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________________ द्वितीय उल्लास : ८५ स्वार्थ सहचारिगुणाभेदेन परार्थगता गुरणा एव लक्ष्यन्ते न परार्थोऽभिधीयत इन्यन्ये । परार्थाभिधान इति । परार्थो वाहीकस्तस्याभिधाने शक्त्या प्रतिपादने प्रवृत्तिनिमित्तत्वं शक्यता - वच्छेदकत्वम् । सुबुद्धिमिश्रास्तु परार्थाभिधान इत्यस्य स्वाश्रयत्वसम्बन्धाल्लक्षणया परार्थप्रतिपादन इत्यर्थः, प्रवृत्तिनिमित्तत्वं लक्ष्यतावच्छेदकत्वम्, तथा च लक्षितलक्षणेयमित्यूचुः । केचिदिति अस्वरसोद्भावनं, बीजं तु प्रथमव्याख्याने जाड्यादेरशक्यतया प्रवृत्तिनिमित्तत्वासम्भवः गोशब्दस्य वाहीके शक्तिकल्पने प्रमाणाभावः वाहीकपदेन सह प्रयोगानुपपत्तिश्च । मिश्रव्याख्याने लक्षणापेक्षया लक्षितलक्षणाया जघन्यत्वम् । आलङ्कारिकमते शक्यतावच्छेदकस्यैव लक्ष्यतावच्छेदकतया गोपदाद् गोत्ववानित्याकारकप्रतीत्युपगमेऽनुभवविरोधश्चोभयव्याख्यानेऽपीति द्रष्टव्यम् । मतान्तरमाह स्वार्थे ति, अभेदेनेत्यनेन सम्बन्धकथनं तथा च शक्यसमानाधिकरणगुणाभेद एवात्र सम्बन्ध इति नलक्षणात्वक्षतिरिति भावः । न तु परार्थं इति आक्षेपलभ्यत्त्वादिति भावः । न चाक्षेपलभ्यस्य शाब्दसामानाधिकरण्यानुपपत्तिः प्रत्ययार्थैकत्वकर्मत्वाद्यन्वयानुपपत्तिश्चेति वाच्यम्, जातिशक्तिपक्षे आक्षेपलभ्यव्यक्तेरिव तदुपपत्तेरिति । वह नहीं होगा सम्बन्ध (सामानाधिकरण्य) होने के कारण लक्षणा में किसी प्रकार की क्षति नहीं आयेगी । इस तरह वाहीक में अन्वय कैसे होगा ? यह कहते हैं - 'परार्थाभिधाने' इति - परार्थ है वाहीक, उसके अर्थ के अभिधान में अर्थात् शक्ति से प्रतिपादन करने में (वे गुण ) प्रवृत्ति - निमित्त - त्वं (शक्यतावच्छेदकत्व) को प्राप्त होते हैं । अर्थात् लक्षित गुण जाड्य और मान्द्यादि ही गो शब्द से अभिधा के द्वारा वाहीक अर्थ के अभिधान में शक्यतावच्छेदक बनता है । सुबुद्धि मिश्र ने "परार्थाभिधाने" इस का अर्थ किया है कि 'स्वाश्रयत्वसम्बन्ध से लक्षणा के द्वारा बताने में और "प्रवृत्तिनिमित्तत्वं" का अर्थ किया है लक्ष्यतावच्छेदकत्व । इस तरह उन्होंने "यहाँ लक्षित लक्षणा "मानी" है । यहाँ "केचित् " शब्द के द्वारा अस्वरस ( अपना अनभिमत) बताया गया है। उसका कारण यह है कि प्रथम व्याख्यान में जाड्यादि को अशक्य बताया गया है। इसलिए वह प्रवृत्ति-निमित्त (शक्यतावच्छेदक) नहीं हो सकता जाड्यादि में जब कि गो शब्द संकेतित नहीं है; तब उसे शक्य कैसे माना जाय ? "गोशब्दस्य बाहीकार्थाभिधाने" के द्वारा यह बताया गया है कि गोशब्द से वाहीक अर्थ के अभिधान में वह प्रवृत्ति - निमित्त होगा । यहाँ यह कहना है कि गो शब्द की वाहीक में शक्ति कल्पना करने में प्रमाण भी नहीं है यदि गो शब्द का अभिधेयार्थं वाहीक हो तो "गौर्वाहीकः" यहाँ गो शब्द के साथ वाहीक का प्रयोग करना गलत हो जायगा पुनरुक्त दोष आ जायगा । मिश्र (सुबुद्धि मिश्र) के व्याख्यान में यह अरुचि है कि लक्षणावृत्ति की अपेक्षा लक्षित-लक्षणा जघन्यवृत्ति मानी जाती है उसका आश्रय लेकर व्याख्यान करना उचित नहीं है। आलङ्कारिक के मत में शक्यतावच्छेदक ही लक्ष्यतावच्छेदक होता है। इसीलिए तो "गङ्गायां घोष:" में तीर की उपस्थिति गङ्गात्वेन ही मानते हैं । अतः गोपद से "गोत्ववान्" इस रूप में प्रतीति मानने में अनुभव विरोध होगा; यह दोष दोनों व्याख्यानों में है । दूसरा मत बताते हैं - स्वार्थ सहचारिगुणाभेदेन इत्यादि ।
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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