेगा?' यदि यह कहें कि जैसे समवाय-सम्बन्ध के एक होने पर भी घट में जो रूप-निरूपित समवाय-सम्बन्ध है वह गन्ध-निरूपित समवायसम्बन्ध से अलग माना जाता है; उसी तरह गङ्गा-शब्दोपहित सरस्वती की इच्छा को गङ्गा शब्द के सम्बन्ध के कारण अलग माना जायगा; इसी तरह घट-शब्दोपहित सरस्वती की इच्छा को पट-शब्दोपहित सरस्वती की इच्छा से अतिरिक्त मानने पर कोई दोष नहीं होगा तो यह उचित नहीं होगा, क्योंकि इच्छात्वेन सारी इच्छा एक है उस इच्छा के उपहितत्व (सीमित विषय का) का निरूपण नहीं किया जा सकता। "गङ्गायां मीनघोषौ स्तः” इत्यादि वाचक और लाक्षणिक दोनों शब्दों के साहित्य में वाचक गङगा शब्द में उस प्रकार की इच्छा की सत्ता स्वीकार करने पर लाक्षणिक गंगा शब्द में भी वाचक का लक्षण घट जायगा क्योंकि वहाँ एक ही गङ्गा शब्द वाचक और लाक्षणिक दोनों है । इस तरह अतिव्याप्ति दोष हो जायगा । इसी प्रकार विषयता भी दोनों-वाचक और लाक्षणिक शब्दों में होने के कारण अतिव्याप्तिदोष हो जायगा। यदि आप उस पूर्व निर्दिष्ट इच्छा का विषय पूर वाचक गङ्गा शब्द को मानेंगे तो तीर लक्षक गङ्गा शब्द भी उस इच्छा का विषय बन जायगा और वहां भी अतिव्याप्ति दोष हो जायगा। तीसरी बात यह है कि इच्छा तो चेतन का धर्म हैं तब शब्द उसका आश्रय नहीं हो सकेगा इस तरह शब्द को शक्त नहीं माना जा सकेगा। इच्छारूप शक्ति का आश्रय शब्द नहीं हो सकेगा। इस तरह यह मानना अत्यन्त आवश्यक है कि व्यवहार, कोश, व्याकरण, आप्तवाक्य आदि से ज्ञात होने वाला कोई अतिरिक्त पदार्थ ही संकेत संज्ञा प्राप्त करने का अधिकारी है । वह संकेत गङ्गादि शब्द में रहने वाला है, प्रवाह उसका विषय है, तीर और त्यादि उस संकेत के विषय नहीं हैं। इस तरह उसके (संकेतित अर्थ के) आश्रय को वाचक कहते हैं; यही वाचक का लक्षण मानना चाहिए । इस प्रकार का लक्षण निर्दोष है। 'अपभ्रंश' शब्द को न 'वाचक' शब्द कहा जाता है और न 'लाक्षणिक' । इसलिए अपभ्रंश शब्द में न शक्ति मान मकते हैं और न लक्षणा । इसलिए (वहाँ) व्यञ्जना ही वृत्ति है यह परमानन्द ने माना है; परन्तु उनका यह कथन अप्रामाणिक है; क्योंकि "माए घरोवअरणं" इस प्राकृत भाषा के पद्यार्थ को ग्रन्थकार ने वाच्य बताया है। यदि संस्कृतेतरभाषा के शब्द वाचक न होते तो ग्रन्थकार पूर्व पद्य को वाच्यार्थोपस्थापक कैसे मानते ? Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः wwwwwwwwwwwwwwww wwwwwwwwwwwwwww परमानन्दः, तन्न, 'माए घरोवअरण'मित्यादि प्राकृतोपस्थितार्थस्यापि वाच्यतया ग्रन्थकृता प्रोक्तत्वात् । यत्त्वपभ्रंशस्यानेकविधतया तत्र तत्र शक्तिकल्पनेऽनन्तशक्तिकल्पनागौरवमित्येकत्र व संस्कृते शक्तिरिति । तन्न । संस्कृतत्वभाषात्वादेः शक्ततानवच्छेदकत्वेन तत्तत्पदत्वस्यैव तत्त्वेन लाघवगौरवानवकाशात् । न चापभ्रशे शक्तिभ्रमाद् बोधकत्वम्, विनिगमनाविरहात्, व्यवहारस्य शक्तिग्राहकस्य प्रायशस्तत्र व सत्त्वाच्चेत्यपभ्र शेऽपि शक्तिरित्यालङ्कारिकाः । । ननु य एव वाचकः स एव लक्षको व्यञ्जकश्चेतीतरभेदस्य व्यवहारस्य वा साध्यत्वे शब्दत्वस्यैव. .... किसी का मत है,कि एक संस्कृत शब्द के स्थान में अनेक अपभ्रंश शब्द पाये जाते हैं। इसीलिए भाष्यकार ने कहा है 'एकस्य शब्दस्य बहवोऽअभ्रशाः यथा गौरित्यस्य गावी गोणी गोता गोपोतलिका इत्येवमादयो बहवोऽपभ्रंशाः ।' अर्थात् एक शब्द के अनेक अपभ्रंश पाये जाते हैं जैसे गौ शब्द के 'गावी गोणी गोता गोपोतलिका' इत्यादि । इसलिए अपभ्रश में शक्ति मानने पर अनेक शक्ति की कल्पना करनी होगी। अत: गौरव होगा। इसलिए एक ही संस्कृत में शक्ति माननी चाहिए? किन्तु यह मत ठीक नहीं है। क्योंकि पूर्वोक्त गौरव-लाघव तब होता जबकि संस्कृतत्व या भाषात्व को शक्ततावच्छेदक मानते । परन्तु तत्तत्पदत्व को ही शक्ततावच्छेदक मानते हैं इसलिए लाघव और गौरव की कोई गुञ्जाइश ही नहीं है। तात्पर्य यह है कि किसी भाषा विशेष में यदि शक्ति मानते तब तो संस्कृत में केवल 'गो' शब्द होने के कारण एक शक्ति मानने से लाघव होता और अपभ्रंश में गावी गोणी, गोता, गोपोतलिका आदि अनेक शब्दों में शक्ति मानने से गौरव होता । परन्तु शक्ति तो पद में मानते हैं; इस लिए गोता अर्थ का शक्यतावच्छेदक गोता पदत्व है और गौणी अर्थ का शक्यतावच्छेदक गोणी पदत्व है, इस तरह गौरव के लिए अवकाश है कहाँ ? एक बात और है । एक अर्थ के लिए अनेक पर्याय के मिलने से भाषा समृद्ध मानी जाती है । इसलिए यह दषण नहीं है। 'वायु' वाचक शब्द संस्कृत में जितने हैं उतने अपभ्रंश में नहीं हैं। इसलिए पूर्वोक्त प्रकार के लाघवगौरव को प्रश्रय देने पर संस्कृत में शक्ति मानना ही गौरवग्रस्त होगा। यदि यह कहा जाय कि 'अपभ्रंश' शब्द से अर्थबोध शक्तिभ्रम के कारण होता है अर्थात् जैसे अन्धेरी रात में टेढ़ी-मेढ़ी रस्सी से लोगों को सर्पभय उत्पन्न होता है। वहाँ सर्प नहीं रहता, परन्तु सर्प का भ्रम ही भय का कारण बनता है। उसी प्रकार अपभ्रश में बोधकता शक्ति नहीं होती, परन्तु उससे जो बोध होता है उसका कारण है, शक्ति का भ्रम; तो गलत होगा क्योंकि साधु शब्द में शक्ति है और असाधु शब्द में शक्ति नहीं है। इस कथन को सिद्ध करने के लिए कोई युक्ति नहीं है। इसके विपरीत यह भी कहा जा सकता है कि असाधु शब्द में शक्ति है और साधु शब्द से जो अर्थ की प्रतीति होती है वही भ्रमवश होती है। इसलिए विनिगमना (एक पक्ष को प्रमाणित करने वाली युक्ति) के अभाव में अपभ्रंश से शक्तिभ्रम के कारण अर्थबोध होता है, यह नहीं कहा जा सकता। शक्ति को ग्रहण कराने वाला जो व्यवहार है, जिसे विद्वान् शक्तिग्राहक उपायों का शिरोमणि बताते हैं. उससे तो प्रायः यही सिद्ध होता है कि अपभ्रंश में ही शक्ति है क्योंकि समाज में प्रचलित भाषा आज अपभ्रंश ही है। इसीलिए संस्कृत पढ़ाने वाले या संस्कृत में लिखित ग्रन्थों की टीका करने वाले दुरूह अर्थों का बोध कराते समय कहते और लिखते हैं-मयूरः 'मोरनाम्ना प्रसिद्धः पक्षिविशेषः ।' इसलिए अपभ्रंश में भी शक्ति मानमा चाहिए, ऐसा आलंकारिकों का मत है। "सङ्केतितश्चतुर्भेदः" इस कारिका की अवसर-संगति बताते हुए लिखते हैं :-जो शब्द वाचक है; वही लक्षक है और व्यञ्जक भी वही है इस तरह (किसी शब्द में) यदि इतरभेद सिद्ध करना चाहें या व्यवहार को सिद्ध करना चाहें तो शब्दत्वरूप हेतु सब में समानरूप से रहने के कारण सद्धेतू नहीं हो सकेगा। यदि Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ....काव्यप्रकाशः हेतोरविकलत्वेन लाक्षणिकव्यञ्जकमात्रभेदस्य साध्यत्वे बाधितत्वेन च विशिष्य तत्तच्छब्दपक्षतायां सामान्यतः सङ्केताश्रयत्वं व्यभिचारीति हेतुर्विशिष्य तत्तद्विषयसङकेताश्रयत्वरूपो वाच्यः, तथा चामुकशब्दोऽत्रार्थे सङ्केतित इति विशिष्य तदज्ञानेज्ञानरूपासिद्धिरिति तत्परिहाराय सम्बन्धिनं सङ्केतविषयमुपदर्शयति वाचक शब्द को पक्ष बनाकर उसमें लाक्षणिक और व्यञ्जक शब्द-भिन्नत्व सिद्ध करना चाहें, तो हेतु बाधित हो जाने के कारण अनुमापक नहीं होगा। इसलिए विशेष करके तत्तच्छन्द (शब्द विशेष) को पक्ष बनाकर अनुमान करना होगा; उस अनुमान में सामान्यतः संकेताश्रयत्व को हेतु नहीं बनाया जा सकता ; क्योंकि वह हेतु व्यभिचारी हेतु होगा (संकेताश्रय होते हुए भी गङ्गा शब्द लक्षक और व्यञ्जक भी है, इसलिए वह हेतु साध्याभाववान् में वर्तमान रहने के कारण व्यभिचारी है ।) इसलिए सामान्यतः संकेताश्रय को हेतु न मानकर विशेष करके तत्तद्विषयसङ्केताश्रयत्व को हेतु मानना पड़ेगा । अतः यह जानना आवश्यक है कि अमुक शब्द इस अर्थ में संकेतित है; क्योंकि विशेष रूप में यदि यह नहीं जानेंगे कि कौन शब्द किस अर्थ में संकेतित है; तो अज्ञान के कारण हेतु असिद्ध नाम के हेत्वाभास की श्रेणी में गिना जायगा। इसलिए पूर्वोक्त दोष के परिहार के लिए इससे सम्बद्ध संकेत विषय का वर्णन करते हैं कि 'सङ्केतितश्चतुर्भेदः' इति । 'सङ्केत-ग्रह-विचार सतग्रह किस में होता है इस प्रश्न का उत्तर अनेक दार्शनिकों ने विभिन्न रूप में दिया है। मीमांसक जाति में शक्ति मानने हैं । कुछ दार्शनिक व्यक्ति में ही संकेतग्रह मानते हैं । नैयायिक जाति-विशिष्ट व्यक्ति में संकेत-ग्रह स्वीकार करते हैं। यद्यपि व्यवहार-साधक व्यक्ति ही है; 'गां पश्य', 'अश्वम् आनय' इत्यादि स्थल में 'दर्शन' और 'आनयन' व्यवहार किसी व्यक्ति में ही होता है इसलिए सङ्कत ग्रह व्यक्ति में मानना उचित प्रतीत होता है किन्तु व्यक्ति में शक्ति मानने से 'आनन्त्य' तथा 'व्यभिचार' दो प्रकार के दोष होंगे । जो शब्द जिस अर्थ में संकेतित होता है; उस शब्द से उसी अर्थ की प्रतीति होती है। बिना संकेत-ग्रह के अर्थ की प्रतीति नहीं होती है। इस लिए व्यक्ति में यदि संकेत-ग्रह मानें तो जिस व्यक्ति विशेष में संकेत ग्रह हुआ है; उस व्यक्ति विशेष की ही उस शब्द से उपस्थिति होगी अन्य व्यक्तियों की प्रतीति नहीं होगी। जैसे 'गो' शब्द से एक गाय की, जिसमें कि संकेतग्रह हआ है प्रतीति होगी; अन्य गायों की प्रतीति नहीं होगी। इसलिए अन्य व्यक्तियों (गायों) की प्रतीति के लिए प्रत्येक गो व्यक्ति में अलग-अलग संकेतग्रह मानना आवश्यक होगा। ऐसी परिस्थिति में गो शब्द से सभी गो व्यक्तियों में अलग-अलग संकेतग्रह मानने में अनन्त शक्तियों की कल्पना करनी होगी। दूसरी बात यह है कि- व्यवहार से, वर्तमान देश और . काल की गो व्यक्तियों में ही संकेतग्रह हो सकता हैं; भूत-भविष्यकालों तथा देशान्तर की सब गो व्यक्तियों में संकेतग्रह सम्भव भी नहीं है। इसलिए व्यक्ति में संकेतग्रह नहीं माना जा सकता। पूर्वोक्त 'आनन्त्य दोष से बचने के लिए यदि यह कहें कि- 'सब गो व्यक्तियों में अलग-अलग शक्ति-ग्रह न मानकर दो चार व्यक्तियों में ही व्यवहार से संकेत-ग्रह मानेगे, तो शेष व्यक्तियों का बोध, वहाँ संकेत-ग्रह के अभाव से नहीं होगा इसलिए व्यभिचार' दोष होगा। संकेत की सहायता से ही शब्द अर्थ की प्रतीति करता है यह एक माना हआ नियम है । यदि बिना संकेतग्रह हुए गो व्यक्तियों का बोध 'गो' शब्द करायेगा; तो उस नियम का उल्लघन होने के कारण 'व्यभिचार' दोष होगा। व्यभिचार का अर्थ है सर्वमान्य नियम का उल्लंघन । तीसरी बात यह है कि महाभाष्यकार ने 'चतुष्टयी शब्दानां प्रवृत्तिः' माना है। इस तरह उनके विचार से शब्दों के चार विभाग बनते हैं-जाति शब्द गुण शब्द, क्रिया शब्द और यहच्छा शब्द । यदि व्यक्ति में शक्ति मानें तो पूर्वोक्त विभाग नहीं किये जा सकते; क्योंकि व्यक्ति में शक्ति मानने पर गौः, शुक्ल:, चलः, डित्थः आदि चारों Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ द्वितीय उल्लासः (सू० १०) सङ्केतितश्चतुर्भेदो जात्यादिर्जातिरेव वा । यद्यप्यर्थक्रियाकारितया प्रवृत्तिनिवृत्तियोग्या व्यक्तिरेव तथाप्यानन्त्याद् व्यभिचाराच्च तत्र सङ केत: कर्तुं न युज्यत इति गौ: शुक्लश्चलो डित्थ इत्यादीनां विषयविभागो न प्राप्नोतीति च तदुपाधावेव सङ केतः । 'सङकेतितश्चतभेद' इति । नन गणानामेकत्वे गणशब्दोपाधित्वं स्यात तथात्वे च तेषां जातित्वापत्तौ गोत्वादिना जातिसङ्करप्रसङ्गाद्, अबाधितोत्पादविनाशप्रतीत्यसम्भवो जातिवाचकभेदानुपपत्तिश्चेत्यपरितुष्यन्नाह-जातिरेव वेति । अर्थक्रिया दोहनवाहनादिरूपा, व्यक्तिः जात्याद्याश्रयः, सर्वासु व्यक्तिषु शक्तिग्रहस्य कारणत्वाङ्गीकारे दूषणमाह-प्रानन्त्यादिति, अनन्तानां गोव्यक्तीनामेकदोपस्थित्यसम्भवेन तत्र सङ्केतो ग्रहीतुन शक्यत इत्यर्थः । ननु यत्र क्वचिदेव व्यक्तौ शक्तिग्रहोऽस्तु कारणं शाब्दे च बोधे सङ्केताविषयीभूता अपि व्यक्तयः पदाद् भासन्त इत्यङ्गीकार्यमित्यत आह-व्यभिचारादिति, शंक्तिग्रहाविषयीभूतस्यापि शाब्दबोधविषयत्वे व्यभिचारेण शक्तिग्रहस्य कारणत्वानुपपत्तिरित्यर्थः, व्यभिचाराद् व्यभिचारप्रसङ्गात् सङ्केतग्रहाविषयत्वाविशेषाद् अश्वादेरपि ज्ञानप्रसङ्गादित्यर्थः । ननु शब्दों से व्यक्ति का ही बोध होगा। इस तरह 'गो' शब्द जातिवाचक है, 'शुक्ल' शब्द गुण वाचक है, 'चल' शब्द क्रिया वाचक है और 'डित्थ' शब्द व्यक्ति-विशेष का नाम होने से यहच्छा-शब्द है इस प्रकार का विभाग नहीं बन सकता । व्यक्तिवाद में तो उक्त चारों शब्दों से व्यक्ति का ही बोध होगा। इस तरह इस कारिका का अर्थ है-संकेतित अर्थ जाति, गुण, क्रिया तथा यदृच्छा भेदों से चार प्रकार का होता है । अथवा (मीमांसकों के मत के अनुसार) केवल जाति ही संकेतित अर्थ है । 'गुणों को एक मानने पर गुण को शब्द की उपाधि माना जायगा । यदि गुण को उपाधि मानेंगे तो वह भी जाति की तरह हो जायगा और उसका गोत्व आदि के साथ साङ्कर्य हो जायगा। (यदि गुण वाचक शब्द को) जातिवाचक ही मानना चाहें तो ऐसा भी सम्भव नहीं है; क्योंकि जातिवाचक शब्द वह माना गया है जहाँ उत्पत्ति और विनाश की अबाधित प्रतीति न हो सके, रक्त आदि शब्द तो उत्पन्न और विनष्ट होने वाले गुण की प्रतीति कराते हैं इसलिए उनको जातिवाचक से भिन्न मानना चाहिए, इसलिए "चतुर्भेदः" इस अंश से सन्तुष्ट न होकर दूसरा पक्ष प्रस्तुत करते हुए कहते हैं-"जातिरेव वा”। व्याकरण-दर्शन-सम्मत चतुर्विध सङ्केतित अर्थ का विश्लेषण वृत्ति की व्याख्या करते हुए लिखते हैं- "अर्थक्रिया का अर्थ है दूहना, वाहन बनना आदि । व्यक्ति की परिभाषा है 'जात्याश्रयः' अर्थात् जाति का आश्रय व्यक्ति कहलाता है । सभी व्यक्तियों में शक्तिग्रह को यदि शाब्दबोध का कारण मानें तो "आनन्त्यात्" अर्थात व्यक्ति में शक्ति मानने पर गोपद से एक गो की उपस्थिति होगी अनन्त और असंख्य गो व्यक्तियों की उपस्थिति नहीं हो सकेगी; इसलिए व्यक्ति में (वहाँ) संकेतग्रह नहीं मान सकते हैं। यदि यह कहें कि किसी एक गो व्यक्ति में ही शक्ति में ही शक्तिग्रह मानेंगे और वहाँ उस शक्तिग्रह को अर्थोपस्थिति का कारण मानेगे किन्तु शाब्दबोध में जहाँ संकेत ग्रहण नहीं हुआ है, ऐसे व्यक्ति भी पद से भासित हो जायेंगे, तो ऐसा कथन व्यभिचार-दोष के कारण अनुचित होगा। जिस शब्द का जिस अर्थ में शक्तिग्रह नहीं हुआ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशः न्यायनये सामान्यलक्षणया सर्वव्यक्त्युपस्थितावाद्यपक्षे न शक्तिग्रहासम्भवः, अन्त्यपक्षेऽपि मीमांसकमते यद्धर्मवत्तयोपस्थिते शक्तिग्रहस्तद्धर्माश्रयस्य स्मरणगोचरत्वं नानुपपन्नम, समानप्रकारकत्वस्य नियामकत्वाद् अतो व्यक्तिशक्ती दोषान्तरमाह-गौः शुक्ल इत्यादि, गोशुक्लादिपदानां व्यक्तिवाचकत्वे है, उस अर्थ की भी यदि शाब्दबोध में प्रतीति माने तो “तत्त्सत्वे तत्सत्ता" और "तदभावे तदभावः" के आधार पर बनाये गये 'शक्तिग्रहसत्त्वे अर्थोपस्थितिसत्ता' और 'शक्तिग्रहाभावे अर्थोपस्थित्यभावः' इस नियम का उल्लंघन हो जायगा । नियम के उल्लंघन को ही व्यभिचार कहते हैं। इस व्यभिचारदोष के कारण शक्तिग्रह को 'अर्थोपस्थिति' का कारण मानना गलत हो जायगा । व्यभिचारात् का अर्थ है व्यभिचार (दोष) के प्रसङ्ग से, अर्थात् व्यभिचार होने से व्यक्ति में शक्ति नहीं मानी जा सकती।। जैसे जिस गो व्यक्ति में गो शब्द का संकेतग्रह नहीं हुआ है, उसका भी यदि गो शब्द बोधक होता है तो गो शब्द से अश्वादि का भी ज्ञान होना चाहिए; क्योंकि दोनों (गो व्यक्ति-विशेष और अश्व) में गोशब्द के संकेतग्रह का अभाव समानरूप से है। व्यक्तिवाद में अनन्त शक्ति की कल्पना का जो दोष दिखाया गया है। उसमें अरुचि दिखाते हुए लिखते हैं कि "नन न्यायनये"-न्यायदर्शन में सामान्यलक्षणाप्रत्यासत्ति मानी जाती है। उससे एक घट का ज्ञान होने पर घटत्व जातिवाले सभी घटों का ज्ञान माना जाता है। उस सामान्यलक्षणाप्रत्यासत्ति से एक व्यक्ति की उपस्थिति के बाद उस व्यक्ति में विद्यमान सामान्य (जाति) के कारण सकल व्यक्ति की उपस्थिति होने से व्यक्ति अनन्तवाद पक्ष में भी सकल व्यक्तियों का शक्तिग्रह असम्भव नहीं होगा किन्तु सकल व्यक्तियों का संग्रह सम्भव हो जायगा, इस तरह व्यक्ति के अनन्त होने के कारण जो दोष दिया गया था उसका उद्धार हो गया। शक्तिग्रह में दिया गया व्यभिचारदोष भी नहीं होगा क्योंकि मीमांसक के मत के अनुसार जिस धर्म से युक्त होने के कारण उपस्थित का शक्तिग्रह होता है; उस धर्म के आश्रय, स्मृति गोचर होते ही हैं इसलिए घटत्व धर्म से युक्त होने के कारण घट की उपस्थिति होती है उस धर्म (घटत्व) के आश्रय (सकल घट) स्मृति में आयेंगे ही, इसलिए कोई दोष नहीं होगा । क्योंकि "यत्रयत्र शक्तिग्रहस्तत्र तत्र सामान्य प्रकारकव्यक्तिविशेष्योपस्थितिः" यह नियम मानेंगे। अर्थात जहाँ-जहाँ शक्तिग्रह होगा; वहाँ-वहाँ सामान्यप्रकारक व्यक्तिविशेष्यक उपस्थिति को कारण मानेंगे। पूर्वोक्त कार्यकारणभाव में कोई व्यभिचार नहीं है । यद्यपि इस तरह व्यक्ति में संकेतग्रह स्वीकार करने पर भी आनन्त्य और व्यभिचार दोष नहीं होंगे तथापि अन्य दोष होने के कारण व्यक्ति-शक्तिवाद नहीं स्वीकार करना चाहिए, यही दिखाते हुए लिखते हैं-यदि व्यक्ति में शक्तिग्रह मानें तो "गौः शुक्ल: चल: डित्थः" इत्यादि । यहाँ गो शब्द जातिवाचक है, शुक्ल पद गुण वाचक है, चल पद क्रिया वाचक है और डित्थ पद गाय का नाम होने से यहच्छात्मक संज्ञा वाचक है । इसलिए 'सफेद रंग की, चलती हुई डित्थ नाम की गाय' इस प्रकार का बोध प्रतिपदविषयविभागपूर्वकबोध होता है। व्यक्ति में शक्ति मानने पर चारों पदों से व्यक्ति का ही बोध होगा। इस तरह पूर्वोक्त जाति शब्द, गुण शब्द, क्रिया शब्द, और यदृच्छाशब्द नाम से प्रसिद्ध और सर्वानुभूत विषय-विभाग नहीं बन सकता। गो शुक्ल आदि सभी पद (व्यक्ति पक्ष में) व्यक्ति-वाचक ही होंगे, तब तो घड़ा वाचक "घट: कलशः" आदि पर्यायवाची शब्दों की तरह उनका एकसाथ प्रयोग नहीं होना चाहिए। पर एकसाथ प्रयोग होता है; इसलिए व्यक्ति की उपाधियों-जाति, गुण, क्रिया, और यदृच्छा–में शक्ति माननी चाहिए। १. व्यक्त्यानन्त्यपक्षे। २. व्यभिचारपक्षे। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः उपाधिश्च द्विविध:- वस्तुधर्मो वक्तृयदृच्छासन्निवेशितश्च । वस्तुधर्मोऽपि द्विविधः— सिद्ध: साध्यश्च । सिद्धोऽपि द्विविध: - पदार्थस्य प्राणप्रदो विशेषाधानहेतुश्च । तत्राद्यो जाति: । ३५ पर्यायत्वापत्ती सह प्रयोगो न स्यादित्यर्थः । यद्वा विषयविभागः प्रकारभेदस्तथा च गोपदादिजन्यव्यक्तिबुद्धीनां प्रकारभेदो न स्यादित्यर्थः । वस्तुधर्मः स्वाभाविको वस्तुनो धर्मः, वक्त्रिति वक्तृच्छोपाधिक इत्यर्थः । प्राणप्रद इति । प्राणप्रदत्वं यावद्वस्तुसम्बन्धित्वं, न तु यावद्वस्तुस्थायित्वम्, नीलपीतादीनामपि नित्यत्वेन यावद्वस्तुस्थायित्वात्, तत्सम्बन्धः कदाचिदत्यपि श्यामं रूपं नष्टमित्यादौ समवायनाशस्वीकारात् एतन्मते च न समवायस्यैक्यमिति न पृथिव्यां रूपसमवायनाशे जातिसमवायनाशः, न च लाद्यधिकरणे रूपादेर्यावद्वस्तुसम्बन्धित्वस्यापि सत्त्वादतिव्याप्तिरिति वाच्यं सर्वस्वाश्रये यावद्वस्तुसम्बन्धित्वस्य तत्त्वादिति दिक् विशेषः सजातीयेभ्यो व्यावृत्तिराधानं बुद्धिः, प्राणप्रदत्वमेव व्यवस्था अथवा विषय-विभाग का अर्थ प्रकार-भेद करना चाहिए; इस तरह व्यक्तिवाद में इन शब्दों में प्रकार - भेद नहीं होगा या तात्पर्य मानना चाहिए । घटः और शुक्लः इन दोनों पदों से उपस्थित पदार्थ की बुद्धि में जाति और गुण विशेषण बनकर घटित होते हैं। इसलिए दोनों बुद्धि में प्रकारभेद है। इसलिए विषय-भेद माना जा सकता है; लेकिन जब पदों का अर्थं "व्यक्ति" ही होगा, तो बुद्धि सर्वत्र व्यक्तिप्रकारक होगी और इस तरह गोपद, शुक्लपद, चलपद और डित्थपदजन्य बोधों में प्रकारभेद नहीं हो सकेगा । इसलिए व्यक्ति में शक्ति न मानकर व्यक्ति की उपाधियों में संकेतग्रह मानना चाहिए । 'उपाधिश्च द्विविधः' इत्यादि (मूल) उपाधि (मुख्य रूप से) दो प्रकार की होती है ( १ ) वस्तुधर्म (वस्तु का यथार्थ धर्म ) तथा ( २ ) वक्तृ-यश्च्छासन्निवेशित (वक्ता के द्वारा अपनी मर्जी से उस अर्थ में सन्निवेशित) । वस्तुधर्म का अर्थ है वस्तु का स्वाभाविक धर्म और वक्तृच्छासन्निवेशित शब्द में वक्ता की यच्च्छा ( खुद की मर्जी) ही उपाधि होती है। वस्तुधर्म भी दो प्रकार का होता है (१) सिद्ध और (२) साध्य | सिद्धरूप वस्तु धर्म भी दो प्रकार का होता है— एक पदार्थ का प्राणप्रद ( जीवनाधायक) और दूसरा विशेषाधानहेतु (विशेषता का आधान कराने का कारण ) । इनमें पहला अर्थात् वस्तु का प्राणप्रद सिद्ध धर्म जाति होता है। जैसा कि भर्तृहरि ने 'वाक्यपदीय' नामक अपने ग्रन्थ में कहा है : गौ स्वरूपतः न गौ होती है और न अगी। वह गोत्वजाति के सम्बन्ध से ही गो कहलाती है। इस तरह वस्तु का प्राणप्रद - जीवनधायक वस्तुधर्म जाति कहलाता है । जाति में प्राणप्रदत्व जो माना गया है उसका कारण उसका ( जाति का ) यावद्वस्तुसम्बन्धित्व है । जाति (घटत्वादि) उस प्रकार की जितनी वस्तुएँ (घड़े) हैं; उन सब में समवाय सम्बन्ध से रहती है। इसलिए सकल घट वस्तुसम्बन्धी होने के कारण जाति को पदार्थ का प्राणप्रद माना गया है । यावद्वस्तुस्थायी होना प्राणप्रता नहीं है । यदि जब तक वस्तु है तब तक स्थायी होने के कारण प्राणप्रदता मानें तो नील-पीतादि गुण भी नित्य होने के कारण यावदुवस्तुस्थायी हैं; इसलिए वे भी पदार्थ के प्राणप्रद माने जायेंगे । 9 यावदुवस्तुसम्बन्धी होना ही पदार्थ की प्राणप्रदता है ऐसा मानने पर कोई दोष नहीं होता; क्योंकि गुणका सम्बन्ध वस्तु के साथ तब तक उपस्थित नहीं रहता है जब तक कि वस्तु है । उसका सम्बन्ध कभी हट भी जाता है । "श्यामं रूपं नष्टम् " यहाँ आम में पुराना श्यामरूप जब नष्ट गया तब उसका श्यामरूप समवाय भी नष्ट Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाश उक्त हि वाक्यपदीये-"न हि गौः स्वरूपेण गौ प्यगौः गोत्वाभिसम्बन्धात्त गौः" इति। पयति-'उक्तं ही ति,-वाक्यपदीयं भर्तृहरिकृतो ग्रन्थः, स्वरूपेण व्यक्तित्वेनं 'न गौः' न गोव्यवहारगोचरः, नाप्यगौः नाप्यगोव्यवहारविषयः, गोत्वाभिसम्बन्धादू गोत्वसमवायाद्, गौः गोव्यवहारविषयः, अगोत्वाभिसम्बन्धादगौरिति च शेषः । शेषे चागोत्वाभिसम्बन्धादगौरिति शेषः ।। ___ वस्तुतस्तु स्वरूपप्रयुक्तो न गोव्यवहारश्चेत् तदा तत्प्रयुक्तोऽगोव्यवहारः स्यादित्याशङ्कायामुक्तं नाप्यगौरिति, तथा च स्वरूपप्रयुक्तो न कोऽपि व्यवहार इत्यर्थः, किं प्रयुक्तः को व्यवहार इत्यपेक्षायाहो गया । इसलिए रूप यावद्वस्तुसम्बन्धी नहीं है। इस मत में समवाय-सम्बन्ध एक नहीं है किन्तु अनेक है। इसलिए जब यह कहते हैं कि "आमघटे पाकानन्तरं श्यामरूपं नष्टं रक्तरूपञ्चोत्पन्नम्' अथवा 'आमघटे पाकानन्तरं श्यामघटो नष्टो रक्तरूपश्चोत्पन्नः" तब रूप के समवाय के नाश के साथ-साथ उसमें रहनेवाला जातिसमवाय नष्ट नहीं हुआ; क्योंकि रूप का समवाय जाति के समवाय से भिन्न है । इसलिए एक का नाश होने पर भी दूसरा विद्यमान रह सकता है। जलादि अधिकरण में रूपरसादि, यावद्वस्तुसम्बन्धी है। अर्थात् जल में शुक्ल रूप हमेशा माना गया है इसलिए उसका समवाय-सम्बन्ध भी जब तक जल वस्तु है तक तब स्थित है, इस तरह जल में रूप यावद्वस्तुसम्बन्धी होने के कारण हो 'पदार्थस्य प्राणप्रदः" यह लक्षण घट जायगा। केवल जाति में संघटित होने के लिए बनाया गया लक्षण, जब गुण में भी घटित हो जायगा तब तो अतिव्याप्ति दोष हो जायगा इस प्रकार की शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि यावद्वस्तु सम्बन्धी का अर्थ यह है कि सभी प्रकार के अपने आश्रय में जो यावद्वस्तुसम्बन्धी है वही पदार्थ का प्राणप्रद धर्म माना जायगा । श्वेत रूप, जल में सदा रहता है किन्तु रूप का आश्रय तो पृथिवी भी है, उसमें तो वह सदा नहीं रहता, इसलिए रूप का जो अपने आश्रय के साथ सम्बन्ध है, वह जब तक वस्तु है, तब तक नहीं रहता, जैसे “घटे पक्वे जाते श्यामरूपं न तिष्ठति" आदि में। (विशेषाधानहेतु-गुणः) की पद व्याख्या करते हुए लिखते हैं कि- विशेष का अर्थ है सजातीय (पदार्थों) से व्यावृत्ति होना-पृथक् कर देना, तथा आधान का तात्पर्य है बुद्धि । इस तरह जो शब्द सजातीय पदार्थों से पार्थक्यबद्धि उत्पन्न कर दे उसे गुण कहते हैं । “रक्तो घटः” में रक्तः पद नील-पीतादि घट से अलग बुद्धि उत्पन्न कर देता है। इसलिए वह 'रक्त' पद गुण वाचक है। 'उक्तं हो ति (टीकार्थ) जाति की पदार्थप्राणप्रदता को प्रमाणित करते हुए लिखते हैं-वाक्यपदीय में लिखा गया है कि गौ स्वरूपतः न गौ है और न अगौ।' वाक्यपदीय भर्तृहरि का लिखा हुआ ग्रन्थ है। स्वरूपेण का अर्थ है "व्यक्तित्वेन", नगौः" का तात्पर्य है 'गौ व्यवहार का विषय ।' नाप्यगौः का अर्थ है 'और न अगो व्यवहार का विषय ।' गोत्व के सम्बन्ध का तात्पर्य है 'गोत्व के समवाय होने से गौ है अर्थात् गो व्यवहार का विषय है । 'अगोः' का अर्थ है अगोवाभिसम्बन्ध से ही कोई "अगों" इस शब्द के व्यवहार का विषय होता है। वस्तुत: "नाप्यगो" जो कहा गया है उसका तात्पर्य है कि यदि स्वरूप-प्रयुक्त 'गो' व्यवहार नहीं होगा तो तत्प्रयक्त 'अगो' व्यवहार होने लगेगा ? (जैसे धन नहीं होने से यदि कोई धनवान् नहीं कहला सकता तो वह निर्धन कहला जाता है) इस शंका की निवृत्ति के लिए लिखते हैं "नाप्यगौः" इसका तात्पर्य यह है कि स्वरूप प्रयुक्त 'गो' या 'अगौं' दोनों में से किसी का व्यवहार वहाँ नहीं होगा। किससे प्रयुक्त क्या व्यवहार होता है? इस जिज्ञासा में कहते हैं कि 'गोत्वाभिसम्बन्धात्तु गौः' गोत्व मात्र प्रयुक्त गोव्यवहार का विषय होता है । किससे प्रयुक्त व्यवहार होता है ? इसका उत्तर है “गोत्व-प्रयुक्त” और क्या व्यवहार होता है ? इसका उत्तर है “गोव्यवहार"। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रितीवलासः द्वितीयो गुणः । शुक्लादिना हि लब्धसत्ताकं वस्तु विशिष्यते। साध्यः पूर्वापरीभूतावयवः क्रियारूपः । मुक्तं गोत्वाभिसम्बन्धात्तु गौरिति, गोत्वप्रयुक्तगोव्यवहारमात्रविषय इत्यर्थः, तथा च नाध्याहारः नागवि गोव्यवहारो (?') न चागव्यगोव्यवहारस्यानुपपत्तिरिति प्रतिभाति । लब्धसत्ताकं जात्यादिना विशिष्यते सजातीयाद् व्यवच्छिद्यते शुक्ला दिनेत्यर्थः । न च यथा गोत्वादिना लब्धसत्ताकं वस्तु नील: शुक्ल इत्यादिना गुणेन व्यवच्छिद्यते तथा शुक्लादिना लब्धसत्ताकं वस्तु 'गौहंस' इत्यादि जात्याऽपि विशिष्यत इत्यतिव्याप्तिरिति वाच्यम्, क्षणमगुणो भाव इत्यभ्युपगमाद् आद्यक्षणे गुणवत्तया लब्धसत्ताकत्वाभावात् । पूर्वापरीभूतेति । पूर्वापरीभूताः क्रमिका अवयवा एकदेशा अधिश्रयणावतारणादयो यत्र तादृशी क्रिया तव्र पस्तदात्मक इत्यर्थः, वस्तुतः पूर्वापरीभूतयाऽवयवक्रियया एकदेशक्रियया रूप्यते - ऐसी स्थिति में अध्याहार की आवश्यकता नहीं है क्योंकि गोभिन्न में गोव्यवहार नहीं होगा और 'अगो' में "अगो" व्यवहार की अनुपपत्ति नहीं हुई। ___ गुण की परिभाषा को लक्ष्य में घटाते हुए वृत्तिकार ने लिखा हैं-'शुक्लादिना हि लब्धसत्ताकं वस्तु विशिष्यते' शुक्ल आदि गुणों के कारण से ही सत्ता प्राप्त वस्तु (अपने सजातीय अन्य पदार्थों से विशेषता को) भिन्नता को प्राप्त होती है । गो के साथ शुक्ल विशेषण अन्य गौओं की अपेक्षा उसकी विशेषता या भेद को सूचित करता है। इसमें लब्धसत्ताक के साथ जात्यादिना यह जोड़ना चाहिए । 'विशिष्यते' का अर्थ है सजातीय पदार्थों से पृथक करना अर्थात् जाति के कारण व्यवहार में अपनी स्थिति बनाये हुए घटादि पदार्थों का परस्पर भेद करनेवाला विशेषण गुण कहलाता है। जैसे गोत्वादि जाति के कारण व्यवहार प्राप्त वस्तु (गो) नील, शुक्ल आदि गुणवाचक विशेषणों से सजातीय गायों से अलग की जाती है; उसी तरह शुक्लादि गुण के कारण व्यवहार में आयी हुई शुक्ल वस्तु 'गो' 'हंस' आदि के कारण सजातीय शुक्ल वस्तुओं से अलग की जाती है । इस तरह जाति के लक्षण में अतिव्याप्ति दोष होने की शङ्का नहीं करनी चाहिए क्योंकि न्यायशास्त्र का सिद्धान्त है कि उत्पन्न द्रव्य एक क्षण तक अगुण रहता है, इस लिए आदि क्षण में गुणवान् न होने के कारण शुक्लादि शब्द व्यवहार में लब्धसत्ताक नहीं है । जाति का तो अर्थ ही है कि 'जननेन प्राप्यते' जन्म के साथ ही जो प्राप्त हो जाती है उसे जाति कहते हैं। इस तरह जाति सर्वदा रहती है इसलिए व्यवहार में उसकी सत्ता तीनों कालों में है। वस्तु धर्म के दो भेदों-सिद्ध और साध्य-में से सिद्ध का पूर्णतः विश्लेषण करने के बाद साध्य का विश्लेषण करते हुए वृत्ति में लिखते हैं-'साध्यः पूर्वापरीभूतावयवः क्रियारूपः । साध्य का पर्याय है क्रिया। चावल पकाते समय 'पचति आदि शब्द के प्रयोग से जिस आगे पीछे किये जानेवाले क्रिया-कलाप (चूल्हा फूकने, बर्तन रखने आदि क्रिया समूह) की प्रतीत होती है, वह साध्य है । वही कहते हैं-पूर्वापरीभूताः-पूर्व और अपरभाव (पहले और पीछे होने वाले) क्रमिक अवयव (एक देश) अधिश्रयण चूल्हे पर रखने से लेकर अवतारण उतारने तक की क्रियारूप शब्द, साध्य हैं । इस प्रकार पूर्वोक्त शब्द 'पूर्वापरीभूतावयव" में बहुव्रीहि समास माना गया है, पूर्वापरीभूता अवयवा यस्य (क्रियारूपस्य) सः । पूर्वापरीभूताः में पहले द्वन्द्व-समास और फिर च्चि प्रत्यय है। पूर्वे च अपरे चेति पूर्वापरे, अपूर्वापरे पूर्वापरे सम्पद्यन्ते स्म इति पूर्वापरीभूताः । १. अत्र पाठो न समीचीनः । मूलप्रती लेखने विकृति गत इति प्रतीयते। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशः डित्थादिशब्दानामन्त्यबुद्धिनिर्माह्य संहृतक्रमं स्वरूपं वक्त्रा यदृच्छया डित्थादिष्वर्थेवूपाधित्वेन सन्निवेश्यत इति सोऽयं संज्ञारूपो यदृच्छात्मक इति । व्यज्यत इत्यर्थः। तन्मते एकव नित्या क्रिया क्रमवत्तावद्-व्यापारव्यङ्गयेत्यभ्युपगमात्, केचित्तु पूर्वापरीभूतोऽधिश्रयणादिरवयवो जनको यस्या इति विक्लित्यभिप्रायेणेति योजयन्ति। तत्तु गुणक्रियायदृच्छानां वस्तुत एकरूपाणामित्युत्तरग्रन्थविरुद्धम् । यदृच्छात्मकमुपाधि व्याचष्टे-डित्थादीनामिति । स्वरूपं वर्णात्मकं, अन्त्या स्वजन्या या विशिष्टबुद्धिः तद्ग्राह्यम्, संज्ञाशब्दा हि स्वस्वप्रत्यक्षानन्तरं स्वस्वविशिष्टान् धर्मिणः प्रत्याययन्ति, नैवं गवादिपदानि, तेषां जात्यादिवैशिष्ट्येन बोधकत्वात् । वैधान्तरमाह संहृतेति। पूर्वपूर्वप्रयोगदर्शनात् परपरप्रयोग इति जात्यादिशब्देषु यः क्रमस्तच्छून्यमित्यर्थः । शब्दस्य तन्मते द्रव्यत्वेन यदृच्छाशब्दे द्रव्यमुपाधिः । वस्तुतः साध्य वह है जो पूर्वापरीभूत क्रिया अर्थात् एक देश क्रिया से निरूपित होता है अर्थात् अभिव्यक्त होता है । इस मत में क्रिया एक ही है और नित्य है वह क्रमयुक्त उन-उन (चूल्हा जलाना, फूकना, बर्तन रखना आदि) व्यापारों से व्यङ्गय होती है यह माना जाता है। 'केचित्त' इत्यादि (टीकार्थ) कोई-"पूर्वापरीभूतावयवः" की व्याख्या इस प्रकार करते हैं-'पूर्वापरीभूत अधिश्रयण आदि अवयव है जनक जिसका, वह विक्लित्ति (अन्न का सीझना) साध्य है, इस प्रकार इस पंक्ति का अर्थ लगाते हैं। परन्तु उनका यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि यह व्याख्या काव्य-प्रकाश की वृत्ति में लिखित “गुणक्रियायहच्छानां बस्तुत एकरूपाणाम्" इस ग्रन्थ से मेल नहीं खायेगी। यहां बताया गया है बर्फ, दूध और शंख में 'सफेदी', गुड़ खीर, पायस, और ओदन पाक में 'पाक-क्रिया' और बालक, वृद्ध या युवक डित्य में 'डित्थ' एक है; जो कुछ भेद है, वह आश्रय भेद के कारण है, इसलिए अवास्तविक है । यदि "पूर्वापरोभूतावयवः" का अर्थ विक्लित्तिरूप साध्य करें तो विक्लित्ति में भेद होने के कारण साध्य की एकरूपता को स्वीकार करने वाला मम्मट का ग्रन्थ परस्पर विरुद्ध हो जायगा। इसलिए मानना चाहिए कि मम्मट को यह विक्लित्त्यर्थवाली व्याख्या मान्य नहीं थी। यदृच्छात्मक उपाधिकी व्याख्या करते हुए लिखते हैं :-किसी पदार्थ या व्यक्ति-विशेष का नाम रखने वाला व्यक्ति, रूढ़ शब्द का उस अर्थ के साथ सम्बन्ध स्थापित कर देता है कि यह व्यक्ति इस नाम से बोधित होगा। इस यहच्छा (या इच्छा यहच्छा अपनी मर्जी) से रखा गया डित्थ आदि नाम (रूढ़ संज्ञा) को यदृच्छाशब्द कहते हैं। यह तो हुई इसकी सरल व्याख्या। प्रतिपद व्याख्या इस प्रकार है--स्वरूपम्' का तात्पर्य है वर्णात्मक स्वरूप। 'अन्त्यबुद्धिनिर्णाह्यम्' में समास है 'अन्त्या चासो बुद्धिः', अन्त्या का तात्पर्य है स्वजन्य अर्थात् अन्त्यजन्य जो विशिष्ट बुद्धि उससे ग्राह्य । संज्ञा शब्द अपना प्रत्यक्ष (ज्ञान) कराने के बाद स्व-विशिष्ट (संज्ञाशब्दविशिष्ट) धर्मी (डित्यादि) का बोध कराते हैं । गो, शुक्ल, पचति इत्यादि पदों की स्थिति कुछ और है वे जात्यादि वैशिष्टय से अर्थबोधक होते हैं। अर्थात् गो पद, गोत्व जाति विशिष्ट का बोधक होता है । इसलिए एक गो में संकेतग्रह होने पर सजातीय (सकल गायों) का बोध हो जाता है। "डित्थ" शब्द इस तरह एक जगह संकेतग्रह होने पर अन्य डित्य का बोधक नहीं होता। जातिवाचकादि शब्द तथा यहच्छाशब्द में एक और असमानता है। यदृच्छाशब्द संहृतक्रम होता है अर्थात पूर्व-पूर्व प्रयोग को देखकर पर पर में जाति-वाचकादि शब्द का प्रयोग किया जाता है; जैसे किसी को गाय अर्थ के लिए गो शब्द का प्रयोग करते देखकर परवर्ती व्यक्ति सजातीय पशु के लिए गो शब्द का प्रयोग करता है, यह क्रम यहच्छा --- शब्द में नहीं है। इस मत में 'शब्द' द्रव्य है इसलिए यहच्छाशब्द में 'द्रव्य' उपाधि है। वही कहा गया है: Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः तदुक्तम्-शब्दै रेभिः प्रतीयन्ते, जातिद्रव्यगुणक्रियाः। चातुर्विध्यादमीषां तु, शब्द उक्तश्चतुर्विधः ॥१॥ इति । सुबुद्धिमिश्रास्तु युगपदनुपस्थितेषु वर्णेषु सत्सु कथं तद्विशिष्टबुद्धिरित्यत आह-संहृतेति । अत्र हेतरन्त्येति । अन्त्यवर्णबद्धौ प्रातिस्विकसंस्कारोपनीतेष वर्णेष सत्स, युगपदपस्थितौ तद्विशिष्टबुद्धिरित्यर्थ इति योजयन्ति । यत्तु अन्त्यं व्यवच्छेद्यं स्वलक्षणं धर्मनिरासस्पर्शाद् बुद्धिद्वारा निःशेषतो ग्राह्य, यस्य तदन्त्यबुद्धिनिर्ग्राह्य संहृतक्रमं जातिप्रतीत्यनन्तरं व्यक्तिप्रतीतिरिति क्रमशून्यं स्वरूपं धर्मिमात्र डित्थादिशब्दानामुपाधित्वेनार्थोपस्थित्यनुकूलतया सन्निवेश्यत इत्यर्थः । तथा च संज्ञाशब्दे उपाध्यन्तराभावाद् धर्मिमात्र ततः प्रतीयते, एवमाकाशादिपदेष्वपीति चण्डीदासः, तत् तुच्छम् । व्यक्तीनामानन्त्येन तत्र शक्ति परित्यज्य तत्र संज्ञाशब्दे पुनस्तदाश्रयणेनोपाधिविविध इत्यादिना संज्ञाशब्देऽप्युपाधिस्वीकारेण च विरोधात्, समानप्रकारकानुभवस्य स्मृतिहेतुत्वेन पदाद् निर्विकल्पस्मरणानुपपत्तेश्च । न चानुभवे समानविषयकानुभवत्वमेव स्मृतिजनकतावच्छेदकं न तु समानप्रकारकत्वमपीति वाच्यम्, घटे घटत्वप्रकार शब्दों से ही जाति, द्रव्य, गुण और क्रिया की प्रतीति होती है। इनके चार भेद होने के कारण शब्द के भी चार भेद माने गये हैं ।।१।। इति । सुबुद्धि मिश्र-ने संहतक्रम की व्याख्या करते हुए लिखा है कि-वर्ण उच्चारण के साथ नष्ट हो जाते हैं इसलिए एक साथ वर्णों की उपस्थिति नहीं हो सकेगी। ऐसी स्थिति में विशिष्ट बुद्धि अर्थात् ग, औ और विसर्ग से युक्त 'गौः' यह बुद्धि कैसे हो सकेगी? इसीलिए कहा गया है कि “संहृतक्रमम्"। यहाँ हेतु बताते हैं :--"अन्त्यबुद्धिनिर्ग्राह्यम्" । स्फोट की प्रक्रिया के अनुसार अन्त्य वर्ण की बुद्धि में पूर्व-पूर्व वर्णों के अनुभव से उत्पन्न जो संस्कार, उससे सहकृत, अन्त्य वर्ण के श्रवण से प्रतिवर्ण के संस्कार के द्वारा सभी वर्गों की उपस्थिति हो जाने पर ग्, औ और विसर्ग विशिष्ट (गौः) की बुद्धि हो जायगी। सुबुद्धि मिश्र की इस व्याख्या के अनुसार डित्थ आदि यदृच्छा शब्द यद्यपि पूर्व-पूर्व के उच्चारण-प्रध्वंसी होने से संहृतक्रम हैं, तथापि अन्तिम अक्षर की श्रुति के साथ पूर्व-पूर्व वर्गों का संस्कार जुड़ा होने के कारण बोधक होता है। यहच्छाशब्द का वक्ता (नाम रखनेवाला) अपनी मर्जी से जिस अर्थ में सम्बन्ध स्थापित कर देता है, वह यहच्छाशब्द उसी अर्थ को बताता है। . चण्डीदास ने “डित्थादिशब्दानामन्त्यबुद्धिनिर्ग्राह्यम्" इत्यादि वृत्तिलिखित पूर्वोक्त पंक्ति की व्याक्या इस तरह की है : इस मत में अन्त्यम् का तात्पर्य है-व्यवच्छेद्य । अर्थात् स्वलक्षण ही (डित्यादि शब्द में धर्म के निरासत्याग के स्पर्श होने के कारण) बुद्धि के द्वारा निःशेषतोग्राह्य है जिसका, उसे ही अन्त्यबुद्धिनिर्ग्राह्य कहेंगे अर्थात् डित्यादि शब्द में स्वलक्षण (डित्थ का स्वभाव ही) पूर्णतोग्राह्य होता है। डित्थादि शब्द से होने वाली प्रतीति को संहृतक्रम अर्थात् क्रमशून्य भी कहा गया है। गो, अश्व आदि शब्द से जाति की प्रतीति पहले होती है और व्यक्ति की बाद में; यह क्रम है किन्तु डित्यादि शब्द से होनेवाली प्रतीति इस प्रतीति से शून्य है; यहाँ स्वरूप मात्र की अर्थात् धर्मिमात्र की प्रतीति होती है। इस तरह यदृच्छा शब्द में धर्मिमात्र को अर्थ की उपस्थिति में अनुकूल होने के कारण उपाधिरूप में मानते हैं। जिस तरह संज्ञाशब्द में किसी अन्य उपाधि के नहीं रहने के कारण उससे मिमात्र की प्रतीति होती है, उसी तरह आकाशादि पदों में भी (समझना चाहिए) चण्डीदास जी का यह मत युक्तियुक्त नहीं है। इतना ही नहीं मम्मट के ग्रन्थ से विरुद्ध भी है। मम्मट ने व्यक्ति के अनन्तभेद होने के कारण आनन्त्य और व्यभिचार दोष देकर व्यक्ति में शक्ति को नहीं माना और संज्ञा Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० काव्यप्रकाशा कानुभवेन पटत्वप्रकारकस्मरणापत्तेः, न च विरुद्धाप्रकारकानुभवत्वं तथा, उभयविषयकानुभवत एकमात्रविषयकस्मरणानापत्तेः, न च विरुद्धमात्राप्रकारकानुभवत्वं तथा', गौरवात्, न च समानप्रकारकत्वादीनाम ननुगमेन घटत्वप्रकारकानुभवत्वेन तत्प्रकारकस्मृतित्वेनेत्यादिना प्रत्येक कार्यकारणभावकल्पनेऽपि प्रकृते आकाशानुभवत्वेन तत्स्मरणत्वेनैव तत्कल्पनमिति वाच्यम्, द्रव्यत्वप्रकारकाकाशस्मरणं प्रति, प्रमेयत्वप्रकारकतदनुभवस्य जनकत्वापत्तेः, निर्विकल्पकोपस्थिताकाशे आकाङ्क्षाज्ञानासम्भवेन शाब्दबोधानापत्तश्चेति दिक् । शब्द में शक्ति को माना इसलिए उनके विचार में व्यक्ति और संज्ञा-शब्द में कुछ अन्तर होना चाहिए; वह अन्तर है संज्ञा-शब्द में भी उपाधि का होना । जैसा कि उन्होंने "उपाधि के दो भेद हैं" इत्यादि पंक्ति के द्वारा संज्ञा शब्द में भी उपाधि स्वीकार की है। मम्मट के पूर्वोक्त विचार से विरुद्ध होने के कारण चण्डीदास का मत मानने योग्य नहीं है। दूसरी बात यह है कि यदि संज्ञाशब्द में कोई उपाधि या प्रकार न मानें, तो संज्ञा पद से निर्विकल्प स्मरण नहीं हो सकेगा क्योंकि स्मरण में समानप्रकारक अनुभव को कारण माना गया है। जैसे राम को देखकर लक्ष्मण का अनुभव इसलिए होता है कि दोनों में दशरथपुत्रत्व आदि समान धर्म है। डित्थ पद से निर्विकल्पात्मक स्मरण हआ करता है । इसलिए कार्य को (स्मरण को) देखकर यहाँ कारण का अनुमान करना पड़ेगा और मानना होगा कि डित्य में कुछ न कुछ उपाधि है। अनुभव में समान-विषयक अनुभवत्व को ही स्मृतिजनकतावच्छेदक मानेगे। किन्तु समानप्रकारकत्व को भी स्मतिजनकतावच्छेदक नहीं मानेंगे। अर्थात् डित्थ का निर्विकल्पक स्मरण होता है उसका कारण डित्थ में रहने वाली कोई उपाधि नहीं अपितु डिस्थ के अनुभव में जो समानविषयक अनुभवत्व था, वह है, यह स्वीकार करने पर संज्ञाशब्द में उपाधि नहीं मानने पर भी कोई दोष नहीं होगा, ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए। क्योंकि समान-विषयक अनुभवत्व को स्मरण का कारण मानने पर घट में घटत्वप्रकारक अनुभव से पटत्वप्रकारक स्मरण होने लगेगा। यदि "समानप्रकार के अनुभव' को कारण मानते हैं तो घटत्व प्रकारक अनुभव से घटत्वप्रकारक स्मृति अर्थात् घट की ही स्मृति होगी, पट की नहीं। यदि यह कहें कि विरुद्धाप्रकारक अनुभव को स्मृति का कारण मानेंगे, तब तो घटत्वप्रकारक अनुभव (घटानुभव) तथा पटत्वप्रकारक स्मृति (पटस्मृति) इन दोनों में प्रकार, घटत्व और पटत्व परस्पर विरुद्ध हैं इसलिए ऐसी स्मृति (घटानुभव) से पटानुभूति नहीं होती है तो यह भी उचित नहीं है। क्योंकि ऐसा मानने पर जिस व्यक्ति को घटत्व और पटत्व दोनों प्रकार का अनुभव है अर्थात् जिसे घट और पट दोनों का अनुभव है, जिसे आग और पानी दोनों का परिचय है उसे विरुद्ध प्रकारक अनुभव होने के कारण एक विषय का स्मरण नहीं होगा। यदि विरुद्ध मात्राप्रकारक अनुभव को स्मृतिजनकतावच्छेदक मानें तो जिस अनुभव में विरुद्ध प्रकार न हो, उससे स्मृति होगी। उभयप्रकारक अनुभव में केवल विरुद्ध ही प्रकार नहीं है, वहाँ तो अनुकूल धर्म भी प्रकार है इसलिए यदि पूर्वोक्त दोष का उद्धार करने का प्रयत्न करें, तो वह भी व्यर्थ होगा। उभयविषयक अनुभव से एकमात्र विषयक स्मरण नहीं होगा और यदि विरुद्ध मात्राप्रकारक अनुभव को स्मृतिजनकतावच्छेदक माने तो गौरव होगा। समानप्रकारत्व धर्म अनुगतधर्म नहीं है अर्थात् वह धर्म ऐसा नहीं है जिसका निश्चित ज्ञान किया जाय । इसलिए घटबोध के प्रति घटत्वप्रकारक अनुभव और घटत्व स्मृति दोनों में प्रत्येक के कार्यकारणभाव की कल्पना करने पर प्रकृत में दोष नहीं होगा। क्योंकि यहाँ आकाश का स्मरण आकाशानुभवत्वेन नहीं है किन्तु घट-समवायिकारणत्वेन है। यदि आकाश की उपस्थिति आकाशत्वप्रकारकानूभवत्वेन और १. स्मृतिजनकतावच्छेदकम् । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः "गौः शुक्लश्चलो डित्थः' इत्यादौ "चतुष्टयी शब्दानां प्रवृत्तिः” इति महाभाष्यकारः । परमाण्वादीनां तु गुणमध्यपाठात् पारिभाषिकं गुणत्वम् । प्राञ्चस्तु प्रथमादिवर्णप्रत्यक्षे किञ्चिदभिव्यक्तं चरमवर्णबुद्धया निःशेषतो व्यङ्गचं संहृतक्रम वर्णक्रमशन्यस्वरूपं स्फोट: स एवोपाधिः, स च डित्थादिपदजन्यज्ञाने भासते, घटादिपदे तु जात्यादेरेव प्रकारत्वान्नायं प्रकारः । एवमेव चाकाशपदादावित्यर्थ इति प्राहुः । स्वोक्ते भाष्यसम्मतिमाह “गौः शुक्ल" इति । ननु प्राणप्रदत्वं यावद्वस्तुसम्बन्धित्वं परमाणुत्वादीनामपीति कथमयं गुणशब्द इत्यत आहआकाशत्वप्रकारक-स्मृतित्वेन होती तो उसका बोध होता परन्तु ऐसा नहीं है, इस प्रकार का कथन भी ठीक नहीं है। क्योंकि ऐसा मानने पर जहाँ द्रव्य होने के कारण द्रव्यप्रकारक आकाश का स्मरण है उस द्रव्यत्वप्रकारक आकाश के स्मरण के प्रति प्रमेय के रूप में आकाशानुभव को जनक मानना आवश्यक हो जायगा, इसलिए प्रत्येक को कार्यकारण भाव नहीं माना जा सकता। साथ ही साथ प्रकारताशून्य आकाश की उपस्थिति (आकाश की निर्विकल्प उपस्थिति) में आकांक्षा-ज्ञान के सम्भव न होने से शाब्दबोध होगा ही नहीं। 'प्राञ्चस्तु' इत्यादि (टीकार्थ) प्राचीन आचार्यों का मत यदृच्छाशब्द के सम्बन्ध में इस प्रकार है। डित्थादि यदृच्छाशब्द में प्रथम, द्वितीय आदि वर्ण का प्रत्यक्ष (श्रवण) होने पर कुछ अभिव्यक्ति, और अन्तिम वर्ण का ज्ञान होने पर पूर्ण रूप में व्यङ्ग्य संहृतकम अर्थात् वर्णक्रम-शून्यात्मक स्फोट ही उपाधि है। उस स्फोटरूप उपाधि की डित्थादि पदजन्य ज्ञान होने पर प्रतीति होती है । घटादि पद में तो जात्यादि ही प्रकार (बनकर प्रतीत होता) है, इसलिए डित्यादि शब्दों की तरह संकेतग्रह की रीति नहीं अपनायी गयी। इसी प्रकार आकाशादि पदों में भी समझना चाहिए। अपने कथन में महाभाष्यकार पतञ्जलि की सम्मति बताते हुए (मम्मट) कहते हैं 'गौः शुक्लश्चलो डित्य' इत्यादि में शब्द की चार प्रकार की प्रवृत्ति को महाभाष्यकार ने भी स्वीकार किया है। प्राणप्रदत्व का अर्थ आपने यावद्वस्तुसम्बन्धित्व किया है अर्थात जिसका सन्बन्ध वस्तु के साथ तब तक रहें जब तक कि वस्तु मौजूद हो, उसको प्राणप्रद कहते हैं, तब तो जाति की तरह परमाणु भी यावद्वस्तुसम्बन्धी है क्योंकि परमाणु का सम्बन्ध (समवाय) वस्तु के साथ तब तक रहता है जब तक कि वस्तु रहती है, इस तरह परमाणु को जाति मानना चाहिए उसे गुणों में क्यों गिना गया? इसी प्रश्न को मन में रख कर उत्तर देते हए ग्रन्थकार लिखते हैं कि-परम अणु (परिमाण तथा आदि शब्द से परममहत्परिमाण) आदि का (उनके प्राणप्रद-धर्म होने के कारण) जाति शब्द मानना उचित होने पर भी 'वैशेषिकदर्शन' में विशेष पारिभाषिक शब्दों की तरह गुणमध्यपाठ के कारण उनमें पारिभाषिक गुणत्व माना गया है।* *परम-अणु-परिमाण की गुणों में गणना कैसे होती है इसका स्पष्टीकरण इस रूप में प्राप्त होता है उपर्युक्त विभाजन के अनुसार वस्तु के प्राणप्रद-धर्म का नाम 'जाति' और उसके विशेषाधानहेतु-धर्म को 'गुण' कहा जाना चाहिये । परन्तु 'वैशेषिक दर्शन' में शुक्ल आदि 'रूप' के समान 'परिमाण' को भी गुण माना है। उसमें रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संख्या और परिमाण आदि २४ गुणों में 'परिमाण' की भी गणना की गई है। यह परिमाण मुख्यरूप से १-'अणु' तथा २-'महत्' दो प्रकार का होता है। परन्तु उन दोनों के साथ परमशब्द को जोड़कर उनका एक-एक भेद और हो जाता है । अर्थात् अणु-परिणाम के दो भेद हो गये-एक 'अणुपरिमाण' और दूसरा 'परम-अणपरिमाण' । इसी प्रकार महत-परिमाण के भी एक 'महत-परिमाण' तथा दूसरा 'परम-महत्परिमाण' ऐसे Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ काव्यप्रकाशः परमाण्वादीनामिति । परमाणुत्वादीनामित्यर्थः, परिमाणमात्रपरं वा परमाणुपदं पारिभाषिकं वैशेषिकादिव्यवस्थासिद्धं तथा चायं जातिशब्द एवेति भावः । ननु गुणानामपि नानात्वे व्यक्तिशक्तिपक्षोक्त एव दोष इत्यत आह-गुणेति । नाशधीस्तु समवायविषयिणी । न चानेकव्यक्तिवृत्तित्वे नित्यत्वे च तस्य जातित्वापत्तिः, जातेः संस्थानमात्रव्यङ्ग्यत्वेनास्यातत्त्वात्', अवयवावयविवृत्तित्वाद् गोत्वादिना परापरभावानुपपत्तेश्चेति । तथाऽधिश्रयणादितत्तद्व्यापारव्यङ्गया तत्तद्व्यापारानुगता क्रियाऽप्येकैव । अत एवैकव्यापाराभावेऽपि पचतीत्यादिप्रयोगप्रत्ययौ, अन्यथाऽऽशुविनाशिनां तेषां मेलकाभावात् तौ न दो भेद हो जाते हैं । उनमें से 'परम- अणु परिमाण' केवल परमाणु-संज्ञक पदार्थ अर्थात् पृथिव्यादि द्रव्यों के सूक्ष्म वृत्ति में यद्यपि "परमाण्वादीनाम्” लिखा हुआ है तथापि उसका अर्थ 'परमाणुत्वादीनाम्' करना चाहिए । अथवा परमाणु स्वीकृत पद को परिमाण बोधक मानना चाहिए। 'पारिभाषिकं गुणत्वम्' का वैशेषिकादि दर्शन की व्यवस्था से सिद्ध गुणत्व माना गया है यह अर्थ है । सही में देखा जाय तो वह जाति शब्द ही है । गुण शब्द आदि में दोषों की शङ्का और उसका निवारण आगे की पक्ति की अवसर-संगति देते हुए लिखते हैं कि गुण भी अनेक हैं अर्थात् भिन्न-भिन्न पदार्थों में शुक्लादि गुण भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हैं जैसे हिम, दूध और शंख आदि में शुक्लता अलग-अलग है, तब तो गुण में शक्ति मानने पर व्यक्तिवाद की तरह (आनन्त्य और व्यभिचार) दोष होंगे । इसका उत्तर देते हुए वृत्तिकार ने "गुणक्रियायदृच्छानां" इत्यादि पंक्ति लिखी है । इसका अर्थ है कि भिन्न-भिन्न पदार्थों में भिन्न २ रूप से प्रतीत होनेवाले गुण, क्रिया और च्छा के एकरूप होने पर भी आश्रय-भेद से उनमें भेद-सा प्रतीत होता है ( वह भेद वास्तविक नहीं है किन्तु आश्रय के कारण कल्पित है) जैसे एक ही मुख को, तलवार, दर्पण या तैल में देखने पर प्रतिबिम्बों में भिन्नता दिखाई पड़ती है । यह भेद वास्तविक नहीं है किन्तु उपाधिकृत है इसी प्रकार गुण आदि में प्रतीत होनेवाला भेद भी केवल औपाधिक है । इसलिए गुण आदि में संकेत ग्रह मानने पर 'आनन्त्य' और 'व्यभिचार' दोषों के आने की संभावना नहीं है। गुण (शुक्लादि ) के एक होने पर भी "अत्र शुक्लो गुणो नष्टः " यह नाशबुद्धि इसलिए उत्पन्न होती है कि द्रव्य 'शुक्ल गुण का जो समवाय था, वह नष्ट हो गया और वहां रक्तादि अन्य गुण का समवाय उत्पन्न गया है । में शुक्लादि गुण को अनेक व्यक्तियों में रहनेवाला तथा नित्य मानने पर "नित्यम् एकम् अनेकानुगतम् सामान्यम्” यह जाति लक्षण वहां संघटित हो जायगा क्योंकि शुक्ल को आपने एक माना ही है, उसे आपने नित्य भी कहा है; क्योंकि गुणनाशबुद्धि को आपने समवायनाशविषयिणी बताया है, अनेक व्यक्ति में विद्यमान होने के कारण उसे अनेकानुगत आपने स्वीकार किया ही है-इस तरह की आशङ्का नहीं करनी चाहिए । जाति संस्थानमात्र व्यङ्ग्य होती है, गुणसंस्थान आकृतिमात्र से व्यङ्ग्य नहीं होता । "तटः तटी तटम् " यह तट जातिवाचक शब्द है क्योंकि तट का एक विशेष - विशेष संस्थान हैं, आकृति है, गीली मिट्टी- रेतीली भूमि आदि संस्थान से वह व्यङ्गय होता है; इस और अविभाज्य अवयव में रहता है। इस परम अणु- परिमाण' के लिये 'परिमाण्डल्य - परिमाण' शब्द का भी प्रयोग होता है । यह परम अणु-परिमाण 'परमाणु'- रूप सूक्ष्मतम पदार्थ का प्राणप्रद धर्म है, विशेषाधान हेतु नहीं । इसलिये उक्त परिभाषा के अनुसार परम अणु - परिमाण के वाचक 'परमाणु- परिमाण' शब्द को जाति-शब्द मानना चाहिये । परन्तु 'वैशेषिक दर्शन' में उसका पाठ गुणों में किया गया है। इसका क्या कारण है ? यह प्रश्न उपस्थित होता है । इसी प्रश्न का उत्तर ग्रन्थकार ने यह दिया है कि- 'परम-अण - परिमाण' वस्तुतः जातिवाचक शब्द ही है । परन्तु जैसे लोक में अन्य अर्थों में प्रसिद्ध 'गुण', 'वृद्धि' आदि शब्दों का व्याकरण शास्त्र में विशेष अर्थ में प्रयोग होता है, उसी प्रकार वैशेषिक दर्शन में परम-अण - परिमाण की गणना गुणों में की गयी हैं। १. गुणस्य संस्थानमात्रव्यङ्ग्यत्वाभावात् । -सम्पादक Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः AMMAR namainamummmmmmmmmunmaAAAA गुण-क्रिया-यदृच्छानां वस्तुत एकरूपाणामप्याश्रयभेदाद् भेद इव लक्ष्यते । यथैकस्य मुखस्य खड्ग-मुकुर-तैलाद्यालम्बनभेदात् । स्याताम् । स्फोटे चैक्यं स्फुटमेव साधितम् । वर्णानामपि नित्यत्वं स एवायं गकार' इत्यादि प्रत्यभिज्ञासिद्धमिति । ननु यदि नित्या एकैका एव गुणादयो विनाशादिबुद्धिश्च सम्बन्धगोचरा तदा कथं भेदबुद्धिरित्यत आह-प्राश्रयेति, द्रव्यव्यापारवर्णरूपाश्रयभेदादित्यर्थः । तथा चान्यथासिद्धा बुद्धिर्न भेदे मानमित्याशयः। वयं तु-ननु सामान्यवाचकशब्दानामिव गुणादिवाचकशब्दानामपि परम्परया जातिरेव शक्याऽस्त्वित्यत आह- गुणेति, तथा चैकव्यक्तिवृत्तित्वेन न शुक्लत्वादीनां जातित्वम्, ननु भेदप्रत्ययादेव लिए वह जातिवाचक शब्द है । गुण का तो कोई अवयव नहीं है, इसलिए वह अनुगत-संस्थान मात्र व्यङ्गय नहीं है। गुण अवयव और अवयवी दोनों में रहता है, जाति केवल अवयवी में ही रहती है। जैसे रक्तगुण तन्तु (धागे) में है और कपड़े में भी है। इनमें पहला अवयव है और दूसरा अवयवी । गुण में गोत्व की अपेक्षा परभाव माना गया है। गोत्व जाति गाय में जन्म के साथ ही प्रादुर्भूत हुई है। इसलिए वह अपरभाव है; गुण बाद में उत्पन्न हुमा है इसलिए अपरभाव है। यदि दोनों को नित्य, एक और अनेकानुगत मानें तब तो दोनों के सहभाव के कारण कौन किसका 'पर' और कौन किसका 'पूर्व' होगा? इसलिए गुण जाति नहीं है। इसी तरह अधिश्रयणादि. उन-उन व्यापारों से व्यङग्य और उन-उन व्यापारों से अनूगत क्रिया भी एक ही है। इसलिए एक व्यापार (जैसे फूकना) के बिना भी पचति इत्यादि का प्रयोग होता है और उससे ज्ञान भी होता है। अन्यथा फूकना, चूल्हे पर रखना आदि कार्यों के शीघ्र विनष्ट हो जाने के कारण उन व्यापारों का एक साथ मेल न होने से पचति शब्द का न प्रयोग होता और न उससे बोध ही सम्भव था। स्फोट में तो उन सब की एकता स्पष्ट सिद्ध कर दी गई है । (स्फोटात्मक) वर्ण भी नित्य हैं इसी लिए लोग कहते हैं “स एवायं गकारः यः गरुडे स एव गणेशे।" यह प्रत्यभिज्ञा वर्ण की नित्यता प्रमाणित करती है । .... यदि गुणादि नित्य, एक है; 'गुण में विनाशबुद्धि गुण के अनित्य होने से नहीं किन्तु उस गुण से सम्बद्ध समवाय के अनित्य होने के कारण से उत्पन्न होती है, यह मानें तो 'दूध की सफेदी शंख की सफेदी से भिन्न है इस प्रकार की भिन्नता की प्रतीति क्यों होती है, ऐसा प्रश्न सहज में उठ सकता है इसके उत्तर के लिए ही वृत्ति में "आश्रयभेदात्' इत्यादि पद दिया है । तात्पर्य यह है कि 'गुण, क्रिया और यदृच्छा में जो भेद प्रतीत होता है उसका कारण द्रव्यरूप, व्यापाररूप और वर्णरूप आश्रयों का भेद है।' अर्थात् जिन द्रव्यों में गुण रहता है, उन द्रव्यों के भेद के कारण गुण (शुक्लादि) में भेद प्रतीत होता है । फूत्कार, गमन आदि व्यापार-भेद के कारण क्रिया भिन्न प्रतीत होती है। डित्थ, डवित्थ आदि वर्ण भिन्न होने के कारण अथवा बालवृद्ध -शुकादि उच्चारित डित्य शब्द में भेद होने के कारण उसमें भेद की प्रतीति होती है। इस तरह अन्यथासिद्ध बुद्धि (भेदबुद्धि) भेद में प्रमाण नहीं हो सकती। 'वयं तु' इत्यादि (टीकार्थ) टीकाकार श्री मुनि जी कहते हैं कि-'हम तो यहां यह कहना चाहेंगे कि सामान्य वाचक गोत्वादि शब्दों की तरह गुणादिवाचक शुक्लादि शब्दों का अर्थ भी जाति (शुक्लत्व) ही परम्परा-सम्बन्ध से माने तो क्या दोष होगा?' यही बताने के लिए "गुणक्रियायदृच्छानाम्" इत्यादि पंक्ति लिखी गयी है और बताया गया है कि हिम, दूध और शंखादि आश्रयभेद से ही शुक्लादिगुणभिन्न प्रतीत होते हैं; वे वस्तुतः एक ही हैं। इस तरह शुक्लत्व-धर्म को एक Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशः ~ ___ हिमपयःशखाद्याश्रयेषु परमार्थ तो भिन्नेषु शुक्लादिषु यद्वशेन शुक्ल: शुक्ल नेषामेकत्वमिति भेदप्रत्ययमन्यथा समर्थयति-आश्रयभेदादिति व्याचक्ष्महे । __ जातिपदार्थवादिनां मतमाह-हिमपय इति । वस्तुतो 'गौः शुक्ल' इत्यादिना न सम्मतिप्रदर्शनम्, अपि तु उपसंहारः, कस्येदं मतमित्याशङ्कायामुक्तम्, –'इति महाभाष्यकारः' इति, तेन परमाण्वादीत्याद्यारभ्यैव जातिशक्तिवादिनां मतम्, एकरूपाणां जातिशक्तत्वेन जातिशब्दात्मकानाम् । ननु तहि कथं शब्दचातुर्विध्यमित्यत आह-आश्रयभेदादिति । तथा च जातिरेव शक्या परन्तु यत्र गुणवृत्तिर्जातिस्तथा' तत्र गुणशब्दत्वम् । एवं क्रियायद च्छाशब्दयोरपीत्यर्थः । परमार्थत इति । शुक्लगुणवर्ती होने के कारण जाति नहीं मान सकते और इस प्रकार शुक्ल शब्द जातिवाचक नहीं माना जा सकता। यदि आप कहें कि हिम, दूध और शंखादि में दिखाई पड़नेवाली सफेदी एक दूसरे से भिन्न प्रतीत होती है इसलिए शुक्लादि गुण को सर्वत्र एक मानना ठीक नहीं है, तो इसका उत्तर होगा कि भेद प्रतीति का कारण कुछ और है यही दिखाते हुए लिखा गया है कि "आश्रयभेदात्" अर्थात् यह भेद-प्रतीति आश्रय के भेद के कारण है; वस्तुभेद के कारण नहीं। मीमांसादर्शन-सम्मत 'जाति' रूप एकविध सङ्केतित अर्थ का विश्लेषण जाति को ही पदार्थ मानने वालों का मत लिखते हुए कहते हैं-हिमपयःशङ्खाद्याश्रयेषु० । वस्तुतः मूल में लिखित "गौः शुक्लश्चलो डित्थः" इत्यादि वाक्य से सम्मति नहीं दिखायी गई है किन्तु पूर्वमत का-(जात्यादिचतुष्टयवाद का) उपसंहार दिखाया गया है। यह मत किसका है इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है-इति महाभाष्यकारः अर्थात् यह मत महाभाष्यकार का है। इसलिए "परमाण्वादीनान्तू' यहां से ही जाति में शक्ति माननेवालों के मत का प्रारम्भ मानना चाहिए। (इस मत में) 'एकरूपाणाम्' का तात्पर्य है जाति में शक्ति मानने के कारण जाति-शब्दात्मक अर्थात् जाति शब्दों का । - ऐसा मानने पर शब्द के चार भेद कैसे होंगे? इस जिज्ञासा को शान्त करने के लिए कहते हैं-'आश्रयभेदात्' अर्थात् आश्रय के भेद से शब्द के चार भेद सिद्ध होंगे। इस प्रकार जाति में ही शक्ति मानेंगे अर्थात जाति को ही शक्यार्थ रूप में स्वीकार करेंगे परन्तु जहां गुणवृत्ति जाति (शुक्लत्वादि) को शक्यार्थ मानेंगे, वहाँ गुणशब्दत्व माना जायगा-शुक्लत्व जाति के शक्यार्थ होने पर शुक्ल शब्द माना जायगा इसी प्रकार क्रिया और यहच्छाशब्द में भी (मानना चाहिए) । अर्थात् जहाँ पाकादिक्रियावर्ती पाकत्व-सामान्य में शक्ति मानी जायगी वहां 'पचति' इत्यादि को क्रियाशब्द मानेगे इस प्रकार जहाँ यहच्छासंज्ञाशब्दवर्ती डित्यत्वादि सामान्य में शक्ति रहेगी वह यदृच्छाशब्द होगा। सन्दर्भ का अर्थ यह है कि जातिवाद की भूमिका "हिमपयःशलाद्याश्रयेषु" इत्यादि पक्ति से नहीं किन्तु "परमाण्वादीनाम्" इस पङ्क्ति से ही प्रारम्भ की गयी है । (मीमांसक जाति, गुण, क्रिया और यहच्छा इन चारों में शक्ति न मानकर केवल जाति में ही शक्ति मानते हैं।) "हिमपयःशङ्खाद्याश्रयेषु" इत्यादि पङ्क्ति में जातिमात्र में शक्ति मानने का ही प्रतिपादन किया गया है। 'हिम-पयः' इत्यादि मूल अनुच्छेद का अर्थ बर्फ, दूध और शङ्ख आदि आश्रयों में रहनेवाले वास्तव में भिन्न (अर्थात् प्रथम मत में जैसा कहा गया है उसके अनुसार एक रूप नहीं) शुक्ल आदि गुणों में (यद्वशेन) जिनके कारण 'शुक्ल:शुक्ल" इस प्रकार के अभिन्न १: शक्या। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः इत्याद्यभिन्नाभिवानप्रत्ययोत्पत्तिस्तच्छुक्लत्वादि सामान्यम् । गुडतण्डुलादिपाकादिष्वेवमेव विनाशादेः शुक्लादिप्रतियोगिकत्वेनानुभवादिति भावः । यदूवशेनेति । अनुगतकार्यस्यानुगतकारणनियम्यत्वाद् व्यक्तीनामननुगमाज्जातिरेवानुगतकारणमित्यर्थः । एवमेवेति, अनुगतमतेरेवेत्यर्थः । इदमुपलक्षणम् अधःसन्तापनरूपपच्यर्थे रूपरसगन्धादिपरावृत्तिजनकतावच्छेदकतया, स्पन्दात्मके गम्यर्थे उत्तरदेशसंयोगजनकतावच्छेदकतया, 'यजति, ददाति, जुहोत्य'र्थे इदं न ममेत्यादि-सङ्कल्परूपे तत्तत्फलविशेषजनकतावच्छेदकतया जातिसिद्धिः । एवमन्यत्राप्यूह्यम् । कथन और प्रतीति की उत्पत्ति होती है, वह शुक्लत्व आदि सामान्य (जाति) है। गुड़ और तण्डुल आदि के पाक पद्यपि एक दूसरे से भिन्न हैं तथापि जिस कारण से सब जगह "पचति" इस प्रकार के एक शब्द का व्यवहार और बोध उत्पन्न होते हैं; वह पाकत्व जाति है। इसी प्रकार बाल, वृद्ध और तोता आदि के द्वारा बोले गये 'डित्थ' आदि शब्दों में अथवा प्रत्येक क्षण में परिवर्तन-शील और भेद को प्राप्त होते हुए डिथ आदि पदार्थों में जिस कारण 'डित्थः डित्थः' इस प्रकार का अभिन्न शब्द-प्रयोग और समानबोध होता है, वह डित्थत्व है जो कि सामान्य धर्म है; इसलिए सब शब्दों का प्रवृत्ति-निमित्त केवल जाति ही है। (वैयाकरणों के मतानुसार जात्यादि चारों को प्रवृत्तिनिमित्त न मानकर केवल जाति को ही प्रवृत्तिनिमित्त मानना चाहिए यह अन्य (मीमांसक) कहते हैं। , इसमें परमार्थतः का अर्थ है "वस्तुतः" । शुक्ल गुण, हिम, दूध और शंख में वस्तुत: भिन्न है क्योंकि घटप्रतियोगिक अभाव के अनुभव के कारण जैसे घट अनित्य माना जाता है; उसी प्रकार शुक्ल गण का विनाश देखा गया है इसलिए शुक्ल प्रतियोगिक अभाव के अनुभव के कारण शुक्लगण को अनित्य मानना चाहिए । इसलिए उत्पत्ति-विनाशशील होने के कारग शुक्ल, रक्त आदि गुणों को हिम, दूध, शंख आदि में भिन्न मानना चाहिए। इस तरह भिन्न होते हुए भी जिस कारण से सर्वत्र 'शुक्ल: शुक्लः' इस तरह समान शब्दों से अभिधान होता है और बोध होता है वह तत्त्व शुक्लत्व-सामान्य है। यदि कार्य अनुगत है तो कारण भी अनुगत होना चाहिए । एक जगह शुक्लगण के ज्ञान से अन्यत्र जो शुक्लगण का ज्ञान हो जाता है इसका कारण सब जगह रहने वाला शुक्लत्व सामान्य ही हो सकता है। क्योंकि अनन्त होने से हम व्यक्ति का अनुगम एकाकार-प्रतीति नहीं कर सकते। इसीलिए मीमांसक कहते हैं- "अनुवृत्तिप्रत्ययहेतुः सामान्यम्" एकाकार प्रतीति का हेतु 'सामान्य' कहलाता है। जाति को सामान्य भी कहते हैं। जैसे अनेक घटों (घटव्यक्तियों) में एकाकार-प्रतीति या अनुवृत्ति-प्रतीति का कारण घटत्व-सामान्य या घटत्व-जाति है, उसी तरह अनेक वस्तुओं में रहने वाले शुक्लगुण में जिसके कारण "शुक्ल: शुक्लः" यह अनुगत या एकाकार प्रतीति होती है उसका कारण शुक्लत्व-सामान्य है। एवमेव का अर्थ है अनुगतप्रतीति के ही कारण । अर्थात् अनुगत एकाकार-प्रतीति के कारण पचतीत्यादि क्रिया में भी पाकत्व-सामान्य मानना चाहिए । तात्पर्य यह है कि गुड़, तण्डल, दूध आदि अनेक पदार्थों के पाक में रहने वाली पाकक्रिया में "पाक: पाकः" इस अनुगत-प्रतीति का कारण पाकत्व-सामान्य है। पाक-क्रिया में पाकत्व-सामान्य सिद्ध करने के लिए गुड़तण्डलादि पाकवाली जो युक्ति दी गयी है, उसे उपलक्षण मानना चाहिए। उपलक्षण का लक्षण है "स्वबोधकत्वे सति स्वेतरबोधकत्वम्"-जो स्वयं का बोध कराते हुए स्व-समान अन्य का भी बोध कराता है। उसे उपलक्षण कहते हैं। इसलिए पूर्वोक्त पङ्क्ति में लिखित युक्ति के अतिरिक्त कुछ अन्य युक्तियां भी भी हो सकती हैं। जिनके कारण पाकत्वसामान्य की सिद्धि हो सकती हैं। उनमें से कुछ नीचे दी जाती हैं । जैसे पच धातु का अर्थ अधःसन्तापन है चूल्हे से नीचे उतार कर सेकना जैसे रोटी सेकते हैं । अथवा अधःसन्तापन के स्थान में अधःसंस्थापन भी हो सकता है जिसका अर्थ है नीचे रखना; जो भी हो चूल्हे से नीचे उतारने के बाद रूप, रस, गन्धादि की उत्पत्ति हुई है। अतः रूप, रस, गन्धादि-परावर्तन कार्य है उसका जनक है पच धातु का अधःसन्तापन, Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ काव्यप्रकाशः www यत्तु पचे रूपादिपरावृत्तिरूपा विक्लित्तिर्गमेरुत्तरसंयोगः, पतेरधःसंयोगः, त्यजेविभागो हन्तेर्मरणमर्थो लाघवाद् न तूक्तरूपफलजनकाधःसन्तापनादिापारः गौरवात्, एवमन्यत्रापि फलमेव तद्गतसामान्यमेव वा जन्यतावच्छेदकतया सिद्धं धात्वर्थ इति मण्डनाचार्यमतम्, तन्न । व्यापारविगमे फलदशायां पचति ददाति गच्छतीत्यादिप्रयोगप्रसङ्गाद्, व्यापारकाले पचतीत्यादिप्रयोगानापत्तेः स्पन्दजन्यसंयोगविभागाश्रयत्वेनाकाशो गच्छति पतति त्यजति इत्यादि प्रयोगापत्तेः, ओदनकामः पचेतेत्यत्र रूप अर्थ, इस अर्थ में जनकतावच्छेदक कोई न कोई धर्म मानना पड़ेगा और वह होगा पाकत्व, इस तरह पाकत्वसामान्य की सिद्धि होगी। तात्पर्य यह है कि जितने कार्य हैं उन सबके कुछ न कुछ कारण हैं, जैसे घर एक कार्य है और कुम्भकार उसका कारण है। कार्यतावच्छेदक धर्म है घटत्व और कारणावच्छेदक धर्म है कुम्भकारत्व । इसलिए अनुमान करते हैं कि "घटनिरूपिता या कुम्भकारनिष्ठा कारणता सा किञ्चिद् धर्मावच्छिन्ना, कारणतात्वाद् या या कारणता. सा किञ्चिद्धर्मावच्छिन्ना भवति यथा पटनिष्ठकार्यतानिरूपित-तन्तुनिष्ठकारणता तन्तुत्वावच्छिन्ना भवति ।" अर्थात् पट कार्य के कारण तन्तु में जो कारणता है; वह जैसे तन्तुत्व सामान्यधर्म से अवच्छिन्न है उसी प्रकार पचधात्वर्थ अधःसन्तापन में रूप, रस, गन्धादि-परिवर्तन के प्रति जो कारणता है उसे किसी धर्म से अवच्छिन्न होना चाहिए; वह धर्म पाकत्वसामान्य ही हो सकता है। इसी प्रकार गम् धातु के अर्थ स्पन्द में उत्तर-देशसंयोगजनकता है स्पन्द(Mooving) और रस के बाद व्यक्ति अपने गन्तव्य स्थान पर पहुँचता है इसलिए उत्तरदेश-संयोगरूप कार्य का जनक स्पन्दरूप गम्-धात्वर्थ हुआ, इस लिए उसमें कुछ न कुछ जनकतावच्छेदक धर्म होना चाहिए और वह धर्म गमनत्वसामान्य ही हो सकता है। इसी तरह, “यजति, ददाति और जुहोति" क्रिया भी अदृष्ट फल की जननी है इसलिए तो इन क्रियाओं के प्रयोग के बाद "इदं न मम" इस संकल्पवाक्य का प्रयोग करते हैं । इससे सिद्ध हुआ कि ये क्रियाएँ उन-उन फल-विशेष को जन्म देती हैं, इसलिए इनमें कुछ-न-कुछ फलजनकतावच्छेदकधर्म मानना चाहिए। वह धर्म यागत्व, दानत्व और हवनत्वरूप सामान्य-धर्म ही होगा। इस तरह क्रियाशब्दों में भी जाति की सिद्धि होती है। पूर्वोक्त क्रियाओं की अपेक्षा अन्यत्र भी इसी प्रकार ऊह करना चाहिए; जिससे वहां भी सामान्यधर्म की सिद्धि हो जाय। 'यत्त पचे' इत्यादि (टीकार्थ) फलजनकतावच्छेदकतया पाकादिक्रिया में जिस पाकत्वादि सामान्य की सिद्धि की गयी है। वह तभी हो सकती है जब कि फल और व्यापार दोनों धात्वर्थ हों। मण्डनाचार्य ने तो केवल फल को ही धात्वर्थ माना है ऐसी स्थिति में पूर्व ग्रन्थ की असंगति की आशङ्का के समाधान के लिए आगे लिखते हैं 'यत्त'.."इत्यादि । मण्डनाचार्य का मत है कि--- 'पच्' धातु का अर्थ है केवल विक्लित्तिरूप फल, रूपादि परावृत्ति ही विक्लित्ति है, गम् घातु का अर्थ भी उत्तरदेश-संयोग है, पत् धातु का अर्थ अधःसंयोग है, त्यज् धातु का अर्थ विभाग है और हन् धातु का अर्थ मरण है। लाघवात् फलमात्र धात्वर्थ मानना चाहिए। गौरव होने के कारण पूर्वोक्त फलों के जनक, अधःसन्तापनादि व्यापार को धात्वर्थ नहीं मानना चाहिए। इस तरह और जगह भी फल को ही या फल में रहने वाले सामान्यधर्म को (जैसे विक्लित्तित्व को) ही जो जन्यतावच्छेदक होने के कारण सिद्ध होता है, धात्वर्थ मानना चाहिए। परन्तु मण्डनाचार्य का यह मत ठीक नहीं है क्योंकि-यदि व्यापाररहित केवल फल को धात्वर्थ माना जाय तो जहाँ पाकक्रिया समाप्त हो गयी है, किन्तु सीझा हुआ चावल मौजूद है वहाँ विक्लित्तिरूप फल के वर्तमान होने के कारण 'पचति' यह प्रयोग हो जायगा, इसी प्रकार दान का फल और जाने का फल उत्तरदेशसंयोग के वर्तमान रहने पर 'ददाति' और 'गच्छति' यह प्रयोग होने लगेगा। इसके विपरीत पाकक्रिया के वर्तमान रहने पर भी यदि विक्लित्यादि-फल वर्तमान नहीं है तो 'पचति' यह प्रयोग नहीं होगा। क्योंकि "वर्तमाने लट" का अर्थ है वर्तमानक्रियावृत्तेर्धातोर्लट स्यात्, अर्थात् क्रिया का अर्थ यदि Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः पाकत्वादि । बालवृद्धशुकाधुदीरितेषु डित्थादिशब्देषु च, प्रतिक्षणं भिद्यमानेषु डित्थाद्यर्थेषु वा डित्थत्वाद्यस्तीति सर्वेषां शब्दानां जातिरेव प्रवृत्तिनिमित्तमित्यन्ये ।। विक्लित्यादावोदनरूपेष्टसाधनत्वस्य प्रवृत्तेश्चासम्भवाच्च । डित्याद्यर्थेषु वेति बाल्यादिना भिन्ने डित्ये पिण्डे कालान्तरे स एवायं डित्थ इति प्रत्यभिज्ञया धर्म्यभेदविषयताबाधे जातिविषयत्वेन तद्गतजातिसिद्धी तस्या एव डित्थपदशक्यतेति भावः । अक्षरार्थस्तु इवार्थेन वाशब्देनाप्यर्थक-चशब्दविनिमयाद् बालवृद्धशकोदीरितेषु डित्थादिशब्देष्विव प्रतिक्षणं भिद्यमानेषु डित्थाद्यर्थेष्वपि डित्थादित्वमस्तीति । क्षणोऽत्र स्थूलः। वयं तु-वाशब्दो विकल्पे न त्विवार्थे, तेन वक्तशरीरजन्यतावच्छेदकडित्थादिशब्दवृत्तिजातेवर्तमान में हो तो लट् लकार हो । मण्डनाचार्य के मत में क्रिया का अर्थ फल मात्र है। इसलिए फल के वर्तमान र पर लट् लकार का प्रयोग होगा और व्यापार के वर्तमान रहने पर भी लट् लकार नहीं होगा। स्पन्दजन्य-संयोगरूप फल के आश्रय होने के कारण 'आकाशो गच्छति' ऐसा प्रयोग 'रथो गच्छति' की तरह होने लगेगा एवं स्पन्दजन्य-विभागाश्रय होने के कारण 'आकाशः पतति' और "आकाशस्त्यजति" इत्यादि प्रयोग होने लगेंगे। . "ओदनकामः पचेत" अर्थात् भात के इच्छुक को चाहिए कि वह पाक करे, ऐसा प्रयोग अब नहीं होगा; क्योंकि मण्डनाचार्य के मत में 'पचेत' में पच का अर्थ है 'विक्लित्तिरूप फल और लिङ् लकार का अर्थ है प्रवर्तना । इस तरह इस वाक्य का अर्थ होगा विक्लित्तिरूप फल में प्रवृत्त होना चाहिए और 'ओदनकामः' का वस्तुतः अर्थ है ओदन चाहने वाला। इस तरह इस वाक्य का यह अर्थ कि 'ओदन चाहने वाला विक्लित्ति में प्रवृत्त हो' असंगत हो जायगा। विक्लित्ति आदि में ओदनरूप इष्टसाधनत्व और प्रवृत्ति दोनों की गुंजाइश नहीं है। इसी तरह डिस्थादि में भी वर्तमान डित्थत्वसामान्य को ही शक्यार्थ मानना चाहिए; यही दिखाते हुए कहते हैं कि 'बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था आदि के कारण डित्थ शरीर में भेद होनेपर "डित्थः" इस प्रकार का प्रयोग और बोध जिस कारण से होता है वह डित्थत्वजाति ही है और वर्षों के बाद देखने पर (भेद होने पर भी) "स एवायं डित्थः" यह वही डित्थ है इस प्रत्यभिज्ञा के कारण धर्मी के एकमात्र न होने की बुद्धि का बाध होने पर डित्थ शब्द भी जाति का विषय बना और उसमें जो जाति सिद्ध हो गयी उसी डित्थत्व जाति को डित्थपद का शक्यार्थ माना जायगा। मूल में लिखित वाक्य का अर्थ करते समय इव (सदृश) अर्थवाले 'वा' शब्द का और 'अपि' अर्थवाले 'च' शब्द का स्थान विनिमय करके "बालवृद्ध शुकाधुदीरितेषु डित्यादिशब्देष्विव प्रतिक्षणं भिद्यमानेषु डित्थाद्यर्थेष्वपि डित्यत्वाद्यस्ति" इस प्रकार का वाक्य बनाना चाहिए। तात्पर्य यह है कि 'इव' के अर्थ में 'वा' शब्द भी संस्कृत में प्रयुक्त होता है । यहाँ 'वा' शब्द का अर्थ 'इव' मानना चाहिए। और 'च' शब्द का अर्थ अपि है ही, दोनों शब्दों के स्थान का परिवर्तन करके यह अर्थ होगा कि-बाल, वृद्ध और तोते के द्वारा उच्चारित डित्यादि शब्दों की तरह प्रतिक्षण बदलते हुए डित्यादि अर्थ में भी डित्थत्वादिक धर्म मानना ही चाहिए। अन्यथा "डित्थः डित्यः” इत्यादि समान शब्द के प्रयोग और समानबोध के लिए कोई आधार ही नहीं रह जायगा। "प्रतिक्षणं" यहां क्षण स्थूल लेना चाहिए क्योंकि डित्थ में एक क्षण में जो परिवर्तन हुआ है वह जाना नहीं जा सकता। 