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चितमत आह
शब्देति । नहीति । कटाक्षादेरिव प्रमाणान्तरवेद्यस्यार्थस्य न व्यञ्जकत्वं येनोक्तलक्षणक्षतिरापद्यतेति भाव इति व्याचक्ष्महे । तृतीयः ।। इति श्रीः ॥ इति न्यायविशारद-न्यायाचार्य-महोपाध्याय-श्रीमद्यशोविजयगणि-विरचित-काव्यप्रकाशटीकायाम्
अर्थव्यञ्जकता-निरूपणात्मको नाम तृतीयः समुल्लासः ।
हम पूर्वोक्त सन्दर्भ की ऐसी व्याख्या करते है और कटाक्षादि की तरह प्रमाणान्तर (मद भिन्न प्रमाणों) से वेद्य अर्थ को व्यजक नहीं मानते हैं इसलिए उक्त (काव्य) लक्षण में कोई दोष नहीं आता है । उस लक्षण का उक्त उदाहरणों में समन्वय हो जाता है ! क्योंकि वहाँ प्रधान या सहकारी रूप में शब्द, और पर्थ दोनों व्यचक हैं। शब्द से अवणित कटाक्षादि चेष्टाओं में शब्द की व्यञ्जकता के नहीं होने के कारण लक्षण का असमन्वय इष्ट ही है। क्योंकि कोरी कटाक्षादि चेष्टाएँ काव्य नहीं हैं ।
तृतीय उल्लास: मुनि श्री यशोविजय जी उपाध्याय कृत 'काव्य प्रकाश की संस्कृत टीका' में तीसरा उल्लास समाप्त हुआ।
॥ इति श्रीहर्षनाथमिश्रकृते हिन्दीभाषानुवादे तृतीय उल्लासः॥ .