'वयं तु इत्यादि (टीकार्थ) टीकाकार पूर्वोक्त पङ्क्ति की नूतन व्याख्या प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि 'हम तो इस पंक्ति की व्याख्या इस तरह करते हैं। यहाँ 'वा' शब्द विकल्पार्थ में ही प्रयुक्त हुआ है, अपने 'अप्रसिद्ध' अर्थ इवार्थ में नहीं। अर्थात् मूल Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशः डित्थपदवाच्यत्वमित्याह-बालवृद्धति, । न च तथा सति डित्थशब्दस्यैव तदर्थत्वव्यवहारापत्तिः, घटमानयेत्यत्र घटस्येव डित्थमानयेत्यत्र डित्थशब्दानयनप्रतीत्यापत्तिश्चेति वाच्यम्, घटमानये त्यत्र जातेरानयनबाधे तदाश्रयघटस्येवात्र तदाश्रयशब्दस्यापि तद्बाधे तद्वतोऽर्थस्यार्थत्वव्यवहारानयनान्वययोः सम्भवात् । घटं पश्येत्यत्र व डित्थं पश्येत्यत्रापि डिस्थपिण्डेऽवलोकनान्वयसम्भवाद, अन्यथाऽऽकाशादिपदे जातिशब्दत्वानुपपत्तिः, शब्दाश्रयत्वघटकशब्दनिष्ठशब्दत्वजाति विनाऽन्यस्य तत्राभावादिति भावः । ननु वक्तृणामानन्त्येन तज्जन्यतावच्छेदकजातीनामप्यानन्त्ये व्यक्तिशक्त्युक्तदोषापत्तिरित्यस्वरसादाह-प्रतिक्षणमिति । जातिपदस्य यावद्वस्तुसम्बन्धिधर्मपरतया शब्दतत्समवाययोनित्यतया च व्यक्तेरपि शक्तिग्रहविषयतया तद्विषयत्वाविशेषाज्जातिमात्रविषयत्वस्य कारणतावच्छेदकत्वे विनि गमनाविरहः । भट्टमते च जातेरेव शक्यत्वे गोपदाद् व्यक्तिभानानुपपत्तिः, व्यक्तिजात्योः सामानाधि में प्रयुक्त 'वा' शब्द का अर्थ 'विकल्प' है सदृश नहीं। इस तरह डित्थ पद का वाच्य है डित्थादि शब्द-वृत्तिजाति अर्थात् डित्थादि शब्द में रहने वाली जाति ही डित्थादि पद का अर्थ है। डित्थत्व जाति की सिद्धि 'वक्तृशरीरजन्यतावच्छेदकतया होती है। अर्थात् वक्ता (बाल, वृद्ध, तोता आदि, के शरीर में बोलते समय डित्थ शब्द का प्रादुर्भाव होता है, वे डित्य शब्द एक नहीं है अनेक हैं उन सभी जन्य डित्य शब्दों में कोई एकजन्यतावच्छेदक धर्म होना चाहिए, वह है डित्यत्व । इसी बात को "बालवृद्धशुकाधुदीरितेषु" इत्यादि पंक्तियों में कहते हैं। डित्थ-शब्दवर्ती जाति को यदि डित्य शब्द का वाच्य मानेंगे तो व्यवहार में डित्थ शब्द ही डिस्थ का शब्दार्थ होगा । जैसे गोवृत्तिजाति गोत्व को जब शब्दार्थ माना जाता है तो “गामानय" इत्यादि व्यवहार में उस गोत्वजाति का आश्रय गो ही शब्दार्थ बनता है इसी तरह डित्थशब्दवर्तिनी जाति डित्थत्व को शक्यार्थ मानने पर उस जाति के आश्रय डित्थ शब्द में तदर्थत्व (डित्थ-शब्दार्थत्व) का व्यवहार होना चाहिए। इस प्रकार "घटमानय" कहने पर घटत्वजाति के आनयन को असंभव जानकर जैसे उक्त वाक्य का व्यावहारिक अर्थ जाति न होकर जात्याश्रय होता है और घट (व्यक्ति) का आनयन अर्थ लिया जाता है उसी प्रकार "डित्यमानय" कहने पर डित्थरूप अर्थ का पानयन असंभव होने के कारण डित्थत्वाश्रय डिन्थ शब्द का आनयन इस प्रकार के अनन्वित धर्म की प्रतीति होने लगेगी; ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि "घटमानय" कहने पर जैसे जाति के आनयन में बाधा देखकर तदाश्रय (जात्याश्रय व्यक्ति) का बोध होता है, इसी प्रकार डित्थत्वाश्रय डित्य शब्द के आनयन में बाधा देखकर तद्वान अर्थात् डित्थशब्दवान्-डित्यशब्दप्रतिपाद्य =डित्थ पिण्ड-डित्य शब्द का वाच्य बन जायगा और उसके आनयन में किसी प्रकार की बाधा न होने से व्यवहार भी यथावत् रहेगा। तथा 'घटं पश्य' यहां जाति में घट शब्द को शक्य मानने पर घट जाति के दर्शन को असंभव मानकर जैसे 'घट व्यक्ति को देखो' ऐसा अर्थ किया जाता है उसी प्रकार डित्थ पद का डित्थशब्दवृत्ति जाति 'डित्थत्व' अर्थ का 'डित्थं पश्य' में दर्शन-क्रिया के साथ अन्वय में बाधा आने पर डित्थ-पिण्ड के साथ अन्वय हो जायगा। अन्यथा यदि शब्दनिष्ठ जाति को शक्य न माने तो आकाशपद में भी जातिशब्दत्व नहीं माना जायगा क्योंकि आकाशपद में शब्दाश्रयत्वघटक जो शब्द है उसमें रहनेवाली शब्दत्व जाति को छोड़कर कोई अन्य जाति या धर्म वहाँ है ही नहीं। डित्यादि शब्द के वक्ता अनन्त हैं इसलिए वक्ता के शरीर में प्रादुर्भूत डित्थ शब्द भी अनन्त होंगे और उन अनन्त डित्थ शब्दों में रहने वाली जन्यतावच्छेदकजाति (डित्थत्व) भी अनन्त होगी, इस प्रकार व्यक्तिपक्ष के समान उक्त दोष (आनन्त्य और व्यभिचार दोष) हो जायगा। इस प्रश्न का उत्तर देते हए लिखते हैं 'प्रतिक्षणं भिद्यमानेषु ।' अर्थात् जातिपद का तात्पर्य 'यावद्वस्तुसम्बन्धिधर्म' किया गया है शब्द और उसका समवाय-सम्बन्ध दोनों नित्य हैं इसलिए शब्द-समवायित्व आकाश पद में भी है इसलिए कोई अनुपपत्ति नहीं होगी। अष्टद्रव्यभिन्न-द्रव्यत्व आकाश में भी है, इसलिए कोई दोष नहीं होगा। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः तद्वान् अपोहो वा शब्दार्थः कैश्चिदुक्त इति ग्रन्थगौरवभयात् प्रकृतानुपयोगाच्च न दर्शितम् । ૪૨ शब्दसमवायित्वस्याष्टद्रव्यभिन्नद्रव्यत्वस्य वाऽऽकाशपदेऽपि सत्त्वान्नानुपपत्तिरिति व्याचक्ष्महे । ननु जात्यादितिरेव वेत्यनेन पक्षद्वयमुक्तं पक्षान्तरमपि नैयायिकाद्यभिमतं कुतो नोक्तम् ? इत्यत आहतद्वानिति । जातिमानित्यर्थः, इदं च नैयायिकमते, पोहोऽतद्व्यावृत्तिरिति वैनाशिकमते, पोह इति । महाभाष्यकारः इत्यन्ये, कैश्चिदित्यादिभिः पदैः सर्वत्र च पक्षेऽस्वरसोद्भावनं, तद्बीजं तु महाभाष्यकारमते जातिशक्तिमात्रव्यवस्थापनात् कथं व्यक्तिभानम् ? गुरुमतेऽपि व्यक्ति विना जातेरग्रहेण " जात्यादिर्जातिरेव वा" इसके द्वारा दो पक्षों की चर्चा की गयी। पहला पक्ष वैयाकरण और उनके अनुयायियों का है और दूसरा पक्ष मीमांसक का है। नैयायिकादि दार्शनिकों का अभिमत क्यों नहीं कहा गया इस प्रश्न के उत्तर में लिखते हैं- 'तद्वान् अपोहो वा' इति । यहाँ तद्वान् का अर्थ है जातिमान् | यह मत नैयायिकों का है । 'अपोह' का अर्थ है 'अतद्व्यावृत्ति' । यह मत वैनाशिक ? (गलत लिखा हुआ है, वैभाषिक होना चाहिए ) वैभाषिक बौद्धों का है । नैयायिक जातिविशिष्ट व्यक्ति में घटत्व विशिष्ट घट में शक्ति मानते हैं । बौद्धों का कहना है कि गो पद के श्रवण से अतत् ( उससे अतिरिक्त - गो से अतिरिक्त - महिष्यादि) की व्यावृत्ति हो जाती है इस तरह अतद्व्यावृत्ति ही गो पद का शक्यार्थ है । "महाभाष्यकारः, इत्यन्ये, कैश्चित्" इत्यादि पदों के द्वारा पूर्वोक्त सभी पक्षों में ग्रन्थकार ने अपना अस्वारस्य (वैमत्य) बताया है । ग्रन्थकार ने महाभाष्यकार पद के उल्लेख के द्वारा यह सूचित किया है कि जाति, गुण, क्रिया और यच्छा में संकेतग्रह मानने वाले महाभाष्यकार हैं मैं नहीं हूँ। "जातिरेव' इस मत को भी "अन्ये" शब्द के द्वारा दूसरों का ( मीमांसकों का मत बताकर इस मत के साथ भी अपनी असहमति प्रकट की है। "तद्वान्" और 'अपोह' सिद्धान्त के साथ भी 'कैश्चित्' पद जोड़ कर यह सिद्ध किया है कि ये मत भी क्रमशः नैयायिकों तथा बौद्धों के हैं; मेरे नहीं । * पूर्वोक्त मतों के साथ वैमत्य दिखाने का कारण है; उन मतों में विविध दोषों की सत्ता । उन दोषों को दिखाते हुए लिखते हैं- 'तद्बीजन्तु' इत्यादि । महाभाष्यकार के मत में जाति में ही शक्ति मानी गयी है ऐसी स्थिति में व्यक्ति की प्रतीति कैसे होगी ? गुरु (प्रभाकर) के मत में व्यक्ति' ज्ञान के बिना जाति का बोध नहीं हो सकने के कारण व्यक्ति को भी शक्तिग्रह का विषय मानना ही पड़ेगा । तब तो बोध में जाति की तरह व्यक्ति का भी भान होने के कारण जातिमात्र को कारणतावच्छेदक ( बोध का कारण ) मानना कहाँ तक संगत होगा ? एक पक्ष को जो युक्ति प्रमाणित करती है उसे विनिगमना कहते हैं । यहाँ जातिमात्र को बोध का कारण माना जाय, व्यक्ति को नहीं, इन दोनों पक्षों एक पक्ष को प्रमाणित करनेवाली कोई युक्ति नहीं दिखाई देती । यह दोष गुरु प्रभाकर के मत में स्पष्ट है । में * नैयायिक तथा बौद्ध मत का स्पष्टीकरण आचार्य मम्मट ने यहाँ जिस शब्दवाच्य 'तद्वान्' अथवा 'जातिविशिष्टरूप' अर्थविषयक सिद्धान्त का निर्देश किया है वह न्यायदर्शन का सिद्धान्त है । महानैयायिक जयन्त भट्ट ने इसका प्रतिपादन इन पंक्तियों में किया है 'अन्येषु तु प्रयोगेषु गां देहोत्येवमादिषु । तद्वतोऽयंक्रियायोगात्तस्यंवाहुः पदार्थताम् ॥ पदं तद्वन्तमेवार्थ माञ्जस्येनाभिजल्पति । न च व्यवहिता बुद्धिर्न च भारस्य गौरवम् ॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० व्यक्तेरपि शक्तिग्रहविषयतया तद्विषयत्वाविशेषाज्जातिमात्रविषयत्वस्य कारणतावच्छेदकत्वे विनिगमनाविरहः । भट्टमते च जातेरेव शक्यत्वे गोपदाद् व्यक्तिभानानुपपत्तिः, व्यक्तिजात्योः सामानाधि काव्यप्रकाशः भट्ट मत भी दोष से खाली नहीं है। भट्ट के अनुसार जाति ही शक्य है, व्यक्ति नहीं, फिर यह समस्या रह जाती है कि गोपद से 'गाम् आनय' में व्यक्तिबोध कैसे होता है ? यदि यह कहें कि जाति से व्यक्ति का आक्षेप हो जाता है, तो यह प्रश्न उठ खड़ा होगा कि आक्षेप के लिए व्याप्ति आवश्यक है । जैसे 'पीनोऽयं देवदत्तः दिवा न भुङ्क्ते' यहाँ 'यत्र यत्र भोजनत्वं तत्र तत्र पीनत्वम्' इस प्रकार का व्याप्तिग्रह है, इसलिए पीनत्व को देखकर रात्रि भोजन का आक्षेप होता है। इस तरह 'यत्र यत्र व्यक्तिः तत्र तत्र जाति:' इस प्रकार की व्याप्ति यदि रहती तो जाति से व्यक्ति का आक्षेप होता परन्तु वैसी व्याप्ति है ही नहीं। क्योंकि राम एक व्यक्ति है पर वह जाति नहीं है । इसतरह जाति और व्यक्ति में समानाधिकरणत्व नहीं होने के कारण व्याप्ति के अभाव में जाति से व्यक्ति का आपेक्ष नहीं हो सकेगा । किसी तरह तादात्म्यसम्बन्ध से व्याप्तिग्रह सिद्ध करने पर यदि जाति से व्यक्ति का आपेक्ष हो भी जाय तो भी (भट्ट मत में) व्यक्ति को शब्दार्थं नहीं किन्तु आक्षेपार्थं मानने के कारण " गाम् आनय" इत्यादि स्थल में विभवत्यर्थं संख्या और कर्मादि कारक का व्यक्ति ( गो व्यक्ति) के साथ अन्वय नहीं हो सकेगा, क्योंकि 'सु औ जस्' इत्यादि विभक्तियाँ प्रकृत्यर्थं से अन्वित अपने अर्थ को बताती हैं इस प्रकार का सिद्धान्त है । यदि व्यक्ति को शब्दार्थं नहीं मानें तो व्यक्ति प्रकृति ( गो प्रकृति) का अर्थ ही नहीं है फिर उसका विभक्ति के अर्थ के साथ अन्वय ही नहीं हो सकेगा । तस्मात्तद्वानेव पदार्थः । ननु कोऽयं तद्वान्नाम ? उच्यते, नेवन्तानिदिश्यमानशावलेयादिविशेषस्तद्वान्, न च सर्वस्त्रैलोक्यवर्ती व्यक्तिव्रातस्तद्वान् किन्तु सामान्याश्रयः कश्चिदनुल्लिखितशाबलेयादिविशेषस्तद्वानित्युच्यते, सामान्याश्रयत्वाच्च नानन्त्यव्यभिचारयोस्तत्रावसरः । ' ( न्यायमञ्जरी, पृ० २६६ ) अभिप्राय यह है कि नैयायिकों के मत में न केवल जाति में शक्तिग्रह माना जा सकता है और न केवल व्यक्ति में । केवल व्यक्ति में सङ्केतग्रह मानने से आनन्त्य और व्यभिचार दोष आते हैं तो केवल जाति में शक्तिग्रह मानने पर शब्द से केवल जाति की उपस्थिति होने के कारण व्यक्ति का भान शब्द से नहीं हो सकता है। जाति में शक्ति मानकर यदि व्यक्ति का भान आक्षेप से माना जाय तो उसका शाब्द-बोध में अन्वय नहीं हो सकेगा। क्योंकि 'शाब्दी हि आकाङ्क्षा शब्देनैव पूर्वते' इस सिद्धान्त के अनुसार शब्द-शक्ति से लभ्य अर्थ का हो शाब्दबोध में अन्वय हो सकता है । आक्षेप लभ्य अर्थ शाब्द- बोध में अन्वित नहीं हो सकता है । इसीलिये नैयायिकों के मतानुसार केवल व्यक्ति या केवल जाति किसी एक में शक्तिग्रह नहीं माना जा सकता। इसलिये 'व्यक्त्याकृतिजातयस्तु पदार्थ:' [ न्यायसूत्र २,२,६८ ] 'जाति तथा आकृति से विशिष्ट व्यक्ति पद का अर्थ होता है' यह नैयायिक सिद्धान्त है। इसके अनुसार 'जातिविशिष्ट व्यक्ति में सङ्केतग्रह मानना चाहिये यह नैयायिकमत है और इसी बात को ग्रन्थकार ने 'तद्वान् ' शब्दार्थ : - कहकर व्यक्त किया है। बौद्धदर्शनकारों के अनुसार 'पदार्थ' का स्वरूप जाति अथवा व्यक्ति आदि कुछ नहीं है अपि तु, 'अपोह' रूप है 'या च मूमिविकल्पानां स एव विषयो गिराम् । अत एव हि शब्दार्थ मन्यापोहं प्रचक्षते ॥' बाह्यानुमेयार्थवादी बौद्ध दार्शनिकों के अनुसार 'अपोह' के अभिप्राय को जयन्तभट्ट ने इस प्रकार स्पष्ट किया है 'यद्यपि विधिरूपेण गौरश्व इति तेषां प्रवृत्तिस्तथापि नीतिविदोऽन्यापोह विषयानेव तान् व्यवस्थापयन्ति' यथोक्तं- 'व्याख्यातारः खल्वेनं विवेचयन्ति न व्यवहर्त्तारः' इति । सोऽयं नान्तरो न बाह्योऽन्य एव कश्चिदारोपित आकारी व्यावृत्तिच्छायायोगादपोहशब्दार्थ उच्यते, इतीय मसत्ख्यातिवादगर्भा सरणिः ।' Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः करण्याभावाद् व्याप्तेरभावेनाऽऽक्षेपासम्भवात् तादात्म्यसम्बन्धेन व्याप्तेरभ्युपगमेऽपि व्यक्तेपदार्थ विभक्त्यर्थसंङ्ख्याकर्मत्वादेर्व्यक्तावनन्वयः, सुविभक्तीनां प्रकृत्यर्थान्वितस्वार्थबाधकत्वव्युत्पत्तेः, प्रकृतितात्पर्यविषये तदन्वयव्युत्पत्तौ लक्षणाव्युच्छेदः, शक्तिग्राहकानयनादिव्यवहारस्य जातिविषयत्वाभावश्च । ५१ यदि 'सुविभक्तीनां प्रकृत्यर्थान्वितस्वार्थबोधकत्वम्" इस व्युत्पत्ति में प्रकृत्यर्थ का अर्थ 'प्रकृति तात्पर्यार्थ' लें तब तो आक्षिप्त व्यक्ति भी प्रकृति गो का तात्पर्यार्थ है ही, उसमें सुबर्थ संख्याकारक के अन्वय होने में पूर्वोक्त विरोध नहीं होगा, परन्तु ऐसी व्युत्पत्ति मानने पर लक्षणावृत्ति का उच्छेद हो जायगा, क्योंकि तात्पर्य में प्रविष्ट सभी अर्थं प्रकृत्यर्थं होने से उनमें संख्याकारकादि के अन्वय हो जाने पर कहीं मुख्यार्थ में बाधा नहीं आने से लक्षणा का अवसर ही नहीं रहेगा। सर्वश्रेष्ठ उपाय व्यवहार को उत्तम वृद्ध जब मध्यम वृद्ध से देख कर बालक इस संकेत दूसरा यह भी दोष इस मत में है कि शक्तिग्राहक व्याकरणादि उपायों में माना गया है । व्यवहार में आनयनादि कार्य व्यक्ति का ही देखा गया है। इसलिए 'गाम् आनय' कहेगा और उत्तम वृद्ध के वाक्य को सुनकर मध्यम वृद्ध को गाय को लाते से जिस अर्थ का ग्रहण करेगा वह व्यक्तिस्वरूप होगा, जातिस्वरूप नहीं। इस तरह जाति में व्यवहार के द्वारा संकेतग्रह के अभाव के कारण भी मानना चाहिए कि जाति ही शक्यार्थ नहीं है । न्याय के मत में तद्वान् ( जातिमान् ) को शब्दार्थ माना गया है। इस तरह शक्ति का विषय जातिविशिष्ट व्यक्ति होगा और शक्यतावच्छेदक होगा गुरु शरीरवाला जातिविशिष्ट तत्तद्व्यक्तित्व । इस तरह गौरव होने से न्यायमत भी ग्रन्थकार मम्मट को युक्ति-युक्त नहीं लगा । इस लिए उन्हें व्यक्ति पक्ष ही ऊहापोह के बाद उचित लगता दिखाई देता है। और विज्ञानवादी बौद्धाचार्यों के अनुसार यही ( जयन्त भट्ट के ही शब्दों में ) - 'अथवा विकल्पप्रतिबिम्बकं ज्ञानाकारकमात्रमेव तदबाह्यमपि विचित्र वासनामेदोपाहितरूपमेवं बाह्यवदवभासमानं लोकयात्रां बिर्मात्त व्यावृत्तिच्छायायोगाच्च तदपोह इति व्यवह्रियते, सेयमात्मख्यातिगर्भा सरणिः ।' • तथा अपोहवादी बौद्धाचार्यों का भी यही मत है 'तुल्येऽपि मेदे शमने ज्वरादेः काश्चिद् यथा वोषधयः समर्थाः । सामान्यशून्या अपि तद्वदेव स्युर्व्यक्तयः कार्यविशेषयुक्ताः ॥ विशेषणादिव्यवहारक्लू प्तिस्तुच्छेऽप्यपोहे न न युज्यते नः । अतश्च मा कारि भवदिभरेषा जात्याकृतिव्यंक्तिपदार्थचिन्ता ॥' आशय यह है कि - बौद्धदार्शनिकों का सङ्केत - ग्रह के विषय में अपना अलग मत है। उनके मत में शब्द का अर्थ अपोह होता है । 'अपोह' का अर्थ है 'अतदुव्यावृत्ति' अथवा 'तदुभिन्नभिन्नत्व' । दस घट व्यक्तियों में 'घटः घट:' इस प्रकार की एकाकार- प्रतीति का कारण नैयायिक आदि 'घटत्व-सामान्य' को मानते हैं। उनका 'सामान्य' एक नित्य पदार्थ है क्योंकि 'नित्यत्वे सति अनेकसमवेतं सामान्यम्' यह सामान्य का लक्षण है। इसके अनुसार 'सामान्य' नित्य है | परन्तु बौद्धों का पहला सिद्धान्त 'क्षणभङ्गवाद' है । उनके मत से सारे पदार्थ 'क्षणिक' हैं इसलिये वे 'सामान्य जैसे किसी नित्य पदार्थ को नहीं मानते । उसके स्थान पर अनुगत प्रतीति का कारण वे 'अपोह' को मानते हैं । अपोह शब्द बौद्धदर्शन का पारिभाषिक शब्द है । इसके 'अतद्व्यावृत्ति' अथवा 'तद्भिन्नभिन्नत्व' अर्थ के अनुसार ‘दस घट-व्यक्तियों’ में जो ‘घटः घट:' इस प्रकार की अनुगत प्रतीति होती है उसका कारण 'अघट - व्यावृत्ति' या 'घटभिन्नभिन्नत्व' है। प्रत्येक घट अघट अर्थात् घटभिन्न सारे जगत् से भिन्न है । इसलिये उसमें 'घटः घटः' यह एक-सी प्रतीति होती है । अतः बौद्धों के मत में 'अपोह' ही शब्द का अर्थ होता है उसी में सङ्केतग्रह मानना चाहिये । (सम्पादक) Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ Chichikhalth न्यायादिमतेऽपि जात्यादेः शक्तिविषयत्वे गौरवम् । तस्माद् व्यक्तिपक्ष एव क्षोदक्षमः, अव्यापकस्यानुमितिविषयत्वेऽतिप्रसङ्गस्य व्यापकतावच्छेदकत्वेनेव, अशक्यस्यापि शाब्दबोधविषयत्वेऽतिप्रसङ्गस्य शक्यतावच्छेदकत्वेनैव निरासात् कथमन्यथा लक्ष्यतावच्छेदकोपस्थितिः, ? नहि तत्रापि लक्षणा, ननु व्यापकतावच्छेदकेन समं व्याप्तेरभावाल्लक्ष्यतावच्छेदके संयुक्तसमवायादिरूपस्य लक्ष्ये च संयोगात्मकस्य सम्बन्धस्यैक्याभावाद् लक्षणाद्वयस्वीकारे स्वतन्त्रोभयोपस्थितिप्रसङ्गाच्च तदुभयत्र नियामकान्तर स्वीकारोऽस्तु शक्तिस्तु वाग्देवताविज्ञानादिरूपाऽतिरिक्तपदार्थरूपा वा विशिष्टगोचरिकैवेति नियतोपस्थित्यर्थं विशिष्ट एवं साऽस्त्विति चेदु, मैवं । व्यापकतालक्ष्यतावच्छेदकोपस्थितिनिमित्तक्लृप्तोपायान्तरेणैव शक्यतावच्छेदकोपस्थितिसम्भवे शक्तावप्यवच्छेदकविषयत्वकल्पनायां गौरवात् । न चोक्तबाधकेन यद्धर्मावच्छिन्ने व्यापकताग्रहः स धर्मोऽव्यापकोऽपि भासते, एवं यद्धर्मावच्छिन्ने शक्यसम्बन्धग्रहः स धर्मोऽलक्ष्योऽपि भासत इति नियमद्वय कल्पनेऽपि तृतीयनियमस्याक्लृप्तत्वाद् नैकोपायतात्रितय साधारणकनियमाभावादिति वाच्यम्, आकाशादिपदेऽशक्यस्यापि शब्दाश्रयत्वादेर्भानात् तृतीयनियमस्याप्यवश्य जैसे अव्यापक के अनुमिति - विषयत्वरूप अतिप्रसङ्ग के निवारण के लिए व्यापकतावच्छेदकत्वेन उपस्थित को ही अनुमिति- विषय माना जाय ऐसा मानते हैं; उसी तरह अशक्य को शाब्दबोधविषयत्वरूप अतिप्रसङ्ग के निवारण के लिए शक्यतावच्छेदकत्वेन उपस्थित का ही शाब्दबोध में प्रवेश हो ऐसा माना जाना आवश्यक है अन्यथा लक्ष्यतावच्छेदकत्वेन (उद्देश्यतावच्छेदकत्वेन) सकल घट की उपस्थिति हो ही नहीं सकेगी। इस तरह व्यक्ति में शक्ति मानने पर भी सकल-घट की उपस्थिति शक्यतावच्छेदकत्वेन सम्भव है । घटत्वेन सकल घट की उपस्थिति के लिए भी लक्षणा नहीं मानी जा सकती । ( वह तो व्यक्ति में मानी जा चुकी है ।) और व्यापकतावच्छेदक के साथ व्याप्ति के अभाव के कारण, लक्ष्यतावच्छेदक ( उद्देश्यतावच्छेदक ) घटत्व के साथ संयुक्तसमवाय- सम्बन्ध और लक्ष्य (घट) के साथ संयोग-सम्बन्ध होने के कारण एक सम्बन्ध के अभाव होने से दो लक्षणा स्वीकार करने पर दोनों के स्वतन्त्रतया उपस्थितिरूप दोष के निवारण के लिए दोनों में कोई अन्य नियामक स्वीकार करेंगे, पर शक्ति को तो वाग्देवता के विज्ञानादिस्वरूप अथवा कोई अतिरिक्त पदार्थरूप ही मानेंगे, वह शक्ति घटत्वविशिष्ट घट होने से विशिष्टगोचरा ही होगी। इस तरह नियतोपस्थिति के लिए विशिष्ट में ही शक्ति माननी चाहिए ऐसा नहीं कह सकते; क्योंकि व्यापकतावच्छेदक और लक्ष्यतावच्छेदक की उपस्थिति के लिए कल्पित उपायान्तर से ही जब शक्यतावच्छेदक की उपस्थिति सम्भव है तो शक्ति में भी अवच्छेदक विषयत्व की कल्पना में गौरव होगा । उक्त (गौरव रूप) बाधा के कारण यद्धर्मावच्छिन्न में व्यापकता का बोध हुआ है, वह अव्यापक होकर भी भासित होगा तथा इसी तरह यद्धर्मावच्छिन्न में शक्यसम्बन्धग्रह हुआ है, वह धर्म अलक्ष्य होते हुए भी भासित हो, इस तरह के दो नियम मानने पर भी कोई तीसरा और नियम हो सकता है; जिसकी कल्पना नहीं की गयी है, इस प्रकार एक उपाय की कमी शेष रह ही जाती है। ऐसा कोई एक नियम बनाया नहीं जा सकता; जो तीनों जगह लागू हो; ऐसा नहीं कहना चाहिए | क्योंकि आकाशादि पद में शब्दाश्रयरूप अशक्य अर्थ का भी भान हो रहा है; इसलिए कोई तीसरा नियम भी अवश्य कल्पित करना होगा और इस तरह विशिष्ट शक्तिवाद को निर्दोष नहीं कहा जा सकता । सामान्यलक्षणा प्रत्यासत्ति के कारण व्यक्ति, शक्तिवाद में यह दोष नहीं होता; क्योंकि एक घट व्यक्ति के बोध के बाद घटत्वरूप सामान्य को आधार बना कर सकलघट का बोध हो जायगा । जातिशक्तिवाद में भी सामान्य लक्षणा - प्रत्यासत्ति मानना आवश्यक ही है; अन्यथा तदादि सर्वनाम पद से जब धर्मान्तर ( घटत्वादि) विशिष्ट (घटादि) में शक्तिग्रह होने के कारण धर्मान्तर (घटत्वादि) विशिष्ट पदार्थ (घटादि) ही शाब्दबोध का विषय बनेगा तब बुद्धिस्थ पदार्थ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः [सू० ११ ] स मुख्योऽर्थस्तत्र मुख्यो व्यापारोऽस्याभिधोच्यते ॥ ८ ॥ स इति साक्षात्सङ्केतितः । प्रस्येति शब्दस्य । ५३ कल्पनीयत्वात्, सामान्यलक्षणाश्रयणाच्च न व्यक्तिशक्तिपक्षोक्तदोषः, तदादिपदे धर्मान्तरविशिष्टे शक्तिग्रहेण धर्मान्तरविशिष्टपदार्थस्य शाब्दबोधविषयतया बुद्धिस्थत्वस्याप्रकारतया च समानप्रकार - कत्वस्यानियामकत्वात्, बुद्धिस्थत्वेन सकलप्रकारोपस्थिति विना तेषु शक्तिग्रहासम्भवेन जातिशक्तावपि तदाश्रयणावश्यकत्वादिति युक्तमुत्पश्यामः । ननु वाच्यलक्ष्यव्यङ्गयाः पदार्था इति विभागोऽनुपपन्नः, मुख्यत्वेन प्रसिद्धस्य तुरीयस्यापि भावाद् अत आह— मुख्य इति । स इत्यवधारणगर्भं पदम् कुत एतद् ? इत्याह- तत्रेति । अस्य शब्दस्य यत्रार्थेऽभिधारूपो व्यापारः स मुख्ये उच्यते इत्यर्थः । यद्वाऽभिधायक लक्षणमुक्त्वाऽभिधा लक्षणमाह-तत्र ेति, मुख्यंव्यापारत्वं च तल्लक्षणम्, मुख्यत्वं च वृत्त्यन्तरानुपजीवकत्वमिति प्राञ्चः । वयं तु ननु यद्युपाधावेव शक्तिस्तदा कथं व्यक्तिभानं ? तद् भानस्य भट्टमतवदानुमानिकत्वेऽर्था (पटादि) प्रकारतया उपस्थित नहीं होगा। इस तरह समान प्रकारकत्व को नियामक नहीं माना जा सकता । बुद्धिस्थत्वेन सकल प्रकार की उपस्थिति के बिना उनमें शक्तिग्रह असम्भव हो जायगा इसलिए जब जातिपक्ष में भी सामान्यलक्षणा प्रत्यासत्ति मानना आवश्यक ही है तो व्यक्तिवाद में भी उसका सहारा लेना कोई दोष नहीं है । श्रभिधा-निरूपण [सूत्र ११] - यह उपर्युक्त चतुविध सङ्केतित अर्थ ही वह अर्थ है जिसे ( शब्द का) मुख्य अर्थं कहा करते हैं और इस चतुविध सङ्केतित अर्थ के अवबोधन में शब्द का जो व्यापार है वह 'अभिधा' (व्यापार अथवा अभिधाशक्ति) कहलाता है । इस कारिका में 'सः' का अभिप्राय है 'साक्षात् सङ्केतित रूप अर्थ' और 'अस्य' का अभिप्राय है 'शब्द का' । 'ननु वाच्यलक्ष्यव्यङ्ङ्घाः' इत्यादि ( टीकार्थ ) - पदार्थों अर्थात् शब्दार्थो का विभाग- वाच्य, लक्ष्य और व्यङ्ग्यरूप में करना अनुपयुक्त है क्योंकि मुख्यार्थरूप में प्रसिद्ध अर्थं का कोई चौथा विभाग भी हो सकता है ? इस प्रश्न के समाधान के लिए लिखते हैंस मुख्योर्थ:- यहाँ 'स' यह पद निश्चयार्थ को लिए हुए है। यह कैसे ? इसे सूचित करने के लिए 'तत्र' लिखा गया है । इस तरह इसका अर्थ हुआ कि जिस शब्द का जिस अर्थ में अभिधारूप व्यापार है वह मुख्य अर्थ है क्योंकि अभिधाव्यापार शब्द का मुख्यव्यापार है अतः उस मुख्यव्यापारके कारण प्रकट होने वाला अर्थ मुख्यार्थ है । इस तरह वाच्यार्थ से अतिरिक्त कोई मुख्यार्थ नहीं है जिससे कि शब्दार्थ का मुख्यार्थं नामक चौथा भेद माना जाय । अथवा यह भी माना जा सकता है कि - 'पूर्व कारिका में अभिधायक के लक्षण कहने के बाद इस कारिका अभिधा (व्यापार) का लक्षण बताते हैं ।' मुख्य व्यापारत्व ही अभिधा का लक्षण है अर्थात् जो मुख्य व्यापार है उसे ही अभिधा कहते हैं । अभिधा व्यापार मुख्य इस लिए है कि वह किसी और वृत्ति का आश्रय लेकर नहीं जीती है। ऐसा प्राचीनों का मत है । हम तो - यदि व्यक्ति की उपाधि में ही शक्ति है तब व्यक्ति का बोध कैसे होगा ? व्यक्ति के भान को यदि भट्ट मत की तरह आनुमानिक या अर्थापत्ति- लभ्य मानें तो आक्षिप्त या अनुमानलभ्य का शब्दबोध में अन्वय Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ [सू० १२] मुख्यार्थबाधे तद्योगे रूढितोऽथ प्रयोजनात् । अन्योऽर्थो लक्ष्यते यत् सा लक्षणारोपिता क्रिया ॥ e ॥ 'कर्मरिण कुशल' इत्यादौ दर्भग्रहणाद्ययोगात्, 'गङ्गायां घोष' इत्यादौ च गङ्गादीनां ......]' शाब्दबोध में भान नहीं होगा, व्यक्ति शाब्दबोध का विषय नहीं पत्तिलभ्यत्वे वा तस्य शाब्दबोधविषयम् [" काव्यप्रकाशः जैसे नहीं होते देखा गया, उसी तरह व्यक्ति का भी बनेगा ? (यहाँ से लक्षणा के मूल लक्षण की व्याख्या का भाग खण्डित है । अतः सन्दर्भ शुद्धि के लिए नीचे का भाग प्रस्तुत है ) - लक्षरणा-निरूपण [सू० १२] १ - मुख्यार्थबाध (अर्थात् अन्वय की अनुपपत्ति या तात्पर्य की अनुपपत्ति) होने पर, २ – उस पार्थ के साथ ( लक्ष्यार्थं या अन्य अर्थ का ) सम्बन्ध होने पर तथा ३ - रूढ़ि से अथवा प्रयोजन विशेष से जिस शब्द-शक्ति के द्वारा अन्य अर्थ लक्षित होता है; वह ( मुख्यरूप से अर्थ में रहने के कारण शब्द का) आरोपित व्यापार 'लक्षणा' कहलाता है । लक्षणा के दो उदाहरण "कर्मणि कुशलः " अर्थात् चित्रकर्म आदि किसी विशेष 'काम में कुशल है' इत्यादि में 'कुशान् दर्भान् लाति आदत्ते इति कुशल:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार कुशों के लाने जैसे अर्थ का कोई सम्बन्ध न होने से मुख्यार्थं का बाध है इसलिए विवेचकत्वादि सम्बन्ध से रूढि अर्थात् प्रसिद्धि के कारण दक्षरूप अर्थ की प्रतीति जिस शब्द- व्यापार से होती है उसे लक्षणा कहते हैं । इसी तरह "गङ्गायां घोषः" यहाँ गङ्गा पद के मुख्यार्थ जलप्रवाह में घोष (आभीर पल्ली) का होना असंभव है इसलिए मुख्यार्थ में बाध होने, गङ्गा (प्रवाह) के साथ सामीप्य सम्बन्ध होने से और “गङ्गातटे घोषः " कहने पर जिन शीतत्व पावनत्वातिशय की प्रतीति सम्भव नहीं थी; उन शैत्य-पावनत्वादि धर्मों के प्रतिपादनरूप प्रयोजन से मुख्य अर्थं प्रवाह से जो अमुख्य अर्थ तीर लक्षित होता है वह शब्द का व्यवहितार्थ विषयक (मुख्यार्थ - व्यवधानविषयक) आरोपित शब्द- व्यापार 'लक्षणा' कहलाता है । 'मुख्यार्थबाध' लक्षणा का प्रधान कारण है। इसीलिए प्रायः कारिका में उसका सर्वप्रथम उपादान किया गया है । मुख्यार्थ-बाध की व्याख्या दो प्रकार से की जाती है। अधिकतर व्याख्याकार मुख्यार्थबाध का अर्थ 'अन्वयानुपपत्ति' मानते हैं । "गङ्गायां घोषः" में गङ्गा का अर्थ प्रवाह (जलधारा) है और घोष का अर्थ है अहीरों का गांव । गङ्गा की धारा पर कोई गांव नहीं बस सकता इसलिए गङ्गा शब्द के साथ लगायी गयी आधारार्थक सप्तमी का घोषरूप आधेय के साथ अन्वय नहीं हो सकता है। इसलिए अन्वयानुपपत्ति है ही । इस तरह अन्वयानुपपत्ति को लक्षणा का बीज मानने से यहां दोष न होने पर भी "काकेभ्यो दधि रक्ष्यताम् " "नक्षत्रं दृष्ट्वा वाचं विसृजेत्" इत्यादि स्थलों में सकल दध्युपघातक प्राणियों तथा नक्षत्रदर्शनकाल में क्रमशः 'काक' और 'नक्षत्र' पद की परस्परा से मानी हुई लक्षणा की सिद्धि के लिए तात्पर्यानुपपत्ति को ही लक्षणा का बीज मानना चाहिए । अन्यथा अपादान के रूप में "काकेभ्यः " पद के और कर्मरूप में "नक्षत्रम्" पद के क्रमशः " रक्ष्यताम् " और १. इतः परं पत्रद्वयी चतुर्णा पृष्ठानां मूलहस्तलिखितप्रती नोपलभ्यत इति हन्त ! सम्बन्धयोजना तु हिन्द्यनुवादे विहितैवेति । -सम्पादकः Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लास: घोषाद्याधारत्वासम्भवाद्, मुख्यार्थस्य बाधे, विवेचकत्वादी सामीप्ये च सम्बन्धे, रूढित: - तात्पर्यबलेन युगपन्नीरतीरोपस्थितावेकांशबोधे बाधप्रतिसन्धानकारणत्वकल्पने विनाशपथमन्यस्य प्रमाणयितुमशक्यत्वमेव । अपि च लक्षणया गङ्गातीरत्वेन तदुपस्थित्यभ्युपगमे गङ्गांशस्योपस्थितिस्तयाऽसम्भावितैव गङ्गानिरूपितसंयोगस्य गङ्गायामसत्त्वात्, गङ्गासम्बधित्वेनोपस्थिते गङ्गासम्बन्ध्यनुभवानुपपत्तेः, एकसम्बन्धिदर्शनेनापरसम्बन्धिस्मृतेः स्वसम्बन्धित्वादेविषयत्वे हस्तिदर्शनानन्तरं हस्तिपकस्मृतेरपि हस्तिसम्बन्धिविषयत्वापत्तश्च । न च गङ्गायाः शक्त्या तीरस्य लक्षणया तदुभयसंयोगस्य संसर्गतयोपस्थितिरिति वाच्यम्, युगपद् वृत्तिद्वयविरोधाद्, विरुद्धविभक्त्यनवरुद्धप्रातिपदिकार्थद्वयेऽभेदान्वय एवेति व्युत्पत्तेश्च । अत एव राजपुरुष इत्यत्र राजपदे सम्बन्धिनि लक्षणा न सम्बन्धमात्रे । न च "दृष्ट्वा" पद में अन्वय की किसी प्रकार की अनुपपत्ति न होने से यहां लक्षणा नहीं होगी।* "तात्पर्यबलेन" इत्यादि (टीकार्थ)- ('गङ्गायां घोषः' यहां पर)। तात्पर्यबल से एक साथ नीर और तीर दोनों की उपस्थिति होने पर एक अंश (तीर मात्र) का बोध बिना शपथ के प्रमाणित नहीं किया जा सकेगा अर्थात् नीर और तोर दोनों की एक साथ उपस्थिति होने पर बोध केवल तीर का ही होगा, ऐसा कहा नहीं जा सकता। यदि लक्षणा के द्वारा गङ्गातीरत्वेन पदार्थोपस्थिति अर्थात् गङ्गातीररूप में पदार्थोपस्थिति मानें तो गङ्गा अंश की उपस्थिति लक्षणा के द्वारा असंभव ही होगी, गङ्गानिरूपित संयोग-सम्बन्ध गङ्गा में नहीं है । गङ्गानिरूपित-संयोग तीर में है, गङ्गा में नहीं। यदि गङ्गासम्बन्धित्वेन तीर की उपस्थिति माने तो गङ्गासम्बन्ध का अनुभव नहीं होगा। अर्थात् तीर गङ्गासम्बन्धी है ऐसा अनुभव होने पर भी गङ्गा और तीर के बीच जो सामीप्यसम्बन्ध है उसका अनुभव नहीं हो सकेगा । एक सम्बन्धी के दर्शन से अपर सम्बन्धी का स्मरण होता है. इसलिए गङ्गासम्बन्धित्वेन उपस्थिति मानने पर तीरसम्बन्धित्व को भी यदि स्मृति के कारण लक्षणा का विषय माना जा सकता है ऐसा कहें तो हाथी के देखने के बाद महावत (हस्तिपक) के स्मरण को भी हस्तिसम्बन्धिविषयत्व मानना पड़ेगा। यदि यह कहें कि गङ्गा की शक्ति से, तीर की लक्षणा से और गङ्गा तथा तीर दोनों के संयोग की संसर्गरूप से उपस्थिति हो जायगी, तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि एक साथ दो वृत्तियों की उपस्थिति को विरुद्ध माना गया है। विरुद्ध विभक्ति से अनवरुद्ध (अयुक्त) दो प्रातिपदिकार्थों में अभेदान्वय ही मानना चाहिए, इस प्रकार की व्युत्पत्ति है। इसलिए 'राजपुरुषः' यहां राज पद में सम्बन्धी में लक्षणा करते हैं सम्बन्ध मात्र में लक्षणा नहीं करते । * नागेशभट्ट ने 'परमलघु मञ्जूषा' में 'अन्वयानुपपत्ति' के स्थान पर 'तात्पर्यानुपपत्ति' को लक्षणा का बीज माना है और उसका यह हेतु दिया है कि 'यदि अन्वयानुपपत्ति को लक्षणा का बीज माना जायगा तो 'काकेभ्यो दधि रक्ष्यताम्' इस प्रयोग में लक्षणा नहीं हो सकेगी। कोई व्यक्ति अपना दही बाहर रखा हुआ छोड़कर किसी काम से तनिक देर के लिये कहीं जा रहा है। वह चलते समय अपने साथी से कहता है कि 'जरा कौओं से दही को बचाना' । इसका अभिप्राय केवल कौओं से बचाना ही नहीं है अपितु कौए, कुत्ते आदि जो कोई दही को बिगाड़ने या खाने का प्रयत्न करें, उन सबसे दही की रक्षा करना है। यह अभिप्राय 'काक' पद की 'दध्यपघातक' अर्थ में लक्षणा करने से ही पूरा हो सकता है, अन्यथा नहीं। परन्तु 'काकेभ्यो दधि रक्ष्यताम्' इस प्रयोग में 'अन्वयानुपपत्ति' नहीं है। सब पदों का अन्वय बन जाता है इसलिये यदि अन्वयानुपपत्ति को ही लक्षणा का बीज मानें तो यहाँ लक्षणा का अवसर ही नहीं आता । इसलिये नागेशभट्ट ने अन्वयानुपपत्ति' के स्थान पर 'तात्पर्यानुपपत्ति' को लक्षणा का बीज माना है। अन्वय में बाधा न होने पर भी 'काक' पद का मुख्यार्थ मात्र लेने से वक्ता के तात्पर्य की उपपत्ति नहीं होती है इसलिये लक्षणा करना आवश्यक हो जाता है। अतः 'तात्पर्यानुपपत्ति' को ही लक्षणा का बीज मानना चाहिये, यह नागेशभटट का अभिप्राय है। -सम्पादक Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ काव्यप्रकाशः प्रसिद्धस्तथा गङ्गातटे घोष इत्यादेः प्रयोगाद् येषां न तथा प्रतिपत्तिस्तेषां पावनत्वादीनां धर्माणां तथाप्रतिपादनात्मनः प्रयोजनाच्च मुख्येनामुख्योऽर्थो लक्ष्यते यत् स आरोपित: शब्दव्यापारः सान्तरार्थनिष्ठो लक्षणा । तीरत्वेन लक्षणया तोरोपस्थितिर्न गङ्गातीरत्वेनेति वाच्यम्, गङ्गापदाद् यमुनातीरस्याप्युपस्थित्यापत्तेः, तीरेण सह संयोगस्य तीरत्वेन सह संयुक्तसमवायस्य सम्बन्धत्वेन लक्षणक्याभावेन तीरत्वोपस्थित्यनपपत्तेश्च । न च तीरत्वे परम्परासम्बन्धेन भिन्नव लक्षणा, तथा सति तत्र तीरत्वस्यैव लक्ष्यतावच्छेदकले तत्प्रकारकबुद्ध्यापत्तेस्तत्राप्युक्तरीत्या लक्षणान्तरापातेनानवस्थाप्रसङ्गश्च । न च तीरे तीरत्वमेव तत्र च तीरमेव लक्ष्यतावच्छेदकमिति वाच्यम्, एवं सति तीरतीरत्वोभयप्रकारकोभयविशेष्यकबोधापत्तेः, तस्माद् गङ्गातीरत्वेन तीरत्वेन वा शक्त्यैवोपस्थितिः सम्भवति, शक्यतावच्छेदके च न पृथक शक्तिकल्पनम्, विशिष्टगोचरैकशक्त्युपगमेनैव विशिष्टोपस्थितिसम्भवादिति । अथ घोषाधिकरणताया जलेऽनुपपत्तिः स्थलमात्रविषयिणीं वृत्ति कल्पयति न तु गङ्गासम्बन्धादिविषयिणीमपि, तं विना घोषाधिकरणत्वानुपपत्तेरभावादिति न गङ्गातीरत्वविशिष्टे शक्तिरिति न गङ्गाशब्दाद् गङ्गातीरत्वप्रकारिका प्रतीतिः, तीरत्वप्रकारिका च सा न शक्त्या, यमुनातीरस्यापि तत उपस्थित्यापत्तः । तात्पर्यस्य नियामकत्वे गङ्गाया अपरकूल इव वृत्तिसत्त्वे कदाचिद् यमुनातीरेऽपि तात्पर्य स्यात्, इष्टापत्तौ च तदा यमुना यदि यह कहें कि यहां तीरत्वेन लक्षणा करने के कारण तीर की उपस्थिति हुई है; गङ्गातीरत्वेन तीर की उपस्थिति नहीं हुई है तब तो 'गङ्गायां घोषः' यहां यमुना-तीर की भी उपस्थिति हो जाने से आपत्ति आयेगी। गंगा का तीर के साथ संयोगसम्बन्ध है और तीरत्व के साथ संयुक्त-समवाय-सम्बन्ध है इसलिए उभयोपस्थिति में एक लक्षणा नहीं मानी जायगी अतः तीरत्व की उपस्थिति नहीं हो सकेगी। यदि यह कहें कि तीरत्व में परम्परा-सम्बन्ध से (संयुक्तसमवायसम्बन्ध से) मानी गयी लक्षणा भिन्न ही मानेंगे तो वहां तीरत्व को ही लक्ष्यतावच्छेदक मानने पर तीरत्व-प्रकारक-बोध होगा। यदि वहाँ भी पूर्वोक्त रीति से (तीर में) लक्षणान्तर मानें तो अनन्त लक्षणा मानने के कारण अनवस्था दोष आजायेगा। यदि यह कहें कि तीर में तीरत्व ही, है अतः वहां (गङ्गायां घोष: में) तीर ही लक्ष्यतावच्छेदक मानेंगे, तो ऐसा मानने पर तीर और तीरत्व उभयप्रकार और उभयविशेष्यक बोध हो जायेगा। इसलिए "गङ्गायां घोषः" में गङ्गातीरत्वेन या केवलतीरत्वेन तीर की उपस्थिति शक्ति के द्वारा ही होती है ऐसा मानना चाहिए। इसलिए अलग-अलग शक्यतावच्छेदक और लक्ष्यतावच्छेदक की कल्पना नहीं करनी पड़ेगी। शक्यतावच्छेदक में भी पृथक् शक्ति की कल्पना नहीं करनी होगी क्योंकि गङ्गा और तीर उभयविशिष्ट एक शक्ति मानने से ही विशिष्ट की उपस्थिति हो जायगी। अस्तु ; घोष का अधिकरण जल हो नहीं सकता, इसलिए "गङ्गायां घोषः" यहाँ जल में घोषाधारता की अनुपपत्ति-स्थलमात्रविषयकवृत्ति की कल्पना करने का कारण बनेगी, क्योंकि स्थल (जमीन) घोष का आधार हो सकता है । इसलिए पूर्वोक्त अनुपपत्ति के कारण गङ्गा के सम्बन्ध (सामीप्य) से युक्त तीर-विषयक वृत्ति की कल्पना का कारण नहीं बनेगी। ऐसी स्थिति में "स्थले घोषः" ऐसा अर्थ तो हो जायगा किन्तु आपका अभिमत 'गङ्गातीरे घोषः' इस प्रकार का अर्थ नहीं हो पायेगा। क्योंकि 'गङ्गातीर में घोष है' यह कल्पना न करके यदि 'स्थले घोषः' ऐसी प्रतीति हो जाय तो भी अन्वयानपपत्ति हट जाती है। जल और घोष' दोनों में आधाराधेयभाव-सम्बन्धरूप अन्वय की अनुपपत्ति का परिहार स्थलार्थ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः कूलोपस्थितिरपि स्यादिति चेद्, मैवम् । तात्पर्यानुपपत्तेरेव वृत्तिकल्पनाहेतुतया व्यवस्थापितत्वात्, तात्पर्य च गङ्गातीरत्वविशिष्टे गङ्गापदस्य गृहीतमिति तत्र व शक्तिः । 'कुन्ताः प्रविशन्ती'त्यत्र कुन्तवत्त्वप्रकारकबोधस्य त्वयाऽपि स्वीकाराद्, अन्यथा गङ्गादिपदेष्वपि तात्पर्यानुपपत्तेः सत्त्वेन तत्रापि लक्षणापत्तेः । ____ यत्तु 'अस्माच्छब्दादमुमर्थं बुध्यतामि'तीच्छयेश्वरोच्चरितत्वं शक्तिः गङ्गादिपदे च तीरादिबुबोधयिषया न भगवदुच्चारणमस्तीति न तत्र शक्तिरिति मणिकारमतम्, तन्न । गङ्गादिपदे तादृशभगवदुच्चारणाभावस्य ज्ञातुमशक्यत्वात्, 'आयुर्वं घृतम्' इत्यादि श्रुतौ लक्ष्यबुबोधयिषया तदुच्चारणस्यापि सत्त्वाच्चेति । की उपस्थिति से ही हो जाता है। इसलिए गङ्गा शब्द की शक्ति गङ्गातीरत्वविशिष्ट में नहीं मानी जा सकती। और इसीलिए गङ्गा शब्द से गङ्गातीरत्वप्रकारिका प्रतीति नहीं होगी अर्थात् गङ्गा शब्द से जो बोध होगा उस बोध में गङ्गातीरत्व-प्रकार नहीं होगा। जैसे घट शब्द से जो प्रतीति होती है उस प्रतीति में घटत्व-प्रकार रहता है क्योंकि वह प्रतीति घटत्वप्रकारकघटविशेष्यक है । और शक्ति के द्वारा तीरत्वप्रकारकप्रतीति भी नहीं मानी जा सकती, ऐसा मानने पर गङ्गा और यमुना दोनों में तीर होने के कारण यमुनातीर की भी उपस्थिति हो जायगी। लात्पर्य को यदि नियामक मानें तो यमुनातीर में तात्पर्य नहीं होने से उसकी उपस्थिति नहीं होगी परन्तु जैसे गङ्गा शब्द की वृत्ति अपरतट (किनारे) में भी कभी होती है वैसे ही कभी यमुनातीर में तात्पर्य होने पर उसकी भी उपस्थिति हो जायगी। यदि यह कहें कि यमुनातीर की उपस्थिति होना इष्ट ही है तो "गङ्गायां घोषः" यहां यमुनाकूल की भी उपस्थिति हो जायगी, ऐसा नहीं कहना चाहिए क्योंकि वृत्ति की कल्पना में तात्पर्यानपपत्ति को ही कारण माना गया है। गङ्गापद का तात्पर्य तो गङ्गातीरत्वविशिष्ट में ग्रहण किया गया है, वहीं उसकी शक्ति है। 'कुन्ताः प्रविशन्ति' में लक्षणावादी भी कुन्तवत्त्वप्रकारकपुरुषविशेष्यकबोध मानते ही हैं। अन्यथा गङ्गापद की तरह तात्पर्य की अनुपपत्ति होने के कारण वहां अर्थात् 'कुन्ताः प्रविशन्ति' में कुन्तवत्त्वप्रकारक बोध के लिए भी लक्षणा माननी पड़ेगी। "गङ्गायां घोषः" यहां "शक्ति के द्वारा तीर अर्थ की उपस्थिति नहीं होती है क्योंकि शक्ति का लक्षण वहां पर घटित नहीं होता" मणिकार के इस मत को पहले उद्धृत करके और बाद में उसका खण्डन करते हुए लिखते हैं मणिकार का जो यह मत है कि 'इस शब्द से यह अर्थ समझा जाय' इस इच्छा से ईश्वरोच्चरितत्व ही शक्ति है तीरादि अर्थ के बोध कराने की इच्छा से ईश्वर ने गङ्गा शब्द का उच्चारण नहीं किया है। अतः गङ्गा शब्द में तीरार्थबोधन-शक्ति नहीं है इसलिए तीरार्थ की उपस्थिति शक्ति से नहीं हो सकती, यह मत ठीक नहीं है क्योंकि गङ्गादिपद में ईश्वर के उस प्रकार के उच्चारण का अभाव है इसको जान नहीं सकते । किसने देखा या सूना है कि ईश्वर ने इस शब्द का उच्चारण अमुक अर्थ के बोध के लिए किया है और अमुक अर्थ के बोध के लिए नहीं किया है ? यह प्रभु की इच्छा यदि मानव को ज्ञात हो जाय तो ईश्वर का ईश्वरत्व ही छिन जाय । तब तो अर्थ की प्रतीति देखकर ईश्वरेच्छा का अनुमान लगाना ही शरण है। यदि हमें "गङ्गायां घोषः" में गङ्गापद से तीर अर्थ का बोध होता है तो यह अनुमान हमें सहज में ही हो जायगा कि ईश्वर ने गङ्गा शब्द का उच्चारण तीर अर्थ का बोध कराने की इच्छा से अवश्य किया होगा। "आयुर्वं घृतम्" इस ईश्वरोक्त श्र तिवाक्य में "आयुः" शब्द से आयुःकारण अर्थ की प्रतीति शक्ति से ही होती है । इसलिए जिसे आप लक्ष्यार्थ कहते हैं; उस आयुष्कारणरूप अर्थ का बोध कराने की इच्छा से ईश्वर ने 'आयुः' शब्द का उच्चारण किया है । उक्त वेद वाक्य से जब यह प्रमाणित हो जाता है कि मुख्यार्थ से कुछ दूर हटे Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशः हामहास हा ___ अत्र प्रतिभाति- शक्तिस्तावत् पदार्थान्तरमित्युक्तम्, तच्च गङ्गादिपदे प्रयोगप्राचुर्येणानन्यलभ्यतया प्रवाहादावेव कल्प्यते, तीरनौकातृणफेनादिसहस्रपदार्थेषु क्लृप्तशक्यसम्बन्धेनैवोपपत्तौ नाक्लुप्तसहस्रपदार्थान्तरकल्पनं गौरवात् । न च शक्यसम्बन्धस्यापि वृत्तित्वकल्पने गौरवमेवेति वाच्यम्, धर्मिकल्पनातो धर्मकल्पनाया लघुत्वात्, नानार्थस्थले नैकशक्यसम्बन्धोऽपरशक्यस्थल इवेति न तेनान्यथासिद्धिः । वस्तुतः शक्यतावच्छेदकरूपेणव लक्ष्यस्योपस्थितिरिति ग्रन्थकारमतेन न काऽप्यनपपत्तिः, एकशक्यतावच्छेदकरूपेणापरशक्यबोधस्य शक्तिजन्यत्वे सैन्धवादिपदादपि तरगत्वादिप्रकारकलवणाद्यपस्थित्यापत्तेः । तेन विलक्षणबोधान्यथानुपपत्त्यैव विलक्षणा वृत्तिरास्थेयेति गङ्गापदेन तीरत्वादिना तीरानुपस्थित्या च न यमुनातीरादिबोधापत्तिः, न वा तीरे तीरत्वोभयविषयकलक्षणाभावप्रयुक्तदोषावकाशोऽपि, नापि कुन्ताः प्रविशन्तीत्यादौ कुन्तधरत्वप्रकारकबोधाभ्युपगमनिबन्धनोक्तदोषप्रसङ्ग इति सङ्क्षपः। हुए अर्थ की प्रतीति कराने की इच्छा भी ईश्वर में है तो गङ्गा शब्द से तीरार्थ की प्रतीति कराने की इच्छा.भी उसकी रही होगी; यह तर्क अस्वाभाविक नहीं है। यहां ऐसा प्रतीत होता है कि शक्ति तो कोई पदार्थान्तर ही है । गङ्गा पद में प्रयोग की प्रचुरता के कारण और अन्यलभ्य नहीं होने से प्रवाहादि में शक्ति मानते हैं। तीर, नौका, तृण और फेनादि ऐसे हजारों पदार्थ हैं जिनमें कल्पित शक्यार्थ का सम्बन्ध होने से ही उनका बोध) सिद्ध हो सकता है फिर गौरव-दोष से हटकर अकल्पित हजारों पदार्थान्तर की कल्पना वहां नहीं करते हैं। यदि शक्यसम्बन्ध की उपस्थिति भी वृत्ति द्वारा मानें तो अनेक शक्यसम्बन्ध में शक्ति मानने के कारण गौरव होगा ही। ऐसी कल्पना नहीं करनी चाहिए क्योंकि "धर्मों की कल्पना की अपेक्षा धर्म की कल्पना लघु होती है।" अर्थात् गङ्गा शब्द से सामीप्यादि-सम्बन्धविशिष्ट तीर, नौका, तृण आदि में शक्ति मानने की अपेक्षा सामीप्यादिसम्बन्ध में शक्ति मानना लघु है । अपरशक्य-स्थल की तरह अनेकार्थक शब्द-स्थल में एक शक्यसम्बन्ध नहीं होता। तात्पर्य यह है कि जहां गङ्गा शब्द अपर (दूसरे) अर्थ तीर को बताता है वहां उसका शक्य-सम्बन्ध अर्थात् तीरार्थ के साथ सम्बन्ध वही नहीं होता जो उसका प्रवाह अर्थ के साथ था । नानार्थस्थल में भी यही बात होती है । 'सैन्धव' शब्द लवण अर्थ को जिस शक्य-सम्बन्ध से बताता है वही शक्य-सम्बन्ध उसका अश्व अर्थ के साथ नहीं है। यह स्पष्ट है कि 'सैन्धव' शब्द की व्युत्पत्ति "सिन्धो भवः" सिन्धु में उत्पन्न यह अर्थ प्रस्तुत करती है । योगरूढ होने के कारण सैन्धव शब्द 'लवण और अश्व अर्थ का बोध कराता है। लवण सिन्धु के पानी में होता है, अश्व सिन्धु प्रदेश में होता है। इस लिए 'सैन्धव' शब्द अश्व अर्थ को जिस सम्बन्ध में बताता है, उसी सम्बन्ध में 'अश्व अर्थ को नहीं बताता है। ____ इस लिए अन्यथा-सिद्धि-दोष नहीं होगा। पूर्वशक्य-सम्बन्ध से ही यदि ऊपर शक्य का बोध हो जाता तो अन्यथा-सिद्धि कही जा सकती थी। वस्तुतः 'शक्यतावच्छेदक रूप से ही लक्ष्य कहे जाने वाले अर्थ की भी उपस्थिति हो सकती है' ग्रन्थकार के इस मत में किसी प्रकार की अनुपपत्ति नहीं दिखाई पड़ती है। एकशक्यतावच्छेदकरूप में अपरशक्यबोध को यदि शक्तिजन्य मानें तो सैन्धव आदि पद से अश्वत्वादिप्रकारक लवणादि अर्थ की उपस्थिति हो जायगी। इसलिए विलक्षणबोध की अन्यथा अनुपपत्ति के कारण विलक्षणवृत्ति स्वीकार कर लेनी चाहिए इसलिए गङ्गा पद से तीरत्वादि रूप में तीर की अनुपस्थिति होने पर भी यमुना-तीरादि का बोध नहीं होगा। क्योंकि विलक्षण-वृत्ति के कारण विलक्षण (गङ्गा तीर का ही) बोध होगा। तीर और तीरत्व दोनों को विषय बनाकर एक लक्षणा के न होने से जो दोष होता था उस दोष का भी अवकाश अब न रहा और “कुन्ताः प्रविशन्ति" इत्यादि में 'कुन्तधारी पुरुष प्रवेश करते हैं। इस बोध में कुन्तधारी को विशेषण बनाने के कारण उक्त दोष आने की आशङ्का भी नहीं रही। इस तरह संक्षेप में विचार प्रस्तुत किया है। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः [सू० १३] स्वसिद्धये पराक्षेपः परार्थ स्वसमर्पणम् । उपादानं लक्षणं चेत्युक्ता शुद्ध व सा द्विधा ॥१०॥ 'कुन्ताः प्रविशन्ति' 'यष्टयः प्रविशन्ति' इत्यादौ कुन्तादिभिरात्मन: प्रवेशसिद्धयर्थं स्वसंयोगिनः पुरुषा आक्षिप्यन्ते । तत उपादानेनेयं लक्षणा। अथ कारिकात्रयेण (१३, १४, १५ सूत्र:) लक्षणायाः षड्विधत्वं प्रतिपादयति स्वसिद्धये इति । 'स्वसिद्धये' शक्यार्थान्वयसिद्धयर्थं, पराक्षेपोऽशक्योपस्थापनं, 'परार्थम्' अशक्यान्वयसिद्धयर्थं, ‘स्वसमर्पण' स्वार्थपरित्यागः, ‘शुद्धैवेति' शुद्धाया एवैष विभागो न तु गौण्या अपीत्यर्थः । ननु शक्यविशेषणकलक्ष्यविशेष्यकबोधजनकत्वमुपादानलक्षणं 'गङ्गायां घोष' इत्यादिलक्षणलक्षणायामतिव्याप्तम् तत्रापि गङ्गापदेन गङ्गातीरत्वप्रकारकबोधजननात्, तीरत्वमात्रप्रकारकबोध - इसके बाद "स्वसिद्धये पराक्षेप" इत्यादि “सारोपान्या तु, विषय्यन्तः कृतेऽन्यस्मिन्" तक १३,१४ और १५ संख्या की कारिकाओं में लक्षणा के ६ भेद बताते हैं । लक्षणा के दो भेद [सूत्र १३]-वाक्य में प्रयुक्त किसी पद का अपने अन्वय की सिद्धि के लिये अन्य अर्थ का आक्षेप करना 'उपादान' और दूसरे के अन्वय की सिद्धि के लिये अपने मुख्य अर्थ का परित्याग (समर्पण) 'लक्षण' कहलाता है, इस प्रकार 'शुद्धा लक्षणा' ही दो प्रकार की (१-उपादान-लक्षणा और २-लक्षण-लक्षणा) कही गई है। गौणी के ये भेद नहीं होते। (यहाँ) 'स्वसिद्धये' का अर्थ है शक्यार्थ की अन्वयसिद्धि के लिए। 'पराक्षेप' का अर्थ है अशक्य अर्थ का उपस्थापन। परार्थम्' का अर्थ है अशक्य अर्थ की अन्वयसिद्धि के लिए। 'स्व-समर्पण' अर्थात् स्वार्थ (अपने अर्थ का) त्याग । 'शुद्धव' में एव शब्द है इसलिए इसका अर्थ है कि उपादान-लक्षणा के ही (दो भेद) संभव हैं गौणी लक्षणा के नहीं। उपादान लक्षणा के दो उदाहरण - इस तरह जहाँ मुख्यार्थ वाक्यार्थ में अपने अन्वय की सिद्धि के लिए अन्य अर्थ का आक्षेप कर लेता है और स्वयं भी उस वाक्यार्थ-बोध में बना रहता है वहाँ 'उपादान-लक्षणा' होती है। इसमें मुख्यार्थ का भी उपादान (ग्रहण) रहने के कारण इस लक्षणा को “यथा नाम तथा गुणः" कह सकते हैं। 'कुन्ताः प्रविशन्ति' 'यष्टयः प्रविशन्ति' इसके उदाहरण हैं । “कुन्त" आदि अचेतन होने के कारण प्रवेश-क्रिया में अन्वित नहीं हो सकते थे। इसलिए यहाँ मुख्यार्थ का बाध होने पर कुन्त आदि शब्द का वाक्यार्थ में अपने अन्वय की सिद्धि के लिए पुरुष पद के आक्षेप द्वारा बोध कराया जाता है। इस तरह पूर्वोक्त अन्वय की बाधा दूर हो जाती है क्योंकि 'कून्तधारी या लाठियों वाले पुरुष प्रवेश कर रहे हैं' इसका यह अर्थ हो जाता है। अतः स्वार्थत्याग के बिना अन्यार्थ का उपादान करने से यह 'उपादान लक्षणा' कहलाती है। इसके विपरीत जहाँ मुख्यार्थ अन्य अर्थ का वाक्यार्थ में अन्वय-सिद्धि के लिए त्याग कर देता है वहाँ 'लक्षणलक्षणा' होती है । जैसे 'गङ्गायां घोषः' में गङ्गा शब्द का मुख्यार्थ प्रवाह घोष के साथ आधार बनकर अन्वयसिद्धि के लिए अपना त्याग कर देता है और सामीप्य-सम्बन्ध से तीर अर्थ की प्रतीति करा देता है। यह लक्षणा 'लक्षणलक्षणा' कहलाती है क्योंकि यहां गङ्गा शब्द का प्रवाह अर्थ तीर अर्थ का बोधक बनकर गया है। 'ननु शक्य०' इत्यादि (टीकार्य) 'उपादान-लक्षणा' का लक्षण यदि 'शक्यविशेषणक-लक्ष्यविशेष्यक-बोधजनकत्वम्' करें तो 'कुन्ताः प्रविशन्ति' में कुन्तविशेषणकतद्धारिपुरुषविशेष्यकबोध होने से लक्षण घटित (समन्वय) होगा किन्तु "गङ्गायां घोषः” इत्यादि Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काम्यप्रकाशः जननपक्षे तु गौनित्येति लक्षणलक्षणायामतिव्याप्तं तत्र गोरेव गोत्वविशेषणत्वात् । 'छत्रिणो यान्ती'त्यत्राव्याप्तिश्च तत्र शक्यस्य च्छत्रस्य लक्ष्यस्य छत्राभावस्य च न परस्परविशेषणविशेष्यभाव इत्यत आहप्रात्मनः प्रवेशसिद्धयमिति कुन्तादेः प्रवेशान्वयार्थमित्यर्थः । न चैवमपि क्रियान्वयिशक्योपस्थापकलक्षणात्वं तल्लक्षणं' पर्यवसितं तच्छत्रिणो यान्तीत्यत्राव्याप्तं,- तत्र मतूबर्थेन क्रियाभिन्नेन च्छत्रम्यान्वयादिति वाच्यम्, अपरपदार्थान्वयिशक्योपस्थापकलक्षणात्वस्य तल्लक्षणत्वादिति भावः । प्रविशन्तीत्यत्राख्यातस्याऽऽश्रयत्वलक्षणायामिदमुपादानलक्षणोदाहरणं, कुन्ते आख्यातार्थयत्नबाधेन पुरुषलक्षणायां पुनर्लक्षणलक्षणवेति बोध्यम् । लक्षण-लक्षणा के उदाहरणों में अतिव्याप्ति-दोष हो जायगा; क्योंकि वहाँ भी "गङ्गातीर पर घोष है" इस बोध में गङ्गा का (शक्यार्थ) प्रवाह विशेषण है और लक्ष्यार्थ तीर विशेष्य है । यदि यह कहें कि 'गङ्गायां घोषः' का अर्थ केवल 'तीरे घोषः' है, इसलिए उस बोध में शक्यार्थ विशेषण नहीं है, तो इस पक्ष में यहाँ दोष नहीं होगा किन्तु "गौनित्या" इस लक्षण-लक्षणा के उदाहरण में अतिव्याप्ति-दोष होगा। यहाँ गो व्यक्ति नित्य नहीं है इसलिए मुख्यार्थबाध है, लक्षणा के द्वारा गो शब्द गोत्व का बोध कराता है। यहाँ गोव्यक्तिविशेषणक-गोत्वजातिविशेष्यक बोध होता है इसलिए लक्षण-लक्षणा के उदाहरण में उपादान-लक्षणा का लक्षण घट जाने से अतिव्याप्ति-दोष होगा। . .. "छत्रिणो यान्ति" यहाँ अव्याप्ति-दोष होगा। छत्तेवाले और बिना छत्ते वाले लोग जब जाते रहते हैं; तब छत्ते वालों की प्रचुरता के कारण कहा जाता है "छत्रिणो यान्ति" । पूर्वोक्त बोध में शक्यार्थ छत्र और लक्ष्यार्थ छत्राभाव दोनों में परस्पर विशेषण-विशेष्यभाव न होने से उपादान-लक्षणा का लक्षण समन्वित नहीं होगा। इसलिए वृत्ति में "आत्मनः प्रवेशसिद्धयर्थम्" लिखा गया है । इसका अर्थ है कि 'कुन्तादि को प्रवेश-क्रिया में अन्वय-सिद्धि के लिए कुन्त शब्द संयोग-सम्बन्ध से स्व-सम्बन्धी पुरुष की प्रतीति कराता है।' इस तरह उपादान-लक्षणा का लक्षण इस रूप में फलित होता है कि 'क्रियान्वयि-शक्यार्थोपस्थापकलक्षणात्वम् ।' "कुन्ताः प्रविशन्ति" में कुन्त शब्द के शक्यार्थ का क्रिया में अन्वय है; इसलिए कोई दोष नहीं है। 'गङ्गायां घोषः' में गङ्गा शब्द के शक्यार्थ प्रवाह का क्रिया में अन्वय न होने से वहां अतिव्याप्ति नहीं हुई। यदि उपादान-लक्षणा का लक्षण "क्रियान्वयि-शक्योपस्थापक-लक्षणात्वम्" यह मानें तो 'छत्रिणो यान्ति' में अव्याप्ति-दोष हो जायगा; क्योंकि यहाँ शक्यार्थ-छत्र का क्रिया में अन्वय न होकर मतप्रत्ययार्थ अर्थात् इन्प्रत्ययार्थ (धारी) में अन्वय है। इसलिए उपादान-लक्षणा का लक्षण इस प्रकार करना चाहिए कि "अपरपदार्थान्वयिशक्योपस्थापकलक्षणात्वम्"। अपर पदार्थ-धारी पदार्थ में अन्वित शक्यार्थ छत्र की उपस्थिति यहाँ लक्षणा के द्वारा होती ही है इसलिए दोष नहीं होगा। 'प्रविशन्ति' यहां आख्यात की लक्षणा अगर आश्रयत्व में करते हैं तो 'कुन्ताः प्रविशन्ति' यह उपादान-लक्षणा का उदाहरण होगा । आख्यातार्थ यत्न, अचेतन कुन्त में नहीं रह सकता इसलिए यदि 'कुन्ताः' पद की लक्षणा पुरुष में करें तो यह लक्षण-लक्षणा का उदाहरण होगा। तात्पर्य यह है कि व्याकरण-सिद्धान्त के अनुसार यदि तिङर्थ को आश्रय माने तो अर्थ होगा 'कुन्तधारिपुरुषाश्रयः प्रवेशनानुकूलो व्यापारः।' इस अर्थ में शक्यार्थ कुन्त का भी क्रिया में धारि पुरुषपदार्थ के साथ अन्वय हो सकता है, इसलिए उपादान-लक्षणा है। किन्तु नैयायिक के अनुसार यदि आख्यात का अर्थ यल माने तो अचेतन कुन्त में यत्न का अन्वय बाधित होने के कारण कुन्त शब्द स्वार्थ का परित्याग कर पुरुष की प्रतीति करायेगा, इस तरह यह उदाहरण लक्षण-लक्षणा का होगा। १. उपादानलक्षणा। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः ननु 'गङ्गाय घोषमत्स्यो' 'गां पश्येत्यादावुभयत्र तात्पर्ये शक्तिलक्षणाभ्यामुभयोपस्थितिवत् कुन्ताः प्रविशन्तीत्यत्रापि प्रवेशनान्वयस्योभयत्र तुल्यत्वाद् शक्तिलक्षणाभ्यामुभयोपस्थितिरस्तु कुन्तनिरूपित संयोगस्य कुन्ते चासत्त्वेन लक्षणया तदुपस्थितेरसम्भवाद् विशेषणतया तदुपस्थितौ च पदार्थोंकदेशस्य क्रियान्वयानुपपत्तेश्चेति चेद्, न । विरुद्धविभक्त्यनवरुद्ध पदार्थयोरभेदान्वयव्युत्पत्त्या कुन्तविशिष्टपुरुषोपस्थितेरुक्तप्रकारेणानुपपत्तेः कुन्तविशिष्टपुरुषत्वस्य लक्ष्यतावच्छेदक लक्षणया तादृशविधिबाधकाभावाद् दण्डिनमानयेत्यादाविव विशिष्टस्य क्रियान्वयेनैव विशेषणगोचरतदन्वयवद्, लक्ष्यतावच्छेदकस्य शक्यस्य विशेषणतोपलक्षणताभ्यामेव चोपादानलक्षणलक्षणयोर्भेदः, कुन्तत्वेनैव रूपेण 'गङ्गायां घोषमत्स्यो', 'गां पश्य' इत्यादि स्थलों में जहाँ कि शक्यार्थ और लक्ष्यार्थ दोनों में तात्पर्य रहता है वहाँ जैसे शक्ति और लक्षणा दोनों से दोनों अर्थों की उपस्थिति होती है; उसी तरह 'कुन्ताः प्रविशन्ति' यहां भी प्रवेशनक्रिया के साथ अन्वय की सम्भावना दोनों में तुल्य होने के कारण शक्ति और लक्षणा दोनों से शक्य और लक्ष्य दोनों अर्थों की उपस्थिति माननी चाहिए। लक्षणा से कुन्त अर्थ की उपस्थिति सम्भव नहीं हैं क्योंकि कुन्त में कुन्त-निरूपित संयोग सम्बन्ध नहीं माना जा सकता; ऐसी स्थिति में कुन्त अर्थ को लक्ष्यार्थं नहीं कहा जा सकता; क्योंकि उसमें शक्यार्थ- सम्बन्ध नहीं है। यदि यह कहें कि 'कुन्तधारी पुरुष-रूप लक्ष्यार्थ में विशेषण बनकर कुन्त अर्थ की भी उपस्थिति होती है इसलिए कुन्तार्थोपस्थिति भी हो ही जायगी, तो यह कथन युक्तिविरुद्ध है । विशेषणरूप में उपस्थित कुन्त अर्थ पदार्थकदेश (लक्ष्य-पदार्थ कुन्तधारी पुरुष का एक भाग) होगा, इसलिए पदार्थैकदेश का क्रिया में अन्वय नहीं होता । सिद्धान्त है कि “पदार्थः पदार्थेनान्वेति न तु पदार्थकदेशेन " अर्थात् पदार्थ, पदार्थ के साथ अन्वित होता है; पदार्थैकदेश के साथ नहीं । इस लिए "ऋद्धस्य राजपुरुषः " यहाँ ऋद्धस्य का अन्वय "राजपुरुषः" पदार्थ के एकदेश 'राज्ञ: ' के साथ नहीं होता है। अतः लक्षणा से यदि कुन्तधारी पुरुष की उपस्थिति मानेंगे तो कुन्त का 'प्रवेशनक्रिया' में अन्वय नहीं होगा; इसलिए यहाँ शक्ति से कुन्त की और लक्षणा से 'धारी पुरुष" की प्रतीति माननी चाहिए यह भी नहीं कहना चाहिए । क्योंकि उक्त रीति से यदि कुन्त और धारी पुरुष दोनों पदार्थों को स्वतन्त्र मानकर शक्ति और लक्षणा से पृथगुपस्थिति मानेंगे तो उनमें अभेदान्वय होगा और तब कुन्ताभिन्न पुरुष इस प्रकार के अनन्वित अर्थ की उपस्थिति हो जायगी । अनन्वित इसलिए कि कुन्त और उसको हाथ में धारण करनेवाले पुरुष दोनों एक नहीं है । अभेदान्वय के लिए एक सिद्धान्त है कि 'विरुद्ध विभक्ति से अनवरुद्ध जो पदार्थ हैं उनमें अभेदसम्बन्ध हो "विरुद्ध विभक्त्यनवरुद्वयोः पदार्थयोरभेदान्वयः " । अर्थात् ऐसे पदार्थ जिनके प्रतिपादक पदों में विरुद्ध विभक्ति नहीं है; उन पदार्थों में अभेदान्वय ही हो। जैसे "नीलो घट:" में नील पदार्थ और घट पदार्थ दोनों के प्रतिपादक पदों नील और घट' में समान विभक्ति है - प्रथमा विभक्ति है, इसलिए यहाँ अभेदान्वय होकर "नीलाभिन्नः घटः " इस प्रकार का बोध होता है । इसी तरह 'कुन्ताः प्रविशन्ति' में कुन्तपदार्थ और धारी पुरुषपदार्थ - प्रतिपादक शब्द कुन्त में विरुद्ध विभक्ति नहीं है इसलिए अभेदान्वय हो जायगा । फिर कुन्तविशिष्ट पुरुष इस प्रकार का बोध नहीं होगा । इसलिए कुन्त की शक्त्या और धारी पुरुष की लक्षणया उपस्थिति नहीं माननी चाहिए । कुन्त-विशिष्ट पुरुषत्व को लक्ष्यतावच्छेदक मानकर लक्षणा से तादृशविधि --- उस प्रकार की विधि अर्थात् क्रिया के अन्वय- में कोई बाधा नहीं आयेगी। जैसे 'दण्डिनम् आनय' में दण्ड विशिष्ट का क्रिया में अन्वय के द्वारा विशेषण दण्ड का भी अन्वय माना जाता है, उसी प्रकार कुन्त-विशिष्ट पुरुष का प्रविशन्ति में अन्वय होने पर कुन्त विशेषण का भी अन्वय माना जा सकता है । इस तरह उपादान-लक्षणा में लक्ष्यतावच्छेदक शक्य की विशेषण के रूप में प्रतीति होती है और लक्षण लक्षणा में लक्ष्यतावच्छेदक शक्यार्थ की उपस्थिति नहीं होती वह दूसरे का उपलक्षण बन जाता है । यही लक्षणा के पूर्वोक्त दोनों प्रकारों में भेद है । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशः mmmmmmmm कुन्तविशिष्टपुरुषोपस्थितिपक्षे च न काऽप्यनुपपत्तिः । ननु छत्रिणो यान्तीत्यत्र च्छत्रपदे एकसार्थगमनलक्षणायां जहत्स्वार्थापत्तिः गमनवत्त्वेनोपस्थितस्य गमनाकाङ्क्षाविरहेण यान्तीत्यनेनानन्वयापत्तिश्च । यत्तु च्छत्रपदे छत्राभावविशिष्टच्छत्रे लक्षणा, वैशिष्टयं च स्वाश्रयगमनकालीनगमनववृत्तित्वं, यदि च्छत्र्यच्छत्रिणोभिन्नदेशीयगमनवत्त्वे नैतादृशः प्रयोगस्तदा वैशिष्टये देशघटितं सामानाधिकरण्यमपि प्रवेश्यताम्, यत्र च एकः छत्री छत्रशून्याश्च बहवः तत्र बहुत्वान्वयानुरोधाच्छत्र विशिष्टच्छत्राभावे लक्षणेति, तन्न। यत्र छत्रिणी द्वावच्छत्रिणी च द्वौ तत्र कथितप्रकाराभ्यां बहुत्वान्वयानुपपत्तेः । यत्तु चेतनाचेतनसाधारणस्यकसार्थगमनस्य च्छत्रपदेन लक्षणात् तस्य छत्रसाधारण्येनाजहत्स्वार्थत्वम्, शक्यलक्ष्यसाधारणधर्मेण लक्षणाया एवाजहत्स्वार्थत्वादिति मणिकारमतम्, तदपि न । छत्रविशेष कुन्तत्वरूप में ही कुन्तविशिष्ट पुरुष की उपस्थिति-पक्ष में कोई अनुपपत्ति नहीं होती है । अस्तु 'छत्रिणो यान्ति' यहाँ छत्र पद में यदि एक सार्थ (समूह) द्वारा किये जानेवाले गमन अर्थ में लक्षणा करते हैं तो यह लक्षणा जहत्स्वार्था अर्थात् लक्षण-लक्षणा हो जायगी। इस तरह यहाँ लक्षण-लक्षणा के लक्षण में अतिव्याप्ति दोष हो जायगा; क्योंकि छत्रपद छत्रधारी और अच्छत्रधारी समुदाय का उपलक्षण बन जायगा। दूसरा दोष यह भी होगा कि यदि लक्षणा द्वारा छत्र पद तादृश छत्रधारी और अच्छत्रधारी-समुदाय-कर्तृक गमन का उपस्थापक बनेगा तब गमन अर्थ में छत्र पद सांकांक्ष नहीं रहेगा, क्योंकि गमनवत्त्वरूप में तो छत्र पद से ही उसकी उपस्थिति हो गयी है किन्तु निराकांक्ष हो जाने के कारण 'छत्रिणः' पद का 'यान्ति' पद के साथ अन्वय न होने के कारण आपत्ति आयेगी। किसी ने पूर्वदोष के समाधान के लिए जो यह कहा कि-छत्र पद की छत्राभावविशिष्ट छत्र पद में लक्षणा करेंगे अर्थात् छत्र पद लक्षणा के द्वारा छत्राभावविशिष्ट छत्र का बोधक होगा। यहाँ वैशिष्टय स्वाश्रयगमनकालीनगमनववत्तित्व-सम्बन्ध से लिया जायगा । तात्पर्य यह है कि जब छत्ते वाले और बिना छत्ते वाले जा रहे हैं: तब कहा गया है। "छत्रिणो यान्ति' सभी छत्तेवाले नहीं जा रहे हैं इसलिए यहाँ मुख्यार्थ बाध है और उपादान-लक्षणा है छत्तवाले और बिना छत्त वाले दोनों का अन्वय एक ही गमन-क्रिया में है इसलिए स्व- (छत्राभाव) में आश्रय (विद्यमान) जो गमन, उस गमन का जो काल अर्थात् वर्तमान काल उसी काल में गमनवान है छत्त वाला उसमें वृत्तिता है छत्र की, इसलिए 'स्वाश्रय-गमनकालीनगमनवद्-वृत्तित्व' सम्बन्ध से छत्र पद छत्राभाव-विशिष्ट छत्र का बोधक हो जायगा अर्थात् छत्रवान् और छत्राभाववान में गमन-क्रिया समान है इसलिए छत्रिपद छत्राभाववान् सहित छत्रवान् का बोधक हो जायगा। __यदि छत्तेवालों और बिना छत्तेवालों के अलग-अलग स्थानों में गमन करने पर ऐसा प्रयोग नहीं होता है, ऐसा अभीष्ट हो तो वैशिष्ट्य में देशघटित सामानाधिकरण्य का भी निवेश करना चाहिए । अर्थात् जहाँ छत्तेवाले और बिना छत्तेवाले दोनों का गमन एकदेशघटित हो वहीं लक्षणा होगी। जहाँ पर एक छत्तेवाला और बहुत से बिना छत्तेवाले जाते हैं वहाँ छत्रविशिष्ट छत्राभाव में छत्र शब्द की लक्षणा है, यह मत ठीक नहीं है। क्योंकि जहाँ दो छत्रधारी और दो बिना छत्ते के होंगे वहाँ उक्त प्रकारों से लक्षणा करने पर बहुत्व के साथ अन्वय नहीं हो पायेगा। तथा 'छत्रिणो यान्ति' में जहत्स्वार्था-लक्षणा के निवारण और अजहत्स्वार्था के समर्थन के लिए मणिकार ने कहा है कि यहाँ "छत्र पद से चेतन और अचेतन दोनों के समूह के एक साथ गमन का बोध लक्षणा के द्वारा होता है। वह गमन छत्र-साधारण है इसलिए यहाँ अजहतुस्वार्था लक्षणा है । अर्थात् उस गमन में छत्रधारी भी कर्ता है इसलिए Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः णकपुरुषविशेष्यकबोधानुभवेन तदनुपपादनात्, शकटारूढानां छत्राणां निश्छत्राणामेव पुरुषादीनां च समानकाले गमने छत्रिणो यान्तीति प्रयोगापत्तेरनाकाङ्क्षादोषानुद्वाराच्चेति चेद्, अत्र वदन्ति यथा पुष्पवन्तादिस्थले एकयैव शक्त्या चन्द्रत्वसूर्यत्वाभ्यां प्रकाराभ्यां बोध्यते शक्यतावच्छेदकता च व्यासज्यवृत्तिरिति केवलचन्द्रत्वादिप्रकारकबोधो लक्षणयव तथा छत्रपदस्य छत्रत्वे शक्यतावच्छेदकत्वमव्यासज्यवृत्ति, लक्षणा तूभाभ्यां छत्रत्वच्छत्राभावत्वाभ्यामिति लक्ष्यतावच्छेदकत्वं व्यासज्यवृत्ति, एवं चोभाभ्यां रूपाभ्यामुपस्थितमुभयं यथायोग्यमन्वेतीति न काऽप्यनुपपत्तिरिति । ग्रन्थकारमते तु 'कुन्ता' इत्यत्र लक्ष्यताऽव्यासज्यवृत्ति: 'छत्रिण' इत्यत्र च व्यासज्यवृत्तिर्लक्ष्यतावच्छेदकता'त्वव्यासज्यवृत्तिरुभयत्रापि, कन्तत्वेनैव कन्तधरस्य च्छत्रत्वेनैव च च्छत्रतदभावयोरुपस्थितेरित्यवधेयम् । न चैव शक्त्या छत्रस्य लक्षणया तदभावस्योपस्थितिरित्येव कुतो नाऽद्रियत इति वाच्यम्, तथा सति तयोरस्वार्थ का त्याग नहीं होने के कारण अजहतस्वार्था लक्षणा है। लक्षणा में जो अजहतस्वार्थता आती है अर्थात् लक्षणा जो अजहत्स्वार्था कहलाती है इसका कारण है उसका (लक्षणा का) शक्यार्थ और लक्ष्यार्थ उभय-साधारण-धर्ममूलक होना"। यह मणिकार का मत भी ठीक नहीं है क्योंकि 'छत्रिणो यान्ति' में जो बोध होता है उस बोध में छत्र विशेषण है और पुरुष विशेष्य । इस तरह अनुभवसिद्ध छत्र विशेषणकपुरुषविशेष्यक बोध में चेतनाचेतनसाधारण एक साथ गमन का उपपादन नहीं होता। एक बात और-यदि मणिकार की रीति का अवलम्बन किया जाय तो जहाँ छत्री और अच्छत्री दोनों के गमन का देश एक नहीं है, वहाँ भी लक्षणा हो जायगी; वहाँ लक्षणा के रोकने का कोई प्रयास मणिकार के मत में नहीं दिखाई पड़ता । जहाँ छत्रधारी शकट (गाड़ी) पर और अच्छत्रधारी पुरुष (पैदल) एककाल में जा रहे होंगे, वहाँ भी 'छत्रिणो यान्ति' इस प्रकार का प्रयोग होने लग जायगा? "मनार्थ तक की प्रतीति जब लक्षणा से हो जायगी तब 'यान्ति' के साथ निराकाक्ष होने के कारण अन्वय नहीं होगा।" इस पूर्वोक्त दोष के उद्धार का प्रयास मणिकार ने नहीं किया है इसलिए 'छत्रिणो यान्ति' में पूर्वोक्त रीति से लक्षणा मानने पर दिये गये दोष के निवारण के लिए कहते हैं पुष्पवन्तादि शब्द के प्रयोग स्थल में जैसे सूर्यत्व-प्रकारक और चन्द्रत्व-प्रकारक बोध एक ही शक्ति से होता है। इसी लिए 'अमरकोष' में कहा गया है "एकयोक्त्या पुष्पवन्तौ दिवाकर-निशाकरौं" । अर्थात् 'पुष्पवन्त' शब्द जिस तरह एक ही शक्ति से सूर्य और चन्द्र दोनों का बोध कराता है, अतः वहाँ शक्यतावच्छेदकता व्यासज्यवृत्ति है अर्थात् चन्द्रत्व और सूर्यत्व दोनों में मिलकर रहती है, किसी एक में पूर्णरूप से या पर्याप्तरूप में नहीं रहती है। इसलिए केवल चन्द्रत्व-प्रकारक बोध अर्थात् 'पृष्पवन्त' शब्द से केवल चन्द्र अर्थ की प्रतीति लक्षणा से ही सम्भव है; उसी प्रकार छत्र पद का शक्यतावच्छेदक छत्रत्व है। छत्रत्व में छत्र पद की शक्यतावच्छेदकता पूर्ण रूप में रहती है इसलिए छत्रत्व में शक्यतावच्छेदकत्व अव्यासज्यवृत्ति है किन्तु लक्षणा के द्वारा जो यहाँ बोध हुआ है, वह बोध छत्रत्व और छत्रात्त्वाभावत्व दोनों रूपों से हुआ है। इसलिए यहाँ लक्ष्यतावच्छेदक छत्रत्व-सहित छत्रत्वाभावत्व है यह दोनों में से किसी एक में पूर्णरूप से नहीं रहता, इसलिए वह व्यासज्यवृत्ति है। इस तरह दोनों रूपों से उपस्थित दोनों योग्यता के अनुसार अन्वित होते हैं। ग्रन्थकार के मतानुसार "कुन्ताः प्रविशन्ति" यहाँ लक्ष्यता "अव्यासज्यवृत्ति" है; क्योंकि वह लक्ष्यता, केवल कुन्तधारी में विद्यमान है। अर्थात् यहाँ लक्ष्यार्थ कुन्तधारी है। इसलिए लक्ष्यार्थ का आश्रय केवल कुन्तधारी होगा। इस प्रकार एकनिष्ठ धर्म होने के कारण "कुन्ताः" में रहनेवाली लक्ष्यता को अव्यासज्यवृत्ति-धर्म माना गया, किन्तु "छत्रिणो यान्ति" की स्थिति इससे विपरीत है। छत्रसहित तथा छत्ररहित पुरुषों को देखकर यह वाक्य-प्रयुक्त १. अवच्छेदकता तु अव्यासज्य इति छेदः। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशः भेदान्वयापत्तेः, लक्षणापक्षे तु लक्ष्यताया लक्ष्यतावच्छेदकताया वा' [ श्च] व्यासज्यवृत्तितया तदैक्येन नोक्तदोषः, भिन्नभिन्नपदार्थतावच्छेदकावच्छिन्नयोभिन्नभिन्नपदार्थतावच्छेद कयोर्विरुद्धविभक्त्यनवरुद्धपदोपस्थाप्ययोरेवाभेदान्वयव्युत्पत्तेरभ्युपगमादिति दिक् । संज्ञाया अन्वर्थतां व्यनक्ति - उपादानेनेति शक्यस्यापरपदार्थान्वयेनेत्यर्थः, जातावेव शक्तिर्व्यक्तिर्लक्षणालभ्याऽनन्यलभ्यस्य शक्यत्वात् न चान्वयानुपपत्तिज्ञानाभावान्न लक्षणेति वाच्यम्, गौरुत्पन्ना गौर्नष्टेत्यादौ जातेरुत्पादाद्यसम्भवेन तत्सत्त्वात् । तदुक्तम् ६४ जातावस्तित्वनास्तित्वे, नहि कश्चिद् विवक्षति | नित्यत्वाल्लक्षरणीयाया व्यक्तेस्ते हि विशेषणे ॥१॥ इति । हुआ है इसलिए यहाँ लक्ष्यार्थ के आश्रय दोनों हैं; अतः लक्ष्यता एकनिष्ठ धर्म नहीं, किन्तु अनेकनिष्ठ धर्म है अतः यहाँ लक्ष्यता व्यासज्यवृत्ति धर्म है । यद्यपि दोनों जगह की लक्ष्यता अव्यासज्यवृत्ति और व्यासज्यवृत्ति धर्म होने के कारण भिन्न-भिन्न है, तथापि दोनों जगह लक्ष्यतावच्छेदकता अव्यासज्यवृत्ति ही है क्योंकि कुन्तत्वेन कुन्तधर की और छत्रत्वेन छत्र और छत्राभाव दोनों की उपस्थिति हो जाती है । अर्थात् कुन्तार में विशेषण रूप से अनुप्रविष्ट कुन्तत्वरूप सामान्यधर्म के कारण जैसे सकल कुन्तधर की उपस्थिति हो जाती है, उसी तरह "छत्रिणः " ( छत्रधारी) में विशेषण - रूप से अनुप्रविष्ट छत्रत्वरूप सामान्य धर्म के कारण छत्र और छत्राभाव दोनों की उपस्थिति हो जायेगी । इस तरह कुन्तत्वधर्म जिस प्रकार एकनिष्ठधर्म होने से अव्यासज्यवृत्ति धर्म है, उसी प्रकार छत्रत्व भी एकनिष्ठधर्म होने से अव्यासज्यवृत्तिधर्म है यह तथ्य यहाँ सावधानी से समझने योग्य है । इस तरह शक्ति (अभिधा ) से छत्र की और लक्षणा से छत्राभाव की उपस्थिति हुई है, ऐसा ही क्यों नहीं मान लेते हैं, ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि ऐसा मानने पर छत्र और छत्राभाव दोनों में अभेदान्वय हो जायगा । लक्षणा-पक्ष में तो दोष नहीं होता है; क्योंकि इस पक्ष में लक्ष्यता के व्यासज्यवृत्ति होने के कारण दोनों अर्थों में एकता है या लक्ष्यतावच्छेदकता की अव्यासज्यवृत्तिता के कारण उपस्थित अर्थों (छत्र और छत्राभाव) में एकता है इसलिए अभेदान्वय नहीं होता है । क्योंकि उन पदार्थों में अभेदान्वय माना जाता है जिनकी उपस्थिति विरुद्ध विभक्ति-रहित पदों से होती हो और जो भिन्न-भिन्न पदार्थतावच्छेदक धर्मों से अन्त हो अर्थात् जिनके पदार्थतावच्छेदक धर्म अलग-अलग हों, साथ ही साथ जो भिन्न-भिन्न पदार्थों के अवच्छेदक हों । यहाँ लक्ष्यतावच्छेदक की अव्यासज्यवृत्तिता के एक होने के कारण दोनों अर्थ भिन्न-भिन्न पदार्थतावच्छेदका - वच्छिन्न नहीं है । जाति तो न उत्पन्न होती है न नष्ट होती है। इसलिए नष्ट, मृत इत्यादि में जाति के उत्पत्ति और विनाश से रहित होने के कारण (व्यक्ति) में लक्षणा माननी पड़ेगी । तत्सत्त्वात् अर्थात् 'लक्षणायाः सत्त्वात्' यहाँ 'व्यक्ती' का अध्याहार या शेष समझना चाहिए । इसलिए कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति जाति में अस्तित्व और नास्तित्व की विवक्षा नहीं करता है । अर्थात् जब कोई कहता है "गोर्नष्टा" "गौर्जायते" या "गौरस्ति" तो वह गो इस प्रकार की विवक्षा नहीं रखता है; क्योंकि जाति नित्य है । इसलिए ऐसे लेना चाहिए | वे अस्तित्व और नास्तित्व उसी लक्षणा के द्वारा प्रतिपाद्य व्यक्ति के विशेषण बनते हैं । जाति नष्ट हुई या उत्पन्न हुई, या है; प्रयोगों में लक्षणा के द्वारा व्यक्ति अर्थ १. यहाँ 'वा' पाठ ही मुझे युक्तियुक्त जान पड़ता है। "वा" के आगे " अव्यासज्यवृत्तितया " के रूप में सन्धिविच्छेद मानना चाहिए। पूर्वापर- सन्दर्भ से यही पाठ शुद्ध प्रतीत होता है । श्लेष के कारण लक्ष्यताया के साथ "व्यासज्यवृत्तितया” और लक्ष्यतावच्छेदकताया के साथ 'अव्यासज्यवृत्तितया' का अन्वय मानकर सन्दर्भानुकूल हिन्दी अनुवाद किया गया है। - अनुवादक । Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः __ "गौरनुबन्ध्यः" इत्यादौ, श्रु तिचोदितमनुबन्धनं कथं मे स्यादिति जात्या व्यक्तिराक्षिप्यते, न तु शब्देनोच्यते। ___ "विशेष्यं नाभिधा गच्छेत् क्षीणशक्तिविशेषणे' इति न्यायात् । वस्तुतस्तात्पर्यानुपपत्तिरेव लक्षणाबीजम्, अन्यथा 'गां पश्ये'त्यत्र व्यक्तिभानानुपपत्तेः, न च शक्यादन्येन रूपेण ज्ञाते भवति लक्षणा। न चात्र गोत्वादन्येन रूपेण व्यक्ती ज्ञातायां जातिसम्बन्धग्रह इति वाच्यम्, अप्रयोजकत्वात्, गङ्गादिपदादौ दर्शनमात्रस्योत्कर्षसमत्वात्, लक्षणा चेयमुपादानरूपा, लक्षणलक्षणाभ्युपगमे गोत्वस्योपलक्षणतापत्तौ विशेषणतया तद्भानानुपपत्तेः, उपादानलक्षणायामेव शक्यस्य विशेषणतया भानादिति । मण्डनमिश्रमतं खण्डयति "गौरनुबन्ध्य" इत्यादाविति । प्राक्षिप्यते लक्ष्यते, उच्यते शक्त्या प्रतिपाद्यते, क्षीणशक्तिरिति विशेषणमभिधाय विरतेत्यर्थः, कथं नेत्यत आह-नह्यत्रेति, प्रयोजनं व्यङ्ग्यम्, कुन्ता इत्यादी बाहुल्यं वस्तुतः लक्षणा का बीज तात्पर्यानुपपत्ति ही है अन्वयानुपपत्ति नहीं। यदि ऐसा न होता तो 'गां पश्य' में व्यक्ति का भान नहीं होता । “काकेभ्यो दधि रक्ष्यताम्" दही को कौए से बचाना, यहाँ अन्वय में कोई बाधा नहीं है इसलिए लक्षणा नहीं होती और बिल्ली आदि दध्यपघातकों का बोध नहीं होता। शक्य से अन्यरूप में बोध होने पर लक्षणा होती है। 'गां पश्य' यहाँ यदि व्यक्ति में लक्षणा मानें तो लक्षणा मानने का तात्पर्य होगा कि शक्य (गोत्व जाति) से अन्यरूप में व्यक्ति की वहाँ प्रतीति होती है। ऐसी स्थिति में उस व्यक्ति का जाति के साथ सम्बन्ध का ग्रहण नहीं होगा; ऐसा नहीं कहना चाहिए; क्योंकि दर्शन के लिए जाति-सम्बन्ध का ग्रहण हो ही, यह आवश्यक नहीं है। इसलिए 'गां पश्य' में जाति-सम्बन्ध-ग्रह किसी तथ्य के निर्धारण या अनिर्धारण का प्रयोजक नहीं बन सकता । 'गङ्गाम् पश्य' में गङ्गा (व्यक्ति) के दर्शन के उत्कर्ष की तरह गो (व्यक्ति) के दर्शन को भी उत्कृष्ट माना जा सकता है। "गां पश्य" में जो लक्षणा है वह उपादान-लक्षणा है, लक्षण-लक्षणा नहीं। यदि लक्षण-लक्षणा मानें तो वहाँ मुख्यार्थ, लक्ष्यार्थ को वाक्यार्थ में अन्वय सिद्ध कराने के लिए अपने आप को समर्पित करने के कारण लक्ष्यार्थ का उपलक्षण बन जाता है इसलिए गोत्व जब व्यक्ति का उपलक्षण बन जायगा तो विशेषणरूप से भी उसकी (गोत्व की) प्रतीति नहीं होगी। उपादान-लक्षणा में मुख्यार्थ का भी उपादान रहता है। इसलिए वहाँ शक्यार्थ की भी विशेषणतया प्रतीति होती है। मीमांसकों के उपादान-लक्षण के दो उदाहरण और उनका क्रमशः खण्डन 'गौरनुबन्ध्य' इत्यादि पक्तियों में सुक्लभट्ट, 'मण्डन मिश्र' आदि मीमांसकों के मत का खण्डन किया गया है, वह इस प्रकार है-पूर्वोक्त पक्ति में प्रयक्त 'आक्षिप्यते' का अर्थ 'लक्ष्यते' है। "न तु शब्देनोच्यते' में 'उच्यते' का अर्थ शक्त्या प्रतिपाद्यते 'शक्ति से प्रतिपादित (ज्ञात) नहीं होता है" यह है। (मूल)-'गौरनुबन्ध्यः-(गाय को बांधना चाहिये) इत्यादि वाक्य में, श्रति-प्रतिपादित मेरा-गौ शध्द के मुख्यार्थ 'गोत्व' जाति का-'अनुबन्धन' कैसे बन सके इसके उपादान के लिये मुख्यार्थ जाति से अमुख्यार्थभूत व्यक्ति का आक्षेप किया जाता है। क्योंकि गोत्वरूपी 'विशेषण का बोध कराने में क्षीण हई अभिधाशक्ति किसी भी प्रकार से गो-व्यक्तिरूप विशेष्य का बोध नहीं करा सकती हैं इस मुक्ति से । अतः उस विशेष्यभूत गो-व्यक्ति का बोध उपादानलक्षणा द्वारा होता है। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशः शौर्य वा, काकेभ्य इत्यादौ शीघ्रपातित्वम्, छत्रिण इत्यत्र च वृष्टयादिभयाभावो व्यङ्गय इति भावः । नन्वेवं रूढिलक्षणैवेयमित्यत आह- न वेति, लक्षणौदासीन्येनैव प्रसिद्धर्न निरूढलक्षणाऽपीयमिति बहवः । तन्न । लक्षणौदासीन्येन प्रसिद्धेस्तेनानभ्युपगमात् । रथो गच्छतीत्यत्राख्याते मीमांसकाना लाक्षणिक त्वाङ्गीकाराच्च अनादिप्रसिद्धौ निरूढलक्षणा सादिव्यक्तौ न सम्भवति प्रवाहानादित्वं व्यक्तौ नोपलक्षणमन्तरेति न वेति फक्किकार्थ इति सुबुद्धिमिश्राः, तन्न। प्रसिद्धावपि ज्ञानरूपायां प्रवाहानादित्वस्यैव सम्भवेन तादृशानादित्वस्य व्यक्तावपि सत्त्वात्, एवं दक्षादावाधुनिकसंज्ञाशब्दार्थेष्वपि सामान्यतोऽनादिप्रसिद्धौ बाधकाभावाच्च । "विशेष्यं नाभिधा गच्छेत् क्षीणशक्तिविशेषणे" में 'क्षीणशक्ति' का अर्थ, विशेषण को कहकर विरत होना, विश्रन्ति लेना, या रुकना है। मण्डन मिश्र आदि का मत क्यों मान्य नहीं है, इसका कारण बताते हुए कहते हैं "नात्र प्रयोजनमस्ति""। . पूर्वोक्त पङ्क्ति में आये हुए 'प्रयोजनम्' का अर्थ 'व्यङ्गय है। 'कुन्ताः प्रविशन्ति' में कुन्तधारी पुरुषों का बाहुल्य या शौर्य व्यङ्गय है वही लक्षणा का प्रयोजन है । 'काकभ्यो दधि रक्ष्यताम्' यहां शीघ्रपातित्व प्रयोजन (व्यङ्गय) है। दध्यपघातक अन्य प्राणियों की अपेक्षा कौओं का शीघ्र उड़कर आकर दही पर पड़ना ही व्यङ्गय है। "छत्रिणो यान्ति" .. में छत्ताधारी होने के कारण यात्रा में वृष्टि या धूप आदि के भय का अभाव बताना ही व्यङ्गय है-प्रयोजन है । इस .. तरह सिद्ध है कि लक्षणा में कुछ न कुछ प्रयोजन या व्यङ्गय अवश्य हुआ करता है। "गौरनुबन्ध्यः" यहाँ कुछ व्यङ्गध या प्रयोजन नहीं है, इसलिए इसे लक्षणा का उदाहरण मानना ठीक नहीं होगा। अस्तु, प्रयोजन नहीं होने से भले ही यह प्रयोजनवती-लक्षणा का उदाहरण न हो, किन्तु 'निरूढा लक्षणा' का उदाहरण तो बन ही सकता है; क्योंकि "कर्मणि कुशल:" आदि निरूढालक्षणा (रूढिमूलक लक्षणा),में किसी प्रकार के व्यङ्गय या प्रयोजन की अपेक्षा नहीं की जाती है। यही कहते हुए लिखते हैं कि- 'न वा रूढिरियम्' यह रूढि लक्षणा भी नहीं हैं क्योंकि लक्षणा के बिना ही "गौरनुबन्ध्यः" में व्यक्ति अर्थ की उपस्थिति हो जाया करती है यह सर्वानुभव सिद्ध होने के कारण प्रसिद्ध है । इसलिए यहाँ निरूढा लक्षणा भी नहीं है इस तरह की बहुत लोगों के द्वारा की गयी "नवा रूढिरियम्" इस वाक्य की व्याख्या युक्तियुक्त नहीं हैं, क्योंकि मीमांसक मण्डन मिश्र ने लक्षणा के बिना व्यक्तिबोध नहीं माना है इसलिए उनके मत में लक्षणा के बिना व्यक्ति की उपस्थिति नहीं होने के कारण व्यक्ति अर्थ को प्रसिद्ध नहीं माना जा सकता। "रथो गच्छति" यहाँ (नैयायिकों ने) आख्यात में और मीमांसकों ने आश्रयत्व में लक्षणा स्वीकार की है। वैयाकरणों को बिना लक्षणा के ही व्यापार की प्रतीति होती है परन्तु नैयायिक वहां भी लक्षणा स्वीकार करते हैं। इस तरह किसी को लक्षणोदासीन्येन (लक्षणा के बिना) यदि प्रतीति हो गयी, तो वह निरूढा लक्षणा में बाधक नहीं हो सकती। अनादिकाल से प्रसिद्धि रहने पर होनेवाली निरूढा लक्षणा सादि व्यक्ति में नहीं हो सकती। व्यक्ति को "धाता यथापूर्वमकल्पयत्" इस श्रति के अनुसार प्रवाहरूप में अनादि, उपलक्षण (लक्षणा) के बिना नहीं माना जा सकता । इस तरह 'गौरनुबन्ध्यः' में निरूढा लक्षणा भी नहीं मान सकते इत्यादि ("न वा रूढिरियम्" इस का फक्किकार्थ-उलझन से भरा हुआ तर्कपूर्ण अर्थ) सुबुद्धि मिश्र कहते हैं। किन्तु सुबुद्धि मिश्र का मत भी यक्त नहीं है क्योंकि जिन अर्थों को प्रसिद्ध समझा जाता है वे भी ज्ञानरूप में ही रहते हैं तो ऐसी प्रसिद्ध ज्ञानरूप वस्तुओं में उन्हें अनादित्व प्रवाह के अनादि होने से ही मानना पड़ेगा। वह प्रवाहानादित्व तो व्यक्ति में भी हो सकता है। इसलिए व्यक्ति भी अनादि प्रसिद्ध हुआ फिर वहाँ निरूढा लक्षणा हो ही सकती है। दक्ष आदि जो आधुनिक संज्ञाशब्द हैं, उनके अर्थों को भी सामान्यरूप में प्रवाह के रूप में अनादि प्रसिद्ध मानने में कोई बाधा नहीं प्रतीति होती। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः इत्युपादानलक्षणा तु नोदाहर्तव्या। न ह्यत्र प्रयोजनमस्ति न वा रूढिरियम् । मधुमतीकृतस्तु-ननु माऽस्तु प्रयोजनवतीयमुपादानलक्षणा निष्प्रयोजनैवेयं निरूढरूपोपादानलक्षणाऽस्त्वित्यत आह-नवेति । इत्थमुपादानलक्षणाप्रयोजनाभावो हि निरूढत्वव्यापकः। न चोपादानलक्षणा, निरूढोपादानत्वस्य प्रयोजनवतीप्रभेदत्वादित्यर्थ इत्याहुः । तन्न । तेन प्रयोजनवत्त्वस्योपादानत्वव्यापकत्वानङ्गीकारात्, स्वमतेऽपि 'चित्रगु'रित्यत्र लक्षणलक्षणाया 'लम्बकर्ण' इत्यत्रोपादानलक्षणायाः सम्भवे बाधकाभावाच्च, तस्मादेवं व्याख्येयम् । ननु कथं नोपादानलक्षणेत्यत आह ' नात्रेति । प्रयोजनं शक्यस्यापरपदार्थेनान्वयबोधरूपम् उपादानताप्रयोजकम् । उपादानलक्षणायां मधुमतीकार ने “न वा रूढिरियम्" की व्याख्या इस प्रकार की है : "गौरनुबन्ध्यः" यहाँ प्रयोजनवती उपादान-लक्षणा' प्रयोजन के बिना यदि नहीं है, तो रहे किन्तु यहाँ विना प्रयोजन के होनेवाली 'निरूढा उपादान-लक्षणा' क्यों नहीं हो सकती? इस प्रश्न के समाधान के लिए वृत्तिकार ने लिखा है "न वा"। इस प्रकार इस पंक्ति से यह सूचित किया है कि उपादान लक्षणा के प्रयोजन का अभाव निरूढत्व का व्यापक धर्म है। अर्थात् “यत्र-यत्र उपादानलक्षणाप्रयोजनाभावः तत्र-तत्र निरूढात्वम्" इस तरह जहाँ प्रयोजन नहीं है, वह सारी लक्षणा निरूढा होगी। किन्तु यहां उपादान-लक्षणा (मान ही नहीं सकते; क्योंकि उपादान-लक्षणा) का 'प्रयोजजवती' उपादान-लक्षणा एक ही भेद होता है जहाँ आपके विचार से निरूढ उपादानत्व है वहाँ भी कुछ-न-कुछ प्रयोजन निकाला जा सकता है, इसलिए निरूढोपादान-लक्षणा भी 'प्रयोजनवती' का ही प्रभेद है। इस तरह मधुमतीकार ने वृत्ति ग्रन्थ की नयी व्याख्या प्रस्तुत की। किन्तु उनकी यह व्याख्या निर्दुष्ट नहीं है; क्योंकि प्रयोजनवत्त्व को उपादान का व्यापकधर्म नहीं माना गया है “यत्र-यत्र उपादानत्वं तत्र-तत्र प्रयोजनवत्त्वम्” ऐसा नहीं माना गया है। उपादान रहने पर भी प्रयोजन नहीं रहता है। इसलिए उपादान-लक्षणा प्रयोजनवती ही होती है, यह नहीं माना जा सकता। "चित्रगुम् आनय", कहने पर जो व्यक्ति लाया जायगा उसके साथ समासघटक पदार्थ चितकबरी गाय नहीं आएगी। किन्तु 'लम्बकर्णमानय' कहने पर जिसे लाया जायगा उसके साथ समासघटक पदार्थ लम्बकर्ण का आनयन होगा इसे वैयाकरण क्रमशः 'अतद्गुण-संविज्ञान-बहुव्रीहि' और 'तद्गुण-संविज्ञान-बहुव्रीहि' कहते हैं। समास में शक्ति नहीं मानने वाले दार्शनिक 'चित्रगु' में लक्षण-लक्षणा मानते हैं क्योंकि यहाँ का "चित्र-गु" शब्द व्यक्तिविशेष का ही बोध कराता है चित्रा और गाय का नहीं। इसलिए "आनय” रूप वाक्यार्थ में व्यक्ति-विशेष (लक्ष्यार्थ) की अन्वय-सिद्धि के मुख्यार्थ का समर्पण कर देता है। समाज में शक्ति नहीं मानने वाले दार्शनिक 'लम्बकर्णमानय' में उपादन-लक्षणा मानते हैं, क्योंकि यहाँ 'आनय' रूप वाक्याथ में मुख्यार्थ (लम्बकर्ण) संवलित लक्ष्यार्थ (व्यक्तिविशेष) का अन्वय होता है । लक्षणा के इन दोनों उदाहरणों में प्रयोजन (व्यङ्गय) कुछ भी नहीं है; इसलिए स्पष्ट है कि लक्षण-लक्षणा की तरह उपादान-लक्षणा का भी 'निरूढा-लक्षणा' नामक भेद होता है। इस प्रकार पूर्वोक्त पंक्तियों की व्याख्या इस रूप में की जानी चाहिए। इस नयी व्याख्या के अनुसार "गौरनुबन्ध्यः" में उपादान-लक्षणा क्यों नहीं है यह बताया गया है। "नात्र" इत्यादि पंक्ति में "गौरनुबन्ध्यः" में लक्षणाभाव का कारण बताया गया है । प्रयोजन नहीं होने के कारण यहाँ लक्षणा नहीं है । प्रयोजन उपादानता के प्रयोजक उस धर्म को कहते हैं जो शक्यार्थ का दूसरे पदार्थ (लक्ष्यार्थ) के साथ अन्वय-बोधात्मक है। उपादान-लक्षणा में "कुन्ताः प्रविशन्ति" इत्यादि स्थल में पुरुष के प्रवेश के साथ अन्वय-बोध के लिए पुरुष में लक्षणा है। गौरनुबन्ध्यः यहाँ तो जाति का अनुबन्धन क्रिया में अन्वयबोध के लिए व्यक्ति में लक्षणा नहीं (मानी गयी) है इसके विपरीत शक्यार्थ जाति के अनुबन्धन में अन्वयाभाव के लिए ही लक्षणा करते हैं। इस लिए Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ काव्यप्रकाशः व्यक्त्यविनाभावित्वात्तु जात्या व्यक्तिराक्षिप्यते । यथा - 'क्रियताम्' इत्यत्र कर्ता । ' कुरु' इत्यत्र कर्म । 'प्रविश', 'पिण्डीम्' इत्यादी 'गृह', 'भक्षय' इत्यादि च । हि 'कुन्ताः प्रविशन्ती' त्यादौ कुन्तस्य प्रवेशान्वयबोधार्थं पुरुषे लक्षणा, न चात्र जातेरनुबन्धनान्वयबोधार्थं व्यक्तौ लक्षणा, अपि तु जातेरनुबन्धनान्वयाभावार्थमेवेति नेयमुपादानलक्षणेत्यर्थः । 'गौनित्ये 'त्यत्र शक्य व्यक्तेर्जातिविशेषणतया भानेऽप्युपादानलक्षणानभ्युपगमात् 'छत्रिण' इत्यत्राव्याप्तेश्च न शक्यविशेषण बोधजनकत्वं तल्लक्षणमिति भावः । ननु लक्षणलक्षणा नेयमित्युक्तम्, उपादानलक्षणाऽपि चेन्न, तथा सति किमत्र नैयायिकादिवच्छक्तिरेवेत्यत आह- नवेति, रूढिः शक्तिः आनन्त्यव्यभिचाररूपदोषस्योक्तत्वादिति भाव इत्यस्मन्मनीषोन्मिषति । नन्वेवं कथं व्यक्तिभानमित्यत आह किन्त्विति, व्यक्त्यविनाभावित्वादिति । ननु 'गो- गोत्वयोः' सामानाधिकरण्याभावात् कथमत्र व्याप्तिरिति चेद, न । तादात्म्येन व्यक्तेराश्रये समवायेन गोत्वस्याश्रितत्वाद् यत्र ' गोत्वं सा गौरिं 'ति (यहाँ ) उपादान लक्षणा नहीं है । "गौनित्या" गाय नित्य है, यहाँ शक्यार्थं व्यक्ति का जाति के विशेषण के रूप में भान (बोध) होने पर भी उपादान लक्षणा नहीं मानी गयी है इसलिए; और 'छत्रिणों यान्ति' यहाँ अव्याप्ति-दोष होने के कारण “शक्यविशेषण कबोधजनकत्वम्" अर्थात् जिस बोध में शक्य विशेषण हो, उस बोध के जनक को उपादान - लक्षणा का लक्षण नहीं माना जा सकता। इस तरह 'गोरनुबन्ध्यः' यहाँ उपादान लक्षणा का अभाव बताया गया है । यह "गौरनुबन्ध्यः" लक्षण-लक्षणा नहीं है और उपादान लक्षणा भी नहीं है तो क्या यहाँ नैयायिकादि की तरह शक्ति ही है ? इस प्रश्न का समाधान देते हुए कहते है - "न वा रूढिरियम्” अर्थात् यहाँ रूढि या शक्ति भी नहीं है क्योंकि रूढ़ि या शक्ति मानने पर आनन्त्य और व्यभिचार दोष हो जायगा; जैसा कि व्यक्ति पक्ष के खण्डन के समय किया गया है । मेरी बुद्धि के अनुसार पूर्वोक्त पंक्तियों का यह तात्पर्य दिखाई पड़ता है । अच्छा, यह बताइये कि व्यक्ति का भान कैसे होता है ? इसका उत्तर देते हुए लिखते हैं "किन्त्विति" "व्यक्त्यविनाभावित्वादिति ।" अर्थात् व्यक्ति के बिना जाति रह नहीं सकती है इसलिए (अविनाभाव ) के कारण जाति से व्यक्ति का अनुमान (आक्षेप ) किया जाता है। जैसे "पीनो देवदत्तो दिवा न भुङ्क्ते" देवदत्त मोटा है; परन्तु दिन में नहीं खाता है, इस उदाहरण में जैसे रात्रि भोजन का आक्षेप किया जाता उसी प्रकार "गौरनुबन्ध्यः " में जाति से व्यक्ति का आक्षेप होता है (यह लक्षणा का उदाहरण नहीं है ) । यदि आप पूछें कि गो (व्यक्ति) और गोत्व जाति दोनों में सामानाधिकरण्य के न होने से व्याप्ति कैसे है ? अर्थात् व्याप्ति के लिए एकाधिकरणवृत्तिता का होना आवश्यक है और आक्षेप के लिए व्याप्ति आवश्यक है । इसलिए यदि "गौरनुबन्ध्यः" में जाति से व्यक्ति का आक्षेप मानते हैं तो जाति और व्यक्ति - समानाधिकरण्य होना आवश्यक है | अतः बताइये कि गो व्यक्ति और जाति में सामानाधिकरण्य कैसे सिद्ध करेंगे ? तादात्म्य-सम्बन्ध से गो व्यक्ति गो में रहता है, क्योंकि गो व्यक्ति और गो अभिन्न हैं; इस तरह गो व्यक्ति का आश्रय तादात्म्य-सम्बन्ध से गो व्यक्ति हुआ; उसी गो में गोत्व-जाति समवाय - सम्बन्ध से रहती है इस तरह गो व्यक्ति और जाति दोनों का आश्रय ठहरता है । समान अधिकरण (आश्रय) में रहने के कारण “गो और गो व्यक्ति" में सामानाधिकरण्य का अभाव नहीं है; अपितु सामानाधिकरण्य ही है । "यत्र गोत्वम् सा गौ:" इस रूप में धर्म और धर्मी में व्याप्ति मानी गयी है। इस लिए वहाँ व्याप्ति का अभाव नहीं है; किन्तु व्याप्ति है । यह " किन्तु " "व्यक्त्यविनाभावित्वात् " इस ग्रन्थ का आशय है । F Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः 1 'पीनो देवदत्तो दिवा न भुङ्क्ते' इत्यत्र च रात्रिभोजनं न लक्ष्यते श्रुतार्था - पत्रपत्र्वा तस्य विषयत्वात् । ६६ धर्मधर्मिणोर्व्याप्तिस्वीकारादिति भावः । श्राक्षिप्यते - अनुमीयते । प्रयोगश्चात्र - इयं 'गौः, गोत्वादित्येवंरूपः । अनुमेयस्याप्यर्थस्य शाब्दबोधविषयत्वमित्यत्र लोकसिद्धं दृष्टान्तमाह-यथेति । अध्याहारेऽपि न लक्षणेत्याह - प्रविशेति । प्रविशेत्यत्र 'गृह', 'पिण्ड' मित्यत्र भक्षयेति च यथाऽऽक्षिप्यत इत्यर्थः, इति भट्टमतानुसारेण व्याचक्षते । सुबुद्धिमिश्रास्तु भट्ट 'जातिव्यक्त्योरभेदाद् न व्यक्तिभानानुपपत्तिः व्यक्त्यविनाभावश्च, तत्तादात्म्यम्, आक्षेपोऽपि सामान्यरूपतया तद्भानोत्तरमन्यतमरूपतया भान मित्याहुः । वयं तु– नन्वेवं व्यक्तेरनुमानवेद्यत्वेनापदार्थत्वाद् विभक्त्यर्थ सङ्ख्या कर्मत्वाद्यन्वयानुपपत्तिः प्रत्ययानां प्रकृत्यर्थगतस्वार्थबोधकत्वनियमस्य व्यक्तिमात्रवाचकपश्वादिपदे क्लृप्तत्वात्, 'पदजन्यपदार्थोपस्थितेरेव शाब्दबोधजनकतया व्यक्तेः शाब्दबोधविषयतानुपपत्तिश्चेत्यत आह-व्यक्तीति । व्यक्तिग्रहकारणीभूतज्ञाने विषयतासम्बन्धेन जातेर्व्यक्तिव्याप्यत्वाज्जात्या सह व्यक्तिराक्षिप्यते उपस्थाप्यते शब्देनेति शेषः । तथा च जातिविषयक शक्तिज्ञानत्वं कारणतावच्छेदकं जातिविशिष्टव्यक्ति विषयकज्ञानत्वं कार्यतावच्छेदकम्, इति "आक्षिप्यते " का अर्थ है अनुमीयते अर्थात् अनुमान किया जाता है। अनुमान का आकार होगा 'इयं गौः गोत्वात्" यह गाय है क्योंकि इसमें गोत्व है । अनुमित अर्थ का भी शाब्दबोध में प्रवेश होता है अनुमेय अर्थ भी शाब्द-बोध का विषय हुआ करता है इसके लिए लौकिक या लोक प्रसिद्ध दृष्टान्त देते हैं- "यथा क्रियताम् इत्यत्र कर्ता”-----.! जैसे “क्रियताम्' में त्वया कर्ता का, केवल 'कुरु' कहने पर कर्म का आक्षेप होता है । "प्रविश" पिण्डीम्' कहने पर 'घर में प्रवेश करो और पिण्डी को खाओ' इस रूप में 'गृहम्' और 'पिण्डीम्' का आक्षेप होता है । यहाँ कहीं भी जैसे लक्षणा नहीं मानते हैं; उसी तरह 'गौरनुबन्ध्यः में भी किसी प्रकार की लक्षणा नहीं है । इन सब वाक्यों में अध्याहारेऽपि लक्षणा नहीं होती है यह बताने के लिए कहा गया है - " प्रविश, पिण्डीम् " प्रविश यहाँ पर 'गृहम्' और पिण्डम् ( पिण्डीम् होना चाहिए ) यहाँ भक्षय का जैसे आक्षेप होता है वैसे ही 'गौरनुबन्ध्यः' यहाँ जाति से व्यक्ति का आक्षेप है। जैसे वहाँ लक्षणा नहीं है; वैसे ही यहाँ भी लक्षणा नहीं है । यह (पूर्वोक्त ग्रन्थ का) तात्पर्य है । पूर्वोक्त व्याख्या भट्ट मत के अनुसार की गयी है । सुबुद्धि मिश्र ने कहा है कि भट्ट मत में जाति और व्यक्ति दोनों अभिन्न हैं; इस लिए "गौरनुबन्ध्य : " यहाँ जाति में शक्ति मानने पर भी व्यक्ति के बोध होने में कोई बाधा नहीं होगी । 'व्यक्त्य विनाभाव' का अर्थ है। व्यक्ति का ( जाति के साथ) तादात्म्य अर्थात् अभिन्नता । आक्षेप का अभिप्राय ( यहाँ ) यह है कि सामान्यरूप से उसके ( व्यक्ति के ) भान के बाद अन्यतम रूप से बोध । "गौरनुबन्ध्यः" में पहले 'गाय' का सामान्य रूप से (जाति रूप से) भान होने के बाद बहुत-सी गायों से एक का ( अन्यतम का ) भान होता है, इसे ही आक्षेप कहा गया है । हम तो गुरुमत के अनुसार ( इन पंक्तियों की ) व्याख्या इस प्रकार करते हैं - यदि "गौरनुबन्ध्य:" में व्यक्ति को अनुमानवेद्य या अनुमेय मानें तो व्यक्ति की अभिघादि-वृत्तियों में से किसी वृत्ति से उपस्थिति नहीं होने के कारण किसी पद का अर्थ नहीं होने से गो व्यक्ति का विभक्ति के अर्थ, संख्या और कर्मादि कारक के साथ अन्वय नहीं हो सकेगा; क्योंकि 'पशुना यजेत' इत्यादि स्थलों में ( मीमांसकों ने) माना है for 'प्रत्यय प्रकृति के अर्थयुक्त (गत ) स्वार्थ के बोधक होते हैं।' दूसरा दोष यह होगा कि यहाँ व्यक्ति का शाब्दबोध में प्रवेश नहीं होगा; क्योंकि पदजन्य पदार्थों की उपस्थिति को ही शाब्दबोध का जनक माना गया है । अर्थात् शाब्दबोध उन्हीं पदार्थों का होगा जिनकी उपस्थिति पदों Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० काव्यप्रकाशः कार्यकारणभावबलादेव व्यक्तिभानमिति भावः। एवं चाक्षिप्यत इत्यादिग्रन्थः' श्रुतार्थापत्तेरर्थापत्तेर्वा तस्य विषयत्वादित्यत्र दृष्टान्ततया योज्य इति गुरुमतानुसारेण व्याचक्ष्महे ।। ननु व्यङ्गयाभावेन 'गौरनुबन्ध्य' इत्यत्र लक्षणाया अभावेऽपि पीनो देवदत्तो दिवा न भुङ्क्ते' इत्यत्र भोजनाभावसमानाधिकरणपीनत्वप्रयुक्तोत्कर्षप्रतीते: प्रयोजनस्य सत्त्वादस्तु पीनत्वरात्रिभोजनयोः सामानाधिकरण्यात्मकशक्यसम्बन्धरूपोपादानलक्षणेत्यत आह-पीनो इति । न लक्ष्यत इति । न केवलप्रयोजनवत्तामात्रमुपादानत्वप्रयोजकम् अपि तु बाधादिसहकृतम्, दिवाभोजनाभाववतः पीनत्वं च प्रमाणान्तरप्रतिपन्नत्वान्न बाधितम् । अत एव च नोत्कर्षप्रतीतिरपि भोजनाभावसमानाधिकरणपीनत्वस्योत्कर्षप्रयोजकत्वेऽपि दिवाभोजनाभावसमानाधिकरणपीनत्वस्यातत्त्वादिति भावः । से हुई होगी। गौरनुबन्ध्यः" में जाति में शक्ति मानने के कारण व्यक्ति की पदजन्य उपस्थिति नहीं है, इसलिए उसका शाब्दबोध में प्रवेश नहीं होगा, आक्षेप या अनुमान के द्वारा उपस्थित व्यक्ति पद के द्वारा उपस्थित नहीं होने के कारण शाब्दबोध का विषय नहीं बन पायेगा। इसी तात्पर्य से कहा गया है “व्यक्त्यविना..."। व्यक्त्यविनाभावित्वात्तु जात्या व्यक्तिराक्षिप्यते" इस वाक्य में “व्यक्त्यविनाभावित्वात्" का तात्पर्य है कि व्यक्तिग्रह (व्यक्ति- ... बोध) के कारणीभूत ज्ञान में विषयता-सम्बन्धेन जाति के साथ (विनाऽपि सहशब्दयोगं तदर्थे सति तृतीया भवति) व्यक्ति का आक्षेप होता है । अर्थात् शब्द द्वारा व्यक्ति उपस्थापित होता है। इस तरह जाति-विषयक शक्ति-ज्ञानत्व को कारणतावच्छेदक माना जायगा और जाति-विशिष्ट व्यक्तिविषयक ज्ञानत्व को कार्यतावच्छेदक मानेंगे। इस तरह कार्यकारणभाव के बल से ही व्यक्ति का भान होगा। इस प्रकार 'आक्षिप्यते' इत्यादि काव्यप्रकाश के वृत्ति ग्रन्थ को "श्रुतार्थापत्तेरपित्तेर्वा तस्य विषयत्वात्” यहाँ दृष्टान्त के रूप में जोड़ना चाहिए । इस तरह हम (श्री १०८ यशोविजयजी महाराज) पूर्वोक्त ग्रन्थ की गुरुमत के अनुसार व्याख्या करते हैं। अर्थापत्ति लक्षणा नहीं ___अस्तु; व्यङ्गय (प्रयोजन) के अभाव के कारण "गौरनुबन्ध्यः" यहाँ लक्षणा का अभाव मानना तो ठीक है; परन्तु 'पीनोऽयं देवदत्तः दिवा न भूक्ते" यहाँ भोजन न करने पर भी देवदत्त में पीनत्व-प्रयुक्त उत्कर्ष की प्रतीतिरूप प्रयोजन होने के कारण पीनत्व और रात्रि-भोजन में सामानाधिकरण्यात्मक-शक्यसम्बन्धरूप उपादानलक्षणा हो सकती है। इस भ्रम के निवारण के लिए लिखते हैं "पीनो देवदत्तो दिवा न भूक्ते इत्यत्र च रात्रिभोजनं न लक्ष्यते"। तात्पर्य यह है कि- केवल प्रयोजन का होना ही उत्पादन का प्रयोजक नहीं है अर्थात उपादान-लक्षणा के लिए प्रयोजन का होना ही पर्याप्त नहीं है; अपितु बाधादि (मुख्यार्थ-बाधादि) के साथ प्रयोजन उपादान का प्रयोजक है। मुख्यार्थ-बाध, मुख्यार्थ-सम्बन्ध और प्रयोजन तीनों लक्षणा के हेतु हैं। दिन में नहीं खानेवाला भी मोटा देखा गया है। इस प्रकार दिन में भोजन नहीं करनेवाले व्यक्ति में (उलूकादि में भो) पीनत्व प्रत्यक्षरूप प्रमाणान्तर से सिद्ध होने के कारण पूर्वोक्त वाक्य के मुख्यार्थ में बाध (रुकावट) नहीं है। आपने जिस उत्कर्ष-प्रतीति को प्रयोजन बताया है; वह उत्कर्ष-प्रतीति भी यहां नहीं है। भोजनाभावसमानाधिकरण-पीनत्व की प्रतीति वस्तुत: उत्कर्ष की प्रयोजिका हो सकती है। भोजन न करे और फिर भी पीन (मोटा) बना रहे वह सचमुच उत्कृष्टत्व है। भोजन के अभाव के अधिकरण (आथय) व्यक्ति में पीनत्व की प्रतीति ही न्याय की शब्दावली में भोजनाभाव-समानाधिकरणपीनत्वप्रतीति कहलाती है। वह सचमुच उत्कृष्टता को (ब्रह्मचर्यादि तपोबल को) सूचित करती है किन्तु दिवा-भोजनाभाव-समानाधिकरण-पीनत्व उत्कर्ष का प्रयोजक नहीं है। १. 'काव्यप्रकाश:' इत्यर्थः । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः वयं तु-शक्यस्यापरपदार्थान्वयश्चेदुपादानताप्रयोजकस्तदा 'पीनो न भुङ्क्ते' इत्यत्र कथमुपादानलक्षणा 'कुन्ताः प्रविशन्ती'त्यत्र कुन्तस्य प्रवेशान्वयवत् पीनत्वस्य न भुङ्क्ते इत्यादावनन्वयादित्यत आह-पोनो इति । तथा च तत एवात्र नोपादानलक्षणेति व्याचक्ष्महे ।। .. केचित्तु व्यक्त्यविनाभाविवादित्यनेनान्यलभ्येन लक्षणेत्युक्तं तत्प्रपञ्च एवायमपि तेन क्रियता. मित्यत्र कर्ता, प्रविशेत्यादौ गृहमित्यादि, पीन इत्यत्र च रात्रिभोजनं यथा न लक्ष्यते, तथाऽत्रापि व्यक्तिर्न लक्ष्यत इत्यर्थ इति वदन्ति । वस्तुतो लक्षणलक्षणायां पीन इत्याद्यदाहरणं न सम्भवति, रात्रिभोजनस्यार्थापत्तिलभ्यत्वात् । अपि तु गङ्गायामित्याद्येवेत्युत्तरग्रन्थेनान्वय इत्यपि प्रतिभाति, श्रुतार्थापत्त रीति भट्टमतेऽर्थापत्तरिति दिन में नहीं खानेपर बहुत से प्राणी (चमगादड़-उलूक और कुछ मनुष्य भी) पीन देखे गये हैं । इसलिए दिवाभोजनाभाव के अधिकरण 1) देवदत्त में पीनत्व का रहना उत्कर्षाधायक नहीं माना जा सकता । इस प्रकार 'पीनोऽयं देवदत्तः' यहाँ न मुख्यार्थ-बाध है और न प्रयोजन; फिर उपादान लक्षणा कैसे.....? हम तो "पीनोऽयं देवदत्तः" में उपादान-लक्षणा न माननेवाले मम्मट के सम्बद्ध-सन्दर्भ की व्याख्या इस प्रकार करते हैं :-शक्य का अपर पदार्थ में अन्वय यदि उपादान-लक्षणा का प्रयोजक (कारण या जनक) है तब "पीनोऽयं देवदत्तः दिवा न भुङ्क्ते" में कैसे उपादान-लक्षणा हो सकती है ? (उपादान-लक्षणा के उदाहरण) कुन्ताः प्रविशन्ति में जैसे कुन्त का प्रवेश पदार्थ में अन्वय होता है; वैसे पीनत्व का "न भुङ्क्ते" पदार्थ में अन्वय नहीं होता; इसी तात्पर्य को दिखाते हुए कहते हैं—पीनो....."। इसी से यहाँ उपादान-लक्षणा नहीं है। किसी का मत किसी ने कहा है कि "व्यक्त्यविनाभावित्वात्" इससे यह बताया गया है कि अन्यलभ्य में लक्षणा नहीं होती है। जैसे 'पीनोऽयं देवदत्तो दिवा न भुङ्क्ते' यहां रात्रिभोजनरूप अर्थ आक्षेप या अनुमान लभ्य है इसलिए वहां लमणा नहीं होती। इसी प्रकार "गौरनुबन्ध्यः" में व्यक्ति भी आक्षेपलभ्य है; वहाँ लक्षणा नहीं होगी। उसी का प्रपञ्च (विस्तार से वर्णन)" क्रियतामित्यत्र कर्ता इत्यादि पङ्क्तियों में दिखाया गया है। तात्पर्य यह है कि जैसे क्रियताम् यहाँ कर्ता (त्वया), प्रविश यहाँ पर 'गृहम्' यह कर्म, पीनोऽयम् 'यहां रात्रि भोजन लक्षणा के द्वारा नहीं जाने जाते हैं; उसी तरह यहाँ (गौरनुबन्ध्यः) भी व्यक्ति को लक्ष्य (लक्षणा द्वारा प्रतिपाद्य) नहीं मानना चाहिए। वस्तुतः लक्षण-लक्षणा का 'पीनोऽयम्' इत्यादि उदाहरण नहीं हो सकता; क्योंकि रात्रि-भोजन रूप अर्थ यहाँ अर्थापत्ति से ही लभ्य है-उपस्थित हो जाता है। किन्तु "गङ्गायां घोषः” इत्यादि ही (लक्षण-लक्षणा का उदाहरण हो सकता है) इस उत्तर ग्रन्थ से (बाद में आने वाले सन्दर्भ से) उसका अन्वय है यह (मुझे) प्रतीत होता है। "पीनोऽयं देवदत्तः" यह तो श्र तार्थापत्ति का विषय है। इसका तात्पर्य स्पष्ट करते हुए टीकाकार लिखते हैं कि 'पूर्वोक्त उदाहरण में भट्ट (कुमारिल भट्ट) श्रु तार्थापत्ति मानते हैं और गुरु (प्रभाकर) अर्थापत्ति मानते हैं । सुने हुए शब्द से अन्वय की उपपत्ति न होने पर जहाँ शब्द की कल्पना की जाती है; वहाँ श्रुतार्थापत्ति मानी जाती है । (अनुपपद्यमान अर्थ से) जहाँ (उपपद्यमान) अर्थमात्र की कल्पना की जाती है; वहाँ अर्थार्थापत्ति होती है। विशेष मीमांसक प्रत्यक्ष अनुमान आदि प्रमाणों के समान अर्थापत्ति को भी अलग प्रमाण मानते हैं । अर्थापत्ति का लक्षण वे इस प्रकार करते हैं "अनुपपद्यमानार्थ-दर्शनात् तदुपपादकीभूतार्थान्तरकल्पनम् ।” तात्पर्य यह है कि अनुपपद्यमान अर्थ को देखकर उसके उपपादक अर्थ की कल्पना जिस प्रमाण से की जाती है, उसे अर्थापत्ति कहते हैं । जैसे "पीनोऽयं देवदत्तो दिवा न भूक्ते" यहाँ देवदत्त मोटा है, किन्तु दिन में नहीं खाता है यह अनुपपद्यमान अर्थ है, इस लिए उसके उपपादक अर्थ रात्रि भोजन का यहाँ आक्षेप किया जाता है। इस प्रकार अनुपपद्यमान अर्थ-दिन में न Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ काव्यप्रकाशः 'गङ्गायां घोष:' इत्यत्र तटस्य घोषाधिकरणत्वसिद्धये गङ्गाशब्दः स्वार्थमर्पयति इत्येवमादौ लक्षणेनैषा लक्षणा । गुरुमते । श्रुतशब्दादन्वयानुपपत्तौ शब्दकल्पनं श्रुतार्थापत्तिः, अर्थमात्रकल्पनंमर्थापत्तिः । लक्षणलक्षणामुदाहरति-- गङ्गायामिति । ननु शक्यानुपस्थापकलक्षणात्वस्य लक्षणलक्षणालक्षणत्वे गौर्नित्येत्यत्राव्याप्तिः तत्र लक्षणया गोरवच्छेदकतयोपस्थापनाद् अपरपदार्थानन्वयिशक्योखानेवाले देवदत्त के मोटापन को देखकर उसके उपपादक अर्थ - रात्रि भोजन की कल्पना अर्थापत्ति के द्वारा हुई | क्योंकि दिन में न खाने वाला व्यक्ति बिना रात्रि भोजन के मोटा नहीं रह सकता । अर्थापत्ति के दो भेद होते हैं- १. श्रुतार्थापत्ति और २. दृष्टार्थापत्ति । जहाँ अन्य के मुख से अनुपपद्यमान अर्थ को सुनकर उसके उपपादक अर्थ की कल्पना की जाती है, वहाँ श्रुतार्थापत्ति होती है । जहां अनुपपद्यमान अर्थ को स्वयं आँखों से देखकर उसके उपपादक अर्थ की कल्पना की जाती है; दृष्टार्थापत्ति मानी जाती है। मम्मट ने 'दृष्टार्थापत्ति' के स्थान पर अर्थार्थापत्ति का प्रयोग किया है। टीकाकार (श्री १०८ यशोविजय जी महाराज ने अर्थापत्ति ही लिखा है। शायद एक "र्था" लिखते समय रह गया हो ! अर्थार्थापत्ति पक्ष में रात्रिभोजनरूप अर्थ का ज्ञान बिना रात्रिभोजन रूप अर्थ के आक्षेप से होता है। किन्तु श्रुतार्थापत्ति में यहां इस शब्द के अध्याहार से होता है । इसी बात को टीकाकार ने लिखा है - श्रुतशब्दादन्वयानुपपत्तौ शब्दकल्पनं श्रुतार्थापत्तिः अर्थमात्रकल्पनमर्थापत्तिः । ( हिन्दी अर्थ पहले लिखा गया है) लक्षरण लक्षरणा का उदाहरण 'गङ्गायां घोष:' इत्यादि (वृत्ति का अर्थ ) - 'गङ्गायां घोष:' इसमें (वाक्य के भीतर प्रयुक्त) घोष के अधिकरणत्व की सिद्धि के लिये 'गङ्गा' शब्द अपने जलप्रवाहरूप मुख्य अर्थ का परित्याग कर देता है, इसलिये इस प्रकार के उदाहरणों में यह 'लक्षण लक्षणा' होती है। यह दोनों प्रकार की लक्षणा उपचार से मिश्रित न होने के कारण शुद्धा है । लक्षण-लक्षणा का उदाहरण देते हैं: - " गङ्गायां घोषः " । लक्षण-लक्षणा किसे कहते हैं ? यदि शक्य अर्थ "गौनित्या" "गाय नित्य है' यहां अव्याप्ति - दोष गो रूप शक्यार्थ ( गोत्व जाति) की अवच्छेदक के की उपस्थिति नहीं करानेवाली लक्षणा को लक्षण-लक्षणा मानें तो हो जायगा क्योंकि यहाँ सभी लक्षण लक्षणा मानते हैं परन्तु यहाँ रूप में उपस्थिति पायी जाती है । "रात्रौ भुङ्क्ते" शब्द के अध्याहार के साक्षात् रात्रिरूप भोजन का ज्ञान "रात्रौ भुङ्क्ते" यदि यह कहें कि और पदार्थ के साथ अन्वय न प्राप्त किये हुए शक्य की उपस्थापिका लक्षणा लक्षणलक्षणा है "अपरपदार्थानन्वयिशक्योपस्थापकत्वं लक्षणलक्षणात्वम्" तो 'गङ्गायां घोष:' यहां अव्याप्ति-दोष हो जायगा; क्योंकि यहाँ गङ्गारूप शक्य की उपस्थिति लक्षणा से नहीं होती है । "अपरपदार्थान्वयिशक्यानुपस्थापकत्वं लक्षणलक्षणात्वम्" यह लक्षण तो सिद्धि और असिद्धि दोषों से दूषित है । लक्षण का लक्षण यदि अपर पदार्थ से अन्वित शक्यानुपस्थापकत्व को मानें तो यह लक्षण सिद्धि और असिद्धि दोष से दूषित होगा । क्योंकि "गङ्गायां घोष" में तटमात्र के लक्ष्यार्थं होने के कारण लक्षण समन्वय हो जाने से लक्षण में सिद्धि और "काकेभ्यो दधि रक्ष्यताम् " में अन्य दध्युपघातक प्राणिसम्वलित काकरूप शक्यार्थ की उपस्थिति होने के कारण लक्षण समन्वय न होने से लक्षणा में असिद्धि आयेगी । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लास : उभयरूपा चेयं शुद्धा । उपचारेणामिश्रितत्वात् । पस्थापकत्वं च 'गङ्गायां घोष' इत्यत्राव्याप्तम्, तत्र गङ्गाया लक्षणयाऽनुपस्थापनात्, अपरपदार्थान्वयिशक्यानुपस्थापकत्वस्य च सिद्धयसिद्धिपराहतत्वादित्यत आह-तटस्येति, तथा चोपादानलक्षणायां शक्यस्यापरपदार्थान्वयसिद्धिः, अत्र तु लक्ष्यमात्रस्य सेति, अपरपदार्थान्वयिशक्योपस्थापकभिन्न लक्षणात्वं तल्लक्षणमिति भावः । स्वार्थं स्वशक्यम् अर्पयति त्यजतीति अन्वर्थतां संज्ञायाः प्राह - लक्षणेनेति । उपलक्षणेनेत्यर्थः । शुद्धैव द्विधेति व्याचष्टे, उभयरूपा चेयं शुद्धेति । ७३ उपचारः सादृश्यसम्बन्धेन प्रवृत्तिः । नन्वत्र कः शुद्धपदार्थः ? न तावत् सादृश्यान्वयासम्बन्धत्वम् उपचारामिश्रत्वस्य सादृश्यसम्बन्धभिन्नत्वार्थकत्वेन हेतोः साध्याविशेषप्रसङ्गात् नापि शुद्धपदवाच्यत्वं तदर्थः, इतरव्यवच्छेदरूपैवकारार्थस्य तत्रान्वये शुद्धपदान्यवाच्यत्वव्यवच्छेदस्य साध्यतायां बाधादुपादान इसीलिए कहते हैं 'तटस्थ' । इस प्रकार उपादन लक्षणा में शक्य (अर्थ) के अपर पदार्थ ( कुन्ताः प्रविशन्ति " में प्रवेश पदार्थ ) के साथ अन्वय की सिद्धि होती है । अत्र यहाँ लक्षण लक्षणा में' तो लक्ष्यमात्र की ( तट की ) अपर पदार्थ (क्रियादि पदार्थ जैसे 'गङ्गायां घोष:' में घोष पदार्थ ) के साथ अन्वय की सिद्धि होती है । अर्थात् जहाँ उपादान•लक्षणा में शक्य भी अपरपदार्थ के साथ अन्वित होता है वहीं लक्षण-लक्षणा में केवल लक्ष्यार्थ ही अन्य पदार्थ के साथ अन्वय प्राप्त करता है । इस तरह 'लक्षण- लक्षणा' का लक्षण होगा - अपर-पदार्थान्वयि शक्योपस्थापक- भिन्नलक्षणात्वम्" अर्थात् अन्य पदार्थों के साथ अन्वय के योग्य शक्यार्थ की उपस्थिति करानेवाली लक्षणा से भिन्न लक्षणा को लक्षण- लक्षणा कहते हैं । लक्षण - लक्षणा की अन्वर्थता बताते हुए लिखते हैं- 'लक्षण लक्षणा' यह नाम इसके गुण के अनुसार पड़ा है। इस लक्षणा में शब्द अपने (मुख्य) अर्थ को छोड़ देता है, अपने आप को समर्पित कर देता है । शब्द का स्वार्थ लक्षणार्थ का उपलक्षण बन जाता है । अतः उपलक्षण हेतुक लक्षणा होने के कारण इसे यह नाम दिया गया है । उपादान-लक्षणा और लक्षण लक्षणा भेद से शुद्धा (लक्षणा ) ही दो प्रकार की होती है । गौणी (लक्षणा ) के ये भेद नहीं होते हैं । शुद्धा लक्षणा ही दो प्रकार की होती है, यह बात वृत्ति में इस तरह बतायी गयी है "उभयरूपा चेयं शुद्धा ।" यह दोनों प्रकार की लक्षणा शुद्धा इसलिए कहलाती है कि यह उपचार से मिश्रित नहीं है। जहां मिलावट न हो उसे शुद्ध कहते ही हैं । गौणी लक्षणा में उपचार का मिश्रण रहता है और शुद्धा में उपचार का अमिश्रण । “सादृश्यसम्बन्धेन प्रवृत्तिः उपचार : " साध्श्य सम्बन्ध से (शब्द की ) प्रवृत्ति को उपचार कहते हैं । जैसे किसी बालक में अत्यन्त शौर्य को देखकर जब कहते हैं "सिंहो माणवक:" तब सिंह शब्द की प्रवृत्ति (प्रयोग) बालक में जो हुई है उसका कारण सादृश्य है । उपचार मूलक यह प्रयोग गौण होता है; मुख्य नहीं, इसीलिए एतन्मूलक लक्षणा को गौणी कहते हैं । शुद्धा-लक्षणा में शुद्ध पदार्थ क्या है ? ऐसा नहीं कहा जा सकता, क्यों कि सादृश्यान्वय से असम्बद्ध होना ही यहां शुद्धता है; अर्थात् गोणी-लक्षणा सादृश्य-सम्बन्ध से होती है, इसलिए वह सादृश्य-सम्बन्ध से अन्वित ( मिश्रित) रहती है; इसलिए उसमें शुद्धता नहीं है। क्योंकि यदि यहाँ अनुमान करें तो उसका आकार होगा "इदं सादृश्यसम्बन्धभिन्नार्थकम् उपचारामिश्रितत्वाद् यन्नैवं तन्नैवं यथा अग्निर्माणवकः इत्यादि गौणीलक्षणा" । यह "कुन्ताः प्रविशन्ति " १. लक्षणलक्षणा । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ काव्यप्रकाशः wwwmammmmmmmmmaan पदवाच्यत्वस्यापि तत्र सत्त्वात्, अत एव शुद्धत्व-व्यवहारमात्रविषयत्वं साध्यमिति प्रत्युक्तं लक्षणोपादानत्वव्यवहारमात्रविषयत्वस्यापि तत्र सत्त्वात् । न च वृत्तावेवकारानुपादानाच्छुद्धपदवाच्यत्वमात्र साध्यमिति वाच्यं, सारोपादिसाधारणशुद्धपदवाच्यत्वसाधने विवक्षितार्थासिद्धेः, गोण्यामेतप्रभेदद्वयाभावस्य सिषाधयिषितत्वात् । न च गौणीभिन्नत्वेन व्यवहर्तव्यत्वं, शुद्वपदार्थत्वम्, एवकारस्याविवक्षितत्वेन वृत्तौ तदनुपादानं चेति वाच्यम्, सारोपसाध्यवसानयोरपि साध्यसत्त्वेन तत्साधारण्यसाधने विवक्षितार्थासिद्धेरिति । अत्र ब्रमः-गौणीपदवाच्यभिन्नत्वव्याप्यलक्षणाविभाजकोपाधिमत्त्वरूपं शुद्धत्वमत्र साध्यम् । न च शुद्धसारोपसाध्यवसानयोः सादृश्यसम्बन्धेनाप्रवृत्तत्वरूपोपचारामिश्रितत्वस्य हेतोः सत्त्वेन साध्यस्य में जो लक्षणा है वह सादृश्य-सम्बन्ध से भिन्नार्थक है, उपचार से अमिश्रित होने के कारण । जो ऐसा नहीं है; वह ऐसा नहीं है जैसे गौणी-लक्षणा के 'अग्निर्माणवकः' इत्यादि उदाहरणों में। ऐसा अनुमान इसलिए उचित नहीं होगा कि इसमें उपचारामिश्रितत्वरूप हेतु और सादृश्य-सम्बन्ध-भिन्नार्थकत्वरूप साध्य दोनों एक जैसे ही हैं। . ऐसा भी नहीं मान सकते हैं कि-शुद्ध पदवाच्यत्व ही वहाँ शुद्धपदार्थ है अर्थात् 'कुन्ताः प्रविशन्ति" । इत्यादि लक्षणा 'शुद्धा' लक्षणा कही जाती है । 'शुद्धा' शब्द का प्रयोग होना ही प्रमाणित करता है कि इस लक्षणा में शुद्धात्व है । ऐसा कहना इसलिए ठीक नहीं होगा कि “शुद्धव सा द्विधा" यहाँ ग्रन्थकारने 'एव' शब्द का प्रयोग किया है। 'एव' शब्द अपने स्वभाव के कारण "इतरव्यवच्छेद" करता है। जैसे 'राम एव गच्छति' यहाँ 'एव' शब्द राम से इतर (अन्य) का व्यवच्छेद करता है अर्थात बताता है कि राम से भिन्न व्यक्ति नहीं जा रहा है किन्तु राम ही जा रहा है । इस तरह 'शुद्धव' में लगा हुआ 'एव' भी शुद्ध-पदान्यवाच्यत्व का निषेध करेगा। “एव" शब्द से यह अर्थ होगा कि "कुन्ताः प्रवशन्ति" में जो लक्षणा है; वह शुद्ध पद से अन्य किसी पद से वाच्य नहीं है । परन्तु ऐसा मानना अयुक्त है-अयोग्य है-गलत है क्योंकि 'कुन्ताः प्रवशन्ति' में जो लक्षणा है वह शुद्ध पद से अन्य पद उपादान पद से भी वाच्य है। इसलिए 'शुद्धा' लक्षणा में श्रद्धा पदार्थ शुद्धपद वाच्यत्व नहीं हो सकता । अतएव इस लक्षणा को केवल शुद्ध शब्द से अभिहित नहीं किया गया है। क्योंकि यह लक्षणा शुद्धत्व व्यवहार मात्र का विषय नहीं है। वृत्ति में 'एव' शब्द का उल्लेख नहीं है। इसलिए शुद्ध पदवाच्यत्वमात्र साध्य है, न कि शुद्धपदान्यपदवाच्यत्वाभाव । अर्थात् 'एव' शब्द का प्रयोग वृत्ति में नहीं है इसलिए "कुन्ताः प्रवशन्ति" इत्यादि स्थल की लक्षणा शुद्ध पदवाच्य है यही हमें सिद्ध करना है । हम यह सिद्ध नहीं करेंगे कि पूर्वोक्त उदाहरण में जो लक्षणा है वह शुद्ध पद से अन्य किसी पद का वाच्य नहीं है। इसलिए यदि यहां की लक्षणा शुद्ध पद से अतिरिक्त पद-उपादान पद-का भी वाच्य है, तो रहे। इस प्रकार शुद्ध का अर्थ हुआ शुद्धपदवाच्य, यह भी नहीं कहा जा सकता; क्योंकि सारोपादि पदवाच्यत्व के साथ-साथ यदि शुद्ध पद वाच्यत्व की सिद्धि करें तो इस साधन में सारोपादि साधारण शुद्धवाच्यत्व की सिद्धि होगी । ऐसी स्थिति में जो अर्थ विवक्षित है; वह असिद्ध ही रह जायगा। गौणी में सारोपा और साध्यवसाना इन दोनों भेदों का अभाव सिद्ध करना ही अभीष्ट है। तात्पर्य यह है कि शुद्ध पदवाच्यत्व का उदाहरणस्थल ऐसा होना चाहिए जो केवल शुद्ध पद का वाच्य हो । यदि शुद्ध पदवाच्यत्व के उदाहरण में उपादान पद का वाच्यत्व भी हो, और सारोपा पद का वाच्यत्व भी हो तो उसे शुद्ध कैसे माना जाय ? गौणी से भिन्न रूप में व्यवहार की योग्यता रखना ही शुद्धा लक्षणा की शुद्धता है । अर्थात् जिस लक्षणा को लोग गौणी लक्षणा नहीं मानते हों उसे शुद्धा कहते हैं (गौणी से भिन्न लक्षणा ही शुद्धा है) मूल कारिका में (कथित) 'एव' शब्द की विवक्षा नहीं है इसीलिए वृत्ति में 'एव' शब्द का उल्लेख नहीं किया गया है । यह कथन Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लास: ७५ चासत्त्वेन व्यभिचार इति वाच्यम्, सादृश्यसम्बन्धनिबन्धनप्रवृत्तिकावृत्तिलक्षणाविभाजकोपाधिमत्त्वस्योपचारामिश्रगपदेनोक्तत्वादित्यवधेयम् । तटस्थत्वमेव गौणीत उपादान(लक्षण)लक्षणयोर्भेदकम्, न तूपचारामिश्रत्वमिति मतं निराकरोति अनयोरिति । अनयोरुपादान(लक्षण)लक्षणयोर्भेदो रूप्यतेऽनेनेति भेदरूपं भेदकं वैधर्म्यरूपं वा लक्ष्यस्य लक्षणाप्रतिपाद्यस्य लक्षकस्य अभिधाप्रतिपाद्यस्य च ताटस्थ्यं में भी ठीक नहीं है क्योंकि सारोपा साध्यवासना में भी साध्य के रहने के कारण सारोपा साध्यवासना उभयसाधारणशुद्धत्व के साधन में विवक्षित अर्थ की सिद्धि नहीं होती। इस वाक्य में हम कहते हैं कि “गौणीपदवाच्यभिन्नत्वव्याप्यलक्षणाविभाजकोपाधिमत्त्वरूपं शुद्धात्वमत्र साध्यम्" अर्थात् गोणीपद का जो वाच्य उससे भिन्नत्व जहाँ-जहाँ है; उनमें रहनेवाली जो लक्षणा विभाजक उपाधि है उस उपाधि से युक्तत्व ही शुद्धात्व यहाँ साध्यत्वेन अभीष्ट है। "अग्निर्माणवकः" इत्यादि गोणी लक्षणा के उदाहरणों में सादृश्य सम्बंध से लक्षणा है, इसलिए गौणी पद वाच्य है सादृश्य सम्बन्ध से भिन्नत्व वहाँ रहेगा; जहाँ सादृश्य सम्बन्ध नहीं है। इस तरह गोणीपद वाच्यभिन्नत्व हुआ सादृश्येतर सम्बन्ध है, वहां जो लक्षणा विभाजक उपाधि होगी, वह गौणी से भिन्न होगी, उस उपाधि से युक्त होना ही शुद्धा लक्षणा है। , प्रश्न-यद्यपि शुद्ध सारोपा और शुद्ध साध्यवासना में सादृश्य सम्बन्ध से अप्रवृत्त होने के कारण उपचार नहीं होने से उपचारामिश्रितत्वरूप हेतु तो है किन्तु साध्य नहीं है। इसलिए साध्याभाव के अधिकरण में विद्यमान होने के कारण हेतु को व्यभिचारी माना जायगा तथापि उपचारामिश्रण का विशेष तात्पर्य लेने पर कोई दोष न होगा। उपचारामिश्रण का तात्पर्य यदि 'सादृश्य-सम्बन्ध-निबन्धन-प्रवृत्तिकावृत्तिलक्षणा-विभाजकोपाधिमत्त्व' लें तो दोष नहीं होगा। क्योंकि सादृश्यसम्बन्ध को निमित्त बनाकर प्रवृत्त होनेवाली लक्षणा में नहीं रहनेवाली लक्षणाविभाजक उपाधि शुद्धसारोपा और शुद्ध साध्यवसाना में नहीं है। तटस्थत्व ही गौणी से उपादान-लक्षणा और लक्षण-लक्षणा को भिन्न करता है, उपचारामिश्रितत्व नहीं। इस मत का खण्डन करते हुए लिखते हैं कि 'अनयोः" । अर्थात् इन दोनों उपादान-लक्षणा और लक्षण लक्षणा में भेदक अथवा पार्थक्यसाधक या वैधर्म्य, लक्ष्य अर्थात् लक्षणा-प्रतिपाद्य अर्थ और लक्षक अर्थात अभिधाप्रतिपाद्य के बीच रहनेवाला ताटस्थ्य नहीं है । भेदरूप का अर्थभेदक है क्योंकि "भेदो रूप्यतेऽनेन इति भेदरूपम्" इस विग्रह के अनुसार भेद को रूप देनेवाला भेदरूप या भेदक सिद्ध होता है। भेद लानेवाला वैधर्म्य भी होता है इसलिए भेदरूप का अर्थ वैधर्म्यरूप भी होगा। तात्पर्य यह है कि मम्मटाचार्य के मतानुसार शुद्धा लक्षणा उपचार से अमिश्रित होती है और गौणी उपचार से मिश्रित । 'उपचार' का लक्षण है "उपचारो नाम अत्यन्तं विशकलितयोः पदार्थयोः सादृश्यातिशयमहिम्ना भेदप्रतीतिस्थगनमात्रम्" अत्यन्त भिन्न दो पदार्थों में अतिशय सादश्य के कारण उनके भेद की प्रतीति का न होना ही उपचार कहलाता है। "अग्निर्माणवकः" यहां "अग्नि और माणवक" अत्यन्त भिन्न पदार्थ हैं ? कहाँ आग और कहाँ बालक? परन्तु तेजस्विता और प्रताप आदि अतिशय सादृश्य के कारण "अग्नि: माणवकः" यहाँ भेद की प्रतीति नहीं हो रही है। इसीलिए दोनों में समान-विभक्ति का प्रयोग किया गया है। ऊपर दिये गये उदाहरण में उपचार का मिश्रण है इसलिए गौणी लक्षणा है "गङ्गायां घोषः" इत्यादि में सादृश्य से अतिरिक्त सामीप्यादि-सम्बन्ध से लक्षणा है। इसलिए यहां शुद्धा लक्षणा है। इस तरह मम्मट के विचार से “उपचार" ही शुद्धा और गौणी का परस्पर भेदक है । उपचार का मिश्रण लक्षणा और गोणी बनाता है और उसका अमिश्रण शुद्धा। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ काव्यप्रकाशः अनयोर्लक्ष्यस्य लक्षकस्य च न भेदरूपं ताटस्थ्यम् । तटादीनां हि गङ्गादिशब्दैः प्रतिपादने तत्त्वप्रतिपत्तौ हि प्रतिपिपादियिषितप्रयोजनसम्प्रत्ययः । 'गङ्गासम्बन्धमात्रप्रतीतौ तु 'गङ्गातटे घोष:' इति मुख्यशब्दाभिधानाल्लक्षणायाः को भेदः ? भानं नेत्यर्थः । अत्र हेतुमाह-तटादीनामिति । प्रतिपादन इति सति सप्तमी, तत्त्वप्रतिपत्ताविति निमित्तसप्तमी, तेन तत्प्रतिपत्त्यर्थं गङ्गात्वेन तीरप्रतिपत्त्यर्थम् । शुद्धा तथा गौणी विषयक मुकुल भट्ट का मत मुकुल भट्ट ने 'उपचार' को शुद्धा और गौणी का भेदक धर्म नहीं माना है। उनका कहना है कि उपचार का मिश्रण शुद्धा में भी होता है और गोणी में भी । इसलिए उन्होंने उपचारमिश्रा लक्षणा के पहले दो भेद किये हैं: — शुद्धोपचार और गौणोपचार । बाद में इन दोनों के दो भेद किये हैं—सारोपा और साध्यवसाना । इस प्रकार उपचार मिश्रा लक्षणा के चार भेद और शुद्धा लक्षणा के उपादान लक्षणा और लक्षण लक्षणा दो भेद करके उन्होंने लक्षणा के कुल मिलाकर ६ भेद किये हैं। मुकुल भट्ट ने उपचार का अर्थ किया है अन्य के लिए अन्य का प्रयोग । जहाँ अन्य के लिए अन्य शब्द का प्रयोग सादृश्य के कारण होता है; वहाँ गौणोपचार होता है। जहाँ सादृश्य से भिन्न समय आदि सम्बन्ध के कारण अन्य के लिए अन्य अर्थ के वाचक शब्द का प्रयोग होता है; वहाँ शुद्धोपचार होता है जैसे “गङ्गायां घोषः” में सामीप्य सम्बन्ध के कारण तट अर्थ के लिए प्रवाह अर्थ वाचक गङ्गा शब्द का प्रयोग हुआ है । मुकुल भट्ट ने 'उपचार' को शुद्धा और गौणी लक्षणा का भेदक धर्म न मानकर 'ताटस्थ्य' को अर्थात् लक्ष्यार्थं और लक्षकार्थ के भेद को शुद्धा और गौणी का भेदक धर्म माना है। मुकुल भट्ट मानते हैं कि गौणी लक्षणा में सादृश्यातिशय के कारण लक्ष्य और लक्षक में अभेद प्रतीत होता है; जैसे "गौर्वाहीकः" में गो और वाहीक अर्थों में अभेद प्रतीत होता है । शुद्धा लक्षणा में अर्थात् उपादान- लक्षणा और लक्षण लक्षणा में लक्ष्य और लक्षक में अभेद नहीं; अपितु 'ताटस्थ्य' भेद प्रतीत होता है; जैसे उपादान- लक्षणा के उदाहरण 'कुन्ताः प्रविशन्ति' और लक्षणा के उदाहरण “गङ्गायां घोषः” में लक्ष्य पुरुष तथा तट और लक्षक कुन्त और गङ्गा में अभेद नहीं, किन्तु भेदरूप ताटस्थ्य ही प्रतीत होता है तभी तो अर्थ होता है “कुन्तधारिणः पुरुषाः प्रविशन्ति" और "गङ्गातटे घोष:" यह मुकुल भट्ट का मत है । इसलिए उनका कथन है- "तटस्थे लक्षणा शुद्धा" शुद्धा लक्षणा तटस्थ में होती है । ऊपर की पङ्क्तियों (अनयोर्लक्ष्यस्य लक्षकस्य च" इत्यादि) में मम्मट ने मुकुल भट्ट के 'ताटस्थ्य'- सिद्धान्त का खण्डन किया है । टीकाकार ने वृत्ति के इसी तात्पर्य को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि अभिधा प्रतिपाद्य लक्षक (गङ्गा-प्रवाह ) और लक्षणा प्रतिपाद्य लक्ष्य (तीर) में भेदरूप ताटस्थ्य नहीं है। इसमें कारण बताते हुए लिखते है कि "तटादीनाम्" । पूर्वोक्त पंक्ति में "प्रतिपादने" यहाँ "सति सप्तमी" है और 'तत्त्वप्रतिपत्ती' में निमित्त सप्तमी है । "तेन तत्प्रतिपत्त्यर्थम् " का अर्थ है गङ्गात्वेन तीर की प्रतिपत्ति ( ज्ञान ) के लिए । 'अनयोर्लक्ष्यस्य' इत्यादि वृत्ति का अर्थ - लक्षण-लक्षणा वृत्ति का शब्दानुसारी अर्थ इस प्रकार है - शुद्धलक्षणा के उपादान लक्षणा तथा नामक इन भेदों में लक्ष्य (अर्थ) और लक्षक (अर्थ) का भेद - प्रतीतिरूप ताटस्थ्य नहीं माना जा सकता; क्योंकि (लक्ष्यरूप) तट आदि अर्थों का गङ्गा आदि शब्दों से प्रतिपादन होने पर ही गङ्गात्वप्रतिपत्तिनिमित्तक अथवा लक्ष्य और लक्षक में अभेदप्रतिपत्तिनिमित्तक शीतत्वातिशयादि जैसे अभीष्ट प्रयोजनों की प्रतीति हो सकती है। इसलिए गङ्गावेन तीर की प्रतीति के लिए यहां लक्ष्यार्थ और लक्षकार्थ के बीच भेदरूपताटस्थ्य नहीं माना जा सकता । Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः ७७ ___ ननु गङ्गाशब्देन तटादिप्रतिपादने गङ्गासम्बन्धित्वेनैव तद् भासते न तु पूरत्वेनैवेत्यत आहगङ्गासम्बन्धमात्रेति । तथा च सम्बन्धमात्रप्रतीतो न शैत्यादिप्रत्ययोऽपि तु लक्ष्यस्य शक्याभिन्नतयैव प्रतीताविति तादृशप्रत्ययोत्पादकत्वेन भवति लक्षणाया उपयोग इति भाव इति प्रदीपकृत्प्रभृतयः । वयं तु. 'स्वसिद्धये पराक्षेप' इति कारिकायाः कस्यचिद् व्याख्यानं दूषयति--अनयोरिति । अनयोर्भेदयोरुपादान(लक्षण)लक्षणयोर्लक्ष्यस्य लक्षकस्य च लक्षणलक्षणायां भेदरूपं विशेषणविशेष्यभावेन लाक्षणिकपदजन्यपदार्थोपस्थितिविषयताश्रयभिन्नत्वम, उपादानलक्षणायां ताटस्थ्यं तदौदासीन्यं "विशेषणविशेष्यभावेन न लाक्षणिकपदाजन्य(पदजन्य)पदार्थोपस्थिति-विषयताश्रय-भिन्नत्वमिति” नेत्यर्थः । तथा च स्वस्य शक्यस्य सिद्धये प्रकारतार्थं परार्थस्याशक्यस्य प्रकारिण आक्षेपः, उपस्थापनम् उपादानं परार्थेऽशक्ये स्वस्य शक्यस्य समर्पणं प्रकारत्वपरित्यागो लक्षणलक्षणेति न कारिकार्थ इति भावः । काकेभ्य यदि लक्ष्यार्थ तट में गङ्गात्व अथवा गङ्गा शब्द के मुख्यार्थ जलप्रवाह के साथ अभेद प्रतीत न होकर केवल गङ्गा का सम्बन्ध मात्र प्रतीत हो तो 'गङ्गातटे घोषः' इस मुख्यार्थ प्रतिपादक वाक्य से "गङ्गायां घोषः" इस लक्ष्यार्थ प्रति.. पादक वाक्य का क्या भेद रहेगा ? 'ननु गङ्गादि शब्देन' इत्यादि (टीकार्थ) गङ्गा शब्द से तटादि का प्रतिपादन तटादि की प्रतीति गङ्गा से सामीप्य सम्बन्ध रखने के कारण "गङ्गा के के किनारे घोष है" इस रूप में ही होगी पूरत्वेन तो होगी नहीं, अर्थात् पूर और घोष का आधार तट एक है इस रूप में नहीं होगी, इसका खण्डन करते हुए लिखते हैं कि "सम्बन्धमात्र प्रतीतो" अर्थात् सम्बन्ध-मात्र प्रतीत होने पर "गङ्गातटे घोषः" इस वाक्य से 'गङ्गायां घोषः' इस वाक्य में कोई भेद नहीं आएगा। इस तरह जिस शीतत्वातिशय प्रतीति के लिए लक्षणा करते हैं उसकी प्रतीति ही नहीं होगी । लक्ष्य (तटादि) की शक्य (प्रवाहादि) के रूप में अभेद-प्रतीति होने पर ही उस प्रकार की (शैत्यातिशय की) प्रतीति होती है। इसलिए शक्य और लक्ष्य की अभेद प्रतीति स्वीकार करने पर ही लक्षणा का उपयोग होता है। प्रदीपकारादि टीकाकारों ने मम्मट के ग्रन्थ का यह पूर्वोक्त अभिप्राय बताया है। टीकाकार का मत . मेरे विचार में तो मम्मट ने इन पङ्क्तियों में "स्वसिद्धये पराक्षेपः" इस कारिका की किसी अन्य के द्वारा की गयी व्याख्या को दूषित बताया है । इस तरह पूर्वोक्त पङ्क्ति का अक्षरार्थ इस प्रकार सिद्ध होता है । "उपादानलक्षणा और लक्षण-लक्षणा नामक इन दोनों भेदों में लक्ष्य और लक्षक (अर्थों) के बीच लक्षण- लक्षणा में भेदरूप (ता) नहीं है । यहां 'भेदरूपम्' का अर्थ है विशेषण और विशेष्यभाव से लाक्षणिक पद से जन्य जो पदार्थोपस्थिति, उसकी विषयता का जो आश्रय, तभिन्नत्व । उपादान-लक्षणा में जो ताटस्थ्य कहा गया है, उसका अर्थ है तदौदासीन्य । विशेषण-विशेष्यभाव से लाक्षणिकपदाजन्य-पदार्थोपस्थिति-विषयताश्रयभिन्नत्व का होना ही ताटस्थ्य है या तदौदासीन्य है। परन्तु यहाँ लक्षण-लक्षणा,में पूर्वोक्त भेदरूपता नहीं है और उपादान-लक्षणा में पूर्वोक्त, 'ताटस्थ्य' नहीं है। . इस तरह कारिका की व्याख्या होगी कि-स्वस्य शक्यस्य अर्थात शक्यार्थ की सिद्धि के लिए-प्रकारताविशेषणता की सिद्धि के लिये, परार्थस्य-अशक्यार्थ का (विशेष्य का) आक्षेप उपादान-लक्षणा कहलाता है। परार्थ (अशक्यार्थ) में स्वस्य (अपना अर्थात् शवयार्थ का) समर्पण विशेषणरूप में अन्वय का परित्याग लक्षण-लक्षणा कहलाता है इस प्रकार का अर्थ कारिका का नहीं है। "काकेभ्यो दधि रक्ष्यताम्" यहाँ लक्षण-लक्षणा की, और गौनित्या यहाँ उपादानलक्षणा की प्रसक्ति को को इष्टापत्ति मानकर शंका करना सम्भव नहीं है। तात्पर्य यह है कि कारिका की पूर्वोक्त व्याख्या के अनुसार Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशः इत्यत्र लक्षण(लक्षणा)प्रसङ्गस्य गौनित्येत्यत्र चोपादानत्वप्रसङ्गस्य चेष्टापत्त्या शङ्कितुमशक्यत्वात् तमुपेक्ष्य दूषणान्तरमाह-तटादीनां गङ्गादिशब्दै रिति । तथा च गङ्गायां घोषः कुन्ताः प्रविशन्तीत्यादौ तटस्य पुरुषस्य च गङ्गात्वेन कुन्तत्वेनैव प्रतीतिः न तु तटत्वेन कुन्तधरत्वेन वा, येनैकत्र शक्यस्याप्रकारत्वम् अपरत्र च प्रकारत्वमिति तयोर्भेदं इत्यास्थेयमिति भावः । तत्त्वेन गङ्गात्वादिनैव प्रतीतिरिति । स्वमते उपष्टम्भिकां युक्तिमाह-प्रतिपिपादयिषितेति । प्रयोजनमेकत्र शैत्यपावनत्वादिकम्, अपरत्राविदग्धत्वादिकम् । नन्वेवं लाक्षणिकपदस्यो(जन्यो)पस्थितौ शक्यतावच्छेदकभान एव यदि प्रयोजनप्रत्ययस्तदोपादाने' तदस्त्येव कुन्तधरत्वेनोपस्थितेरपि विशिष्टवैशिष्ट्यावगाहितया कुन्तरूपविशेषणे शक्यतावच्छेदककुन्तत्वभानावश्यकत्वाद् लक्षणलक्षणायामपि गङ्गातीरत्वेन तद्भानमस्तु, तथा सति तोरविशेषणीभूतगङ्गापदार्थे शक्यतावच्छेदकभानात् प्रयोजनप्रत्ययोऽक्षुण्ण एवेत्यत आह-गङ्गासम्बन्धेति। गङ्गादिसम्बन्धेत्यर्थः, तथा च तीरपुरुषयोर्गङ्गाकुन्ताऽभेदप्रतीतावेव शैत्यशूरत्वप्रत्ययो न तु तीरपुरुष "काकेभ्यो दधि रक्ष्यताम्" इस उपादान-लक्षणा के उदाहरण में यदि लक्षण-लक्षणा की प्रसक्ति होती है तो हो और "गौः नित्या' यहां यदि उपादानलक्षणा की प्रसक्ति आती है तो आये वह हमें इष्ट ही है इसलिए वहाँ दोष देने की शंका नहीं की जा सकती । यही सोचकर मम्मट ने उसकी उपेक्षा की है और दूसरे दोष दिये है और लिखा है"तटादीनां गङ्गादिशब्दः" इति । ऐसी स्थिति में 'गङ्गायां घोषः' 'कुन्ताः प्रविशन्ति' इत्यादि स्थल में तट की गङ्गात्वेन और पुरुष की कुन्तत्वेन ही प्रतीति होती है। तट की तटत्वरूप से और पुरुष की कुन्तधारी के रूप में प्रतीति नहीं होती। इससे एक जगह 'गङ्गायां घोषः' यहाँ शक्यार्थ-विशेषण के रूप में अन्वित नहीं होगा और दूसरी जगह 'कुन्ताः प्रविशन्ति' में शक्यार्थ-विशेषण (प्रकार) बन कर अन्वित होगा। यही इन दोनों में भेद है यह समझना चाहिए। "तत्त्वेनैव प्रतीतिः" का तात्पर्य है गङ्गात आदि रूप में ही प्रतीति । प्रतिपिपादयिषित प्रयोजन का तात्पर्य है कि-एक जगह शैत्य-पावनत्वादि और दूसरी जगह अविदग्धत्वादि शैत्य-पावनत्वादि प्रयोजन की सिद्धि गङ्गात्वादि रूप में तीर की प्रतीति होने पर ही हो सकती है। इस तरह यह प्रतीत होता है कि लाक्षणिक पदजन्य उपस्थिति में शक्यतावच्छेदक के भान में ही यदि प्रयोजन का बोध होता है, जैसा कि पूर्व सन्दर्भ में बताया गया है कि गङ्गात्वेन तट की उपस्थिति होने पर ही प्रयोजन (शीतत्वादि) का भान होगा तो उपादान-लक्षणा में वह है ही; क्योंकि कुन्तधरत्वरूप में होनेवाली उपस्थिति में भी कुन्तरूप विशेषण में शक्यतावच्छेदक कुन्तत्व का भान आवश्यक है। कुन्तधर की जब कुन्तधरत्वरूप में उपस्थिति होगी तब 'कुन्तधर' यह ज्ञान अपने आप में विशेषण और विशेष्य से युक्त होने के कारण विशिष्ट-वैशिष्ट्यावगाही ज्ञान है इस ज्ञान में कुन्त विशेषण है; उसमें कुन्तत्व रूप शक्यतावच्छेदक का भान होता ही है । लक्षण-लक्षणा में भी गङ्गा-तीरत्वेन उपस्थिति मानें तो तीर के विशेषण के रूप में प्रतीत गङ्गा पदार्थ में शक्यतावच्छेदक का भान होने से प्रयोजन की प्रतीति बेखटके होगी इसी आशय से कहते हैं "गङ्गासम्बन्धेति"। यहाँ आदि पद का निवेश बीच में और करना चाहिए और गङ्गादि सम्बन्ध ऐसा शब्द मानना चाहिए। क्योंकि सन्दर्भ में केवल गङ्गा शब्द नहीं है किन्तु कुन्तादि शब्द भी है। उनके संग्रह के लिए 'गङ्गादि' कहना आवश्यक है। इस तरह मेरे विचार में मम्मट का तात्पर्य यह है कि तीर और पुरुष दोनों की (गङ्गा और कुन्त की) अभेदप्रतीति होने पर ही शैत्य और शूरत्व (प्रयोजन) की प्रतीति हो सकती है किन्तु तीर और पुरुष के विशेषण के रूप १. उपादानलक्षणायाम् । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः विशेषणीभूतशक्यतावच्छेदकस्य संस्कारतया प्रत्यये तत्प्रत्ययः, तथासति गङ्गातीरे घोष इति वाचकशब्द स्वायत्तं विहाय गङ्गायां घोष इत्यवाचकशब्दप्रयोगानुपपत्तेः, स्वायत्ते शब्दप्रयोगे किमित्यवाचक प्रयोक्ष्यामहे इति न्यायात् प्रतीतिवलक्षण्ये स्वायत्तत्वाभावादिति भाव इति युक्तमुत्पश्यामः। मधुमतीकृत्प्रभृतयस्तु भिन्नभिन्नार्थप्रतिपादकभिन्न (भिन्न)शब्दप्रतिपादन-योग्यत्व-समानाधिकरणक्यारोपविषयत्वमुपचारः। तदमिश्रत्वं तद्रहितत्वम्, न च गौणसाध्यवसाने व्यभिचारः, तत्रापि तादृशप्रतिपादनयोग्यतासत्त्वेन विशिष्टाभावरूपहेत्वसत्त्वाद्, उपादान(लक्षण)लक्षणयोभिन्नभिन्नशब्दाभावेन विशिष्टाभावसत्त्वान्न हेत्वसिद्धिरत आह–अनयोरिति । भेदरूपं भेदघटितं भिन्नभिन्नेत्यादिनोक्तशब्दभेदघटितं ताटस्थ्यमुपचारो नास्तीत्यर्थः । कुत इत्यत आह-तटादीनामिति । गङ्गाशब्दप्रतिपादने तत्त्वप्रतिपत्तौ गङ्गात्वप्रतिपत्ती, विपरीतलक्षणानुरोधेन गङ्गात्वादिप्रतिपत्ती, प्रतिपिपादयिषितप्रयोजनं प्रतीत्यविरोधि(ता) (धातु)प्रतिपत्ताविति वाप्त(वादि)पक्षे बाधमाह - गङ्गासम्बन्धेति, तुना पूर्वव्यवच्छेदार्थेन तादात्म्याप्रतिपत्तौ चेत् प्रयोजनप्रत्ययस्तदा लक्षणैव नोपादेया गङ्गातटे. घोष इत्यादितः शक्त्यैव तदर्थसिद्धेरित्यर्थ इति वदन्ति । तन्न । भेदाविमावित्युत्तर(गङ्गातीर और कुन्तधारी के रूप में) में शक्यतावच्छेदक की संस्कार के रूप में प्रतीति होने पर उनका (प्रयोजनों का) प्रत्यय (बोध) नहीं होगा। यदि प्रयोजन की प्रतीति न हो तो "गङ्गातीरे घोषः" इस प्रकार के स्वायत्त वाचक शब्दों का प्रयोग न करके "गङ्गायां घोषः" इस प्रकार के अवाचक शब्दों का प्रयोग व्यर्थ होने के कारण अनुपपन्न (गलत) लगेगा। स्वायत्त शब्दप्रयोग यदि सम्भव हो तो क्यों अवाचक शब्द का प्रयोग करें? इस न्याय से जहाँ प्रतीति में कुछ विलक्षणता है वहाँ स्वायत्तता के अभाव के कारण लाक्षणिक शब्दों का प्रयोग न्याय्य माना गया है। इसलिए "गङ्गायां घोषः" यहां "गङगातीरे घोषः" की अपेक्षा कुछ न कुछ विलक्षणता स्वीकार करनी ही होगी। मधुमतीकारादि ने इस ग्रन्थ की व्याख्या इस प्रकार की है-उनके विचार में उपचार का लक्षण है "भिन्न भिन्नार्थप्रतिपादक-भिन्न-भिन्नशब्दप्रतिपादनयोग्यत्वसमानाधिकरणक्यारोपविषयत्वम् उपचारः। "अग्निर्माणवकः" यहाँ अग्नि और माणवक इन दोनों भिन्न-भिन्न अर्थों के प्रतिपादक भिन्न-भिन्न शब्दों-(अग्नि और माणवक शब्दों) के द्वारा प्रतिपादन की जो योग्यता, उसके जो अधिकरण हैं अग्नि और माणवक शब्द, वे ही ऐक्य (अभेद) आरोप के विषय बने हुए हैं । इसलिए यहाँ उपचार है । उससे अमिश्रत्व होना ही शुद्धात्व है। अर्थात् पूर्वोक्त प्रकार के उपचार से रहित होना ही शुद्धा-लक्षणा की शुद्धता है। यदि यह कहें कि उपचार के पूर्वोक्त लक्षण को स्वीकार करने पर गौणसाध्यवसाना लक्षणा में व्यभिचार होगा; क्योंकि वहाँ पूर्वोक्त (भिन्न-भिन्नार्थ-प्रतिपादक भिन्न-भिन्न शब्दप्रतिपादनयोग्यता होने के कारण) विशिष्टाभावरूप हेतु की सत्ता नहीं हैं । अर्थात् गौण साध्यवसाना में पूर्वोक्त लक्षण नहीं घटना चाहिए; परन्तु वहां वह लक्षण घट जायगा? इस शंका को मन में रखकर कहते हैं कि "अनयोः" अर्थात् उपादान और लक्षण-लक्षणा में भिन्न-भिन्न शब्दों के अभाव होने के कारण विशिष्टाभाव होने से हेतु की असिद्धि नहीं है। यही बात "अनयोः" इत्यादि पंक्ति में बतायी गयी है कि इन दोनों उदाहरणों में भेदरूप अर्थात् भेदघटित अर्थात् भिन्न-भिन्नेत्यादि उपचार के लक्षण में प्रयुक्त शब्दभेदघटित ताटस्थ्य अर्थात् उपचार नहीं है । "क्यों नहीं है" इस जिज्ञासा का समाधान "तटादीनाम्" इत्यादि पक्तियों में देते हुए कहते हैं कि-तटादि का गङ्गा शब्द से प्रतिपादन करने पर गङ्गात्व की प्रतिपत्ति होने से अभीष्ट प्रयोजन की प्रतिति में बाधा न आने के कारण (लक्षणा मानना सार्थक होगा)।। यदि लक्षणा से भी “गङ्गातटे घोषः" यही बोध हो अर्थात् पूर्व में प्रतिपादित व्यवच्छेद अर्थ (गङ्गात्व) के साथ तादात्म्य की प्रतीति न हो (यह अर्थ 'तु' शब्द से बताया गया है) और प्रयोजन का प्रत्यय (बोध) हो तो Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० काव्यप्रकाशः ग्रन्थे सादृश्यसम्बन्धेन प्रवृत्तेरेवोपचारताप्रतीत्या तद्विरोधात्, गङ्गा घोषवतीत्यादावपि यथोक्तोपचारसत्त्वात् स्वरूपासिद्धेश्च । अत एवोद्देश्यविधेयभाव एवोपचार इत्यपि प्रत्यूक्तं, गोर्वाहीकयोः गौ: समानीयतामिति गौण्यामप्यु द्देश्यविधेयभावसत्त्वेन व्यभिचाराच्चेति । नन्वनुभवस्मरणयोः समानप्रकारकतानयत्येन गङ्गात्वप्रकारकतीरानुभवाभावेन कथं तादृशस्मरणं पदाद् भवतीति श्रद्धेयं, न च स्मरणस्यानुभवसमानप्रकारकस्यैव भिन्नप्रकारक................. ........ लक्षणा मानने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। क्योंकि "गङ्गातटे घोषः" इत्यादि से शक्ति के द्वारा ही उस अर्थ की सिद्धि हो जायगी। यह मधुमतीकारादि का मत है । परन्तु यह समीचीन नहीं है। क्योंकि "भेदाविमौ" इत्यादि बाद में लिखी गयी पङ्क्तियों से यही ज्ञान होता है कि सादृश्य सम्बन्ध से प्रवत्ति होना ही उपचार है। इसलिए पूर्वोक्त ग्रन्थ का उस उत्तरग्रन्थ से विरोध होता है। अतः यह मत समीचीन नहीं माना जा सकता। "गङ्गा घोषवती" यहाँ भी पूर्वोक्त उपचार का लक्षण घट जाता है इसलिए स्वरूपासिद्धि दोष है । जहाँ आप उपचार का लक्षण घट जाता है। इसलिए 'स्वरूपासिद्धिदोष' है; वहाँ उपचार मिश्रितत्व आ जाता है इसलिए उद्देश्य-विधेयभाव ही उपचार है यह भी उपचार का लक्षण नहीं माना जा सकता; क्योंकि गो और वाहीक में केवल गो को ही लेकर जब प्रयोग किया जायगा कि "गौः समानीयताम्" बल को लाइये तो यहां गो और बाहीक में क्रमशः गो उद्देश्य और वाहीक विधेय नहीं हैं और यहां गौणी लक्षणा तो है तो यहाँ पूर्वोक्त उपचार के लक्षण में व्यभिचार: अर्थात् अव्याप्तिदोष आ जायगा । इस तरह जो यह कहते थे कि उद्देश्य विधेयभाव ही उपचार कहलाता है; उनका कथन भी खण्डित हुआ। एक तो यह लक्षण "अग्निर्माणवकः" इस गौणी लक्षणा के उदाहरण में जैसे लागू होता है वैसे "गङ्गा घोषवती" इस शुद्धा लक्षणा के उदाहरण में भी घटता है इसलिए अतिव्याप्ति दोष है। दूसरी बात यह कि 'गां वाहीकमानय' यहां गौणी लक्षणा के उदाहरण में भी नहीं घटता क्योंकि यहां गो और वाहीक में उद्देश्यविधेयभाव नहीं हैं। "गोवाहीक" मिलित उद्देश्य है इसलिए "समानीयताम्" इत्यादि के प्रयोग गो में उद्देश्य और वाहीक में विधेयभाव ने होने के कारण लक्षण में व्यभिचार भी हो जायगा । ऐसा लक्षण ही क्या ? जो लक्ष्य में भी न घटे और लक्ष्येतर में घट जाय। अस्तु "" अनुभव और स्मरण दोनों निश्चित रूप से समान-प्रकारक हआ करते हैं अर्थात् यत्प्रकारक अनुभव है तत्प्रकारक ही स्मरण होगा। गोत्वप्रकारक अनुभव है तभी गोत्वप्रकारक स्मरण होगा। ऐसा नहीं कि अनुभव तो हो गोत्वप्रकारक याने गाय का हो और स्मरण हो गजत्व-प्रकारक याने हाथी का। इस तरह जब आज तक किसी को गङ्गात्व प्रकारक तीरानुभव नहीं हुआ है, सब को तीरत्वप्रकारक तीर का ही अनुभव हुआ है तो "गङ्गायां घोषः" यहाँ गङ्गापद से गङ्गात्व-प्रकारक तीर की स्मृति (उपस्थिति) कैसे होगी.........? (यहाँ पूर्वापर सन्दर्भ को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि खण्डित भाग का प्रतिपादन-विषय यों रहा होगा) जैसे आपने पूर्वोक्त उदाहरणों के द्वारा स्मरण और अनुभव को समान-प्रकारक सिद्ध किया है; उसी तरह अन्य उदाहरणों के द्वारा उन्हें भिन्न-प्रकारक भी सिद्ध किया जा सकता है :-जैसे कोई वाराणसी का नाम ले और उसे सुनकर श्रोता को वहाँ की सीढ़ी, सन्यासी, और साँढों का स्मरण हो जाय; तो इस स्मरण में और शब्दश्रवणजन्यप्राप्त अर्थबोध रूप अनुभव में समानप्रकारकता नहीं होगी, क्योंकि वाराणसी पद के सुनने से जिस अर्थका बोध और अनुभव हुआ है। उसमें प्रकार (विशेषण) है वाराणसी शहर और स्मरण में प्रकार है सीढ़ी, सन्यासी आदि, ऐसा नहीं कहना चाहिए, १. अत्रापि मूलप्रती पाठः खण्डितः । स च पाण्डुलिप्यां लिखितषटपष्ठात्मकः । अत एव सन्दर्भसंयोजनाय भाषानूवादे सम्भावितपाठानुवादः कल्पितः । सं० Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः ८१ [सू० १४] सारोपाऽन्या तु यत्रोक्तौ विषयी विषयस्तथा । आरोप्यमाणः आरोपविषयश्च यत्रानपहनुतभेदौ सामानाधिकरण्येन निर्दिश्यते सा लक्षणा सारोपा। [सू० १५] विषय्यन्तः कृतेऽन्यस्मिन् सा स्यात् साध्यवसानिका ॥११॥ समानविभक्तिकारोप्यवाचकपदनिष्ठारोप्यतावच्छेदकप्रकारकारोपविषयोपस्थितिजनकलक्षणत्वं सारोपत्वम् अत्र वासाधारणधर्मप्रकारेणेत्यत्र साधारणधर्मप्रकारेणेतिकरणात् साध्यवसानलक्षणं ज्ञेयमिति, अत्र च विषय्यन्तःकृतेऽन्यस्मिन्नित्युपलक्षणं विषयेणान्तःकृते विषयिणीत्यपि द्रष्टव्यम्, 'कचतस्त्रस्यति यहां भी दोनों में समानप्रकारकता ही है। सीढ़ी, सन्यासी आदि के अनुभवक्षण में जो बोध हुआ था, उसमें सीढ़ी और सन्यासी आदि जिस तरह विशेषण बनकर भासित होते थे; उसी तरह उनके स्मरण क्षण में वे विशेषण बनकर भासित हो रहे हैं। इस तरह "गङ्गायां घोषः" यहाँ लक्षण-लक्षणा मानने पर गङ्गा का तटरूप में सर्वात्मना विलय मानना आवश्यक है तभी शीतत्वपावनत्वातिशय की प्रतीति होती है। यद्यपि शीतत्वपावनत्वातिशय की प्रतीति के लिए तट की प्रतीति तटत्वेन न मानकर गङ्गात्वेन मानी जाती है तथापि उस गङ्गात्व का अर्थ प्रवाह नहीं होता है। गङ्गार्थ और लक्ष्यार्थ तट में अभेद मानने के कारण ही शीतत्वपावनत्वातिशय की प्रतीति होती है। गङ्गाप्रवाह में घोष के होने से जिस शीतत्वातिशय और पावनस्वातिशय की सम्भावना थी, उसकी प्रतीति "गङ्गायां घोषः" कहने से हो जाती है। किन्तु "गङ्गातटे घोषः" कहने से वह प्रतीति नहीं हो पाती । "गङ्गायां घोषः" में गङ्गार्थ के तटार्थ में विलय हो जाने पर भी यहाँ यमुना तट की प्रतीति नहीं होगी, क्योंकि यह तट साधारण तट नहीं किन्तु मङ्गाप्रवाहाभिन्न तट है। यह प्रतीति लक्षणाजगत् में सदा अक्षुण्ण रहती है, तभी तो लक्ष्यार्थ का शक्यार्थ सम्बद्धन सिद्ध हो सकेगा; जो कि लक्षणा का लक्षण है। इस प्रकार मम्मट शुद्धा के (उपादान लक्षणा और लक्षण-लक्षणा) दो भेद करके शुद्धा ओर गौणी दोनों लक्षणा के सारोपा और साध्यवसाना दो-दो-भेद करके चार भेद दिखाना चाहते हैं। इसी सन्दर्भ में वे पहले सारोपा का लक्षण देते हैं और बाद में साध्यवसाना का। "सारोपान्या" तु० तथा "विषम्यन्तः” इत्यादि मूल सूत्रार्थ जहाँ आरोप्यमाण (उपमान) और आरोप विषय (उपमेय) दोनों शब्द से कथित होते हैं वहां दूसरी (गोणी)सारोपा- लक्षणा होती है। ... जहां उपमान का ही शब्दशः उपादान रहता है और उपमेय का अन्तर्भाव उपमान में ही विवक्षित रहता हैं वहां साध्यवसाना लक्षणा होती है-जैसे "चित्रं चित्रमनाकाशे कथं सुमुखि ! चन्द्रमाः।" यहाँ उपमेय मुख का शब्द से कथन नहीं है उसे वक्ता "चन्द्रमा" में अन्तर्भूत करके ही बोल रहा है- (यहाँ तक का पाठ खण्डित है अतः सन्दर्भ शुद्धि के लिए आवश्यक समझकर यह विनष्ट पाठ का अनुमानित अनुवाद दिया गया है।) असाधारणधर्मप्रकारेण समानविभक्तिक आरोप्यवाचक पदनिष्ठ जो आरोप्यतावच्छेदक-प्रकारक आरोप होगा तद्विषयक जो उपस्थिति, तज्जनक जो लक्षणा उसे सारोपा-लक्षणा कहते हैं । "गोर्वाहीकः" यहाँ तिष्ठन्मूत्रकरणत्वादि अथवा मूर्खतादि साधारण धर्म एक है “गौः" और 'वाहीक:' यहाँ विभक्ति भी समान है । इस Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ काव्यप्रकाशः विषयिणाऽऽरोप्यमाणेनान्तःकृते निगीणे अन्यस्मिन्नारोपविषये सति साध्यवसाना स्यात् । वदन''मित्यादौ तथादर्शनादिति । ननु सारोपाऽन्या त्विति तु शब्दस्य पूर्वव्यवच्छेदकतया शुद्धान्योन्याभावव्याप्यत्वं सारोपत्वसाध्यवसानत्वयोर्लभ्यते, न चैतत् सम्भवति, उक्तलक्षणयोः शुद्धायामपि सम्भवात् । किञ्च 'सिंहो माणवक' इत्यादौ गौणीवृत्त्यन्तरमिति सार्वतान्त्रिकव्यवहारः, तथा च तत्राप्यतिव्याप्तमिदं लक्षणद्वयम्, अन्या त्वित्यादावन्यादिपदेन लक्षणाया एव लक्ष्यतया व्याख्यातत्वादित्यत आह लिए समान धर्म होने के कारण समान-विभक्तिक जो आरोप्यवाचक पद हैं गो और वाहीक पद, उनमें आरोप्यतावच्छेदक प्रकारक जो आरोप है वह मूर्खत्वादिप्रकारक आरोप असाधारण धर्म (गोत्वादि वाहीकत्वादि धर्म)प्रकारेण आरोप है, तविषयक उपस्थितिजनक लक्षणा होने के कारण सारोपा-लक्षणा का लक्षण घट जाता है । पूर्वोक्त लक्षणा में जहाँ 'असाधारणधर्मप्रकारेण" यह लिखा गया है वहाँ 'साधारणधर्मप्रकारेण' ऐसा निवेश करने से साध्यवसाना-लक्षणा का लक्षण बन जायगा। "गौर्जल्पति" यहाँ जो आरोप है; वह साधारण धर्म (मूर्खत्वादि और तिष्ठन्-मूत्रत्वादि साधारण धर्म, के कारण है, इसलिए साध्यवसाना लक्षणा है। तात्पर्य यह है कि सारोपा लक्षणा में विषय और विषयी दोनों का शब्द द्वारा प्रतिपादन रहने के कारण वहाँ के आरोप में गोत्व और वाहीकत्व भी प्रकार रहता है। गोत्व और वाहीकत्व उभयसाधारण धर्म नहीं है क्योंकि गोत्व गो में है वाहीक में नहीं, इसी तरह वाहीकत्व वाहीक में है किन्तु 'गो, में नहीं है। इसलिए 'गौर्वाहीकः' में किये गये आरोप को असाधारण-धर्म-विशेषणक कहा गया है। "गौर्जल्पति" में 'वाहीक' का शब्दशः उपादान नहीं है इसलिए यहाँ का आरोप 'साधारणधर्मप्रकारक' मात्र है। "विषय्यन्तःकृतेऽन्यस्मिन् सा स्यात् साध्यवसानिका" अर्थात् विषयी (उपमान) के द्वारा आरोप विषय (उपमेय) के निगीर्ण कर लिये जाने पर साध्यवसाना-लक्षणा होती है। "चित्रं चित्रमनाकाशे कथं सुमुखि ! चन्द्रमा:" यहाँ उपमान (चन्द्र) ने उपमेय (मुख) को निगल लिया है अर्थात् उपमान से ही उपमेय का प्रतिपादन होता है, इस लिए साध्यवसाना लक्षणा है । यहाँ "विषय्यन्तःकृतेऽन्यस्मिन्" इसको "विषयेण अन्तःकृते विषयिणि" इसका भी उपलक्षण (बोधक) मानना चाहिए। उपमान के द्वारा उपमेय को निगीर्ण कर लेने पर जैसे साध्यवसाना लक्षणा मानी जाती है वैसे ही उपमेय के द्वारा उपमान के निगीर्ण होने पर भी साध्यवसाना लक्षणा मानी जा सकती है । इसलिए "कचतस्त्रस्यति वदनं वदनात् कुचमण्डलं त्रसति" इस पद्य में साध्यवसाना लक्षणा हुई। किसी नायिका के वर्णन में ऊपर का पद्य कहा गया है। बाल (कच) का रंग अन्धकार के समान काला है। इसलिए उसे काव्य-जगत् में राहु कहा जाता है । मुख को चन्द्रमा माना जाता है और कुच-युगलों को चक्रवाक-युगल माना जाता है। इस तरह कवि यहाँ कहना चाहता है कि नायिका के बाल (राहु) से उसका मुख (चन्द्र) डरता है और मुख (चन्द्र) कुच-युगल (चक्रवाक-युगल) से भय खाता है। (भला राहु से चन्द्रमा क्यों न डरे और चन्द्रमा को देखकर रात में एक जगह न रहने के स्वभाववाले चक्रवाक-युगलों को भय खाना ही चाहिए) यहाँ नायिका का वर्णन प्रस्तुत है। इसलिए 'कच', 'वदन' और 'कुचमण्डल' विषय (उपमेय) है उसी विषय के द्वारा विषयी उपमान (राह, चन्द्र और चक्रवाक-यगल) का निगरण किया गया है। इसलिए यहाँ भी साध्यवसाना लक्षणा हुई। यदि पूर्व-निर्देश के अनुसार उपलक्षण नहीं मानें तो यहाँ साध्यवसाना लक्षणा का लक्षण नहीं घटने से अव्याप्तिदोष हो जायगा। . १. कचतस्त्रस्यति वदनं वदनात् कुचमण्डलं त्रसति । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः [सू० १६] भेदाविमौ च सादृश्यात् सम्बन्धान्तरतस्तथा । गौ शुद्धौ च विज्ञेयौ इमावारोपाध्यवसानरूपौ सादृश्यहेतू भेदी 'गौर्वाहीक' इत्यत्र 'गौरयम्' इत्यत्र च । m ८३ मेदाविति, तथा च तुशब्देनोपादानलक्षणलक्षणयोर्भेद उक्तो न तु शुद्धाभेदो, न वा गौणी' लक्षणातो भिन्ना वृत्तिरिति भावः । नन्वेवमिदं भेदद्वयं गौण्याः शुद्धायामपि इत्युक्त विभागानुपपत्तिः विभाज्यतावच्छेदकधमव्याप्यधर्मस्यैव सर्वत्र विभाजकतावच्छेदकत्वात्, न चात्र सारोपत्वसाध्यवसानत्वे गौणीत्वस्य शुद्धात्वस्य वा व्याप्ये, प्रथमे शुद्धायां द्वितीये गौण्यां व्यभिचारादित्यत आह सादृश्यादिति, सादृश्याद् गौणी, सम्बन्धान्तरतः सादृश्यान्यसम्बन्धाच्छुद्धावित्यन्वयः तथा च सादृश्यसम्बन्धप्रवृत्तिके सारोपत्वसाध्यवसानत्वे गौणीत्वस्य तदन्यसम्बन्धप्रवृत्तिके च शुद्धात्वस्य व्याप्ये इति न विभागानुपपत्तिरिति भावः । तत्र गौणसारोपसाध्यवसानप्रभेदावुदाहरति इमाविति । ननु गौणी न लक्षण गोवाहीकयोस्तदुदाहरणविषययोः सम्बन्धाभावात् गुणरूपसारयसम्बन्धस्य प्रतिसम्बन्धिभिन्नत्वाद् अतो गौणी, वृत्त्यन्तरमेवेति शङ्कामपाकत्तुः मतभेदेन समाधत्ते । प्रश्न यह है कि कारिका (सारोपान्या तु) में तु शब्द का प्रयोग किया गया है। यह 'तु' शब्द पूर्व का व्यवच्छेदक होता है अर्थात् 'तु' शब्द का प्रयोग पूर्व-निर्दिष्ट अर्थ के साथ आगे आनेवाले अर्थ के साथ असम्बन्ध बताता है । इस तरह यही सिद्ध होता है कि पूर्व निर्दिष्ट शुद्धा के ये भेद नहीं होते हैं । इस तरह सिद्ध होता है सारोपात्व और साध्यवसानात्व में शुद्धान्योन्याभाव - व्याप्यत्व है । अर्थात् घटन पट: 'घड़ा कपड़ा नहीं है' इस अन्योन्याभाव का व्याप्य जैसे घट और पट है; उसी तरह "शुद्धा न सारोपाध्यवसाने" इस अभ्योन्याभाव का व्याप्य सारोपा और साध्यवसाना है, यह शङ्का नहीं की जा सकती; क्योंकि सारोपा और साध्यवसाना के लक्षण 'शुद्ध' में भी घट रहे हैं। इसलिए शुद्धा के भी ये भेद हो ही सकते हैं। दूसरी बात यह है कि " सिंहो माणवकः" यहाँ गोणी नामक अतिरिक्त वृत्ति है; यह अनेक शास्त्रों में कहा गया है; और वहाँ भी यह लक्षण अतिव्याप्त हो रहा है; क्योंकि 'अन्या तु' यहाँ अन्यादिपद से लक्षणा का ही ग्रहण करने की व्याख्या की गयी है इसीलिए लिखते हैं 'भेदाविति' - इस तरह 'तु' शब्द से उपादान लक्षणा और लक्षण लक्षणा का भेद बताया गया है । 'तु' के द्वारा शुद्धा का भेद या गौणी को लक्षणा से भिन्न वृत्ति नहीं बताया गया है । यही पूर्वोक्त पंक्ति का अक्षरार्थ है । सारोपा तथा साध्यवसाना के शुद्धा तथा गौणी दो भेद भेदाविमौ च' इत्यादि मूलार्थ — ये (सारोपा और साध्यवसानारूप ) दोनों भेद सादृश्य से तथा ( सादृश्य को छोड़कर) अन्य सम्बन्ध से ( सम्पन्न ) होने पर ( क्रमशः) गौण तथा शुद्ध लक्षणा के भेद समझने चाहिये | गोणी सारोपा तथा साध्यवसाना के उदाहरण है क्योंकि विभाज्यतावच्छेदकधर्मव्याप्यधर्मं को ही सब जगह विभाजकतावच्छेदक माना गया है । ये सारोपा तथा साध्यवसानारूप भेद सादृश्य-हेतुक होने पर 'गोर्वाहीकः ' 'वाहीक देश का वासी पुरुष गो है' और 'गोरयम्' 'यह गो है' इनमें है। (और सादृश्य होने से वे गौणी लक्षणा के भेद कहलाते हैं) । गौणी के ये दोनों भेद शुद्धा के भी हो सकते हैं । इस तरह उक्तविभाग करना गलत दिखाई पड़ता सारोपात्व और साध्यवसानत्व, गोणीत्व और शुद्धात्व का व्याप्य धर्म नहीं है । प्रथम में शुद्धा में और द्वितीय में गौणी में व्यभिचार हो जायगा । "यत्र यत्र सारोपासाध्यवसानत्वे तत्र तत्र गौणीत्वम्" ऐसा नहीं कह सकते हैं Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशः अत्र हि स्वार्थसहचारिणो गुणा जाड्यमान्द्यादयो लक्ष्यमाणा अपि गोशब्दस्य परार्थाभिधाने प्रवृत्ति-निमित्तत्वमुपयान्ति, इति केचित् । . प्रति स्वार्थो गोत्वं, जातादेव शक्तेः, तस्य सहचारिणः समानाधिकरणाः, अत्र च न गोवाहीको शक्यलक्ष्यो अपि तु गोत्वजाडचादी, तयोश्च सामानाधिकरण्यमेव सम्बन्ध इति नात्र लक्षणात्वक्षतिरिति भावः । नन्वेवं वाहीके कथमन्वयः ? इत्यत आह क्योंकि हा सारोपा और शुद्धा साध्यवसाना में सारोपाव और साध्यवसानत्व है किन्तु वहाँ गौणीत्व नहीं है। इसी तरह "यत्र यत्र सारोपासाध्यवसानत्वे तत्र-तत्र शुद्धात्वम्" इस साहचर्य नियम का व्यभिचार गोणी सारोपा और गोणी साध्यवसाना में देखा गया है इसी लिए कहते हैं:-"साहश्यात्" इति । सारश्य से गौण और सम्बन्धान्तरतः (अर्थात सादृश्य से भिन्न सम्बन्ध से) शुद्ध भेद होते हैं । इस तरह सादृश्यसम्बन्ध से होनेवाले सारोपात्व और साध्यवसानत्व गौणीत्व के और उसमें अन्य सम्बन्ध से होनेवाले सारोपात्व और साध्यवसानत्व शुद्धात्व के व्याप्य धर्म हैं। इस तरह पूर्वोक्त विभाग में कोई अनुपपत्ति नहीं है। तात्पर्य यह है कि जहां सादृश्य सम्बन्ध से लक्षणा होगी और आरोप का विषय तथा विषयी दोनों शब्दोपात्त होमें, वहाँ 'गौण सारोपा लक्षणा' होगी जहां सादृश्य सम्बन्ध से प्रवृत्त लक्षणा में विषयी मात्र का उल्लेख होगा, वहाँ 'गोग साध्यवसाना लक्षणा' होगी। उनमें गौण सारोप और साध्यवसान भेदों के उदाहरण देते हुए लिखते हैं :-"इमाविति" । ये सारोपा और साध्यवसाना भेद सादृश्यहेतुक हैं । इसलिए गोण कहलाते हैं। ये क्रमिक यहाँ है:-'गौर्वाहीक:' तथा 'गौरयम् ।' गोणी को लक्षणा न मानकर भिन्न वृत्ति माननेवाले का मत देते हुए लिखते हैं कि-गौणी लक्षणा नहीं है। "गौर्वाहीकः" इत्यादि उदाहरण में गो और वाहीक के बीच में (लोक प्रसिद्ध) सम्बन्ध नहीं, गुणरूप जो सादृश्यसम्बन्ध है; वह तो प्रति सम्बन्धी में भिन्न है। इसलिए सम्बन्धाभाव के कारण गौणी को लक्षणा न मानकर वृत्त्यन्तर ही मानना चाहिए; इस शंका को दूर करने के लिए मतभेद से समाधान देते हैं 'अत्र' इति । गोणी साध्यवसाना विषयक तीन मत 'गोल्पति' आदि गौणी साध्यवासाना के उदाहरणों में लक्षणा-वृत्ति से बोध्य लक्ष्य-अर्थ क्या है इस विषय में मम्मट ने तीन पक्षों को प्रस्तुत किया है, जो इस प्रकार हैं 'अत्र हि स्वार्थः' इत्यादि मूलार्थ- १ यहाँ ('गौरयम्' आदि उदाहरणों में गो शब्द के) अपने अर्थ के सहचारी जाड्य, मान्ध आदि गुण, लक्षण द्वारा बोधित होकर भी, गो-शब्द के द्वारा वाहीक रूप दूसरे अर्थ को अभिधा से बोधित करने में प्रवृत्ति-निमित्त बन जाते हैं यह कोई विवेचक मानते हैं। 'अत्रेति स्वार्थो गोत्वं' इत्यादि टीकार्थ पूर्वोक्त पंक्ति (गोर्जल्पति) में स्वार्थ का अर्थ है गोत्व; क्योंकि इस मत में जाति में ही शक्ति मानी गयी है । इस गोत्व के सहचारी का तात्पर्य है गोत्वसमानाधिकरण जो जाडय और मान्द्यादि गुण । लक्षणा के द्वारा वाहीकरूप दूसरे अर्थ को अभिधा के द्वारा बोधित करने में प्रवृत्तिनिमित्त बन जाते हैं यह किसी विद्वान् का मत है। यहां गौ और वाहीक शक्य और लक्ष्य नहीं हैं किन्तु गोत्व और जाड्यादि ही क्रमशः शक्य और लक्ष्य हैं। उनमें सामानाधिकरण्य सम्बन्ध तो है ही। इसलिए यहाँ सम्बन्धाभाव के कारण लक्षणाभाव का जो दोष दिया था, Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लास : ८५ स्वार्थ सहचारिगुणाभेदेन परार्थगता गुरणा एव लक्ष्यन्ते न परार्थोऽभिधीयत इन्यन्ये । परार्थाभिधान इति । परार्थो वाहीकस्तस्याभिधाने शक्त्या प्रतिपादने प्रवृत्तिनिमित्तत्वं शक्यता - वच्छेदकत्वम् । सुबुद्धिमिश्रास्तु परार्थाभिधान इत्यस्य स्वाश्रयत्वसम्बन्धाल्लक्षणया परार्थप्रतिपादन इत्यर्थः, प्रवृत्तिनिमित्तत्वं लक्ष्यतावच्छेदकत्वम्, तथा च लक्षितलक्षणेयमित्यूचुः । केचिदिति अस्वरसोद्भावनं, बीजं तु प्रथमव्याख्याने जाड्यादेरशक्यतया प्रवृत्तिनिमित्तत्वासम्भवः गोशब्दस्य वाहीके शक्तिकल्पने प्रमाणाभावः वाहीकपदेन सह प्रयोगानुपपत्तिश्च । मिश्रव्याख्याने लक्षणापेक्षया लक्षितलक्षणाया जघन्यत्वम् । आलङ्कारिकमते शक्यतावच्छेदकस्यैव लक्ष्यतावच्छेदकतया गोपदाद् गोत्ववानित्याकारकप्रतीत्युपगमेऽनुभवविरोधश्चोभयव्याख्यानेऽपीति द्रष्टव्यम् । मतान्तरमाह स्वार्थे ति, अभेदेनेत्यनेन सम्बन्धकथनं तथा च शक्यसमानाधिकरणगुणाभेद एवात्र सम्बन्ध इति नलक्षणात्वक्षतिरिति भावः । न तु परार्थं इति आक्षेपलभ्यत्त्वादिति भावः । न चाक्षेपलभ्यस्य शाब्दसामानाधिकरण्यानुपपत्तिः प्रत्ययार्थैकत्वकर्मत्वाद्यन्वयानुपपत्तिश्चेति वाच्यम्, जातिशक्तिपक्षे आक्षेपलभ्यव्यक्तेरिव तदुपपत्तेरिति । वह नहीं होगा सम्बन्ध (सामानाधिकरण्य) होने के कारण लक्षणा में किसी प्रकार की क्षति नहीं आयेगी । इस तरह वाहीक में अन्वय कैसे होगा ? यह कहते हैं - 'परार्थाभिधाने' इति - परार्थ है वाहीक, उसके अर्थ के अभिधान में अर्थात् शक्ति से प्रतिपादन करने में (वे गुण ) प्रवृत्ति - निमित्त - त्वं (शक्यतावच्छेदकत्व) को प्राप्त होते हैं । अर्थात् लक्षित गुण जाड्य और मान्द्यादि ही गो शब्द से अभिधा के द्वारा वाहीक अर्थ के अभिधान में शक्यतावच्छेदक बनता है । सुबुद्धि मिश्र ने "परार्थाभिधाने" इस का अर्थ किया है कि 'स्वाश्रयत्वसम्बन्ध से लक्षणा के द्वारा बताने में और "प्रवृत्तिनिमित्तत्वं" का अर्थ किया है लक्ष्यतावच्छेदकत्व । इस तरह उन्होंने "यहाँ लक्षित लक्षणा "मानी" है । यहाँ "केचित् " शब्द के द्वारा अस्वरस ( अपना अनभिमत) बताया गया है। उसका कारण यह है कि प्रथम व्याख्यान में जाड्यादि को अशक्य बताया गया है। इसलिए वह प्रवृत्ति-निमित्त (शक्यतावच्छेदक) नहीं हो सकता जाड्यादि में जब कि गो शब्द संकेतित नहीं है; तब उसे शक्य कैसे माना जाय ? "गोशब्दस्य बाहीकार्थाभिधाने" के द्वारा यह बताया गया है कि गोशब्द से वाहीक अर्थ के अभिधान में वह प्रवृत्ति - निमित्त होगा । यहाँ यह कहना है कि गो शब्द की वाहीक में शक्ति कल्पना करने में प्रमाण भी नहीं है यदि गो शब्द का अभिधेयार्थं वाहीक हो तो "गौर्वाहीकः" यहाँ गो शब्द के साथ वाहीक का प्रयोग करना गलत हो जायगा पुनरुक्त दोष आ जायगा । मिश्र (सुबुद्धि मिश्र) के व्याख्यान में यह अरुचि है कि लक्षणावृत्ति की अपेक्षा लक्षित-लक्षणा जघन्यवृत्ति मानी जाती है उसका आश्रय लेकर व्याख्यान करना उचित नहीं है। आलङ्कारिक के मत में शक्यतावच्छेदक ही लक्ष्यतावच्छेदक होता है। इसीलिए तो "गङ्गायां घोष:" में तीर की उपस्थिति गङ्गात्वेन ही मानते हैं । अतः गोपद से "गोत्ववान्" इस रूप में प्रतीति मानने में अनुभव विरोध होगा; यह दोष दोनों व्याख्यानों में है । दूसरा मत बताते हैं - स्वार्थ सहचारिगुणाभेदेन इत्यादि । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ काव्यप्रकाश साधारणगुणाश्रयत्वेन परार्थ एव लक्ष्यत इत्यपरे । अन्ये इत्यस्वरसोद्भावनं तद्बीजं चान्यलभ्यतया धर्मिणोऽलक्ष्यत्वे तीरादेरपि गङ्गादिपदलक्ष्यतानापत्तिः। जातिशक्तिस्वीकारे चानन्त्यव्यभिचारदोषपरिहार एव बीजम् अत्र च जाड्यादेरप्यनन्ततया तदपरिहारः । वस्तुतो जातेरपि न शक्यत्वम्, अपि तु व्यक्तेरेव शाब्दसामानाधिकरण्यानुरोधादिति प्रागहमचिन्तयमिति द्रष्टव्यम् । वास्तविकं पक्षमाह साधारणेति तथा च गोव्यक्तिवृत्तिजाड्यादि समानगुणाश्रयत्वस्यकस्यैव सम्बन्धस्य सत्त्वान्नात्र लक्षणात्वक्षतिरिति न गौणीवृत्त्यन्तरमिति भावः । परार्थ इति । तथा च न सामानाधिकरण्याद्यनुप २. गोशब्द से उसके अर्थ के सहचारी जाडच, मान्द्य आदि गुणों से अभिन्न रूप में वाहीकगत गुण ही लक्षित होते हैं। परन्तु वे वाहीक अर्थ के अभिधा द्वारा बोधन में प्रवृत्ति-निमित्त नहीं होते हैं; यह अन्य मानते हैं । पूर्वोक्त पक्ति में "अभेदेन" शब्द के द्वारा सम्बन्ध बताया गया है। इस तरह शक्य-समानाधिकरण गुणों का अभेद होना ही, यहाँ गो और वाहीक में सम्बन्ध है। अर्थात् गोत्व के अधिकरण (गो) में साथ-साथ रहनेवाले गुण जाड्य और मान्द्यादि का अभेद होना ही (गो और वाहीक में) सम्बन्ध है। इसलिए सम्बन्धाभाव के कारण लक्षणाभाव का जो दोष दिया गया था; वह नहीं है। पूर्वोक्त सम्बन्ध के कारण लक्षणा हो ही जायगी। "न तु परार्थ" शब्द से बताया गया है कि वाहीक अर्थ यहाँ अभिधाबोध्य नहीं होता है। क्योंकि वह तो आक्षेपलभ्य है। यदि यह कहें कि आक्षेपलभ्य मानने पर उसका शाब्द-बोध में भान नहीं होगा और न वह "गौः" के साथ समानाधिकरणान्वय प्राप्त कर सकेगा और न उसका प्रत्ययार्थ एकत्व और कर्मत्व के साथ अन्वय हो सकेगा तो यह कथन गलत होगा, क्योंकि मीमांसक के मतानुसार जाति में शक्ति मानने पर भी जैसे "गामानय" इत्यादि स्थल में आक्षिप्त व्यक्ति के साथ जिस तरह संख्या, कर्मादि का अन्वय होता है; जैसे वहां व्यक्ति का शाब्द-बोध में भान होता है और जैसे सामानाधिकरण्य-सम्बन्ध होता है वैसे ही सब कुछ हो जायेगा। "अन्ये" इस शब्द से इस मत के साथ भी 'अस्वारस्य' अनभिमतत्व प्रकट किया गया है। उसका कारण यह है कि अन्यलभ्य होने के कारण यदि धर्मी को अलक्ष्य माने, जैसा कि आपने वाहीक को माना. है;तो तीर भी गङ्गापद का लक्ष्यार्थ नहीं माना जायगा। व्यक्ति में शक्ति न मानकर जाति में शक्ति मानने का कारण आनन्त्य और व्यभिचार दोष से छुटकारा प्राप्त करना ही था किन्तु जाड्य-मान्द्यादि गुण को लक्षणा-बोध्य मानने पर जाड्यादि के अनन्त होने के कारण अनन्त व्यभिचार दोष का परिहार नहीं हो पायेगा। शक्यतावच्छेदक की अनन्तता की तरह लक्ष्यतावच्छेदक की अनन्तता भी दोष ही मानी गयी है । वस्तुतः जाति भी शक्य नहीं है। किन्तु व्यक्ति ही शक्य है, तभी उसे "नीलीम् गामानय" यहां शाब्दसामानाधिकरण्यान्वय संभव होगा। इसीलिए शाब्द-सामानाधिकण्यानुरोधेन जाति को शक्य नहीं माना जा सकता (इस पर मैंने पूर्व पृष्ठों विचार किया है)। ऐसी स्थिति में गो शब्द के स्वार्थ के रूप में "गोत्व" को नहीं लिया जा सकता। जब गोत्व स्वार्थ ही नहीं हुआ तो जाड्य और मान्द्यादि स्वार्थ सहचारी गुण नहीं हो सकते। इस तरह स्वार्थ (गोत्व) सहचारी गुण (जाड्य-मान्यादि) से अभिन्न रूप में वाहीकगत गुण ही लक्षित होते हैं यह कथन ही गलत है। वास्तविक पक्ष बताते हैं-"साधारण गुणाश्रयत्वेन परार्थ एव लक्ष्यते इत्यपरे।" .. ३. गो और वाहीक दोनों में समान गुणों के आश्रय होने से वाहीक अर्थ ही लक्षणा के द्वारा उपस्थित होता है यह ऊपर (मुकुल भट्ट तथा मीमांसक) मानते हैं। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः उक्तञ्चान्यत्र "अभिधेयाविनाभूतप्रतीतिर्लक्षणोच्यते । लक्ष्यमाणगुरगर्योगाद् वृत्तेरिष्टा तु गौणता॥" इति। अविनाभावोऽत्र सम्बन्धमात्रं न तु नान्तरीयकत्वम् । तत्त्वे हि 'मञ्चाः क्रोशन्ति' इत्यादौ पत्तिरिति भावः । स्वोक्ते तान्त्रिकसम्मतिमाह उक्तं चान्यति । प्रतीतिर्लक्षणेति । इदं च प्राचीनमतानुसारेण ।। नवीनमतेऽभिधेयाविनाभूतस्य प्रतीतिर्यया साऽभिधेयाविनाभूतप्रतीतिः शक्यसम्बन्धरूपेति । लक्ष्यमारणेति । लक्ष्यमाणस्य पदार्थस्य ये गुणा जाड्यमान्द्यादयस्तद्योगादिति तत्पुरुषो न तु कर्मधारयः, चरमपक्षे स्वाभिमते गुणस्यालक्ष्यत्वाद् विशिष्टलक्षणानङ्गीकारात् । यद्यपि कर्मधारयेणाद्य'पक्षयोरप्युपोद्वलकमिदमिति वक्तुं शक्यं तथापि चर' मेऽभिहितत-] या तस्यैव सिद्धान्तत्वाद् रूपद्वयेन इस तरह गो व्यक्ति में विद्यमान जाड्यादि गुणों के समान गुणों का आश्रयत्व रूप एक ही सम्बन्ध के होने के कारण यहाँ लक्षणा मानने में कोई बाधा नहीं आती है। यहां भी लक्षणा ही वृत्ति है इसलिए यहां गौणी नामक अन्य वृत्ति मानने की कोई आवश्यकता नहीं है। "परार्थ एव लक्ष्यते" इसका तात्पर्य है कि वाहीक अर्थ को लक्ष्य मानने पर उसकी भी वृत्ति द्वारा उपस्थिति सिद्ध हो गयी। इसलिए सामानाधिकरण्य, शब्द बोध में भान और प्रत्ययार्थ संख्या और कर्मादि के साथ अन्वय में भी कोई कठिनाई नहीं होती है। * अपने कथन में शास्त्रकारों को सम्मति बताते हुए लिखते हैं, 'उक्तञ्चान्यत्र...' .यह उद्धरण कुमारिल भट्ट के 'श्लोकवार्तिक' में मिलता है। यहाँ कारिका की प्रारम्भिक एक पङिक्त नहीं दी गयी है । सम्पूर्ण कारिका इस प्रकार है ___"मानान्तरविरुद्ध हि मुख्यार्थस्य परिग्रहे । अभिधेयाविनाभूतप्रतीतिर्लक्षणोच्यते ॥ लक्ष्यमाण गुणयोर्गाद् वरिष्टा त गौणता।" कारिका का भावार्थ इस प्रकार है कि-मुख्यार्थ का अन्य प्रमाणों से बाध होने पर मुख्यार्थ (अभिधेय) अर्थ से सम्बद्ध (अविनाभूत) अर्थ की प्रतीति (करानेवाली वृत्ति) लक्षणा कहलाती है। लक्ष्यमाण (जाड्य-मान्द्यादि) गुणों के योग से अर्थात् उन गुणों के वाहीक में रहने के कारण यह लक्षणा-वृत्ति गौणी भी कहलाती है।' इससे स्पष्ट है कि गौणी वृत्ति कोई नयी वृत्ति नहीं है; यह गोणी लक्षणा ही है। यह व्याख्या प्राचीन मतानुसार है। नवीन मत में "अभिधेयाविनाभूतस्य प्रतीतिर्ययासाऽभिधेयाविनाभूतप्रतीतिः शक्यसम्बन्धरूपा" यह विग्रह और अर्थ अभिप्रेत है। अर्थात् जिस वृत्ति से अभिधेय सम्बद्ध अर्थ की प्रतीति हो उसे लक्षणा कहते हैं । इस तरह "शक्य-सम्बन्ध" ही लक्षणा कहलाती है। "लक्ष्यमाणगुणर्योगा"दित्यादि में 'लक्ष्यमाणस्य पदार्थस्य ये गुणा जाड्य-मान्द्यादयस्तद्योगात्, इस प्रकार षष्ठी तसुरुष मानना चाहिए; न कि लक्ष्यमाण “गुणैः" में कर्मधारय मानना चाहिए। अपने अभीष्ट चरम पक्ष में जाडय-मान्धादि गुण लक्ष्य नहीं है; और विशिष्ट लक्षणा मानी नहीं गयी है। इसलिए गण को लक्ष्यमाण नहीं कहा जा सकता। यहाँ तीन पक्ष दिये गये हैं। गोगत जाड्य-मान्दयादि में (लक्षणा) यह पहला पक्ष है। द्वितीय पक्ष में गो गत जाड्य-मान्दयादि सजातीय जाड्यमान्दयादि में लक्षणा मानी गयी है । तथा वाहीक में लक्षणा है यह तृतीय (अन्तिम) पक्ष है। १. गोगतजाड्यमान्द्यादी इत्येक : पक्षः, गोगतजाडचमान्द्यादिसजातीयजाड्यमान्द्यादौ इति द्वितीयः पक्षः। २. वाहीके इति चरमः पक्षः । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ काव्यप्रकाशः न लक्षणा स्यात् । अविनाभावे चाक्षेपेणैव सिद्धेर्लक्षरणाया नोपयोग इत्युक्तम् । ‘आयुर्धृतम्’, ‘आयुरेवेद्म्’ इत्यादौ च सादृश्यादन्यत् कार्यकारणभावादि सम्बन्धान्तरम् । व्याख्याने वाक्यभेदाच्च तत्पुरुष एव श्रेयानिति बोध्यम् । नान्तरीयकत्वं व्याप्तिः, युक्तिमाह - तथात्वेहोति । मञ्चस्य भूतलवृत्तितया मञ्चस्थस्य मञ्चवृत्तितया दैशिकव्याप्तेरभावान्मञ्चस्थं विनाऽपि मञ्च - प्रमितेः कालिकव्याप्तेरप्यसम्भवादिति भावः । ननु क्रोशनकालावच्छेदेन तयोरप्यविनाभावोऽस्त्येवेत्यत आह - श्रविनाभावे चेति । इदमुपलक्षणं सम्बन्धमात्रस्यातिप्रसक्ततयाऽविनाभाव उच्यते स च तथापि समान एव गङ्गादिपदार्थस्य व्यापकस्यानेकविधत्वात् तात्पर्यात्तन्नियमस्तु तुल्य एव । वस्तुतः शब्दस्य स्वपरत्वे लक्षणाऽऽवश्यकी, न च शब्दस्यार्थेन समं दैशिकः कालिकोऽप्यविनाभाव इत्यपि बोध्यम् । यद्यपि यह कहा जा सकता है कि कर्मधारय समास से जो अर्थ सिद्ध होता है; उससे आदिम दोनों पक्षों में बल या प्रामाण्य आता है। क्योंकि दोनों पक्षों में गुण को ही लक्षणाबोध्य माना गया है और "लक्ष्यमाणश्चासौ गुणः " इस विग्रह से वही प्रषाणित होता है। तथापि वैसा नहीं माना गया क्योंकि गुणों की 'अभिधेयाविनाभूत प्रतीति' नहीं होती है। इसलिए चरम पक्ष को सिद्धान्तरूप में प्रस्तुत किया गया 1 यदि एक ही वाक्य का दो रूप से व्याख्यान करें; तो वाक्यभेद आ जायगा । इसलिए “लक्ष्यमाणगुणै:" में तत्पुरुष समास ही मानना चाहिए । कुमारिल भट्ट की उद्धृत पूर्वोक्त कारिका में अविनाभाव से केवल 'संम्बन्ध मात्र लेना चाहिए उसका अर्थ 'नान्तरीयकत्व' अर्थात् व्याप्ति नहीं समझना चाहिए। यदि अविनाभाव का अर्थ यहाँ व्याप्ति लें, तो व्याप्ति न होने के कारण "मञ्चाः क्रोशन्ति" में लक्षणा नहीं हो सकेगी । “मञ्चा:" की यहाँ ( मञ्चस्थ ) पुरुष में लक्षणा मानी जाती है; वह नहीं होगी क्योंकि मञ्च भूतल पर है और पुरुष मञ्च पर। इसलिए अभिधेय और इसलिए दोनों में कालिक लक्ष्य के बीच देशिक व्याप्ति नहीं है । मञ्च की प्रतीति मञ्चस्थ के बिना भी होती है; व्याप्ति भी नहीं है । जिन दो में व्याप्तिग्रह अपेक्षित हो; उनमें देश और काल की एकता अपेक्षित होती है । पूर्वोक्त दोनों प्रकार की एकता नहीं होने के कारण लिए यहाँ अविनाभाव का अर्थ व्याप्ति न मानकर इसलिए "मञ्चाः क्रोशन्ति" में मञ्च और मञ्चस्थ पुरुष में व्याप्ति नहीं होने पर भी मानी गयी लक्षणा की उपपत्ति के केवल सम्बन्धमात्र मानना चाहिए। यदि यह कहें कि क्रोशन का जो काल है उस काल में मञ्च भी विद्यमान है और मञ्चस्थ पुरुष भी । इस तरह क्रोशनकालावच्छेदेन दोनों की व्याप्ति ली जा सकती है; इसलिए दूसरा समाधान प्रस्तुत करते हैं कि 'अविनाभावे च' । अर्थात् अगर अविनाभाव का अर्थ व्याप्ति लें; तो व्याप्ति के कारण आक्षेप (अनुमान) से ही सिद्ध हो जाने पर लक्षणा की आवश्यकता ही नहीं रह जायेगी । "अविनाभाव" यह उपलक्षण है । उपलक्षण का अर्थ है 'स्वबोधकत्वे सति स्वतुल्येतरबोधकत्वम् ।' अर्थात् उपलक्षण उसे कहते हैं जो स्वबोधक हो, और स्वतुल्य इतर का भी बोधक हो । कारिका में 'अविनाभाव' शब्द के बदले यदि 'सम्बन्ध' शब्द रखते हैं तो 'सम्बन्ध' सर्वत्र अतिप्रसक्त है; इसलिए 'सम्बन्ध' नहीं कहकर afarभाव कहा गया है तथापि 'अविनाभाव' कहें या सम्बन्ध कहें कोई अन्तर नहीं आता, गङ्गादिपदार्थ व्यापक के सम्बन्ध में भी व्यभिचार सम्भव है । उदाहरण के लिए गङ्गा का अर्थ है प्रवाह, वह कहीं चौड़ा, कहीं गहरा कहीं उथला आदि है । इसलिए उसका लक्ष्य अर्थ तीर के साथ के सम्बन्ध सामीप्यादि में भी अन्तर Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः एवमादौ च कार्यकारणभावादिलक्षणपूर्वे आरोपाध्यवसाने । अत्र गौणभेदयो देऽपि ताद्रूप्यप्रतीतिः सर्वथैवाभेदावगमश्च प्रयोजनम् । प्रायुरिति । सम्बन्धान्तरतस्तथेति व्याचष्टे-सादृश्यादन्यदिति । सम्बन्धान्तरमित्यनन्तरं वर्तते इति शेषः। ननु सम्बन्धान्तरस्य विद्यमानतामात्र न शुद्धात्वप्रयोजक 'गौर्वाहीक' इत्यत्राप्येकबद्धिविषयत्वादेः सम्बन्धान्तरस्य सत्त्वेन शद्धत्वापत्तेः, 'आयुर्घ तमि'त्यत्रापि प्रमेयत्वादिना सादृश्यसत्त्वेना गौणत्वापत्तेः, अपि तु तत्तत्सम्बन्धपुरस्कारेण प्रयुक्तत्वं तथात्वप्रयोजकम् । तत्कथं सादृश्यान्यसम्बन्धकत्तामात्रेणेदं शुद्धसारोपसाध्यवसानोदाहरणमित्यत आह एवमादाविति । कार्यकारणभावादिलक्ष्यते ज्ञायतेऽनेनेति कार्यकारणभावलक्षणकार्यकारणभावस्पष्ट है। यदि तात्पर्यवश उसमें नियमन मानें तो वह व्याप्तिग्रह का भी नियामक हो सकता है। जैसे "मञ्चाः कोशन्ति" जब कहते हैं तो मञ्च की अलग-अलग प्रतीति ही नहीं रह जाती है। इसलिए दैशिक और कालिक भेद में प्रतीति की गुञ्जाइश ही कहाँ है ? इस तरह अनुमान से ही लक्षणा गतार्थ है। अविनाभाव का अर्थ अगर व्याप्ति लें और तब अनुमान से ही काम चल जाने से लक्षणा की उपयोगिता शेष नहीं रह जाय तो कोई आपत्ति नहीं वस्तुतः शब्द जब स्वपरक होता है तो वहाँ लक्षणा आवश्यक है। जैसे "द्विरेफ" शब्द का लक्ष्यार्थ है प्रमर'। यह शब्द अभिधा के द्वारा "द्वौ रेफो यस्मिन्" इस योगार्थ का बोधक होने के कारण "भ्रमर" इस शब्द का बोधक बनेगा परन्तु तात्पर्य तो शब्द में नहीं अपितु 'भ्रमर' अर्थ में है। इसलिए यहाँ लक्षणा मानना आवश्यक है क्योंकि शब्द का अर्थ के साथ दैशिक और कालिक भी अविनाभाव नहीं है। शब्द का आधार आकाश देश है और अर्थ का पथिव्यादि द्रव्य । इसलिए दैशिक व्याप्ति नहीं है और शब्द तो आशु-विनाशी है। अर्थ उसकी अपेक्षा अधिक-काल-स्थायी है । घटार्थ पहले भी था, अब भी है और भविष्य में भी शायद रहे । इसलिए घट अर्थ और घट शब्द की कालिक व्याप्ति भी नहीं है अतः 'अविनाभाव' कहने से 'द्विरेफ' में लक्षणा नहीं होती थी। इसलिए 'अविनाभाव' से सम्बन्धमात्र लेना चहिए। शुद्ध सारोपा और शुद्ध साध्यवसाना का उदाहरण देते हैं-"आयुर्घतम्" "आयुरेवेदम् ।” “घी आयु है अयवा यह (घी) आयु ही है।' इत्यादि स्थल में सादृश्य से भिन्न कार्यकारणभाव आदि अन्य सम्बन्ध लक्षणा के प्रयोजक हैं। इस प्रकार के उदाहरणों में कार्यकारणभाव-सम्बन्धपूर्वक आरोप और अध्यवसान होते हैं। तात्पर्य यह है कि "आयुर्घतम्" में आरोप्यमाण आयु और आरोप विषय घी दोनों शब्दतः उपात्त हैं; इसलिए यहाँ 'सारोपा शुद्धा लक्षणा' है और "आयुरेवेदम्" यहाँ आरोपविषय घृत शब्दतः उपात्त नहीं है। इसलिए साध्यवसाना लक्षणा मानते हैं। "सम्बन्धान्तरतस्तथा" इसकी व्याख्या है "साहश्यादन्यत्" अर्थात् 'सादृश्य से अन्य' । सम्बन्धातर के बाद "वर्तते" शब्द का शेष मानना चाहिए। इस तरह पूरे वाक्य का अर्थ हुआ कि 'आयुर्घतम्' 'आयुरेवेदम्' इत्यादि स्थल में सादृश्य से अन्य सम्बन्धान्तर है। अन्य सम्बन्ध का होना ही शुद्धात्व का प्रयोजक नहीं मानना चाहिए। ऐसा मानने से “गोर्वाहीकः" में 'एकबुद्धिविषयस्वरूपसम्बन्धान्तर' के कारण शुद्धा लक्षणा माननी पड़ेगी। तात्पर्य यह है कि "गोहीकः" में गौ और वाहीक दोनों का यदि बोध है तो दोनों में एकबुद्धि विषयतारूप सम्बन्धान्तर होने के कारण सादृश्य से भिन्न सम्बन्ध होने से शुद्धा लक्षणा माननी पड़ेगी। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशः शुद्धभेदयोस्त्वन्यवैलक्षण्येनाव्यभिचारेण च कार्यकारित्वादि । सम्बन्धपुरस्कारेण प्रयोगस्तत्पूर्वमित्यर्थः । तथा चात्र न तादृशसम्बन्धस्य सत्तामात्रम्, अपि तु तत्पुरस्कारेण प्रयोगोऽपीति नोदाहरणताक्षतिरित्यर्थः । अन्यथा सादृश्यादन्यदिति पूर्वफक्किकया समं एवमादाविति फक्किकायाः पौनरुक्त्यापातादिति मम प्रतिभाति, सम्बन्धस्य लक्षणात्वपक्षे पूर्वफक्किका, प्रतीतेर्लक्षणात्वे एवमादाविति फक्किका तत्राऽरोपाध्यवसानावित्यस्य प्रतीतिविशेषावित्यर्थ इति यशोधरोपाध्यायाः। तादू प्यप्रतीतिरिति साध्यवसाना "आयुर्घतम्" यहाँ भी "प्रमेयत्व" दोनों में समान है इसलिए सादृश्य होने के कारण गौणी लक्षणा माननी पड़ेगी। इसलिए सादृश्य से भिन्न किसी अन्य सम्बन्ध का होना ही लक्षणा का प्रयोजक नहीं है किन्तु सादृश्य से भिन्न किसी अन्य सम्बन्ध को आधार बनाकर प्रयोग करना शुद्धात्व का प्रयोजक है। इस तरह सादृश्य से भिन्न सम्बन्धवान् होने के कारण इन उदाहरणों को शुद्ध सारोपा और शुद्ध साध्यवसाना क्यों माना गया यह कहते हैं- "एवमादौ"। इस प्रकार के उदाहरणों में कार्यकारणभावादिलक्षणपूर्वक आरोप और अध्यवसान होते हैं। यहाँ . 'कार्यकारण-भावादि-लक्षणे' का अर्थ है 'कार्यकारणभावादिलक्ष्यते' अनेन अर्थात् जिससे कार्यकारणभावादि ज्ञात हो। इस विग्रह के अनुसार कार्यकारणभाव लक्षण का अर्थ होता है कार्य कारणभाव-सम्बन्ध । उसको आधार बनाकर जो प्रयोग हो, तत्पूर्वक आरोपाध्यावसान को शुद्धा लक्षणा मानते हैं। इसलिए यहाँ उस प्रकार के सादृश्य से भिन्न (एकबुद्धि विषयत्वादि और प्रमेयवादिना सादृश्य) सम्बन्ध की सत्ता नहीं है यह तात्पर्य विवक्षित नहीं है; अपि तु तत्सम्बन्धपूर्वक प्रयोग नहीं है यह विवक्षित है। इसलिए "आयुर्घतम्" को शुद्धा का और गौर्वाहीक को गौणी का उदाहरण मानने में कोई क्षति नहीं हुई। अन्यथा “सादृश्यादन्यत्" इत्यादि पूर्वग्रन्थ के साथ “एवमादी" इस ग्रन्थ-सन्दर्भ का पुनरुक्त दोष हो जायेगा, मुझे यह प्रतीत होता है। श्रीयशोधर उपाध्याय का मत यह है कि सम्बन्ध को (शक्य सम्बन्ध को) लक्षणा मानकर पूर्व ग्रन्थ फक्किका लिखी गयी है और प्रतीति को लक्षणा मानकर "एवमादो" इत्यादि ग्रन्थ लिखा गया है। वहां आरोपाध्यवसान के विशेषण के रूप में "प्रतीतिविषयौ" यह भी जोड़ना चाहिए। पूर्वोक्त चारों प्रकार के उदाहरणों में से “गोर्वाहीकः" और "गौरयम्" इन गौणी के सारोपा और साध्यवसाना भेदों में आरोप्यमाण 'गो' तथा आरोप विषय 'वाहीक' में भेद होनेपर भी उन दोनों के तादात्म्य की प्रतीति लक्षणा से होती है। उन दोनों में सर्वथा अभेद का बोध करना गौणी लक्षणा का प्रयोजन है। यह आशय "ताद्रप्यप्रतीतिः" और "सर्वथवाभेदावगमश्च प्रयोजनम्" इन पक्तियों में बताया गया है। पूर्वोक्त पक्ति में "ताद्रप्यप्रतीति" को 'व्यङ्गय बताया गया है वह तो गलत प्रतीत होता है; क्योंकि विशेषण-विभक्ति का अभेद अर्थ माना गया है। इसीलिए ताप्य को शक्यार्थ मानना चाहिए न कि व्यङ्गयार्थ । यदि आप कहें कि विशेषण विभक्ति का अर्थ अभेद नहीं है। क्योंकि पाणिनि आदि किसी वैयाकरण ने अभेद में विशेषण विभक्ति का विधान नहीं किया है। इस तरह अभेद में विशेषण विभक्ति की शक्ति वैयाकरणों के Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लास: ननु विशेषणविभक्तेरभेदार्थकत्वेन तादू प्यस्य शक्यत्वान्न व्यङ्ग्यत्वम्, अथ केनापि पाणिन्यादिनाऽभेदे विशेषणविभक्तौ शक्तेरनुपदर्शनान्नाभेदो विशेषणविभक्तरर्थः संसर्गमर्यादयव तद्भानात्, अन्यथा वाक्यसमानार्थकत्वसिद्धये नीलोत्पलमित्यादिकर्मधारयेऽपि लक्षणापत्तेरिति, किन्तु नीलोत्पलमित्युक्ते नीलस्योत्पलं नीलं वा उत्पलमिति भेदाभेदरूपसंसर्गयोस्तात्पर्यसन्देहो मा भूदिति नीलमित्यत्र द्वितीयाविशेषणविभक्तिरभेदतात्पर्यस्फोरिकेति युक्तमुक्तं ताद्र प्यप्रतीतिः प्रयोजनमिति चेद् ? मैवम् । तथापि ताद्र प्यस्य वाक्यार्थत्वेन व्यङ्गयत्वायोगादिति । अत्राहः-विशेषणविभक्तेरभेदार्थकत्वे सम्बन्धितावच्छेदकत्वेन तदभाने च संसर्गमर्यादया सारोपायामभेदस्योपस्थितावपि स्वातन्त्र्येण साध्यवसानायां च पदान्तराभावेन सम्बन्धितावच्छेदकत्वेन द्वारा अशित होने के कारण पूर्वोक्त स्थलों में ताप्य की प्रतीति शक्यार्थ के रूप में नहीं हो सकती तो इसका समाधान है कि संसर्ग-मर्यादा से ही अभेद अर्थ आ जाता है। वाक्य में आये हुए पदों के बीच आकांक्षादि के कारण सम्बन्ध (अभेद) स्वयं भासित हो जाता है। अन्यथा (यदि अभेद अर्थ विशेषण विभक्ति का ही माने, संसर्ग मर्यादा से उसका भान न मानें तो) "नीलोत्पलम्" कर्मधारय के इस समस्त पद में जहाँ कि विशेषण में विभक्ति नहीं है उसे "नीलमुत्पलम्" इस वाक्य का समानार्थक सिद्ध करने के लिए लक्षणा माननी होगी। इसलिए मानना चाहिए कि अभेद अर्थ विशेषण विभक्ति का नहीं है; वह तो संसर्ग मर्यादा से ही आता है। इस पर प्रश्न यह उठता है कि यदि अंभेद अर्थ संसर्ग-मर्यादा से ही आता है तो "नीलम् उत्पलम्" यहाँ 'नीलम्' में जो विभक्ति है उसका प्रयोग नहीं होना चाहिए क्योंकि "उक्तार्थानामप्रयोग:" यह सिद्धान्त है। परन्तु इसका उत्तर यह है कि यदि 'नीलम्' में विभक्ति नहीं लाते तो 'नीलोत्पलम् आनय' यह कहने पर "नीलस्य .. उत्पलम्" है या "नीलम् उत्पलम्" है इस प्रकार का सन्देह उत्पन्न होता अर्थात् यहाँ नील-उत्पलम् में भेद-सम्बन्ध है या अभेद-सम्बन्ध, इस प्रकार का सन्देह होता; इसलिए पूर्वोक्त प्रकार से संसर्ग-ग्रहण में तात्पर्य का सन्देह न हो इसलिए विशेषण में विशेष्य के अतिरिक्त विभक्ति अभेद-तात्पर्य को स्फुट करने के लिए लगायी गयी है। इस तरह स्पष्ट है कि ताद्र प्य शक्यार्थ नहीं है परन्तु वह विशेषण विभक्ति का द्योत्य अर्थ है। इस तरह ताद्र प्यप्रतीति प्रयोजन है यह कथन ठीक ही है ऐसा नहीं कह सकते; क्योंकि पूर्वोक्त सिद्धान्त के अनुसार भी ताद्रूप्य वाक्यार्थ ही ठहरता है; उसे 'व्यङ्गय' कहना गलत ही है। इसके सम्बन्ध में यशोधरोपाध्याय ने कहा है कि "विशेषण विभक्ति को अभेदार्थक मानने पर और सम्बन्धितावच्छेदकरूप में उसका भान नहीं होने पर संसर्गमर्यादा से सरोपा में अभेद की उपस्थिति होने पर भी स्वातन्त्र्येण साध्यवसाना में पदान्तर के न होने के कारण सम्बन्धितावच्छेदकरूप से या संसर्गरूप से या स्वतन्त्ररूप से अथवा सब तरह से उसकी उपस्थिति के लिए व्यञ्जना माननी चाहिए।। माना कि विशेषण विभक्ति का अर्थ अभेद होता है परन्तु जब तक अभेद का सम्बन्धितावच्छेदकरूप में भान न होगा तब तक "गौर्वाहीकः" में अभेद-सम्बन्ध से अन्वय नहीं होगा। इसलिए अभेद की उपस्थिति संसर्गमर्यादा से ही माननी होगी। स्वातन्त्र्येण अभेद की उपस्थिति सारोपा में अभीष्ट है। इसके लिए व्यञ्जना से ही उसकी उपस्थिति माननी होगी। साध्यवसाना में तो "गोर्जल्पति" में दूसरा समानाधिकरण पद है नहीं इसलिए कोई पद किसी का विशेषण नहीं हैं। अतः विशेषण विभक्ति के अभाव में अभेद की उपस्थिति वहां न विभक्ति द्वारा सम्भव है और न ससर्ग-मर्यादा से सम्भव है । इसलिए साध्यवसाना लक्षणा में सम्बन्धिता Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ काव्यप्रकाशः संसर्गत्वेन स्वातन्त्र्येण वेति सर्वप्रकारेणैव तदुपस्थितये व्यञ्जनोपासनीयेति यशोधरोपाध्यायाः । सारोपायां धर्मयोः साध्यवसानायां धर्मिणोः धर्मयोश्चाभेदप्रतीतिः प्रयोजनमिति नवीनाः । वस्तुतस्तु प्रयोजनमित्यनन्तरं प्रतिपादयतीति शेषः । तेन विदग्धकार्येणा [ ना]यं योज्य इति व्यङ्ग्यम्, न च साध्यवसानायां पदान्तराभावात् कथमभेदप्रतीतिरिति वाच्यम्, शक्त्या तदभानेऽपि व्यञ्जनयैव तत्सम्भवात् सांध्यवसानायामप्यारोपविषयवाचकपदावश्यकत्वस्य मयोक्तत्वाच्च । न च सर्वथैवेत्यस्य वैयर्थ्यम्, साध्यवसानायामपि पदान्तरसत्त्वेनाभेदप्रत्यायकत्वे सारोपवे लक्षण्या भावादिति वाच्यम्, सारोपायां वाहीकत्वरूपवैधर्म्यस्योपस्थित्याऽन्योन्याभावस्वरूपभेदयोरभावस्योपस्थितावपि वैधर्म्यरूपभेदाभावस्यानुपस्थितेः साध्यवसानायां च वाहीकत्वानुपस्थित्या वैधर्म्यरूपभेदाभावस्याप्युपस्थितेरिति । न च साध्यवसानायामिदमादिपदस्य सर्वनामतया बुद्धिस्थतत्तत्प्रकारेणैव तत्तदर्थोपस्थित्या वाहीकत्वे नोपस्थितिरिति वाच्यम्, वच्छेदकरूप से या संसर्गरूप से या स्वतन्त्ररूप से या सब तरह से ताद्रूप्य की उपस्थिति के लिए व्यञ्जना अवश्य उपासनीय है; यह यशोधरीयाध्याय के मत का सारांश है । सारोपा में धर्मों की (आरोप्यमाण और आरोपविषय उभयनिष्ठ जाडघ - मान्यादि की) अभेदप्रतीति प्रयोजन है और साध्यवसाना में धर्मी और धर्म दोनों की अभेदप्रतीति प्रयोजन है यह नवीन (आचार्य) कहते हैं । वस्तुत: ' प्रयोजनम्' शब्द के बाद 'प्रतिपादयति' शब्द 'शेष' समझना चाहिए। तेन "विदग्धकायें नायं योज्य : " यह व्यङ्गय है । अर्थात् "ताद्रूप्यप्रतीतिः, अभेदावगमश्च प्रयोजनम्" का अर्थ यह नहीं करना चाहिए कि ताद्रयप्रतीति 'और' अभेदावगम यहाँ प्रयोजन है किन्तु इसका अर्थ यह मानना चाहिए कि ताद् प्यप्रतीति' और अभेदावगम ये यहां प्रयोजन बताते हैं । अर्थात् ' गौर्वाहीकः " यहाँ दोनों की अभेदप्रतीति से जो व्यङ्गघ निकलता है कि इस 'वाहीक' को विदग्ध ( बुद्धिमानों) का कार्य नहीं देना चाहिए, वही प्रयोजन है। ऐसा प्रयोजन अभेदप्रतीति से निकला ; इसलिए प्रयोजन के बाद 'प्रतिपादयति' का शेष मानना चाहिए। साध्यवसाना लक्षणा में (गौर्जल्पति इत्यादि उदाहरण में) वाहीकादि पदान्तर के अभाव के कारण अभेद प्रतीति कैसे होगी ? यह प्रश्न नहीं करना चाहिए। क्योंकि शक्ति के द्वारा अभेद की प्रतीति न होने पर भी व्यञ्जना से ही उसकी प्रतीति हो जायेगी। साध्यवसाना में भी आरोप विषय (वाहीकादि) के वाचक पद की आवश्यकता होती है यह मैंने प्रतिपादित किया है । "सर्वथैवाभेदावगमश्च प्रयोजनम्" यहाँ "सर्वथैव" यह पद व्यर्थ है, क्योंकि साध्यवसाना में भी पदान्तर यदि मानें तो उसमें सारोपा से कुछ विलक्षणता नहीं रहेगी, ऐसा नहीं कहना चाहिए क्योंकि सारोपा में वाहीकत्वरूप वैधर्म्य की भी उपस्थिति होती है, इसलिए अन्योन्याभाव और स्वरूप भेद के अभावों की उपस्थिति होते हुए भी वैधर्म्यरूप का भेद अभाव वहाँ उपस्थित नहीं होता । किन्तु साध्यवसाना में वाहीकत्व की उपस्थिति नहीं होती है, इसलिए वहाँ वैधर्म्यरूप भेदाभाव की उपस्थिति हो जाती है । यही उन दोनों में भेद रहेगा । साध्यवसाना में "गौरयम्" इत्यादि उदाहरणों में जहाँ सर्वनाम का प्रयोग रहता है वहाँ भी सर्वनाम तो बुद्धिस्थ पदार्थ का ही परामर्शक होता है इसलिए सर्वनाम द्वारा बुद्धिस्थ तत्तत्प्रकारेण ही तत्तदर्थं (वाहीकार्थ) की उपस्थिति होगी, वहाँ 'गौर्वाहिक: ' में जैसे वाहीकत्वेन उपस्थिति होती है; उस रूप में उपस्थिति नहीं होगी यह भी दोनों में भेद हो सकता है, ऐसा नहीं कहना चाहिए "गौरयम्" में "अयम्' शब्द का प्रयोग पुरोवर्ती Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितीय उल्लासः 83 क्वचित् तादादुपचारः । यथा- इन्द्रार्था स्थूणा 'इन्द्रः' । क्वचित् स्वस्वामि पुरोवत्तित्वादेरेव बुद्धिस्थतादशायां तत्र साध्यवसानतायाः सम्भवाद् वाहीकत्वादिना बुद्धिस्थतादशायां तस्य सारोपोदाहरणत्वात्, सर्वनामस्थले बुद्धिस्थत्वस्यैव प्रकारताया युक्तिसहत्वात् । तथाहि-यद्धर्मावच्छिन्नतयोपस्थिते शक्तिग्रहः स एव धर्मस्तत्पदजन्योपस्थितौ प्रकार इति. सर्वसिद्धम् । तथा च तत्र तदादिपदे तत्तत्प्रकाराणामनन्ततया विशिष्योपस्थितेरसम्भवेन तत्तदवच्छिन्नतयोपस्थितेषु न शक्तिग्रहः तथा सति बुद्धिस्थत्वेनोपस्थित्यापत्तावनुभवविरोधात् ।। किञ्च शक्यतावच्छेदकीभूतप्रकाराणां बुद्धिस्थत्वस्यानवच्छेदकत्वे शक्यतावच्छेदकानन्त्येनानेकशक्तिकल्पनागौरवं शक्येषु च तस्यावच्छेदकत्वे शक्यतावच्छेदकैक्ये, नैकशक्तिकल्पनालाघवमिति युक्तमुत्पश्यामः। अन्यलक्षण्येनान्यकारणापेक्षया प्राधान्येनाव्यभिचारेणान्यकारणराहित्येनान्यवैलक्षण्यं स्वरूपयोग्यताऽव्यभिचारः फलोपधायकतेति केचित् । कार्यकारणभावादीत्यादिपदग्राह्यसम्बन्धानाह क्वचिदित्यादिना तक्षेत्यन्तेन । तादात्तादर्थ्यरूपसम्बन्धात् उपचारो लक्षणा, इन्द्रार्थेति । पदार्थ के निर्देश के साथ किया जाता है। इसलिए पुरोवर्ती पदार्थ ही जब बुद्धिस्थ रहेगा तो वहाँ साध्यमानता हो सकती है वाहीकत्व के रूप में जब वह बुद्धिस्थ रहेगा तब सारोपा मान सकते हैं। सर्वनाम के प्रयोगस्थल में बद्धिस्थत्व को ही प्रकारता माना उचित है। जिस धर्म से अवच्छिन्न उपस्थित में शक्तिग्रह होता है, वही धर्म उस पद से जन्य उपस्थिति में प्रकार होता है यह सर्वमान्य सिद्धान्त है। इस प्रकार साध्यवसाना में वाहीक की परोवर्ती पदार्थरूपेण उपस्थिति रहती है और सारोपा में वाहीक की वाहीकत्वेन उपस्थिति रहती है। इस तरह तदादि पद में तत्तत्प्रकारों के अनन्त होने के कारण विशेष करके किसी की उपस्थिति ही नहीं हो सकती; इसलिए तत्तदवच्छिन्नतया उपस्थिति में शक्ति नहीं मानी जा सकती; क्योंकि वैसा मानने पर बुद्धिस्थ होने के कारण अनेकों की उपस्थिति होने से अनुभव में विरोध आ जायगा। एक बात और, यदि शक्यतावच्छेदक के रूप में भासित होने वाले विशेषणों का बुद्धिस्थ पदार्थ को अनवोदक माने तो शक्यतावच्छेदक की अनन्तता के कारण अनन्त शवित की कल्पना करनी होगी, जिसमें गौरव होगा। शक्यार्थों का अवच्छेदक यदि बुद्धिस्थ पदार्थ को मानते हैं तो अनेक शक्ति नहीं माननी पड़ती है इससे लाघव होता है। "आयुषतम्" "आयुरेवेदम्" यहां शुद्धा सारोपा और शुद्धा साध्यवसाना लक्षणा में घृत को आयुर्वर्धनकार्य का अमोघ कारण बताना ही लक्षणा का प्रयोजन है । घृत आयुर्वर्धनकार्य का अमोघ कारण है; अन्य कारणों की अपेक्षा यह विलक्षण कारण है। इसी बात को बताते हए लिखते हैं 'अन्य बलक्षण्येन' इत्यादि । पंक्ति का अर्थ है, अन्य कारणों की अपेक्षा यह प्रधान कारण है अव्यभिचरित कारण है और आयर्वर्धन के लिए घी को कारण बनने के लिए किसी अन्य कारण की अपेक्षा नहीं होती है। यही घी में अन्यकारण-वलक्षण्य है । स्वरूपयोग्यता ही अव्यभिचार है और वही फलोपधायकता है। ऐसा किसी का मत है। कार्यकारणभावादि में आदि पद ग्राह्यसम्बन्धों को 'क्वचित्' यहाँ से लेकर 'तक्षा' यहां तक के ग्रन्थ से बताते हैं। कहीं लक्षणा तादर्थ्य सम्बन्ध को लेकर होती है जैसे इन्द्र की पूजा के लिए बनाये गये स्थूण को 'इन्द्र' कहते हैं। यज्ञ में इन्द्र देवता की पूजा के लिए आरोपित स्थूण भी इन्द्र कहलाता है। वृत्ति में 'इन्द्रार्थी' Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाश भावात् । यथा-राजकीय: पुरुषो 'राजा' । क्वचिदवयवावयविभावात् । यथा-अग्रहस्त इत्यत्राग्रमात्रेऽवयवे 'हस्तः' । क्वचित् तात्कात्, यथा अतक्षा 'तक्षा'। सम्बन्धप्रकटनार्थं न तु लक्षणाकारप्रदर्शनार्थं 'स्थूणा इन्द्र' इत्येतावति च तत्प्रदर्शनसम्भवात् । अग्रहस्तेति । अग्रश्चासौ हस्तश्चेत्यर्थः, अन्यथा हस्तपदे लक्षणानुपपत्तेः । एषु च यथाक्रममिष्टप्रदत्वम् अलङ्घनीयाज्ञत्वं बलाधिक्यं नैपुण्यातिशयश्च प्रयोजनमवगन्तव्यम् । अत्र यद्यपि लक्षणामात्रप्रदर्शनेनापि लाक्षणिकशब्दनिरूपणं सम्भवत्येव तथापि भेदप्रदर्शनं काव्यभेदोपयोगित्वमेषां प्रदर्शयितुम् । तथाहिउपादानलक्षणार्थान्तरसङ्क्रमितवाच्यध्वन्युपयोगिनी, लक्षणलक्षणा चात्यन्ततिरस्कृतवाच्ये' [उपयोगिनी, गौणसारोपा रूपकालारोपयोगिनी, गौणसाध्यवसाना च प्रथमातिशयोक्तिप्रयोजिका शुद्धसारोपा (तु ?) चतुर्थातिशयोक्तिलक्षिका, शुद्धसाध्यवसाना च सहकारिव्युदासेन कार्यकारित्वरूपसामर्थ्यातिशयव्यङ्गयोपदर्शिकेति ध्येयम् । यह शब्द सम्बन्ध प्रकट करने के लिये लिखा गया है; किन्तु लक्षणा का आकार प्रकट करने के लिए नहीं। "स्थूणा इन्द्रः" इतना लिखने से ही लक्षणा का आकार प्रकट हो जाता था। कहीं स्व-स्वामिभावसम्बन्ध से उपचार (अन्य शब्द का अन्यत्र प्रयोग) होता है जैसे 'राजकीय पुरुष भी (राजा का विशेष कृपापात्र मनुष्य भी) 'राजा' कहलाता है। कहीं अवयवावयविभावसम्बन्ध से लक्षणा होती है, उपचार होता है, 'अग्रहस्त' यहां हाथ के केवल अग्रिम भाग के लिए 'हाथ' शब्द का प्रयोग हुआ है। यहां अग्रहस्त में 'अग्रश्चासौ हस्तश्च' इस रूप में (कर्मधारय समास मानना चाहिए) यदि "अग्रहस्त' इस अखण्ड शब्द को हस्ताग्रवाचक माने या 'हस्तस्य अग्रम्' इस विग्रह में समास करके अग्र शब्द का 'आहिताग्न्यादि' गण में पाठ करके पूर्वनिपात माने या 'राजदन्तादि गण' में हस्त शब्द का पाठ मान कर परनिपात मानें तो यहां लक्षणा नहीं होगी। इसलिए कर्मधारय समास ही मानना चाहिए। इन्द्रार्था स्थूणा 'इन्द्रः'; राजकीयः पुरुषः 'राजा', 'अग्रहस्तः' क्वचित् तात्कम्यत् ियथा अतक्षा 'तक्षा' इन उदाहरणों में क्रमशः इष्टफलदातृत्व, अलङ्घनीय आज्ञात्व, बलाधिक्य और नैपुण्याधिक्यरूप प्रयोजन जानना चाहिए। यद्यपि लक्षणा मात्र के वर्णन से लाक्षणिक शब्द का निरूपण हो ही जाता था तथापि लक्षणा के भेद काव्य के भेदों के ज्ञान के लिए उपयोगी हैं यही दिखाने के लिए यहाँ लक्षणा के भेदों का निरूपण किया गया। जैसे कि उपादान लक्षणा 'अर्थान्तर संक्रमित वाच्य' नामक ध्वनि (ज्ञान) के लिए उपयोगी है तथा लक्षण-लक्षणा अत्यन्त तिरस्कृतवाच्य ध्वनि में उपयोगिनी है। गौणी सारोपा रूपकाङ्कार के लिए और गौणी साध्यवसाना प्रथम अतिशयोक्ति (रूपकातिशयोक्ति) के लिए आवश्यक है। शुद्धा सारोपा तो चतुर्थ अतिशयोक्ति के ज्ञान में सहायक होती है। शुद्ध साध्यवसाना भा सहकारी के बिना कार्यकारित्वरूप सामर्थ्यातिशय व्यङ्गय को प्रकट करती है। इसलिए इन भेदों का वर्णन किया गया है यह समझना चाहिए। उपसंहार करते हुए बताते हैं कि "लक्षणा तेन षड्विधा" । पूर्वोक्त पंक्तियों में काव्यप्रकाशकारने लक्षणा के ६ भेद बताये हैं। सर्वप्रथम लक्षणा के दो भेद हैं-१ शुद्धा और २ गौणी। उनमें शुद्धा के चार भेद हैं(क) उपादानलक्षणा सारोपा शुद्धा (ख) उपादानलक्षणा साध्यवसाना शुद्धा (ग) लक्षणलक्षणा सारोपा शुद्धा (घ) लक्षणलक्षणा साध्यवसाना शुद्धा । १. वनाविति शेषः। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लास : [ १७ ] लक्षणा तेन षड्विधा ॥ १२ ॥ ६५ आद्यभेदाभ्यां सह । उपसंहरति-लक्षणा तेनेति । ननु 'स्वसिद्धय' इत्यादिना प्रभेदचतुष्टयमेवोक्तम्, अतः कथं षड्विधेत्यत आह- श्राद्यमेवाभ्यां सहेति । उपादानलक्षणलक्षणाभ्यां सहेति, उपादानलक्षणाभ्यां सहेति बहवः । वयं तु - "तत्सिद्धिजातिसारूप्यप्रशंसालिङ्गभूमिभिः । षड्भिः सर्वत्र शब्दानां गौरणी वृत्तिः प्रकल्पिता ॥ १ ॥” इति पार्थसारथिमिश्रवचनात् " तत्सिद्धिजातिसारूप्यप्रशंसाभूमिलिङ्गसमवाया गुणाश्रयाः" इति गौणी के दो भेद माने गए हैं - ( क ) गौणी सारोपा (ख) गौणी साध्यवसाना। शुद्धा और गौणी दोनों के भेदों को मिलाने से लक्षणा के ६ भेद सिद्ध होते हैं। इसी बात को इस प्रकरण के उपसंहार के रूप में दिखाते हुए लिखते हैं- 'लक्षणा तेन षड्विधा" इसलिए लक्षणा ६ प्रकार की होती है । स्वसिद्धये इत्यादि कारिका के द्वारा चार प्रभेद ही बताये गये हैं । इसलिए वह ६ प्रकार की किस तरह हो गयी, इस बात को बताते हुए लिखते हैं कि "आद्यभेदाभ्यां सह" अर्थात् उपादान - लक्षणा और लक्षण - लक्षणा इन दो भेदों के साथ पूर्वभेदों को मिलाने से लक्षणा ६ प्रकार की हो जाती है । यह बहुतों का मत है । टीकाकार का मत - हम तो "आद्यभेदाभ्यां सह" इसका तात्पर्य इस प्रकार मानते हैं कि 'यह अधूरा वाक्य इस एक भ्रम को दूर करने के लिए लिखा है ; पार्थसारथि मिश्र ने गौणी वृत्ति के ६ भेद माने हैं । उनका वचन है कि— तत्सिद्धि-जाति- सारूप्य प्रशंसा-लिङ्ग-भूमिभिः षड्भिः सर्वत्र शब्दानां गौणी वृत्तिः प्रकल्पिता ।। अर्थात् तत्सिद्धि, जाति, सारूप्य, प्रशंसा, लिङ्ग और मूल रूप ६ सम्बन्धों के कारण होनेवाली शब्दों की वृत्ति को गौणी कहते हैं । जैसे "यजमानः प्रस्तरः" यहाँ प्रस्तर से ही यजमान के कार्यों की सिद्धि के कारण प्रस्तर में लक्षणा है । 'जाति' का अर्थ यहाँ 'जननेन या प्राप्यते सा जातिः हैं। इसका उदाहरण है 'अग्निवें ब्राह्मण: ।' यहाँ ब्रह्ममुखरूप एक कारण से उत्पन्नात्मक जातिरूप सम्बन्ध से लक्षणा हुई है। "आदत्यो वै यूपः " यहां यूप को आदित्य स्वरूप मानकर लक्षणा की गई है । "अपशवो वान्ये गो अश्वेभ्यः पशवो गोऽश्वाः" यहाँ गो और अश्व को प्रशस्त पशु कहा है । इसलिए यहाँ प्रशंसाश्रय लक्षणा है। भूमसमवाय का उदाहरण है 'सृष्टीरुपदधाति' और 'प्राणभृत उपदधाति । जहाँ अधिक प्राणी और कुछ अप्राणी हों, वहाँ प्राणियों के बाहुल्य को देखकर कहते हैं "प्राणाभूत उपदधाति" । छत्ररूप लिङ्ग (चिह्न) से युक्त कुछ और कुछ विना छत्ते के समुदाय को जो 'छत्रिणो यान्ति" कहते हैं इसका कारण लिङ्ग समवाय है । Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ काव्यप्रकाशः सा च जैमिनीयसूत्राच्च मीमांसकमतसिद्धं गौण्यामेव षड्विधत्वं मा प्रसाङ्क्षीदिति व्याचष्टे - आद्यभेदाभ्यां सहे 'ति तथा च शुद्धगौणरूपसकललक्षणामादाय षड्विधत्वम् । ननु गौणीमात्रे तत्सिद्धिसारूप्ययोर्यजमानः प्रस्तरः, आदित्यो वै यूप' इत्यनयोरेव, गौणसारोपाया 'अग्नि वै ब्राह्मण' इत्यस्य ब्रह्ममुखरूपैककारणोत्पन्नत्वात्मकजाति रूपसम्बन्धाच्छुद्धसारोपायाम् 'अपशवो वाऽन्ये गो अश्वेभ्यः पशवो गोऽश्वा' इत्यस्य गवाश्वं प्रशस्तमन्येऽप्रशस्ता इत्यर्थकतयाऽर्थान्तरसङ्क्रमितवाच्यरूपोपादानलक्षणायां, 'सृष्टीरुपदधाति प्राणभृत उपदधाति' इति भूमलिङ्गसमवाययोः 'छत्रिणो यान्तीतिवदुपादानलक्षणायामेवान्तर्भावात्, यद्यपि गौणीपदेन लक्षणामेव ते वदन्ति, तथाप्युक्तप्रकारेण विभागोऽनुपपन्नः, तथाहि - तत्सिद्धिसारूप्ययोरेकत्वाद् एककारणकत्वरूप जातेर्भेदकत्वे एककार्यकत्वादेरपि तथात्वापत्तेः । अत एव सम्बन्धभेदमात्रेण भेदाभावान्न गौणीलक्षणयोरत्र भेदेनोपादानम्, अपशवो वेत्यत्र प्राशस्त्यरूपलक्ष्यतावच्छेदकभेदमात्रेण भेदस्वीकारे 'गङ्गायां घोषो' 'यमुनायां घोष' इसी तरह का एक जैमिनीय सूत्र है - " तत्सिद्धि जाति- सारूप्य प्रशंसा-लिङ्गसमवाया गुणाश्रयाः ।” आशय इसका यह है कि - तत्सिद्ध, जाति, सारूप्य, प्रशंसा, लिङ्ग और समवायरूप सम्बन्ध के कारण शब्द गौण अर्थ को बताता है । उदाहरण - ( १ ) तत्सिद्धि यजमानः प्रस्तरः (२) सारूप्य - आदित्यो वै यूपः । (३) जातिः - अग्नि ब्राह्मण: ( ४ ) प्रशंसा - अपशवो वान्ये गो अश्वेभ्यः पशवो गोऽश्वाः (५) भूमंसमवायसृष्टीरुपदधाति ( ६ ) लिङ्गसमवाय-- छत्रिणो यान्ति । इस तरह मीमांसक के मतानुसार गौणी के ही ६ भेद न समझ लिये जायं, इसलिए कारिका की व्याख्या करते हुए लिखा गया है "आद्यभेदाभ्यां सह " । इसका तात्पर्य यह हुआ कि शुद्ध और गौणीरूप सकल लक्षणा को लेकर ६ भेद बताये गए हैं। केवल गौणी के मीमांसक-मतसिद्ध ६ भेदों की चर्चा यहाँ नहीं है । प्रश्न उठाते हुए लिखते हैं कि तत्सिद्धि और सारूप्य के उदाहरण 'यजमानः प्रस्तरः' "आदित्यो वै ग्रुप :" इन दोनों का ही गौणीमात्र में अन्तर्भाव हो सकता है, गौणी सारोपा के दिये गए उदाहरण 'अग्निव ब्राह्मणः' इसका ब्रह्म-मुखरूप एक कारण से उत्पन्नत्वात्मक जातिरूप सम्बन्ध के कारण शुद्ध सारोपा में अन्तर्भाव हो सकता है। ‘अपशवो वान्ये गो अश्वेभ्यः, पशवो गोऽश्वा:' इसका गो और अश्व प्रशस्त हैं और उनसे अन्य अप्रशस्त हैं, यह तात्पर्य होने के कारण अर्थान्तरसंक्रमितवाच्यरूप उपादान लक्षणा में अन्तर्भाव हो सकता है: भूमं और लिङ्ग समवाय के उदाहरण 'सृष्टीरुपदधाति' 'प्राणभृत उपदधाति' का 'छत्रिणो यान्ति' की तरह उपादान लक्षणा में ही अन्तर्भाव हो जाएगा। इस तरह गौणीवृत्ति का पूर्वोक्त कारिका में निरूपण करना और उसका ६ भेद करना व्यर्थं है । यदि आप यह कहें कि कारिका में गौणीपद से लक्षणा ही लिया गया है गौणी को अतिरिक्त नहीं माना गया है तो पूर्वोक्त प्रकार से विभाग करना गलत ही दिखाई पड़ता है। क्योंकि तत्सिद्धि और सारूप्य दोनों एक ही हैं । इनको परस्पर भिन्न प्रमाणित करने के लिए यदि एककारणकत्वरूप जाति को भेदक मानेंगे तो तुल्यन्याय से एककार्यत्वादिरूप जाति को भी भेदक मानना पड़ेगा । सम्बन्धभेद मात्र से भेद नहीं मानने के कारण गौणी और लक्षणा में यहाँ भेद नहीं माना गया है । " अपशवो वान्ये इस ( पूर्वोक्त वाक्य ) में प्राशस्त्यरूप लक्ष्यतावच्छेदक के भेदमात्र से भेद स्वीकार करने पर 'गङ्गायां घोष:' 'यमुनायां घोष:' इत्यादि गङ्गातीरत्व और यमुना तीरत्व में भेद के कारण लक्षणा में भेद Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लास: . ६७ इत्यादावपि गङ्गातीरत्वयमुनातीरत्वयोर्भेदाल्लक्षणाभेदप्रसङ्गः, भूमलिङ्गसमवाययो दोऽनुपपन्न एव नहि 'छत्रिणो यान्तो'त्यादौ छत्रिबाहुल्याबाहुल्याभ्यां लक्षणाभेदं कश्चिदभ्युपैतीति भाव इति युक्तमुत्पश्यामः। ननु गोवाहीकविषये 'गाव एते समानीयन्तां' 'गावः समानीयन्ता'मिति गौण्यामप्युपादान(लक्षण). लक्षणयोरुदाहरणसत्त्वात् कथं तत्र द्वावेव भेदाविति चेद् ? अत्र चण्डीदासः षड्भिरुपाधिभिः रूढिप्रयोजनोपादानलक्षणारोपसाध्यवसानत्वरूपैः कल्पिता विधाः प्रकारा यस्याः सा षड्विधेत्यर्थ इत्याह । तत्र प्रदीपकृतः शुद्धैव सारोपाऽन्या त्वित्येव-तुशब्दयोरेवमसङ्गत्यापत्तिः । किञ्च शुद्धात्वगौणीत्वमादायाष्ट मानना पड़ेगा। भूम और लिङ्गसमवाय में भेद मानना युक्ति ही नहीं है दोनों में बाहुल्य और अबाहुल्य का ही भेद है । परन्तु 'छत्रिणो यान्ति' में छत्री के बाहुल्य या अबाहुल्य के कारण लक्षणा में भेद कोई नहीं मानता। यह भाव "आद्यभेदाभ्यां सह" का है। यह मुझे उचित प्रतीत होता है। .६ से अधिक भेदों की सम्भावना प्रकट करके "लक्षणा तेन षड्विधा" इस पंक्ति की संगति बिठाने के लिए विविध मत-मतान्तर देते हुए प्रश्न उठाते हैं कि 'गोर्वाहीकः' यहां वाहीक को लक्ष्य करके 'गाव एते समानीयन्ताम्" इन बैलों को लाइये, यहाँ सर्वनाम एतत् शब्द के रूप 'एते' के द्वारा वाहीक के उपादान हो जाने से गौणी में भी आदान-लक्षणा हो सकती है । इसी तरह "गावः समानीयन्ताम्" यहां "गावः" ही वाहीक का उपलक्षण है इसलिये गौणी में लक्षण-लक्षणा भी हो सकती है, फिर गौणी-लक्षणा के पूर्वोक्त दो ही भेद क्यों माने गये ? - इस प्रश्न के उत्तर में चण्डीदास ने कहा है कि (गौणी के) ये भेद तो होंगे ही, रही "लक्षणा तेन षडविधा" इस वाक्य की संगति । वह इस प्रकार है-इस वाक्य का अर्थ लक्षणा के ६ से अधिक भेद का निषेध नहीं है या न यह है कि लक्षणा के ६ भेद हैं यह पंक्ति तो लक्षणा की ६ उपाधियां हैं, इतना मात्र बताती है । इस तरह चण्डीदास के विचार में रूढि-प्रयोजन-उपादान-लक्षण-आरोप-साध्यसानत्वरूप उपाधियों से ६ विध होने के कारण लिखा गया है "लक्षणा तेन षड्विधा"। चण्डीदास के इस मत का खण्डन करते हए प्रदीपकार ने कहा है कि-'यदि चण्डीदास का मत माने और गौणी के भी उपादान-लक्षणा और लक्षण-लक्षणा भेद स्वीकार करें तो शुद्धव'सा द्विधा"यहाँ 'एव' शब्द के द्वारा उपादानलक्षणा और लक्षण-लक्षणा को केवल शुद्धा का प्रकार बताना असंगत हो जायेगा; इतना ही नहीं, "सारोपा'ऽन्या" यहां 'तु'शब्द का प्रयोग भी व्यर्थ हो जायेगा।' प्रदीपकार के विचार में अन्या'का अर्थ है गौणी; क्योंकि पहले शुद्धा का वर्णन आ गया है इसलिए अन्या का तात्पर्य उससे (शुद्धा से) अन्य लेना ही उचित है । इस तरह उनके विचार में 'तु' का तात्पर्य हुआ कि गौणी आरोप और अध्यवसान के कारण दो प्रकार की होगी। उपादान और लक्षण के कारण उसके भेद नहीं होंगे। द्रष्टव्य मूल कारिकाएं १. स्वसिद्धये पराक्षेपः परार्थ स्वसमर्पणम् । उपादानं लक्षणञ्चेत्युक्ता शुद्धव सा द्विधा । (सू० १०) २. सारोपाऽन्या तु यत्रोक्तौ विषयी विषयस्तथा (सू १४) Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ काव्यप्रकाशः विधत्वस्याप्यापत्तिः अपि च स्वसादृश्यस्य स्वावृत्तित्वेन तत्रोपादानाद्यसम्भवः सम्बन्धान्तरेण गौणत्वायोगादिति। अत्र वदन्ति; काव्यविदां मते स्वसादृश्यमपि स्वस्मिन् वर्तत एव, कथमन्यथा 'गगनं गगनाकारम्' इत्यादि "त्वन्मुखं त्वन्मुखेनैव तुल्यं नान्येन केनचित्' इति च सङ्गच्छते ? किञ्च सादृश्यपदं साधारणधर्मपरं, न तु भिन्नत्वादिगर्भ, गौरवात् । यदुक्तं- 'लक्ष्यमाणगुणैर्योगादि'ति, तादृशं च जडत्वादिकमेवेति, अपि चैवमुपादानलक्षणापि दत्तजलाञ्जलिः, शक्यसम्बन्धस्य शक्येऽसत्त्वात्, न चोपादानलक्षणायां शक्यस्य लक्ष्यतावच्छेदकतया न तत्र लक्षणा, लक्ष्यतावच्छेदकशक्यकत्वं तल्लक्षणमिति वाच्यम्, छत्रिण इत्यत्र तयात्वाभावात्, वाहीकमात्र गाः समानयेति लक्षणलक्षणाया दुरुद्धरत्वाच्च । तस्मात् षड्विधेत्यस्य शुद्धात्वगौणोत्वोपादानत्वलक्षणात्वसारोपत्वसाध्यवसानत्वरूपषड्विभाजकोपाधिमत्त्वमित्येवार्थों ग्राह्यः। इदं तु वयमत्र विलोकयामः- युगपवृत्तिद्वयविरोधानङ्गीकाराद् विरुद्धविभक्त्यनवरुद्धप्रातिपदिकार्थयोरभेदान्वयनियमस्य बहुशो व्यभिचाराच्च 'गङ्गायां घोषमत्स्या'वित्यत्रे व 'छत्रिणो यान्ती' . इतना ही क्यों? यदि गौणी के भी उपादान-लक्षणा और लक्षण-लक्षणा भेद मानें तो शुद्धा के ४ और गोणी के ४ भेद होने से लक्षणा के आठ भेद हो जायेंगे। सादृश्य भेदघटित होता है। अतः अपना सादृश्य अपने में नहीं , रहता, इसलिए सादृश्य-सम्बन्ध से होनेवाली लक्षणा में उपादानता सम्भव ही नहीं है । सम्बन्धान्तर से लक्षणा मानने पर वह गौणी नहीं होगी। इस सम्बन्ध में कुछ लोग कहते हैं कि काव्यज्ञों के मतानुसार स्व-सादृश्य (अपना सादृश्य) भी स्वयं में " (अपने-आप में) रहता है ऐसा माना गया है। यदि अपना सादृश्य अपने में न रहे तो "गगनं गगनाकारम्" इत्यादि आलंकारिक-प्रयोग कैसे होगा? यहाँ गगन में गगन का ही सादृश्य दिया गया है। 'स्व' में 'स्व' का सारश्य मानते हैं : 'इसलिए "त्वन्मुखं त्वन्मुखेनैव तुल्यं नान्येन केनचित्" यह प्रयोग भी संगत होता है। 'साहश्य' उसको नहीं कहा गया है जो उन पदार्थों में रहे जो आपस में भिन्न होते हुए बहुत से गुणों में समान हो; किन्तु यहाँ सादृश्य पद साधारण धर्ममात्रपरक है, वह भिन्नतादिधर्म से घटित नहीं है । भेदघटित लक्षण करने में गौरव होता है। "लक्ष्यमाणगुणर्योगात्" अर्थात् गौणी नाम इसलिए पड़ा कि इस लक्षणा में लक्ष्यमाण गुणों के साथ योग रहता है । उस प्रकार का गुण जडत्वादि ही है। एक बात और, ऐसा मानने पर उपादान-लक्षणा का भी उच्छेद हो जायेगा क्योंकि उपादान-लक्षणा में शक्यार्थ का भी भान रहता है । और वहां शक्यसम्बन्ध भी नहीं माना जा सकता क्योंकि इस मत के अनुसार शक्य का सम्बन्ध शक्य में नहीं रह सकता। ऐसा कहना उचित नहीं होगा कि उपादान-लक्षणा में शक्य के लक्ष्यतावच्छेदक होने से वहाँ लक्षणा हो जायेगी? क्योंकि 'लक्ष्यतावच्छेदकशक्यकत्वं' यही उपादान-लक्षणा का लक्षण माना गया है । "छत्रिणो यान्ति" यहाँ वैसा नहीं है। और वाहीक मात्र को उद्देश्य करके वाहीक को लाने के तात्पर्य से जहाँ कहा जायेगा “गाः समानय” वहां लक्षण-लक्षणा मानने से कोई युक्ति रोक नहीं सकती। इसलिए 'षविधा" इसका अर्थ यही मानना चाहिए कि लक्षणा की शुद्धात्व, गौणीत्व, उपादानत्व, लक्षणात्व, सारोपात्व और साध्यवसानत्वरूप ६ विभाजक उपाधियाँ हैं। मैं तो यहाँ ऐसा समझ रहा हूँ कि एकसाथ दो वृत्तियों की उपस्थिति को विरुद्ध नहीं माना गया है और विरुद्ध विभक्तियों से अनवरुद्ध दो प्रातिपदिकार्थों में अभेदवाले नियम का अनेक स्थानों पर व्यभिचार देखा गया है इस Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लास : EE त्यत्रापि शक्त्या छत्रस्य जहत्स्वार्थया छत्राभावस्य, 'काकेभ्य' इत्यत्र काकस्य शक्त्या बिडालादीनां च जहत्स्वार्थया, 'कुन्ता' इत्यत्र कुन्तत्वेन रूपेण जहत्स्वार्थयैव कुन्तरस्योपस्थितिरस्तु कृत मजहत्स्वार्थया, शक्यसम्बन्धस्य शक्येऽसत्त्वेन तदंशे लक्षणाया अभावात् कुन्तादेर्लक्ष्यतावच्छेदकत्वपक्षे तत्र लक्षणाया अभावाच्च, 'त्वामस्मि वच्मीत्यादावर्थान्तरसङ्क्रमितवाच्ये' यत्किञ्चिच्छक्यतावच्छेदकरूपशक्यस्य परित्याग एव, अन्यथा तत्र जहदजहत्स्वार्थस्य तृतीयप्रकारस्याप्यापत्तेः, व्यक्तिमात्रशक्तिपक्षेऽप्याकाशपदादष्टद्रव्यातिरिक्तद्रव्यत्वप्रकार [क] बोधस्य लाक्षणिकत्ववत्प्रकृतबोधस्यापि तथात्वात् । एवं सारोपसाध्यवसाने अपि न भिन्ने आरोपविषयवाचकपदोपादानानुपादानयोः क्रियापदाद्युपादानादेरिव भेदाप्रयोजकत्वाद् गौण्यपि न शुद्धातो भिन्ना सम्बन्धभेदेन लक्षणाभेदे सङ्क्षेपेण समवायकार्यकारणभावात् तादात्म्यादीनामपि भेदेन लक्षणाभेदप्रसङ्गात्; तस्मात् सर्वत्र जहत्स्वार्थैकरूपैव लक्षणा, सैव च क्वचिद् विशेष्यस्य क्वचिद विशेषणस्य क्वचिदुभयोः परित्यागात् त्रिविधेति न षड्भेदेति दिक् । लिए और 'गङ्गायां घोषमत्स्यो' में जैसे शक्ति से प्रवाह की और लक्षणा से तीर की उपस्थिति होती है, उसी तरह 'छत्रिणो यान्ति' यहाँ भी शक्ति से छत्र की और जहत्स्वार्था लक्षणा से छत्राभाव की उपस्थिति हो जायेगी, और 'arat दधि रक्ष्यताम्' में काक की शक्ति से और बिडालादि की जहत्स्वार्था से उपस्थिति सम्भव है, तथा 'कुन्ता: प्रविशन्ति' यहां कुन्तत्वेन रूपेण जहत्स्वार्था लक्षणा से ही कुन्तधर की उपस्थिति हो ही जायेगी । इस तरह 'अजहत्स्वार्था लक्षणा' मानना व्यर्थ है । अजहत्स्वार्थी को लक्षणा मानना सम्भव भी नहीं है; क्योंकि शक्यसम्बन्ध लक्षणा का लक्षण है; भेद न होने से शक्य का सम्बन्ध शक्य में नहीं हो सकने के कारण उस अंश में अर्थात् अजहत्स्वार्था या उपादान लक्षणा के उदाहरणों में भासित होनेवाले शक्य अंश में लक्षणा मानी ही नहीं जा सकती । 'वामस्मि वच्मि विदुषाम्' इत्यादि अर्थान्तर-संङ्क्रमितवाच्य नामक ध्वनि में यत्किञ्चित् शक्यतावच्छेदरूप शक्य अर्थ का परित्याग ही इष्ट है, अन्यथा वहीं लक्षणा का जहदजहत्स्वार्था नामक तृतीय भेद भी मानना होगा । व्यक्ति मात्र में शक्ति मानने के पक्ष में भी आकाश पद से होनेवाले पृथ्वी, जल आदि अष्ट द्रव्यातिरिक्तद्रव्यकारक बोध को जैसे लाक्षणिक मानते हैं वैसे इस बोध को भी लाक्षणिक माना जा सकता है | इस तरह सारोपा और साध्यवसाना भी परस्पर भिन्न नहीं हैं; क्योंकि उनके बीच आरोपविषयवाचक पद के उपदान और अनुपादान का ही भेद माना गया है । परन्तु पद के उपादान और अनुपादान वस्तु का परस्पर भेद aras नहीं हो सकता। यदि पद के उपादान को अनुपादान और भेदक मानें तो "त्वं गच्छ" "अहमागतोऽस्मि " इत्यादि वाक्यों से 'गच्छ' 'अहमागतः' इत्यादि वाक्य भिन्न हो जायेंगे । परन्तु क्रियापदादि के उपादान और अनुपादान के कारण इन्हें पृथक्-पृथक् ढंग के वाक्य प्रकारों में नहीं गिना गया है। गोणी भी शुद्धा से भिन्न नहीं है, सम्बन्ध भेद से लक्षणा में भेद मानने पर समवाय और कार्यकारण भाव सम्बन्ध भेद के कारण तादात्म्य आदि सम्बन्ध में भी भेद हो सकता है इस तरह अनावश्यक अनेक लक्षणा भेद मानने पड़ेंगे। इसलिए जहदजहत्स्वार्था नामक एक ही लक्षणा माननी चाहिए और वही कहीं विशेष्य, कहीं विशेषण और कहीं दोनों के परित्याग के कारण तीन प्रकार की होगी; ६ प्रकार की नहीं। यह स्पष्ट है । १. ध्वनाविति शेषः । Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० काव्यप्रकाशः [सू १८] व्यङ्ग्येन रहिता रूढौ सहिता तु प्रयोजने । प्रयोजनं हि व्यजनव्यापारगम्यमेव । प्रभेदान्तरमाह-'सा चेतीति बहवः । ननु शुद्धात्वाद्युपाधिभिलक्षणायाः षड्विधत्वोपवर्णनमयुक्तं, निरूढत्वप्रयोजनवत्त्वमादायाष्टविधत्वस्यापि सम्भवादित्यत आह 'सा चेति लक्षणेत्यर्थः, तथा च निरूढा प्रयोजनवती चेति प्रथमतो लक्षणाया विभागस्ततः प्रयोजनवत्याः शुद्धत्वाद्युपाधिभिः षोढा विभाग इति विभक्तविभागोऽयमिति नानुपपत्तिः, 'लक्षणा तेन षड्विधा' इत्यत्र लक्षणापदं प्रयोजनवल्लक्षणापरमिति भाव इति मम प्रतिभाति, निरूढलक्षणामाह-व्यङ्गय ने] ति। . तथा च व्यङ्गयोपस्थित्यप्रयोजकलक्षणात्वं निरूढत्वमिति भावः । प्रयोजनवत्या लक्षणमाह-सहिता त्विति । (वृत्ति में) अन्य भेद बताते हुए लिखते हैं :-“सा च” । अर्थ है. वह लक्षणा रूढिमूलक भेदो में व्यङ्गय से रहित होती है तथा प्रयोजनमूलक भेदों में व्यङ्गय सहित होती है (सू० १८) ऐसा बहुत से विद्वान् लिखते हैं। शुद्धात्वादि उपाधि के कारण लक्षणा को ६ प्रकार का मानना असंगत प्रतीत होता है निरूढत्व और प्रयोजनवत्त्वरूप धर्म के कारण पूर्वोक्त शुद्धा के चार भेदों में प्रत्येक के दो-दो भेद होने से उसके आठ भेद भी हो सकते हैं । जैसे :- १. रूढिमूलक उपादानलक्षणा सारोपा शुद्धा, २. रूढिमूलक लक्षणलक्षणा सारोपा शुद्धा, ३. रूढिमूलक उपादानलक्षणा साध्यवसाना शुद्धा, ४. रूढिमूलक लक्षणलक्षणा साध्यवसाना शुद्धा, ५. प्रयोजनवतीउपादान लक्षणा सारोपा शुद्धा, ६. प्रयोजनवती लक्षणलक्षणा सारोपा शुद्धा, ७. प्रयोजनवती उपादानलक्षणा साध्यवसाना शुद्धा और ८. प्रयोजनवती लक्षणलक्षणा साध्यवसाना शुद्धा। इसीलिए वृत्ति में कहते हैं - "साच"। इसका अर्थ है लक्षणा । इस तरह निरूढा और प्रयोजनवती भेद से प्रथमतः लक्षणा के दो विभाग किये गये हैं और उसके बाद प्रयोजनवती के शुद्धादि उपाधियों से ६ विभाग किये गये हैं इस तरह यह विभाग विभक्त का (प्रयोजनवती नामक लक्षणा के एक विभाग का) है। इसलिए मूल ग्रन्थ में कोई असंगति नहीं है। इस तरह "लक्षणा तेन षड्विधा" इस पंक्ति में लक्षणा पद प्रयोजनवती लक्षणा (मात्र) का बोधक है ऐसा मानना मुझे उचित प्रतीत होता है। . निरूढा लक्षणा का लक्षण बताते हैं :- "व्यङ्ग्येन" (सू०१८) (इस सूत्र का अर्थ पहले दिया गया है।) इसके आधार पर कहा जा सकता है कि जो लक्षणा व्यङ्गध की उपस्थिति नहीं कराती है ; वह 'निरूढा लक्षणा' कहलाती है। व्यङ्गय की उपस्थिति की अप्रयोजक लक्षणा को निरूढा लक्षणा कहते हैं। 'प्रयोजनवती लक्षणा' का लक्षण बताते हैं सहिता तु प्रयोजने'। इस तरह व्यङ्गय की उपस्थिति करानेवाली लक्षणा को प्रयोजनवती लक्षणा .. कहते हैं। "व्यङ्गयोपस्थितिप्रयोजकलक्षणायां प्रयोजनवत्याः लक्षणम्" । प्रयोजनवती लक्षणा में व्यङ्गय का नियम कैसे सम्भव है ? यह बताने के लिए कहते हैं-'प्रयोजनं हि व्यञ्जनाव्यापारगम्यमेव ।' क्योंकि 'प्रयोजन व्यञ्जना-व्यापार से ही जाना जा सकता है। इस तरह प्रयोजन और व्यङ्गय दोनों एकार्थक है। अतः स्वाभाविक है कि प्रयोजनवती लक्षणा व्यङ्गय अवश्य रहे। अतः इस लक्षणा में Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः [सू १९] तच्च गूढमगूढं वा - तच्चेति व्यङ्ग्यम् । तथा च व्यङ्गयोपस्थितिप्रयोजकलक्षणात्वं 'तल्लक्षणमिति भावः। ननु प्रयोजनवत्यां कथं व्यङ्गयनियम ? इत्यत आह-'प्रयोजनं ही ति, तथा च प्रयोजनव्यङ्गययोरेकार्थत्वात् तत्त्वमित्यर्थः । वयं तु-ननु व्यङ्गयोपस्थितिजनकत्वमेव कुतो न प्रयोजनवतीलक्षणमित्यत आह प्रयोजन होति, न लक्षणागम्यमित्येवकारार्थः, तथा सति जनकत्वगर्भलक्षणेऽसम्भव इति भाव व्यङ्गय नियतवृत्तिता होने से व्यङ्गय नियम अक्षुण्ण है । इस प्रकार से पूर्वोक्त ग्रन्थ की व्याख्या अन्य टीकाकारों ने की है। मैं तो इस सन्दर्भ की व्याख्या इस प्रकार करता हूं "व्यङ्गयोपस्थितिजनकत्वम्" व्यङ्गय की उपस्थिति कराना ही प्रयोजनवती का लक्षण क्यों नहीं किया गया? इसलिए कहते हैं-'प्रयोजनं हि' इत्यादि । अर्थात् प्रयोजन व्यञ्जना-व्यापारगम्य है; वह लक्षणागम्य नहीं है। इस रूप में प्रयोजन को लक्षणा-गम्य होने के निषेध के लिए वत्ति में 'एव' शब्द का प्रयोग किया गया है। इस तरह प्रयोजनवती लक्षणा का यदि पूर्वोक्त "व्यङ्गयोपस्थितिजनकत्वम्" यह जनकत्व-घटित लक्षण करें तो असम्भव दोष होगा। क्योंकि लक्षणा से वहां व्यङ्गच की उपस्थिति नहीं होती है। इसलिए लक्षणा को व्यङ्गयोपस्थितिजनक नहीं कहा जा सकता। . व्यङ्गय के गूढ और अगूढ होने के कारण पूर्वोक्त ६ भेदों के दुगुने हो जाने के कारण प्रयोजनवती लक्षणा १२ प्रकार की होती है जैसा कि सूत्र १८ 'तच्च गूढमगूढं वा" में बताया गया है। अर्थ है कि वह व्यङ्गय (प्रयोजन) कहीं गूढ (सहृदयमात्रगम्य) और कहीं अगूढ (स्पष्ट, अत एव सर्वजनबोध्य) होता है। कारिका में तत् सर्वनाम पूर्वप्रयुक्त व्यङ्गय का परामर्थक है यह बताते हुए वृत्ति में लिखते हैं-"तच्चेति व्यङ्गयम्"। ____ कारिका में 'वा' शब्द चकारार्थक है। चकार का जो अर्थ होता है वही अर्थ यहाँ 'वा' शब्द का है। इसीलिए ऊपर हिन्दी अर्थ देते समय उसका 'और' अर्थ किया गया है। सहृदयमात्र-संवेद्य को गढ कहते हैं और अगूढ व्यङ्गय वह है जो सहृदय तथा असहृदय दोनों से गम्य हो । 'सहृदय' शब्द में हृदय का अर्थ है प्रतिभा। इस तरह सहृदय वह है जो प्रतिभावान हो। 'हृदयेन प्रतिभया सहितः सहृदयः' इस व्युत्पत्ति से वही अर्थ प्रकट होता है। यहाँ यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि गूढ पद से मध्यम काव्य के चतुर्थ भेद (सू०६६) का, जिसे पञ्चम उल्लास (सू०६६) में अस्फुट (गूढव्यङ्गय) नाम दिया गया है और अगूढ पद से मध्यम काव्य के परिगणित आठ भेदों में प्रथम भेद का; जिसे कि सू०६६ में अगूढ ही नाम दिया गया है, संग्रह होने पर भी उत्तम काव्य के भेदों का संग्रह इन दोनों भेदों में नहीं हो सकेगा। इस तरह उत्तम-काव्य के सारे भेदों को असहृदयवेद्य मानना पड़ेगा, क्योंकि उत्तम काव्य के सारे प्रभेद गूढ नहीं कहलाने के कारण सहृदयमात्रवेद्य नहीं कहला सकते और अगूढ के अन्तर्गत नहीं आने के कारण उन्हें सहृदयासहृदय उभयवेद्य भी नहीं कह सकते इस तरह परिशेषात् उन्हें असहृदयमात्रवेद्य मानना पड़ेगा। इस तरह उत्तम काव्य को असहृदयवेद्यत्व की कोटि में आना अनुभव. विरुद्ध और शास्त्रविरुद्ध होने के कारण बड़ा दोष होगा? इस दोष को इष्टापत्ति मानकर स्वीकार नहीं किया जा सकता ; क्योंकि "वक्तृबोद्धव्यकाकूनाम् (सू० ३७) के द्वारा उत्तम काव्य के प्रभेदों में प्रतीत होने वाले व्यङ्गय को १. प्रयोजनवती Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ काव्यप्रकाश गूढं यथा मुखं विकसितस्मितं वशितवक्रिमप्रेक्षितं, समुच्छलितविभ्रमा गतिरपास्तसंस्था मतिः । इति व्याचक्ष्महे । व्यङ्गयस्य गूढागूढत्वेन पूर्वोक्तषड्भेदानां द्वैगुण्यात् प्रयोजनवती द्वादशविधेत्याह तच्चेति, वा शब्दश्चकारार्थो, गूढत्वं सहृदयमात्रवेद्यत्वम्, अगूढत्वं सहृदयासहृदयवेद्यत्वं, हृदयं च प्रतिभा। ननु गूढपदेन मध्यमकाव्यचतुर्थभेदस्यागूढपदेन च प्रथमतभेदस्य सङ्ग्रहेऽपि नोत्तमप्रभेदसङ्ग्रहः असहृदयवेद्यत्वापत्तेः, न चेष्टापत्तिः, 'वक्तृबोद्धव्यकाकूना' मित्यादिना तत्रापि प्रतिभावेद्यत्वोक्तिविरोधादिति चेद् ? न । गूढपदेनैव तत्सङ्ग्रहात् । अत एव 'कामिनीकुचकलशवत्' गूढं चमत्करोतीति पञ्चमे [उल्लासे] वक्ष्यति, न चैवं मध्यमकाव्यचतुर्थभेदासङ्ग्रहः, स्फुटास्फुटभेदेन गूढस्य द्विरूपतया प्रथमस्य ध्वनावन्त्यस्य मध्यमे सत्त्वादिति प्रतिभाति । 'तच्चेति' चकारस्य समुच्चयाकर्थत्वे तदर्थकवाशब्दानपपत्तिरित्यतो व्याचष्टे तच्चेति, व्यङ्यमिति । तथा च, चस्त्वर्थ इति भाव इति प्रतिभाति । गूढं यथेति । उत्तमत्वप्रयोजकगूढं यथेत्यर्थः ।। मुखं विकसितस्मितमिति । अत्र विकासः पुष्पधर्मः स्मिते बाधित इति सातिशयत्वं लक्ष्यम् । भी प्रतिभावेद्य कहा गया है। इस तरह पूर्वापर ग्रन्थों में परस्पर विरोध न आ जाय इस लिए. उत्तम काव्य के प्रभेदों के असहृदयवेद्यत्व की कोटि में आगमन को दोष ही माना जायगा। ऐसा प्रश्न हो सकता है; परन्तु गूढ पद से ही उनका (उत्तम काव्य प्रभेदों का) संग्रह हो जाएगा। इसी लिए आगे पांचवे उल्लास में मम्मट कहेंगे कि "कामिनीकुचकलशवद् गुढं चमत्करोति"। इस तरह 'गूढ' में उत्तमकाव्यगत समस्त व्यङ्गयों का संग्रह हो जायगा। यहाँ एक प्रश्न यह होता है कि यदि 'गूढ' पद का तात्पर्य ध्वनिकाव्य लें तब तो मध्यम काव्य के चतुर्थ भेद का संग्रह नहीं हो पायेगा? इसका उत्तर यह है कि गूढ दो प्रकार का होता है १. स्फुट और २. अस्फुट । उनमें प्रथम की ध्वनि में और दूसरे की मध्यम काव्य में सत्ता मानने से कोई दोष नहीं होगा। (यह टीकाकार का मत है) "तच्च" यहाँ यदि चकार समुच्चयार्थक है तो उसी अर्थ में 'वा' शब्द का प्रयोग हो जाएगा। इसलिएव्याख्या करते हैं कि 'तच्च' का अर्थ है व्यङ्गय। इस तरह यहाँ 'च' तु के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है मुझे ऐसा प्रतीत होता है। "गूढं यथा" का तात्पर्य है उत्तम काव्यत्व के प्रयोजक गूढ व्यङ्गय का उदाहरण है "मुखं विकसितस्मितम्" । अर्थात् मुख पर मुस्कान खिल रही है; तिरछापन दृष्टि का दास बन गया है, चाल में भाव-विलास छलक रहे हैं, बुद्धि ने मर्यादा का उल्लङ्घन कर दिया है, छाती स्तनों की कलिका से सम्पन्न है, जांघे अवयवों के बन्ध से उभर रही हैं, अतः यह अत्यन्त प्रसन्नता की बात है कि चन्द्रमुखी के शरीर में यौवन का विकास खेल रहा है। ४॥ यहाँ विकास फूल का धर्म है वह स्मित में बाधित है। इसलिए यहाँ 'स्मित' की सातिशयता व्यङ्गच है। पुष्प और स्मित दोनों के बीच असंकुचितत्व सम्बन्ध है। 'विकसित' विशेषण के कारण मुख में 'सरोजसाम्य' या सौरभ-विशेष 'व्यङ्गय है, यह टीकाकारों का मत है। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः उरो मुकुलितस्तनं जघनमंसबन्धोद्धरं, बतेन्दुवदनातनौ तरुणिमोद्गमो मोदते ॥ ६ ॥ असङ्कुचितत्वं सम्बन्धः, मुखे सरोजसाम्यं सौरभविशेषो वा व्यङ्गयः, दयितमधुव्रतोचितमधुमधुराधरमन्दिरत्वं व्यङ्गयमिति वयम् । वशीकरणं चेतनधर्मः, स च प्रेक्षिते बाधित इति स्वाधीनत्वं लक्ष्यते, अभिमतविषयप्रवृत्तिमत्त्वं सम्बन्धः युक्तानुरागित्वं व्यङ्गचं, बाल्याभावेन यादृच्छिकप्रवृत्तिविरहाद् गुरुजनसन्निधानेऽपि निभृतनिजनायकानुनयनिमित्त नियुक्तपरिजनत्वं व्यङ्गयमिति वयम् । समुच्छलनं मूर्तधर्मः, स च गतौ बाधित इति बाहल्यं लक्ष्यते, कार्यकारणभावः सम्बन्धः, युवजनमनोमोदकत्वं व्यङ्गयम्, प्रियतमप्राणोपरि परिस्थितत्वं व्यङ्गयमिति वयम् । संस्था-मर्यादा, तदपासनमपि समानाधिकरणत्वाच्चेतनधर्मः स याचेतनमत्यादौ बाधित इत्यधीरत्वं लक्ष्यते, कार्यकरणभावः सम्बन्धः, प्रेमोत्कर्षो व्यङ्गयः; दयितमुखावलोकनावसरविस्मृतवयस्योपदिष्टमानिनीजग[जन-मौन-धारणादि] -चेष्टितत्वं व्यङ्गय मिति वयम् । मेरे मत में जैसे मधुव्रत (भ्रमर) के लिए परम प्रिय मधु का मन्दिर पुष्प या पद्म होता है; उसी तरह यह.मुख प्रियतम नायक के लिए स्पृहणीय मधु से मधुर अधरों का मन्दिर है यही यहाँ व्यङ्य है। "वशितवक्रिमप्रेक्षितम्" का व्यङ्गयार्थ बताते हुए लिखते हैं कि-'वशीकरण' चेतन धर्म है, वह अचेतन प्रेक्षित (दृष्टि)से बाधित है । इसलिए मुख्यार्थवाघ होने पर स्वाधीनत्व लक्ष्यार्थ है । जैसे अधीन व्यक्ति,जिसके अधीन होता है उसका अभिमत सिद्ध करने के लिए सदा सन्नद्ध रखता है; उसी तरह दृष्टि का बांकापन उसके अधीन रहकर सदा उसके अभिमत की सिद्धि करता है इसलिए मुख्यार्थ और लक्ष्यार्थ के बीच अभिमतविषयवृत्तिमत्त्व सम्बन्ध है । इससे युक्तानुरागित्व ( समुचित प्रेम या सम्बद्ध व्यक्ति से प्रेम) व्यङ्गय है। .. मेरे विचार में नायिका अब बाला नहीं रही है। इसलिए वह अपनी मर्जी से इधर-उधर उठकर नहीं जा सकती। वहाँ गुप्तरूप में नायक आया हुआ है इसके अनुनय के लिए वह इशारे से नेत्र के कटाक्ष से नायक के अनुनय के लिए गुरुजन के संनिधान में किसी परिजन को नियुक्त करती है यह यहाँ व्यङ्गय है । 'समुच्छलितविभ्रमा यहाँ सम्यक् उछलना मूर्त का धर्म है। वह गति (अमूर्त) में बाधित है, इसलिए लक्षणा से 'बाहुल्य' उसका अर्थ है । समुच्छलन और बाहुल्य के बीच कार्यकारणभाव सम्बन्ध है । इस तरह गति युवकजन-मनोमोहक है यह व्यङ्गय है। मेरे विचार में यहाँ 'प्रियतम के प्राण से बढ़कर वह प्रिय है' यह व्यङ्गय है। प्राण में भी गति है और प्रियतमा के चरणों में भी, परन्तु प्राण के परिस्पन्द को उस गति से जीवन प्राप्त होता है । इसलिए प्रियतम प्राणोपरि परिस्थितत्व' यहाँ व्यङ्गय हैं । 'अपास्तसंस्था' में संस्था का अर्थ है मर्यादा । मर्यादा चेतन का धर्म है उसका अपासन (दूरीकरण) भी समानाधिकरणसम्बन्ध से चेतन का ही धर्म है क्योंकि मर्यादा का अधिकरण चेतन है इसलिए उसका - दूरीकरण भी वहीं रहेगा; जो वस्तु जहाँ रहती है; उसके दूरीकरण का आधार भी वही वस्तु होती है । इसलिए मर्यादा का दूरीकरण अचेतन मति आदि का धर्म नहीं हो सकता; इसलिए बाधित है। अत एव यहाँ अधीरत्व लक्ष्य है, कार्यकारणभाव सम्बन्ध है, मर्यादा दूरीकरण कारण है और अधीरत्व कार्य । इस तरह प्रेमोत्कर्ष यहाँ व्यङ्गय है । और इसी प्रकार मेरे मत के अनुसार यहाँ अपने प्रियतम के मुख के अवलोकन के अवसर पर नायिका अपनी सखी के द्वारा Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ काव्यप्रकाशः मुकुलितत्वं पुष्पधर्मः स्तने बाधित इति काठिन्यं लक्ष्यते, (निबिडावयवत्वं सम्बन्धः ) क्ष ( ? ) समर्दन जनितमार्दवानधिकरणत्वं वा व्यङ्गयं शृङ्गारेण हृदयस्य द्रवीभावो व्यङ्गयः मुकुलस्य जलरूपद्रवद्रव्याधिकरणत्वादिति वयम् । उद्धुरत्वं चेतनधर्मः स च जघने बाधित इति सातिशयत्वं लक्ष्यं, कार्यकारणभावः सम्बन्धः, रमणीयत्वं व्यङ्गयम् । श्रंसबन्धत्वानुरोधात् तद्योग्यता लक्ष्या, यौवनयुवराजपराजित कामकारागारत्वं तरुणिम महीपतिमृगयोपलब्धकामुकमृगवागुरात्वं वा व्यङ्गयमिति वयम् । मोदनं चेतनधर्मः स च तरुणिमोद्गमे बाधित इति अनियन्त्रितत्वं लक्ष्यं, कार्यकारणभावः सम्बन्धः, युवजनमनोमादकत्वं व्यङ्ग्यं वदनस्येन्दुना निरूपणात् तरुणिमन्युद्गमोपादानात् तस्य स्मितादिरत्नाकरत्वं व्यङ्गयमिति वयं विलोकयामः । सिखायी गयी रूठने की सारी मौन धारणादि चेष्टाएँ भूल गयी, यही यहाँ 'अपास्त संस्थामति' पदसे व्यङ्गय हुआ है। "उरो मुकुलितस्तनम्" में मुकुलित होना फूल का धर्म है या कलियों का धर्म है । पुष्पधर्मं या कलिका का धर्म स्तन में अन्वित नहीं हो सकता। इसलिए बाधित होने से काठिन्य अर्थ को लक्षणा के द्वारा बताता है । 'निबिडावयवत्व' यहाँ सम्बन्ध है । ( इससे उद्भिन्नत्व लक्ष्य और आलिङ्गनयोग्यत्व भी व्यङ्गय हो सकता है ।) अथवा स्तन में मर्दन (मलने) के कारण मार्दव आना चाहिए, परन्तु मर्दन के आधारभूत स्तनों में मृदुता नहीं आयी, यह यहाँ व्यङ्गय है । मेरे विचार में "उरो मुकुलितस्तनम् " इस पद से हृदय का द्रवीभाव व्यङ्गय है । मुकुल का आधार सदैव जलरूप द्रव ( बहने वाला) द्रव्य ही होता है इसलिए मुकुलित स्तन के आधार " उरस्" (हृदय) का द्रवीभाव यङ्गय होता है । उद्धुरत्व (उत्कृष्ट धुरात्व) भी चेतन का धर्म है । वह जघन में अन्वित होने में बाधित है । इसलिए उससे सातिशयत्व लक्ष्य है, सम्बन्ध है कार्यकारणभाव और व्यङ्गय है रमणीयत्व । मेरे विचार के अनुसार यहाँ अंसबन्ध (रतिबन्ध विशेष या अवयवों के दृढबन्ध) के अनुरोध से रतिबन्ध या ढबन्ध की योग्यता यहाँ लक्ष्यार्थ है । इसलिए यहाँ यौवन-युवराज पराजित काम-कारागारत्व या 'तरुणिम महीपति- मृगयोपलब्ध-कामुकमृग वागुरात्व' व्यङ्गय है । अर्थात् यह जघन यौवनरूपी युवराज का वह कारागार है जिसमें पराजित कामरूपी कैदी बन्द है । अथवा यह जघन वह वागुरा ( मृग को फंसाने का जाल ) है जिसमें तारुण्यरूप राजा शिकार के समय उपलब्ध कामुकरूपी मृगों को फँसाया करता है । "तरुणिमोद्गमो मोदते" में मोदन या आनन्द चेतन का धर्म है, वह अचेतन तारुण्य के उद्गम में अन्वय नहीं प्राप्त कर सकता है। इसलिए बाधित होकर अनियन्त्रितत्वरूप लक्ष्यार्थं को बताता है। असीम तारुण्य ( यौवन का उद्दाम उत्कर्ष ) लक्ष्यार्थं है । वाच्य और लक्ष्य के बीच कार्य कारणभाव सम्बन्ध है । युवजन के मन को मस्त बनाने की क्षमता यहाँ व्यङ्गय है । मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ 'तारुण्य को स्मितादि का रत्नाकर (समुद्र) बताना अभीष्ट है' और वही व्यङ्गय है । क्योंकि "बतेन्दुवदनातनी" यहाँ मुख को चन्द्र बताया गया है। इसलिए चन्द्र का उद्गम स्थान जैसे समुद्र या रत्नाकर माना गया है उसी तरह तारुण्य को यहाँ स्मितादिरत्नों का आकर माना गया है । १. अत्र कश्चन पाठः खण्डितः । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः १०५ MAM अगूढं यथा - श्रीपरिचयाज्जडा अपि भवन्त्यभिज्ञा विदग्धचरितानाम् । उपदिशति कामिनीनां यौवनमद एव ललितानि ॥ १० ॥ अनोपदिशतीति - [सू० २०] तदेषा कथिता त्रिधा ॥ १३ ॥ अव्यङ्गया गूढव्यङ्गया अगूढव्यङ्गया च । अत्रोपदिशतीति शब्देनाज्ञातज्ञापनमुपदेशः, स च मदे बाधित इति विशेषेणाज्ञातज्ञापनसामान्यं लक्ष्यते, सामान्यविशेषभावः सम्बन्धः, नटीनामयत्नेनैव शिक्षाया आपादनं निर्वहतीति स्फुटतरं व्यङ्गयं प्रतीयत इत्यर्थः । कामिनीनां कामिनीभ्य इत्यर्थः। यौवनमदे वा तदन्वयो न तु लालित्य इति भावः । कामिनीनामित्यस्य कर्मतयोपस्थितेः यौवनमद एवेत्येवकारेण लालित्यबोधकान्तरविरहप्रदर्शनात् कामिनीनां च बाल्ये वार्धक्ये च लालित्यविरहः स्फुटतरो व्यङ्गय इत्यपि बोध्यम् । • 'प्रयोजनवत्युपसंहारभ्रमं वारयति' । अव्यङ्गय ति, तथा च एषेत्यनेन लक्षणामात्रमुच्यते न तु तद्विशेषः प्रयोजनवतीति भावः । अगूढ (व्यङ्गय) का उदाहरण जैसे- "श्रीपरिचयाज्जडा" अर्थात् लक्ष्मी की प्राप्ति हो जाने पर मूर्ख (मनुष्य) भी विदग्ध के चरितों को जाननेवाले हो जाते हैं । ठीक ही है, यौवनमद ही कामिनियों को ललितों का उपदेश कर देता है ॥१०॥ ___ यहाँ ललित का लक्षण है "अनाचार्योपदिष्टं स्याल्ललितं रतिचेष्टितम्" बिना आचार्य के सिखलाये रतिचेष्टाओं का ज्ञान 'ललित' कहलाता है। ___ उपदेश अज्ञात के ज्ञापन को कहते हैं। वह उपदेश मद के द्वारा नहीं किया जा सकता। मद-कर्तृक उपदेश सम्भव नहीं है। इसलिए विशेष से अज्ञातज्ञापनरूप सामान्य लक्षित होता है। वाच्य और लक्ष्य के बीच सामान्य-विशेषभाव सम्बन्ध है। युवावस्था नारी को बिना उसके किसी प्रयास के ही लालित्य की शिक्षा प्राप्त करा देती है। "कामिनीनाम्" के स्थान में 'कामिनीभ्यः' समझना चाहिए (सम्बन्ध सामान्य विवक्षा में षष्ठी) अथवा 'कामिनीनाम्' का अन्वय यौवन-मद में मानना चाहिए 'लालित्य' में नहीं । ___कामिनीनाम्" इसे कमरूप में उपस्थित होने के कारण और 'यौवनमद एव' यहाँ एव शब्द से लालित्य (जनक) बोधक कारणान्तर के अभावप्रदर्शन के द्वारा यहां यह व्यङ्गय प्रस्तुत किया गया है कि 'कामिनी में बुढ़ापा या बचपन में लालित्य नहीं होता' यह व्यङ्गय स्फुटतर है । इसलिए यहाँ अगूढ व्यङ्गय है। "तदेषा कथिता विधा" (सू०२०) इस प्रकार यह लक्षणा व्यङ्गय की दृष्टि से तीन प्रकार की कही जा सकती है। इस सूत्र में प्रयोजनवती लक्षणा का उपसंहार हुआ है, यह किसी को भ्रम हो सकता है, उसका निवारण करते हए लिखते हैं- "अव्यङ्गया" इति । लक्षणा के वे तीन भेद ये हैं-१-अव्यङ्गया (रूढिगत लक्षणाव्यङ्गय रहिता) २-गूढ व्यङ्गया और ३-अगूढ व्यङ्गया । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . काव्यप्रकाशः [सू० २१] तद्भलाक्षणिकः - शब्द इति सम्बध्यते । तद्भस्तदाश्रयः । [सू० २२] तत्र व्यापारो व्यञ्जनात्मकः । शक्यसम्बन्धस्य लक्ष्यवृत्तितया तत्रातिव्याप्तेराह - शब्द इतीति सम्बध्यते। 'स्याद्वाचको लाक्षणिकः शब्दोऽत्र व्यञ्जकस्त्रिधे'त्यतोऽनुषज्यत इत्यर्थः । लक्षणाजनकत्वं शब्दे सम्बन्धस्य लक्षणात्वपक्षे बाधितमत आह तवाश्रय इति । अत्र च यः शब्दो यदर्थविषयलक्षणाश्रयः स तल्लाक्षणिक इति प्रत्येकमेव लक्षणम्, अन्यथा वाचकादावतिव्याप्तेरिति बोध्यम्, व्यञ्जकशब्दलक्षणाय लक्षणाया अनन्तरोक्तत्वात् तन्मूलामेवादौ व्यञ्जनां व्यवस्थापयति तत्रेति । तत्र लाक्षणिकशब्दे व्यापारः प्रयोजनप्रतिपत्त्यनुकूल: अथवा तत्र प्रयोजने व्यापारो इस तरह कारिका में निर्दिष्ट 'एषा' इस पद से 'लक्षणा' सामान्य का ग्रहण होगा, 'लक्षणा-विशेष का .. -प्रयोजनवती का नहीं, यह इस वृत्ति का तात्पर्य निकलता है। इसलिए सूत्र २० में वर्णित भेद लक्षणासामान्य के मानने चाहिए, लक्षणाविशेष के नहीं। शक्यसम्बन्ध के लक्ष्यवर्ती होने के कारण लक्ष्य अर्थ में लक्षणा के लक्षण-'शक्यसम्बन्धो लक्षणा'-के . घटित होने से लक्षणा के लक्षण में अतिव्याप्ति दोष की सम्भावना का निराकरण करने के विचार से लिखते हैं'शब्द इति सम्बद्धयते' । अर्थात् “तद्भूलाक्षणिकः" (सू० २१,)में 'तत्' पद से शब्द लिया जाता है । इस तरह अर्थ होगा कि उस लक्षणा का आश्रयभूत शब्द लाक्षणिक शब्द कहलाता है। तात्पर्य यह है कि सू० २१ में “स्याद् वाचको लाक्षणिकः शब्दोऽत्र व्यञ्जकस्त्रिधा" इस द्वितीय उल्लास (इसी उल्लास) की प्रथम कारिका से 'शब्द' पद की अनुवृत्ति 'मण्डूकप्लुतिन्याय' से आती है। "शक्यसम्बन्धो लक्षणा" माननेवालों के मत के अनुसार सम्बन्ध ही लक्षणा है। इस पक्ष में शब्द लक्षणाजनक नहीं हो सकता, क्योंकि वह बाधित है इसलिए वृत्ति में "तद्भः" की व्याख्या करते हैं-'तदाश्रयः।' . यहाँ (यह समझना चाहिए कि) जो शब्द यदर्थविषयक लक्षणा का आश्रय है वह उसके प्रति लाक्षणिक है, इस तरह प्रत्येक को लक्षण मानना चाहिए । अन्यथा वाचकादि में अतिव्याप्ति दोष हो जायगा। अब व्यञ्जक शब्द का लक्षण करना है इसके लिये आवश्यक है कि व्यञ्जकशब्द के व्यापार व्यञ्जना को स्थिर किया जाय। इसलिए यहाँ लक्षणामूला व्यञ्जना की ही स्थापना पहले करते हैं। क्योंकि लक्षणामूलक व्यंग्य की चर्चा अभी-अभी की गयी है। इसलिए "उपस्थितं परित्यज्य अनुपस्थितकल्पने मानाभावः" इस न्याय से या प्रकरणबल से; लक्षणामूला व्यञ्जना को ही सर्वप्रथम सिद्ध करते हैं :-"तत्र व्यापारो व्यञ्जनात्मकः"। यहाँ तत्र का अर्थ है लाक्षणिक व्यापार में । अर्थात् लाक्षणिक शब्द में प्रयोजन की प्रतीति करानेवाला व्यापार व्यञ्जना है, यह कारिका का अर्थ है। अथवा 'तत्र' का अर्थ 'प्रयोजने' भी हो सकता है, इस तरह अर्थ होगा कि लाक्षणिक शब्दनिष्ठ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः १०७ कुत इत्याह - [सू० २३] यस्य प्रतीतिमाधातु लक्षणा समुपास्यते ॥ १४ ॥ फले शब्दकगम्येऽत्र व्यञ्जनान्नापरा क्रिया। प्रयोजनप्रतिपिपादयिषया यत्र लक्षणया शब्दप्रयोगस्तत्र नान्यतस्तत्प्रतीतिरपि तु तस्मादेव शब्दात् । न चात्र व्यञ्जनादृतेऽन्यो व्यापारः । लाक्षणिकशब्दनिष्ठ इत्यर्थः। 'कुत' इति प्रतिज्ञामात्रेणार्थासिद्धेरिति भावः । 'इत्याह', इत्यत आहेत्यर्थः। 'यस्ये'त्यनेनापत्तिप्रमाणदर्शनं यस्य शैत्यपावनत्वादिरूपप्रयोजनस्य प्रतीतिमनुभवरूपाम् । प्राधातुमुत्पादयितुम् । अत्र तुमुनेच्छोच्यते तेन यत् प्रतिपिपादयिषयेत्यर्थः । अत एव व्याचष्टे . प्रयोजनप्रतिपिपादयिषयेति। अयं भावः-नहि 'गङ्गातीरे घोष' इति वाचकशब्दप्रयोगः कर्तुमेव न शक्यते वक्ता । अथवैप्रयोजन को प्रतीत करानेवाला व्यापार व्यञ्जना है। क्योंकि प्रतिज्ञामात्र से अर्थ की सिद्धि नहीं होती है । अर्थात् शब्द से उसी अर्थ की प्रतीति होती है; जिसकी उपस्थिति किसी न किसी वृत्ति के द्वारा होती है। 'वृत्ति' में "कुत इत्याह" आया है वहाँ "कुत इत्यत आह" समझना चाहिए अर्थात् व्यञ्जनाव्यापार से उस प्रयोजन की प्रतीति क्यों होती है ? इसीलिए कहते हैं (सू० २३) “यस्य प्रतीतिमाधातुम्" इति। . प्रयोजन की वाच्यता का निराकरण ___ व्यञ्जना व्यापार ही क्यों होता है, यह कहते हैं "(सू. २३)-जिस (प्रयोजन विशेष की) प्रतीति कराने के लिए (लक्षणा अर्थात्) लाक्षणिक शब्द का आश्रय लिया जाता है (अनुमान आदि से नहीं अपितु) केवल शब्द से गम्य उस फल (प्रयोजन) के विषय में व्यञ्जना के अतिरिक्त (शब्द का) और कोई व्यापार नहीं हो .. सकता है ॥१४ १२॥ अर्थात जिस प्रयोजन की प्रतीति की इच्छा से लाक्षणिक शब्द का आश्रय लिया जाता है या लक्षणावृत्ति का आश्रय लिया जाता है वह प्रयोजन (फल) केवल शब्द से ही गम्य है (अनुमान आदि से नहीं) इसलिए उस प्रयोजन के विषय में व्यञ्जना के अतिरिक्त (शब्द का) कोई अन्य व्यापार नहीं हो सकता है। "यस्य" इसके द्वारा अपत्तिप्रमाण की ओर सङ्केत किया गया है । 'यस्य' इत्यादि का तात्पर्य है जिस शीतत्वपावनत्वादिरूप प्रयोजन की (अनुभवरूप) प्रतीति की (आधातुम् उत्पादयितुम् में तुमुन् में इच्छार्थ द्योतित होता है) की इच्छा से । अर्थात् “यत्प्रतिपिपादयिषया" जिसके प्रतिपादन की इच्छा से । इसीलिए कारिका में लिखते हैं-"प्रयोजनप्रतिपिपादयिषया"। प्रयोजन-विशेष का प्रतिपादन करने की इच्छा से जहाँ लक्षण से (लाक्षणिक) शब्द का प्रयोग किया जाता है। वहाँ उस प्रयोजन की प्रतीति किसी अन्य उपाय से (अनुमानादि से) नहीं होती है किन्तु उसी शब्द से होती है और उसके बोधन में शब्द का व्यञ्जना के अतिरिक्त और कोई व्यापार नहीं होता है। तात्पर्य यह है कि "गङ्गातीरे घोषः" इस प्रकार के वाचक शब्द का प्रयोग "गङ्गायां घोषः" इससे होनेवाले शैत्य-पावनत्व अर्थ की प्रतीति नहीं करा सकता। इसलिए कोई भी वक्ता लाक्षणिक शब्द के साथ वाचक Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ काव्यप्रकाश तच्छब्दादर्थ एव न प्रतीयते, येनायत्ते शब्दप्रयोगे लाक्षणिकः शब्दः प्रयुज्यते अतोऽवश्य वाचकशब्दाबोध्यप्रयोजनप्रतिपिपादयिषया लक्षणा[s] श्रीयतामिति । नन्वनुमानादेव प्रयोजनावगमोऽस्त्वित्यत आह - शब्दकगम्य इति । शब्दस्य सम्भृतसामग्रीकत्वादनुमानस्य व्याप्त्यादि-प्रतिसन्धानविलम्बन विलम्बितत्वान्नानुमानादिगम्यं प्रयोजनम् । किञ्च तथा सति गङ्गाद्यर्थ एव लिङ्गं सच्छेत्यादिकमनुमापयतीति स्वीकार्यम् । न च तटे गङ्गात्वं सिद्धं तत्पदप्रयोगविषयत्वे च न व्याप्तिग्राहक प्रमाणमस्ति तत्कथमस्य लिङ्गता कथं वा गङ्गाधर्मस्य शैत्यादेस्तटे बाधावधारणात् साध्यता, कथं वा शैत्यादावेकस्यावच्छेदकस्याभावात् साध्यतावच्छेदकैक्यम्, तावतां विशेषणानामेकदाऽनुपस्थितेर्न समूहालम्बनानुमितिः, व्यञ्जनायां च बाधादेरप्रतिबन्धकत्वाद'त्यन्तासत्यपि ह्यर्थे" इति न्यायात् । व्यङ्ग्यता शब्द का प्रयोग नहीं कर सकता । अथवा जिससे (जिस तात्पर्य से) प्रेरित होकर शब्द प्रयोगकाल में वक्ता लाक्षणिक शब्द का प्रयोग करता है, उस शब्द से उस तात्पर्याथे की प्रतीति ही नहीं हो सकती। इसलिए वाचक शब्द के द्वारा अबोध्य प्रयोजन की प्रतीति की इच्छा से लक्षण का आश्रय लेना चाहिए। अनुमान से ही प्रयोजन की प्रतीति हो जाय (फिर व्यञ्जना की आवश्यकता नहीं रह जाती) इस प्रश्न का समाधान देते हुए लिखते हैं-"शब्दकगम्ये" वह प्रयोजन शब्दकगम्य है। क्योंकि शैत्यपावनत्वादि की प्रतीति शब्द के सुनते ही होती है । शब्द के द्वारा होनेवाली प्रतीति ही इतनी शीघ्रता से हो सकती है। क्योंकि शब्द वह तत्त्व है जिसमें अर्थप्रतीति की सारी सामग्री स्वभाव से ही विद्यमान है। परन्तु अनुमान से होनेवाली प्रतीति विलम्बित होती है क्योंकि उसमें व्याप्त्यादि के प्रतिसन्धान की आवश्यकता होती है उस प्रतिसन्धान में विलम्ब होता है । इसलिए . सिद्ध है कि शब्दश्रवण के बाद इतनी शीघ्रता से भासित होनेवाला शैत्यातिशय, शब्दगम्य ही है अगर वह अनुमानादिगम्य होता तो उसमें विलम्ब होता । अतः स्पष्ट है कि प्रयोजनगम्य नहीं है। दूसरी बात यह है कि यदि शीतत्वादि अर्थ को अनुमानगम्य मानें तो उसके अनुमान में गङ्गादि अर्थ ही लिंग होगा (हेतु होगा) । अनुमान होगा कि तट शीतत्वादि से युक्त है क्योंकि वहाँ गङ्गात्व है (गङ्गात्वात्) किन्तु तट में गङ्गात्व सिद्ध नहीं है । "गङ्गायां मत्स्याः " यहाँ जहाँ कि गङ्गा शब्द का स्पष्ट प्रयोग है; वहाँ शीतत्वादि की प्रतीति नहीं होती है क्योंकि वैसा तात्पर्य नहीं है अतः “यत्र यत्र गङ्गात्वं तत्र तत्र शीतत्वादिकम" इस प्रकार की व्याप्ति ग्राहकप्रमाण के बिना निश्चित करना असम्भव है। इसलिए गङ्गादि अर्थ को शैत्याद्यनुमान का हेतु नहीं माना जा सकता। शैत्यादि धर्म को जो कि गंगा का धर्म है, तट में बाध निश्चित हो जाने पर साध्य भी कैसे माना जा सकता है? जैसे "वह्निः अनुष्णः द्रव्यत्वात्" यह अनुमान नहीं होता; क्योंकि वह्नि में उष्णता होने के कारण वहां अनुष्णत्व साध्य नहीं बनता। तीसरी बात, शैत्य-पावनत्वादि में कोई एक ऐसा सामान्य धर्म नहीं है, जो अवच्छेदक बन सके, परन्तु वहाँ कोई एक धर्म नहीं है इसलिए वहाँ साध्यतावच्छदकक्य कहाँ ? चौथी बात, जितने विशेषण शीतत्व-पावनत्वादि यहाँ अतिशय (विशेष्य) के हैं, उन सभी की एक साथ उपस्थिति नहीं हो सकती। इसलिए समूहालम्बनात्मक (अनुमान में कई वस्तुओं के समूह का भासित होना) अनुमिति भी नहीं हो सकती। व्यञ्जना में तो ये सब दोष नहीं माने जाते हैं । वहाँ बाधादि प्रतिबन्धक नहीं माने गये हैं, यहाँ १. अत्यन्तासत्यपि ह्यर्थे ज्ञानं शब्द: करोति हि । इति सम्पूर्णो न्यायः । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लास: तथाहि - __] सू० २४] नामिधा समयाभावात् - वच्छेदकानुपस्थितावपि 'पानकरसन्यायेन' व्यङ्ग्यबोधकत्वाच्च न काऽप्यनुपपत्तिः । किञ्च व्याप्त्यादिप्रतिसन्धानस्यानियतत्वाद् शैत्यादिबोधस्य च नियतत्वान्नानुमित्या व्यञ्जनान्यथासिद्धिरिति भावः । क्रियापदार्थमाह-प्रन्यो व्यापार इति । ननु तत्राभिधादिरेव कल्पितो व्यापारोऽस्तु किं व्यञ्जनयेत्यत आहनाभिधेति। हेतुसाध्ययोः सामानाधिकरण्याभावादभेदाच्चानुमित्यनुपपत्तिरतो व्याचष्टे सुत, तक कि "अत्यन्तासत्यपि ह्यर्थे ज्ञानं शब्दः करोति च" जो वस्तु या अर्थ या पदार्थ संसार में है ही नहीं, जैसे बन्ध्या का आकाशपुष्प, कूर्मक्षीर तथा शशशृग उनका भी बोध वन्ध्यासुतादि शब्द कराता है । इसलिए व्यञ्जना से शीतत्वादि अतिशय का बोध हो जाता है। समस्त व्यङ्गयों की एक साथ उपस्थिति न होने पर भी, व्यङ्ग्यतावच्छेदक की उपस्थिति के अभाव में भी व्यञ्जना समस्त व्यङ्गय का बोध पानकरसन्याय से करा देती है। इसलिए व्यञ्जना मानने पर किसी प्रकार का दोष शेष नहीं रह जाता। इलायची, काली मिर्च, शक्कर, आम आदि वस्तुओं को मिलाकर तैयार किया गया शर्बत जैसे मिलाजुला आस्वाद देता है उसी तरह व्यञ्जना भी। यही पानकरसन्याय में यहाँ सिद्ध किया गया है। सब से बड़ी बात यह कि व्याप्ति आदि के प्रतिसन्धान की एक सीमा नियत की हुई है। जैसे जिस देश में व्याप्य रहे उसी देश में व्यापक का अनुमान किया जाय और व्याप्य और व्यापक यदि समान काल में है तभी अनुमान होता है। शैत्यादि बोध (मर्यादित) नहीं हैं। इसलिए अनुमिति से व्यञ्जना का कार्य गतार्थ नहीं हो सकता। अनुमान से व्यञ्जना की अन्यथासिद्धि नहीं हो सकती। "न चात्र व्यञ्जनाहतेऽन्यो व्यापारः" शब्दकगम्य फल के बोधन में शब्द का व्यञ्जना से अतिरिक्त और कोई व्यापार नहीं होता है । "अन्यो व्यापार इति"। यदि यह कहें कि प्रयोजन (फल)की प्रतीति के लिए स्वीकृत (कल्पित) अभिधादि व्यापारों में से ही किसी व्यापार के मानने से काम चल आयगा तो यह गलत होगा, यह दिखाने के लिए सू० २४ में लिखते हैं-"नाभिधा समयाभावात्"। संकेतग्रह न होने से अभिधावृत्ति प्रयोजन की बोधिका नहीं हो सकती। . 'गङ्गायां घोषः' इत्यादि स्थलों में जो पावनत्वादि धर्म तटादि में प्रतीत होते हैं उनमें गङ्गा आदि शब्दों का संकेतग्रह नहीं है । अतः अभिधा से उसका ज्ञान नहीं हो सकता। हेतु और साध्य दोनों का अधिकरण एक नहीं है इसलिए, तथा दोनों अभिन्न हैं इसलिए भी यहाँ अनुमिति नहीं हो सकती। इसी बात को स्पष्ट करने के लिए सूत्र २४ की व्याख्या करते हुए लिखते हैं "गङ्गायां घोषः" rupal Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० काव्यप्रकाश 'गङ्गायां घोष' इत्यादौ ये पावनत्वादयो धर्मास्तटादौ प्रतीयन्ते न तत्र गङ्गादिशब्दाः सङ केतिताः। [सू० २५] हेत्वभावान्न लक्षणा ॥१५॥ मुख्यार्थबाधादित्रयं हेतुः । गङ्गाया-मित्यादि, तथा च पावनत्वादिप्रयोजनं न गङ्गापदाभिधाप्रतिपाद्यं गङ्गापदभिन्न पद] सङ्केतविषयत्वादित्येवमनुमानमिति भावः । हेत्वाभावादिति । अत्रापि पावनत्वादिकं न गङ्गापदनिष्ठलक्षणाप्रतिपाद्यं प्रकृतपदलक्षणाजन्यज्ञानसामग्रीरहितत्वादिति प्रयोगे तात्पर्यम्, एवं तात्पर्याख्यवृत्तिनिषेधस्योपसंहारात् पावनत्वादिकं न तात्पर्याख्यवृत्तिप्रतिपाद्यं गङ्गादिपदार्थसंसर्गभिन्नत्वादित्यपि बोध्यम् । अर्थात् गङ्गायां घोषः यहाँ तटादि में प्रतीत होनेवाले पावनत्वादि धर्म में गङ्गा शब्द संकेतित नहीं है इसलिए अभिधा शीतत्व-पावनत्वादि को नहीं बता सकती। अनुमान का प्रकार इस तरह होगा "पावनत्वादि प्रयोजनं न गङ्गापदाभिधाप्रतिपाद्यम् गङ्गापदभिन्नपदसङ्केतविषयत्वात्" पावनत्वादि प्रयोजन गङ्गापद की अभिधा से प्रतिपाद्य नहीं है, .. क्योंकि वह शीतत्वातिशय प्रयोजन गङ्गा पद से भिन्न पद के संकेत का विषय है। यहाँ यह कहना चाहिए कि गङ्गा पद के संकेत का विषय नहीं होने से वह अभिधा-प्रतिपाद्य नहीं हो सकता। प्रयोजन को लक्ष्यता का निराकरण लक्षणा के द्वारा भी शीतत्व-पावनत्वातिशय की प्रतीति नहीं हो सकती ॥१५॥ (१) मुख्यार्थ का बाध और उसके साथ-साथ (२) मुख्यार्थ से सम्बन्ध तथा (३) रूढि और प्रयोजन में से एक, ये तीनों लक्षणा के प्रयोजक निमित्त हैं। उनका यहाँ अभाव है। इसलिए लक्षणा भी नहीं हो सकती। यहाँ भी अनुमान किया जा सकता है कि पावनत्वादि गङ्गापदनिष्ठलक्षणाप्रतिपाद्य नहीं हो सकता; क्योंकि प्रकृत पद (गङ्गा पद) में लक्षणाजन्य ज्ञान के लिए अपेक्षित सामग्री (मुख्यार्थबाधादि हेतुत्रय) का अभाव है। इस तरह यहाँ 'हेत्वभावात्' का तात्पर्य है कि लक्षणों के प्रयोग में (उदाहरण में) हेतुओं का अभाव होने से (लक्षणा नहीं होगी)। इसी तरह तात्पर्याख्य वृत्ति के निषेध का भी उपसंहार में उल्लेख किया गया है। इसलिए यहां यह भी समझना चाहिए कि पावनत्वादि तात्पर्याख्यवृत्ति-प्रतिपाद्य नहीं है क्योंकि पावनत्वादि, गङ्गादि-पदार्थों के बीच भासित होनेवाले संसर्गों से भिन्न हैं। तात्पर्या वृत्ति वाक्यार्थ में भासित होनेवाले पदार्थ-संसर्ग को बताती है। पावनत्वादि पदार्थसंसर्ग नहीं है । इसलिए उसे तात्पर्या वृत्ति से बोध्य नहीं माना जा सकता । अभिधा मुख्यार्थ को, लक्षणा लक्ष्यार्थ को और तात्पर्या वाक्यार्थ-कुक्षि-प्रविष्ट पदार्थ-संसर्ग को बताकर सामर्थ्यहीन हो गयी है। इसलिए उनमें से कोई भी प्रयोजनवती लक्षणा के उदाहरणों में प्रतीत होनेवाले शीतत्व, पावनत्वादि फल को नहीं बता सकती। अतः फल की प्रतीति के लिए पूर्वोक्त व्यापारों से अतिरिक्त एक चतुर्थ व्यापार अवश्य स्वीकार करना चाहिए। लक्षणा के हेतुनों का प्रभाव "हेत्वभावात्" में प्रदर्शित हेतु की असिद्धि दिखाने के लिए सूत्र २६ को उद्धृत करते हैं-"लक्ष्यं न मुख्यं Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः तथा च[सू० २६] लक्ष्यं न मुख्यं नाप्यत्र बाधो योगः फलेन नो । न प्रयोजनमेतस्मिन् न च शब्दः स्खलद्गतिः ॥१६॥ यथा गङ गाशब्दः स्रोतसि सबाध इति तटं लक्षयति, तद्वद् यदि तटेऽपि सबाधः हेत्वसिद्धिमुद्धरति लक्ष्यं न मुख्यमिति । ननु लक्षितलक्षणानुरोधादत्राप्यर्थबाध एव लक्षणाबीजमस्त्वित्यत आहयोग इति । ननु तीराद्यर्थैः प्रयोजनस्य साक्षात् सम्बन्धाभावेऽपि प्रयोजनाश्रयसम्बन्धित्वं परम्परासम्बन्धोऽस्त्येवेत्यत आह-न प्रयोजनेति । ननु मुख्यार्थबाधादिकं विनैव लक्षणाऽस्त्वित्यत आह-न च शब्द इति । शब्दो लाक्षणिकशब्दः । मुख्यार्थबाधादिनरपेक्ष्येणार्थाबोधकत्वं स्खलद्गतित्वम् ।। नाप्यत्र" (सूत्र २६) तटरूप लक्ष्यार्थ मुख्यार्थ नहीं है, न उस अर्थ के ग्रहण में यहां कोई बाधा है, न उसका शीतत्वपावनत्वातिशय के साथ कोई सम्बन्ध है, न उस प्रयोजन को लक्ष्यार्थ मानने में कोई प्रयोजन है और न गङ्गा शब्द तट के समान प्रयोजन को प्रतिपादन करने में असमर्थ है । इसलिए लक्षणा प्रयोजन को नहीं बता सकती ॥१६॥ ___ लक्षित-लक्षणा के अनुरोध से यहाँ (गङ्गायां घोषः में) भी अर्थबाध को ही लक्षणा का बीज मानेंगे तो क्या क्षति होगी, इसे बताते हुए लिखते हैं-'योगः' तट अर्थ का शीतत्वादि के साथ सम्बन्ध नहीं है । सम्बन्धाभाव से लक्षणा नहीं हो सकती, यह पूर्व ग्रन्थ का तात्पर्य है। . यदि यह कहें कि 'तीरादि अर्थ के साथ प्रयोजन का साक्षात सम्बन्ध नहीं होने पर भी प्रयोजनाश्रय (शीतत्व-पावनत्वातिशय के आश्रय) घोष का सम्बन्ध तीरादि के साथ है ही, इसलिए प्रयोजनाश्रयसम्बन्धित्वरूप परम्परासम्बन्ध होने के कारण "फलेन नो योगः" यह नहीं कह सकते' तो ठीक है, इसी अरुचि को मनमें रखकर आगे लिखा गया है-"न प्रयोजनमेतस्मिन्" प्रयोजन को लक्ष्य तभी माना जा सकता है, जबकि प्रयोजमरूप लक्ष्यार्थ से और कोई प्रयोजन निकले, परन्तु प्रयोजन के लक्ष्य मानने में कोई प्रयोजन नहीं है। इसलिए प्रयोजन को लक्ष्यार्थ नहीं माना जा सकता। मुख्यार्थबाधादि के बिना ही लक्षणा स्वीकार करने में क्या क्षति है; यह बताते हुए लिखते हैं-"न च शब्दः स्खलद्गतिः" । यहाँ शब्द का अर्थ है लाक्षणिक शब्द। ... मुख्यार्थ बाधादि की अपेक्षा के बिना अर्थ के बोध में असमर्थता ही स्खलद्गतित्व का लक्षण है। लाक्षणिक गङ्गादि शब्द, तट अर्थ के बोधन में स्खलद्गति है; क्योंकि वह उस (तट) अर्थ का मुख्यार्थबाघादि की अपेक्षा किये बिना बोध नहीं करा सकता इसलिए तट अर्थ में गङ्गा शब्द लाक्षणिक है; परन्तु गङ्गा शब्द शीतत्व-पावनत्वातिशयरूप प्रयोजन को बिना मुख्यार्थबाधादि की अपेक्षा किये ही व्यक्त कर सकता है। इसलिए गङ्गा शब्द तट अर्थ को बताने में स्खलद्गति है, बाधितार्थ है परन्तु शीतत्व-पावनत्वतिशयरूप प्रयोजन को बताने में स्खलद्गति नहीं है, बाधितार्थ नहीं है फिर लक्षणा कैसे होगी ? मुख्यार्थबाधादि होने पर वह तट को ही बोधित कर सकता है शीतत्वपावनत्वातिशय को नहीं; क्योंकि उस अर्थ के लिए वह स्खलद्गति नहीं है। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ काव्यप्रकाशा स्यात् तत् प्रयोजनं लक्षयेत् । न च तटं मुख्योऽर्थः। नाप्यत्र बाधः, न च गङगाशब्दार्थस्य तटस्य पावनत्वाद्यैर्लक्षणोयैः सम्बन्धः, । नापि प्रयोजने लक्ष्ये किजिवत् प्रयोजनम् । नापि गङ गाशब्दस्तटमिव प्रयोजनं प्रतिपादयितुमसमर्थः । __सुबुद्धिमिश्रास्तु नन्वत्रापि निरूढलक्षणा (अनादितात्पर्यवती) लक्षणाऽस्त्वित्यत आह-नच शब्द इति । स्खलन्ती गतिः शैत्यादेर्शानं यस्यासौ स्खलद्गतिः शैत्यादेरबोधको गङ्गादिः । [शब्दानां व्यञ्जना द्वाराशैत्यपावनत्वादि] प्रयोजनप्रतिपिपादयिषया प्रयोगादिति भाव इति व्याचक्षते ।" वयं तु विरम्य व्यापारायोगः स्खलद्गतिः [लक्षणया तटादिलक्ष्यार्थं बोधयित्वा विरतस्य] शब्दस्य प्रयोजनप्रतिपादने सामर्थ्य नेत्यर्थः । स्रोतसीत्यनन्तरं मुख्य इति शेषः, तटेऽपीत्यनन्तरं मु-[ख्यत्वेन विवक्षिते इति शेषः] अन्यथाऽस्य ग्रन्थस्य तर्कपरतायां न च तटं मुख्योऽर्थ इत्यस्यासङ्गतिः, मुख्यत्वस्यापादककोटावप्रवेशात् । तर्कपरत्वे च [ना] प्यत्र बाध इत्यनेन पौनरुक्त्यापत्तिः बाधाभावस्य तद्वदित्यादिनंवोक्ते- . रित्यवधेयम् । सुबुद्धि मिश्र"न च शब्दः'' की अवतरणिका इस तरह देते हैं-उनका कहना है कि यहाँ निरू ढा (अनादितात्पर्यवती) लक्षणा भी नहीं हो सकती है यह "नच शब्दः" से बताया गया है। उनके मनमें 'स्खलदगतिः' का विग्रह है 'स्खलन्ती गतिः (शैत्यादेानम्) यस्य असौ स्खलद्गतिः' अर्थात् शैत्यादि का बोध जिससे नहीं हो सकता, ऐसा गङ्गा शब्दादि नहीं है अथबा गङ्गा शब्द शैत्यादि का अबोधक हो ऐसा नहीं है। यदि ऐसा होता तो उस अर्थ के बोधन के लिए लक्षणा होती । जैसा कि वह तट अर्थ के बोधन में स्खलद्गति है तो, तटार्थ-बोधन के लिए लक्षणा होती है, परन्तु शीतत्वादि अर्थ-बोधन में वह स्खलद्गति नहीं है तो लक्षणा कैसे होगी? क्योंकि प्रयोजन के प्रतिपादन की इच्छा से ही उस (गङ्गा शब्द) का प्रयोग किया है । इस तरह सुबुद्धि मिश्र ने पूर्वोक्त ग्रन्थ के तात्पर्य को बताया है। मेरे मन में तो "किसी शब्द के किसी व्यापार की सहायता से किसी अर्थ के प्रतिपादन के बाद विरत (विश्रान्त) हो जाने पर उस शब्द के उसी व्यापार के साथ हुए योग को स्खलद्गति कहते हैं।" शब्द ऐसा नहीं होता अर्थात् विरत शब्द का पुनः उसी व्यापार से योग नहीं होता है। "शब्दबुद्धि-कर्मणां विरम्य व्यापाराभावः" यह सिद्धान्त स्पष्ट निर्देश दे रहा है। इसलिए "लक्षणा के द्वारा तटादि लक्ष्यार्थ की प्रतीति करने के बाद विराम प्राप्त गङ्गा शब्द उसी व्यापार के द्वारा प्रयोजन के प्रतिपादन में सामर्थ्य नहीं रखता" यह तात्पर्य "न च शब्दः स्खलदगतिः" का समझना चाहिए। वृत्ति में "स्रोतसि" के बाद 'मुख्ये' और 'तटे' के बाद "मुख्यत्वेन विवक्षिते" यह जोड़ना चाहिए। इस तरह पंक्ति का अर्थ होगा कि जैसे गङ्गा शब्द प्रवाहरूप मुख्यार्थ में बाधित है, वैसे आपके विचार में (लक्षणा से प्रयोजन के प्रतिपादन करनेवालों के विचार में) मुख्यार्थरूप में विवक्षित (न तु वस्तुतः मुख्यार्थ) तट अर्थ में भी बाधित नहीं है। यदि इस तरह 'मुख्ये' 'मुख्यत्वेन विवक्षिते' ये शब्द न जोड़े जाय तो ग्रन्थ को तर्क-परक मानने पर "न च तटं मुख्योऽर्थः" इस ग्रन्थ की संगति न हीं बैठेगी। क्योंकि तट जब मुख्यार्थ ही नहीं है, तो उसके बाध या अबाध का दिखाना व्यर्थ है। 'तटे' के बाद "मुख्यत्वेन विवक्षिते" यह जोड़ने पर संगति बैठ जाती है; क्योंकि 'तट' विवक्षा के कारण मुख्यार्थ है। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः ११३ ANANANAAAAAAA न च शब्दः स्खलद्गतिरिति । नापि गङ्गाशब्दस्तटमिवेति । 'असमर्थ' इति पाठे मुख्यार्थबाधादिकमुपेक्ष्येति शेषः, 'समर्थ' इति पाठे मुख्यार्थबाधादिक[मपेक्ष्यैवेति] शेषः, तथा च मुख्यार्थबाधनरपेक्ष्येणार्थाबोधकत्वरूपं स्खलद्गतित्वं नेत्यर्थः । लाक्षणिकबोधे लक्षणाया अन्वयव्यभिचारित्वं वा स्खलद्गतित्वं नेत्युक्तपाठाभ्यामुक्तरीत्या मूलव्याख्येति मम प्रतिभाति । प्रदीपकृतस्तु न केवल मुख्यार्थबाधादीनां शैत्यादिबोधार्थमभावमात्र किन्तु तेषामपेक्षाऽपि तत्र नेत्याद। न च शब्द: स्खलदगतिरिति मख्यार्थबाधादित्रयमपेक्ष्य बोधकत्वं स्खलद्गतित्वं, एवं च वृत्ता'वसमर्थ' इति पाठे बाधादिकमुपेक्ष्येति शेषः, 'समर्थ' इति पाठे बाधादित्रयमपेक्ष्येति शेष इति वदन्ति । अन्ये तु स्खलन्ती मुख्यार्थबाधाद्यनुसन्धानेन विलम्बिता गतिर्बोधकता यस्य न तथेत्यर्थः, यदि उक्त ग्रन्थ को तर्क-परक न मानें तो 'नाप्यत्र बाध:" यह उल्लेख पुनरुक्त हो जायगा। क्योंकि 'बाधाभाव' का उल्लेख तो "तद्वत् यदि तटेऽपि सबाधः स्यात्" इसी बाध से हो गया है । यह समझना चहिये। 'नच शब्द: स्खलदगतिः' की व्याख्या वृत्ति में "नापि गङ्गाशब्दस्तटभिव प्रयोजनं प्रतिपादयितुमसमर्थः" इन शब्दों में की गई है। यहाँ यदि "असमर्थः" यह पाठ हो जैसा कि ऊपर लिखा गया है तो "असमर्थः" के पहले मुख्यार्थबाधादिकमुपेक्ष्य' यह जोड़ना चाहिए जिससे कि मुख्यार्थ-बाधादि की उपेक्षा करके गङ्गा शब्द लक्षणा के द्वारा प्रयोजन को बताने में असमर्थ है ऐसा अर्थ हो । यदि वहाँ "समर्थः" ऐसा पाठ मानें तो उसके आगे "मुख्यार्थबाधादिकमपेक्ष्यवेति" जोड़ना चाहिए। इस तरह मुख्यार्थबाघ की बिना अपेक्षा किये अर्थाबोधकत्वरूप स्खलद्गतित्व शब्द में (गङ्गा शब्द में) नहीं है ऐसा तात्पर्य मानना चाहिये । मुख्यार्थ-बाध की अपेक्षा बिना किये जो शब्द अर्थ का बोध नहीं करा सकेगा उसी में स्खलद्गतित्व माना जायगा, गङ्गा शब्द तो मुख्यार्थवाध की अपेक्षा के बिना ही शीतत्व-पावनत्व को बताने की क्षमता रखता है। अतः यह शब्द शीतत्व-पावनत्वातिशयरूप प्रयोजन बताने में स्खलद्गति नहीं है। हां, भले ही तट अर्थ बताने में स्खलद्गति हो। मेरे मत में लाक्षणिक बोध में लक्षणा का अन्वय व्यभिचारित्वरूप स्खलद्गतित्व नहीं है, इस तरह उक्त पाठों से पूर्वोक्त प्रकार से मूल की व्याख्या की गयी है। प्रदीपकार का कहना है कि 'लक्षणा के द्वारा शैत्यादि के बोध के लिए अपेक्षित मुख्यार्थबाधादि का वहाँ न केवल अभाव है किन्तु उनकी अपेक्षा भी नहीं है क्योंकि गङ्गा शब्द शीतत्व-पावनत्वातिशय का बोध मुख्यार्थबाधादि की अपेक्षा के बिना ही करा देता है। "न च शब्दः स्खलद्गतिः” यहाँ स्खलद्गति का तात्पर्य है कि जो शब्द मुख्यार्थ-बाधादि तीन (लक्षणा हेतुओं) की अपेक्षा करके अर्थबोधक होता है वह स्खलद्गति होता है । गङ्गा शब्द तटार्थ बताने में स्खलद्गति भले ही हो; परन्तु वह शीतत्वादि अर्थ बताने में स्खलद्गति नहीं है क्योंकि शीतत्वादि अर्थ को वह बिना मुख्यार्थ-बाधादि की अपेक्षा किये वता देता है। इस तरह जब वृत्ति में 'असमर्थ' यह पाठ हो तब बाधादिकमुपेक्ष्य यह शेष मानना चाहिये अर्थात् पहले जोड़ना चाहिए और यदि 'समर्थ' पाठ हो तो "बाधादित्रयमपेक्ष्य" यह जोड़ना चाहिये । अन्य विद्वान इन पंक्तियों की व्याख्या और रूप में करते हैं :-"स्खलन्ती मुख्यार्थ-बाधाद्यनुसन्धानेन विलम्बिता गतिः" अर्थबोधकता में विलम्ब हो गया है, उसे स्खलद्गति कहते हैं किन्तु (गङ्गा) शब्द वंसा नहीं है। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ काव्य-प्रकाशः तटप्रत्ययानन्तरं झटित्येव व्यञ्जनया तत्प्रतीतेरिति भावः । एवं च वृत्तावप्यसामर्थ्यं मन्थरता, समर्थ इति पाठे यथा विलम्बेन तटं प्रतिपादयितुं समर्थस्तथा प्रयोजनं नैवेत्यर्थ इत्याहुः । वयं तु 'असमर्थ' इति पाठे इवशब्दः प्रयोजनमित्यनन्तरं योज्यः तेन यथा प्रयोजनं प्रतिपादयितु' 'असमर्थो' विरतत्वान्न तथा तटं प्रतिपादयितुं विरामदोषाभावादित्यर्थः, 'समर्थ' इति पाठे विरामदोषसत्त्वादिति व्याचक्ष्महे । सुबुद्धिमिश्रास्तु कारिकानुपस्थापितमपि युक्त्यन्तरमाह - नापीति । यथा तटं बोधयितुं गङ्गाशब्दो लक्षणारूपसम्बन्धज्ञानं विनाऽसमर्थस्तत् सम्बन्धज्ञानोपयोगिनं मुख्यार्थ - बाधादिकमपेक्षते तथा लक्षणात्मक-तीरसम्बन्धज्ञानं विना न पावनत्वादि बोधयितुमसमर्थो येन बाधाद्यपेक्षां कुर्यात् शैत्यादेस्तीरावृत्तित्वेन तत्सम्बन्धं विनैव गङ्गा-शब्दस्य शैत्यादिबोधकत्वादित्यर्थः । प्रवाह सम्बन्धज्ञानस्य शैत्यादिकं बोधयितुमपेक्षणं च न लाक्षणिक पदार्थान्वयबोधोत्तरकालीनवृत्तिकव्यञ्जनायाम्, क्योंकि तट की प्रतीति के बाद वह जल्दी ही इस तरह वृत्ति में पठित " असमर्थ " का अर्थ सामर्थ्यं रहित, मन्थरता से युक्त या विलम्बित मानना चाहिए । वृत्ति में आये हुए 'समर्थ' पाठ का सम्बन्ध बिठाने के लिए ऐसी शब्द-योजना करनी चाहिये कि "गङ्गा शब्द तट को बताने में जैसे विलम्ब से समर्थ होता है उस तरह प्रयोजन को बताने में उसे विलम्ब नहीं होता, इस लिए वह प्रयोजन में स्खलद्गति नहीं है । हम तो इसकी व्याख्या इस तरह करते हैं कि 'असमर्थ' इस पाठ में 'इव' शब्द 'प्रयोजनम्' के बाद जोड़ना चाहिए तव वाक्प होगा "नापि गङ्गाशब्दस्तटं प्रयोजनमिव प्रतिपादयितुमसमर्थः " । अर्थात् जैसे गङ्गा शब्द (लक्षणा के द्वारा ) तटार्थबोध के बाद लक्षणा के विरत हो जाने के कारण प्रयोजन को बताने में असमर्थ है; वैसे वह तट का बोध कराने में असमर्थ नहीं है; क्योंकि तटार्थबोधनकाल में उसमें विरामदोष नहीं आया है। " समर्थ: " पाठ मानने पर वाक्य को वह जैसा है वैसा ही रहने देना चाहिये "नापि गङ्गाशब्दस्तटमिव प्रयोजनं प्रतिपादयितुं समर्थः " अर्थात् गङ्गाशब्द तट की तरह (लक्षणा वृत्ति के द्वारा ) प्रयोजन की प्रतीति कराने में समर्थ नहीं है क्योंकि प्रयोजनरूपार्थ के बोधनकाल में उसमें विराम दोष आ गया है । सुबुद्धि मिश्र का मत है कि कारिका के द्वारा अप्रस्तुत युक्त्यन्तर का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि "नापि गङ्गाशब्दः" इत्यादि । अर्थात् गङ्गाशब्द लक्षणारूप सम्बन्धज्ञान के बिना तट को बताने में असमर्थ होकर जैसे उस सम्बन्धज्ञान के लिए उपयोगी मुख्यार्थबाधादि की अपेक्षा करता है, उसी तरह लक्षणात्मक तीर सम्बन्धज्ञान के बिना पावनत्वादि की प्रतीति कराने में वह असमर्थ नहीं है जिससे कि वह बाधादि की अपेक्षा करे। शैत्यादि धर्म तीर में या तीर पर रहनेवाला धर्म नहीं है, इसलिए तीर सम्बन्धज्ञान के बिना ही गङ्गा-शब्द शैत्यादि का बोध करा देता है । शैत्यादि के बोधन के लिए प्रवाह के साथ शैत्यादि के सम्बन्धज्ञान की अपेक्षा, लाक्षणिक (तीरादि ) पदार्थ के अन्वयबोध के उत्तरकाल में आनेवाली व्यञ्जना वृत्ति में नहीं होती है किन्तु लक्षणा में ही होती है । अन्यथा व्यञ्जना की तरह लक्षणा में भी प्रवाह सम्बन्धज्ञान की अपेक्षा न करें और लक्षणा से तट और शैत्य दोनों की एकसाथ उपस्थिति मानें तो अन्वययोग्यता न होने के कारण पहले एक तो शैत्य का तीररूपी अधिकरण में अन्वय नहीं होगा Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः ११५ [सू० २७] एवमप्यनवस्था स्याद् या मूलक्षयकारिणी । अपि तु लक्षणायाम्, अन्यथा तटशैत्ययोर्युगपदुपस्थितावयोग्यतया प्रथमं तीरे शैत्याधिकरणतानन्वयाद् योग्यतया घोषाधिकरणतान्वये तदुत्तरमयोग्यतायास्तदवस्थत्वेन जनितान्वयबोधतया निराकाङ्क्षत्वेन च लक्षणया तीरस्य शैत्येनान्वय-बोधाभावाद् व्यञ्जनायाश्चारोपितार्थबोधकत्वेनैव सिद्धेनं तज्जन्यबोsयोग्यताज्ञानं प्रतिबन्धकमिति भावः । 'समर्थ' इति पाठे घोषाधिकरणताया निबिडद्रव्येणैव साकाड़क्षात्वात् योग्यत्वाच्च शैत्यादीनां तदभावात् तत्प्रतिपादयितुं समर्थ इत्यर्थ इति व्याचक्षते । केचित्तु 'असमर्थ ' इति पाठे तीरमिवेति व्यतिरेके दृष्टान्तः, 'समर्थ' इति पाठे त्वन्वय एव, तथा च शैत्यादितीरयोर्युगपदुपस्थित्यापत्तिरित्यर्थ इत्याहुः । ननु तीरनिष्ठशैत्यपावनत्वे लक्ष्ये घोषनिष्ठं पावनत्वादि व्यङ्गयमस्त्वित्यत आहएवमपीति, 'मूलक्षयकारिणी' व्याचष्टे - अर्थात् तीर में शैत्य न होने के कारण शैत्य तीर में है ऐसा नहीं माना जा सकता। ऐसी स्थिति में अन्वय की योग्यता होने के कारण घोषरूपी अधिकरण में उसका अन्वय हो जायगा अर्थात् शैत्य घोष में है ऐसा अन्वय होने पर भी तीर के साथ शैत्य के अन्वित होने की अयोग्यता पहले की तरह बनी हुई होने के कारण और घोष के साथ अन्वय हो जाने के कारण निराकाङ्क्ष हो जाने से लक्षणा के द्वारा तीर का शैत्य के साथ अन्वयबोध नहीं हो सकता । व्यञ्जना में तो आरोपित अर्थ के बोधन की शक्ति है, इसीलिए इष्टान्वय की सिद्धि हो जाती है, क्योंकि व्यञ्जनाजन्य बोध में अन्वय की अयोग्यता का ज्ञान प्रतिबन्धक ( बाधक ) नहीं होता । यदि "समर्थ: " ऐसा पाठ है तो उसका तात्पर्य ऐसा मानना चाहिए कि 'घोष (आभीर ग्राम) का आधार तो कोई ठोस द्रव्य (पृथिवी आदि) ही सकता है इसीलिए घोष शब्द किसी निबिड (ठोस ) द्रव्य के साथ ही अधिकरणान्वय के लिए साकांक्ष रहेगा, ऐसा होना ही योग्य । इसलिए घोष शब्द, शेत्य के साथ अन्वित होने के लिए साकाङ्क्ष नहीं है, क्योंकि शैत्य कोई ऐसा ठोस द्रव्य नहीं है, जहाँ घोष बस सके; इसलिए घोष के साथ निराकाङ्क्ष शैत्य का उसके (घोष के साथ अन्वय नहीं हो सकता और तीर के साथ भी उसका अन्वय नहीं हो सकता; क्योंकि वह तीर का नहीं किन्तु प्रवाह का धर्म है। इस तरह वाक्य का अर्थ हुआ कि जैसे गङ्गा शब्द तीर को बताने में असमर्थ है, उस तरह प्रवाह को बताने में वह असमर्थ नहीं है किन्तु समर्थ है । कोई कहते हैं कि 'असमर्थ " ऐसा पाठ होने पर " तटमिव" इसको व्यतिरेक दृष्टान्त मानना चाहिए । इस प्रकार अर्थ होगा कि जैसे गङ्गा शब्द तट को बताने में स्खलद्गति है, असमर्थ है, इस तरह वह शैत्यादि प्रयोजन को बताने में स्खलद्गति या असमर्थ नहीं है । यदि "समर्थ" ऐसा पाठ मानें तो 'तटमिव' यह अन्वय- दृष्टान्त होगा । अर्थात् जैसे गङ्गा शब्द तट को बताने में समर्थ नहीं है वैसे ही प्रयोजन को भी बताने में समर्थ नहीं है क्योंकि दोनों (तट और शैत्य) की एकसाथ उपस्थिति हो जायगी, तो अन्वय में व्यवस्था नहीं हो पायगी । तथा प्रयोजन को लक्ष्य मानने में कोई और प्रयोजन मानना पड़ेगा, उसका यहाँ अभाव बताया गया है उसी के सम्बन्ध में कहते हैं कि "तीरनिष्ठ शीतत्व पावनत्वादि को लक्ष्य मानने पर घोषनिष्ठ पावनत्वादि को प्रयोजन माना जा सकता है, " इसका खण्डन करते हुए लिखते हैं कि " एवमप्यनवस्था स्याद् या मूलक्षयकारिणी" । इस प्रकार यदि Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ काव्य-प्रकाशः एवमपि प्रयोजनं चेल्लक्ष्यते तत् प्रयोजनान्तरेण तदपि प्रयोजनान्तरेण प्रकृताप्रतीतिकृद् अनवस्था भवेत् । ननु पावनत्वादिधर्मयुक्तमेव तटं लक्ष्यते । 'गङ गायास्तटे घोष' इत्यतोऽधिकस्यार्थ प्रकृतेति । इदमुपलक्षणं प्रयोजनेऽपि प्रयोजन- प्रतीतावेकत्र व पुरुषायुषपर्यवसानात् प्रकृताप्रतीतिस्तदियमनवस्थेत्यपि बोध्यम्, ननु पावनत्वादिविशिष्टस्य लक्ष्यत्वे प्रयोजनमिह विरह एव दूषणमत आह—- गङ्गातटे घोष इत्यत इति। अधिकस्यार्थस्येति । लक्ष्यतावच्छेदकतया शैत्यादिप्रतीतिः प्रयोजनमित्यर्थः । निरूढलक्षणातो भेदस्य तावन्मात्र णोपपत्तेः । अतो न मुख्यार्थबाधाभावादिदोषावकाशः लक्ष्यतावच्छेदके लक्षणाया अभावादिति भावः, न च शैत्यादेस्तटावृत्तित्वेन तटावच्छेदकतया कथं प्रयोजन को लक्षणागम्य मानने लगें तो एक प्रयोजन को लक्ष्यार्थ बनाने के लिए दूसरे प्रयोजन की कल्पना करनी होगी और दूसरे प्रयोजनों को लक्ष्य बनाने के लिए तीसरे प्रयोजन की आवश्यकता होगी और तीसरे के लिए चौथे की। इस प्रकार प्रयोजन की अविश्रान्त परम्परा की कल्पना के कारण मूलभूत प्रथम प्रयोजन (जिसके लिए लक्षणा की गई थी ) की प्रतीति में बाधा डालनेवाली (मूलक्षयकारिणी) अनवस्था होगी। "मूलक्षयकारिणी" की व्याख्या करते हुए वृत्ति में लिखते हैं- - "प्रकृताप्रती तिकृत्" इसका अर्थ है कि प्रकृत (प्रस्तुत - मूलभूत प्रथम प्रयोजन) की अप्रतीति करानेवाली अनवस्था होगी, इस वृत्तिग्रन्थ को उपलक्षण मानना चाहिए । इससे यह सिद्ध होगा कि प्रयोजन को प्रयोजनान्तर से लक्ष्यार्थं मानने पर अन्य दोष भी होंगे । वह है यदि पूर्व-पूर्व प्रजनको लक्ष्य बनाने के लिए दूसरे, तीसरे चौथे आदि उत्तरोत्तर प्रयोजनों की कल्पना की जाय तो एक ही प्रयोजनवती लक्षणा के उदाहरण को समझाने में पुरुष की सारी आयु समाप्त हो जायेगी। इस तरह प्रयोजन को प्रयोजनान्तर से लक्ष्य बनाने पर न केवल प्रकृति प्रयोजन की अप्रतीति करानेवाली अनवस्था होगी। प्रत्युत एक ही प्रयोजनवती लक्षणा के समझने में मनुष्य की आयु समाप्त हो जायगी । बीज और वृक्ष के प्राथम्य में जो अनवस्था होती है वह प्रकृताप्रतीतिकारिणी नहीं होती है किन्तु यह अनवस्था प्रकृताप्रतीतिकारिणी होगी । यहाँ एक प्रश्न उठाते हैं कि पावनत्वादि धर्म से युक्त तट को लक्षणागम्य माना जाय तो क्या क्षति है ? यदि यह कहें कि प्रयोजन - विशिष्ट में लक्षणा मानने पर प्रयोजन का विरह (अभाव) ही दोष हैं, तो यह कहना इसलिए उपयुक्त नहीं है कि 'गङ्गायां घोष:' यहाँ "गङ्गातटे घोष: " इससे अधिक जो पावनादि - विशिष्ट तीर अर्थ की प्रतीति होगी उसे ही प्रयोजन मान लेंगे। इस तरह विशिष्ट में लक्षणा करने पर प्रयोजन का अभाव नहीं रह जायगा और विशिष्ट में लक्षणा हो ही जायगी तब व्यञ्जना मानने से क्या लाभ ? इन्हीं बातों को "ननु पावनत्वादिधर्मयुक्तमेव" से "कि व्यञ्जनया" यहाँ तक के वाक्यों में लिखते हैं । विशिष्ट में — अर्थात् शीतश्व - पावनत्व - विशिष्ट तट में - लक्षणा करने पर लक्ष्यतावच्छेदकतया शैत्यादि की प्रतीति ही प्रयोजन होगी, इसी बात को " गङ्गायास्तटे घोषः " यहाँ से "गङ्गायां घोषः " में हुई अधिक अर्थ की प्रतीति ही प्रयोजन है; इन शब्दों में बताया है । शीतस्व-पावनत्वादि - विशिष्ट तट में लक्षणा मानने पर लक्ष्यतावच्छेदकरूप में शैत्यादि की प्रतीति ही प्रयोजन होगी । प्रयोजन की यही प्रतीति, निरूढा लक्षणा से प्रयोजनवती लक्षणा को भिन्न प्रमाणित करने में साधक Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः स्य प्रतीतिश्च प्रयोजनमिति विशिष्टें लक्षणा । तत्किं व्यज्जनयेत्याह [सू० २८] प्रयोजनेन सहितं लक्षरणीयं न युज्यते ॥ १७ ॥ ११७ भानमिति वाच्यम्, परम्परासम्बन्धेन तीरे गङ्गात्वभानवदुपपत्तेः । ( न च तीरे ) पि गङ्गा [ त्व ] भानं व्यञ्जनयैवेत्यत्रापि तथात्वे व्यञ्जना समागतैवेति वाच्यम्, लक्ष्यतावच्छेदकस्य वृत्त्यन्तराप्रतिपाद्यत्वात् । ( शैत्यादि) प्रतीतेर्व्यञ्जनाजन्यत्वपक्षे तीरत्वस्यैव लक्ष्यतावच्छेदकतया तद्भानार्थं वृत्त्यन्तराकल्पनावच्छेत्यादेरपि लक्ष्यतावच्छेदकत्वोपगमेन तद्भानार्थं वृत्त्यन्त राकल्पनादिति भावः । गङ्गातट इत्यनन्तरं गङ्गात्वेनोपस्थित इति शेषः । अधिकस्यार्थस्य (पावनत्वादिवैशिष्ट्यरूपस्य ) अत्राप्यवश्यापेक्षणीयस्येति शेषः, प्रयोजनं प्रयोजकं युक्तिरित्यर्थः । तथा च गङ्गायां घोष इत्यत्र व्यञ्जनया शै (त्यपावनत्व वैशिष्ट्य रूपेण) प्रत्ययो ( न तीर) - निष्ठतया, अपेक्षितश्च तथेति न व्यञ्जनयोपपत्तिरिति तां विहाय विशिष्टे लक्षणेत्यर्थ इति [ भावः । अत्र केचित् ] शैत्यादिबोधे वैशिष्ट्यज्ञानानुपपत्तिः लक्षणातः प्राग्वैशिष्टयाभाने न तत्र [विशिष्टे बनेगी । निरूढा लक्षणा से इसका पार्थक्य इतने से ही सिद्ध हो जायगा । इसलिए जब लक्ष्यतावच्छेदक में लक्षणा नहीं मानी जायगी तो मुख्यार्थबाधाभावादि के कारण लक्षणा नहीं होगी, इस तरह के कथन के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं है भला, तो बताइए कि शैत्यादि का, जो प्रवाहनिष्ठ हैं, तट में उपस्थित नहीं होने के कारण तटावच्छेदकतया भान कैसे होगा ? वाह, परम्परा – सम्बन्ध से गङ्गा निष्ठ शैत्यादि का भान तीर में उसी तरह सम्भव है जिस तरह तीर में गङ्गात्व का भान होता है। 'तीर में गङ्गात्व का भान व्यञ्जना से ही होता है; इसलिए पूर्वोक्त स्वीकृति में व्यञ्जना आ ही गयी' ऐसा नहीं कहना चाहिए क्योंकि लक्ष्यतावच्छेदक को अन्य वृत्ति का प्रतिपादक नहीं माना गया है। लक्ष्य जैसे लक्षणाप्रतिपाद्य है; वैसे ही लक्ष्यतावच्छेदक भी लक्षणा प्रतिपाद्य ही "शैत्यादि की प्रतीति व्यञ्जना से होती है" इस पक्ष में तीरत्व ही लक्ष्यतावच्छेदक माना जाता है। उस तीरत्वरूप लक्ष्यतावच्छेदक के भान के लिए जैसे अन्य वृत्ति की कल्पना उस पक्ष में नहीं की जाती है; उसी तरह विशिष्ट में (शैत्यादि विशिष्ट तीर में ) लक्षणा मानने के पक्ष में भी शैत्यादि को लक्ष्यतावच्छेदक मानने पर उसके (लक्ष्यतावच्छेदक - शीतत्वादि के ) भान के लिए अन्य वृत्ति की कल्पना नहीं करनी होगी। वृत्ति में "गङ्गावास्त" इसके बाद "गङ्गात्वेन उपस्थिते " इसका शेष मानना चाहिए अर्थात् जोड़ना चाहिए । 'अधिकस्यार्थस्य' यहाँ भी "अवश्यापेक्षणीयस्य " का शेष समझना चाहिए । 'प्रयोजनम्' का अर्थ है प्रयोजक या युषित। इस तरह 'शेष' द्वारा पूरित वाक्य का अर्थ होगा 'गङ्गात्वेन उपस्थित तट पर घोष' इससे अधिक और स्वीकार करने योग्य पावनत्वादि विशिष्टरूप अर्थ की प्रतीति को ही प्रयोजक या युक्ति मान कर विशिष्ट में लक्षणा मानने से ही इष्टसिद्धि हो जायगी फिर व्यञ्जना से क्या लाभ ? प्रश्नकर्ता का तात्पर्य यह है कि "गङ्गायां घोष: " में व्यञ्जना के द्वारा होनेवाली शैत्य-पावनत्वादि की प्रतीति तोरनिष्ठ (तीर में) नहीं हो सकती है वैसी अपेक्षा चल है कि शैत्यादि की प्रतीति तीरनिष्ठ हो । वह व्यञ्जना से हो नहीं सकती। इसीलिए व्यञ्जना के द्वारा काम नहीं सकता। यही कारण है कि व्यञ्जना न मानकर यहाँ विशिष्ट में लक्षणा माननी चाहिए। कोई प्रश्नकर्ता का तात्पर्य इस तरह बताते हैं कि 'शैत्यादिबोध के लिए वैशिष्टघज्ञान की उपपत्ति लक्षणा से नहीं हो सकती, क्योंकि लक्षणा से पहले वैशिष्ट्य का भान नहीं होता था, अत: विशिष्ट में लक्षणा हो नहीं Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्य-प्रकाशः कुत इत्याह [सू० २६] ज्ञानस्य विषयो ह्यन्यः फलमन्यदुदाहृतम् । प्रत्यक्षादेर्नीलादिविषयः फलं तु प्रकटत। संवित्तिर्वा । लक्षणाया असम्भवाद् व्यञ्जना स्वीकार्येति तु न, तोर ] रूप-विशेष्य-सम्बन्धिग्रहस्य सम्बन्धि ? अतः [विषयकत्वेन] एकयैव लक्षणया विशेष्यतया तीरस्यावच्छेदकतया शैत्यादेस्तदुभयसंसर्गतया वैशिष्टयस्यो पस्थितिरुपेयेति शङ्कार्थमामनन्ति । ज्ञानस्येति । प्रकृते व्यापारस्य लक्षणारूपस्य ज्ञायतेऽनेनेति व्युत्पत्तेः। यदि च भावव्युत्पन्नं तदा ज्ञानस्य लक्षणाजन्यस्य, प्राचीनमते लक्षणात्मकस्त [दस्य] स्तीरादिविषयः फलं पावनत्वादि अन्यदित्यर्थः । तत्र दृष्टान्तमाह-प्रत्यक्षादेहीति । प्रत्यक्षमिन्द्रियपरं नैयायिकादिमते, तज्जन्यज्ञानपरं' भट्टमते, प्रकटतेति भट्टमते संवित्तिः चाक्षुषादिज्ञान[ ज्ञान ]मिति ने यायिकादिमते, सुबुद्धिमि सकती इसलिए व्यञ्जना स्वीकार करनी चाहिए' इस शङ्का का उत्तर प्रश्नकर्ता इस प्रकार देता है कि 'एक ही लक्षणा विशेष्यरूप में अनुभूत तीर का और तीर के अवच्छेदक रूप में शत्यादि का और पूर्वनिर्दिष्ट दोनों (विशेष्यता और अवच्छेदकता) सम्बन्ध से विशिष्ट का (शोतत्वविशिष्ट तीर का) बोध करा देगी. इस तरह लक्षणा से काम चलेगा अतः व्यञ्जना मानना व्यर्थ है।' विशिष्ट में लक्षणा माननेवालों के मत का खण्डन करते हुए लिखते हैं-(सू० २६) "ज्ञानस्य विषयो ह्यन्यः फलमन्य दुदाहृतम्" ज्ञान का विषय (नीलो घट: में नीलघटादि) अलग है और ज्ञान का फल (मीमांसक के मत में ज्ञातता या प्रकटता और नैयायिकों के मत में अनुव्यवसाय या संवित्ति) अलग कहे गये हैं। __ प्रकृते- इस प्रकरण में ज्ञान का अर्थ है लक्षणारूप व्यापार । 'ज्ञायते अनेन इति ज्ञानम्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिससे जाना जाय उसे ज्ञान कह सकते हैं। इस तरह व्यापार (अभिधादि) से अर्थ जाना जाता है। इस लिए अभिधादि-व्यापार को ज्ञान कह सकते हैं। प्रकरण लक्षणा का चल रहा है इसलिए यहाँ ज्ञान का अर्थ लक्षणाव्यापार लिया जाता है। यदि ज्ञान पद की सिद्धि भाववाच्य में ल्युट् प्रत्यय करके करें तो उसका अर्थ होगा "ज्ञप्तिः बुद्धिः ज्ञानम्" बोध । इस पक्ष में यहाँ 'ज्ञानस्य' का अर्थ होगा "लक्षणाजन्य बोध" लक्षणा से होने वाला बोध । प्राचीन मत (पूर्व मत के अनुसार) कारिका का अर्थ होगा कि लक्षणात्मक ज्ञान का विषय तीरादि है। . क्योंकि तीर में लक्षणा की जाती है और फल है पावनत्वादि । पावनत्वादि फल तीरादि विषय से भिन्न है ही। इस बात की पुष्टि के लिए वृत्ति में दृष्टान्त प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं--प्रत्यक्षादेहि । नैयायिकादि के मत में 'प्रत्यक्ष पद 'इन्द्रिय का वाचक है। भद्र (मीमांसक) के मत में 'प्रत्यक्ष' पद इन्द्रिय-जन्य ज्ञानपरक है अर्थात् इन्द्रिय से उत्पन्न ज्ञान का बोधक है । भट्ट के मत में ज्ञान का फल प्रकटता या ज्ञातता है और नैयायिकादि के मत में ज्ञान का फल है संवित्ति अर्थात् रूपादि का ज्ञान । सुबुद्धि मिश्र का कहना है कि 'नयायिकादि और भट्ट (मीमांसक) दोनों ही मतों में प्रत्यक्ष पद इन्द्रिय टि.......१. व्यवसायाख्याम् । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः ११६ ~ श्रास्तूभयमतेऽपि प्रत्यक्षपदमिन्द्रियजन्यज्ञानपरमेव, संवित्तिश्च न्यायमते हेयोपादानबुद्धिरनुव्यवसायो वा, एवं च कारिकायां ज्ञानपदं भावव्युत्पन्नमेवेत्याहुः । मधुमतीकृतस्तु प्रत्यक्षमिन्द्रियपरमेव नीलादिविषयो व्यापारानुबन्धिविषयतया, प्रकटता जन्य ज्ञानपरक ही है। इसीलिए 'प्रत्यक्ष का तात्पर्य दोनों के मत में समान है, अन्तर है तो फल के तात्पर्य को लेकर । भट्र के मत में ज्ञान का फल प्रकटता या ज्ञातता या व्यवसाय है। 'न्यायमत में संवित्ति है' संवित्ति का अर्थ अनुष्यवसाय है । वही ज्ञान का फल है । अनुव्यवसाय से हेय (त्याज्य) और उपादेय (ग्राह्य) बुद्धि उत्पन्न होती है । इस तरह कारिका में ज्ञानपद भावव्युत्पन्न “ज्ञप्ति नम्" ही है। ___ मधुमतीकार का कहना है कि 'प्रत्यक्ष पद यहाँ 'इन्द्रिय' बोधक ही है । "नीलो घटः" इत्यादि में नीलादि विषय इसलिए माना गया कि वह ६ प्रकार के (संयोग, संयुक्तसमवाय, संयुक्तसमवेतसमवाय, समदाय, समवेतसमवाय और विशेषणविशेष्यभाव) सन्निकर्ष व्यापार से सम्बद्ध है। 'प्रत्यक्ष' का अर्थ जब 'इन्द्रिय' माना गया तब प्रकटता उसका (प्रत्यक्षता) फल साक्षात् नहीं हो सकती; इसलिए ज्ञातता या प्रकटता को प्रत्यक्ष का फल इन्द्रियजन्य ज्ञानद्वारा अर्थात परम्परा-सम्बन्ध से ही मान सकते हैं। संवित्ति तो व्यवसाय अर्थात ज्ञानात्मिका या ज्ञानस्वरूपा ही है इसलिए वह प्रत्यक्ष का साक्षात् फल हो सकती है। इस तरह कारिका में ज्ञान पद "ज्ञायते अनेन" इस प्रकार करणव्युत्पत्ति-सिद्ध ही है। इस तरह विशिष्ट में लक्षणा का निराकरण किया गया है। प्रयोजनवती लक्षणा में प्रयोजन का बोध लक्षणा से नहीं हो सकता। इसलिए प्रयोजन के बोध के लिये व्यञ्जनावत्ति की आवश्यकता बतायी गयी। विशिष्ट में लक्षणा मानी नहीं जा सकती । क्योंकि विशिष्ट में लक्षणा मानने से लक्षणा का विषय (तट) और लक्षणा के फल (पावनत्वादि) दोनों का बोध एक साथ होगा । परन्तु यह युक्तिविरुद्ध है ज्ञान का विषय और फल ये दोनों अलगअलग होते हैं । उनको एक साथ मिलाया नहीं जा सकता। क्योंकि विषय और फल में कार्य-कारणभाव सम्बन्ध होता है । ज्ञान का विषय ज्ञान का कारण होता है और ज्ञान का फल ज्ञान का कार्य होता है । कार्य और कारण दोनों की उत्पत्ति एक काल में नहीं हो सकती। इस तरह लक्षणाजन्य ज्ञान के विषय तट और उसके फल को एकसाथ नहीं मिलाया जा सकता है किन्तु उनकी प्रतीति अलग-अलग ही माननी होगी। इसलिये विशिष्ट में लक्षणा नहीं हो सकने के कारण व्यञ्जना-व्यापार की नितान्त आवश्यकता है। 'ज्ञान का विषय और ज्ञान का फल दोनों अलग-अलग होते हैं। इस बात को समझाने के लिये ग्रन्थकार ने यहाँ मीमांसा और न्यायदर्शन की ज्ञानविषयक प्रक्रिया की चर्चा की है। पहले उसे समझना आवश्यक है। क्योंकि उसे समझे बिना यहाँ का रहस्य समझ में नहीं आ सकता। 'घट और पट आदि विषयों का जो ज्ञान होता है ; उसके विषय घट-पट आदि होते हैं और वे ज्ञान के प्रति कारण होते हैं। इसलिये घट-पट आदि विषयों की सत्ता ज्ञान से पहले रहती है, इस सिद्धान्त को सभी दार्थनिक मानते हैं। परन्तु ज्ञान का फल क्या होता है इस विषय में न्याय और मीमांसादर्शन के सिद्धान्तों में मतभेद है । वह इस प्रकार है - न्यायदर्शन अनुव्यवसाय सिद्धान्त को मानता है। घट या नीलादि विषयों का ग्रहण तो प्रत्यक्षादि प्रमाणों से हो जाता है। परन्तु ज्ञान का ज्ञान कैसे होता है ; इस प्रश्न के समाधान के लिये नैयायिक 'अनुव्यवसाय' की कल्पना करते हैं । 'अनुव्यवसाय' का अर्थ है ज्ञान के लिये अनुगत ज्ञान या ज्ञान का ज्ञान । पहले प्रत्यक्ष से "अय Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० काव्य-प्रकाशः चेन्द्रियस्य ज्ञानद्वारा फलं, संवित्तिर्व्यवसायरूपा साक्षादेव, एवं च कारिकायां ज्ञानपदं करणव्युत्पन्नमेवेत्याहु: | ननु कीदृशमत्रानुमानम् ? न तावद्धेतुफले अन्यव्यापारगोचरे कार्यकारणभावापन्नत्वादित्याकारकं, प्रत्यक्ष प्रकटतयोदृष्टान्तयोः साध्यवैकल्यात्, न च शैत्यपावनत्वादिकं तीरज्ञानभिन्नं तत्फलत्वात् तीरज्ञानाहितज्ञाततावदित्याकारकमिति वाच्यं सिद्धसाधनात् फलत्वस्य जन्यत्वरूपत्वे स्वरूपासिद्धेः, जन्यप्रतीतिविषयत्वरूपत्वे प्रकटतारूपदृष्टान्ते साधनवैकल्यात्, अथ शैत्यादिज्ञानमेव फलं न घटः” इस प्रकार का ज्ञान होता है। इसके बाद 'घट-विषयक ज्ञानवान् अहम्' अथवा 'घटमहं जानामि' इस प्रकार का ज्ञान होता है । इनमें "अयं घटः " यह ज्ञान पहला ज्ञान है, यह 'व्यवसाय' कहलाता है। दूसरा ज्ञान 'मैं घट को जानता हूँ या मुझे घट का ज्ञान है' बाद में होता है । यह दूसरा ज्ञान 'अनुव्यवसाय' कहलाता है । "अयं घटः " इस प्रथम ज्ञान का विषय घट होता है और 'घटमहं जानामि' या 'घटविषयकज्ञानवानहम्" इस दूसरे ज्ञान का विषय 'घटज्ञान' है । पहला व्यवसायात्मक ज्ञान अपने विषय 'घट' से उत्पन्न होता है उसी प्रकार दूसरा ज्ञान अपने विषय व्यवसायात्मक ज्ञान से उत्पन्न होता है। इसीलिये दूसरा ज्ञान 'अनुव्यवसाय' कहलाता है । अनुव्यवसाय 'घट' ज्ञान का फल हुआ । इस तरह घट ज्ञान के विषय 'घट' से उस 'घट' ज्ञान का फल अनुव्यवसाय भिन्न है । इसलिए विषय और ज्ञान के फल अलग-अलग होने चाहिए इन दोनों में कारण कार्यभाव सम्बन्ध है । इसलिए इन दोनों की उत्पत्ति समकालीन नहीं मानी जा सकती। अतः विशिष्ट में लक्षणा स्वीकार नहीं कर सकते । "हेतु और फल दोनों अलग अलग हैं" इस तथ्य को सिद्ध करने के लिए जो अनुमान किया जायगा उसका स्वरूप क्या होगा ? हेतु और फल दोनों अलग-अलग व्यापारगोचर (गम्य ) हैं क्योंकि उन दोनों में कार्य कारणभाव हैं जिनमें कार्य कारणभाव सम्बन्ध रहते हैं वे दोनों पृथक्-पृथक् व्यापारगम्य हुआ करते हैं जैसे प्रत्यक्षज्ञान का कारण नीलादि और फल प्रकटता दोनों अलग-अलग व्यापार- गोचर हैं इस प्रकार "हेतुफले तावदन्यव्यापारगोचरे कार्यकारणभावापन्नत्वाद् यथा प्रत्यक्षं प्रकटते" यह अनुमान का स्वरूप मान नहीं सकते; क्योंकि प्रत्यक्ष और प्रकटतारूप दृष्टान्त का कोई ( साध्य) उदाहरण स्थल नहीं है । शैत्यपावनत्वादिक तीरज्ञान से भिन्न हैं, क्योंकि वे (शीतत्व-पावनत्वादिक) तीरज्ञान के फल हैं, तीरज्ञान से आहित ( उत्पन्न ) ज्ञातता की तरह ( शैत्यपावनत्वादिकं तीरज्ञानभिन्नं तत्फलत्वात्, तीरज्ञानाहितज्ञाततावत् ), ऐसा अनुमान मानना भी सम्भव नहीं है, क्योंकि इसमें सिद्धसाधन दोष आता है। तीरज्ञानभिन्नत्व जो पहले से ही सिद्ध है, उसे ही सिद्ध करने के कारण सिद्धसाधन दोष स्पष्ट है। दूसरा दोष यह है कि यदि फलत्व को जन्यस्वात्मक मानें तो स्वरूपासिद्ध दोष होगा क्योंकि जन्यत्वरूप की ही असिद्धि है। यदि फलत्व को जन्यप्रतीतिविषयत्वात्मक मानें तो प्रकटतारूप दृष्टान्त में हेतु का अभाव होने से अनुमान नहीं होगा । 'यदि शैत्यादिज्ञान को ही फल मानें और शैत्यादि को फल न मानें; तब तो अनुमान हो जायेगा' ऐसा मानने पर उन ग्रन्थों के साथ विशेष आयगा; जहाँ शैत्य पावनत्वादि को फल कहा गया है। इस विरोध के परिहार के लिए यह मानना पड़ेगा कि यद्यपि शैत्यादिज्ञान ही फल है, शैत्यादि नहीं, तथापि ज्ञानरूप फल का विषय होने के कारण शैत्यादि को भी फल उसी तरह कहा गया है जैसा कि घटज्ञान के शक्य होने पर भी शकयज्ञान के विषय होने के कारण घट आदि को लोग शक्य कह देते हैं। इस तरह यह अनुमान किया जा सकता है कि "शैत्यादिज्ञान तीरज्ञान Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लास: तु शैत्यादि क्वचित् फलत्वोक्तिश्च ज्ञानरूपफलविषयतया शक्यज्ञानविषयतया घटादेः शक्यत्वोक्तिवत् तथा च शैत्यादिज्ञानं तोरज्ञानाद् भिन्नं तोरज्ञानजन्यत्वात् तज्जन्यज्ञातताहेयोपादेय-ज्ञानवदित्यनुमानमिति चेद् ? न । शैत्यतीरयोभिन्नभिन्नज्ञानविषयताया अपि सम्भवेन सिद्धसाधनात्, विशिष्टलक्षणावादिमते स्वरूपासिद्धेः, तीरविशेषणकविशिष्टज्ञाने व्यभिचाराच्च । ननु करणफलं करणविषयभिन्नं करणफलत्वाद् ज्ञाततावत्, यद्वा करणविषयः करणफ करणविषयनीलादिज्ञानवत, करणं च फलायोगव्यवच्छिन्नं कारणं शब्दे वाक्यसम्बन्धादिः प्रत्यक्षे चेन्द्रियसन्निकर्षादिः, विषयता च व्यापारानुबन्धिनी। विवक्षितानुमितिश्च पक्षतावच्छेदकावच्छेदेन साध्यविषयिणी विवक्षिताऽतो न पक्षतावच्छेदकहेत्वोरभेदनिबन्धन सिद्ध-साधनावकाश इति चेद्, न, फलत्वस्य जन्यत्वरूपत्वे सिद्धसाधनात्, जन्यप्रतीतिविषयत्वरूपत्वे बाधात्, हेतोः साध्याभावव्याप्यत्वेन विरुद्धत्वाच्च, नापि करणं स्वविषयभिन्न-फलकं करणत्वात् ज्ञातताकरणवदित्यनुसे भिन्न है, क्योंकि वह शत्यादिज्ञान तीरज्ञान से जन्य है (उत्पन्न होता है) जैसे कि प्रत्यक्ष ज्ञान से जन्यज्ञातता अर्थात हेय और उपादेय का ज्ञान प्रत्यक्षज्ञान से भिन्न होता है।" परन्तु इस प्रकार से अनुमान का स्वरूप नहीं माना जा सकता, क्योंकि शैत्य और तीर कभी भिन्न-भिन्न ज्ञानों के विषय भी बन सकते हैं; उस समय सिद्धसाधन दोष आयगा। वहाँ जन्य-जनकभाव भी नहीं होगा। विशिष्ट में-शैत्यादिविशिष्ट तीर में लक्षणा माननेवालों के मत में स्वरूपासिद्ध दोष भी हो जायगा । जैसे "शब्दो गुणः चाक्षुषत्वात्" इस अनुमान में चाक्षुषत्वरूप हेतु श तरह विशिष्ट में लक्षणा मानने पर शैत्यादिज्ञानविशिष्ट तीरज्ञान में पूर्वोक्त जन्यजनकभाव सिद्ध नहीं होता; इसलिए पक्ष में हेतु के नहीं रहने के कारण स्वरूपासिद्ध दोष आयगा । तीर-विशेषणक-विशिष्ट ज्ञान में अर्थात् 'तीरनिष्ठं शंत्यादिकम्' इस ज्ञान में विशेषण-विशेष्यभाव के विपरीत होने के कारणं पूर्वोक्त जन्यजनकभाव में व्यभिचार भी आयगा।' अच्छा; 'करण का फल करण के विषय से भिन्न होता है क्योंकि वह करण का फल है यथा ज्ञातता' ऐसा अनुमान का स्वरूप मानेंगे तो जैसे प्रत्यक्षज्ञान के करण चक्षरादि इन्द्रिय के विषय नीलघट से उसका फल ज्ञातता भिन्न होती है इसी तरह लक्षणारूपी करण का विषय तीरादि और उसके फल शैत्यादि दोनों को अलग-अलग होना चाहिये । अथवा करण का विषय करण के फल से भिन्न होता है करण का विषय होने से, प्रत्यक्ष का करण चक्षुरादि इन्द्रिय का विषय नीलादि ज्ञान, जैसे उसके फल ज्ञातता से भिन्न होता है। यहां करण का तात्पर्य है फलायोगव्यवच्छिन्न कारण । अर्थात् उस कारण को करण कहेंगे जो फल के सम्बन्ध से रहित न हो । शब्द में वाच्यसम्बन्धादि ऐसा कारण है इसलिए उसे करण कहेंगे और प्रत्यक्षस्थल में इन्द्रियसंनिकर्षादि करण माने जायगें। विषयता को व्यापारानुबन्धिनी मानेंगे। अभीष्ट अनुमिति में पक्षतावच्छेदकावच्छेदन विवक्षित है अर्थात् जितने पक्ष हैं, सभी अनुमान के विषय हैं और सभी संदिग्धसाध्यवान् हैं इसलिए पक्षतावच्छेदक और हेतु दोनों में अभेद होने के कारण सिद्ध-साधनदोष के लिए कोई अवकाश नहीं रहेगा। परन्तु ऐसा भी अनुमान का स्वरूप नहीं माना जा सकता क्योंकि अनुमान के इस स्वरूप में फलत्व को यदि जन्यत्वरूप मानें तो सिद्धसाधनदोष होगा, क्योंकि फल में करणजन्यत्व पहले से ही सिद्ध है। अगर फलत्व को जन्यप्रतीतिविषयत्वरूप मानें तो बाध नामक हेत्वाभास दोष आयगा । जैसे “वह्निः अनुष्णः द्रव्यत्वात्" इस अनुमान में बाधदोष है क्योंकि “यस्य साध्याभावः प्रमाणान्तरेण निश्चितः स हेतुः न सधेतुः किन्त्वसद्धेतुः" द्रव्यत्वरूप हेतु का साध्य अनुष्णत्व है, उसका अभाव उष्णत्व Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ काव्यप्रकाश मानं, फलत्वस्य जन्यत्वरूपत्वे सिद्धसाधनात्, जन्यप्रतीतिविषयत्वरूपत्वे साध्यघटकान्योन्याभावस्य सामान्याभावत्वे साध्याप्रसिद्धः, विशेषाभावत्वे सिद्धसाधनापत्तेरन्तरतापत्तेश्चेति । अथ 'शत्यज्ञानं तीरज्ञानोत्पत्तिकालभिन्नकालोत्पत्तिकं तीरज्ञानफलत्वादित्यनुमानं यद् यत्फलं तत्तद्भिन्नकालोत्पत्तिकम् इत्यत्र ज्ञाततादिदृष्टान्त इति चेद्, न, सिद्धसाधनात्, तादृशभिन्नकालमात्रोत्पत्तिकत्वे साध्ये बाधात्, विशिष्टलक्षणावादिना शैत्यादिप्रतीतेस्तीरज्ञानफलत्वानभ्युपगमेन स्वरूपासिद्धेश्च, अधिकस्यार्थस्य प्रतिपत्तिश्च प्रयोजनमित्यस्य भिन्नप्रकारकप्रतिपत्त्यर्थमवाचकपदप्रयोगो न त -कालीन प्रत्यक्षप्रमाण से सिद्ध है इसलिए यह हेतु बाधित है और यहां बाधदोष है। इसी तरह फल को यदि जन्यप्रतीतिविषयत्व मानें तो वहाँ "जन्यप्रतीतिविषयत्वात्" इस हेतु के कारण जिस करणफल को करणविषयभिन्न सिद्ध करना चाहेंगे उस करणफल में करणविषयत्व सिद्ध हो रहा है, अत: उन लक्षणावादियों के मत में जो विशिष्ट में लक्षणा मानते हैं इस तरह ‘बाध' आ जायगा । हेतु साध्याभावस्थल में व्याप्य है इसलिए “साध्याभावव्याप्यो हेतुविरुद्धः" इस लक्षण के अनुसार विरुद्धनामक हेत्वाभास भी है। विशिष्ट में लक्षणा माननेवालों के मत में करण का विषय और फल एक ही होने कारण करणविषय-भिन्नाभाव अर्थात करणविषय में करणफलत्व भी विद्यमान है। "करण स्वविषय से भिन्न फलवाला होता है क्योंकि वहां करणत्व है, जहाँ-जहाँ करणत्व है वहां-वहां विषय से फल भिन्न होता देखा गया है । जैसे ज्ञाततारूपी फल के करण प्रत्यक्ष का विषय नील-घटादि-ज्ञातता से पृथक् देखा गया है" ऐसा अनुमान भी नहीं हो सकता। इस अनुमान में भी फलत्व को यदि जन्यरूप मानें तो सिद्ध-साधन दोष होगा, फलत्व को यदि जन्यप्रतीतिविषयत्वरूप मानें, तो साध्यघटक अन्योन्याभाव को सामान्याभाव मानने पर साध्य की अप्रसिद्धि हो जायगी । तात्पर्य यह है कि "स्वविषयभिन्नफलकम्" में भिन्न का अर्थ है अन्योन्याभाव । उन अन्योन्याभावगत अभाव को यदि सामान्याभाव माने तो साध्य की अप्रसिद्धि हो जायगी। यदि साध्यघटक अभाव को विशेषाभाव मानें तो सिद्ध साधनदोष होगा और अर्थान्तर-सिद्धि-प्रयुक्त दोष भी होगा। यदि कहें कि 'शैत्यज्ञान, तीरज्ञानोत्पत्ति काल से भिन्न काल में उत्पन्न होनेवाला ज्ञान है, क्योंकि वह (शैत्यज्ञान) तीरज्ञान का फल है ऐसा अनुमान मानेगे, जो जिसका फल होता है वह उससे भिन्न काल में उत्पन्न हुआ करता है जैसे ज्ञातता आदि; इस प्रकार दृष्टान्त की योजना भी हो जाएगी तो यह कथन भी ठीक नहीं होगा, इस कथन में भी सिद्ध साधन दोष है। पूर्वोक्त भिन्नकालोत्पत्ति को साध्य मानने में बाध दोष भी है । क्योंकि काव्य में ऐसे उदाहरण भी मिलते हैं जहाँ फलज्ञान और कारणज्ञान एक साथ होता है जैसे "आलिङ्गन्ति समं देव ! ज्यां शराश्च पराश्च ते" यहाँ शत्रु के पृथ्वी पर गिरना (कार्य) फल और प्रत्यञ्चा से शर के सम्पर्करूप कारण दोनों का काल समान दिखाया गया है। इस तरह अनुभूति के द्वारा फलज्ञान और कारणज्ञान की समकालीनता सिद्ध होगी और अनुमान के द्वारा भिन्नकालीनता। इस तरह यह अनुमान "वह्निरनुष्णः द्रव्यत्वात्" के प्रत्यक्षबाधित अनुमान की तरह होगा और यहां का हेतु बाधित नामक हेत्वाभास से दुष्ट होगा। (फल) विशिष्ट तीर में लक्षणा माननेवाले शैत्यादि प्रतीति को तीरज्ञान के फल के रूप में नहीं मानते हैं और उन्हें शैत्यादि की प्रतीति तीरज्ञान के फल के रूप में भासित भी नहीं होती है, इसी स्थिति में स्वरूपासिद्धि नामक हेत्वाभास होगा। वृत्ति में जो यह लिखा हुआ है "गङ्गायास्तटे घोषः इत्यतोऽधिकस्यार्थस्य प्रतीतिश्च प्रयोजनम" अर्थात् गङ्गा के तट पर घोष है इससे अधिक पावनत्वादि विशिष्ट तीर अर्थ की प्रतीति (उस लक्षणा का) प्रयोजन Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः १२३ प्रतीत्यन्तरार्थ इत्यर्थ इति । अत्र ब्रूमः - 'शक्यसम्बन्धग्रहे शक्तिजन्यपदार्थस्मरणे वा यः प्रकारतया भासते स एव लक्षणाजन्यबोधे प्रकारतया भासत' इति नियमः, अन्यथाऽतिप्रङ्गात् तादृशश्च प्रकारस्तीरत्वं गङ्गात्वं वा तल्लक्षणाजन्यबोधे प्रकारोऽस्तु शैत्यपावनत्वं तु न तथेति न प्रकार इति तात्पर्यम् । अक्षरार्थस्तु ज्ञानस्य शक्यसम्बन्धज्ञानरूपस्य शक्तिजन्यपदार्थस्मरणरूपस्य वा विषयोऽन्यस्तीरत्वगङ्गात्वरूपः, फलं लक्षणाजन्यं ज्ञानमन्यदन्यप्रकारकं त्वयोदाहृतं हि यत इति । ननु 'कारणीभूते यः प्रकारतया भासते व कार्येऽपीति' नियमो ज्ञाततायां व्यभिचारी तस्या निष्प्रकारकत्वात्, कारणीभूते यः प्रकारतया भासते स कार्थीभूते तदन्यो नेति नियमोऽपि तथा', कारणीभूतचाक्षुषज्ञान-प्रकारनीलत्वान्यस्य हेयत्वादेः कार्यभूतज्ञाने प्रकारत्वादित्यत आह- प्रत्यक्षादेरिति । तथा च प्रत्यक्षादावयं व्यभिचारस्त्वयोपन्यस्तो न च । है" इसका तात्पर्य यह लेना चाहिए कि “गङ्गायां घोषः" में गङ्गायास्तटे घोषः यहाँ की अपेक्षा भिन्न प्रकारक प्रतिपत्ति के लिए अवाचक शब्द का प्रयोग होता है । इसका तात्पर्य यह कथमपि नहीं समझना चाहिए कि गङ्गायास्तटे घोषः यहाँ नहीं प्रतीत होनेवाले शैत्यादि अर्थ की प्रतीति 'गङ्गायां घोष:' में लक्ष्यप्रतीति के बाद होती है । यदि अनुमान के पूर्वोक्त स्वरूप नहीं हो सकते हैं तो उसका स्वरूप क्या हो सकता है इस प्रश्न के सम्बन्ध में हमारा कथन इस प्रकार रहेगा : शक्य (अर्थ) के सम्बन्ध-ज्ञान में या शक्तिजन्य पदार्थ के स्मरण में जो प्रकार (विशेषण) बनकर भासित होता है वही लक्षणाजन्य बोध में प्रकार बनकर भासित होता है, यह नियम है, यदि ऐसा न मानें तो अतिव्याप्ति दोष हो जायगा, उस तरह का प्रकार (विशेषण) तीरत्व को मानें या गङ्गात्व को मानें, वही तीरत्व या गङ्गात्वलक्षणाजन्य बोध में प्रकार हो सकता है शैत्य और पावनत्व, तो वैसा नहीं है अर्थात् शक्यसम्बन्धग्रह में या शक्तिजन्य पदार्थस्मरण में शैत्य और पावनत्व प्रकारतया भासित नहीं होता इसलिए वह लक्षणाजन्य बोध में भी भासित नहीं होगा । 'अतः उसकी प्रतीति के लिए व्यञ्जनाव्यापार की आवश्यकता है । "ज्ञानस्य विषयो ह्यन्यः फलमन्यदुदाहृतम् " इस कारिका का अक्षरार्थं इस प्रकार मानना चाहिए - ज्ञानस्य अर्थात् शक्यसम्बन्ध ज्ञान का या शक्तिजन्यपदार्थस्मरणरूप ज्ञान का विषय अन्य है अर्थात् तीरत्व या गङ्गात्वरूप विषय अन्य है और फल याने लक्षणाजन्यज्ञान कुछ और है अर्थात् लक्षणाजन्यज्ञान अन्यप्रकारक है " त्वया उदाहृतम्” तूने यह दिखाया है इसे प्रकट करने के लिए 'हि' शब्द का प्रयोग किया है। कारण में जो विशेषण बनकर भासित हो, वही कार्य में विशेषण बनकर भासित हो, यह नियम ज्ञातता में व्यभिचारी है, खरा नहीं उतरता है क्योंकि ज्ञातता का कारण प्रत्यक्षज्ञान में घटत्वप्रकार बनकर भासित होता है और ज्ञातता में विशेषणरूप में कुछ भी भाषित नहीं होता क्योंकि ज्ञातता निष्प्रकारक मानी जाती है । इस तरह कारणीभूत वस्तु में जो प्रकारतया भासित हो, कार्यभूत तत्व में उसके अतिरिक्त या उससे अन्य कोई पदार्थं विशेषण कर भासित नहीं हो सकता, यह नियम भी व्यभिचारी है, क्योंकि प्रत्यक्ष स्थल में ज्ञातता के कारणीभूत चाक्षुषज्ञान में प्रकार (विशेषण) बनकर भासित होनेवाले नीलत्व से भिन्न हेयत्व और उपादेयत्व आदि कार्यभूत ज्ञान में प्रकार बनकर भासित होता है इन्हीं तात्पयों को ध्यान में रखकर वृत्ति में लिखते हैं- 'प्रत्यक्षादे : नीलत्वादि:' इत्यादि । इस तरह इसका तात्पर्य हुआ कि प्रत्यक्षादि में जो व्यभिचार ( विषय और फल के एक साथ होने का व्यभिचार ) आपने १. टि०...... व्यभिचारि । Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ काव्यप्रकाश [सू० ३०] विशिष्टे लक्षणा नैवं - तत्साधारण्येन नियमो ममाभिधित्सितोऽपि तु यद्धर्मावच्छिन्नतयोपस्थितस्यैव यत्र शक्यसम्बन्धग्रहस्तत्र तद्धर्मप्रकारक एव शाब्दबोधः; यच्छब्दाभिधाजन्योपस्थितौ यत्र यः प्रकारतया भासते तच्छन्दवृत्तिलक्षणाजन्योपस्थितावपि तत्र स एवेति नियमो वा; अतो न व्यभिचार इत्यर्थः । न चाद्यनियमस्य काकेभ्य इत्यत्र व्यभिचारः, तत्रापि दध्युपघातकत्वेनोपस्थितेषु वक्त्रेकज्ञानविषयत्वरूपशक्यसम्बन्धाभ्युपगमात्, एवं कुन्ताः प्रविशन्तीत्यत्रापि कुन्तवत्त्वेनोपस्थिते कुन्तसंयोगग्रहः, कुन्तवत्त्वं च कुन्तनिरूपिताधिकरणताख्यः स्वरूपसम्बन्धविशेषो न तु संयोगः पदावच्छेदेन तत्संयोगेऽपि कुन्तवत्त्वाप्रत्ययादिति भावः । । दिखाया है, वह नियम साधारण्येन नहीं बन सकता । मेरे विचार में वह व्यभिचार सर्वत्र लागू नहीं होता। वह नियम साधारण नियम है, यह मैं नहीं कहना चाहता किन्तु मैं यह कहना चाहता हूँ कि यद्धर्मावच्छिन्नतया उपस्थित का जहाँ शक्यसम्बन्धग्रह होता है, वहाँ तद्धर्मप्रकारक ही शाब्दबोध होगा। जिस शब्द की अभिधाजन्य उपस्थिति में जहाँ जो प्रकार बनकर भासित होता है, उस शब्द में रहनेवाली लक्षणा से उत्पन्न उपस्थिति में भी वहां वही नियम होगा। इसीलिए किसी प्रकार का व्यभिचार नहीं होगा। "काकेभ्यो दधि रक्ष्यताम्" यहाँ प्रथम नियम का व्यभिचार नहीं मानना चाहिए । यद्यपि वहाँ काकत्वधर्मावच्छिन्नतया उपस्थित का ही शक्यसम्बन्धग्रह हुआ है और शाब्दबोध में काकत्व-धर्मप्रकारक का ही शाब्दबोध नहीं होता अपितु बिडालादि अन्य सकल दपुपघातक का भी प्रकारतया शाब्दबोध में प्रवेश होता है, इस तरह नियम में व्यभिचार की प्रतीति होती है तथापि वहाँ दध्युपघातकत्वेन उपस्थित सकल बिडालादि जन्तुओं में शक्यसम्बन्ध मान लिया गया है क्योंकि वक्ता के एक ज्ञान के वे सभी विषय हैं इसलिए वक्ता का एकज्ञानविषयत्वरूप शक्यसम्बन्ध उन सभी में माना जा सकता है। इसी तरह 'कुन्ताः प्रविशन्ति' यहाँ भी कुन्तवत्त्वेन उपस्थित (पुरुष) में कुन्तसयोगग्रह माना जायगा। 'कुन्तवत्त्व का तात्पर्य कुन्तनिरूपित अधिकरणता' है और कुन्तनिरूपित अधिकरणता नामक यही स्वरूप सम्बन्ध विशेष है, कुन्तसंयोग नहीं है क्योंकि कुन्तपदावच्छेदेन तत्संयोग होने पर भी अभीष्ट कुन्तवत्व की प्रतीति नहीं होगी। अर्थात् संयोगरूप सम्बन्ध लेने पर "कुन्तसंयुक्ताः पुरुषाः प्रविशन्ति" इस प्रकार का बोध होने पर 'कुन्तवन्तः प्रविशन्ति' यह अभीष्ट बोध नहीं होगा। किसी ने जो यह कहा कि "जितने के बिना अन्वय की अनुपपत्ति हो उतने की प्रतीति ही लक्षणा से द्वारा होती है उतना ही लक्षणाजन्य-ज्ञान का विषय होता है। शैत्यादि के बिना अन्वय में किसी प्रकार की अनपपत्ति नहीं आती; इसलिए शैत्यादि को लक्षणाबोध्य नहीं माना जा सकता, यह मत ठीक नहीं है, क्योंकि निबिड (ठोस) द्रव्यमात्र के बिना अन्वयोपपत्ति होगी ही नहीं, घोष तो ठोस पृथिव्यादि आधार पर बस सकता है। इसलिए 'गङ्गायां घोषः' इत्यादि स्थल में ठोस द्रव्यमात्र में लक्षणा के सम्भव होने पर तत्संसर्ग में ठोसपन के निश्चय के अभाव में लक्षणा नहीं होगी। इस तरह उपसंहार करते हुए लिखते हैं कि "विशिष्टे लक्षणा नंवम्"। 'विशिष्टे का यहां अर्थ है शैत्य-पावनात्वादि विशिष्ट । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः १२५ यत्तु यावता विनाऽन्वयानुपपत्तिस्तावत एव लक्षणाजन्यज्ञानविषयत्वं न च शैत्यादिना विना काचिदनुपपत्तिः इति न लक्षणाजन्यज्ञानविषयत्वं शैत्यादेरिति, तन्न, एवं सति निबिडद्रव्यमानं विनाऽन्वयोपपत्तेरभावात् तन्मात्रविषयतापत्तौ तीरत्वतत्संसर्गेऽपि तद्विषयतानापत्तेः । उपसंहरति--विशिष्ट इति, शैत्यपावनत्वादिविशिष्ट इत्यर्थः । वयं तु ययुक्त-नियमद्वयबलान्न शैत्यादिविशिष्टे लक्षणा तदा तीरत्वादिविशिष्टेऽपि सा माऽस्तु, आकाशपदाच्छब्दाश्रयत्वादेरिव तीरत्वादेरपि वृत्ति विनैवोक्तनियमद्वयबलादेव भानोपपत्तेरित्यत आह-विशिष्ट इति । तीरत्वादिविशिष्ट इत्यर्थः । एवं नियमद्वयस्वीकार इत्यर्थः, तथा चेष्टापत्तिरेवात्रति भावः । अन्यच्च-कनकलतायां गिरिद्वयं जात'मित्यादौ गौरत्वकठिनत्वादेर्व्यङ्गयस्य लक्ष्यतावच्छेदकत्वे वैपरीत्यबोधापत्तिः। किञ्च लक्षणामूलव्यङ्गयस्य लक्ष्यतावच्छेदकत्वेऽभिधामूलव्यङ्गयस्यापि शक्यतावच्छेदकत्वापत्तिः युक्तिसाम्यादिति युक्तमुत्पश्यामः। स्यादेतत्, वृत्तिव्यतिरेकेण बोधापत्तिः, वृत्तिश्च तीररूपलक्ष्यतीरत्वरूपलक्ष्यतावच्छेदकयोः मेरे विचार में तो "विशिष्टे लक्षणा नैवम्" इस ग्रन्थ का तात्पर्य इस प्रकार है। ग्रन्थकार बताना चाहते हैं कि यदि उक्त दोनों नियम के बल से शैत्यादि-विशिष्ट में लक्षणा नहीं हो सकती तो तीरत्वादिविशिष्ट में भी लक्षणा नहीं करेंगे जैसे आकाशपद से वृत्ति के बिना भी जैसे शब्दाश्रयत्वादि का भान शाब्दबोध में होता है उसी तरह तीरत्वादि की भी वृत्ति के बिना पूर्वोक्त नियमद्वय के बल से ही भान हो जायगा, इसी आशय से ग्रन्थकार ने लिखा है-"विशिष्टे लक्षणा नैवम् ।" 'विशिष्टे' का तात्पर्य है:-तीरत्वादि विशिष्ट में । 'एवम्' का अर्थ है-दोनों नियमों के स्वीकार करने पर । इसी तरह पूरे सूत्र का अर्थ हुआ कि 'नियमद्वय स्वीकार करने पर शैत्यादि विशिष्टतीर में जैसे लक्षणा नहीं हो सकती; उस तरह तीरत्वादि-विशिष्ट में भी यदि लक्षणा नहीं होगी, तो न हो, लक्षणा के बिना ही पूर्वोक्त दोनों नियमों के बल पर आकाश पद से बिना वृत्ति के जैसे शब्दाश्रयत्व की उपस्थिति हो जाती है उसी प्रकार वृत्ति के बिना ही तीरत्वादि की उपस्थिति हो जायगी।' इस तरह यहाँ तीरत्वादि की उपस्थिति के लिए लक्षणा की कोई आवश्यकता ही नहीं है। इसी तरह यहाँ लक्षणा न होना, अनिष्ट नहीं किन्तु इष्ट ही है। एक बात और है, कि ऐसे स्थलों में लक्षणा मानने पर किसी गौरवर्णा तरुणी के स्तनों को लक्ष्य करके जो कहा गया है- 'कनकलतायां गिरिद्वयं जातम्" अर्थात सुवर्ण को लता में दो पर्वत उत्पन्न हो गए हैं। आज तक पर्वतों में लताएं उत्पन्न होती थीं ; परन्तु आज यह विपरीत देखा जा रहा है कि सोने की लता में दो पर्वत उत्पन्न हो गए हैं। यहाँ 'कनकलता' और 'गिरिद्वय' पद में यदि लक्षणा माने तथा उनका अर्थ शरीर और स्तनद्वय करें तो प्रयोजनवती लक्षणा होने के कारण अतिशय गौरवर्णत्व और कठिनत्वादि को व्यङ्ग्य मानना पड़ेगा और उस व्यङ्ग्य को लक्ष्यतावच्छेद मानने से अभीष्ट बोध के विपरीत बोध होने लगेगा । तात्पर्य यह है कि यहां "अधुना तद्विपरीतम्" के द्वारा प्रसिद्ध बोध के विपरीत बोध अभीष्ट है ; इस प्रकार के बोध को लक्ष्य करके ही मम्मट ने 'मङ्गलश्लोक में कवि सृष्टि को' नियतिकृत-नियम-रहित बताया है। यदि लक्षणा के द्वारा कनकलता का अर्थ गौरवर्ण शरीर करें और गिरिद्वयं का अर्थ स्तन मानें तो ब्रह्मसृष्टिविलक्षणता की प्रतीति नहीं होगी। इस तरह कवि के विवक्षित अर्थ की प्रतीति यहाँ लक्षणा मानने पर नहीं होगी। दूसरी बात यह कि यदि लक्षणामा प्रकृत्यान्वितस्वार्थबोधकत्वम् । पर अभिधामूलक व्यङ्ग्य को शक्यताट) Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ काव्यप्रकाश शक्यसम्बन्धरूपानकेति लक्षणान्तरमास्थेयम्, आस्थेयं च शक्तिभ्यामाख्यातरूपैकपदोपस्थाप्ययो:-कृतिवत्तमानत्वयोरिव लक्षणाभ्यां तीरतीरत्वयोर्गङ्गात्वतीरत्वयोर्वा विशेषणविशेष्यभावापन्नतयैकशाब्दबोधविषयत्वम्, न चैवं शक्त्या गङ्गात्वस्य लक्षणया तीरस्योपस्थितौ तयोविशिष्टबोधोऽस्तु किं लक्षणान्तरेणेति वाच्यम्, स्वातन्त्र्येण गङ्गात्वस्य वा घोषाधिकरणतानुपपादकत्वान्न घोषाधिकरणस्यानुपपत्तिः प्रयोजिका, न वा प्रयोजनान्तरप्रतिपत्ति पि 'येन रूपेणोपस्थिते शक्यसम्बन्धग्रह' इत्यादि नियमस्यापेक्षेति न क्वापि लक्षणायां तेषामपेक्षा, तथा च लक्ष्यतीरलक्ष्यतावच्छेदकशैत्ययोरपि लक्षणाभ्यामेकत्र व बोधोऽस्तु न चैवं कोऽपि दोष इति । अत्र ब्रमः-लक्ष्यतावच्छेदकस्य प्रकारान्तरेणोपस्थितिसम्भवेन तत्र लक्षणा न कल्प्यते, अनन्यलभ्यस्येव वत्तिप्रतिपाद्यत्वात् वत्यूपस्थापितस्यव शाब्दबोधविषयत्वमिति नियमश्च संसर्गे आकाशपदजन्यबोध-विषयशब्दाश्रयत्वे च व्यभिचारी, अन्यथा कुन्ताः प्रविशन्तीत्यत्र अस्तु; वृत्ति के बिना ही तीरत्वादि का शाब्दबोध में भान माने तो हमें यहाँ अनेकवृत्तियो माननी चाहिए क्योंकि तीररूप में लक्ष्यार्थ के साथ शक्यार्थ का जो सम्बन्ध है, तीरत्वरूप लक्ष्यतावच्छेदक का शक्यार्थ के साथ का सम्बन्ध उससे अलग है। इसलिए लक्षणावादी को दोनों की प्रतीति के लिए अलग-अलग लक्षणा माननी होगी और लक्षणाद्वय से उपस्थित तीर और तीरत्व में या गङगा और तीरत्व में विशेषण और विशेष्यभाव से युक्त एक .. शाब्दबोध भी उसी तरह मानना होगा जिस तरह कि 'पचति, गच्छति' इत्यादि आख्यातपदों में शक्तिद्वय के द्वारा एकपदोपस्थापित कृति (धात्वर्थ) और वर्तमानत्व (प्रत्ययार्थ) में विशेषण-विशेष्यभाव के कारण एक शाब्दबोध मानते हैं। इस तरह शक्ति से गड़गात्व की और लक्षणा से तीर की उपस्थिति मानने और उनमें विशेषण-विशेष्यभावसम्बन्ध स्वीकार करने से विशिष्ट बोध हो सकता है, लक्षणान्तर अर्थात् पूर्वस्वीकृत लक्षणा से भिन्न लक्षणा या अलग-अलग दो लक्षणा मानने की क्या आवश्यकता है ऐसा नहीं कहना चाहिए स्वातन्त्र्येण गङ्गात्व की उपस्थिति यहाँ अभीष्ट है और वह लक्षणा से ही सिद्ध हो सकती है। तीरत्व या गङ्गात्व ही घोषाधिकरणता का अनुपपादक है इसलिए घोष के अधिकरणत्व की अनुपपत्ति लक्षणा में साधक नहीं हो सकती और यहाँ प्रयोजनान्तर (अन्य प्रयोजनों) की प्रतिपत्ति भी नहीं होगी और न "येन रूपेणोपस्थिते शक्यसम्बन्धग्रह" इत्यादि नियम की अपेक्षा ही है, कहीं भी लक्षणा में उनकी अपेक्षा नहीं होती है इस तरह लक्ष्य तीर और लक्ष्यतावच्छेदक शैत्य दोनों की लक्षणा से सम्मिलित (सह) बोध हो जायगा, ऐसा मानने पर कोई दोष नहीं होगा। इस सम्बन्ध में हम (कुछ) कहना चाहते हैं। पहली बात यह है कि लक्ष्यतावच्छेदक की यदि उपस्थिति प्रकारान्तर से सम्भव हो, तो उसकी उपस्थिति के लिए लक्षणा की कल्पना नहीं करते हैं, क्योंकि सिद्धान्त यह है कि जो अन्यलभ्य न हो उसी की उपस्थिति के लिए वृत्ति की कल्पना करनी चाहिए। "अनन्यलभ्यो हि शब्दार्थः" यह सिद्धान्त है। दूसरी बात यह है कि "वृत्त्योपस्थितस्यैव शाब्दबोधे भानम्" । शाब्दबोध में भान उसी अर्थ का होता है जिसकी उपस्थिति उत्ति के कर,डोही बससह नियम संसर्ग में व्यभिचरित है । क्योंकि वाक्यजन्य शाब्दबोध में है शैत्य-पावनात्वादि विशिष्ट । 'दोता है उनकी वृत्त्या उपस्थिति नहीं होती है। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः । १२७ कुन्तकुन्तत्वयोरपि शाब्दबोधविषयतार्थ लक्षणायां लक्षणात्रयापत्तेः । किञ्च लक्ष्यतावच्छेदके लक्षणास्वीकारेऽपि तीरांशे तीरत्वस्य गङ्गात्वस्य वा लक्ष्यतावच्छेदकत्वाभ्युपगमे नोक्तनियमद्वयापायः, तीरांशे तीरत्वगङ्गात्वयोरन्यतरस्य प्रकारत्वात् तीरांशे तीरत्वगङ्गात्वप्रकारकस्य तीरत्वगङ्गात्वांशे निष्प्रकारकस्य शाब्दबोधस्योदयात्, शैत्यादेस्तीरांशे लक्ष्यतावच्छेदकत्वाभ्युपगमे तु प्रोक्तनियमद्वयापाय एव, तीरत्वेनोपस्थिते गङ्गासंयोगग्रहेण शैत्यादेस्तदन्यत्वाद् गङ्गाशब्दशक्तिजन्यस्मृति प्रकारीभूतगङ्गात्वान्यत्वाच्चेति नायमपि पन्थाः । ननु विशिष्टलक्षणापक्षे लक्षणयैव वैशिष्ट्यांशस्यापि भानं विशेष्यमात्र लक्षणायां तु विशकलिततदुभयभानं स्यादित्यत आह-विशेषा इति, लक्षिते तीरादौ - - आकाश पद से शब्दाश्रयत्व का भी बोध होता है; किन्तु वहाँ शब्दाश्रयत्व की उपस्थिति वृत्त्या नहीं होती है। यदि यह माने कि जिन अर्थों का. शाब्दबोध में भान होता है; उनकी उपस्थिति किसी न किसी वृत्ति से होनी ही चाहिए तब तो "कुन्ताः प्रविशन्ति" में कुन्त और कुन्तत्व को भी शाब्दबोध का विषय बनाने के लिए उनमें भी लक्षणा माननी होगी और इस तरह वहाँ तीन-तीन लक्षणा स्वीकार करना अनिवार्य होगा। तथा लक्ष्यतावच्छेदक में लक्षणा स्वीकार करने पर भी तीर अंश में तीरत्व या गङ्गात्व को लक्ष्यतावच्छेदक मानने पर उक्त नियमद्वय का भङ्ग नहीं होगा। तीर अंश में तीरत्व और गङ्गात्व दोनों में से कोई एक प्रकार है, इसलिए तीर अंश में तीरत्व-गङ्गात्वप्रकारक और तीरत्वगङ्गात्व अंश में कोई प्रकार नहीं है अतः निष्प्रकारक शाब्दबोध होगा। शैत्यादि को तीरांश में यदि लक्ष्यतावच्छेदक मानें तो पूर्वोक्त नियमद्वय का भङ्ग होगा ही; क्योंकि तीरत्वेन जिस (तीर) की उपस्थिति हुई है; उसमें गङ्गा के संयोग का भान होता है, शैत्यादि तो उससे अन्य है और उस गङ्गात्व से भी अन्य है जो गङ्गा शब्द की शक्ति से जन्य स्मृति में प्रकारी (विशेषणी) भूत है इसलिए यह भी (निर्दुष्ट) मार्ग नहीं हो सकता । (इसलिए विशिष्ट में लक्षणा नहीं मानी जा सकती।) विशिष्टलक्षणावाद में (विशिष्ट में लक्षणा मानने का जो पक्ष है उसमें) लक्षणा से ही वैशिष्ट्य अंश का भी भान हो जायगा, विशेष्यमात्र (तीर मात्र) में लक्षणा मानने पर तो अलग-अलग उन दोनों का भान होगा; इसलिए कहते हैं-"विशेषाः स्युस्तु लक्षिते" । लक्षित तीरादि में विशेष अर्थात तीरत्वादि, विशेषणरूप में प्रतीति के विषय होते हैं। सत्र में "प्रकारतया प्रतीतिविषयाः" इसका शेष मानना चाहिए। इस तरह यह तात्पर्य निकला कि जैसे आकाशादि पद से शब्दाश्रयत्व आदि का प्रकारतया भान होता है; उसी तरह लक्षित तीरादि में तीरत्व आदि का भी प्रकारतया भान हो जायगा किन्तु शीतत्वादि का भान नहीं होगा क्योंकि उसकी उपस्थिति वृत्ति (अभिधादि वत्ति में से किसी वृत्ति) के द्वारा नहीं है । इसलिए शीतत्वादि उपस्थिति को वृत्तिजन्योपस्थिति बनाने के लिए व्यञ्जना माननी चाहिए। वृत्त्या अनुपस्थित शैत्यादि का शाब्दबोध में भान नहीं मान सकते; क्योंकि पूर्वोक्त दो नियम शाब्दबोध के नियामक हैं इस तरह किसी विद्वान् ने उक्त सूत्र की व्याख्या की है।* किसी को व्याख्या कुछ और है-वह कहता हैं कि ग्रन्थकार ने सोचा कि यदि शैत्यादि का भान व्यञ्जना से मानेंगे, तो उस शेत्यादि का भान तीरनिष्ठतया अर्थात् तीर में कैसे होगा? इसी का उत्तर देने के लिए १. वृत्योपस्थितस्य॑व शाब्दबोधे भानम् (२) प्रत्ययानां प्रकृत्यर्यान्वितस्वार्थबोधकत्वम् । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ ..काव्यप्रकाश व्याख्यातम् । [सू० ३१] विशेषाः स्युस्तु लक्षिते ॥१८॥ विशेषास्तीरत्वादयः स्युः प्रकारतया प्रतीतिविषया इति शेषः । तथा च यथाऽकाशादिपदाच्छब्दाश्रयत्वादेः प्रकारतया भानं तथा तीरत्वादेरपि प्रकारतया भानं नियामकत्वान्नियमद्वयस्येति भावः । यद्वा शैत्यादेर्व्यञ्जनया भानाभ्युपगमे तीरनिष्ठतया कथं भानमित्यत आह-विशेषा इति । विशेषाः शैत्यपावनत्वादयः स्युरित्यनन्तरं व्यञ्जनया प्रतीति विषया इति शेषः, तथा च व्यञ्जनया विशिष्टस्यैव बोधो न तु विशेषणमात्रस्येति भाव इति मम प्रतिभाति । . ननु व्यञ्जनयाऽपि प्रतीतिर्लक्ष्यप्रतीतिकाले ? उत्तरकाले वा ?। नाद्यः, पदार्थज्ञानं विना शब्दमात्रस्याव्यञ्जकत्वात् सहकारिविरहात्, नान्त्यः, शब्दबुद्धिकर्मणां विरम्यव्यापारायोगादित्यत आह-विशेषा इति । लक्षिते लक्षणया प्रत्यायिते, तथा च लक्ष्योपस्थित्यनन्तरं व्यञ्जनया वाक्यैकवाक्यतावत् प्रयोजन मादायान्वयबोधसम्भवाद् व्यङ्गयरूपप्रतिपाद्यापर्यवसानादाकांक्षासत्त्वाद् । उन्होंने यह कारिका लिखी है "विशेषाः इति"। उनके विचार में विशेषाः का अर्थ शैत्यपद और पावनत्वादि है। "स्युः" के बाद वे "व्यञ्जनया प्रतीतिविषयाः" इस पदसमूह का 'शेष' या अध्याहार मानते हैं । इस तरह इस मत में कारिका का अर्थ हुआ कि व्यञ्जना के द्वारा विशिष्ट का ही बोध होता है। केवल विशेषण का (शैत्य-पावनत्व) का ही नहीं। इस तरह टीकाकार ने 'इति मम प्रतिभाति' लिखकर यह दिखाया है कि मुझे ऐसा लगता है कि उस विद्वान् का तात्पर्य ऐसा रहा होगा ! , अस्तु, यह माना कि शीतत्व-पावत्वादिविशिष्ट तीर की प्रतीति व्यञ्जना से होती है; परन्तु यहाँ प्रश्न यह है कि यह प्रतीति लक्ष्यार्थ की प्रतीतिकाल में होती है अथवा लक्ष्यार्थ की प्रतीति के बाद में?' . प्रथम पक्ष नहीं माना जा सकता; क्योंकि जिसके अर्थ का ज्ञान नहीं है। उस शब्द का व्यञ्जक नहीं माना गया है । अर्थात् अर्थविशिष्ट शब्द को ही व्यञ्जक माना गया है । इस तरह लक्ष्यार्थ के प्रतीति-काल में जब कि अर्थ का स्फुट ज्ञान नहीं हुआ है; गङ्गा आदि शब्द को व्यञ्जक नहीं माना जा सकता। अतः लक्ष्यार्थ-प्रतीतिकाल में व्यङ्ग्य-प्रतीति नहीं हो सकती। क्योंकि शब्द को व्यञ्जक बनाने में जिस अर्थ का सहकार आवश्यक होता है; वह सहकारी वहां नहीं है। दूसरा पक्ष भी युक्तियुक्त नहीं है; क्योंकि पूर्वोक्तं मतानुसार व्यञ्जना जब तीर अर्थ को बताकर विरत हो चूकी तो वह शैत्यादि को बताने में समर्थ नहीं हो सकेगी; क्योंकि 'शब्दबुद्धिकर्मणां विरम्य व्यापाराभावः' इस सिद्धान्त के अनुसार बुद्धि और कर्म के व्यापारों की तरह शब्द के व्यापार भी विरत होने पर कार्यान्तर करने में समर्थ नहीं होते । इसीलिए यहाँ लिखा गया है 'विशेषाः' । इस मत में कारिका का अर्थ इस प्रकार है- लक्षित अर्थात् लक्षणा के द्वारा प्रत्यायित (प्रतिपादित) अर्थ में विशेष हो सकते हैं । अर्थात् पहले लक्षणा से केवल तट की उपस्थिति होगी। बाद में लक्षणामूलक व्यञ्जना से उस तटादिरूप लक्ष्य अर्थ में शैत्यादिप्रयोजनों की प्रतीति हो सकती है। पश्य मृगो धावति" में जैसे वाक्यकवाक्यता होती है उसी तरह "गड़गायां घोषः" में लक्ष्यार्थ (तीर) की उपस्थिति होने के बाद व्यञ्जना के द्वारा प्रयोजन की उपस्थिति होगी और उन दोनों में अन्वय हो सकेगा। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः १२६ तटादौ ये विशेषाः पावनत्वादयस्ते चाभिधा-तात्पर्यलक्षणाभ्यो व्यापारान्तरेण गम्याः । तच्च व्यञ्जनध्वननद्योतनादिशब्दवाच्यमवश्यमेषितव्यम् ।। वृत्त्यन्तरेण बोधे विरामदोषाभावेऽपि न काऽप्यनुपपत्तिरिति भाव इति परमानन्दचक्रवर्तिनः । लक्षित इति पदं व्याचष्टे-तटादाविति। विशेषा इत्यस्यार्थमाह-पावनत्वादय इति । मदीयाद्यव्याख्यानपक्षे पावनत्वमादौ येषां ते पावनत्वादयः तीरत्वादय इत्यर्थः । स्युरित्यनन्तरं पूरणीयं शेषमाह--ते चेति, इदं चान्त्यपक्षद्वये, आद्यपक्षे तु प्रघट्टकार्थोपसंहारोऽयमिति द्रष्टव्यम् । तात्पर्येति । तापर्यस्य संसर्गमात्रबोधकतया भट्ट र्वृत्तित्वमङ्गीकृतं, न तु तस्य पदार्थबोधार्थमपि तैर्वृत्तित्वमभ्युपेयम्, वृत्त्यन्तरोच्छेदापत्तेरिति भावः । वयं तु-तात्पर्यपदेनात्राऽऽकाङ्क्षायोग्यताऽऽसत्त्येतत् त्रितयमुच्यते, तात्पर्यार्थोऽपि केषुचिदित्यत्र द्वितीयव्याख्याने तेषामेव तात्पर्यपदेनाभिधानात् । तथा चाकाङ्क्षादीनामन्वयबोधजनकत्वादिरूपपर्यवसितलक्षणानां धमिग्राहकमानेनान्वयानुभवमात्रजनकत्वमेव, न तु पदार्थस्मृतिजनकत्वमपि । तथा इसलिए लक्ष्यार्थ-प्रतीति के उत्तरकाल में व्यङ्ग्यार्थप्रतीति मानने में कोई क्षति नहीं है। व्यङ्ग्यरूपप्रतिपाद्य अर्थ की समाप्ति नहीं होने से "प्रतीतिपर्यवसानविरह" रूप आकांक्षा वहाँ है ही। वृत्त्यन्तर के द्वारा होनेवाले बोध में विरामदोष यदि न भी मानें तो कोई दोष नहीं होगा। तात्पर्य यह है कि तीर की उपस्थिति लक्षणा से हुई है इसलिए उसकी वृत्ति लक्षणावृत्ति अलग है और शैत्यादि की उपस्थिति व्यञ्जना से हुई है, अत: उसकी वृत्ति व्यञ्जना अलग है । इसलिए विरामदोष यहाँ नहीं लग सकता ; हाँ यदि एक ही वृत्ति अभिधा या लक्षणा या व्यञ्जना से मुख्यार्थ, आरोपितार्थ, और व्यङ्ग्यत्वेन अभिमतार्थ की प्रतीति मानें तो दोष लगेगा क्योंकि एक अर्थ को बताकर क्षीणशक्तिक एक व्यापार द्वितीय अर्थ को नहीं बता सकता । यह मत 'परमानन्द चक्रवर्ती का है। वृत्तिकार कारिका में प्रयुक्त लक्षित पद की व्याख्या करते हुए लिखते हैं:-तटादौ इत्यादि । “विशेषाः" .का अर्थ कहते हैं "पावनत्वादयः" । टीकाकार नैयायिक श्रीमुनिजी लिखते हैं कि मेरी आदिम व्याख्या के अनुसार "पावनत्वादयः" का विग्रह होगा "पावनत्वम् आदी येषाम् ते पावनत्वादयः" और अर्थ होगा तीरत्वादि । क्योंकि "पावनत्वविशिष्ट तीर" इस बोध में पावनत्व प्रकारता-सम्बन्ध से तीरत्व के आदि में है। "स्युः” इसके बाद पूरणीय शेष (जोड़ने के योग्य आकांक्षित पद) बताते हुए लिखते हैं- 'ते च'। "ते च" इत्यादि पंक्ति द्वारा प्रतिपादित तात्पर्य अन्तिम दो पक्षों में लेना चाहिए । आदिम पक्ष में तो यह सूत्र सन्दर्भ में आये हुए अर्थ का उपसंहार स्वरूप है। वृत्ति में 'तात्पर्य' का उल्लेख किया गया है। तात्पर्य को मीमांसकों (भट्ट मीमांसकों) ने संसर्ग वाक्यगत सम्बन्ध मात्र बोध के लिए वृत्ति माना है। उन्होंने भी इसे पदार्थबोध के लिए वत्ति नहीं माना है। इसे यदि पदार्थबोधक वृत्ति मानें तो अभिधादि वत्ति में से किसी एक वत्ति का या समस्त वृत्तियों का उच्छेद हो जायेगा; तात्पर्यवृत्ति से ही जब मुख्यार्थ या मुख्यादि का बोध हो जाएगा तो उन वृत्तियों को मानने से क्या लाभ ? हम तो यहाँ यह समझते हैं कि तात्पर्य पद से यहाँ आकांक्षा, योग्यता और आसत्ति ये तीनों अभिप्रेत हैं। क्योंकि "तात्पर्यार्थोऽपि केषुचित्" इस कारिका की द्वितीय व्याख्या में तात्पर्य पद से उन्हीं आकांक्षादि का अभिधान हा है। इस तरह स्पष्ट है कि जिन आकांक्षा, योग्यता आदि का कार्य अन्वयबोध कराना मात्र है; उनमें धर्मी ग्राहक Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० काव्य-प्रकाशः एवं लक्षणामूलं व्यञ्जकत्वमुक्तम् । सत्यपरपदव्यतिरेकप्रयुक्तत्वादेरेतल्लक्षणे प्रवेशानुपपत्तेरिति विलोकयामः । व्यापारान्तरगम्यत्वसिद्धावपि कथं व्यञ्जनागम्यत्वसिद्धिरत आह- तच्चेति । तथा च प्रतीत्यनुपपत्त्या साधिते वस्तुनि विवादाभावानाम तस्य किमपि क्रियतां तत्र नास्माकमाग्रहः, नहि पुत्रमात्र साधिकायाः पुत्रेष्टेर्नामकरणेऽपि भार इति भावमाकलयामः, लाक्षणिकमात्रस्यैव व्यञ्जकत्वमिति शङ्कां निरस्यति एवमिति, वयं तु - स्वायत्ते शब्दप्रयोऽवाचकप्रयोगानुपपत्तिरूपाऽर्थापत्तिः प्रमाणं व्यञ्जनायामित्युक्तम् । सा च गङ्गायां घोष इत्यादी लाक्षणिक पद एव न तु भद्रात्मन इत्यादी वाचकपदेऽपि तथा च तत्रापि वृत्त्यन्तरमास्थेयम् । एवं च प्रकृतेऽपि तथैवोपपत्तौ किं व्यञ्जनयेत्यत आह - एवमिति, तथा च न स्वायत्त इत्याद्यर्थापत्तिरेव . मान (प्रमाण) से केवल अन्त्रयानुभवजनकता मानी जाएगी, वे पदार्थस्मृतिजनक भी नहीं माने जायेंगे । यदि आकांक्षादि पदार्थ स्मारक भी हो तो आकांक्षा के 'अपरपदव्यतिरेक प्रयुक्तान्वयाननुभावकत्वम्" इस लक्षण में "आपव्यतिरेकयुक्तादेः" अपरपदार्थव्यतिरेक इत्यादि का निवेश अन्वित हो जाएगा। अस्तु, पूर्वोक्त ग्रन्थों से यह तो सिद्ध हुआ कि प्रयोजनवती लक्षणा में प्रतीत होनेवाला प्रयोजन व्यापारान्तर से (लक्षणा से भिन्न व्यापार से) गम्य है किन्तु यह कैसे सिद्ध हुआ कि वह व्यञ्जनागम्य है ? इसके समाधान में लिखते हैं- 'तच्च व्यञ्जनध्वनन' इत्यादि तीरादि लक्ष्यार्थं में पावनत्यादि विशेष (प्रयोजनरूप धर्म) प्रतीत होते हैं, अर्थात् वे अभिधा, (कुमारिल भट्टादि स्वीकृत) तात्पर्या तथा लक्षणा - व्यापार से भिन्न किसी व्यापार से गम्य । उस व्यापारान्तर का नाम व्यञ्जन, ध्वनन द्योतन आदि में से कुछ भी हो; नामविशेष के लिए मेरा दुराग्रह नहीं है वह व्यापारान्तर अवश्य मानना चाहिए। यही बात बताते हुए टीकाकार लिखते हैं । 'शीतत्वपावनस्वादि की प्रतीति बिना वृत्ति के अनुपपन्न है इसलिये उसकी उपपत्ति के लिए वृत्तिरूप वस्तु के बारे में जब विवाद नहीं रहा तब उसका नाम कुछ भी रखा जाय। इसमें मेरा कोई आग्रह नहीं है कि उस वृत्ति का नाम यही रखा जाय । पुत्र मात्र साधक पुत्रेष्टि यज्ञ के नामकरण में किसी प्रकार की उलझन हमें दिखाई नहीं पड़ती। जैसे पुत्रो - सत्तिसाधक यज्ञ का अन्वर्थं नाम 'पुत्रेष्टि' है; शीतत्वपावनत्वादि व्यङ्गय या ध्वनि या द्योत्य अर्थ के साधक व्यापार का नाम व्यञ्जना या ध्वनन या द्योतन करने में किसी प्रकार का दुराग्रह नहीं करना चाहिए। जितने लाक्षणिक शब्द हैं, सभी व्यंजक हैं ? इस शङ्का का खण्डन करते हुए लिखते हैं :- "एवं लक्षणामूलं व्यञ्जकत्वमुक्तम्" इति । हमने तो स्पष्ट कहा है कि 'व्यञ्जना की सत्ता में अर्थापत्ति प्रमाण है । शब्दप्रयोग को स्वायत्त माना गया है । अर्थात् शब्दप्रयोग वक्ता के अधीन है। वक्ता शब्द का प्रयोग इसलिए करता है कि श्रोता को भी उसके श्रोता ने शीतत्व - पावनत्वातिशय अर्थ को भी भाव या तात्पर्य का ज्ञान जाय। "गङ्गायां घोषः” इस प्रयोग से जाना है और उसे उस अर्थ का भी शाब्दबोध हुआ है । शाब्दबोध में वही अर्थ प्रविष्ट होता है जिसकी उपस्थिति किसी न किसी वृत्ति के द्वारा होती है। इस तरह "येन विना यदनिष्पन्नं तत्ते नाक्षिप्यते" अर्थात् जिसके बिना जो नहीं हो सकता उससे उसका आक्षेप होता है; जैसे यदि यह कहें कि 'पीनोऽयं देवदत्तः दिवा न भुङ्क्ते" अर्थात् देवदत्त मोटा है पर दिन में नहीं खाता तो भोजन के बिना मोटेपन की अनुपपत्ति होने से यहां रात्रिभोजन का आक्षेप होता है । इसी तरह शीतत्व-पावनत्व की प्रतीति हो रही है और उसका वाचक वहां कोई शब्द है ही नहीं; इससे सिद्ध है कि वह प्रतीति अभिघादि वृत्ति से अतिरिक्त किसी वृत्ति की कृपा से हो रही है वह वृत्ति व्यञ्जना है। इस तरह Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रितीय उल्लासः अभिधामूलं त्वाह[सू० ३२] अनेकार्थस्य शब्दस्य वाचकत्वे नियन्त्रिते। संयोगाद्यैरवाच्यार्थधीकृव्यापृतिरञ्जनम् ॥ १८ ॥ तत्र मानमपि तु वाच्यलक्ष्यप्रतीतपदार्थानुपपत्तिरूपाऽर्थापत्तिरेव सर्वत्र' व्यञ्जनायां मानम् अत एव [अ] वाच्यार्थधीकृदित्याहेति भाव इति व्याचक्ष्महे । अनेकार्थस्यानेकत्र गृहीतशक्तिकस्य संयोगाद्यैर्वाचकत्वे नियन्त्रित इत्यन्वयः । वाचकत्वं वाचकधर्मोऽभिधैव, अवाच्येति, अवाच्यस्तदानीमभिधानुपस्थाप्यो योऽ र्थस्तस्य धीः स्मरणं तस्य जनिकेत्यर्थः । व्यापृतिर्व्यापारः, अञ्जनं व्यञ्जनेत्यर्थः । ननु किमत्राभिधाया नियन्त्रणं? न तावदग्रहणं, तद्ग्रहणस्य कोशादिना जातत्वात्, नापि तद्ग्रहणसंस्कारानुत्पादनं, तद्ग्रहाव्यवहितोत्तरक्षणे प्रकरणादेरसत्त्वेन तदानीं संस्कारोत्पत्ती बाधकाभावात् । न च द्वितीयार्थविषयकशब्दस्मृतेस्तदर्थविषयकस्मृतेर्वा शक्त्या अनुत्पादन, श्लेषेऽपि द्वितीयार्थव्यञ्जनावृत्ति की सत्ता में "अवाचकप्रयोगानुपपत्तिरूपा" अर्थापत्ति प्रमाण हुई। वह “गङ्गाया गोषः" इत्यादि लाक्षणिक पद में ही मानी जा सकती है, "भद्रात्मनः" इत्यादि वाचक पद में भी नही मानी जा सकती; क्योंकि वहां जिन अर्थों की प्रतीति हो रही है। उनके वाचक शब्द वहां हैं; तब वहां द्वितीय अर्थ और उपमालङ्कार की प्रतीति के लिए कोई अन्यवृत्ति माननी होगी। जब ऐसा है; तब यहां भी उसी वृत्ति से अर्थ प्रतीति हो जाएगी, व्यञ्जना की क्या आवश्यकता है ? इसका उत्तर देने के लिए वृत्तिकार ने वृत्ति में लिखा है "एवं लक्षणामूलं व्यञ्जकत्वमुक्तम्"। इस प्रकार पूर्वोक्त वाक्य का यह तात्पर्य है कि व्यञ्जना में 'स्वायत्ते शब्दप्रयोगेऽवाचकप्रयोगानुपपत्तिरूप अर्थापत्ति" प्रमाण नहीं है किन्तु वाच्यलक्ष्यप्रतीत पदार्थानुपयत्तिरूप अर्थापत्ति अर्थात् वाच्य और लक्ष्य अथं से प्रतीत होनेवाले पदार्थों की अनुपपत्ति के आधार पर मानी गयी अर्यापत्ति ही सब जगह व्यञ्जना में प्रमाण है। अतएव . अनेकार्थस्य शब्दस्य वाचकत्वे नियन्त्रिते । संयोगाद्यैरवाच्यार्थधीकृव्यापृतिरञ्जनम् ॥" इस कारिका में "अवाच्यार्थधीकृत" कहा गया है। (कारिकार्थ) संयोग आदि के द्वारा अनेकार्थक शब्दों के वाचकत्व के (किसी एक अर्थ में) नियन्त्रित हो जाने पर (उससे भिन्न) अवाच्य अर्थ की प्रतीति करानेवाला शब्द का व्यापार व्यंजना अर्थात् अभिधामूला व्यञ्जना कहलाता है। कारिका में अनेकार्थस्य का अर्थ है-अनेकत्र गृहीतशक्तिकस्य अर्थात अनेक अर्थ में जिस शब्द का संकेत हो । 'अनेकार्थस्य शब्दस्य संयोगाद्यः वाचकत्वे नियन्त्रिते' इस प्रकार का अन्वय है। वाचकत्व का अर्थ है वाचक धर्म अर्धात अभिधा ही। 'अवाच्यार्थधीकृद् व्यापति' का अर्थ है अवाच्य (उस काल में अभिधा से अनुपस्थाप्य--अभिधा के द्वारा प्रतीत नहीं कराने योग्य जो अर्थ) उसके (धी) स्मरण की जननी (वृत्ति) व्यंजना है। यहां प्रश्न उठता है कि 'संयोगादि के द्वारा अभिधा पर जिस नियन्त्रण की बात कही गयी; वह नियन्त्रण क्या है और किस प्रकार का है ? उस नियन्त्रण का अर्थ अभिधा का अग्रहण नहीं हो सकता अर्थात् संयोगादि के कारण वहां अभिधा का ग्रहण नहीं हुआ, ऐसा अर्थ नहीं किया जा सकता; क्योंकि कोशादि के द्वारा "हरि" आदि शब्दों की अभिधा का प्रतिपादन हो चुका है।' नियन्त्रण का अर्थ यह भी नहीं लिया जा सकता कि 'प्रकरणादि के द्वारा अभिधा से गृहीत संस्कार की उत्पत्ति या प्ररोह नहीं हुआ; क्योंकि सकेतग्रह या अभिधाग्रह के अव्यहित उत्तरक्षण में प्रकरणादि के नहीं रहने के कारण उस समय तदनुकूल संस्कार की उत्पत्ति में कोई बाधक नहीं दिखाई पड़ता। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भानानापत्तेः, अत एवैकतरमात्रस्मरणानुकूलत्वं नियन्त्रणं विशेषस्मृतिहेतव इत्युक्तरित्यपास्तं, पदार्थोपस्थिति विना संयोगादिज्ञानस्यैवासम्भवाच्चेति । नाप्यप्रकृताद्यर्थगोचरशाब्दबोधानुत्पादकत्वम्, एवं सति द्वितीयार्थगोचराभिधाजन्यशाब्दबोधत्वस्य प्रतिबध्यतावच्छेदकत्वपर्यवसाने "सुव्वइ समागमिस्सई" इत्यादी व्यङ्गयान्तरबोधापत्तेः द्वितीयार्थगोचरशाब्दबोधत्वमात्रस्य तत्प्रतिबध्यतावच्छेदकत्वे भद्रात्मन' इत्यत्र व्यञ्जना हस्तिबोधानापत्तेरिति ।। अत्र ब्रम:--अप्रकृताद्यर्थगोचराभिधाजन्य-शाब्दबोधत्वमेव प्रकरणादिप्रतिबध्यतावच्छेदक 'सुव्वई' इत्यादौ व्यङ्गयान्तरबोधाभावश्च कारणान्तराभावप्रयुक्त एव, न तु प्रकरणादिप्रतिबन्धकत्वप्रयुक्तः, तत्र प्रकरणादेर्व्यङ्गयबोधेऽजनकत्वात्, तदभावे व्यङ्गयमात्रानवभासात्, वाक्यार्थबोधेनैव शब्दस्य चरितार्थत्वात्, न चाननुगतानां संयोगादीनां कथमनुगतकार्यजनकत्वमिति वाच्यम्, कार्याणामप्यननुगतत्वात् संयोगे संयोगाविषयकाभिधाजन्यशाब्दबोधत्वस्य साहचर्यादावसहचरितादिविषयकाभिधा यदि नियन्त्रण का यह अर्थ करें कि 'शक्ति के द्वारा यहाँ द्वितीय अर्थ प्रतिपादक शब्द (विषयक) की स्मति प्रकरणादि के कारण उत्पन्न नहीं हुई या द्वितीयार्थ-विषयक स्मति की उत्पत्ति नहीं हुई तो श्लेष अलङ्कार में दोष होगा, वहाँ द्वितीयार्थ का स्मरण अभीष्ट है, परन्तु वहाँ भी तूल्यन्याय से द्वितीय अर्थ का भान नहीं होगा। इसीलिए जो यह कहते थे कि यहाँ “विशेषस्मृतिहेतवः" यह कहा गया है, इससे सिद्ध हुआ कि यहाँ नियन्त्रण का अर्थ है दोनों अर्थों में से एक ही अर्थ की स्मृति अनुकूलता ।' उनका यह मत भी उक्त युक्ति (श्लेषवाली युक्ति) से परास्त हो गया । दूसरी बात यह कि पदार्थ की उपस्थिति के बिना संयोगादिज्ञान ही नहीं हो सकता। नियन्त्रण का अर्थ अप्राकरणिक अर्थ (गोचर)वाले शाब्दबोध की अनुत्पादकता भी नहीं ले सकते क्योंकि ऐसा मानने पर यही अर्थ होगा कि 'प्रकरणादि द्वितीय अर्थ को प्रतीत करानेवाली अभिधा से होनेवाले शाब्दबोध के प्रतिबन्धक हैं, तब तो "सुब्वइ समागमिस्सई" यहाँ भी व्यङ्गयान्तर का बोध होने लगेगा ? द्वितीयार्थगोचर शाब्दबोधत्व मात्र का यदि प्रतिबन्धक मानें तो "भद्रात्मनः" यहाँ पर व्यञ्जना से हाथी के पक्षवाले अर्थ का भी बोध नहीं होगा।' इस प्रकार की विप्रतिपत्ति में हमारा मत है कि 'अप्राकृत (अप्राकरणिक) अर्थवाली अभिधा से जन्य शाब्दबोध ही प्रकरणादिप्रतिबध्यतावच्छेदक है, अर्थात् प्रकरणादि अप्राकरणिक अर्थ को प्रतीत करानेवाली अभिधा से होनेवाले शाब्दबोध का प्रतिबन्धक है।' "सुव्वइ" इत्यादि स्थल में व्यङ्गयान्तर की प्रतीति जो नहीं हुई इसका हेतु व्यङ्गचबोध के लिये अपेक्षित कारणों का अभाव ही समझना चाहिए। न कि प्रकरणादि के प्रतिबन्धक होने के कारण वहां व्यङ्गयान्तरबोध का अभाव मानना चाहिए । बहाँ प्रकरणादि व्यङ्गयबोध का जनक नहीं है । यदि ऐसा होता तो प्रकरणादि के अभाव में व्यङ्गय का अवभास नहीं होता। जब कि यहां तो वाक्यार्थबोध कराकर शब्द चरितार्थ होगया है। संयोगादि स्वयं अनुमत हैं-एकरूपेण ज्ञान या निश्चित धर्म नहीं हैं फिर उनसे अनुगत अर्थ याने निश्चित अर्थ का भान कैसे हो जाता है, संयोगादि को अनुगतकार्यजनक कैसे माना जाय? यह एक प्रश्न है । इसका उत्तर है कि कार्य भी अननुगत ही हैं । संयोग में विप्रयोगविषयक जो अमिधाजन्य शाब्दबोध है उसे प्रतिबन्धक माना गया है और साहचर्यादि में असाहचर्यादिविषयक अभिधाजन्य जो शाब्दबोध है, उसे प्रतिबन्धक माना गया है। इस तरह मानने पर उनका मत स्वयं खण्डित हो जाता है जो यह कहते थे कि अनेकार्थ की उपस्थिति होने Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वित्तीय उल्लासः साहचर्य विरोधिता । "संयोगो विप्रयोगश्च अर्थः प्रकरणं लिङ्ग शब्दस्यान्यस्य संन्निधिः ॥ सामर्थ्य मौचिती देशः कालो व्यक्तिः स्वरादयः । शब्दार्थस्यानवच्छेदे विशेषस्मृतिहेतवः ॥ ' १३३ इत्युक्त दिशा जन्यशाब्दबोधत्वादेः प्रतिबध्यतावच्छेदकत्वात् । एतेन नानार्थोपस्थितेरन्यतर तात्पर्यग्राहकत्वमेतेषां न त्वपरार्थग्रहप्रतिबन्धकत्वमननुगमादित्यपास्तम् । आद्यपदं व्याख्यातुमाह-संयोग इति, संयोगो गुणविशेषः, विप्रयोगः संयोगध्वंसो विभागो वा, साहचर्यम् एककालदेशावस्थायित्वम् एकस्मिन् कार्ये परस्परसापेक्षत्वं वा, 'विरोध' वध्यघातकभावः सहानवस्थानं च, अर्थः प्रयोजनं प्रकरणं वक्तृश्रोतृबुद्धिस्थता, लिङ्ग संयोगातिरिक्तसम्बन्धेन परपक्षत्र्यावर्त्तको धर्मः, न त्वसाधारणः, सशङ्खचक्र इत्यत्रातिव्याप्तेः, “शब्दस्यान्यस्य सन्निधिः" समासाद्यनधीनस मानार्थताकशब्दान्तरसमभिव्याहारः समासाद्यनधीनत्व विशेषणात् सशङ्खचक्र इत्यत्रातिव्याप्तिः, समानार्थताकेति विशेषणात् 'स्थाणुं भज भवच्छिदे' इत्यत्रातिव्याप्तिश्च निरस्ता । प्रदीपकृतस्तु समानार्थक शब्दान्तरसामानाधिकरण्यं तदर्थः, हरी शङ्खचक्रे इति च संयोगोदाहरण मित्याहुः, 'सामर्थ्यं' कारणता, . औचिती योग्यता, , देशकालौ प्रसिद्धौ व्यक्तिलिङ्ग पुंस्त्वादि, स्वर उदात्तादिः, अनवच्छेदे बाहुल्ये, विशेषस्मृतिहेतवः अविवक्षितार्थान्वयानुभवप्रतिबन्धेन विवक्षितार्थान्वयानुभवप्रयोजका इत्यर्थः । पर ये प्रकरणादि उनमें से एक अर्थ में तात्पर्यग्रहण कराते हैं, अन्य अर्थ के ग्रहण में ये प्रतिबन्धक नहीं बनते; क्योंकि ये स्वयं अननुगत हैं । आदिम (प्रथम) पद की व्याख्या करते हुए लिखते हैं-संयोग इति । 'संयोग' 'गुणविशेष' को कहते हैं । विप्रयोग का अर्थ है संयोगध्वंस या विभाग । एककाल या एकदेश में रहना 'साहचर्य' कहलाता है अथवा एककार्य में परस्परसापेक्ष होना ही साहचर्य है । विरोध वध्य घातकभाव को कहते हैं । अर्थात् वह मनोभाव विरोध है जो एक दूसरे को परस्पर मारने या नुकसान पहुँचाने की प्रेरणा देता है । साथ-साथ नहीं रह सकना भी विरोध कहलाता है । 'अर्थ' का तात्पर्य है 'प्रयोजन' । 'प्रकरण' कहते हैं सन्दर्भ को । यह वक्ता और श्रोता की बुद्धि में रहता है । लिङ्ग वह धर्म है जो संयोग-सम्बन्ध से अतिरिक्त सम्बधों से परपक्ष की व्यावृत्ति करने में समर्थ हो । असाधारण हेतु को यहाँ लिङ्ग नहीं माना गया है। वैसा मानने पर "सशंखचको घरः " यहाँ अतिव्याप्ति दोष हो जाएगा । समासादि के विना समानार्थक (अन्वितार्थक ) शब्दान्तर के समभिव्याहार (सहोक्ति) को सन्धि कहते हैं। 'समासाद्यधीन' विशेषण के कारण 'सशंखचक्रो हरिः' में और 'समानार्थकता' इस विशेषणके कारण "स्थाणु' भज भवच्छिदे" यहाँ अतिव्याप्ति नहीं हुई । प्रदीप कार ने सन्निधि का लक्षण करते हुए लिखा है कि “समानार्थक शब्दान्तरसामानाधिकरण्यम्' समानार्थवाले अन्य शब्दों की समानाधिकरणता ही सन्नधि है । इस लक्षण में सम्भावित अतिव्याप्ति के निवारण के लिए संयोग का उदाहरण 'हरी शङ्खचक्र' यह दिया है । 'सामर्थ्य' का अर्थ 'कारणता' है । औचिती' योग्यता को कहते हैं। देश काल का अर्थ प्रसिद्ध हो है । व्यक्ति का अर्थ 'लिङ्ग' स्त्रीलिङ्ग, पुंल्लिङ्ग आदि है । स्वर का तात्पर्यं उदात्तादि है । अनवच्छेदे का अर्थ है बाहुल्य । "विशेषस्मृतिहेतव:" अर्थात् ये प्रकरणादि अविवक्षित अर्थ के साथ अन्वय के अनुभव में प्रतिबन्धक बनकर विवक्षित अर्थ के अन्वयानुभव के प्रयोजक (सम्पादक) होते हैं। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ काव्यप्रकाशाः सशङ्खचक्रो हरिः प्रशङ्खचको हरिरित्युच्यते । रामलक्ष्मणाविति दाशरथी । राम नगतिस्तयोरिति भार्गवकार्तवीर्ययोः । स्थाणुं भज भवच्छिद इति हरे । सर्व जानाति देव इति युष्मदर्थे । कुपितो मकरध्वज इति कामे । देवस्य पुरारातेरिति शम्भो । मधुना संयोगादीनां नियामकतायां क्रमेणोदाहरणान्याह - सशङ्खचक्र इति, अच्युत इत्यादेविशेषप्रतीतिकृदित्यनेनान्वयः । वक्ष्यधातकभावरूपविरोधमुदाहरति - रामार्जुनेति । सहानवस्थानविरोधोदाहरणं तु छायातपवदेतयोरिति, अत्र छायापदस्य दीप्तावपि शक्तत्वेन विरोधितयैवाऽऽतपाभावपरत्वम् । युष्मदर्थ इति राजादावित्यर्थः, "राजा भट्टारको देवः" इति कोषेण देवपदस्य राजार्थकत्वप्रतिपादनान्नानार्थकता । कुपित इति, वस्तुतः स्थाणुरपश्यदित्यादि लिङ्गोदाहरणं बोध्यम्, मकरध्वजशब्दस्य कामे प्रसिद्धचैव संयोगादि की नियामकता का क्रम से उदाहरण देते हुए लिखते हैं- सशङ्खचक्रो हरिः' इति । हरि शब्द अनेकार्थवाचक है । "यमानिलेन्द्रचन्द्रा के विष्णुसिंहा शुवाजिषु । शुकाहिकविभेकेषु हरिर्ना कपिले त्रिषु" । इसके अनुसार पुंलिङ्ग हरि का अर्थ 'यम, अनिल, इन्द्र, चन्द्रमा, सूर्य, विष्णु, सिंह, रश्मि, घोड़ा, तोता, सर्प, बन्दर और मेढ़क होता है । शंखचक्रसहित हरि यही शंखचक्र के संयोग से हरि का अर्थ अच्युत ही हुआ यम आदि नहीं । वृत्ति में "अच्युते" इत्यादि सप्तमी विभक्तिवाले पदों का “विशेषप्रतीतिकृत्" इसके साथ अन्वय है । asr और वधकभाव को विरोध कहा गया है। उसका उदाहरण देते हुए लिखते हैं "रामार्जुनगतिस्तयोः " यहाँ राम पद से परशुरामरूप विशेष अर्थ की प्रतीति होती है; दशरथ के पुत्र राम और बलराम की नहीं । क्योंकि आगे का पद अर्जुन 'कार्तवीर्यार्जुन' का बोधक है। परशुराम ने कार्तवीर्यार्जुन को मारा था। इसलिए वह 'वध्य' हुआ और परशुराम 'घातक' । दोनों में वहप और घातकभाव सम्बन्ध हैं इसलिए यह उदाहरण विरोध का हुआ। विरोध का एक दूसरा प्रकार है -सहावस्थान । वे तत्त्व जो परस्पर विरोधी हैं परन्तु साथ-साथ रहते हैं । जैसे छाया और आतप । इसलिए जब कहते हैं "छायातपवदेतयोः " तो यहाँ 'छाया' का अर्थ धूप का अभाव हुआ । यद्यपि 'छाया' शब्द का अर्थ 'कान्ति' भी है तथापि विरोधी आतप शब्द के सान्निध्य से छाया शब्द का अर्थ आतप का अभाव लिया गया। . स्थाणु' भज भवच्छिदे "संसार से पार उतरने के लिए स्थाणु का भजन कर। यहाँ स्थाणु शब्द प्रयोजनरूप अर्थ के कारण शिव में नियन्त्रित हो जाता है। शिव ही संसार से मुक्ति दिला सकता है। स्थाणु के अन्य अर्थ ठूंठ वृक्ष में संसार से मुक्ति दिलाने की क्षमता नहीं है । प्रकरण से अर्थ नियन्त्रण का उदाहरण - "सर्वं जानानि देवः” देव सब जानते हैं; यहां प्रकरण से अनेकार्थंक देव शब्द 'आप' अर्थ में नियन्त्रित हो जाता है । वृत्ति में लिखित "युष्मदर्थे" का अर्थ है राजादी । राजादि में नियन्त्रित हो गया है । 'राजा भट्टारको देव:" इस कोष ने देव शब्द को राजा का पर्याय बताया है। इसलिए 'देव' शब्द अनेकार्थंक है । इस तरह 'देवता' अर्थ और 'राजा' अर्थ का वाचक देव शब्द प्रकरण के कारण राजार्थ में नियन्त्रित हो गया है। वस्तुतः लिङ्ग का उदाहरण "स्थाणुरपश्यत्" इत्यादि मानना चाहिए। यहाँ 'दर्शन' रूप लिङ्ग के कारण स्थाणु का अर्थ वृक्ष या ठूंठ या खूंटा नहीं होगा; क्योंकि उनमें दर्शन की क्षमता नहीं है किन्तु शिव लिया Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः १३५ मत्तः कोकिल इति वसन्ते । पातु वो दयितामुखमिति साम्मुख्ये । भात्यत्र परमेश्वर इति नियमनात् । अत एव मकरध्वजनियमितेत्यत्र निहतार्थकत्वं वक्ष्यति, लिङ्गपदेन प्रसिद्धिरेवोक्तेति केचित् । देवस्येति देवपदस्य राजाद्यर्थकत्वान्नानानार्थताक्षतिरित्यवधातव्यम् । पुरस्यासुरभेदस्य नगरस्य चारातेरित्यर्थभेदेन पुरारातिशब्दस्य नानार्थतया देवरूपशब्दान्तरमान्निध्यादसुरविशेषशत्रौ शिवे नियमनमिति केचित् । साम्मुख्य इति मुखपदस्य वदनसाम्मुख्यादैः शक्तत्त्वान्नानार्थकस्यौचित्येन साम्मुख्ये नियमनमित्यर्थः (पा) धातोर्नानार्थतया औचित्येन साम्मुख्ये नियमनं तेन मुखं (पातु) सम्मुखीभवत्वित्यर्थः, अन्यथा वदनस्यापि कामत्राणयोग्यतया मुखपदस्य साम्मुख्य नियमनानौचित्यादिति मम प्रतिभाति । यद्यप्यत्रापि सामर्थ्यमस्त्येव तथापि मधुनेत्यत्र तृतीयाया इव तद्बोधकस्याभावादौचित्योदाहरणता, जायगा । "कुपितो मकरध्वजः" यह तो प्रसिद्धि का ही उदाहरण है। प्रसिद्धि के कारण ही मकरध्वज का काम अर्थ में नियन्त्रण हो जायगा। इसीलिए "मकरध्वजनियमित" यहाँ काम से अतिरिक्त समुद्रादि अर्थ में प्रयोग के कारण निहतार्थ (उभयार्थक शब्द का अप्रसिद्ध अर्थ में प्रयोग) दोष माना गया है। किसी का कहना है कि लिङ्ग पद से प्रसिद्धि ही ली जाती है। , 'देव' पद का राजादि अर्थ भी होता है अतः यह शब्द नानार्थक है। "देवस्य पुरारातेः" "पुरारि देव का" यहाँ "पुरारि" रूप अन्यशब्द के सान्निध्य से अनेकार्थक 'देव' शब्द का शम्भु अर्थ में नियन्त्रण हो गया। किसी ने पूर्वोक्त उदाहरण को और ढंग से घटाते हुए लिखा है कि 'पुर का अर्थ असुर-विशेष और नगर दोनों होता है । उसके अराति अर्थात् शत्रु ऐसा कहने पर पुराराति का अर्थ होगा 'असुर-विशेष' का शत्रु और नगर का शत्रु । परन्तु यहाँ देवरूप शब्दान्तर के सन्निधान से असुर-विशेष के शत्रु अर्थात् पुरनामक दैत्य के शत्रु शिव के अर्थ में नियमन हुआ है।' . "मधुना मत्तः कोकिल:" "कोकिल मधु से मत्त हो रहा है" यहाँ मधु सामर्थ्यवश वसन्त अर्थ में नियन्त्रित हो गया है; क्योंकि कोकिल को मत्त बनाने की क्षमता वसन्त में ही है। मधु के अन्य अर्थ शहद या शराब में नहीं। साम्मुख्य के कारण एक अर्थ में शब्दार्थ के नियन्त्रण का उदाहरण है "पातु वो दायितामुखम्" । पत्नी का मुख तुम्हारी रक्षा करे । यहाँ वदन और साम्मुख्य आदि अर्थ में प्रयुक्त होने के कारण अनेकार्थक मुख शब्द औचित्य के कारण साम्मुख्य (अनुकूलता) अर्थ में नियमित हो गया है। मेरे विचार में तो 'पा' धातू नानार्थक हैं, क्योंकि रक्षण कई प्रकार के होते हैं । इस तरह यहाँ औचित्य के कारण 'पातु' का 'सामुख्य' अर्थ में नियमन हुआ है । इसलिए 'पातु' का अर्थ सम्मुखीभबतु-सामने हो यह हुआ, अन्यथा दायितामुख को भी काम से रक्षण की योग्यता होने के कारण मुख पद का 'साम्मुख्य' अर्थ में नियमन मानना अनुचित होगा। यद्यपि यहाँ भी सामर्थ्य है और सामर्थ्यात् अर्थ के नियमन का उदाहरण इसे माना जा सकता है; तथापि सामर्थ्यमूलक अर्थ के नियमन के उदाहरण में "मधुना मत्तः कोकिलः" यहाँ जैसे सामर्थ्य के बोध के लिए तृतीया है, उस तरह यहाँ सामर्थ्यबोधक तृतीयादि का अभाव है। इसलिए इसे औचित्य का ही उदाहरण मानना चाहिए। देश का उदाहरण है 'भाति अत्र परमेश्वरः' यहाँ राजधानीरूप देश के कारण ईश्वर, महाधनी आदि अनेकार्थक परमेश्वर शब्द राजा अर्थ में नियन्त्रित हो जाता है। "राजधानी रूपात" यहाँ "पदार्थात्" शब्द का शेष Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशः राजधानीरूपाद्देशाद्राजनि । चित्रभानुविभातीति दिने रवौ रात्री वह्नौ। मित्रं भातीति सुहृदि । मित्रो भातीति रवौ। इन्द्रशत्रुरित्यादौ वेद एव, न काव्ये स्वरो विशेषप्रतीतिकृत् । राजधानीरूपादित्यत्र पदार्थादिति शेषः, परमेश्वरस्य विष्णोः शिवस्य भानं वैकुण्ठे कैलासे वा, राजधान्यां तु राज्ञ एवेति राजधानीदेशे नियमनम् । इन्द्रशत्रुरिति । इन्द्रशत्रुरित्यत्रान्त्यपदोदात्तत्वे षष्ठीतत्पुरुषसमासेनेन्द्रस्य शातनकर्मत्वं पूर्वपदोदात्तत्वे बहुव्रीहिसमासेनेन्द्रस्य शातनकर्तृत्वं लभ्यत इति भावः । न काव्य इति । बाहुल्येनेति शेषः, दृष्टिः पङ्कजवैरिणीत्यादौ तुल्यन्यायेन काव्येऽपि तत्सम्भवादिति प्रदीपकृतः। काव्येषूदात्तादीनां नार्थविशेषनियामकता तथात्वेऽनुरूपस्वरेणार्थविशेषावगतौ श्लेषभङ्गप्रसङ्गः, मानना चाहिए। परमेश्वर विष्णु वैकुण्ठ में शोभा पाते हैं और परमेश्वर शिव के विराजने का स्थान कैलास है । राजधानी में तो राजा के ही शोभित होने की सम्भावना है। इसीलिए यहाँ राजधानीरूप देश में नियमन हुआ है। काल के कारण शब्दार्थ के नियमन का उदाहरण 'चित्रभानुर्भाति' है। चित्रभानु शब्द सूर्य और अग्नि दोनों के लिए आता है। दिन में चित्रभानुर्भाति का अर्थ सूर्य होगा और रात में अग्नि । यह नियमन काल के कारण हुआ। व्यक्ति (लिङ्ग) के कारण अर्थविशेष नियमन का उदाहरण है "मित्रं भाति' और 'मित्रो भाति । मित्र शब्द सुहृद् और सूर्य अर्थ में प्रयुक्त होता है इसलिए अनेकार्थक है। परन्तु 'मित्रम् में नपुंसक लिङ्ग के कारण वह सुहृद अर्थ में नियमित हो जाता है और "मित्रो भाति" में पुलिङ्ग होने से वह 'सूर्य' अर्थ में नियन्त्रित हो जाता है। "इन्द्रशत्रः" आदि में वेद में ही स्वर अर्थ-विशेष का बोधक होता है काव्य में नहीं। इसलिए उसके लौकिक उदाहरण नहीं दिये हैं। वेद में स्वरभेद के कारण अर्थभेद की व्याख्या करते हुए टीकाकार लिखते हैं-इन्द्रशत्रुरिति । 'इन्द्र शत्रु' यहाँ "समासस्य" सूत्र से अन्तोदात्त होने पर षष्ठीतत्पुरुष समास माना जायगा, ऐसी स्थिति में इसका अर्थ होगा इन्द्र को सताने वाला, 'इन्द्रकर्मकशातनम्' इन्द्रकर्मकशत्रता। पूर्वपद में उदात्त उच्चारण करने का तात्पर्य होगा कि यहाँ बहुब्रीहिसमास है क्योंकि बहुव्रीहिसमास में ही पूर्वपद के प्रकृतिस्वर का विधान है, इस तरह इसका अर्थ होगा "इन्द्रकर्तृ कशातनम्" अर्थात् इन्द्र ही शत्रुता का कर्ता होकर असुरों को सताये । इस तरह तत्पुरुष में 'इन्द्र को सतानेवाले असुरों की वृद्धि' ऐसा अर्थ होता; जोकि अभीष्ट था परन्तु बहुव्रीहि के कारण अर्थ होगा "शत्रु को सतानेवाला इन्द्र बढ़े"। यह अर्थभेद स्वर के कारण हुआ । इसलिए वेद में स्वरभेद भी अनेकार्थक शब्दों के अर्थविशेष में नियमन का कारण होता है । परन्तु काव्यमें स्वरकृत अर्थ की विशेषता स्वीकार नहीं की गयी है। स्वर के कारण शब्द को एक अर्थ में नियन्त्रित मानने पर श्लेष अलङ्कार का उच्छेद हो जाएगा। क्योंकि श्लेष का प्रासाद एक शब्द से या समानाकारक एक शब्द से अनेक वाच्यार्थ के प्रकट होने की प्रक्रिया पर स्थित है। स्वर के द्वारा एक अर्थ में शब्द के नियमन की स्थिति में अनेक वाच्यार्थ के प्रकट होने की सम्भावना ही कहाँ शेष रह जाती है ? प्रदीपकार ने 'न काव्ये' इस प्रतीक के आगे "बाहुल्येन" पद का शेष माना है। बाहुल्येन के अध्याहार से यह तात्पर्य निकलता है कि 'वेद में जैसे स्वर को अभिधानियामक मानने का बाहल्य है, वैसे काव्य में स्वर को सब जगह अभिधा का नियामक नहीं माना गया है। काव्य में भी 'इन्द्रशत्र:' की तरह "दृष्टिः पङ्कजवैरिणी" में स्वर के द्वारा तत्पुरुष के निर्णय के माध्यम से अर्थविशेष का नियमन देखा जाता ही है। इसलिए वृत्ति का तात्पर्य इतना ही मानना चाहिए कि काव्य में वेद की तरह स्वरद्वारा के अर्थ नियमन का बाहुल्य नहीं है। १. टी० अत्रेति राजधानीरूपदेशेन परमेश्वरस्य राजनि नियमनम् । Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः १३७ प्रादिग्रहणात् एहमेत्तत्थणिया एहमेत्तेहि प्राच्छिवत्त हि । एदहमेत्तावत्था एं।हमेत्तहिं दिअएहिं ।। [एतावन्मात्रस्तनिका एतावन्मात्राभ्यामक्षिपत्राभ्याम् । एतावन्मात्रावस्था एतावन्मात्रंदिवसः ॥ इत्यादावभिनयादयः। अतएव श्लेषप्रस्तावे वक्ष्यति 'काव्यमार्गे स्वरो न गण्यत' इतीति सुबुद्धिमिश्राः । एदहमेत्तेति । एतावन्मात्रस्तनिका एतावन्मात्राभ्यामक्षिपत्राभ्याम् ।। एतावन्मात्रावस्था एतावन्मात्रदिवसः ॥१॥ _ अभिनयादय इति । अभिनयो हस्तक्रिया एतावन्मात्रस्तनीत्यत्राङ्गष्ठतर्जनीमध्यमाभिर्बदरा• कारप्रदर्शनेऽल्पस्तनीति भासते, हस्ताभ्यां घटाकारप्रदर्शने स्थूलस्तनीति, एतावन्मात्राभ्यामित्यत्रापि तर्जन्यग्रप्रदर्शने सूक्ष्मचक्षुरिति, प्रसृत्यादिप्रदर्शने विपुलचक्षुरिति, अगुलीत्रयप्रदर्शने दिवसत्रयं पञ्चाङ्गुलीप्रदर्शने पञ्चदिनानि दशाङ्गुलीप्रदर्शने च दिनदशकं भासत इति भावः । अत एव तत्पदस्य सुबुद्धि मिश्र का कथन है कि 'काव्यों में उदात्त, अनुदात्त और स्वरित में अर्थविशेष की नियामकता नहीं है, अगर वैसा मानें तो अनुरूप स्वर से किसी एक अर्थविशेष की ही प्रतीति होगी ऐसी स्थिति में श्लेष अलङ्कार का जहाँ कि एक शब्द के अनेक वाच्यार्थ माने गये हैं भङ्ग हो जायगा।' इसीलिए ग्रन्थकार श्लेष के प्रकरण में -लिखेंगे कि "काव्यमार्गे स्वरो न गण्यते" काव्य के मार्ग में स्वर नहीं गिना जाता है। अर्थात् उदात्त, अनुदात्त, स्वरित स्वरों (अर्थविशेष के नियन्त्रणरूप) का महत्त्व काव्यमार्ग में नहीं स्वीकार किया गया है। कारिका में आदि शब्द से ग्राह्यतत्त्व हैं अभिनयादि । जैसेएतावन्मात्रस्तनिका एतावन्मात्राभ्यामक्षिपात्राभ्याम् । एतावन्मात्रावस्था एतावन्मात्रदिवसैः ॥ इस परिणाह के स्तनोंवाली, इतनी बड़ी आंखों से उपलक्षित वह तरुणी इतने दिनों में ऐसी हो गयी। यहां अभिनय आदि शब्द का एकार्थ में नियन्त्रण करते हैं। अभिनय हस्त (अङ्ग) की विविध सङ्केतात्मक क्रिया (मुद्रा या चेष्टा) को कहते हैं। उससे यहाँ अर्थविशेष का ज्ञान हो जाता है। जैसे "इस परिणाह के स्तनोंवाली" इस शब्द के प्रयोग के साथ अंगूठा, तर्जनी और मध्यमा अंगुलियों के द्वारा बदरीफल के आकार के प्रदर्शन से 'अल्पस्तनी' इस अर्थ का भान होता है। यदि पूर्वोक्त शब्द के उच्चारण के साथ हाथों के द्वारा घड़े की आकृति का अभिनय किया जायगा तो 'घटस्तनी' इस अर्थ की प्रतीति होगी। "एतावन्मात्राभ्यामक्षिपात्राभ्याम्" का अभिनय तर्जनी अगली के अग्रभाग से किया जाएगा तो नायिका छोटी-छोटी आँखोंवाली है, ऐसा माना जाएगा, यदि प्रसृति-फैली हुई अंगुली अथवा अञ्जलि आदि के साथ प्रदर्शन किया जायगा तो नायिका 'विशालनेत्रा' मानी जाएगी। "एतावन्मात्रदिवसः” का अभिनय तीन अंगुलियों से करने पर तीन दिनों की प्रतीति होगी, पञ्चांगुलियों या दशाङ्गुलियों के प्रदर्शन से क्रमशः पाँच या दस दिनों का भान होगा। इसीलिए एतत् या तत् सर्वनाम की भी अनेक वस्तुओं की उपस्थिति कराने के कारण से ही अनेकार्थता मानी जाती है, यह निबन्धाओं (वाक्य विन्यास के मर्मज्ञों) का कथन है। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ काव्यप्रकाशः इत्थं संयोगादिभिरर्थान्तराभिधायकत्वे निवारितेऽप्यनेकार्थस्य शब्दस्य यत् क्वचिदर्थान्तरप्रतिपादनं तत्र नाभिधा नियमनात्तस्याः । न च लक्षणा मुख्यार्थबाधाद्यभावात् । अपि त्वञ्जनं व्यञ्जनमेव व्यापारः । यथा सर्वनाम्नोऽप्यनेक व्यक्त्युपस्थापकतयैवानेकार्थत्वमिति निबन्धारः । वस्तुतः सर्वनाम्नि बुद्धिस्थतत्तत्प्रकाराणामेव शक्यतावच्छेदकत्वपक्षे नानार्थत्वमव्याहतमेवेति मम प्रतिभाति । अत्राप्यादिपदाद् " इतः स दैत्यः प्राप्तश्रोत एवार्हति क्षत' मित्यादावभिमत-निर्देशरूपोपदेशो गृह्यते तेनेतः (नेदं) शब्दस्याभिधा वक्तरि नियम्यत इति वदन्ति । वस्तुतोऽग्रे वाच्यवक्तृबोद्धव्यादि- वैलक्षण्यमादिपदार्थः, सैन्धवं भक्षयामीत्यत्र ब्राह्मणे वक्तरि लवणस्य श्वपचे च तुरङ्गस्य, सैन्धवं भुङ्क्ष्वेत्यत्र ब्राह्मणे प्रतिपाद्ये लवणस्यैव म्लेच्छविशेषे च तुरङ्गस्यापि प्रतीतेः एवं वाक्यादीन्युदाहार्याणीति मम प्रतिभाति । कारिकार्थं सङ्गमयति-- इत्थमिति । मुख्यार्थबाधादीति, न च तात्पर्यानुपपत्त्यैव लक्षणास्त्विति वाच्यम्, तथा सति सैन्धवमानयेत्यत्रापि लक्षणापत्तेरिति भावः । भद्रात्मन इति राजपक्षे भद्रात्मत्वं शोभनान्तःकरणत्वं, दुरधिरोहत्वमनभिभवनीयत्वं, वंशः कुलम्, उन्नतिः ख्यातिः, शिलीमुखा बाणाः, गतिर्ज्ञानम्, परवारणत्वं मुझे तो यह जँचता है कि सर्वनाम बुद्धिरूप पदार्थ का परामर्शक होता है । बुद्धिस्थ तत्तत्प्रकारों (बुद्धि में रहनेवाले उन उन वस्तुओं के धर्मों) के शक्यतावच्छेदेकत्व पक्ष में सर्वनाम की अनेकार्थता निर्बाध ही है । वृत्ति में भी " अभिनयादय: " में आदि पद का प्रयोग पाया जाता है। इसलिए "इतः स दैत्यः प्राप्तश्रीनेत एवार्हति क्षयम्" इत्यादि में अभीष्ट निर्देश ( अर्थात् मुझ ब्रह्मा से उसका क्षय नहीं होगा शिव का पुत्र ही उस तारकासुर को मार सकता है । इसलिए हे देवताओं, आप शिव के विवाह का उपाय सोचो इत्यादि ब्रह्म के उपदेश ) रूप अर्थ, आदिशब्द से गृहीत हुआ। उस निर्देश " इत:" पद में इदं शब्द की afar का नियन्त्रण हुआ, ऐसा कोई कहते हैं । वस्तुतः आगे जिन वाच्य, वक्तृ, बोद्धव्य आदि वैलक्षण्यों की चर्चा है; वे सब आदि (वृत्तिगत अभिनयाय: में आये हुए आदि) पद से ग्राह्य हैं। साथ-साथ "संन्धवं भक्षयामि " वाक्य का वक्ता यदि ब्राह्मण होगा तो सैन्धव शब्द का अर्थ 'नमक' लिया जाएगा; यदि श्वपच पूर्वोक्त वाक्य का वक्ता होगा तो सैन्धव का अर्थ 'घोड़ा' होगा । 'अयं सैन्धवं भुङ्क्ते' 'यहाँ अयं' पद का प्रतिपाद्य या वाक्य द्वारा प्रतिपाद्य ब्राह्मण होगा तो 'लवण का बोध होगा, म्लेच्छ - विशेष को उद्देश्य करके यदि यह वाक्य कहा जाएगा तो तुरङ्ग की भी प्रतीति होगी' इस तरह के वाक्य आदि "अभिनयादय: " में आये हुए आदि पद के उदाहरण के लिए प्रस्तुत करने चाहिए । कारिका के अर्थ का संगमन ( लक्षण - समन्वय) दिखाते हुए लिखते हैं-" इत्थं संयोगादिभिः " । इस प्रकार संयोग आदि के द्वारा अन्य अर्थ के अभिधान (बोध) का निवारण हो जाने पर भी अनेकार्थक शब्द जो कहीं अन्य अर्थ का प्रतिपादन करता है; वहाँ अभिधा नहीं हो सकती; क्योंकि उसका नियन्त्रण हो चुका है और मुख्यार्थTE आदि के न होने के कारण लक्षणा भी नहीं हो सकती अपितु अञ्जन अर्थात् व्यञ्जनाव्यापार ही हो सकता है । मुख्यार्थबाध न होने पर भी तात्पर्यानुपपत्ति कारण लक्षणा नहीं मानी जा सकती; मुख्यार्थबाधादि के बिना यदि तात्पर्यानुपपत्तिमात्र से लक्षणा मानें तो 'सैन्धवमानय' यहाँ भी लक्षणा हो जायगी ? राजधानीरूप प्रकरण के यञ्जना के द्वारा जो गजपक्षीय अर्थ कारण अभिधा के एक अर्थ में ( राजपक्षीयार्थ में) नियन्त्रण हो जाने पर भी निकलता है और उन दोनों अर्थों में जो उपमानोपमेयभाव मानकर उपमा Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः १३९ कर भद्रात्मनो दुरधिरोहतनोविशालवंशोन्नते: कृतशिलीमुखसङ्ग्रहस्य । यस्यानुपप्लुतगतेः' परवारणस्य दानाम्बुसेकसुभगः सततं करोऽभूत् ॥१२॥ शत्र निवारकत्वं, दानाम्बु उत्सर्गजलं, करः पाणिः, हस्तिपक्षे-भद्रो जातिभेदः, दुरधिरोहत्वमत्युच्चत्वं, वंशः पृष्ठदण्डः, विशालवंशवदुन्नतस्येत्यर्थः, शिलीमुखा भ्रमराः, अनुपप्लुतगतेः गमन-[अविप्लुतअनुपप्लुत]स्य परवारणस्य श्रेष्ठहस्तिनः, दानाम्बु मदजलं, करः शुण्डादण्डः । अत्र प्रकरणेन राज्ञि तदन्वययोग्येऽभिधानियन्त्रणेऽपि गजस्य तदन्वययोग्यस्य व्यञ्जनयव प्रतीतिरिति भावः । न च योऽसकृलडार माना जाता है, उसका उदाहरण "भद्रात्मनो दुरधिरोहतनोः" यह श्लोक है। उस श्लोक के क्लिष्ट पदों के अर्थ इस प्रकार हैं। राज पक्ष में : अर्थ शब्द अर्थ भद्रात्मत्वम् पवित्र हृदयत्व शिलीमुखाः बाण दुरधिरोहत्वम् अपराजेयत्व, अदम्यत्व गतिः ज्ञान वंशः कुल, खानदान परवारणत्वम् शत्रुनिवारकत्व उन्नतिः । ख्याति दानाम्बु उत्सर्ग का पानी हाथ हाथी के पक्ष में, शब्दार्थ :अर्थ शब्द भद्र: हाथी की एक जातिविशेष शिलीमुखाः भौरे का नाम अनुपप्लुतगतिः उछल-उछल कर नहीं दुरधिरोहत्वम् बहुत अधिक ऊँचाई चलनेवाला, मस्त गतिवाला वंशः रीढ़ की हड्डी, (पृष्ठदण्ड) परवारणस्य श्रेष्ठ हाथी (का) विशालवंशोन्नतिः विशाल बाँस के समान दानाम्बु मदजल ऊँचाईवाला . यहां प्रकरण के द्वारा अभिधा का पूर्वनिर्दिष्ट अर्थ के साथ अन्वय की योग्यता रखनेवाले राजपक्षीय अर्थ में नियन्त्रण हो जाने पर भी पूर्वनिर्दिष्ट अर्थ के साथ अन्वय की योग्यता रखनेवाले गज को (गजपक्षीय अर्थ का) बोध व्यञ्जना से ही होता है। "योऽसकृत् परगोत्राणां पक्षच्छेदक्षणक्षमः । शतकोटिदतां बिभ्रद् विबुधेन्दुः स राजते ॥" (राज पक्ष) अनेकों बार शत्रुवंश के समर्थकों को छिन्न-भिन्न करने में शीघ्र समर्थ, संकड़ोंकरोड़ (मुद्राओं) के दान की महिमा से मण्डित यह महाबुद्धिमान् राजा शोभित हो रहा है। (इन्द्र पक्ष) अनेकों बार बड़े-बड़े पर्वतों के विदारण में सदा समर्थ, वज्र के द्वारा शत्रुसंहार में निरत देवराज इन्द्र शोभित हो रहा है। यहाँ के अर्थश्लेष और "भद्रात्मनः" श्लोक में कोई भेद प्रतीत नहीं हो रहा है ऐसी १. अनुपप्लवगतेः इति पाठान्तरम् । करः Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० काव्य-प्रकाशः - त्परगोत्राणामित्याद्यर्थश्लेषादस्य भेदाभावात् तत्रार्थद्वये शक्तिरत्र व्यञ्जनेति विभागोऽनुपपन्न इति वाच्यम्, यत्र द्वयोस्तात्पर्य स श्लेषः, यत्र त्वेकस्मिन्नेव तात्पर्य सामग्रीवशादर्थान्तरप्रतीतिः तत्र व्यञ्जना, न चैवं तात्पर्यमाणैवाभिधायाः सर्वत्र नियमे [नियमने] संयोगादिवैयर्थ्य मिति वाच्यम्, तेषां तात्पर्यग्राहकतयैवोपयोगादिति प्राञ्चः, तन्न। शुकादिवाक्येऽप्यर्थावभासात्तत्र तात्पर्याभावेन श्लेषत्वाद्यभावप्रसङ्गाद, न च तत्र सारस्वतमेव तात्पर्यम्, स्वरूपसतस्तस्यानुपयोगेन तद्ज्ञानं विनाऽ पि शाब्दबोधदर्शनात् तस्मादभिधानियामकसंयोगाद्यभावे श्लेषः तत्सत्त्वे व्यञ्जनेत्येव परमार्थः । ननु प्रकरणादीनां प्रकृतार्थबोधजनकतामात्र न त्वपरार्थबोधप्रतिबन्धकत्वम्, अतोऽभिधयैव परार्थबोधोऽपीति किं व्यञ्जनया ? अत एव द्वितीयाभिधागोचरस्यैव ज्ञानं नापरस्येति नियमोऽपि सङ्गच्छते । न चैकार्थबोधं जनयित्वा विरतत्वादेव न द्वितीयार्थबोधजनकत्वम् आकाङ्क्षाविरहादिति स्थिति में "योऽसकृत" यहाँ अर्थद्वय में शक्ति है और वहाँ "भद्रात्मनः" में व्यञ्जना है, इस प्रकार का विभाग ठीक नहीं है ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि अर्थश्लेष और व्यञ्जना का विषयविभाग स्पष्ट है। जहां दोनों अर्थों में तात्पर्य होता है; वहां श्लेष माना जाता है और जहाँ तात्पर्य तो एक ही अर्थ में होता है किन्तु वक्तृ-बोद्धव्यादि सामग्री के कारण (बाद में) अर्थान्तर की प्रतीति होती है वहाँ व्यञ्जना मानी जाती है। इस तरह मानने पर तात्पर्यमात्र से ही अभिधा का सर्वत्र नियमन सम्भव है; फिर संयोग, विप्रयोग आदि को अर्थविशेष का नियामक मानना व्यर्थ है ऐसा नहीं मानना चाहिए। संयोगादि तात्पर्य-ग्राहक के रूप में उपयोगी हैं, और संयोगादि उस अर्थनियामक तात्पर्य के नियामक हैं यही उनकी उपयोगिता है ऐसा प्राचीन आचार्य का मत है। परन्तु यह उनका मत ठीक नहीं है, क्योंकि शुकादि के वाक्य में भी अर्थबोधकता है; अथं का अवभास वहाँ भी होता है किन्तु उस वाक्य के वक्ता शुक का उस अर्थ में कोई तात्पर्य नहीं है; क्योंकि उसका वह अपना वाक्य नहीं है। वह स्वयं किसी अर्थविशेष को प्रकट करने के लिए वैसा वाक्य नहीं बोला करता है । यहाँ तक कि वह स्वयं उसका अर्थ नहीं समझता । ऐसी स्थिति में शुक के किसी अनेकार्थक वाक्य में भी श्लेषादि का अभाव हो जाएगा। यदि कहें कि 'वहाँ सारस्वत-तात्पर्य तो है हो अर्थात् वाग्देवी का जो तात्पर्य है, वही वहाँ श्लेषादि का कारण होगा, तो ऐसा कहना भी सदोष है, क्योंकि शाब्दबोध में सर्वत्र स्वरूप सम्बन्ध से रहनेवाले उस सारस्वत-तात्पर्य का कोई उपयोग नहीं दिखाई पड़ता है, क्योंकि उस सारस्वत-तात्पर्य के ज्ञान के बिना भी शाब्दबोध होता है। इसलिए अर्थश्लेष और व्यञ्जना के विषय विभाग का हेतु प्राचीन आचार्य ने जो बताया है वह उचित नहीं है । जहाँ अभिधा का नियामक संयोगादि नहीं है, वहाँ श्लेष होता है और जहाँ वह (अभिधानियामक संयोगादि) है, वहाँ व्यञ्जना मानी जाती है, यही तथ्य है। प्रकरणादि में केवल प्रकरणानुकूल अर्थ को प्रकट करने की क्षमता है वे प्रकृत अर्थबोध के जनक मात्र हो सकते हैं, किन्तु अन्य अर्थबोध की प्रतिबन्धकता उनमें नहीं है, वे दूसरे अर्थ के बोध को रोक नहीं सकते, तब तो अभिधा के द्वारा ही पर अर्थ का बोध हो जाएगा, व्यञ्जना स्वीकार करने से क्या लाभ ? इसीलिए उसी द्वितीय अर्थ का भाव होता है, जो अभिधा का गोचर होता है। जो अर्थ अभिधागोचर नहीं होता उस कपोल कल्पित अर्थ का भान नहीं होता, यह नियम भी संगत होता है। यदि यह कहें कि 'एक अर्थ बताकर अभिधा विरत हो गयी, वह द्वितीय अर्थ का बोध नहीं करा सकती। प्रथमार्थबोधजनकता के काल में क्षीणशक्ति अभिधा द्वितीयार्थबोधजनक नहीं बन सकती। प्रथमार्थबोधनकाल में जो आकांक्षा (प्रतीति-पर्यवसानविरह) थी, वह द्वितीयार्थबोधनकाल में रही ही नहीं इसलिए अभिधा द्वितीयार्थ का बोध नहीं करा सकती, अतः व्यञ्जना मानना आवश्यक है तो यह ठीक नहीं होगा क्योंकि भाकांक्षा का अभाव Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः १४१ वाच्यम्, अजनिततात्पर्यविषयार्थान्वयबोधत्वरूपाया'स्तस्याः सत्त्वात्, न चापरार्थे तात्पर्यग्राहकाभावः, श्लिष्टविशेषणोपादानज्ञानस्यैव तद्ग्राहकत्वात्, आवृत्त्या वा द्वितीयार्थबोधोऽस्तु, धर्मिकल्पनातो धर्मकल्पनाया लघुत्वात्, न चैवं प्रकारणाद्यनुपयोगः नानार्थेषूभयानुभवप्रसक्तौ क्रमनियामकतामात्रेणोपयोगादिति चेत्, अत्र ब्रूमः क्रमनियामक इत्यस्य कोऽर्थः ? किमत्राप्राकारणिकार्थबोधप्रागभावकालीनप्राकरणिकबोधत्वं तत्कार्यतावच्छेदकं ? किं वा प्राकरणिकबोधतत्प्रागभावकालीनाप्राकरणिकबोधत्वं तत्प्रतिबध्यतावच्छेदकम ? नाद्यः. व्यासङ्गादिना प्राकरणिकार्थबोधाभावेऽप्राकरणिकबोधानापत्त्या प्रागभावकालीनत्वस्यार्थवशसम्पन्नतया च कार्यतानवच्छेदकत्वात् । नान्त्यः, अप्राकरणिकबोधत्वस्यैव लघुनस्तत्त्वसम्भवे तत्कालीनत्वविशिष्टतत्त्वस्य गुरुत्वेन प्रतिबध्यतानवच्छेदकत्वात्, न चैवं वृत्त्यन्तरतब तक नहीं माना जाएगा जब तक कि पूर्णरूप से तात्पर्य का ज्ञान नहीं हो जाएगा, सम्पूर्ण तात्पर्य के ज्ञान के पहले प्रतीतिपर्यवसान कहाँ ? इस तरह द्वितीय अर्थ के बोध तक अकांक्षा का अभाव नहीं माना जा सकता तात्पर्यविषयीभूत अर्थ के अनुत्पन्न अन्वयबोध की उत्पत्ति तक आकांक्षा की सत्ता है ही। द्वितीय अर्थ में तात्पर्यग्राहकता का अभाव भी नहीं मान सकते क्योंकि श्लिष्ट विशेषण लगाना ही यह संकेत करता है कि 'वक्ता का तात्पर्य द्वितीय अर्थ में भी है। यदि ऐसा न होता तो कवि अनेकार्थक शब्दों के प्रयोग का प्रयास क्यों करता? - आवृत्ति के द्वारा द्वितीयार्थबोध मानना गौरवग्रस्त होगा, क्योंकि धर्मी की कल्पना की अपेक्षा धर्म की कल्पना में लाघव माना गया है। व्यापारद्वय या अभिधाद्वय की कल्पना धर्म की कल्पना है, समस्त शब्दों की आवृत्ति की कल्पना धर्मी की कल्पना है। ऐसा मानने पर प्रकरणादि के अनुपयोग अर्थात् व्यर्थ होने की शङ्का नहीं करना चाहिए, क्योंकि नानार्थक शब्दों में दोनों अर्थों के अनुभव की प्रसक्ति होने पर क्रम का नियमन करना ही प्रकरणादि का उपयोग हो सकता है। प्रकरणादि के अनुकूल अर्थ का प्रथम बोध और अप्राकरणिक अर्थ का पश्चात बोध कराना ही उनका उपयोग हो सकता है। ___ यहाँ हमें कुछ पूछना है; हम पूछना चाहते हैं, कि क्रमनियामक से आपका क्या तात्पर्य है ? क्या अप्राकरणिक अर्थबोध के प्रागभाव काल में प्राकरणिक अर्थ का बोध कराना ही क्रमनियामकता का अर्थ है अर्थात् प्रकरणादि अर्थ पहले और अप्राकरणिक अर्थ बाद में ज्ञात होता है यही क्रमनियामकता है ? या प्राकरणिक अर्थबोध के पहले (सम्भावित) अप्राकरणिक अर्थबोध का प्रतिबन्धक बनना ही क्रमनियामकता है ? इनमें प्रथम पक्ष नहीं माना जा सकता क्योंकि ध्यान के व्यासङ्ग (अन्यत्र लगे रहने के कारण जहां प्राकरणिक बोध नहीं होगा वहाँ अप्राकरणिक बोध न होने पर प्रागभावकालीनत्व के अर्थवश प्राजाने से उसे कार्यतावच्छेदक नहीं माना जा सकता। जहां व्यासङ्ग के कारण प्राकरणिक अर्थबोध का अभाव है और साथ २ अप्राकरणिक अर्थबोध भी नहीं है वहाँ अप्राकरणिकार्थ-बोध प्रागभावकालीन प्राकरणिकबोध नहीं होने के कारण व्यभिचार आने से उसे तत्कार्यतावच्छेदक नहीं माना जा सकता। - लघु होने के कारण अप्राकरणिकबोधत्व को ही प्रतिबध्यतावच्छेदक माना जा सकता है तत्कालीन विशिष्ट-अप्राकरणिकबोधत्व को जो कि गुरु है प्रतिबध्यतावच्छेदक नहीं मानना चाहिए। अतः अन्त्य पक्ष भी ठीक नहीं है। १. टि. आकाङ्क्षायाः। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ काव्य-प्रकाशः कल्पनागौरवं फलमुखत्वात् । किञ्च प्राकरणिकबोधतत्प्रागभावकालीनाप्राकरणिकबोधस्याप्रसिद्धया कथं तादृशबोधत्वस्य प्रतिबध्यतावच्छेदकत्वमिति । ____ यत्तु प्रकरणादेस्तात्पर्यस्य वा नाप्राकृतार्थबोधप्रतिबन्धकत्वं सैन्धवमानयेत्यादावुभयार्थबोधनियम एव इष्टसाधनताज्ञानाभावाच्च न श्रोतुरुभयानयने प्रवृत्तिरिति ताकिकम्मन्यमतम् । तत्तु लवणपरतया वक्तृप्रयुक्तत्वज्ञानेऽपि श्रोतुस्तुरगानयने स्वेष्टसाधनताज्ञानात् तदानयनापत्त्या, इह तुरगोड स्ति नवेति सन्देहवतो गृहे सैन्धवमिति वाक्याल्लवणपरतया ज्ञातात् सन्देहनिवृत्त्या चोपेक्षणीयम् । ननु यदि व्यञ्जनयवाप्राकरणिकबोधस्तदा कथमभिधेयरूपाप्राकरणिकस्य बोधो नानभिधेयस्याप्राकरणिकस्येति चेत्, न, क्वचिदनभिधेयस्यापि 'गतोऽस्तमर्क' इत्यादौ व्यञ्जनया भानात्, प्रकृते यहां अन्य वृत्ति की कल्पना में गौरव होगा। ऐसा दोष नहीं देना चाहिए। क्योंकि फल मुख गौरव को । दोषाधायक नहीं माना गया है । अर्थात् वह गौरव जिसका कोई प्रयोजन हो; दोषावह नहीं माना जाता है। दूसरी बात यह कि प्रतिबध्यतावच्छेदक उसी बोध को कहते हैं जो प्रसिद्ध हो किन्तु प्राकरणिक बोध । '' और तत्प्रागभावकालीन अप्राकरणिक बोध कहीं भी प्रसिद्ध नहीं है फिर उस बोध को प्रतिबध्यतावच्छेदक कैसे माना जाय ? किसी ताकिकम्मन्य (अपने को तार्किक माननेवाले) ने जो यह माना कि प्रकरणादि या तात्पर्य को, अप्राकरणिक अर्थ के बोधक प्रतिबन्धक नहीं मानना चाहिए। "सैन्धवमानय" यहाँ दोनों अर्थ का बोध होता ही है। उस वाक्य के श्रोता की लवण और अश्व दोनों के आनयन में प्रवृत्ति जो नहीं होती, इसका कारण इष्ट-साधनताज्ञान का अभाव ही है। "भोजनकाले अश्वानयनं न किमपि इष्टं साधयेत्" इस ज्ञान के कारण ही उसकी अश्वानयन में प्रवृत्ति नहीं होती। इसके विपरीत भोजन के समय "लवणानयनम् इष्टसाधकम्" इस ज्ञान से नमक लाने में प्रवृत्ति होती है। यह मत ठीक नहीं है; क्योंकि जहाँ नमक लाने के उद्देश्य से वक्ता के द्वारा प्रयुक्त 'सैन्धवमानय' इस वाक्य का तात्पर्य जानकर भी श्रोता को यदि यह ज्ञान है कि तुरंग लाने से उसकी अभीष्ट सिद्धि हो रही है तो वहाँ इष्टसाधनता का ज्ञान रहने से तुरंग लाने में प्रवृत्ति होनी चाहिए; परन्तु ऐसा नहीं होता अतः यह कैसे माना जाय कि इष्टसाधनताज्ञान के अभाव में अश्वानयन में प्रवृत्ति नहीं होती, क्योंकि वहाँ इष्टसाधनताज्ञान होते हुए भी तादृश प्रवृत्ति नहीं हुई है। "यहाँ तुरंग है या नहीं" इस सन्देह से युक्त पुरुष को 'गृहे सैन्धवम्' इस प्राप्तवाक्य से लवण का ही बोध होता है और उसके सन्देह की निवृत्ति हो जाती है। अतः इष्टसाधनताज्ञानाभाव को उभयानयनाभाव का कारण नहीं माना जा सकता। यहाँ एक प्रश्न है कि यदि व्यञ्जना से ही अप्राकरणिक बोध होता है तो अभिधेयरूप अप्राकरणिक का ही बोध क्यों होता है । "भद्रात्मनः" इस श्लोक में व्यञ्जना से जिस अप्राकरणिक गजान्वयी अर्थ का बोध होता है; वह अभिधेय ही है। अनभिधेय अप्राकरणिक अर्थ का बोध व्यञ्जना क्यों नहीं कराती? कहीं जैसे "गतोऽस्तमर्कः' यहाँ (मुनि, सन्ध्याकाल में भ्रमणव्यसनी आदि प्रति सायंकालीन सन्ध्यावन्दन करना चाहिए, अब घमने जाना चाहिए आदि) अभिधेय अर्थ की व्यञ्जना प्रतीति कराती है वैसे “भद्रात्मनः" इत्यादि स्थलों में भी व्यञ्जना से अनभिधेय अर्थ की प्रतीति होनी चाहिए ऐसा क्यों नहीं होता? Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः १४३ [सू० ३३] तद्युक्तो व्यङजकः शब्दः - तद्युक्तो व्यज्जनयुक्तः । पि तथाऽस्त्विति चेद्, न, शक्त्या घटपदात् पटानुपस्थितौ शक्त्यभावस्येव व्यञ्जनयाऽप्यनभिधेयानुपस्थिती व्यञ्जनाविरहस्यैव तन्त्रत्वाद् राजगजयोरुपमानोपमेयभावस्य तया भानाच्चेति न किञ्चिदेतत् । ___ व्यञ्जनां निरूप्य व्यञ्जकलक्षणमाह-तद्युक्त इति, ननु व्यापृतिरञ्जनमित्यत्राञ्जनपदे प्रस्तुते तद्युक्त इत्यत्र तत्पदेन तस्यैव परामर्शसम्भवे तयुक्तोऽप्यञ्जक इति स्याद् न तु व्यञ्जक इत्यतो व्याचष्टे व्यञ्जनयुक्त इति, तथा च तत्पदस्यार्थपरामर्शकत्वं न तु पदपरामर्शकत्वमपीति नोक्तदोष इति भावः । ननु प्रथमार्थप्रतीत्या व्यवहितत्वाद् द्वितीयार्थप्रतीतौ कथं शब्दः करणमत आह-यदिति । . उत्तर स्पष्ट है, जैसे शक्ति के अभाव के कारण घट पद से पट अर्थ की प्रतीति शक्ति (अभिधा) से नहीं होती; उसी तरह व्यञ्जना के अभाव के कारण यहाँ अनभिधेय अर्थ की उपस्थिति व्यञ्जना से नहीं हो पाती है। यही परम्परासम्मत सिद्धान्त है। राजा और गज में यहाँ उपमानोपमेयभाव का भी भान व्यञ्जना से होता है। न केवल अप्राकरणिक अर्थ यहाँ व्यङ्गय है किन्तु प्राकरणिक और अप्राकरणिक अर्थमूलक उपमा अलंकार भी यहाँ व्यङ्गय है । दोनों अर्थों में अभिधेयतामूलक ही साम्य विवक्षित है। यही कारण है कि यहां अभिधेय अप्राकरणिक अर्थ ही व्यङ्गय माना जाता है । 'ऐरे गैरे नत्थू खैरे' व्यङ्ग्य नहीं माना जाता । भला, असम्बद्ध अर्थ यदि व्यङ्गय माना जाता तो उस अर्थ और अभिधेय प्राकरणिक अर्थ के बीच कौनसा सम्बन्ध स्थापित करके उनमें उपमानोपमेयभाव की कल्पना की जा सकती? __व्यञ्जना का निरूपण करके अब व्यञक का लक्षण बताते हैं-"तचुक्तो व्यञ्जकः शब्दः" उस ज्यञ्जना व्यापार से युक्त शब्द व्यञ्जक कहलाता है। वृत्ति में "तयुक्तः" की व्याख्या "व्यञकयुक्तः" यह की गयी है उसकी आवश्यकता बताते हुए लिखते हैं "व्याप्रतिरञ्जनम्" इस कारिका में अञ्जन शब्द आया है। वही प्रस्तुत है। इसलिए "तयुक्तः" के तत् सर्वानाम से अञ्जन का ही परामर्श होना चाहिए । अतः "तयुक्तः" का अर्थ 'अञ्जनयुक्तः' या 'अञ्जनः' होना . चाहिए 'व्यञ्जक' नहीं इस प्रश्न का समाधान देते हुए वृत्ति में लिखा गया है कि यहाँ "तद्युक्तः" का अर्थ "व्यञ्जकः" या व्यञ्जनयुक्तः या व्यञ्जनायुक्तः है। इस तरह यहाँ तत्पद को अर्थ का परामर्शक मानना चाहिए पद का परामर्शक नहीं। इसलिए तत् पद से अञ्जन पदार्थ का परामर्श होने के कारण "तयुक्तः" की व्याख्या 'व्यञ्जनयुक्तः" के रूप में की जा सकती है। इसलिए उक्त दोष नहीं हुआ। ___ शब्द से पहले अभिधेयार्थ की प्रतीति होती है और बाद में द्वितीयार्थ (व्यङ्गयार्थ) की उपस्थिति होती है यह सिद्ध होता है। इस सिद्धान्त में शब्द को दोनों अर्थों के प्रति करण माना गया है परन्तु द्वितीयार्थ की प्रतीति में शब्द को करण कैसे माना जाय; क्योंकि द्वितीयार्थप्रतीति में प्रथमप्रतीति का व्यवधान है। करण उसे माना जाता है जिसके व्यापार से अव्यवहित उत्तरकाल में क्रिया की निष्पत्ति हो "यदव्यापारव्यवधानेन क्रियानिष्पत्तिः तत् करणम्" इति । ___ शब्द के प्रथम व्यापार से उत्पन्न द्वितीय व्यापार से व्यङ्गय की प्रतीति में शब्द करण नहीं माना जा सकता कयोंकि शब्द और द्वितीयमापार के बीच प्रथमव्यापार का व्यवधान है। इसी प्रश्न का उत्तर देते हुए Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ काव्यप्रकाशः [सू० ३४ ] यत्सोऽर्थान्तरयुक् तथा । श्रर्थोऽपि व्यञ्जकस्तत्र सहकारितया मतः ॥२०॥ यस्मादित्यर्थः, स शब्द एव अर्थान्तरं व्यङ्गयभिन्नं वाच्यम् तद्युक्तः तथा, - व्यञ्जकः सहकारितया न तु प्राधान्येन, तथा चाननुगुणप्रधानस्यैव व्यवधायकत्वं न त्वनुगुणाप्रधानस्येति भाव इति परमानन्दप्रभृतयः । वयं त्वन्वयबोधे संस्कारोपनीतं पदमपि भासत इत्यालङ्कारिकैकदेशिमतं, तदुक्तं - 'न सोऽस्ति प्रत्यय इत्यादि, तथा चार्थरूपपदं पदान्तरं व्यवधायकं तद्युक्तः तज्ज्ञानविषयः स शब्द एव तथा व्यञ्जक इत्यर्थः । तथा च प्राथमिकान्वयबोधे संस्कारोपनीतं पदमपि भासते तदेव व्यञ्जकं न तु प्राथमिकमिति न विरामदोष इति भावः । ननु व्यङ्ग्यबोधे व्यवहितबोधविषयत्वाविशेषात् कथं शब्द एव व्यञ्जको नार्थ इत्यत आह- श्रर्थोऽपीति, नन्वेवमर्थकरणकतया कथं व्यङ्गयबोधस्य शाब्दत्वमत आह-सहकारित लिखते हैं: - 'यत् सोऽर्थान्तरयुक् तथा । अर्थोऽपि व्यञ्जकस्तत्र सहकारितया मतः " वह व्यञ्जक शब्द दूसरे अर्थ के योग से अर्थात् अपने मुख्य अर्थ का बोध कराने के बाद (तथा) उस प्रकार का होता है अर्थात् दूसरे अर्थ का व्यञ्जक होता है, इसलिए व्यवधानवाला दोष नहीं होता, इस अर्थ को टीकाकार इस तरह स्पष्ट करते हैं । कारिका में 'यत् का अर्थं यस्मात् 'क्योंकि' है, 'स' का अर्थ यहाँ शब्द है । इस तरह अर्थ हुआ कि वह शब्द ही अर्थान्तर अर्थात् व्यङ्गयभिन्न वाक्य से युक्त होकर तथा व्यञ्जक होता है। इस तरह यहाँ वाच्यार्थं सहकारी है । वाच्यार्थ यहाँ सहकारी होकर व्यञ्जक है प्रधान रूप में नहीं । उसी व्यवधायक के व्यवधान को बाघक माना जाता है जो प्रतिकूल और प्रधान हो । जो व्यवधायक अनुगुण (अनुकूल) और अप्रधान (सहकारी) है उसके व्यवधान को करणत्व का बाधक नहीं माना जाता है । यह व्याख्या परमानन्द आदि विद्वानों की है। हमारी राय तो यह है कि कुछ आलंकारिक यह मानते हैं कि अन्वयबोध में संस्कार के कारण उपस्थित पद भी भासित होता है। यह बात वाक्यपदीय को कारिका "न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमारते ।” अनुविद्धमिदं ज्ञानं सर्वं शब्देन भासते ॥” - बतायी गयी है अर्थात् लोक में कोई भी प्रत्यय (बोध) ऐसा नहीं है जो अनुगत शब्द न हो । अर्थात् संसार के समस्त बोध में शब्द अनुप्रविष्ट रहता है। सब ज्ञान शब्दानुविद्ध होकर ही प्रतीतिपथ में भासित होता है । इस तरह प्राथमिक बोध में संस्कार-प्रवाहित पद ही व्यञ्जक होता है; प्राथमिक अर्थ नहीं। इसलिए विरामदोष का भी अवकाश नहीं है । प्रथमार्थ के बाद विराम हो, तब न, " शब्दबुद्धि कर्मणां विरम्य व्यापाराभावः " के लिए अवसर हो, यहाँ तो प्रथमार्थ प्रतीति में भासित पद से द्वितीयार्थ की प्रतीति हो जाती है, इसलिए न विराम है और न व्यापारान्तर या अर्थान्तर का व्यवधान । अतः शब्द को करण बनने में कोई बाधा नहीं हुई । पूर्व समाधान में भी व्यजयबोध एक व्यवहितबोध तो रहा ही। ऐसी स्थिति में शब्द ही क्यों व्यञ्जक हो अर्थ को व्यञ्जक क्यों न मानें ? इसके समाधान में लिखते हैं: अर्थोऽपि ...... सहकारी रूप में अर्थ को भी व्यञ्जक मानते ही हैं। अर्थकरण (अर्थसाधित) होते हुए भी व्यङ्गयबोध शब्द कैसे माना जाता है; इसका समाधान है। “सहकारितया”--अर्थात् अर्थ सहकारीरूप में व्यञ्जक है। केवल अर्थकरणक ज्ञान ही अशाब्द होता है यह ज्ञान (व्यङ्गयबोध) तो अर्थ सहकृत शब्दकरणक है। इसलिए इस ज्ञान में शाब्दत्व की कमी नहीं आयी । Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लासः १४५ JORAMAAL तथेति व्यस्जक: । इति काव्यप्रकाशे 'शब्दार्थस्वरूपनिर्णयो' नाम द्वितीय उल्लासः ॥२॥ येति, केवलार्थकरणकमेव ज्ञानमशाब्दम् इदं त्वर्थसहकृतशब्दकरणकमिति न शाब्दत्वहानिरित्यर्थः । नन्वनेकार्थस्येत्यादिना शब्दस्यैवात्र व्यञ्जकत्वं नार्थस्येति लभ्यते, तथा च 'भद्रात्मन' इत्यादिकाव्यस्य प्रकृष्टव्यङ्ग्यवच्छब्दार्थयुगल तथा व्यङ्गयरहिताधमकाव्यप्रकाशे तत्र व्यञ्जनाव्यवस्थापरशब्दस्य तु परावृत्त्यसहत्वेन प्राधान्यमात्रमिति नोक्तलक्षणक्षतिरिति भावः । वस्तुतस्तु तद्युक्तो व्यञ्जकः शब्द इत्यनेन व्यञ्जनयुक्तशब्दत्वं व्यञ्जकशब्दलक्षणमुक्तं तत्र च शब्दपदं व्यर्थम् अर्थस्यापि आँख से देखने के बाद जो घर का ज्ञान होता है; वह केवल अर्थकरणक है; इसलिए उस चाक्षुष प्रत्यक्ष को अशाग्दज्ञान कहते हैं परन्तु "भद्रात्मनः" इत्यादि में जो द्वितीयार्थज्ञान हुआ है वह अर्थज्ञानसहकृत शब्दकृत है। इसलिए इसे शाब्दज्ञान कहने में कोई बाधा नहीं आयी। (यहाँ से आगे पङ्क्ति में लेखन का कुछ प्रमाद प्रतीत होता है ?) : "अनेकार्थस्य शब्दस्य" इस कारिका में शब्द को व्यजकत्व बताया गया है अर्थ को नहीं; ऐसा प्रतीत होता है । ऐसी स्थिति में" "भद्रात्मनः" इत्यादि श्लोक में जहाँ कि शब्द और अर्थ दोनों मिलजुलकर प्रकृष्ट और प्रप्रकष्ट व्यङ्ग्य से युक्त हैं, उक्त कारिका का लक्षणसमन्वय कैसे होगा? तात्पर्य यह है कि “भद्रात्मनः" यहाँ पूर्वोक्त निर्णय के अनुसार शब्द ही व्यञ्जक है इसलिए शब्द को ही प्रकृष्ट मानना पड़ेगा। व्यजक न होने के कारण अर्थ अप्रकृष्ट है फिर वहाँ उत्तमकाव्य का लक्षण नहीं घटेगा। क्योंकि मम्मट ने स्वयं (सू०२) की वृत्ति में लिखा है कि "व्यङ्गयभावितवाच्यव्यङ्गयव्यञ्जनक्षमस्य ध्वनिरिति व्यवहारः" अर्थात वाच्यार्थ को गौण बना देने वाले व्यङ्गधार्थ को अभिव्यक्ति कराने में समर्थ शब्द और अर्थ दोनों के लिए ध्वनि व्यवहार होता है। "भद्रात्मनः" में तो पूर्व विचार के अनुसार केवल शब्द व्यञ्जक है इसलिए उसे ध्वनिकाव्य नहीं कहा जा सकता। उत्तर है कि वहाँ परिवर्तन को नहीं सहन करनेवाला शब्द प्रकृष्ट व्यञ्जक है और सहकारी अर्थ अप्रकृष्ट व्यजक, इसलिए ध्वनि काव्य के लक्षण के घटने में यहां कोई बाधा नहीं हुई इसलिए अव्याप्तिदोष नहीं हुआ। इसलिये मानना चाहिए कि यह लक्षण शाब्दी व्यकजना का है ? शाब्दी व्यजना वहाँ होती है, जहाँ पर्यायपरिवर्तन से व्यङ्गय में बाधा पडती है। शाब्दी व्यञ्जना में शब्दपरिवर्तन असहनीय होता है । इसीलिए इसको 'शब्दपरिवृत्त्यसह' कहा गया है। इस लिए यहां शब्द की प्रधानता होती है। यही बताने के लिए कारिका में "शब्दस्य" कहा गया है यदि ऐसा न मानें तो अव्याप्ति और अतिव्याप्ति दोष कहां जाएगा; क्योंकि आर्थी व्यञ्जना में जहां अर्थ व्यञ्जक है और शब्द भी व्यञ्जक है तो अतिव्याप्ति दोष होगा। व्यङ्गयरहित अधम काव्य में शब्द है इसलिए यत्र यत्र एवविधशब्दत्वम् तत्र-तत्र व्यङ्गयत्वम्' कहें तो वहाँ भी व्यङ्गय होना चाहिए। परन्तु जब मानते हैं कि शाब्दी व्यञ्जना में शब्द परिवृत्त्यसह होता है तो अधम काव्य में शाब्दी व्यञ्जना का लक्षण नहीं घटता। इस तरह शाब्दी व्यञ्जना और आर्थी व्यञ्जना का भेदकतत्त्व शब्द-परिवृत्त्यसहत्व और शब्दपरिवृत्तिसहत्व को ही मानना चाहिए । “भद्रात्मनः" इस श्लोक में शब्दों के अपरिवर्तनीय होने के कारण शब्दों की प्रधानता के कारण शाब्दी व्यञ्जना मानने पर भी सहकारी के रूप में अर्थ व्यञ्जक है ही, इसलिए ध्वनिकाव्य के लक्षणसमन्वय में बाधा नहीं आयी। अधमकाव्य में "एवंविधशब्दत्व" के होने पर भी परिवर्तनसह शब्द के होने के कारण दोष नहीं हुआ। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ काव्य-प्रकाशः व्यञ्जकत्वेन तत्रातिव्याप्तेरभावादित्यत आह-यदिति, तथा चार्थस्याव्यञ्जकत्वेन तत्रातिव्याप्तिवारणमेव शब्दपदमिति भाव इति व्याचक्ष्महे । नृसिंहमनीषायाः। । इति काव्यप्रकाशे "शब्दार्थ-स्वरूप-निर्णयो" नाम द्वितीयः समुल्लासः।। वस्तुतः “तयुक्तो व्यञ्जकः शब्दः" इसके द्वारा व्यञ्जनयुक्त शब्दत्व को ही व्यञ्जक शब्द का लक्षण कहा गया है ; वहाँ 'शब्द' पद का निवेश व्यर्थ है क्योंकि अर्थ भी व्यञ्जक होता है इसलिए 'शब्द' पद का लक्षण में निवेश नहीं करने पर भी अतिव्याप्ति नहीं दी जा सकती। इसीलिए कहते हैं "यत् सोऽर्थान्तरयुक तथा"। तात्पर्य यह है कि अर्थ के अव्यजक होने के कारण वहाँ सम्भावित अतिव्याप्ति के निवारण के लिए 'शब्द' पद का निवेश किया गया है यह 'नसिंहमनीषा' का तात्पर्य रहा होगा ऐसा हमें लगता है। सू० ३३ और ३४ का अर्थ इस प्रकार है कि 'उस व्यञ्जनाव्यापार से युक्त शब्द व्यञ्जक कहलाता है । .. वह व्यजक शब्द दूसरे अर्थ के योग से (अर्थात् अपने मुख्यार्थ को बोधन करने के बाद उस प्रकार का अर्थात् दूसरे का व्यञ्जक) होता है, इसलिए उसके साथ सहकारी रूप से अर्थ भी व्यञ्जक माना गया है। १. अत्र 'नृसिंहकविकृता नृसिंहमनीषानाम्नी काव्यप्रकाशटीका' इत्यादि खण्डितः पाठः । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय उल्लासः [अर्थव्यञ्जकता-निरूपणात्मकः] [सू० ३५] अर्थाः प्रोक्ताः पुरा तेषाम् - नन्वर्थे निरूपिते तद्धर्मो व्यञ्जना सुनिरूपा भवति, तत् कुतस्तमनादृत्य व्यञ्जनानिरूपणमित्यत आह-अर्था इति, तथा च वाच्यादयस्तदर्थाः स्युरिति ग्रन्थेनैवार्था निरूपिता इति न तदनादर इति प्रदीपकृतः । वयं तु- ननु शब्दव्यञ्जनायामभिधालक्षणा-मूलत्वप्रदर्शनादभिधेयलक्ष्ययोरेवार्थयोरपि व्यञ्जकतोक्तिरर्थव्यञ्जकतोच्यत इत्यनेन मा प्रसाङ्क्षीदिति प्रथममर्थमेवाह-अर्था इति । तथा च न उल्लास संगति , द्वितीय उल्लास में शब्द तथा अर्थ के स्वरूप का निर्णय करते हुए मम्मट ने शब्द के तीन भेद बताये हैं- 'वाचक, लक्षक और व्यञ्जक । अर्थ के तीन भेदों का भी निरूपण किया जा चुका है वे भेद हैं- वाच्य, लक्ष्य और व्यङ्गय । साथ-साथ लाक्षणिक शब्दों के प्रसङ्ग में 'प्रयोजनवती लक्षणा' में प्रयोजन के बोध के लिए व्यञ्जनावृत्ति की आवश्यकता का भी वर्णन किया जा चुका है। वह व्यञ्जना-वृत्ति दो प्रकार की होती है। १-शाब्दी व्यञ्जना और २-आर्थी व्यञ्जना । उनमें शाब्दी व्यञ्जना दो प्रकार की होती है---१-अभिधामूला और २-लक्षणामूला । द्वितीय उल्लास में शाब्दी व्यञ्जना के इन दोनों भेदो का निरूपण किया जा चुका है। इस ततीय उल्लास में प्रार्थी व्यञ्जना के समस्त भेदों का सोदाहरण निरूपण करना है। इसीसे इस उल्लास का नाम "अर्थव्यञ्जकता-निरूपण" रखा गया है। इस उल्लास के प्रारम्भ में पूर्वकथित अर्थों का स्मरण दिलाते हुए ग्रन्थकार आर्थी व्यञ्जना का निरूपण प्रारम्भ करते हुए लिखते हैं- "अर्थाः प्रोक्ताः पुरा तेषाम्"। इसी आशय को टीकाकार यहाँ विविध प्रश्नोत्तरों के द्वारा प्रकट करते हैं अर्थ के भेद-अर्थ के निरूपण किये जाने पर ही उसके धर्म, व्यञ्जना का निरूपण अच्छी तरह किया जा सकता है। इसलिए अर्थ धर्म का निरूपण छोड़कर व्यञ्जना का निरूपण क्यों किया जा रहा है ? इस प्रश्न के उत्तर के लिए कहते हैं-"अर्थाः प्रोक्ताः" अर्थात "वाच्यावयस्तदर्थाः स्युः" इस ग्रन्थ के द्वारा ही अर्थों का प्रतिपादन किया जा चुका है। इसलिए यहाँ अर्थ-निरूपण की ओर से आँख बन्द नहीं करली गयी है। ऐसा मत प्रदीपकार का है। हम तो इस ग्रन्थ की व्याख्या इस प्रकार करते हैं- ग्रन्थकार ने सोचा होगा कि शाळा व्यञ्जना के अभिधामूला और लक्षणामूला के रूप में दो भेद बताये गये हैं इसलिए "अर्थाः प्रोक्ताः" यह न कह कर यदि केवल यही कहें-"अर्थव्यजकतोच्यते" तो किसी को यह भी भ्रम हो सकता है कि "अर्थव्यञ्जकतोच्यते" यहाँ अर्थ पद से अभिधेय भौर लक्षण अर्थ ही लिये गये हैं और इस उल्लास में अभिधेय और लक्ष्य अर्थों की ही व्यञ्जकता बतायी जा रही है, इस भ्रम के निवारण के लिये पहले ही लिख देते हैं- 'अर्थाः इति' इससे यह प्रकट हुआ कि यहां न केवल वाच्य और लक्ष्य की ही व्यन्जकता कही जा रही है किन्तु व्यङ्गय की व्यञ्जकता भी बतायी जा Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ काव्य-प्रकाशः अर्था वाच्यलक्ष्यव्यङ्गयाः। तेषां वाचक-लाक्षणिक- व्यजकानाम् । [सू० ३६] - अर्थव्यञ्जकतोच्यते । कीदृशीत्याहकेवल वाच्यलक्ष्ययोरेव व्यञ्जकतोच्यते, अपि तु व्यङ्गयस्यापीति भावः, अत एव व्यङ्गयमन्तर्भाव्य व्याचष्टे- अर्था इत्यादिनेति व्याचक्ष्महे । तेषामित्यस्यार्थपरत्वे व्यञ्जकतेत्याद्यग्रिमग्रन्थानन्वय इत्यतो व्याचष्टे- वाचकेति । सर्वेषामर्थानामव्यञ्जकत्वमालोक्य पृच्छति-कीदृशीति । वक्त्रिति तथा च सहकारिविशेषविशिष्टानां व्यजकत्वादसार्वत्रिकत्वं न दोषायेति भाव इति प्राञ्चः। वयं त-व्यङ्गयस्यापि व्यञ्जकत्वऽनवस्थापत्तिः अतः कीदृशी सर्वेषामर्थानां व्यञ्जकतेत्यत आहेत्यवतारिकार्थः, वक्त्रिति, तथा च यत्र व वक्त्रादिवलक्षण्यरूपसहकारिसमवधानं तत्र व व्यङ्गयस्यापि व्यञ्जकत्वं नान्यत्रेति नानवस्थेति भावः, अथवा शब्देऽस्तु व्यञ्जना अर्थस्य तु लिङ्गविधयव गमकत्वसम्भवादनुमानेनान्यथा सिद्धेः रही है। इसीलिए व्यङ्गय को भी अर्थों में (वाच्य और लक्ष्य के साथ) अन्तःप्रविष्ट करते हुए लिखते हैं-'अर्धा' इति । अर्थाः प्रोक्ताः पुरा तेषाम्" में तेषाम् पद से यदि अर्थों का परामर्श किया जाय तो कारिका में आगे निर्दिष्ट "अर्थ-व्यजकता" पद का उनके साथ अन्वय नहीं हो सकेगा, इसीलिए वृत्ति में "तेषाम्" की व्याख्या करते हुए लिखते हैं-'वाचकलाक्षणिकव्यञ्जकानाम्" इससे उचित अन्वय होकर अर्थ निकला कि 'अर्थों का वर्णन पहले किया जा चुका है उनके अर्थात् वाचक, लाक्षणिक और व्यञ्जक शब्दों के वाच्य, लक्ष्य और व्यङ्गय तीन प्रकार के जथं बताये जा चु। हैं; उनकी अर्थव्यञ्जकता अर्थात् उन पर आश्रित 'आर्थी व्यञ्जकता' का अब निरूपण करते हैंप्रार्थो व्यञ्जना के भेद सभी प्रकार के अर्थ, व्यञक नहीं हो सकते हैं यह मानकर पूछते हैं कि-'कीदृशी" अर्थात् अर्थव्यजकता किस प्रकार की होती है-वक्तबोद्धव्यकाकूनाम् । (सूत्र ६७) १. वक्ता, २. बोद्धव्य, ३. काकु, ४. वाक्य, ५. वाच्य, ६. अन्यसन्निधि ७-प्रस्ताव, देश, (काल (आदि शब्द ग्राह्य) चेष्टादि के वैशिष्ट्य, से प्रतिभावान् सहृदयों को अन्या की प्रतीति कराने वाला अर्थ का जो व्यापार होता है, वह आर्थी व्यञ्जना हा कहलाता है। वक्त आदि सहकारी-विशेष से विशिष्ट अर्थों में ही व्यञ्जकता स्वीकार की गयी है इसलिए सभी प्रकार के अर्थ यदि व्य क नहीं होते हैं तो यह कोई दोष नहीं है। यह प्राचीन आचार्यों का मत है। हम तो इस प्रकार व्याख्या करते हैं- व्यङ्गय भी यदि व्यञक होगा तो अनवस्थादोष होगा। इसलिए सभी प्रकार के अर्थों की व्यजकता किस प्रकार की होनी चाहिए। इसके लिए कहा गया है "वक्त" इत्यादि यह अवतरण ग्रन्थ का अर्थ है। इस तरह सिद है कि जहाँ बस्तु आदि की विलक्षणतारूप सहकारिता की सत्ता रहेगी वहीं व्यङ्गय भी व्यम्जक होगा, और जगह नहीं। इसलिए व्यङ्ग को ध्यञ्जक मानने में किसी प्रकार की अनवस्था महीं होगी। हमें यह यहाँ के ग्रन्थ का तात्पर्य प्रतीत होता है। अथवा शब्द में व्यजना मानते हैं तो मानिये, अर्थ में व्यञ्जना मानने की तो कोई आवश्यकता है महीं, क्योंकि अर्थ तो लिङ्ग के द्वारा ही व्यजक होगा, लिंग (हेतु) रहने पर सो अनुमान से ही सिद्ध हो जायगा, Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय उल्लासः १४६ [सू० ३७] वक्तृबोद्धव्यकाकूनां वाक्यवाच्यान्यसंन्निधेः ॥२१॥ प्रस्तावदेशकालादेशिष्ट्यात्प्रतिभाजुषाम् । योऽर्थस्यान्यार्थधीहेतुापारो व्यक्तिरेव सा ॥२२॥ कीदृश्यर्थव्यञ्जकतेत्यत आहेति तदर्थः वत्रिति (?) तथा चानुमाने हेतुमात्रमपेक्षणीयमिति वक्त्रादिवैलक्षण्यं विनाऽपि तदर्थबोधापत्तिः अतो वक्तृवैलक्षण्यादिसहकृतव्यञ्जनैव तादृशबोधजनिकेति भाव इति व्याचक्ष्महे । वाक्यवाच्याभ्यां सहितोऽन्यसन्निधिः वाक्यवाच्यान्यसन्निधिः अतो न द्वन्द्वैकवद्भावे नपुंसकत्वमित्यवधेयम् । ननु यद्यर्थस्य व्यञ्जकत्वं तदा कथं न सर्वेषां तादृशार्थप्रतिपत्तिलिङ्गविधया गमकत्वे तु नैष दोषः, व्याप्तिपक्षधर्मताज्ञानवतामेव तत्प्रतीत्यभ्युपगमादित्यत आह-प्रतिभाजुषामिति । प्रतिभा वासना नवनवोन्मेषशालिनी प्रज्ञेति यावत्, तथा च वक्त वैशिष्टयादज्ञानोत्थापितप्रतिभायामेव सत्यां व्यङ्ग्यव्यञ्जना मानने की कोई आवश्यकता नहीं है, यह भी 'कोदशी' इस अवतरण का तात्पर्य हो सकता है। इसका उत्तर देते हुए लिखा गया है "वक्विति" । अर्थात् अनुमान में तो हेतुमान की अपेक्षा रहती है किन्तु व्यञ्जना में वक्त्रादि-वैलक्षण्य की भी आवश्यकता होती है। अनुमान मानने पर वक्त आदि के वलक्षण्य के न रहने पर व्यङ्गयधोध होने लगेगा। तात्पर्य यह है कि 'समान अर्थ रहने पर भी यदि विलक्षण वक्ता या बोद्धव्य आदि नहीं रहता है तो व्यङ्गय नहीं होता है । अनुमान मानने पर तो हेतु रहने से सब जगह व्यङ्गय की प्रतीति होनी चाहिए । इसलिये वक्त-वलक्षण्यादि-सहकृत व्यञ्जना ही उस प्रकार के बोध की जननी है ऐसा मानना चाहिए।' वाक्यवाच्यान्यसन्निधेः" में "वाक्यञ्च वाच्यञ्च" इस विग्रह में पहले द्वन्द्व करके फिर "वाक्यवाच्याभ्यां सहितोऽन्यसन्निधिः” इस विग्रह में शाकपार्थिवः की तरह मध्यमपदलोपी समास माना गया है। इसलिए समाहारद्वन्दु करने से एक वचन की उपपत्ति होने पर भी नपुंसकत्व की प्राप्ति से रूपासिद्धि नहीं हुई। वाक्य, वाच्य और अन्यसन्निधि में यहां त्रिपदद्वन्द्व नहीं माना गया है। यदि अर्थ व्यञ्जक होता है तो अर्थ समझने वाले सभी व्यक्तियों को उस प्रकार के अर्थ की (व्यङ्गय अर्थ की) प्रतिपत्ति क्यों नहीं होती ? यदि लिङ्ग की विधा अर्थात् अनुमान से प्रतीति मानते हैं तो दोष नहीं होता, क्योंकि अनुमानजन्य बोध व्याप्ति, पक्षधर्मता (यत्र यत्र धुमस्तत्र तत्र वहि नरिति साहचर्यनियमो व्याप्ति: व्याप्यस्य पर्वतादिवृत्तित्वं पक्षधर्मता) ज्ञान रखने वालों को ही होता है । इस प्रश्न के उत्तर के लिए कहते हैं :-"प्रतिभाजुषाम्" अर्थात् वासनावाले सहृदयों को ही व्य इम्यबोध होता है। अर्थ समझनेवाले यदि सहृदय नहीं है, तो उन्हें व्यङ्ग्यबोध नहीं होगा। 'प्रतिभाजूषाम' का अर्थ है प्रतिभासम्पन्नानाम । प्रतिभा का अर्थ है वासना, नवीन नवीन उद्भावना से शोभायमान प्रज्ञा (बुद्धि)। इस तरह वक्तबोद्धव्य आदि ज्ञान से उत्थापित प्रतिभा रहने पर ही व्यङ्ग्य की प्रतीति होगी। इसीलिए व्याप्तिज्ञान में विलम्ब होने पर जैसे अनुमान में विलम्बता आती है इस तरह व्यङ्ग्य बोध बक्त आदि शान से उत्यापित प्रतिभा से प्रतिभा में ही हो जाता है। अतः अनुमान से व्यजना की अन्यथासिद्धि नहीं दिखायी जा सकती । कारिका में व्यक्ति' का अर्थ "व्यञ्जना" है । बोद्धव्य का अर्थ 'बोधितु योग्यः" इस व्युत्पत्ति से 'वाच्य' ही होता है ऐसी स्थिति में 'वाच्य' के साथ पुनरुक्त दोष न हो जाए इसलिए "बोधयितु योग्यः बोद्धव्यः" इस व्युत्पत्ति के द्वारा ण्यन्त बुध धातु से 'बोद्धव्य' शब्द की सिद्धि मानकर अन्तर्भावित ण्यर्थ के रूप में इस शब्द की व्याख्या करते हैं- "प्रतिपाद्यः" अर्थात् श्रोता वह व्यक्तिविशेष जिसे कहा जाता हो । पूर्व निर्दिष्ट (अन्तर्भावित Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० तृतीय उल्लासः बोद्धव्यः प्रतिपाद्यः । काकुलनेर्विकारः । प्रस्ताव: प्रकरणम् । अर्थस्य वाच्यलक्ष्यव्यङ्गयात्मनः । क्रमेणोदाहरणानि । अइपिहुलं जलकुभं घेत्त रण समागदह्मि सहि तुरिन। समसेअसलिलणीसासणीसहा वीसमामि खणं ॥१३॥ (अतिपृथुलं जलकुम्भं गृहीत्वा समागतास्मि सखि ! त्वरितम् । श्रमस्वेदसलिलनिःश्वासनिःसहा विश्राम्यामि क्षणम् ॥१३॥) प्रतीतिः न तु व्याप्त्यादिज्ञानविलम्बेन विलम्ब इति नानुमानेनान्यथा सिद्धिर्व्यञ्जनाया इति भावः । व्यक्तियंजना, बोद्धव्यपदस्य वाच्यार्थत्वे पौनरुक्त्यापत्तेरन्तर्भावितण्यर्थतया व्याचष्टे-प्रतिपाद्य इति पुरुषविशेषः, एवमनवस्थोद्धारे व्यङ्गयस्यापि व्यञ्जकत्वसम्भवात् मर्वेषामेवार्थानां व्यञ्जकत्वें. योऽर्थ- . स्येत्यर्थपदं वाच्यलक्ष्यव्यङ्गयरूपसकलार्थपरतया व्याचष्टेऽर्थस्य वाच्यलक्ष्यव्यङ्गयात्मन इति, यद्वा व्यङ्गयात्मन इत्यत्र व्यङ्गयपदेन शब्दव्यङ्गयार्थव्यङ्गययोरुपादानम्, तथा चार्थस्य लिङ्गविधया गमकत्वे (ऽनुमिता) [व्यङ्ग्या] नुमानाश्रयणेन व्याप्तिपक्षधर्मताज्ञानविलम्बेन विलम्बिनी तत्प्रतीतिः स्यादिति नानुमानेन व्यञ्जनान्यथासिद्धिरिति भावमाकलयामः । ___क्रमेणेति । प्रतिज्ञामात्रेणार्थासिद्धिरित्यनुभवं प्रमाणयितुमुदाहरणानि क्रमेण दीयन्त इत्यर्थः । अइ-इति अतिपृथुलं जलकुम्भं गृहीत्वा समागताऽस्मि सखि ! त्वरितम् । श्रमस्वेदसलिलनिःश्वास-निस्सहा विश्राम्यामि क्षणम् ।।१३।। , ण्यर्थात्मक व्याख्यादि) उपाय द्वारा इस तरह अनवस्था दोष का निराकरण करने पर व्यङ्ग्य को भी व्यञ्जकत्व की सम्भावना जब मान ली गयी तब सभी अर्थों की व्यञ्जकता स्वयं सिद्ध हो जाती है। ऐसी स्थिति में “योऽर्थस्य" यहाँ के 'अर्थ'पद वाच्य, लक्ष्य और व्यङ्ग्यरूप सभी अर्थों का बोधक है ऐसी व्याख्या करते हुए लिखते हैं "अर्थस्य वाच्यलक्ष्यव्यङ्ग्यात्मनः"। अथवा "व्यङ्गयात्मनः" यहाँ व्यङ्गयपद से शब्दव्यङ्गय और अर्थव्यङ्गय दोनों प्रकार के व्यङ्गयों का उपादान माना गया है। इस तरह ग्रन्थकार यह बताना चाहते हैं कि अर्थ यदि लिङ्गविधा से (लिङ्गरूप में) गमक अर्यात् अनुमापक बनेगा, तो अनुमेयत्वेन अभिमत अर्थात् अनुमेय माना गया वह व्यङ्गय अनुमान के आश्रय के कारण (अनुमान में अपेक्षित) व्याप्ति और पक्ष धर्मताज्ञान के विलम्ब से विलम्बसे प्रतीत होने लगेगा इसलिए अनुमान से व्यन्जना की अन्ययासिद्धि नहीं मानी जा सकती, यह भाव यहाँ प्रतीत होता है। "क्रमेण दाहरणानि" केवल प्रतिज्ञा मात्र से अर्थात् कोई वस्तु कथनमात्र से प्रमाणित नहीं हो जाती है यह हम सब जानते हैं अत: इसे प्रमाणित करने के लिए क्रमिक उदाहरण देते हैं। आर्थीव्यञ्जना के उक्त दसों प्रकारों के क्रमशः उदाहरण इस प्रकार हैं : १. वक्ता के वैशिष्टय में व्यञ्जना का उदाहरण-'अइ पिहल' इत्यादि कोई अपनी सखी से कहती है कि हे Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय उल्लासः अत्र चौर्यरतगोपनं व्यज्यते । प्रोण्णिदं दोव्वल्लं चिंता अलसत्तणं सणीससिघ्रं । ___ जलकुम्भं जलपूर्णकुम्भं तेन दुर्वहत्वं, गृहीत्वेत्यनेन मयेवोत्थाप्य गृहीतो न त्वन्यया साहाय्यमाचरितमित्यायासातिशयो व्यज्यते, सहो बलं, अत्रेति स्वैरिणीप्रतिपादितत्वेन प्रतिसन्धीयमानत्वाद् वाच्यार्थ एव रतकार्य श्रमादिकं जलपूर्णकुम्भानयनादिजन्यत्वेन प्रतिपादयतीति व्यज्यते, अनुमानस्य वक्तवलक्षण्यज्ञानानपेक्षतया वाच्यार्थमात्रस्य साध्वीप्रतिपादितस्य गोपनव्यभिचारित्वादिति भावः, एवमग्रेऽप्यूह्यम् । अत्र जलपदं जलपूर्णे लाक्षणिकम्, गृहीत्वेति पदं स्वयमेवोत्थाप्य गृहीतत्वरूपान्तरसङ्क्रमितवाच्यमिति, लक्ष्यार्थस्यापि व्यञ्जकत्वं, तथा तद्र्व्यव्यङ्गययोदुर्वहत्वायासातिशययोरपि व्यञ्जकत्वमाकलनीयम् । प्रोगिह मिति औन्निद्रयं दौर्बल्यं चिन्ताऽलसत्वं सनिःश्वसितम् । सखी, मैं बड़ा भारी पानी से भरा हुआ घड़ा लेकर बहुत वेग से आ रही हूँ। परिश्रम के कारण पसीना और निःश्वास से परेशान हो गयी है। इसलिए थोड़ी देर यहाँ बैठकर विश्राम करूंगी। व्यङ्गय "जलकुम्भम्" का अर्थ है जल से भरा हुआ घड़ा। इससे उसके भारी होने की तथा उठाने में कठिनाई की प्रतीति होती है। 'गृहीत्वा' पद से सूचित होता है कि 'मैंने ही इसे उठाया है और मैं ही यहाँ तक लायी है किसी और ने इस काम में किसी प्रकार की सहायता नहीं पहुंचायी है।' इस तरह इन पदों से अतिशय आयास व्यङ्गय होता है। (सहो बलम) (यहाँ कुछ अस्पष्ट है) "अत्र चौर्यरतगोपनं व्यज्यते" इसमें वक्ता के वैशिष्टय से चौर्यरत छिपाने की प्रतीति होती है। . इस पद्य की वक्त्री स्वैरिणी नायिका है इस पूर्वज्ञान के कारण श्लोक का जलपूर्ण घट के आनयनादि रूप में निर्दिष्ट वाच्यार्थ ही रतकार्य श्रमादि को अभिव्यक्त करता है अनुमान के द्वारा नहीं जाना जा सकता। क्योंकि अनुमान वक्ता के विलक्षण होने से बदलता नहीं है। 'पर्वतो बुद्धिमान्' का वक्ता कोई भी हो, अनुमान तो होगा ही। परन्त "अतिप्रथलम्" इस पद्य की वक्ता यदि साध्वी होती तो यहाँ चौर्यरतगोपनरूप व्यङ्गच की प्रतीति नहीं होती। इसलिए “यत्र यत्रवंविधोऽर्थः तत्र-तत्र चौर्यरतगोपनम्" इस साहचर्यनियम में व्यभिचार आने के कारण व्याप्तिग्रह के अभाव में अनुमान नहीं हो सकता। इसी तात्पर्यविशेष को सूचित करने के लिए यहाँ 'व्यज्यते' शब्द का प्रयोग किया गया है। 'व्यज्यते' शब्द ने जोर देकर सूचित किया है कि "व्यज्यते न तु अनुमीयते"। यहां "जलम्भम्" में जलपद लक्षणा के द्वारा जलपूर्ण अर्थ को प्रकट करता है । "गृहीत्वा" पद समानकर्ता होने पर विधीयमान क्त्वा प्रत्यय से युक्त होने के कारण स्वयं ही उठाकर लाने का अर्थ प्रकट करता है. इसलिए यहाँ 'ग्रहीत्वा' पद स्वयं ही उठाकर लाने जैसे अर्थान्तर में संक्रमित हो गया है अत: यहाँ अर्थान्तर वाच्य है। इस प्रकार पूर्वोक्त पद्य में न केवल वाच्यार्थ की व्यञ्जकता दिखायी गयी है किन्तु लक्ष्यार्थ की व्यञ्जकता भी लक्षित होती है। इसी तरह यहाँ पूर्वोक्त दोनों लक्ष्यार्थों के व्यङ्गय-दुर्वहत्व (अत्यन्त भारीपन) और उसे उठाकर लाने में अत्यन्त परिश्रमरूप अर्थ भी व्यञ्जक हैं। इसलिए इस पद्य में व्यङ्गयार्थ की व्यञ्जकता भी दिखायी गई है। अतः यहाँ वाच्य, लक्ष्य और व्यङ्गय तीनों प्रकार के अर्थों की व्यञ्जकता जाननी चाहिए। २. बोद्धव्य वैशिष्टय में व्यञ्जना का उदाहरण-ओण्णि इत्यादि । खेद है कि हे सखि, मुझ मन्दभागिनी Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ काम्य-प्रकाश मह मंदभाइणीए केरं सहि तुह वि अहह परिहवइ ॥१४॥ (औन्निद्रय दौर्बल्यं चिन्तालसत्वं सनिःश्वसितम्। मम मन्दभागिन्याः कृते सखि त्वामपि अहह! परिभवति ॥) अत्र दूत्यास्तत्कामुकोपभोगो व्यज्यते । तथाभूतां दृष्ट्वा नृपसदसि पाञ्चालतनयां, वने व्याधैः साकं सुचिरमुषितं वल्कलधरैः । मम मन्दभागिन्याः कृते त्वामप्यह ! परिभवति ॥१४॥ (श्लोकः) तुहेति कर्मणि षष्ठी, तुहेति कर्मणि निपात एवेत्यन्ये । अत्रेति कालान्तरावगतापराधायाः प्रतिपाद्याया इति शेषः, तेन सम्बोध्यवैलक्षण्यवशादेतद् व्यङ्गयभानमित्यर्थः । अत्र मम कृत. इत्यस्य विपरीतलक्षणया स्वकृत इति मन्दभागिन्या इत्यस्य भाग्यवत्या इत्यर्थे लक्ष्यस्य व्यञ्जकत्वम्, कामुकोपभोगेन दूतीकामुकयोरपराधव्यञ्जने व्यङ्गयस्यापि व्यञ्जकत्वमाकलनीयम् । तथाभूतामिति । तथाभूतामाकृष्टवसनां गृहीतकेशादिकामनुचितारम्भः सेवाङ्गीकारः, खिन्ने दुःखिते, खेदं कोपं खिद्यतेऽनेनेति व्युत्पत्तेः । अत्र तथाभूतामिति सामान्यवचनेन विशिष्यवचने लज्जा, नृपसदसि न तु ग्राम्यसदसि, पाञ्चालतनयां न तु ग्रामीणतनयां, वने न तु गृहे, व्याधैर्न तु राजभिः, सुचिरं न तु क्षणमात्रम्, उषितं न तूपविष्ट, वल्कलधरैः न तु दुकूलधरैः, विराटस्य सम्बन्धिनो न तु अपरिचितस्य कस्यापि, अनुचितारम्भेण न तु राजोचितेन, निभृतं न तु प्रकाशमित्यादीनामनौद्धत्यप्रकाशकतया कुरुषु योग्य इति व्यङ्गयान्तरग्राहकत्वं, न चेति, वाच्यं, वक्तव्यं, व्यङ्ग्यमेव तथा च वाच्यस्य व्यङ्गयस्य सिद्धयङ्गप्रतीतिकारणं के कारण अनिद्रा (नींद का न आना), दुर्बलता, चिन्ता, आलस्य, निःश्वास आदि (कष्ट) तुझे भी भोगने पड़ रहे हैं। 'तह' यहाँ कर्म में षष्ठी है। कोई 'तुह' शब्द को कर्म अर्थ में निपात मानते हैं। पूर्वोक्त श्लोक में अनेक अन्य अवसरों पर व्यभिचारादि अपराध करने वाली प्रतिपाद्या दूती का उस नायिका के कामुक के साथ उपभोग व्यङ्गय है । "अत्र इत्याः" यहाँ 'दूत्याः' से “पूर्व कालान्तरावगतापराधायाः प्रतिपाद्यायाः" इन पदों का शेष (अध्याहार) मानना चा ए। इससे यहाँ सम्बोद्ध य (प्रतिपाद्य या बोद्धव्य) के वैशिष्टय से (तत्कामुकोपभोग) व्यङ्गय का भान होता है। यहाँ मम कृते (मेरे कारण) और मन्दभागिनी (अभागिनी) इत्यादि पदों में विपरीत लक्षणा मानी गयी है इसलिए क्रमश: इनका अर्थ होता है "अपने लिए" और 'भाग्यवती'। इस प्रकार यहाँ लक्ष्य अर्थ में व्यजकता है। कामुक के उपभोग द्वारा दूती और कामुक दोनों के अपराध को व्यङ्गय मानने पर व्यङ्गय में भी यहाँ व्यञ्जकता आती है। इस तरह यहाँ भी विविध अर्थों में व्यञ्जकता देखी जा सकती है। ३. काकू के वैशिष्टय में व्यजना का उदाहरण -"तथाभूताम् दृष्ट्वा.."काकू का अर्थ होता हैविशेष प्रकार की कण्ठध्वनि अर्थात् बोलने का विशेष प्रकार का लहजा ! उस विशेष प्रकार के बोलने के ढंग से जो अर्थ की व्यञ्जना होती है उसी का प्रतिपादन यहाँ किया गया है । 'वेणीसंहार' नाटक के प्रयम अङ्क में सहदेव की भीम से कहता है कि 'आपके इस व्यवहार को सुनकर "कदाचित् खिद्यते गुरुः" शायद गुरु अर्थात् युधिष्ठिर नाराज हों।' इसके उत्तर में भीमसेन की यह उक्ति है कि “गुरुः खेदमपि जानाति" अच्छा गुरु अर्थात् राजा युधिष्ठिर नाराज होना भी जानते हैं तो फिर-- उस राजसभा में पाञ्चाली (द्रौपदी) की उस प्रकार की (बाल और वस्त्र खींचे जाने Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय उल्लास: १५३ विराटस्यावासे स्थितमनुचितारम्भनिभृतं, गुरुः खेदं खिन्ने मयि भजति नाद्यापि कुरुषु ॥१५॥ अत्र मयि न योग्यः खेदः कुरुषु तु योग्य इति काक्वा प्रकाश्यते । काकुरिति गुणीभूतव्यङ्गयं काक्वाक्षिप्तत्वरूपं न शङ्कयमित्यर्थः । प्रश्नेति । सहदेव ! गुरुः खेदं मयि जानातीति प्रश्नोपक्रमे श्लोकावतारादत्रापि किमिति गुरुमयि खेदं भजति न कुरुष्विति प्रश्नपरत्वे काक्वा ग्राहिते प्रकृतवाक्यार्थादेव व्यङ्गयार्थोपस्थितिरिति न काकुः तदुपस्थितिजनिका, यत्र तु व्यङ्गयार्थोप की) अवस्था को देखकर (गुरु नाराज नहीं हुए. उनको क्रोध नहीं आया),फिर वन में वल्कल धारण करके (बारह वर्ष) तक व्याधों के साथ रहते रहे (तब भी उनको क्रोध नहीं आया), फिर विराट् के घर में (रसोइया आदि के) अनुचित कार्यों को करके छिपकर जो हम रहे (उस समय भी गुरु को क्रोध नहीं आया) और आज भी उनको कौरवों पर तो क्रोध नहीं आ रहा है (जो कि आना चाहिए था) इसके विपरीत मैं जब कौरवों पर क्रोध करता हूँ तो वे मुझ पर नाराज होते हैं। यहाँ मुझ पर नाराज होना उचित नहीं है, कौरवों पर नाराज होना उचित है, यह काकु से प्रकाशित होता है। शब्दार्थ-- तथाभूताम् = वस्त्र रहित की गयी तथा बाल पकड़कर खींची गयी। अनुचितारम्भः= अनुचित कार्य करना, क्षत्रियों के लिए निन्दनीय कार्य नौकरी करना, वह भी रसोइया आदि का कार्य करना। खिन्ने-दुःखी होने पर । खेदः कोप । खिद्यते दुःखी होते हैं, जिससे, वह खेद कहलाता है अर्थात् कोप । "तथाभूताम्" इस सामान्य वचन से यह प्रकट होता है कि द्रौपदी के साथ जो दुर्व्यवहार हुआ उसे स्पष्ट शब्दों में उन दुर्व्यवहारों के वाचक शब्दों के द्वारा प्रकट करने में लज्जा आती है। जिसे शब्द से बोलने में भी लज्जा आती है उसको भोगनेवाली द्रौपदी को कितना दुःख और लज्जा आयी होगी यह कौन कह सकता है ? "नृपसदसि" राजसभा में गांव की सभा में नहीं । “पाञ्चालतनयाम्"=राजा की सम्मान्य कन्या का अपमान हुआ, किसी ग्रामीण कन्या का नहीं। हम लोग 'वन में' रहे न कि 'घर में' । 'व्याधों' के साथ रहे राजाओं के साथ नहीं । 'सुचिरम" एक लम्बी अवधि तक, लम्बे बारह सालों तक, एक क्षण नहीं। "उषितम्" रहना पड़ा, बैठे नहीं। “वल्कलधरः" वल्कल धारण करके समय बिताया, 'दुकूल' पहनकर नहीं। विराट के यहाँ जो सम्बन्धी हैं; रहना पड़ा, ऐसा नहीं कि किसी अपरिचित के यहाँ रहे थे। 'अनुचितारम्भेण' अनुचित कार्य व्यवसाय करके रहे थे, ऐसा नहीं कि क्षत्रिय और राजा के योग्य कोई कार्य किया हो । निभृतम्-चुपचाप बिताया; खुले आम नहीं इत्यादि पद अनौद्धत्य-प्रकाशक हैं तब तो उचित था कि अनुद्धत हम लोगों पर युधिष्ठिर क्रोध नहीं करते अपितु कुरुवंशियों दुर्योधनादिकों पर उनका क्रोध करना उचित था, इत्यादि अन्यान्य व्यङ्गयों की प्रतीति यहाँ काकु के द्वारा होती है। यहाँ यह प्रश्न होता है कि जैसे “मथ्नामि कौरवशतं समरे न कोपात्" इस श्लोक में 'यदि तुम्हारे राजा अर्थात् युधिष्ठिर किसी शर्त पर कौरवों के साथ सन्धि कर लें, तो क्या मैं युद्ध में सौ कौरवों का नाश करना छोड़ दूगा ?' इत्यादि वाच्यार्थ, इसके वक्ता भीम के बोलने के रीति-विशेषरूप काकु से यह व्यङ्गय अर्थ प्रकट करता है कि 'भले ही युधिष्ठिर सन्धि कर लें, मैं तो कौरवों का नाश करके ही रहूँगा' और यहाँ जैसे काकु से आक्षिप्त होने के कारण व्यङ्ग्यकाव्य माना गया है उसी तरह "तथाभूतां दृष्ट्वा" इस पद्य में 'काक्वाक्षिप्त' गुणीभूत व्यङ्गय मानना चाहिए Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ काव्य-प्रकाशः न च वाच्यसिद्धयङ्गमत्र काकुरिति गुणीभूतव्यङ्गयत्वं शङ्कयम् । प्रश्नमात्रेणापि काकोविश्रान्तेः । स्थितिपर्यन्तं काकुव्यापारस्तत्र गुणीभूतव्यङ्गयत्वमिति काक्वा प्रकाश्यत इति केचित् । तन्न । काकुव्यङ्गयत्वेऽप्यर्थव्यञ्जकत्वक्षतेरभावेन शङ्काया अनुत्थानात्, काकुमात्रस्याव्यञ्जकत्वादिति काक्वा प्रकाश्यत इति पूर्वग्रन्थविरोधेनार्थोपस्थितिपर्यन्तं काकोर्व्यापारस्वीकारेऽप्यर्थव्यञ्जकताऽनपायेन चोत्तर. अथवा यहां काकु से यह प्रश्न निकलता है कि 'क्या गुरु (युधिष्ठिर) मुझ पर नाराज हो रहे हैं, कौरवों पर नहीं ?' और दूसरी बात यह प्रतीत होती है कि 'युधिष्ठिर का मुझ पर क्रोध करना उचित नहीं है। उनको मेरे स्थान पर कौरवों पर क्रोध करना चाहिए था' यह दूसरा अर्थ व्यङ्गय अर्थ है। यह व्यङ्गय अर्थ काकु से उपस्थित प्रश्न की सिद्धि का अङ्ग प्रतीत होता है, इसलिए यहाँ वाच्यसिद्धि के अङ्ग होने के कारण वाच्यसिद्धयङ्ग नामक गुणीभूत व्यङ्गय मानना चाहिए, यह प्रश्न वृत्ति के "न च वाच्यसिद्धधङ्गमत्र काकुरिति गुणीभूतव्यङ्गय शक्यम्" इस वाक्य से प्रकट, . हुआ है । उत्तर इस वाक्य से दिया गया है "प्रश्नमात्रेणापि काकोविश्रान्तेः" । तात्पर्य यह है कि यहाँ पूर्वनिर्दिष्ट व्यङ्गय अर्थ को काकू का अङ्ग मानने की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि यहाँ काकु की विश्रान्ति प्रश्नमात्र प्रस्तुत कर देने से हो सकती है । उससे व्यङ्गयार्थ आक्षिप्त नहीं होता; इसलिए यहाँ 'काक्वाक्षिप्त' नहीं है । प्रश्नमात्र करके वाच्य कृतार्थ हो गया है। अतः उसकी सिद्धि के लिए किसी व्यङ्गयविशेष की यहाँ आवश्यकता नहीं है। इसलिए यहाँ वाच्यसिद्धयङ्ग भी नहीं माना जा सकता, अतः यहाँ गुणीभूत व्यङ्गय होने की शङ्का नहीं करनी चाहिए। यही बात अपने ढंग से बताते हुए टीकाकार लिखते हैं "न चेति वाच्यम्" का अर्थ है "वक्तव्यम्"। यह प्रश्नवाक्य का शब्दार्थ है। 'यहाँ वक्तव्य जो व्यङ्गय है उसकी सिद्धि का अङ्ग अर्थात् प्रतीति का कारण काकु है इसलिए काक्वाक्षिप्त नामक गुणीभूतव्यङ्गय होने की शङ्का नहीं करनी चाहिए। प्रश्नवाक्य की नयी व्याख्या प्रस्तुत करके अब उत्तरवाक्य की व्याख्या प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं । पहले किसी अन्य का मत प्रस्तुत करते है :-"कोई कहते हैं कि इस श्लोक के पहले एक प्रश्नवाक्य आया है। सहदेव कहता है कि 'कदाचित् खिद्यते गुरुः' शायद आप पर (भीम पर) युधिष्ठिर नाराज हो जाय ? इस पर भीम कहता है कि 'सहदेव, क्या युधिष्ठिर नाराज होना भी जानते हैं ?' इस प्रकार प्रश्न के प्रकरण में श्लोक के आने के कारण "क्यों युधिष्ठिर मुझ पर ही नाराजगी लाते हैं कौरवों पर क्रोध क्यों नहीं करते" इस प्रश्न को उपस्थित कराकर काकु समाप्त हो जायगा। इसलिए श्लोक के वाक्यार्थ से ही व्यङ्गयार्थ की उपस्थिति होगी। इस तरह काकु यहाँ व्यङ्गय अर्थ की उपस्थिति की जननी नहीं है। काक्वाक्षिप्त गुणीभूत व्यङ्गय तो वहाँ होता है, जहां व्यङ्गय अर्थ की उपस्थिति पर्यन्त काकु का व्यापार रहता है यह बात 'काक्वा प्रकाश्यते' शब्द से सूचित होती है यह मत ठीक नहीं है क्योंकि यह यदि काक्वाक्षिप्त गुणीभूत व्यङ्गय का उदाहरण हो तो भी यहाँ अर्थव्यञ्जकता है ही। यहाँ केवल अर्थव्यञ्जकता का उदाहरण देना अभीष्ट है । काकु से व्यङ्गय अर्थ गुणीभूत व्यङ्गय हो, या प्रधान; इससे प्रकृत उदाहरण में कोई अन्तर नहीं पड़ता है इसलिए इस प्रकार का प्रश्न उठ ही नहीं सकता था। काकुमात्र में यहाँ व्यञ्जकता नहीं है (इसलिए यहाँ काक्वाक्षिप्त व्यङ्गय नहीं है) यह कथन 'काक्वा प्रकाश्यते' इस पूर्व ग्रन्थ से विरुद्ध होगा। 'काक्वाक्षिप्त वहाँ होता है जहाँ व्यङ्गय अर्थ की उपस्थिति पर्यन्त काकु का व्यापार रहता है' ऐसा स्वीकार करने पर भी अर्थव्यञ्जकता का उदाहरण देना अभीष्ट है इसलिए ऐसा प्रश्न उठाना चाहिए जिससे इसकी अर्थव्यञ्जकता में कोई दोष प्रकट हो और उत्तर भी ऐसा होना चाहिए जो इसकी अर्थव्यञ्जकता को प्रमाणित कर दे। इस तरह "केचित" के द्वारा प्रकट किया हुआ मत उपयुक्त नहीं है। Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय उल्लास: ' १५५ स्याप्यसङ्गतेश्च । अतएव मथ्नाम्येवेतिवद् वाच्यनिषेधशिरस्कप्रतीतेरसत्त्वान्न काक्वाक्षिप्तमित्युत्तरार्थोपवर्णनं मधुमतीकृतामपास्तम्, शङ्काया एवानुत्थानात् । अपरे तु कुरुष न भजतीति नत्र [I] काकुः किमर्थात् ततः स्वरूपाच्च किमर्थ एव हठाक्षिप्त इति तस्यैव गुणीभावो न्याय्यो न तु क्रमेणापि काक्वा व्यङ्गयो गुणीभूतो भवतीत्युत्तरार्थ इत्याहुः, तदपि न, क्रमेण व्यङ्गयस्य गुणीभावानभ्युपगमेऽपि काकुसहकारेण वाच्यस्य व्यञ्जकत्वोदाहरणतानपायात् । सुबुद्धिमिश्रास्तु पर्यवसिते वाक्यार्थेऽर्थान्तरप्रतीती अर्थव्यञ्जकत्वं ध्वनित्वं च, इह तु खिन्ने खेदस्यायोग्यत्वे नानौचित्य रूपव्यङ्गयमादायव 'गुरुः खेदं खिन्ने मयि भजति नाद्यापि कुरुष्वि'ति अनुचितमिति वाक्यार्थपर्यवसानं, यथा 'मध्नामि कौरवशत' मित्यत्र मथनाभावस्य तदभावरूपव्यङ्गयस्य चैकदैव भानं, तथा चात्र वाच्यस्य सिद्धिर्ज्ञानं तदङ्ग तद्विषयः काकः काकव्यङ्गयमनौचित्यमित्यक्षरार्थः । तेन काक्वाक्षिप्तगुणीभूतप्रभेदोऽयमिति नार्थव्यञ्जकतेति शङ्कार्थः, काकुस्वरेण न साक्षादेवानौचित्यरूपं इस खण्डन से मधुमतीकार का यह कथन कि "मध्नामि कौरवशतम्" इस पद्य की तरह "यहां वाच्य के निषेधपूर्वक व्यङ्गय की प्रतीति नहीं होती। इसलिये काक्वाक्षिप्त नहीं है" भी खण्डित हो गया। क्योंकि काक्वाक्षिप्त होने पर भी यहां ग्रन्थकार जिस अर्थव्यञ्जना का उदाहरण देना चाहता है, उसमें कोई कमी नहीं आती। अत: पूर्वोक्त प्रश्न ही नहीं उठता। कुछ विद्वानों ने उत्तरवाक्य का एक नया अभिप्राय बताया है उसे टीकाकार 'अपरे तु' शब्द से प्रारम्भ होने वाले वाक्यों से बताते हैं :-कुछ विद्वानों का कहना है कि "कुरुषु न भजति खेदम्" कौरवों पर नाराज नहीं होते है, यह यहाँ काकु है । उससे यहाँ किमर्थ आता है, अर्थात् कौरवों पर नाराज क्यों नहीं होते ? इस तरह काकु से यहां किमर्थ ही आक्षिप्त है इसलिये प्रश्न को ही यहां गौण बनकर प्रकट होना उचित है । यह उचित नहीं है कि कम से (आगत) काकु के द्वारा प्रकट होने वाला व्यङ्गय भी गुणीभूत बन जाय यही यहाँ 'प्रश्नमात्रेणापि काकोविश्रान्तेः' इस उत्तरवाक्य का तात्पर्य है । परन्तु उनका यह कथन भी ठीक नहीं हैं क्योंकि क्रमागत व्यङ्गय को यहाँ गुणीभाव नहीं भी मानें तो भी काकु के सहकार से प्रतीत वाच्य के व्यञ्जकत्व का उदाहरण होने में कोई कमी नहीं आती है। सुबुद्धि मिश्र ने प्रस्तुत ग्रन्थ को इस तरह समझा और समझाया है- उनके अनुसार वाक्यार्थ-सम्पन्न होने पर जब दूसरे अर्थ की प्रतीति होती है तब अर्थव्यञ्जकत्व या ध्वनित्व माना जाता है। यहाँ 'तथाभूतां दृष्टवा' में खिन्न पर खेद (नाराज होना) के अयोग्य होने के कारण अनुचितत्वरूप व्यङ्गय अर्थ को लेकर ही 'गुरुः खेदं खिन्ने मयि भजति नाद्यापि कुरुषु' इसका 'अनुचित' रूप वाक्यार्थ सम्पन्न होता है । जैसे "मथ्नामि कौरवशतम्" यहाँ पर मथनाभावरूप वाच्य और मथनाभावारूप (मधुंगा ही) व्यङ्गय दोनों का एक साथ ही भान होता है । यह इस तरह यहाँ वाच्य की सिद्धि अर्थात् ज्ञान उसका अङ्ग अर्थात् उसका विषय काकु है, उसके द्वारा व्यङ्गय है अनौचित्य, यह मूल वृत्ति का अक्षरानुसारी अर्थ है। इस तरह यहाँ काक्वाक्षिप्त गुणीभूत व्यङ्गय का ही यह एक भेद है किन्तु अर्थव्यञ्जकता नहीं है, यह शंका का तात्पर्य है और उत्तर-का तात्पर्य यह है कि काकु के स्वर से साक्षात् ही अनौचित्यरूप व्यङ्गय की उपस्थिति यहां नहीं होती है, यदि साक्षात् उपस्थित होती तो वाच्य और व्यङ्गय दोनों एक ज्ञान के विषय बनते; किन्तु यहाँ का कुस्वर प्रश्न के द्वारा अनौचित्य रूप व्यङ्गय का परम्परासम्बन्ध से उप-स्थापक होता है, इस तरह ‘गुरुः किमिति मयि खेदं भजति न कुरुषु' युधिष्ठिर क्यों मुझ पर नाराज होते हैं; कौरवों पर Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्य प्रकाशः व्यङ्गयमुपस्थाप्यते येन वाच्यव्यङ्गययोरेकज्ञानविषयता स्यादपि तु प्रश्नद्वारा, तथा गुरुः किमिति मयि खेदं भजति न कुरुध्विति काकुव्यङ्गय प्रश्नघटितवाक्यार्थे पर्यवसन्ने तेनानौचित्यरूपव्यङ्गयभानमित्युत्तरार्थ इत्याहुः । तदप्यसत् । मयि न योग्य इत्यस्यानौचित्यार्थकत्वे कुरुषु योग्य इत्यस्य कुरुविषयककोपौचित्यार्थकस्य कुरुविषयककोपाभावानौचित्यार्थकतया मूलविरोधात् ।। इतरे तु कुपितोद्धतनायकोक्तवाक्यस्य निश्चितं विपर्ययपर्यवसायित्वं न काकुप्रकाश्यमर्थ विनाऽत्र निर्बहतीति व्यङ्गयस्य वाच्यसिद्धाङ्गत्वरूपगुणीभूततृतीयभेदतेति शङ्कार्थः, न काकुरत्र व्यजिका किन्तु काक्वा प्रश्नमात्रत त्पर्ये गृहीते विपरीतलक्षणया विपर्ययपर्यवसाने प्रकृतवाक्यार्थव्यङ्गयः क्रोधप्रकर्षः स च प्रधान एवेति न नाच्यसिद्धयङ्गतेत्युत्तरार्थ इति वदन्ति, तदपि कुरुषु योग्यः खेदो न मयीति काक्वा प्रकाश्यत इति पूर्वफक्किकाविरोधेनोपेक्षणीयम् ।। _प्रदीपकृतस्तु उक्तेन काकुव्यङ्गयेन बाच्यस्य सिद्धिः शोभनत्वनिष्पत्तिः क्रियते तथा चापराङ्गतया व्यङ्गयगुणीभूतमिति शङ्कते- अति उक्तव्यङ्गयस्य क्रोधप्रकर्षपर्यवसन्नतया वाच्यस्यैव तदङ्गत्वान्न व्यङ्गयस्य पराङ्गतेत्यर्थः, तथापि काक्वाक्षिप्तरूपगुणीभूतव्यङ्गय प्रभेदे किं बाधकमत आह- . "क्यों नहीं", इस तरह के काकु से व्यङ्गय जो प्रश्न है, उससे घटित वापयार्थ सम्पन्न होने पर उस वाक्यार्थ से अनौचित्यरूप व्यङ्गय का भान होता है। सुबुद्धि मिश्र ने यह उतरवाक्य का तात्पर्य · बताया है परन्तु उसका यह कथन गलत है। मुझ पर क्रोध करना योग्य नहीं है, इसका व्यङ्गय यह होगा कि मुझपर क्रोध करना अनुचित है। ऐसी स्थिति में "कूरुष योग्यः खेदः" इसका अर्थ होगा कि कुरुविषयक क्रोध उचित है यदि दूसरे शब्दों में कहें तो व्यङ्ग्य होगा, कुरुविषयक कोपाभाव अनुचित है और ऐसी स्थिति में मूल ग्रन्थ के साथ विरोध आयेगा। . 'इतरे तु' शब्द से टीकाकार निर्दिष्ट ग्रन्थ का तात्पर्य इस प्रकार बताते हैं भीम एक कुपित और उद्धत नायक है, उसके द्वारा उक्त वाक्य का विपर्यय (विपरीतार्थ) में पर्यवसान निश्चित है, परन्तु काकु के द्वारा प्रकाशित अर्थ के बिना पूर्वोक्त पर्यवसान हो नहीं सकता, इसलिए वहां वाच्य सिद्धयङ्गनामक गुणीभूत व्यङ्गय का तीसरा प्रकार मानना चाहिए । यह शङ्का (वाक्य). का तात्पर्य है । उत्तरवाक्य का तात्पर्य उन्होंने इस तरह बताया है कि काकु यहाँ व्यञ्जक नहीं है। किन्तु काकु के द्वारा जब प्रश्नमात्र में तात्पर्यग्रहण हुआ, तब विपरीतलक्षणा के द्वारा वाच्यार्थ से विपरीत अर्थ में वाक्यार्थ का पर्यवसान हुआ । इस तरह 'तथाभूताम' इत्यादि वाक्यार्थ से क्रोधप्रकर्ष व्यङ्गय हुआ, वह व्यङ्गय प्रधान ही है उस व्यङ्गय में वाच्यसिद्धयङ्गता नहीं है। यह मत भी मूलग्रन्थ से विरुद्ध प्रतीत होता है क्योंकि मूल में लिखा हुआ है कि 'कुरुषु योग्यः खेदः न मयि' अर्थात् कौरवों पर क्रोध करना उचित था मुझ पर नहीं, यह यहां काकु से प्रकाशित होता है । इसलिए वतिवाक्य के विरुद्ध होने के कारण पूर्वोक्त कल्पना ठीक नहीं जचती। - प्रदीपकार का कहना है कि 'उक्त काकु व्यङ्गय से वाच्य की सिद्धि अर्थात् शोभनत्व की निष्पत्ति की जा सकती है। इस तरह यहां अपराङ्ग होने के कारण गुणीभूत व्यङ्गय है, यह प्रश्न 'न च अत्र' इत्यादि वाक्य से उठाया गया है । उत्तर जो 'प्रश्नमात्रेण' इत्यादि वाक्य से दिया गया है उसका तात्पर्य है कि, उक्त व्यङ्गय क्रोध के प्रकर्ष में समाप्त होता है इसलिए वह किसी का अङ्ग नहीं बनता, अपितु वाच्य ही उसका अङ्ग बनता है । अतः यहाँ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय उल्लासः १५७ प्रश्नमात्रेणेति । यत्र काकुं विना वाक्यार्थबोध एव न निष्पद्यते तत्र वाऽऽक्षिप्तस्य गुणीभावो मथ्ना. मीत्यादावुक्तो, न चात्र तथा गुरुः खेदमित्यादेः प्रश्नपरत्वेऽप्युपपत्तेरित्यर्थ इति वदन्ति । तदपि चिन्त्यम् । अपराङ्गत्वेऽप्यर्थव्यञ्जकतानपायाच्च द्वितीयाशङ्काया अनुत्थापनादिति । वयं तु — 'दयितं दृष्ट्वा लज्जा ते ललने' [इत्यत्र] दयितदर्शनस्य लज्जाकारणत्वावगमवत् तथाभूतां दृष्ट्वा मयि कोपं भजति इत्यत्र तथाभूतत्वदर्शनं भीमविषयक कोपकारणं नेति वाक्यार्थबोधोऽयोग्यताप राहतः तथाभूतत्वका रकेष्वेव कोपीचित्याद् भीमस्य तदकारकत्वात् तथा चकाक्वा तथाभूतत्वदर्शनं कुरुविषयककोपकारणं न भीमविषयककोपकारणमिति वाक्यार्थः पर्यवसन्नः, न च मयि न योग्य इत्यादिव्यङ्गयप्रदर्शन विरोधः मयि न योग्यो कोपन तथाभूतत्वादिदर्शन जन्यत्वयोग्यः कुरुषु योग्यः तथाभूतत्वादिदर्शनजन्यत्वयोग्य इत्यस्य व्यङ्गय में पराङ्गता नहीं है तथापि यदि इसे काक्वाक्षिप्तरूप गुणीभूतव्यङ्गय का व्यङ्गय मानें तो क्या दोष होगा यह बताते हुए लिखते हैं "प्रश्नमात्रेण" इत्यादि । जहाँ काकु के बिना वाक्यार्थबोध की निष्पत्ति ही नहीं होती है, वहीं प्राक्षिप्त को गुणीभूत व्यङ्गय माना जाता है जैसे कि "मथ्नामि कौरवशतम्" इत्यादि वाक्य में माना जाता है । यहाँ तो ऐसी बात नहीं है क्योंकि "गुरुः खेदं खिन्ने" इत्यादि को प्रश्नपरक मानने पर भी वाक्यार्थबोध की उपपत्ति होती है । प्रदीपकार का यह मत भी असंगत ही है क्योंकि यहाँ अर्थव्यञ्जकता का उदाहरण देना अभीष्ट है । यदि यहाँ व्यङ्गेय अपराङ्ग हो तो भी अर्थव्यञ्जकता में कोई कमी नहीं आती और इसे अर्थव्यञ्जकता के उदाहरण होने में कोई बाधा नहीं पहुँचती । ऐसी स्थिति में प्रथम शङ्का उठती ही नहीं है और काकु व्यञ्जकतामात्र से भी अर्थव्यञ्जकता में कोई कमी नहीं आने के कारण द्वितीय शङ्का का भी उत्थान नहीं होता । स्वयं का मत "वयन्तु " ....... व्याचक्ष्महे" के द्वारा प्रकट करते हुए टीकाकार लिखते हैं जैसे दयित को देखकर दयिता में लज्जा " लज्जा ते ललने" बतायी गई है इससे प्रतीत होता है कि दयित का दर्शन लज्जा का कारण होता है, वैसे "तथाभूतां दृष्ट्वा" इस पद्य में द्रौपदी को उस अवस्था में देखकर युधिष्ठिर मुझपर ( भीमपर) क्रोध करते हैं इस अर्थ में द्रौपदी को उस अवस्था में देखना भीम के प्रति ( युधिष्ठिर के) कोप का कारण नहीं हो सकता, क्योंकि द्रौपदी को उस अवस्था में पहुंचानेवाले कौरव थे, भीम नहीं, इसलिए उस अवाच्य स्थिति में पहुंचाने के कारण कौरवों पर ही क्रोध करना उचित था बेचारे भीम को तो कोप का भाजन नहीं बनना चाहिए, क्योंकि पांचाली को इस निन्दनीय स्थिति में पहुँचाने में उसका कुछ भी हाथ नहीं था। इस तरह "तथाभूतां दृष्ट्वा - - गुरुः खेदं खिन्ने मयि भजति नाद्यापि कुरुषु" इस श्लोक का वाक्यार्थबोध 'वह्निना सिञ्चति' की तरह योग्यता ( बाधाभाव ) के अभाव के कारण नहीं हो सकता । इसलिये 'काकु' की सहायता से तथाभूतत्व दर्शन को (द्रौपदी की उस अर्थव्यवस्था - दर्शन को) कौरव के प्रति कोप का कारण मानेंगे भीम के प्रति कोप का कारण नहीं । इसीलिए अन्ततोगत्वा 'कौरव के प्रति क्रोध करना चाहिए मुझपर ( भीम पर ) नहीं' यह वाक्यार्थं सम्पन्न होगा । मेरा यह कथन जहाँ कि 'मयि न योग्यः खेदः" इत्यादि को वाक्यार्थ बताया गया है काव्यप्रकाश के उस वृत्ति ग्रन्थ के विरुद्ध लगता है जहाँ कि 'मयि न योग्यः खेदः' इत्यादि को व्यङ्गय बताया है। इस तरह विरोध के कारण मेरे मत को असंगत नहीं मानना चाहिए क्योंकि 'मयि न योग्यः खेद:' इसका तात्पर्य यह है कि मेरे प्रति जो कोप है वह द्रौपदी की उस अवस्था में जो स्थिति थी, उसके दर्शन से उत्पन्न होने योग्य नहीं है। द्रोपदी की उस अवस्था के दर्शन से उत्पन्न होने योग्य है । इस तरह यह अर्थ किसी अर्थ का कौरवों के प्रति कोप ही व्यङ्गय नहीं है किन्तु Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ काव्य-प्रकाशः तदर्थत्वाद् एवं चायमर्थो न कस्यचिदर्थस्य व्यङ्गयः अपि तु काकोरेवेति नार्थव्यञ्जकतोदाहरणमेतदित्याशङ्कते-न चेति, वाच्यस्य सिद्धिर्व्यङ्गय-विषयं ज्ञानं तदङ्गतत्कारणं काकुस्तेन गुणीभूतव्यङ्गयत्वं वाच्यज्ञानाजन्यज्ञानविषयत्वमित्यर्थः,। प्रश्नेति । गृहे घटोऽस्ति नास्तीति वा प्रश्ने तथैवोत्तरप्रश्नयोः समानाकारशब्दप्रयोगः प्रश्नवाक्ये काकुस्वरं विनाऽनुपपन्न इति प्रकृतेऽपि 'गुरुः खेद'मित्यादौ प्रश्ने काकुस्वरः, तेन गुरुः खेदं खिन्ने मयि भजति कुरुषु नेति कुत इत्येतावति च वाक्यार्थे परिसमाप्ते पश्चाद् 'भ्रातरं दृष्ट्वेयं लज्जते न श्वशुरमिति कुत' इति प्रश्ने श्वशुरं दृष्ट्वा लज्जायुक्ता न भ्रातरमिति व्यङ्गयभानवन्मयि न योग्य: किन्तु कुरुष्विति पश्चाद् भासते न प्रथममिति भवत्यत्रार्थव्यञ्जकता, न च पूर्वोक्तायोग्यतासत्त्वात् कथं प्रश्नवाक्यादप्यर्थबोध इति वाच्यम्, भुक्त्वा व्रजतीत्यत्र व क्वातः कार्यकारणभावानवभासाद् दर्शने भीमविषयककोपपूर्वकालतामात्रस्याबाधितत्वादिति भावः ।। काकू से ही प्रकाश्य है। इसीलिए इस पद्य को अर्थव्यञ्जकता का उदाहरण नहीं माना जा सकता। यह प्रश्न "नच" इत्यादि वाक्य से उठाया गया है। प्रश्न वाक्य में आये हुए “वाच्यसिद्धयङ्गमत्र काकुरिति गुणीभूतव्यङ्गयत्वम्" का अर्थ है वाच्य की सिद्धि अर्थात् व्यङ्गयविषयक ज्ञान, उसका अङ्ग अर्थात् उसका कारण काकु है इसीलिए यहाँ गुणीभूत व्यङ्गयत्व अर्थात् वाच्यज्ञान से अजन्यज्ञानविषयता,है अर्थात् इस श्लोक में वाच्यज्ञान से जन्य कोई ज्ञान नहीं है, इसीलिए यह अर्थव्यञ्जकता का उदाहरण नहीं हो सकता। (यह प्रश्न वाक्य का अर्थ है) (उत्तर का तात्पर्य) कोई यदि पूछे "गृहे घटोऽस्ति ?" घर में घड़ा है ? या 'गृहे घटो नास्ति ?' घर में घड़ा नहीं है ? तो उत्तर: भी यही होगा 'गृहे घटोऽस्ति' या 'गृहे घटो नास्ति' । इस तरह प्रश्न और उत्तर में समानाकारक शब्दों का प्रयोग असामंजस्य में डालेगा? इसलिए प्रश्नवाक्य में काकु शब्द का प्रयोग करना आवश्यक होगा। काकुस्वर (विशेष लहजे) से प्रयोग करने पर "गृहे घटोऽस्ति" यह वाक्य प्रश्नवाक्य बन जायगा। इसलिए जैसे "गृहे घटोऽस्ति" या 'गृहे घटो नास्ति" इन समानाकारक प्रश्नोत्तर वाक्यों के असमाञ्जस्य को मिटाने के लिए "काकुस्वर" का प्रयोग प्रश्नवाक्यों में किया जाता है; उसी प्रकार प्रकृत (निर्दिष्ट) श्लोक में भी "गुरुः खेदम्" इत्यादि प्रश्नवाक्यों में काकुस्वर का प्रयोग होगा। इससे यह प्रश्न बनेगा कि 'खिन्ने मयि गुरुः खेदं भजति कुरुषु नेति कृतः ?' अर्थात दुःखी मुझ पर युधिष्ठिर नाराज होते हैं और कौरवों पर नहीं होते हैं यह क्यों ? इसी प्रश्न मात्र पर वाक्यार्थ समाप्त हो जायगा। पीछे जैसे 'भाई को देखकर यह लज्जित होती है श्वसुर को देखकर नहीं, यह क्यों ?' इस प्रश्न के उपस्थित होने पर 'श्वसुर को देखकर लज्जा करनी चाहिए, भाई को देखकर नहीं' यह व्यङ्गय का भान होता है उसी तरह मुझ पर नाराज होना उचित नहीं है कौरवों पर क्रोध करना ही उचित है, यह पीछे वाक्यार्थ के परिसमाप्त होने पर भासित होता है, वाक्यार्थ परिसमाप्ति के पूर्व भासित नहीं होता है । इसलिए यहाँ अर्थव्यंजकता है। वाह ! जिस अयोग्यता की चर्चा अभी-अभी आपने की थी उसके रहते प्रश्नवाक्य से भी किस तरह अर्थबोध हो सकता है ? यहाँ अयोग्यता नहीं है ; क्योंकि बाधाभाव को ही योग्यता कहते हैं; वह बाधाभाव यहाँ है इसलिए योग्यता है जैसे भूक्त्वा व्रजति' 'भोजन करके जाता है' यहाँ 'क्त्वा' प्रत्यय के द्वारा भोजन और गमन-क्रिया के बीच केवल पूर्वापरभाव मात्र की प्रतीति होती है। पहले भोजनक्रिया हुई है और बाद में गमनक्रिया, यही हम क्त्वा प्रत्यय से जानते हैं । क्त्वा प्रत्यय भोजन और गमन के बीच कार्यकारण नहीं प्रकट करता है, अर्थात् क्त्वा प्रत्यय यह प्रकट नहीं करता कि भोजनक्रिया से गमनक्रिया उत्पन्न हुई। इसलिए वहाँ अयोग्यता नहीं है उसी तरह "तथाभूतां दृष्ट्वा" यहाँ क्त्वा प्रत्यय केवल तादृश पाञ्चाली के दर्शन में भीम के प्रति क्रोध की पूर्वकालिकता प्रकट करता है; वह इतना ही बताता है कि दर्शन के बाद क्रोध उत्पन्न हुआ; वह उस दर्शन को कोप का कारण नहीं बताता वह Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय उल्लास : १५६ अथवा ननु 'शब्दप्रमाणवेद्योऽर्थो व्यनक्त्यर्थान्तरं यत' इत्यादिनाऽर्थोपस्थितिद्वारंव शब्दस्य सहकारित्वव्यवस्थापनात् काकोरपि ध्वन्यात्मकशब्दत्वादर्थज्ञानजननद्वारा सहकारित्वमुपेयं, तत्र ध्वनित्वेन काकोरवाचकत्वान्न व्यङ्ग्यबोधानुकूलवाच्यान्तरोपस्थापकत्वं, प्रकृतवाक्यार्थज्ञानं च काकुस्वरं विनैव सम्भवतीति न काकुस्तत्र कारणम् उक्तव्यङ्गयानुकूलव्यङ्गयान्तरोपस्थापने च व्यङ्गरूपार्थस्यैव व्यञ्जकत्वं न वाच्यरूपार्थस्येति कथं काकु सहकारेण वाक्यार्थस्यात्र व्यञ्जकत्वमुदाहृतमिति शङ्कते - न चेति, न सिद्ध्यङ्गम् असिद्धयङ्ग सिद्धिर्वाक्यार्थबोधस्तस्याः कारणं न काकुरिति कृत्वा गुणीभूतव्यङ्गयत्वम् अन्यथासिद्धव्यङ्गयकत्वं वाच्यार्थानुपस्थाप्य व्यङ्ग्यकत्वमत्र वाचि अस्मिन् वाक्ये इति न शङ्कनीयमित्यर्थः । समाधत्ते प्रश्नेति काकुस्वरेण प्रश्नोऽत्र व्यज्यते वाक्येन च वाक्यार्थ उपस्थाप्यते, तत उभाभ्यां वाक्यैकवाक्यतावन्महावाक्यार्थबोधः तदुत्तरं प्रकृतव्यङ्ग्योपस्थितिरिति भवति काकुसाहित्येन वाच्यार्थस्य व्यञ्जकत्वमित्यर्थः, मात्रपदेन वाक्यार्थज्ञानाजनकत्वं विश्रान्तिपदेन प्रश्नमभिव्यज्य विरतत्वान्न यह नहीं बताता कि तादृशदर्शन तादृशकोप का जनक है। 'तादृशदर्शन पहले हुआ और वह क्रोध बाद में उत्पन्न हुआ' इस अर्थ में किसी प्रकार की बाधा नहीं है इसलिए बाधाभाव होने के कारण यहाँ योग्यता है । अथवा "शब्दप्रमाणवेद्योऽर्थो व्यनक्त्यर्थान्तरं यतः । अर्थस्य व्यञ्जकत्वे तच्छब्दस्य सहकारिता ।। " अर्थात् शब्दप्रमाण से गम्य अर्थ ही अर्थान्तर को व्यक्त करता है । इसलिए अर्थ के व्यञ्जकत्व में शब्द सहकारी होता है । इस कारिका में अर्थोपस्थिति के द्वारा ही शब्द को सहकारी माना गया है काकु भी ध्वन्यात्मक शब्द ही है, इस तरह अर्थज्ञान के जनन (उत्पत्ति) के द्वारा काकु को भी सहकारी मानना ही चाहिए और वहाँ ध्वनि होने के कारण काकु को वाचक नहीं माना जा सकता। इसलिए उसको ( काकु को) व्यङ्ग्यबोध के अनुकूल (वाच्यान्तर) दूसरे वाच्य अर्थ का उपस्थापक भी नहीं माना जा सकता और प्रकृत ( निर्दिष्ट ) वाक्यार्थ का ज्ञान काकुस्वर के बिना ही सम्भव है इसलिए काकु यहां निर्दिष्ट अर्थ के उपस्थापन में कारण नहीं हो सकता । उक्त व्यङ्ग्य के अनुकूल व्यङ्ग्यान्तर के उपस्थापन में व्यङ्ग्यरूप अर्थ ही व्यञ्जक हो सकता है, वाच्यरूप · अर्थ नहीं। इसलिए इस पद्य को काकु के सहकार से वाक्यार्थ के व्यञ्जक होने के उदाहरण के रूप में कैसे प्रस्तुत किया गया ? यह बताते हुए लिखते हैं "न च" इत्यादि । इस मत में वाच्यसिद्धयङ्गमत्र काकु: "इस वाक्यखण्ड की विवृति इस प्रकार है- "पदच्छेदवाचि असिद्धयङ्गम् । न सिद्धयङ्गम् असिद्धयङ्गम्" सिद्धि अर्थात् वाक्यार्थबोध, उसका अङ्ग अर्थात् कारण । गुणीभूतव्यङ्ग्यत्वम् का अर्थ है अन्यथासिद्धव्यङ्गयत्व अर्थात् वाच्यानुपस्थाप्यव्यङ्गयत्व. । इस तरह के पदच्छेद और विग्रह के अनुसार "न च.... शक्यम्" इस प्रश्न- वाक्य का शब्दानुसारी अर्थ होगा 'यहाँ काकु, सिद्धि अर्थात् वाक्यार्थ- बोध का अंग (कारण) नहीं है अत: 'अत्र वाचि' इस वाक्य में गुणीभूत व्यङ्गयत्व ( वाच्यार्थानुपस्थाप्य व्यङ्गयत्व ) की शंका नहीं करनी चाहिए।' " प्रश्नमात्रेण... विश्रान्तेः” इस वाक्य के द्वारा यहाँ समाधान प्रस्तुत किया गया है। वह इस प्रकार हैकाकु स्वर से यही अभिव्यक्त होता है और वाक्य से वाक्यार्थ की उपस्थिति होती है। बाद में दोनों में एकवाक्यता होती है; तब उसी प्रकार महावाक्यार्थ-बोध होता है जैसे बहुत से वाक्यों में एकवाक्यता होने के पश्चात् महावाक्यार्थबोध होता है। महावाक्यार्थबोध के बाद में निर्दिष्ट व्यङ्गय ( मयि न योग्यः खेदः कुरुषु योग्य : ) की उपस्थिति होती है इस तरह यहाँ काकु के साहित्य ( सहकार - सहायता ) से वाक्यार्थ की व्यञ्जकता होती है अर्थात् काकु के सहकार से यहाँ वाच्यार्थं व्यञ्जक होता है। "प्रश्नमात्रेण " में मात्र पद का प्रयोग किया गया है। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्य-प्रकाशः तइया मह गंडत्थलरिणमिग्रं दिठ्ठि ण णेसि अण्णत्तो। एण्हिं सच्चेय अहं ते अ कवोला ण सा दिछी ॥१६॥ (तदा मम गण्डस्थलनिमग्नां दृष्टि नानषीरन्यत्र । इदानीं सैवाहं तौ च कपोलौ न सा दृष्टि: ॥) अत्र मत्सखों कपोलप्रतिबिम्बितां पश्यतस्ते दृष्टिरन्यवाभूत् । चलितायां तु साक्षादुक्तरूपव्यङ्ग्योपस्थापकत्वं काकोः अपि तु वाच्यस्यैव तदुपस्थितव्यङ्ग्यसहकारेण व्यञ्जकत्वं मुक्तं भवतीति व्याचक्ष्पहे । अत्र प्रश्नरूपव्यङ्ग्यस्य व्यञ्जकत्वे व्यङ्ग्यार्थव्यञ्जनोदाहरणमपीदम्, मयीत्यस्य निरपराधे कुरुष्वित्यस्य सापराधेष्विति लक्षणया पदार्थे लक्ष्यस्यापि व्यञ्जकत्वं बोध्यम् । __ तइएति : . "तदा मम गण्डस्थलमिलितां दृष्टि नानैषीरन्यत्र । इदानीं सैवाहं तावेव कपोलो न सा दृष्टिः ॥१६॥ उससे यह निकलता है कि 'काकु यहाँ केवल प्रश्न की उपस्थिति करता है; वह वाक्यार्थ-बोध का.जनक नहीं बनता। 'विश्रान्तेः' यहाँ जो जानबूझ कर 'विश्रान्ति' पद का प्रयोग किया गया है, उसका यह तात्पर्य है कि काकु प्रश्न को प्रकट कर (अभिव्यक्त कर) विरत हो गयी। इसलिए वह साक्षात उक्त आकार-प्रकारवाले व्यङ्गय की उपस्थापिका नहीं बनती। किन्तु वाच्य अर्थ ही काकु से उपस्थित व्यङ्गय के सहकार से व्यञ्जक होता है। इस तरह यह श्लोक अर्थव्यञ्जकता का उदाहरण हो सकता है (मैं उक्त ग्रन्थ की ऐसी व्याख्या करना पसन्द करता हूं)। .. यहाँ प्रश्नरूप व्यङ्गय भी व्यञ्जक है । इसलिए यह उदाहरण व्यङ्गयार्थ व्यञ्जना का भी हो सकता है। "मयि" यह पद निरपराधरूप अर्थ को और 'कुरुष' यह पद सापराधरूप अर्थ को लक्षणा के द्वारा प्रकट करता है। ये दोनों पद अर्थान्तर में संक्रमित हो गये हैं। इसलिए पदार्थ में लक्ष्यार्थ व्यञ्जकता का भी यह उदाहरण हो सकता है। ४. वाक्य-वैशिष्ट्य में व्यञ्जना का उदाहरण :-"तइमा" इति । नायिका नायक से कहती है कि उस समय मेरे कपोल पर गड़ायी हुई (अपनी) दृष्टि को (तुम) कहीं और नहीं ले जा रहे थे (क्योंकि मेरे कपोल पर मेरी सखी प्रतिबिम्बित थी, तुम उसे एक टक देखना चाहते थे) अब मैं वही हूं, मेरे कपोल वे ही हैं ; किन्तु तुम्हारी वह (मेरे कपोल पर गड़ी रहनेवाली) दृष्टि नहीं है। क्योंकि वह मेरी सखी वहाँ से हट गयी है जहां से उसकी छाया इस पर पड़ती थी, इसलिए तुम जिसे देखना चाहते थे वह यहाँ दिखाई नहीं पड़ती; अतः तुम उस कपोल की तरफ नहीं देखते)। यहाँ मेरे कपोल पर प्रतिबिम्बित मेरी सखी को देखते हुए तुम्हारी दृष्टि कुछ और ही प्रकार की थी। उसके चले जाने पर कुछ और ही हो गयी है। इसलिए तुम्हारे प्रच्छन्न कामुकत्व पर आश्चर्य होता है, अरे तुम बड़े छिपे रुस्तम हो, यह अर्थ नायिका के वाक्य से व्यक्त होता है । इसलिए यह वाक्यवैशिष्ट्यव्यञ्जना का उदाहरण है। टीकाकार ने “निमग्नाम" के स्थान पर 'मिलिताम्' पाठ स्वीकार किया है। मिलिताम का अर्थ 'ग्रथिताम्' है इसलिए कपोल में प्रतिबिम्बित सखी की कण्टकता (रोमाञ्चकता) प्रकट होती है। इसलिए उस सखी के वहां से हट जाने से उसमें गुथी हुई तुम्हारी दृष्टि भी हट गयी । इससे प्रतिबिम्बिता नायिका में प्रेमाधिक्य (अधिक प्रेम) व्यक्त होता है। मैं वही हावभाव दिखाती हूं; मेरे कपोल भी उसी तरह पुलकित (रोमाञ्चित) हैं (परन्तु ये रोमाञ्च मेरे हैं. तुम तो सखी के रोमाञ्च को उसमें देखना चाहते हो) किन्तु तुम्हारी .वह निनिमेष दृष्टि नहीं रही। (इस Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततीच उल्लास: तस्यामन्यव जातेत्यहो ! प्रच्छन्नकामुकत्वं ते, इति व्यज्यते । उद्देशोऽयं सरसकदलोश्रेणिशोभातिशायी, कुजोत्कर्षाङ्कुरितरमणीविभ्रमो नर्मदायाः । मिलितां ग्रथितां तेन गण्डस्थलप्रतिबिम्बितसख्याः कण्टकत्वं तेन च तद्पगमे तद्ग्रथितहष्ट्यपगमः तेन च प्रतिबिम्बितायां प्रेमाधिक्यं व्यज्यते, सैव हावभाववती, तावेव पुलकादियुक्ती, सा निमेषादिरहिता. अत्रेति । 'तदेदानी रूपपदद्वयात्मकवाक्यवैशिष्टयावगमादिति शेषः, अत्रैव यतो ग्रथिताऽतोऽन्यत्र नानषीरिति हेत्वलङ्कारो लाक्षणिकग्रथितपदसहकृतनानैषीरिति व्यज्यत इति लाक्षणिकार्थस्य व्यञ्जकत्वम्, ततो हेत्वलङ्कारेणास्यामनुरागो नाऽगन्तुकहेतुनिवर्तनीय इति व्यज्यत इति व्यङ्गयार्थस्यापि व्यञ्जकत्वमित्याभाति । उद्देशोऽ मिति - उद्दिश्यत इति उद्देशः एवं दूरादुद्दिश्यते न तु ज्ञानेन गम्यत इति निर्जनत्वं व्यज्यते कुञ्जस्योत्कर्षश्च निबिडत्वमकरन्दसिक्तत्वामोदमुदितमधुकरत्वरूपः तेनाकुरिता वर्धिता रमणीनां विभ्रमा विलासा यत्र स तथा नर्म ददातीति नर्मदा तस्याः, तेन रेवादिपदं प्रकार यहाँ पदों से व्यङ्गय प्रकट होते हैं । 'तदा और तदानीम्", "तब और अब" ये दोनों पद दो भिन्न-भिन्न स्थितियों की सूचना देने वाले वाक्य का निर्माण करते हैं। इस तरह इन पदद्वयात्मक वाक्य के वैशिष्ट्यबोध से यहाँ पूर्वोक्त व्यङ्गय प्रकट होता है। यहाँ लक्ष्यार्थव्यजकता और व्यङ्गार्थ व्यञ्जकता भी है। जैसे-गण्डस्थल में तुम्हारी दृष्टि प्रथित है; गुथ गयी है, इसलिए तुम उसे अन्यत्र नहीं ले जा रहे थे। (वह दृष्टि जिससे गुथी हुई थी, उसके हटने के साथ उसका (दृष्टि का) भी हट जाना स्वाभाविक है) इस विवक्षा में यहाँ हेतू अलंकार मिलित पद के प्रथितरूप लाक्षणिक अर्थ को प्रकट करनेवाले ग्रथित पद के सहकार से सम्पन्न "न अनैषीः" पद से अभिव्यक्त होता है इस तरह यह लाक्षणिक अर्थ के व्यञ्जक होने का उदाहरण भी हो जाता है। लक्ष्यार्थ के व्यञ्जक होने के बाद लक्ष्यार्थ-व्यजित हेतु अलंकार से 'इस (मेरी सखी) में (तेरा) अनुराग किसी आगन्तुक हेतु (अस्थायी या क्षणिक कारणों) से उत्पन्न नहीं हुआ है अथवा उस गहरे प्रेम को किसी आगन्तुक (चलते फिरते) कारणों से मिटाया नहीं जा सकता, यह व्यङ्गय निकलता है। इसलिए यही व्यंङ्गयार्थव्यञ्जकता भी मुझे प्रतीत होती है। ५. वाच्यवैशिष्टय में व्यजकता का उदाहरण:- (उद्देशोऽयम् सरस-) हे तन्वि, सरस हरी भरी कदली (केलों) की पक्ति से अत्यन्त सुन्दर लगने वाला और कुजों के उत्कर्ष के कारण रमणियों के हाव-भावों को अहरित कर देने वाला नर्मदा का यह उन्नत प्रदेश है, साथ साथ यहां सुरत के उत्तेजक, सहायक और श्रान्तिहर अतएव मित्र वे वायू बहते हैं । जिनके आगे वसन्त आदि के रूप में अवसर न रहते हुए चाप धारण किये हुए कामदेव चलता है। उद्दिश्यते इति उशः, दूर से ही जिसे बताया जा सके, प्रत्यक्ष आकर जिसे न जाना जा सके वह स्थान उद्देश होगा। इससे निर्जनत्व अभिव्यक्त होता है। कुञ्ज का उत्कर्ष उसके घने होने में है। उसके मकरन्द (फूलों के रस और पराग से आर्द्र होने और सुगन्ध के द्वारा भौंरों को प्रसन्न रखने में है इस प्रकार के प्रकर्ष से सम्पन्न स्थानों में स्वाभाविक है कि वहाँ रमणियों के विभ्रम और विलास अङ्कुरित हो, बढ़ें और फूले फलें। नर्म ददातीति १-१६० पृष्ठ पर अन्तिम अनुच्छेद में सूचित वाक्य-वैशिष्ट्य । Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ काव्य-प्रकाशः किं चैतस्मिन् सुरतसुहृदस्तन्वि ते वान्ति वाता, येषामग्रे सरति कलिता काण्डकोपो मनोभूः ॥१७॥ अत्र रतार्थं प्रविशेति व्यङ्गयम् । गोलले प्रणोल्लमा अत्ता मं घरभरम्मि सलम्मि । परित्यज्य, नर्मदापदोपादानेन ललनानुकूलता व्यज्यते, अग्रे मरति अग्रे गच्छत्यग्रेसर इवाऽऽचरति वा, कलिताकाण्डकोप इति । तथा चेदानीमपि सुरतवैमुख्ये कुपितो मीनकेतुः किं किं न करिष्यतीति व्यज्यतेऽकाण्डपदेना विधीयमानतदपराधायामपि त्वयि बाधां विधास्यत्येवेति व्यज्यते, मनोभूरित्यनेन नान्यतः कुतश्चिदागत्य बांधां विधास्यति अपि तु मनःसन्निहित (?) एवास्ते इति नान्यत्र तद्द्भीत्या गमनेनापि निस्तार इति व्यज्यते । श्रत्रेति । वर्ण्यमानस्य नर्मदा प्रदेशस्योक्तविशेषणमाहात्म्यादिति शेषः । अत्र वाङ्कुरितपदादीनां लाक्षणिकतया लक्ष्यार्थस्योद्देशादिपदव्यङ्ग्य निर्जनत्वाद्यर्थानामप्युक्तव्यञ्जकत्वं बोध्यम् । 1 गोल्लइ इति - नोदयत्यनार्द्र मनाः श्वश्रूम गृहभरे सकले । नर्मदा, जो असाधारण रतिसुख प्रदान करें यह प्रकट होता है। उसका ही यह उद्देश हैं। 'नर्मदा' पद से पूर्वोक्त व्यङ्गय को प्रकट करने के लिए ही 'नर्मदा' नदी के अन्य रेवादि पर्याय को छोड़कर 'नर्मदा' पद का पद्य में उपादान किया गया है। इस तरह 'नर्मदा' पद के उपादान से यहाँ ललनाओं के लिए अनुकूलता (सौविध्य) व्यक्त होती है । 'अग्रे सरति' का अर्थ है अग्रे गच्छति, इससे अग्रेसर इव आचरति मुखिया ( सेनापति) के समान आचरण करता है। यह व्यङ्गय होता है । 'कलिता काण्ड कोप:' से बे मोके क्रोध करने वाला यह अर्थ अभिव्यञ्जित होता है । इस प्रकार यह अभिव्यक्त होता है कि अभी सुरत की उपेक्षा करने पर कुपित मीनकेतु क्या क्या नहीं करेगा यह व्यञ्जना द्वारा प्रकट होता है । 'अकाण्ड' पद से जिसका कि बिना अवसर के और बिना कारण के यह अर्थ है, यह व्यक्त होता है कि यद्यपि तुमने उसका अपराध नहीं किया है तथापि वह तुझ पर नाराज होकर तुझे कष्ट पहुंचायेगा ही । "मनोभूः" ( मन से ही उत्पन्न होनेवाला) इस पद से यह व्यक्त होता है कि कहीं और जगह से आकर वह बाधा नहीं पहुंचायेगा किन्तु मन में सन्निहित ही विराजमान है। इसलिए और जगह उसके भय से भाग कर जाने पर भी रक्षा नहीं हो सकती । यहाँ नर्मदा के तट स्थान में लगाये गये विशेषणों की महिमा से 'सुरत के लिए कुञ्ज के भीतर चलो, यह ( वाच्य वैशिष्ट्य से ) व्यङ्गय है । यहीं अङ्क ुरित आदि पदों के लक्षणिक होने के कारण लक्ष्यार्थं में उद्देश आदि पद से व्यङ्गय निर्जनादि अर्थ में भी उक्त व्यङ्ग्यार्थं की व्यञ्जकता है । इसलिए यहाँ भी त्रिविध व्यञ्जकता है । (विशेष) वाक्य और वाच्य वैशिष्ट्य का अन्तर केवल विवक्षा पर निर्भर है। जब वाक्य का प्राधान्य विवक्षित हो तब वही पद्य 'वाक्य वैशिष्ट्य आर्योव्यञ्जना का उदाहरण बन जाता है और जब वाच्य अर्थ का प्राधान्य विवक्षित होता है तब वही 'वाच्यवैशिष्ट्य आर्थीव्यञ्जना' का उदाहरण बन जाता है। यह बात वक्तृवैशिष्ट्य और बोद्धव्य वैशिष्ट्य में आर्थी व्यञ्जना में भी लागू होती है। वक्ता की प्रधान विवक्षा में वक्तृवैशिष्ट्य और बोद्धव्य की प्रधानविवक्षा में बौद्धव्य वैशिष्ट्य आर्थी व्यञ्जना होती है । ६. अन्य सन्निधि के वैशिष्ट्य में व्यञ्जना का उदाहरण :-गोल्लइ इति, नोदयति विश्रामः । (अनार्द्रा मना: ) निर्दय सास घर के सारे काम मुझ से कराती है इसलिए कभी मिलता है तो सन्ध्या के समय थोड़ा सा विश्राम मिल जाता है, नहीं तो वह भी नहीं मिलता। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय उल्लासः १६३ खणमेत्त जइ संझाइ होइ ण व होइ वीसामो ॥१८॥ (नुदत्यनामना: श्वभूर्मा गृहमरे सकले । क्षणमात्रं यदि सन्ध्यायां भवति न वा भवति विश्रामः ॥) अत्र सन्ध्या सङ केतकाल इति तटस्थं प्रति कयाचिद् द्योत्यते । सुव्वइ समागमिस्सदि तुज्झ पियो अज्ज.पहरमेत्तण । एमेन कित्ति चिठ्ठसि ता सहि सज्जेस करणिज्जं ॥१६॥ (श्रूयते समागमिष्यति तव प्रियोऽध प्रहरमात्रेण। एवमेव किमिति तिष्ठसि तत् सखि ! सज्जय करणीयम् ॥ अत्रोपपति प्रत्यभिसतु प्रस्तुता न युक्तमिति कयाचिन्निवार्यते । क्षणमात्रं यदि सन्ध्यायां भवति न वा भवति विश्रामः ॥१८॥ तटस्थं सङ्कताथिनं पुरुषं, द्योत्यत इत्यनन्तरमित्युपपतित्वेन निश्चितपुरुषसन्निधिवैशिष्टयज्ञानादेव व्यज्यत इति शेषः । अत्राप्या पदभरपदयोर्लाक्षणिकत्वेन लक्ष्यस्य लक्ष्यार्थव्यङ्गयस्य च प्रकृतव्यङ्गयव्यञ्जकत्वं बोध्यम् . 'सुव्वइ ति- "श्रूयते समागमिष्यति तव प्रियोऽद्य प्रहरमाण । एवमेव किमिति तिष्ठसि तत् सखि ! सज्जय करणीयम् ॥१९।। .यहाँ 'संध्या का समय संकेतकाल है' यह व्यङ्गय दूत आदि के रूप में छिपकर पाये हुए किसी तटस्थ व्यक्ति के प्रति गुरुजन आदि की सन्निधि के वैशिष्टय से प्रकट होता है। गुरुजन आदि की सन्निधि के कारण वह दूतादि के रूप में प्रच्छन्न तटस्य व्यक्ति को स्पष्ट नहीं बता सकती है। इसलिए व्यङ्गय का सहारा लेती है। (यह व्याख्या अन्य टीकाकारों के अनुसार है) "अत्र......द्योत्यते” यहाँ आये हुए तटस्थ शब्दका अर्थ है संकेतार्थी पुरुष । 'द्योत्यते' का अर्थ 'व्यज्यते' है। 'धोत्यते' के बाद 'उपपतित्वेन निश्चितपूरुषसन्निधिवैशिष्टय ज्ञानादेव' इस पद का शेष मानना चाहिए। इस तरह उपपति के रूप में निश्चित उस संकेतार्थी तटस्थ पुरुष के सन्निधि वैशिष्टय के ज्ञान से 'संध्या का समय संकेत काल है' यह व्यङ्गय प्रकट होता है। (यहाँ टीकाकार ने कई अन्य स्थलों की तरह अपनी नयी उद्भावना प्रकट की है। यहाँ भी 'आद्र' पद दया अर्थ में और 'भर' पद 'अरुचिकर' अर्थ में लाक्षणिक है इसलिए यहाँ लक्ष्यार्थव्यञ्जकता है और साथ-साथ उस लक्ष्यार्थ अर्थात श्वश्रू के निर्दय होने रूप लक्ष्यार्थ से अभिव्यक्त । इसलिए किसी बहाने से भी छुटकारा मिलना सम्भव नहीं है "इस व्यङ्गय से "संध्याकाल संकेतकाल है" यह व्यङ्गय निकलता है इसलिए यहाँ व्यङ्गयार्थ में भी व्यञ्जकता है। ७-प्रस्ताववैशिष्ट्य में व्यञ्जना का उदाहरण-'सुब्वइ इति' "श्रूयते.......करणीयम्" । 'सखि, सुनते हैं कि तेरा पति आज एक पहर के अन्दर आने वाला है, तो इस तरह क्यों बैठी हो, उनके योग्य साज-सामान जुटाओ"। १'म नयस्यन्यत्' इति पाठान्तरम् -किवा 'नोदयत्यनामना' इत्यपि पाठः। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ काव्य-प्रकाशः अन्यत्र यूयं कुसुमावचायं कुरुध्वमत्रास्मि करोमि सख्यः । नाहं हि दूरं भ्रमितुं समर्था प्रसीदतायं रचितोऽञ्जलिर्वः ॥ २० ॥ निवार्यत इत्यनन्तरमिति प्रस्ताववैलक्षण्याद् व्यज्यत इति शेषः, अत्रापि प्रहरमात्रपदस्य लक्षणया प्रहरोत्तरार्थकतया एवमेव पदस्य स्वाच्छन्द्यार्थं कतया च लक्ष्यस्य तद्वयङ्ग्यस्य च व्यञ्जकत्वं ज्ञेयम् । अन्यत्र यूयमिति - न चात्रावचयमिति रूपापत्तिः 'चेस्तु हस्तार्थेन' इति सूत्रेण हस्त प्राप्येऽर्थे प्रतिपाद्ये प्रयोगात्, तेनान्यत्र हस्तप्राप्यं कुसुममिति तासां प्रलोभनम् एतेन हस्तप्राप्य कुसुमाभावादत्रान्योऽपि नायास्यतीति विजनोऽयं देश इत्याश्वस्तां प्रति व्यज्यतेऽत एव विविक्तोऽयं देश इति वक्ष्यति । अस्मीत्यहमर्थक मव्ययं, ननु हस्ताप्राप्यकुसुमावचयस्त्वयाऽपि कथं कर्त्तव्य इति तासामाशङ्कां मनसि कृत्याऽऽह - नाहमिति । यहाँ उपपति के पास जाने के लिए उद्यत किसी अभिसारिका को उसकी सखी मना कर रही है कि अब वहाँ जाना उचित नहीं है । यहाँ भी 'निवार्यते' इस पद के बाद 'प्रस्ताव वैलक्षण्य द् व्यज्यते" इन पदों का शेष मानना चाहिए । इस प्रकार इसका अर्थ होगा कि पूर्वोक्त व्यङ्गय प्रस्तावविशेष के कारण प्रकट होता है । यहाँ भी लक्ष्यार्थव्यञ्जकता और व्यङ्गयार्थव्यञ्जकता है जैसे 'प्रहरमात्र' पद लक्षणा के द्वारा अधिक से अधिक एक प्रहर रूप अर्थ बताता है इसलिए यहाँ लक्ष्यार्थं में व्यञ्जकता है । 'एवमेव' पद से 'स्वच्छन्दता' अर्थं व्यङ्गय है और उस व्यङ्गय से पूर्व निर्दिष्ट व्यङ्गय प्रकट होता है इसलिए व्यङ्गघार्थ में व्यञ्जकता भी यहाँ है । ८- देश के वैशिष्ट्य में व्यञ्जना का उदाहरण - "अन्यत्र यूयम्" इति । हे सखियो, तुम कहीं और जाकर फूल चुनो। यहाँ मैं चुन रही हूं। मैं दूर तक चलने में समर्थ नहीं है । इसलिए तुम्हारे हाथ जोड़ती हूं। मुझ पर कृपा करो (मुझे यहीं अपना काम करने दो ) । पञ "हाथ से चुनना " इस अर्थ में "हस्तादाने चरस्तेये" ( पा०सू० ३/३/४०) या 'चेस्तु हस्तार्थेन' इस सूत्र से प्रत्यय होकर 'अवचाय' शब्द बनता है । हाथ से यदि पाना असम्भव हो तो उस चुनने की क्रिया को 'अवचय' कहते हैं इस तरह यहाँ हाथ से प्राप्य अर्थ होने के कारण अवचाय ही होगा "ऐरच्' से अच् प्रत्यय करके "अवचयः ' नहीं । जान-बूझ कर यहाँ 'अवचाय' शब्द का प्रयोग करके हस्तवाप्य अर्थ की विवक्षा की गयी है। इस विवक्षा से यह निकला कि और जगह फूल इस तरह खिले हुए हैं कि उन्हें हाथ से पाया जा सकता है और आसानी से तोड़ा जा सकता है । इस तरह सखियों को वहाँ जाने का प्रलोभन दिया गया है । यहाँ तो 'अवचय' किया जा सकता बड़ी कठिनाई से वृक्ष आदि पर चढ़कर फूल तोड़े जा सकते हैं। इस तरह यह सूचित किया गया है कि हाथ से पाने फूलों का यहाँ अभाव होने से और भी कोई व्यक्ति यहाँ नहीं आयेगा । इस लिए यह स्थान निर्जन है यह व्यङ्गय विश्वासपात्रा के प्रति अभिव्यक्त होता है । इसीलिये वृत्ति में “विविक्तोऽयं देश : " -- यह स्थान एकान्त है" यह ग्रन्थकार लिखेगे । 'अस्मि' यह 'अहम्' अर्थ में प्रयुक्त होनेवाला अव्यय है। इसका अर्थ 'मैं' है। हाय से नहीं पाने के लायक फूलों को तुम भी कैसे तोड़ पाओगी ? सखियों की इस आशंका को मन में रखकर स्वयं कहती है कि मैं दूर जाने में असमर्थ हूं। इसलिए मुझे छाया में रह कर हाथ से अग्राह्य फूल भी तोड़ने ही पड़ेंगे ! विश्वासपात्र सखी के प्रति जिसे वह व्यङ्ग्य के द्वारा किसी प्रच्छन्न कामुक (ढिपे रुस्तम) को भेजने के Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय उल्लास: अत्र विविक्तोऽयं देश इति प्रच्छन्नकामुकस्त्वयाभिसार्यतामिति आश्वस्तां प्रति कयाचिन्निवेद्यते । दूरभ्रमणासामर्थ्याच्छायामाश्रित्य हस्ताप्राप्यमप्यवचेयं मया कुसुममिति भावः । आश्वस्तां प्रति च एताभिः समं दूरभ्रमणे यदर्थमहमानीता त्वया तदर्थसिद्धिर्न भविष्यति, सहव भ्रमणे पुष्पप्राप्तिसाम्येऽवस्थानाय बीजाभावेऽप्यवस्थाने एतासां मच्चरितज्ञानस्य श्वश्वाश्चैताभिः सहानागमने कोपस्य च सम्भवादिति व्यज्यते। श्वश्रूकोपमेव मनसि निधाय दैन्यं व्यनक्ति प्रसीदतेत्यादिनेति प्रतिभाति । अत्रेति । देश विशेषवैशिष्टयावगमादिति शेषः, प्रच्छन्नकामुक उपपतिः प्रच्छन्न इति पाठे सदा सन्निहितचेट्यादिवेषेन (ण) गुप्त इत्यर्थः । अत्र वाच्योऽर्थः सामान्यसखीविषयो व्यङ्गयं तु रहस्यवयस्याविषय इति बोध्यम् । अत्र भ्रमितुमित्यत्र भ्रामयितु समर्थेत्यत्र योग्येति लक्ष्यार्थस्य प्रोक्ततद्व यङ्गयस्य च प्रकृतव्यङ्ग्यबोधजनकत्वेन लक्ष्यव्यङ्ग्ययोरपि व्यञ्जकत्वस्योदाहरणमिदमित्यवलोकनीयम् ।। लिए कहती है, यह भी अभिव्यक्त होता है कि तुम मुझे जिस प्रयोजन से इतनी दूर चला कर लायी हो। उस प्रयोजन की सिद्धि इन सखियों के साथ रहने या दूर तक भ्रमण करने पर नहीं हो सकेगी। इनके साथ घूमने में फूलों की प्राप्ति जो कि मेरा बनावटी और इनका मुख्य उद्देश्य है समानरूप से होगी; किन्तु वैसा करने पर अर्थात् इनके साथ घूमने पर मैं यहां कैसे ठहर सकूगी ? इस लिए 'नाहं हि दूरे भ्रमितु समर्था" मैं दूर तक चलने में असमर्थ हूं यह कह कर अपनी अशक्ति को यहां ठहरने का कारण बनाना ही पड़ेगा। बिना कारण यदि इनके साथ न घूम कर यहाँ ठहर जाऊँ तो इन(सखियों) को मेरे चरित्र का (तिरिया चरित्र का) पता लग जाएगा और इस पर यदि कल इनके साथ मेरी सास भी आ गयी तो वह भी नाराज होगी। सास के क्रोध को ही मन में सोचकर दीनता प्रकट करती हुई कहती है "प्रसीदायम्......."वः" । "मैं तुम्हारे हाथ जोड़ती हैं मुझ पर कृपा करो, नाराज मत होओ" "अत्र विविक्तोऽयम्......... निवेद्यते" यहाँ 'देशवैशिष्ट्यावगमात्" इन शब्दों का शेष मानना चाहिए। प्रच्छन्नकामुक का अर्थ है उपपति । प्रच्छन्न गुप्त को कहते हैं, जो हमेशा सम्यक् (भली-भांति) तिरोहित चेष्टा आदि और वेश के द्वारा गुप्त रहता है। उसे प्रच्छन्न कहते हैं । उपपति हमेशा अपनी कामुकता की चेष्टा और वेश आदि को तिरोहित (अन्तः सन्निहित) रखता है इसलिए उसे प्रच्छन्नकामुक कहते हैं। इस प्रकार यहाँ देशवैशिष्ट्य के ज्ञान से 'यह एकान्त स्थान है इसलिए तुम उपपति को (प्रच्छन्न कामुक को) यहाँ भेज दो यह अपनी किसी विश्वस्त सहेली के प्रति कोई कह रही है" इस व्यङ्गय की प्रतीति हई। यहाँ वाच्य अर्थ सामान्य सखीविषयक है। अर्थात् वाच्य अर्थ का विषय सामान्य सखियाँ हैं किन्तु व्यङ्गय का विषय रहस्य से परिचित समानवयस्का (हमजोली) है। यह भ्रमितम' पद की लक्षणा 'भ्रामपितुम्" अर्थ में है। 'समर्था' का लक्ष्यार्थ 'योग्या' है इसलिए यह पद्य लक्ष्यव्यंजकता का भी उदाहरण है । पूर्वोक्त व्यङ्गयद्वय से यहाँ प्रकृत व्यङ्गय प्रकट हुआ है । इसलिए यहाँ व्यङ्ग्यार्थ भी व्यङ्ग्यार्थजनक है । अतः यहाँ व्यङ्ग्यार्थ व्यंजकता भी है । १-१६४ पृष्ठ के तृतीय अनुच्छेद में प्रोक्त (देशवैशिष्टय) Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्य-प्रकाशः गुरुप्रणपरवस पिन किं भणामि तुह मंदभाइणो अहमं। अज्ज पवासं वच्चसि वच्च सग्रं जेव्व सुण सि करणिज्जं ॥२१॥ (गुरुजनपरवश प्रिय ! किं भणामि तव मन्दभागिनी ग्रहकम् । अद्य प्रवास व्रजसि व्रज स्वयमेव श्रोष्यसि करणीयम् । ) अत्राद्य मधुसमये यदि व्रजसि तदाहं तावद् न भवामि, तव तु न जानामि गतिमिति व्यज्यते । गुरुप्रणेत्ति-"गुरुजनपरवश प्रिय ! कि भणामि त्वां मन्दभागिन्यहम् । अद्य प्रवासं व्रज स्वयमेव ज्ञातासि किं करणीयम् ॥२१॥ गुरुजनरूपो यः पर उदासीनस्तद्वशत्वं न तु स्वाभिन्नाया ममेत्यपरीक्ष्यकारित्वं निःस्नेहत्वं, प्रियेति सोल्लुण्ठवचनेन प्रियतमस्यैवं कृत्यं न भवतीति, किं भणामीत्यनेन यतो गुरुजनपरवशतयाऽसमीक्ष्यकारित्वमतो नोपालम्भस्यापि विषयः, त्वामिति मन्दभागिन्यहमित्यनेन यदसमीक्ष्यकारिणि त्वयि अहमात्मानं समर्पितवतीत्यहमप्यनाकलितकारिणी किमुपतप्यामि देवमेवोपालभे येन मयि दुर्बुद्धिराहितेति, प्रद्येत्यनेन यत्र चिरप्रवासिनोऽपि गृहमायान्ति, तस्मिन् मधावुपस्थिते तव गृहत्यागो नोचित इति । व्रजसि व्रजेत्यनेन गाढतरमनुरूपाभिप्रायावेदनेन मा वजेति, स्वयमेवेत्यादिना त्वमपि मद्विरहवेदनामनुभूतवानेवासि इति यथा त्वया पूर्व मानावसरे प्राणत्याग उपक्रान्तः तथाऽहमप्युपक्रमिष्या -काल वैशिष्ट्य में व्यंजना का उदाहरण-गुरुअण इति "गुरुजनपरवस.........श्रोष्यसि करणीयम्।" गुरुजनों के परवश हे प्रिय, मैं मन्दभागिनी तुम से क्या कहूं? वस्तुतः, तुम न जाना चाहते हो और न मैं तुम्हें भेजना चाहती हूं; परन्तु माता-पिता आदि.गुरुजनों की आज्ञा के कारण आज (वसन्तकाल में) यदि विदेश जा रहे हो तो जाओ, आगे तुझे क्या करना चाहिये यह बात (मेरी मृत्यु के बाद) तुम्हें स्वयं सुनने को मिल जाएगी। गुरुजनरूप जो पर अर्थात् उदासीन लोग हैं तुम उनके वशीभूत हो, तुझसे अभिन्न (तेरे दुःख-सुख-समभागिनी) जो मैं हूँ उसके अधीन तुम नहीं हो इस तरह नायक से असमीक्ष्यकारिता (अदूरदर्शिता) और निःस्नेहत्व प्रकट होते हैं । प्रिय इस उपहासपूर्ण सम्बोधन के प्रियतम का ऐसा कार्य नहीं होता है। 'कि भणामि' (क्या कहै) इससे गुरुजन के अधीन होने के कारण तुम अविचारपूर्ण कार्य करनेवाले (असमीक्ष्यकारी) बन गये हो इसलिए तुम उपालम्भ (उलाहना) दोषारोपण के पात्र नहीं (तुम्हें दोष नहीं दिया जा सकता), 'त्वाम्' इस पद से और 'मन्दभागिनी अहकम्' इन पदों से असमीक्ष्यकारी तुझको जो मैंने अपने आपको समर्पित किया, इससे सिद्ध है कि मैं भी बिना आगेपीछे सोचे कार्य करनेवाली हूं, फिर को सन्तप्त हो रही है। उस देव को ही उपालम्भ देना चाहिये; जिसने मुझमें कुबुद्धि उत्पन्न की या कुबुद्धि स्थापित कर दी, अद्य इस पद से 'जिस वसन्त समय में चिर प्रवासी भी लौटकर घर आ जाते हैं। उस वसन्त ऋतु के (मधुमय समय के) उपस्थित होने पर तेरा गृहत्याग (घर छोड़कर जाना) उचित नहीं है ये व्यङ्गय प्रकट होते हैं। 'व्रजसि व्रज' 'जाते हो तो जाओ' इससे अत्यन्त गूढतर अनुरूप भाव के निवेदन द्वारा 'मा व्रज' 'मत जाओ' यह व्यङ्गय आता है । "स्वयमेव श्रोष्यसि करणीयम्" इनसे 'तुम भी मेरे विरह की वेदना का अनुभव कर ही चुके हो “यह और जैसे तुम पहले मान के अवसर पर (मेरे रूठ जाने पर) प्राण त्याग करने के लिए तैयार हो गये थे वैसे मैं प्राण त्याग करने पर उतारू हो जाऊँगी" यह अभिव्यक्त होता है। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय उल्लासः १६७ आदिग्रहणाच्चेष्टादेः । तत्र चेष्टाया यथा द्वारोपान्तनिरन्तरे मयि तया सौन्दर्यसारश्रिया, प्रोल्लास्योरुयुगं परस्परसमासक्तं समासादितम् । मोति व्यज्यते । अत्रेति वसन्तरूपकालवंशिष्टयावगमादिति शेषः, अत्र लक्षणया प्रियपदस्याप्रियार्थकतया मन्दभागिनीपदस्य भाग्यवतीत्यर्थकतया लक्ष्यस्य तद्वयङ्ग्यस्य च बहुधा दत्तदुःखत्वस्य मरणप्रयुक्तक्लेशोपशमस्य च व्यञ्जकत्वं बोध्यम् । द्वारोपान्तेति । सौन्दर्यस्य सारभूता श्रीर्यस्याः सा तथा तया सौन्दर्यसारस्योत्कृष्टसौन्दर्यस्य श्रीः शोभा तद्र पयेति वा, अत्रेति चेष्टावैलक्षण्यावगमादिति शेषः । आकूतविशेषो भावविशेषः शृङ्गारसञ्चारिलज्जालक्षण इति कश्चित् । अनुराग इत्यन्ये । वस्तुतः परस्परसमासक्तत्वेनाऽऽलिङ्गनम्, आनीतमित्यनेन गूढागमनम्, अधिक्षिप्त इत्यादिना सूर्यास्तकालेऽवनतमुखं वा, वाचस्तत्र त्यनेन कोलाहलनिवृत्तावागमनं, सङ्कोचिते इत्यनेन पारितोषिकमालिङ्गनं व्यज्यत "अत्राद्य .......... गतिमिति व्यज्यते" यह 'वसन्तरूपकालवैशिष्ट्यावगमात्' इसका शेष मानना चाहिए। इस तरह अर्थ होगा कि आज वसन्त के समय तुम यदि जाते हो तो मैं तो जीवित नहीं रहूंगी; तुम्हारी क्या गति होगी यह मैं नहीं जानती यह वसन्तरूप कालवैशिष्ट्य के ज्ञान से व्यक्त होता है। यहां लक्षणा के द्वारा 'प्रियपद' अप्रिय अर्थ को प्रकट करता है और मन्दभागिनी पद 'भाग्यवती' अर्थ को, इसलिए यहाँ लक्ष्यार्थव्यंजकता भी है । और क्रमशः लक्ष्यार्थ के व्यंङ्गय-बहुधा दुःख देनेवाले और मरणप्रयुक्त क्लेश के शमन से पूर्वोक्त व्यङ्गय निकलता है। इसलिए यहाँ व्यङ्ग्यार्थव्यंजकता भी है। १०-आदि पद से ग्राह्य चेष्टा के व्यंजकत्व का उदाहरण (कारिका में आये हुए आदि पद से चेष्टा आदि का ग्रहण करना चाहिए । उनमें चेष्टा के व्यंजकत्व का उदाहरण देते हैं) द्वारोपान्तनिरन्तरे......... "दोलते । - ज्यों ही मैं दरवाजे के समीप पहुँचा कि उस परम सौन्दर्य-लक्ष्मी ने अपनी दोनों जंघाओं को फैलाकर एक दूसरे से चिपटा लिया, सिर से बहुत नीचे तक लम्बी घूघट निकाल ली, आँखें नीची कर ली, बोलना बन्द कर दिया और अपनी बाहें सिकोड़ लीं। - "जिसकी श्री सौन्दर्य की सारभूत हो, उस नायिका ने” इस विग्रह के अनुसार 'सौन्दर्यसारश्रिया में बहुव्रीहि समास मानना चाहिए अथवा तत्पुरुष भी माना जा सकता है। तत्पुरुष समास के अनुसार इसका विग्रह होगा सौन्दर्य के सार अर्थात् उत्कृष्ट सौन्दर्य की जो शोभा, तत्स्वरूप उस रमणी ने "अत्र चेष्टया प्रच्छन्नकान्तविषय आकृतविशेषो व्यज्यते" यहाँ "चेष्टावलक्षणावगमात्' का शेष मानना चाहिए। इस तरह अर्थ होगा कि यहां चेष्टाविशेष के ज्ञान से प्रच्छन्न (गुप्तरूप में स्थित) कान्तविषयक अभिप्राय विशेष व्यङ्गय है। 'आकृतविशेष' का अर्थ है भावविशेष । उसका तात्पर्य यहाँ शृंगार के 'संचारीभाव' और 'लज्जा' है । यह किसी का मत है । कुछ अन्य लोग उसका तात्पर्य 'अनुराग-विशेष' मानते हैं । वस्तुनः (जंघाओं को) परस्पर सटाना (चिपटाना) इस अर्थ से 'आलिङ्गन' अर्थ अभिव्यक्त होता है, 'आनीतम्' से गूढागमन व्यङ्गय है। 'अधिक्षिप्ते' (अधः क्षिप्ते के स्थान में टीकाकार ने 'अधिक्षिप्ते' पाठ माना है।) इत्यादि से सूर्यास्तकाल में अवनतमुख काल के संकेत द्वारा 'उस सूर्यास्त काल का अर्थ अभिव्यक्त होता है ; जबकि कमल नतमुख हो जाते हैं । अथवा सूर्यास्त काल में मुंह नीचा करके आने का संकेत मिलता है, जिससे लोग मुंह नहीं देख सकेंगे और तब पहचान भी नहीं सकेंगे" यह व्यक्त होता है या अवनत मुख देखकर कोई किसी भावी सुख का अनुमान नहीं कर सकेंगे, इसका संकेत मिलता है । "वाचस्तत्र निवारितम् - बोलना बन्द कर दिया' इससे कोलाहल की निवृत्ति होने पर आना" यह प्रकट होता है। "संकोचिते Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ काम्य-प्रकाशा आनीतं पुरतः शिरोंऽशुकमधः क्षिप्ते चले लोचने, वाचस्तत्र निवारितं प्रसरण सड कोचिते दोलते ॥२२॥ अत्र चेष्टया प्रच्छन्नकान्तविषय आकूतविशेषो ध्वन्यते । इत्याहुः । वयं तु-प्रोल्लास्येत्यनेन त्वदागमनेन ममोल्लासो जात इति परस्परसमासक्तत्वेन कदलीसहशोरूद्वयमेलनात् कदलीद्वयान्तरप्रदेशः सङ्कतस्थानमिति अथवा प्रोल्लास्येत्यनेन कपाटमुद्धाट्यव मया स्थातव्यमिति, परस्परसमासक्तत्वेनार्गलं विनैव कपाटद्वयस्य संयोगमात्र ज्ञयमिति, आनीतमित्यादिना चन्द्रसदृशमुखाच्छादनेन चन्द्रास्तसमये समागन्तव्यमिति, स्त्रीवेषं धत्वा समागन्तव्यमिति वाऽधः क्षिप्ते इत्यादिना चाञ्चल्यं त्वया न विधयमुचितकाल एव समागन्तव्यमिति, यथा न कश्चित् पश्यतीति वा, वाच इत्यादिना वचनस्था अपि न ज्ञापनीया इति, मौनेनाऽऽगन्तव्यमिति वा, सङ्कोचिते इत्यादिना परिजनानां यथा निद्राविच्छेदो न भवति तथा विधेयमिति, अथवा रूपकेण लतासदृशात्मसङ्कोचस्तेन स्वमरणं तेन च मरणशपथस्तव यदि न समागम्यते भवतेति व्यज्यते इति पश्यामः । ननूक्तोदाहरणेष्वेक दोलते" इससे आने के पारितोषिक के रूप में 'आलिङ्गन' प्राप्त होगा यह व्यङ्गय अर्थ निकलता है। यह भी कोई कहते हैं। यहाँ मेरा मत (टीकाकार का मत) इस प्रकार है-मैं तो सोचता हूं कि यहाँ 'प्रोल्लास्य' से यह प्रकट होता है कि तेरे आने से मुझे प्रसन्नता हुई है। इसीलिए 'प्रसार्य' पद का प्रयोग न करके 'प्रोल्लास्य पद का प्रयोग किया है। "प्रोल्लास" से शब्दमर्यादा के कारण वैसा 'प्रसारण प्रकट होता है जिसमें उल्लास ही नहीं किन्तु 'प्रकृष्ट उल्लास' : हो। "परस्पर समासक्त" 'आपस में सटाना' इससे कदली-स्तम्भ के समान (सुन्दर वतुल और स्थूल) जंघाद्वय के मेल के द्वारा केले के दोनों स्तम्भों के बीच का प्रदेश (प्रकृष्ट देश-उत्कृष्ट स्थान) संकेत स्थान होगा, यह प्रतीत होता है । अथवा 'प्रोल्लास्य', के द्वारा कपाट (दरवाजा) खोलकर ही मै रहूंगी, “परस्पर समासक्त" से दरवाजे वैसे ही ढाले हुए होंगे, वे बिना अर्गला-सांकल या कुन्दे के वैसे ही बन्द होंगे इसलिए दोनों कपाट केवल संयुक्त हैं यही मानना, "आनीतं पुरत: शिरोंऽशुकम्" सिर पर लम्बी घूघट डाल ली" इससे चन्द्र-सदृश मुख के आच्छादन द्वारा चन्द्रमा के डूबने पर आना, अथवा स्त्री का वेश बनाकर आना, "अधःक्षिप्ते चले लोचने" 'आँखें नीची कर ली" इससे तुझे चञ्चलता या उतावलापन नहीं दिखाना चाहिए, अथवा ऐसे आना जिससे कोई न देख पाये, (आँखें बन्द करना-नहीं देखने का सकेत भी है) 'वाचस्तत्र निवारितं प्रसरणम्' इससे "वचनस्थ (आज्ञाकारी) को भी नहीं बताना या मौन होकर आना, 'संकोचिते दोलते' इससे (आहट और आङ्गिक संयम की विवक्षा द्वारा) परिजनों की नींद न खुले इस तरह काम करना और आना ये व्यङ्गय निकलते हैं। अथवा 'दोलता' में बांह की लता के साथ दिये गये रूपक से लता (लजवन्ती-छुई मुई नामक लता से तात्पर्य है) के समान (मूक) संकोच व्यक्त होता है, उससे स्वमरण सूचित होता है उससे यह प्रकट होता है कि 'तुझे मेरी मृत्यु की शपथ है यदि तुम न आओं' यह व्यङ्गयरूप में अभिव्यक्त होता है। पृथक-पृथक उदाहरण देने के कारण ग्रन्यकार ने यहाँ आर्थी व्यञ्जना के दसों भेदों के पृथक-पृथक उदाहरण दिये हैं । यद्यपि दो-तीन या अधिक भेदों को मिलाकर एक दो उदाहरणों में ही इन सबकी व्यञ्जकता दिखाई जा सकती थी तथापि पृथक-पथक उदाहरणों की जिज्ञासा की निवृत्ति के लिए और (पृथक्-पृथक) उदाहरण देने का अवसर प्राप्त होने के कारण अलग-अलग उदाहरण दिये गये हैं। यही बात बताते हुए लिखते हैं 'निराकाङ्क्षत्वप्रतिपत्तये......।' Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय उल्लासः निराकाङ्क्षत्वप्रतिपत्तये प्राप्तावसरतया च पुनः पुनरुदाह्रियते। वक्त्रादीनां मिथःसंयोगे द्विकादिभेदेन । स्मिन्नेव वैशिष्टथद्वयस्य [सत्वे-सम्भवे वा] किमुदाहरणबाहुल्येनेत्यत आह-निराकाङ्क्षप्रतिपत्तय इति । मिलितेषु कस्य व्यञ्जकत्वमिति सन्देहे यस्य यत्र प्राधान्यं तस्य तत्र व्यञ्जकत्वमन्येषामानुगुण्यमात्रमिति शिष्यव्युत्पत्त्यर्थमित्यर्थः, प्राप्तावसरतया चेति । एकत्र वैशिष्टयत्रयायुदाहरणे क्रमेणोदाहरणज्ञानाभावाच्छिष्यजिज्ञासाक्रमेण तदुदाहरणज्ञानायेत्यर्थः, सर्वेषां प्रायशोऽर्थानामित्यनेनैवार्थव्यञ्जकत्वे दर्शित किमनेनेत्यत उक्तम् 'निराकाङ्क्षेति, किं साहित्येनार्थस्य व्यजकत्व' मित्याकाङ्क्षानि.. वृत्त्यर्थमित्यर्थः । प्राप्तेति, शब्दव्यञ्जकतानिरूपणानन्तरमर्थव्यञ्जकतानिरूपणस्य प्राप्तावसरत्वादिअवतरण संगति:- . "उक्त उदाहरणों में एक में ही दो प्रकार के वैशिष्टय हैं या हो सकते हैं फिर बहुत से उदाहरण को दिये गये ? "इसका प्रथम समाधान देते हुए लिखते हैं 'निराकान...इत्यादि बहुत से वैशिष्ट्यों के एक जगह मिल जाने पर किसकी व्यञ्जकता है जब ऐसा सन्देह उपस्थित होगा, तब 'जहाँ जिसकी प्रधानता है वहाँ, उसकी व्यजकता माननी चाहिए और दूसरों को उसके अनुगुणक मात्र (सहायक मात्र) मानकर गौण मानना चाहिए यह ज्ञान शिष्य को देने के लिए अलग-अलग उदाहरण दिये गये हैं। शिष्य जब पूर्वोक्त उदाहरणों में निर्दिष्ट वैशिष्टय की व्यजकता के अतिरिक्त किसी अन्य वैशिष्ट्य को भी व्यञ्जक होते पाएगा, तो वह गुरु से जिज्ञासा प्रकट करेगा कि गुरुजी, इस श्लोक को जिस वैशिष्ट्य की व्यञ्जकता के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया गया है, उसमें अमुक वैशिष्ट्यमूलक अर्थव्यजकता भी हो सकती थी, वह क्यों नहीं दिखायी गयी, जैसे- "अन्यत्र यूयम्" इस श्लोक को देश वैशिष्ट्यमूलक आर्थीव्यञ्जना का उदाहरण दिया गया है, परन्तु यहाँ वक्तृवैशिष्ट्यमूलक आ व्यञ्जना भी हो सकती है वह क्यों नहीं बतायी गयी तो गुरु बतायेगा कि यहाँ देशवैशिष्ट्य में प्राधान्य विवक्षित है, वक्ता के वैशिष्ट्य के कारण व्यङ्गय निकल सकता है; परन्तु वह देश वैशिष्ट्यमूलक व्यङ्ग्य से न्यून चमत्कारक होगा। इसी लिए इसे वक्तृवैशिष्ट्यमूलक व्यञ्जना का उदाहरण नहीं दिया। इस तरह वाक्यवैशिष्ट्य और वाच्यवैशिष्ट्य में दिये गये व्यजना के उदाहरणों में एक दूसरे के उदाहरण का सन्देह होने से उसे बताया जायगा कि जहाँ वाक्य का प्राधान्य विवक्षित होता है, वहां वाक्य वैशिष्ट्यमूलक आर्थीव्यञ्जना होती है और जहाँ वाच्य की प्रधानता विवक्षित होती है; वहाँ वाच्यवैशिष्ट्य में आर्थीव्यञ्जना मानी जाती है। इस तरह के ज्ञान से न केवल जिज्ञासा शान्त होगी परन्तु उसे एक मार्ग या व्युत्पत्ति मिलेगी जिसके आधार पर वह व्यञ्जना में वैशिष्ट्य विशेष की प्रधानता और अप्रधानता का निर्णय कर सकेगा। ____ अलग-अलग उदाहरण देने का दूसरा कारण बताते हैं 'प्राप्तावसरतया इति'- तात्पर्य यह है कि यदि एक ही उदाहरण में तीन वैशिष्ट्य बताये जाते तो वह उदाहरण कारिका में उल्लिखित लक्ष्यों के नाम-क्रमानुसार नहीं होता। इसलिए क्रमिक उदाहरण की शिष्य की जिज्ञासा के अनुसार उन भेदों के उदाहरण ज्ञान के लिए पृथक पृथक् दिये गये। - किसी और का मत है कि "सर्वेषां प्रायशोऽर्थानाम" इसी ग्रन्थ के द्वारा जब अर्थव्यञ्जकत्व का उल्लेख किया जा चुका है तो फिर इस (सन्दर्भ) के लिखने से क्या लाभ ? इस प्रश्न के समाधान के लिए निराकाङ्क्षत्यादि पङ्क्ति लिखी गयी है। किस के साहित्य से (सहकार से) या किस सहकार से अर्थव्यञ्जक बनता है इस आकाङ्क्षा की निवृत्ति के लिए यह तृतीय उल्लास लिखा गया है। १. द्वितीय उल्लास सूत्र। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० काव्य-प्रकाशः त्यर्थ इत्यन्ये । एवम् एककोदाहरणं त्वया दतं, क्वचिद् द्वितयवैशिष्टयात् क्वचिच्च त्रितयवैशिष्टयाद् व्यङ्यविशेषप्रतीतिरिति कथं, कथं च वक्त्रादिलक्षण्या लक्ष्यव्यङ्गययोर्व्यञ्जकत्वमवसेयमित्यत आहवक्त्रादीनामिति,द्विकादिभेदे इत्यस्य व्यञ्जकत्वमित्यनेनान्वयः, उदाहरणान्तरमन्विष्य ज्ञेयमित्यर्थः । तेन अत्ता एत्थेत्युदाहरणान्तरं सङ्गच्छते। वस्तुत एण्वेवोदाहरणेषु ज्ञेयमित्यर्थः । अइपिहुलमित्यादौ वक्तृबोद्धव्ययोविशेषात् तत इयामहेत्यादौ वाक्यप्रतिपाद्यतत्प्रेयसीरूपान्यसन्निधानवैशिष्टयादुक्तव्यङ्गयप्रतीतिरेवमन्यत्राप्यूह्यम् । लक्ष्यव्यङ्गययोश्च वैशिष्ट्यं प्रत्युदाहरणं प्रागहमवर्णयमेवेति ज्ञेयम्, यथा निराकाङ्क्षप्रतिपत्तये एकैकस्य पार्थक्येनोदाहरणं तथा द्विकादिभेदेऽप्यस्तीत्यपेक्षायाम् । "श्वश्रूरत्र शेते अत्राहं दिवस एव प्रलोकय । मा पथिक ! रात्र्यन्ध ! शय्यायामावयोः शयिष्ठाः ।। (अत्र) प्रथमार्धन मदीयशय्याभ्रमेण श्वश्रूशयने मा पतिष्यसि। रायन्धेत्यनेन यदि कश्चित् . शब्द की व्यजकता के निरूपण के बाद अर्थव्यजकता के निरूपण का अवसर प्राप्त था इसलिए भी यह सब लिखना और अलग-अलग उदाहरण देना आवश्यक था। "वक्त्रादीनां......भेदेन" की अवतरण संगति : इन उदाहरणों में आपने अलग-अलग वैशिष्ट्यों की अलग-अलग व्यञ्जकता दिखायी है और एक-एक का उदाहरण आपने दिया है; परन्तु कहीं दो वैशिष्ट्यों से और कहीं तीन वैशिष्ट्यों से व्यङ्गय विशेष की प्रतीति होती है; वह कैसे सम्भव है ? और वक्त्रादि की विलक्षणता से लक्ष्य और व्यङ्गय की व्यजकता को कैसे जानें ? इस जिज्ञासा की शान्ति के लिए लिखते हैं-"वक्त्रादीनाम्......भेदेन" । पूर्ववाक्य में "द्विकादिभेदे" इसका 'व्यजकत्वम्' इसके साथ अन्वय मानना चाहिए। इस तरह ग्रन्थकार बताते हैं कि वक्ता आदि के परस्पर संयोग से दो-दो या तीन तीन भेदों की (मिलित) व्यञ्जकता भी होती है। इन द्विक और त्रिक भेदों के उदाहरण (वाक्य से) खोज कर जानने चाहिए। इसी से "अत्ता एत्थ" इस उदाहरणान्तर की संगति बैठती है। वस्ततः इन्हीं उदाहरणों में दिक और त्रिक भेदों के उदाहरण भी जानने चाहिए। जैसे “अइ पिहल" इस उदाहरण में (जो वक्ता के वैशिष्ट्य में दिया गया है) वक्ता और बोद्धव्य दोनों का मिलित वैशिष्ट्य मिलता है, इसलिए यह उदाहरण 'द्विकवैशिष्ट्य' का हो सकता है। इसी तरह 'तइया मह' इस उदाहरण को जो यहाँ वाक्य वैशिष्ट्य-मूलक आर्थी व्यञ्जना के उदाहरण के रूप में आया है त्रिकभेद का भी उदाहरण समझना चाहिए, क्योंकि यहाँ (वाक्य वाच्य दोनों वैशिष्ट्य के साय उस प्रेयसीरूप अन्य (व्यक्ति) के सानिधान का एक तीसरा भी वैशिष्ट्य है, जो वाक्य के द्वारा प्रतिपादित हुआ है। इस तरह ऊह के द्वारा अन्य उदाहरणों में भी द्विक और त्रिक वैशिष्ट्य ढंढ़े जा सकते हैं। मैंने (नैयायिक टीकाकार ने) प्रत्येक उदाहरण में वाच्य की व्यजकता दर्शाते समय लक्ष्य और व्यङ्गय का वैशिष्टय पहले दिखाया ही है उसे वहीं से समझना चाहिए । “यही बात बताते हुए लिखते हैं "अनेन क्रमेण उदाहार्यम्" इस क्रम से लक्ष्य तथा व्यङ्गय अर्थों के व्यजकत्व के उदाहरण समझ लेने चाहिए "क्रम पहले ही समझाया गया है। जैसे निराकाङ्क्षत्व प्रतिपत्ति के लिए (जिज्ञासा शान्ति के लिए एक-एक का अलग-अलग उदाहरण दिया गया है वैसे द्विकादि भेद के भी उदाहरण हैं, इस सन्दर्भ में या अपेक्षा होने पर 'अत्ता एत्थ' "श्वश्रूरत्र" यह उदाहरण दिया जा सकता है। हे रतौंधी के मरीज पथिक, दिन में भली भांति देख लो, यहाँ मेरी सास सोती है, सोती क्या है वह तो मानों नींद में डूब जाती है (निमज्जति) और मैं यहाँ लेटती हूँ। रतौंधी के कारण रात में दिखाई न देने से कहीं मेरी शय्या पर न गिर पड़ना। Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय उल्लासः अनेन क्रमेण लक्ष्यव्यङ्गययोश्च व्यञ्जकत्वमुदाहार्यम् । [सू० ३८] शब्दप्रमाणवेद्योऽर्थो व्यनक्त्यर्थान्तरं यतः। त्वां मच्छयने पश्येत् तदाऽहं रात्र्यन्धतावशादत्रापतमिति ब्रूयाः इति व्यङ्गयम्। 'मह' इत्यावयोरर्थे निपातः, तेन श्वश्रूशय्यासाधारण्येन स्वशय्यापतनप्रदर्शने परस्य व्यङ्गयबोधो निर्वायत इति बोध्यम् । अत्र वक्तृप्रतिपाद्ययोः प्रसिद्धव्यभिचारयोर्वेशिष्टयावगमात् प्रकृतार्थप्रतीतिरिति वदन्ति । न च पथिकत्वेन प्रतिपाद्ये व्यभिचारप्रसिद्धरभाव इति वाच्यम्, 'पहिअ [र) त्ति अंधये' त्यत्र प्रथितरात्र्यन्धेत्यर्थादित्याभाति । ननूक्तोदाहरणेषु शब्दार्थयोर्द्वयोरपि व्यञ्जकत्वात् कथमर्थमात्रव्यञ्जकत्वमत आह-शब्दप्रमाणेति । शब्दस्य सहकारितेति, पदान्तरप्रतिपाद्यमानस्यापि प्रकृतार्थस्य व्यञ्जकत्वात् परिवृत्तिसहत्वेन यहाँ गाथा के प्रथमाई के द्वारा 'मेरी शय्या के भ्रम से कहीं मेरी सास की शय्या पर नहीं गिर पड़ना' यह व्यङ्गय प्रकट होता है । 'रात्र्यन्धक' 'रतौंधी के मरीज' इससे 'यदि कोई तुझे मेरी शय्या पर देखे तो यह बोलना कि मैं रतौंधी के कारण यहां गिर पड़ा हूँ जान बूझ कर यहाँ नहीं सोया हूँ, यह व्यङ्गय निकलता है। इस तरह अपराध परिमार्जन का उपाय दिखाया गया है । 'मह' यह शब्द 'आवयोः' हम दोनो इस अर्थ में निपातित हुआ है। इस से सास और अपनी दोनों की शय्याओं पर गिर पड़ने की सम्भावना दिखाकर पथिक से अतिरिक्त व्यक्ति को जो उसे वस्तुतः रतौंधी के मरीज मानते हैं, पूर्वोक्त व्यङ्गयबोध नहीं होगा। इसलिए यहां उन वक्ता और बोद्धव्य दोनों के वैशिष्टय का ज्ञान हो रहा है जिनमें व्यभिचार की बात मशहूर हो चुकी है। वक्ता और बोद्धव्य के मिलित वैशिष्टय से शय्या पर आने का आमन्त्रण स्वरूप व्यङ्गय प्रतीत होता है इसलिए यह 'द्विक भेद' का उदाहरण है। अभी-अभी आपने जो बताया कि यहां वक्त्री नायिका और सम्बोध्य पथिक दोनों की व्यभिचार वार्ता प्रसिद्ध हो चुकी है, यह तो ठीक प्रतीत नहीं होता क्योंकि इस गाथा का सम्बोध्य (प्रतिपाद्य) पथिक है, वह तो कोई मुसाफिर है, मुसाफिर तो अजनबी (अपरिचित) ही होता है ऐसी स्थिति में बोद्ध व्य के व्यभिचार को प्रसिद्ध कहना तर्कसंगत नहीं जान पड़ता? ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि “रात्र्यन्धक" रतौंधी के मरीज यह विशेषण भले ही झूठा ही क्यों न हो सुननेवालों को उसके कई बार (वह पथिक रूप में ही क्यों न हो) यहां आवागमन की सूचना देता है। इसलिए यहां के प्रतिपाद्य पथिक को अपरिचित-एकदम अपरिचित नहीं कहा जा सकता। एक अपरिचित पथिक को रायन्धक कोई नहीं कह सकता। जिस पथिक के रात में देखने का प्रमाद ज्ञात हो चुका है। उसे ही ऐसा सम्बोधन दिया जा सकता है। जिस पथिक की रात्र्यन्धता तो प्रथित (प्रसिद्ध) ही है उसकी व्यभिचार कथा भी प्रथित हो तो वह स्वाभाविक ही है। आर्थीव्यंजना में शब्द की सहकारिता का प्रतिपादन और उसकी अवतरण संगतिः उक्त उदाहरणों में शब्द और अर्थ दोनों व्यंजक हैं फिर इन उदाहरणों में अर्थमात्र की व्यंजकता कैसे मानी जाती है इस जिज्ञासा की शान्ति के लिए कारिका लिखते हैं शब्दप्रमाणवेद्योऽर्थो-सहकारिता । इत्यादि । __शब्द प्रमाण से वेदय. अर्थ ही अर्थान्तर को व्यक्त करता है; इसलिए अर्थ के व्यंजकत्व में शब्द सहकारी होता है। इस तरह उक्त उदाहरणों में शब्द मुख्यरूप में व्यंजक नहीं है। प्रधानरूप से व्यंजक अर्थ है इसलिए "प्राधान्येन व्यपदेशाः भवन्ति" नामादि की व्यपदेशता का आधार प्राधान्य है अर्थात् जो प्रधान होता है उसी को आधार बनाकर नाम रखे जाते हैं इसलिए प्रधानरूप में अर्थ के व्यंजक होने के कारण उक्त उदाहरणों में अर्थव्यंजकता दिखाना संगत ही है। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१७२ काव्य-प्रकाशः अर्थस्य व्यजकत्वे तच्छब्दस्य सहकारिता ॥२३॥ शब्देति । नहि प्रमाणान्तरवेद्योऽर्थो व्यञ्जकः । इति काव्यप्रकाशेऽर्थव्य जकतानिर्णयो नाम तृतीयोल्लासः । शब्दस्याप्राधान्यादर्थव्यञ्जकताव्यपदेशः 'प्राधान्ये व्यपदेशा भवन्ति' इति न्यायादिति भाव इति मधुमतीकृतः । परमानन्दप्रभूतयस्तु नन्वेवमर्थस्य प्रमाणान्तरतापत्तिः तदसाधारणसहकारेण मनसा व्यङ्गचप्रमापनादित्यत आह- शब्देति । तथा च शब्दान्वयव्यतिरेकानुविधानाच्छब्दस्यैव प्रधानता मधुमती टीकाकार का मत मधुमती टीकाकार का यही कहना है कि इन उदाहरणों में शब्द सहकारी है। मुख्य व्यञ्जक नहीं है। पूर्वोक्त उदाहरणों में शब्दों का पर्यायपरिवर्तन हो सकता है । जो पद यहां प्रयुक्त हुए हैं उनके स्थान पर यदि उनके पर्याय दूसरे पद प्रयुक्त हों, तो उन पदान्तरों के द्वारा प्रतिपादित अर्थ भी व्यञ्जक पूर्ववत् बने रहते हैं । इस तरह यहाँ शब्दपरिवृत्तिसह है; शब्दपरिवर्तन को सहन करते हैं, शब्दों में पर्यायपरिवर्तन किया जा सकता है। इसलिए यहाँ शब्द के अप्रधान होने के कारण अर्थ की व्यञ्जकता मानी गयी है; क्योंकि अर्थ यहाँ प्रधान है, वह अपरिवर्तनीय है। व्यपदेश प्राधान्य के आधार पर होता है। इसलिए इस व्यञ्जना का नाम 'आर्थी व्यजना पड़ा और उक्त उदाहरणों को अर्थव्यजकता का उदाहरण माना गया। परमानन्द आदि अन्य आचार्यों का मा परमानन्द प्रति आचार्यों का मत है कि यदि अर्थ को व्यञ्जक माने तो अर्थ को अतिरिक्त प्रमाण मानना पड़ेगा, दार्शनिकों ने शब्द को तो प्रमाण माना है किन्तु अर्थ को शब्द से अलग करके प्रमाणों में नहीं गिनाया है। इसलिए केवल अर्थ को व्यजक नहीं मानना चाहिए । अर्थ को व्यञ्जक मानने का तात्पर्य है कि आप अर्थ के असाधारण सहकार से सहकृत मन से व्यङ्गयबोध मानते हैं, ऐसा ठीक नहीं है, यह बताते हुए ग्रन्थकार ने कारिका अवतरित की है- शब्द प्रमाण-कारिता । इस तरह सिद्ध हुआ कि अर्थ शब्द का अन्वय-व्यतिरेकानुविधायी है अर्थात 'शब्दसत्त्वे अर्थसत्त।' इस अन्वय और 'शब्दाभावेऽर्थबोधाभावः' इस व्यतिरेक से युक्त शब्द है इसलिए वही प्रधान है न कि अर्थप्रधान है । शब्द रहने पर अर्थबोध होता है और शब्दाभाव में नहीं होता ये अन्वय और व्यतिरेक शब्द की प्रधानता सिद्ध करते हैं । "जो व्यञ्जक हो वह प्रमाण हो" इसको आधार बनाकर आपने अर्थ की व्य कता का खण्डन किया है परन्तु इस आधार पर तो कटाक्षादि की व्यञ्जकता भी छीनी जा सकती है क्योंकि यदि उसे व्यजक मानेंगे तो इसे भी प्रमाणान्तर मानना पड़ेगा? इस तर्क से उसकी सर्वसम्मत और 'चेष्टादिकस्य च' शब्द के द्वारा मम्मटस्वीकृत व्यजकता समाप्त हो जायगी ऐसा दोष नहीं देना चाहिए । चेष्टादि अपने आप ज्य क नहीं है चक्षुर-दि प्रमाणान्तर के उपस्थापित चेष्टादि ही व्यंजक होती हैं, सब नहीं । अर्थप्रत्यक्ष के द्वारा हमने कई बार मुह के आगे अजलि जोड़कर कई व्यक्तियों को पानी पीते देखा है तभी हन इस मुद्रा से मुद्रा प्रदशित करनेबाले की पिपासा जानते है, जिन चेष्टाओं का अर्थ प्रत्यक्ष से हमें ज्ञात नहीं है, वह कभी ब्यस्जक नहीं बनती। इस तरह अर्थ भी अप्रधानरूप में व्यस्मक है और चेष्टा भी। वृत्ति में लिखी हुई पक्ति "नहि प्रमाणान्तरवेद्योऽर्थों व्यजकः" की व्याख्या करते हए उन्होंने लिखा है Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ तृतीय उल्लासः नार्थस्य । न च कटाक्षादेरपि व्यञ्जकत्वात्तस्य प्रमाणान्तरतापत्तिः, तस्यापि चक्षुरादिप्रमाणान्तरोपस्थापितस्यैव व्यञ्जकत्वादिति भाव इत्याहुः, न हीति, प्रकृत इति शेषः, अन्यथा नेत्रत्रिभागादेरपि व्यञ्जकत्वादसङ्गत्वापत्तिरित्यवधेयम् । वयं तु ननु यचत्र शब्दस्य न व्यञ्जकत्वं तदा प्रकृष्टाप्रकृष्टव्यङ्गवच्छन्दार्थयुगलत्वरूपोतममध्यमकाव्य लक्षणानाक्रान्ततयाऽव्यङ्गयरूपाधमकाव्यताऽभ्युपगमेऽर्थस्थापि व्यञ्जकता व्यवस्थापनमनु कि 'नहि' के बाद 'प्रकृते' पद का शेष मानना चाहिए। इससे उक्त पङ्क्ति का अर्थ होगा कि प्रकृत में (यहाँ) प्रमाणातर (अनुमान आदि अन्य प्रमाणों) से वेद्य अर्थ व्यक नहीं होता है। अन्यथा ( यदि शेष न मानें तो नेत्र-विभाव ( कटाक्ष ) आदि को भी व्यञ्जक होने के कारण पूर्वोक्त पङ्क्ति का अर्थ असंगत हो जायगा । प्रस्तुत टीकाकार का मत हम तो यह समझते हैं कि यदि आप ना के उदाहरणों में शब्द को व्यजक नहीं मानें तो इन उदाहरणों में प्रकृष्ट व्यङ्गय से सम्पन्न शब्द और अर्थ दोनों के न होने से इन्हें उत्तमकाव्य के लक्षण से अनाकान्त होने के कारण उत्तम काव्य नहीं कह सकते हैं, अप्रकृष्ट व्यङ्गययुक्त शब्द और अर्थ दोनों के न होने से इन्हें मध्यमकाव्य के लक्षणों से भी दूर होने के कारण मध्यमकाव्य भी नहीं कह सकते क्योंकि मम्मट ने काव्य के सामान्य लक्षण में "शब्दार्थी" कह कर शब्द और अर्थ दोनों पर तुल्य बल दिया है।' इसलिए उन उदाहरणों में यदि शब्द को व्यञ्जक नहीं मानेंगे तो उत्तम और मध्यम काव्य के लक्षण वहाँ नहीं घटेंगे ऐसी स्थिति में शब्द के अव्यञ्जक होने से वहाँ अन्यङ्गरूप अधमकाव्यता हो माननी होगी ? क्योकि शब्दार्थयुगल को काव्य कहा गया है, शब्द के अध्यक होने से काव्य का एक पक्ष व्यङ्ग्य शून्य हुआ इसलिए उन्हें अव्यय होने के कारण अधम-काव्य ही कहना पड़ेगा । ऐसी स्थिति में अर्थ की व्यञ्जकता का व्यवस्थापन करना अनुचित ही है इसी आशय से लिखा गया है "प्रमाण बेद्यः -- सहकारिता" तात्पर्य यह है कि उक्त उदाहरणों शब्द भी सहकारीरूप में व्यञ्जक है ही । इसलिए शब्दार्थयुगल के व्यञ्जक होने से और प्रकृष्ट व्यङ्गय की प्रतीति होने से इन उदाहरणों की गिनती उत्तमकाव्य की श्रेणी में ही की जायगी। इसलिए इन उदाहरणों में आर्थी अञ्जना मानने में कोई आपत्ति नहीं है। सहकारी रूप में शब्द भी व्यञ्जक है ही ; इसलिए शब्द के अयञ्जक होने से इन्हें अधम काव्य भी नहीं कहा जा सकता। बात यह है कि शाब्दी व्यञ्जना में शब्द मुख्य रूप से व्यञ्जक होता है और अर्थ इसका सहकारी होता है। इस लिए अर्थ भी सहकारी होने से व्यञ्जक होता है ठीक इसी तरह आर्थी व्यञ्जना में अर्थ में मुख्य रूप से व्यञ्जकता रहती है। और शब्द में सहकारी रूप से । इसलिए दोनों भेदों में शब्दों और अर्थ दोनों में व्यञ्जकता सिद्ध होने के कारण काव्य लक्षण के समन्वयन में कोई बाधा नहीं आती है । ; हमारे विचार में "महि प्रमाणान्तरवेद्योऽथ व्यञ्जकः वृत्ति के इस वाक्य की व्याख्या इस प्रकार हैशब्द प्रमाण से गम्य अर्थ ही काव्य में व्यञ्जक होता है। यहां अनुमानादि अन्य प्रमाणों से गम्य अर्थ कटाक्षादि की तरह नहीं होते हैं। लोकोत्तरवर्णनानिपुण कवि की शब्दमयी रचना काव्य कहलाती है। कवि शब्द के कु शब्दे या कुङ शब्दे धातु से बना हुआ है। वर्णन का आधार यहाँ शब्द होता है, वहीं काव्यत्व माना जाता है । इसलिए विविध मुद्रा, कटाक्ष, चित्र आलेख आदि व्यञ्जक होते हुए भी काव्य नहीं कहलाते हैं । "द्वारोपान्त निरन्तरे मवि" इस बलोक में विविध चेष्टाओं का शब्दमय वर्णन है। अतः यहां काव्यत्य है और यहां शब्द ही व्यक है। इस लिए यह ठीक ही है कि काव्य जगत् में कटाक्षादि की तरह शब्द से भिन्न (प्रत्यक्ष अनुमानादि ) प्रमाणों से गम्य अर्थ व्यञ्जक नहीं होता । Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ चितमत आह शब्देति । नहीति । कटाक्षादेरिव प्रमाणान्तरवेद्यस्यार्थस्य न व्यञ्जकत्वं येनोक्तलक्षणक्षतिरापद्यतेति भाव इति व्याचक्ष्महे । तृतीयः ।। इति श्रीः ॥ इति न्यायविशारद-न्यायाचार्य-महोपाध्याय-श्रीमद्यशोविजयगणि-विरचित-काव्यप्रकाशटीकायाम् अर्थव्यञ्जकता-निरूपणात्मको नाम तृतीयः समुल्लासः । हम पूर्वोक्त सन्दर्भ की ऐसी व्याख्या करते है और कटाक्षादि की तरह प्रमाणान्तर (मद भिन्न प्रमाणों) से वेद्य अर्थ को व्यजक नहीं मानते हैं इसलिए उक्त (काव्य) लक्षण में कोई दोष नहीं आता है । उस लक्षण का उक्त उदाहरणों में समन्वय हो जाता है ! क्योंकि वहाँ प्रधान या सहकारी रूप में शब्द, और पर्थ दोनों व्यचक हैं। शब्द से अवणित कटाक्षादि चेष्टाओं में शब्द की व्यञ्जकता के नहीं होने के कारण लक्षण का असमन्वय इष्ट ही है। क्योंकि कोरी कटाक्षादि चेष्टाएँ काव्य नहीं हैं । तृतीय उल्लास: मुनि श्री यशोविजय जी उपाध्याय कृत 'काव्य प्रकाश की संस्कृत टीका' में तीसरा उल्लास समाप्त हुआ। ॥ इति श्रीहर्षनाथमिश्रकृते हिन्दीभाषानुवादे तृतीय उल्लासः॥ . Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अनेकार्थस्य शब्दस्य अर्थव्यञ्जकतोच्यते प्रर्याः प्रोक्ताः पुरा एवमप्यनवस्था ज्ञानस्य विषयो तच्च गूढमगूढं वा तत्र व्यापारों तदेषा कथिता प्रथम परिशिष्ट arorarer द्वितीय तथा तृतीय उल्लास के सूत्रों की कारादि-क्रम से सूची तद्भूर्लाक्षणिक : तद्युक्तो व्यञ्जकः तात्पर्यार्थोऽपि केषुचित् नाभिधा समयाभावात् प्रयोजनेन सहितं भेदाविमौ च सादृश्यात् मुख्यार्थबाधे तद्योगे यत्सोऽर्थान्तरयुक् यस्य प्रतीतिमाधातु पृष्ठ १३१ १४८ १४० ११५ ११५ १०१ १०६ १०५ १०६ १४३ ६ १०६ ११७ ८३ ५४ १४४ १०७ सूत्र लक्षणा तेन षड्विधा लक्ष्यं न मुख्यं वक्तृबोद्धव्य ० वाच्यादयस्तदर्थाः स्युः विशिष्टे लक्षणा विशेषाः स्युस्तु विषय्यन्तः कृतेऽन्यस्मिन् व्यङ्ग्येन रहिता रूढी शब्दप्रमाण ० सङ्केतितश्चतुर्भेदो सर्वेषां प्रायशोऽर्थानां साक्षात्सङ्केतितं सारोपान्या तु स्याद्वाचको लाक्षणिक: स्वसिद्धये पराक्षेपः हेत्वभावान्न लक्षणा पृष्ठ EX १११ १४६ ४ १२४ १२५ ८१ १०० १७१ ३३ ५३ १३ २५ ८१ १ ५६ ११० Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र पद्य १०२ द्वितीय परिशिष्ट काव्यप्रकाशस्थ द्वितीय-तृतीय उल्लास के मूल, टीका, हिन्दी अनुवाद तथा टिप्पणी में दिये गये उदाहरण और उद्धरणों को प्रकारादि क्रम से सूची पद्य अइ. पिहुलं जलकुभं न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके (हि. अ.) अन्यत्र यूयं कुसुमावचायं भद्रात्मनो दुरधिरोह १३६ अभिधेयाविनाभूत (वृत्ति) • ८७ माए घरोवअरणं १६.. उस णिच्चलणिप्पंदा २२ मुखं विकसितस्मितं उद्देशोऽयं सरसकदली या च भूमिविकल्पानां (टिप्पणी) एदहमेत्तत्थणिआ योऽसकृत् परगोत्राणां (हि. अ.) . १३९ बीषिणदं दोव्वल्लं १५१ विशेषणादिव्यवहार० (टिप्पणी) गुरुमणपरवस पिस विशेष्यं नाभिधा गच्छेत् (वृत्ति) जातावस्तित्वनास्तित्वे (टीका) शब्दैरेभिः प्रतीयन्ते (टीका) गेल्लेइ अणोल्लमणा श्रीपरिचयाज्जडा १०५ तझ्या मह गंडत्यल० १६० सामर्थ्यमौचिती देशः (वृत्ति) तसिद्विजातिसारूप्य० (टीका) साहती सहि सुहअं तथाभूतां दृष्ट्वा १५२ सुव्वा समागमिस्सदि तुल्येऽपि भेदे शमने (टिप्पणी) संयोगो विप्रयोगश्च (वृत्ति) १३३ झरोपान्तनिरन्तरे ५० २० ५१ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिशिष्ट न्यायविशारद, न्यायाचार्य, महोपाध्याय . श्रीमद् यशोविजयजी उपाध्याय द्वारा रचित ग्रन्थों की सूची संस्कृत तथा प्राकृत भाषा के उपलब्ध ग्रन्थ १प्रज्जप्पमयपरिक्खा ३ अध्यात्मोपनिषद् [अपरनाम-आध्यात्मिकमत(अध्यात्ममतपरीक्षा) . ४ अनेकान्त मत व्यवस्था खण्डन स्वोपज्ञटीका सहित स्वोपज्ञटीका सहित [अपरनाम-जैनतर्क] +६ प्रात्मख्याति* +२ अध्यात्मसार . . +५ अस्पृशद्गतिवाद +७ पाराधकविराधकचतुर्भगी १. सूची के सम्बन्ध में ज्ञातव्य . प्रस्तुत सूची पूर्व प्रकाशित सभी सूचियों के संशोधन, परिवर्तन तथा परिवर्धन के पश्चात् यथासम्भव परिपूर्ण रूप में सावधानी पूर्वक व्यवस्थित रूप से प्रकाशित की जा रही है। इसमें बहुत से ग्रन्थ नए भी जोड़े गए हैं। इसमें ग्रन्थों के अन्तर्गत पाए हुए छोटे-बड़े वादों को प्रस्तुत नहीं किया गया है। यहाँ प्रस्तुत ग्रन्थों के नामों में कुछ ग्रन्थों के नाम उनकी हस्तलिखित प्रतियों पर अंकित नामान्तर से भी देखने में आए हैं। अतः उपाध्यायजी महाराज के नाम पर अनुचित ढंग से अंकित कृतियों के नाम यहां नहीं दिए गए हैं। कुछ कृतियाँ ऐसी भी हैं जो इन्हीं की हैं अथवा नहीं? इस सम्बन्ध में अभी तक निर्णय नहीं हो पाया है, उनके नाम भी यहाँ सम्मिलित नहीं किए गए हैं। तथा अद्यावधि अज्ञातरूप में स्थित कुछ कृतियाँ अपने ही ज्ञान-भण्डारों के सूची-पत्रों में अन्य रचयिताओं के नाम पर चढ़ी हुई हैं। इसी प्रकार कुछ कृतियाँ ऐसी हैं जिनके आदि और अन्त में उपाध्याय जी के नाम का उल्लेख नहीं होने से वे अनामी के रूप में ही उल्लिखित हैं, उनके बारे में भविष्य में ज्ञात होना सम्भव है। संकेत चिह्न-बोध प्रस्तुत सूची में कुछ संकेत चिह्नों का प्रयोग किया गया है, जिनमें * ऐसा पुष्प चिह्न अनूदित कृतियों का सूचक है। . * X पुष्प एवं (कास) गुणन-चिह्न ऐसे दोनों प्रकार के चिह्न अनूदित होने के साथ ही अपूर्ण तथा खण्डित कृतियों के लिए प्रयुक्त हैं। ___+ ऐसा धन चिह्न स्वयं उपाध्याय जी महाराज के अपने ही हाथ से लिखे गए प्रथमादर्शरूप ग्रन्थों का परिचायक है। . (?) ऐसा प्रश्नवाचक चिह्न “यह कृति उपाध्याय जी द्वारा ही रचित है अथवा नहीं ?" इस प्रकार की शंका को अभिव्यक्त करता है। Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ ] [स्वोपज्ञटीका सहित ] + ८ श्रार्षभीयचरित्र महा काव्य ● X e उवएस रहस्स (उपदेशरहस्य) स्वोपज्ञटीका सहित + १० ऐन्द्रस्तुति चतुविशतिका स्वोपज्ञटीका सहित + ११ कूवन्ति विशईकररण (कूपष्टान्त विशदीकरण ) स्वोपज्ञटीका सहित १२ गुरुतत्तविरिच्छ्य (गुरुतत्त्वविनिश्चय) स्वोपज्ञटीका सहित १३ जइलक्खरणसमुच्चय) ( यतिलक्षण - समुच्चय) १४ जैन तकभाषा १५ ज्ञान बिन्दु १६ ज्ञानसार १७ ज्ञानाव स्वोपज्ञटीका सहित + १८ चक्षुप्राप्यकारितावाद + १६ तिङन्वयोक्ति X २० देवधर्मपरीक्षा २१ द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका स्वोपज्ञटीका सहित २२ धम्मपरिक्खा (धर्मपरीक्षा) (स्वोपज्ञटीका) २३ नयप्रदीप श्वेताम्बर ग्रन्थों पर टीकाएँ + १ उत्पादादिसिद्धिप्रकररण की +२४ नयरहस्य २५ नयोपदेश स्वोपज्ञटीका सहित + २६ न्यायखण्डनखाद्य टीका [स्वकृत 'महावीरस्तव' मूल पर निर्मित ] + २७ न्यायालोक +२८ निशाभक्तदुष्टत्व विचार प्रकररण + २ परमज्योतिः पञ्चविंशतिका ३० परमात्मपञ्चविंशतिका ३१ प्रतिमाशतक स्वोपज्ञटीका सहित ३२ प्रतिमास्थापनन्याय +३३ प्रमेयमाला + + ३४ भासा रहस्स (भाषा रहस्य ) स्वोपज्ञटीका सहित + ३५ मार्गपरिशुद्धि ३६ यतिदिनचर्या (?) * + ३७ वादमाला +३८ वादमाला द्वितीय # x + ३६ वादमाला तृतीय - X + ४० विजयप्रभसूरिक्षामरणकविज्ञप्तिपत्र ४१ विजयप्रभसूरिस्वाध्याय [ प्रारम्भमात्र प्राप्त + ४ तत्वार्थ सूत्र की टीका + ४२ विजयोल्लासकाव्य X* + ४३ विषयतावाद -४४ वैराग्यकल्पलता + ४५ वैराग्यरति X ४६ सामायारीपयरण ( सामाचारीप्रकरण) स्वोपज्ञटीका सहित टीका X [ प्रथमाध्याय मात्र उपलब्ध ] + २ कम्पयsि (कर्मप्रकृति) को +५ जोगविहारण वोसिया (योगविशिका की टीका ) बृहत्टीका ३ कम्मपर्याड लघुटीका + ६ वीतरागस्तोत्र अष्टम प्रक्रा ४७ सिद्धसहस्रनामकोश* X ४८ स्तोत्रावली पूर्वाचार्यकृत संस्कृत - प्राकृत ग्रन्थों पर उपलब्ध टीका तथा भाषा ग्रन्थ - प्रादिजिनस्तोत्र - शमीनाभिधपार्श्वनाथस्तोत्र [ पद्य सं. ६ ] - वाराणसीपार्श्वनाथस्तोत्र [पद्य सं. २१] - शङ्ख ेश्वर पार्श्वनाथस्तोत्र [ पद्य सं. ३३] - शङ्खश्वरपार्श्वनाथस्तोत्र [ पद्य सं. ६८ ] - गोडीपार्श्वनाथस्तोत्र* [ पद्य सं. १०८ ] - महावीरप्रभुस्तोत्र [ पद्य सं० ] - शङ्ख ेश्वरपार्श्वनाथ स्तोत्र [पद्य सं. ११३] - वीरस्तव [ पद्य सं० १०६ ] -समाधिसाम्यद्वात्रिंशिका - स्तुतिगीति तथा पत्रकाव्य शकी 'स्यादवाद - रहस्य' नामक तीन टीकाएँ* [ x जघन्य, मध्यम, + उत्कृष्ट ] ७ शास्त्रवार्तासमुच्चय को 'स्यादू ataकल्पलता' टीका Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १७६ षोडशक की टीका जैनेतर ग्रन्थों पर टीकाएँ +३ पातञ्जलयोगदर्शन की ६ स्याद्वादमञ्जरी की टोका(?)* टीका +१काव्यप्रकाश की टीका-x दिगम्बर ग्रन्थों पर टीका +२ न्यायसिद्धान्तमञ्जरी . +१ अष्टसाहस्री की टोका शब्दखण्ड की टीका अन्यकर्तृक-लभ्य संशोधित ग्रन्थ १. धर्मसंग्रह [स्वकीय टिप्पणी सहित] २. उवएसमाला-उपदेशमाला बालावबोध सम्पादित-ग्रन्थ द्वादशारनयचक्रोद्धार टीका प्रालेखनादि स्वकृत संस्कृत और प्राकृत के अलभ्य ग्रन्थ तथा टीकाएँ १ अध्यात्मबिन्दु ____टीका पर की गई टीका] १५ वादरहस्य २ अध्यात्मोपदेश ७ ज्ञानसार प्रवरिण १६ वादार्णव ३ अनेकान्त (वाद)प्रवेश ८ तत्त्वालोकविवरण १७ विधिवाद ४ अलङ्कारचूडामरिण की टीका त्रिसूत्र्यालोकविवरण १८ वेदान्तनिर्णय [हैमकाव्यानुशासन की स्वो१० द्रव्यालोक १६ वेदान्तविवेकसर्वस्व पज्ञ 'अलंकारचूडामणि' टीका पर की गई टीका] स्वोपज्ञटीका सहित २० शठप्रकरण ५ पालोकहेतुतावाद ११ न्यायबिन्दु (?) । २१ सिरिपुज्जलेह ६ छन्दश्चूडामरिण को टोका १२ न्यायवादार्थ (श्रीपूज्यलेख) . [हैमछन्दोनुशासन की स्वो- १३ प्रमारहस्य २२ सप्तभङ्गोतरङ्गिणी . पज्ञ 'छन्दश्चूडामणि' की १४ मङ्गलवाद २३ सिद्धान्ततर्कपरिष्कार ___ इनके अतिरिक्त [हारिभद्रीय-] १६ विशिकाओं पर की गई १६ टीकाएँ तथा अन्त में 'रहस्य' शब्द-पद से अलंकृत अनेक प्रकरण ग्रन्थ और अन्य उल्लिखित 'चित्ररूपप्रकाश', 'ज्ञानकर्मसमुच्चयवाद' प्रादि छोटी-बड़ी कृतियाँ। इसी प्रकार बहुत सी कृतियाँ अप्राप्य भी हो गई हैं। गुजराती, हिन्दी और मिश्रभाषा में उपलब्ध कृतियाँ' १ अगियार अंग सज्झाय *४ अध्यात्ममत परीक्षा बाला- X६ प्रादेशपट्टक २ अगियार गणधर नमस्कार . वबोध ७अानन्दघन अष्टपदी ३ अढार पापस्थानक सज्झाय ५ अमृतवेलीनी सज्झायो (दो) ८ पाठ दृष्टिनी सज्झाय १. इन गूर्जर कृतियों का अधिकांश भाग 'गूर्जर साहित्य संग्रह' भाग-१, २ में मुद्रित हो चुका है। २. सज्झाय शब्द मूलतः स्वाध्याय का प्राकृत रूप है। Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० ] एक सौ पाठ बोल संग्रह वन, स्तबक सहित ४० श्रीपालरास (केवल उत्तx१० कायस्थिति स्तवन [प० सं० १२५] रार्ध) ११ चड्या पड्यानी सज्झाय २५ निश्चयव्यवहारगर्भित ४१ समाधिशतक (तन्त्र) १२चौबीसीसो (तीन), [पद्य सं. शान्ति जिनस्तवन ४२ समुद्र-वहारण संवाद [प० सं०४८] X४३ संयमरिण विचार सज्झाय १३ जस विलास (प्राध्यात्मिक २७ नेमराजुल गीत स्वोपज्ञ टबार्थ सहित पद) [पद्य सं० २४२] २८ पंचपरमेष्ठी गीता ४४ सम्यक्त्वना सड़सठ बोलनी +१४ जम्बूस्वामी रास [प० सं० १३१] सज्झाय [प० सं ६५] पद्य सं०६६४) २६ पंचगणधर भास १५ जिनप्रतिमा स्थापननी ४५ सम्यक्त्व चौपाई, अपरनाम ३० प्रतिक्रमणहेतुगर्भ सज्झाय सज्झाय (तीन) ३१ पंचनियंठि (पंच निम्रन्थ षट्स्थानक स्वाध्याय १६ जैसलमेर के दो पत्र . संग्रह) बालावबोध .. स्वोपज्ञ टीका सहित ४६ साधु-वन्दना रास ४१७ ज्ञानसार बालावबोध ३२ पांच कुगुरु सज्झाय. x१८ तत्त्वार्थाधिगमस्तोत्र, बाला [प० सं १०८] ३३ पिस्तालोश प्रागम सज्झाय बोध ४७ साम्यशतक (समताशतक) ३४ ब्रह्मगीता x१६ तेर काठिया निबन्ध (१) ४८ स्थापनाचार्यकल्प सज्झाय ३५ मौन एकादशी स्तवन २० दिक्पट चोरासी बोल ३६ यतिधर्म बत्रीसी ४६ सिद्धसहस्रनाम छन्द २१ द्रव्यगुण पर्याय रास स्वो- x३७ विचार बिन्दु [प० सं० २१] पज्ञ टबार्थ सहित [धर्मपरीक्षा का वार्तिक] ५० सिद्धान्तविचारगभित सीम२२ नवपक्पूजा (श्रीपालरास के ३८ विहारमान जिनविंशतिका न्धरजिन स्तवन अन्तर्गत) [प० सं० १२३] स्वोपज्ञ ट्रबार्थ सहित २३ नवनिधान स्तवनो ३६ वीरस्तुतिरूप हंडी का स्तवन [पद्य० सं० ३५०] २४ नयरहस्यभित सीमन्धर स्वोपज्ञ बालावबोध सहित ५१ सुगुरु सज्झाय स्वामी की विनतिरूपतर- [प० सं०१५०] . ५२ तर्कसंग्रह बालावबोध अन्यकर्तृक ग्रन्थों के अनुवाद रूप में ___ गुर्जर भाषा को अप्राप्य कृतियां १-यानन्दघन बावोशी-बालावबोध तथा २-अपभ्रंश प्रबन्ध (?) x यह चिह्न अप्रकाशित कृतियों का सूचक है। + यह चिह्न उपलब्ध संस्कृत सूची में अनुल्लिखित कृतियों का सूचक है क्योंकि ये ग्रन्थांश रूप में ही प्राप्त हैं । Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ-परिशिष्ट साहित्य-कलारत्न, मुनि श्री यशोविजयजी महाराज के साहित्य एवं कला-लक्षी कार्यों की सूची [पू० मुनि श्री यशोविजयजी महाराज (इस ग्रन्थ के प्रधान सम्पादक तथा संयोजक) ने श्रुतसाहित्य तथा जैनकला के क्षेत्र में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सेवा की है। हिन्दी-साहित्य का पाठक-वर्ग भी पापकी कृतियों से परिचित हो, इस दृष्टि से यहाँ निम्नलिखित सूची प्रस्तुत की जा रही है। -सम्पादक) (१) स्वरचित एवं सम्पादित कृतियाँ १-'सुयश जिन स्तवनाबली (सं० १९६१) २-चन्द्रसूर्यमण्डल कणिका निरूपण (सं० १९९२) ३-बृहत्संग्रहणी (संग्रहणीरत्न) चित्रावली (६५ चित्र) (सं० १९६८) ४-पांच परिशिष्ट (सं० २०००) ५-भगवान् श्रीमहावीर के १५ चित्रों का परिचय, स्वयं मुनिजी के हाथों से चित्रित (सं० २०१५) ६ उपाध्यायजी महाराज द्वारा स्वहस्तलिखित एवं अन्य प्रतियों के प्राद्य तथा अन्तिम पृष्ठों की ५० प्रतिकृतियों का सम्पुट (प्रालबम्-चित्राधार) (सं० २०१७) ७-पागमरत्नपिस्तालीशी (गुजराती पद्य) (सं० २०२३) ८-तीर्थकर भगवान् श्रीमहावीर [ग्रन्थ के ३५ चित्रों का तीन भाषाओं में परिचय, १२ परिशिष्ट तथा १०५ प्रतीक एवं ४० रेखा पट्टिकाओं का परिचय] (सं० २०२८) . (२) अनूदित कृतियां १-बृहत्संग्रहणी सूत्र, यन्त्र, कोष्ठक तथा ६५ रंग-बिरंगे स्वनिर्मित चित्रों से युक्त (सं० १९६५) - २-बृहत्संग्रहणो सूत्रनी गाथाओ, गाथार्थ सहित (सं० १९६५)। ३-सुजसवेली भास, महत्त्वपूर्ण टिप्पणी के साथ (सं० २००६) (३) संशोधित तथा सम्पादित कृतियाँ १-नव्वाणु यात्रानी विधि (सं० २०००) २-आत्म-कल्याण माला (चैत्यवन्दन, थोय, सज्झाय, ढालियां आदि का विपुल संग्रह (प्रा. २. सं०.२००७) ३-सज्झायो तथा ढालियाँ (सं० २००७) ४-श्रीपौषध विधि (आ. ४, सं० २००८) १. इस कृति की अब तक आठ आवृत्तियां छप चुकी हैं। आठवीं प्रावृत्ति वि. सं. २००० में छपी थी। २. इसमें से नौ गुजराती और एक हिन्दी स्तवनं 'मोहन-माला' में दिये हैं। इसके अतिरिक्त इसमें मुनिजी द्वारा रचित गहुँली को भी स्थान दिया गया है। ३. ये परिशिष्ट बृहत्संग्रहणी सानुवाद प्रकाशित हुई है उससे सम्बन्धित हैं। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ ] ५ - जिनेन्द्र स्तवादि गुणगुम्फित मोहनमाला' (आ० ४, सं. २००९) ६- सुजस वेली भास (स० २००९ ) ७- कल्पसूत्र सुबोधिका टीका सहित, प्रति के आकार में कतिपय उपयोगी विशेषताओं के साथ, (सं० २०१०) ८- ऋषिमण्डल स्तोत्र ( लघु और बृहत् ) १६ पृष्ठात्मक तथा १०२ पाठ-भेदों के सहित का संशोधन, ३२ पृष्ठात्मक की दो प्रवृत्तियाँ, (सं. २०१२, २०१७ तथा २०२३) ६- यशोविजय स्मृतिग्रन्थ (सं० २०१३) १०- ऐन्द्रस्तुति सटीक ( सं. २०१८ ) ११- यशोदोहन (सं० २०२२) (४) संयोजित और सम्पादित कृतियाँ १- यक्ष-यक्षिणी चित्रावली (२४ यक्ष और २४ यक्षिणियों के जयपुरी शैली में चित्रित एकरंगी चित्र) (सं० २०१८) २-संवच्छ प्रतिक्रमणनी सरल विधि, अनेक चित्रसहित (आसन और मुद्राओं से सम्बन्धित ३२ चित्रों के साथ) (सं० २०२८) तथा ४० चित्रों के साथ (सं० २०२९) ' ३- प्रतिक्रमण चित्रावली) केवल चित्र तथा उनके परिचय सहित सं० २०२८) (५) संशोधित कृतियाँ १-जगदुद्धारक भगवान् महावीर' २-नवतत्त्व दीपिका ३- नमस्कार मन्त्रसिद्धि ४-भक्ताभर- रहस्य ५ - ऋषिमण्डल श्राराधना (६) प्रेरित कृतियाँ १- षट्त्रिंशिका चतुष्कप्रकरण २-नवतत्त्व-प्रकरणम् सुमङ्गलाटीकासहितम् ३- धर्मबोध ग्रन्थमाला ४ - जैन संस्कृत साहित्यनो इतिहास, भाग १-२-३ ५-यशोदोहन १- बृहत्संग्रहणी भाषान्तर २-भुवन विहार-दर्पण ३- जगदुद्धारक भगवान् महावीर (७) निम्नलिखित कृतियों की प्रस्तावनाएं 2. इसकी द्वितीय प्रवृत्ति सं. १६८१ में प्रकाशित करवाई गई थी। २. इस कृति का हिन्दी अनुवाद भी तैयार है जो शीघ्र ही प्रकाशित होगा । (सं० २०२०) (सं० २०२२) (सं० २०२३) (सं. २०२७) (सं. २०२८) (सं. १९६०) (सं. १९९०) (सं. २००८) (सं० २०१३, २०२५ तथा २०२६) (सं. २०२२) (सं. १६CC) (सं. २०१७) Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८३ ४-नमस्कार-मन्त्र सिद्धि ५-जैन संस्कृतसाहित्यनो इतिहास भाग १-२-३ ६-यशोदोहन (सं. २०२२) ७-उवसग्गहरं स्तोत्र याने जैनमन्त्रवादनी जयगाथा (सं. २०२५) ८-ऋषिमण्डल आराधना ९-समाधिमरणनी चाबी (सं. २०२४) १०-संगीत, नृत्य अने नाट्य सम्बन्धी जैन उल्लेखो अने ग्रन्थो (सं. २०२६) ११-ऋषिमण्डलस्तोत्र (सं. २०१२) १२-ऐन्द्रस्तुति (सं. २०१०) १३-वैराग्यरतिः' (सं. २०२५) इनके अतिरिक्त मुनिजी ने 'खेमो देदराणी, संगीतसुधा, जैन तपावलि और तपोविधि, जैनदर्शन संग्रह स्थानपरिचय, यक्षयक्षिणीचित्रावली, अमृतधारा, नवतत्त्व-दीपिका, अमर उपाध्याय जी, प्रगटयो प्रेमप्रकाश इत्यादि लघु पुस्तकों पर छोटे तथा आवश्यकतानुसार प्राक्कथन अथवा प्रस्तावनाएँ भी लिखी हैं। (८) अप्रकाशित कृतियां १-पाणिनीय 'धातुकोष' (सम्पूर्ण रूप तथा आवश्यक टिप्पणीसहित) २-पाणिनीय 'उणादिकोष' (धातु, गण, सूत्र, प्रत्यय, व्युत्पत्ति, लिङ्ग और फलित शब्द उनके हिन्दी अंग्रेजी एवं गुजराती पर्याय सहित) ३-सिद्धचक्रबृहद्यन्त्रोद्धारपूजनविधि (विविध चित्रसहित) ४-ऋषिमण्डलयन्त्र पूजनविधि (विविध चित्रसहित) ५-हारिभद्रीय कतिपय विशिकाओं का भाषान्तर । ६-ऋषिमण्डल स्तोत्र (मूल, अर्थ तथा आवश्यक चित्रों के साथ) ७-अढार अभिषेक विधि (E) विचाराधीन कृतियां १-पारिभाषिक शब्द-ज्ञान कोश, जैनधर्म से सम्बन्धित निम्नलिखित कोश चित्र सहित १-आगमशब्दकोश (पंचांगी) -आचारशब्दकोश ३-प्रतिक्रमणसूत्र शब्दकोश ४-द्रव्यानुयोगशब्दकोश ५-भूगोल, खगोल, ऐतिहासिक जैन राजा, मन्त्री आदि से सम्बद्ध परिचय कोश ६-कथाकोश (व्यक्ति के नाम तथा उसकी अतिसंक्षिप्त प्रामाणिक कथा) १. इसमें उपाध्यायजी की स्वहस्तलिखित तथा अन्य प्रतियों के आद्य एवं अन्तिम पत्रों की ५० प्रति कृतियों के मालम्बन की सं. २०१७ में प्रकाशित प्रस्तावना को स्थान दिया गया है; Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ ] ७-विधि अनुष्ठान-कोश इस प्रकार विविध पद्धति के सात भागों में कोश तैयार कराने की योजना विचाधीन है। २-भारत की अनेक भाषा तथा विदेश की मुख्य भाषाओं में जैनधर्म के मुख्य-मुख्य विषयों से सम्बद्ध ५० से १०० पृष्ठों के बीच आकारवाली पृथक्-पृथक् पुस्तकें तैयार कराना आदि। प्रेस कापियाँ न्यायाचार्य श्रीयशोविजयजी गणी विरचित निम्नलिखित कृतियों की प्रेस कापियां तैयार करवाई हैं*१-आत्मख्याति . (माध्यम नव्यन्याय-दार्शनिक कृति) •२-प्रमेयमाला -३-विषयतावाद * ४-वीतरागस्तोत्र (अष्टम प्रकाश)-बृहद् वृत्ति * ५- " ( , )-मध्यम वृत्ति ६- , ( , )-जघन्य वृत्ति * ७-वादमाला' (नव्यन्याय-दार्शनिक) .८-वादमाला ( .." ) ६-चक्षुरप्राप्यकारितावाद (पद्यमय) *१०-न्यायसिद्धान्तमञ्जरी (शब्दखण्ड टीका) ११-तिङन्वयोक्ति (व्याकरण) *१२-काव्य प्रकाश (द्वितीय तथा तृतीय उल्लास) १३-सिद्धसहस्रनामकोश (पर्यायवाचक नाम) १४-आर्षभीयचरित्र (महाकाव्य) १५-विजयोल्लास काव्य १६-कूपदृष्टान्तविशदीकरण (धर्मशास्त्र) १७-यतिदिनचर्या (प्राचारशास्त्र) १८-२विजयप्रभसरिक्षामणकपत्र (पत्रकाव्य) .१६-स्तोत्रावली (हिन्दी अनुवादसहित) २०-एक सौ आठ बोध संग्रह EE: : १. * इस चिह्न वाली कृतियाँ संशोधनपूर्वक मुद्रित हो चुकी हैं । २. यह काव्य हिन्दी अनुवाद सहित 'स्तोत्रविली' ग्रन्थ में भी प्रकाशित है। ३. इस ग्रन्थ का गुजराती भाषान्तर के साथ प्रकाशन भी शीघ्र ही करने की सम्भावना है तथा हिन्दी अनुवाद, एवं विस्तृत भूमिका-सहित प्रकाशित हो चुकी हैं। Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१- तेर काठिया निबन्ध २२- काय स्थिति स्तवन ढालियावालुं २३ - विचार बिन्दु (धर्मपरीक्षा का वार्तिक) २४-आदि अने अन्तभाग (उपाध्याय जी के समस्त ग्रन्थों का अनुवाद सहित ) [ १८५ इसके अतिरिक्त न्यायाचार्य के जोवन- कवन के सम्बन्ध में तथा अन्य अनेक कृतियों के अनुवाद और उनके बालावबोध-टब्बानों के प्रकाशन की योजना भी प्रस्तुत मुनिराज ने बनाई है। आपके प्रका शित एवं अप्रकाशित लेखों की सूची भी पर्याप्त विस्तृत है । कलामय कार्यों की सूची ( पूज्य मुनि श्री यशोविजयजी महाराज कला के क्षेत्र में भी नैसर्गिक अभिरुचि रखते हैं तथा उसके बारे में गम्भीर लाक्षणिक सूझ रखते हैं फलतः वे कला के क्षेत्र में भी कुछ न कुछ अभिनव-सर्जन करते ही रहते हैं । ऐसे सर्जन की संक्षिप्त जानकारी भी यहां पाठकों के परिचयार्थ दी जा रही है ।) (सम्पादक) १- महाराज श्री के स्वहस्त से निर्मित बृहत्संग्रहणी ग्रन्थ ( संग्रहणीरत्न) के प्राय: ४० चित्र । जो कि एक कलर से लेकर चार कलर तक के हैं। ये छपे हुए तथा 'बृहत्संग्रहणी चित्रावली' की पुस्तिका रूप में प्रकाशित हैं । (सं. १९६८) २-सुनहरे अक्षरों में लिखवाया हुआ बारसा - कल्पसूत्र । विविध पद्धति से लिखे हुए पत्र, विविध प्रकार की सर्वश्रेष्ठ बार्डर, चित्र और अन्य अनेक विविधताओं से युक्त है । (सं. २०२३) I ३- रोप्याक्षरी प्रतियाँ - रुपहले अक्षरों में लिखाई हुई भव्य प्रतियाँ | ४- बारसासूत्र (भगवान् श्रीमहावीर के जीवन से सम्बद्ध) के जयपुरी कलम में, पोथी के आकार में पत्रों पर मुनिजी ने अपनी कल्पना के अनुसार, विशिष्ट प्रकार की हेतुलक्षी, बौद्धिक बॉर्डरों से तैयार करवाए गए अत्यन्त आकर्षक, भव्य तथा मनोरम चित्र । ५- भगवान् श्रीमहावीर के जीवन से सम्बद्ध ३४ तथा एक श्री गौतम स्वामी जी का इस प्रकार कुल ३५ चित्रों का प्रपूर्व तथा बेजोड़ चित्र-सम्पुट | जिसमें चार रंग के, प्रायः '६ x १२' इंच की साइज में छपे हुए चित्र हैं। इनमें विविध हेतुलक्षी, प्रत्यन्त उपयोगी, बौद्धिक ४० बार्डर, जैन तथा भारतीय संस्कृति के जैन कुंकुमपत्रिका तथा में प्रयोग किये जा सकें श्रौर नया-नया ज्ञान मिले ऐसे - उपयोगी १२१ प्रतीक हैं। इन ३५ चित्रों का परिचय हिन्दी, गुजराती तथा इंग्लिश तीनों भाषात्रों में दिया गया है । तथा इनके साथ ही १२ परिशिष्ट भी जोड़े गए हैं, जिनमें भगवान महावीर के जीवन का संक्षेप में विशाल परिचय दिया गया है। सभी रेखापट्टियों (बॉर्डर) और प्रतीकों का परिचय २८ पृष्ठों वरित है। इन चित्रों की बाइडिंग की हुई पुस्तक जिस प्रकार तैयार की गई है वैसा ही खुले ३५ चित्रों का पेकेट भी तैयार हुआ है । Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ ] ६-विविध रंगों वाली डाक-टिकिटों से ही तैयार किए हुए भगवान् श्रीपार्श्वनाथ तथा श्रीहेमचन्द्राचार्य जी के चित्र। ७-भरत काम (गूंथन) में सपरिकर भगवान् पार्श्वनाथ आदि। . ८-रंगीन काँच पर सोने के पतरे द्वारा तैयार किया गया विविध प्राकृतियों का विशिष्ट संग्रह । ह-जम्बूद्वीप तथा अढ़ीद्वीप के स्केल के अनुसार ड्रेसिंग क्लाथ पर तैयार किए गए ५ फुट के नक्शे (सं. २००३) १० मिरर (बिल्लोरी) काच-ग्लासवर्क में तैयार कराए हुए चित्र । ११-जैन साधु प्रातःकाल से रात्रि शयन तक क्या क्या प्रवृत्ति करते हैं ? इससे सम्बद्ध दिनचर्या के तैयार किए जा रहे रंगीन ३५ चित्र। १२-प्रतिक्रमण और जिन-मन्दिर में होनेवाले विधि-अनुष्ठान आदि उपयोगी, आसन-मुद्राओं से सम्बन्धित पहली बार ही तैयार किया गया ४२ चित्रों का संग्रह । (यह प्रदर्शन और प्रचार के लिए भी उपयोगी है।) ___ १३-'पेपर कटिंग कला' पद्धति में पूर्णप्राय ‘भगवान् श्रीमहावीर' के ३० जीवन प्रसंगों का कलासम्पुट । (यह सम्पुट भी भविष्य में मुद्रित होगा।) १४-इनके अतिरिक्त मुख्यरूप से भगवान् श्री आदिनाथ, श्री शान्तिनाथ, श्रीनेमिनाथ और श्री पार्श्वनाथ इन चार तीर्थङ्करों के (और साथ ही साथ अवशिष्ट सभी तीर्थङ्करों के जीवन-प्रसङ्गों के) नए चित्र चित्रित करने का कार्य (द्वितीय चित्रसम्पुट की तैयारी के लिए) तीन वर्ष से चल रहा है। लगभग ३० से ४० चित्रों में यह कार्य पूर्ण होगा । भगवान् श्रीपार्श्वनाथ का जीवन तो चित्रित हो चुका है तथा भगवान् श्री आदिनाथ जी का जीवन-चित्रण चल रहा है। यह दूसरा चित्र-सम्पुट मुद्रण-कला की विशिष्ट-पद्धति से तैयार किया जाएगा। -भगवान् श्रीमहावीर के चित्रसम्पुट में कुछ प्रसंग शेष हैं वे भी तैयार किए जाएंगे अथवा तो पूरा महावीर-जीवन चित्रित करवाया जाएगा। १५-हाथी दांत, चन्दन, सुखड़, सीप, काष्ठ आदि के माध्यमों पर जिनमूर्तियां, गुरुमूर्तियाँ, यक्ष-यक्षिणी, देव-देवियों के कमल, बादाम डिब्बियाँ, काजू, इलायची, मुंगफली, मुंगफली के दाने, ___ खारेक-छुहारा, चावल के दाने तथा अन्य खाद्य पदार्थों के प्राकारों में तथा अन्य अनेक प्राकारों की वस्तुओं में पार्श्वनाथ जी, पद्मावती आदि देव-देवियों की प्रतिकृतियाँ बनाई गई हैं। तथा मुनिजी ने कला को प्रोत्साहन देने और जन-समाज कला के प्रति अनुरागी बने इस दृष्टि से अनेक जैनों के घर ऐसी वस्तुएँ पहुँचाई भी हैं। इसके लिए बम्बई के कलाकारों को भी आपने तैयार किया है, जिसके परिणामस्वरूप अनेक साधु, साध्वीजी, श्रावक और श्राविकाओं को मनोरम बादाम, कमल आदि वस्तुएँ सुलभता से प्राप्त हो सकती हैं । मुनि जी के पास इनका अच्छा संग्रह है। --बालकों के लिए भगवान् महावीर की सचित्र पुस्तक तैयार हो रही है। शिल्प-साहित्य १६-शिल्प-स्थापत्य में गहरी प्रीति और सूझ होने के कारण अपनी स्वतन्त्र कल्पना द्वारा शास्त्री Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८७ यता को पूर्णरूपेण सुरक्षित रखते हुए, विविध प्रकार के अनेक मूर्तिशिल्प मुनिजी ने तैयार करवाए हैं, इनमें कुछ तो ऐसे हैं कि जो जैन मूर्तिशिल्प के इतिहास में पहली बार ही तैयार हुए हैं । इन शिल्पों में जिनमूर्तियाँ, गुरुमूर्तियाँ, यक्षिणी तथा समोसरणरूप सिद्धचक्र आदि हैं। आज भी इस दिशा में कार्य चल रहा है तथा और भी अनूठे प्रकार के शिल्प तैयार होंगे, ऐसी सम्भावना है। ___ मुनिजी के शिल्पों को आधार मानकर अन्य मूर्ति-शिल्प गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के जैनमन्दिरों के लिए वहाँ के जैनसंघों ने तैयार करवाए हैं। पूज्य मुनिजो द्वारा विगत १६ वर्षों से प्रारम्भ की गई अनेक अभिनव प्रवृत्तियों, पद्धतियों और प्रणालियों का अनुकरण अनेक स्थानों पर अपनाया गया है जो कि मुनिजी की समाजोपयोगी दृष्टि के प्रति आभारी है। प्रचार के क्षेत्र में जैन भक्ति-साहित्य के प्रचार की दिशा में 'जैन संस्कृति कला केन्द्र' संस्था ने पू० मुनि श्री की प्रेरणा से नवकार-मन्त्र तथा चार शरण की प्रार्थना, स्तवन, सज्झाय, पद आदि की छह रेकर्ड तैयार करवाई हैं । अब भगवान् श्रीमहावीर के भक्तिगीतों से सम्बन्धित एल. पी. रेकर्ड तैयार हो रही है और भगवान् श्री महावीर के ३५ चित्रों की स्लाइड भी तैयार हो रही है। भगवान् श्रीमहावीर देव की २५००वों निर्वाण शताब्दी के निमित्त से जैनों के घरों में जैनत्व टिका रहे, एतदर्थ प्रेरणात्मक, गृहोपयोगी, धार्मिक तथा दर्शनीय सामग्री तैयार हो, ऐसी अनेक व्यक्तियों को तैयार इच्छा होने से इस दिशा में भी वे प्रयत्नशील हैं। धार्मिक यन्त्र-सामग्री ___ मुनिजी ने श्रेष्ठ और सुदृढ पद्धति पूर्वक उत्तम प्रकार के संशोधित सिद्धचक्र तथा ऋषिमण्डलयन्त्रों की त्रिरंगी, एकरंगी मुद्रित प्रतियाँ लेनेवालों की शक्ति और सुविधा को ध्यान में रखकर विविध प्राकारों में विविध रूप में तैयार करवाई हैं तथा जैनसंघ को आराधना की सुन्दर और मनोऽनुकूल कृतियाँ दी हैं । ये यन्त्र कागज पर, वस्त्र पर, ताम्र, एल्युमीनियम, सुवर्ण तथा चाँदी आदि धातुओं पर मोनाकारी से तैयार करवाए हैं। ये दोनों यन्त्र प्रायः तीस हजार की संख्या में तैयार हुए हैं। - पूज्य मुनिजी के पास अन्य अर्वाचीन कला-संग्रह के साथ हो विशिष्ट प्रकार का प्राचीन संग्रह भी है। इस संग्रह को दर्शकगण देखकर प्रेरणा प्राप्त करें ऐसे एक संग्रहालय (म्यूजियम) की नितान्त आवश्यकता है। जैनसंघ इस दिशा में गम्भीरतापूर्वक सक्रियता से विचार करे यह अत्यावश्यक हो गया है । दानवीर, ट्रस्ट आदि इस दिशा में आगे आएँ, यही कामना है। प्रकाशन समिति Page #340 -------------------------------------------------------------------------- _