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________________ ५४ [सू० १२] मुख्यार्थबाधे तद्योगे रूढितोऽथ प्रयोजनात् । अन्योऽर्थो लक्ष्यते यत् सा लक्षणारोपिता क्रिया ॥ e ॥ 'कर्मरिण कुशल' इत्यादौ दर्भग्रहणाद्ययोगात्, 'गङ्गायां घोष' इत्यादौ च गङ्गादीनां ......]' शाब्दबोध में भान नहीं होगा, व्यक्ति शाब्दबोध का विषय नहीं पत्तिलभ्यत्वे वा तस्य शाब्दबोधविषयम् [" काव्यप्रकाशः जैसे नहीं होते देखा गया, उसी तरह व्यक्ति का भी बनेगा ? (यहाँ से लक्षणा के मूल लक्षण की व्याख्या का भाग खण्डित है । अतः सन्दर्भ शुद्धि के लिए नीचे का भाग प्रस्तुत है ) - लक्षरणा-निरूपण [सू० १२] १ - मुख्यार्थबाध (अर्थात् अन्वय की अनुपपत्ति या तात्पर्य की अनुपपत्ति) होने पर, २ – उस पार्थ के साथ ( लक्ष्यार्थं या अन्य अर्थ का ) सम्बन्ध होने पर तथा ३ - रूढ़ि से अथवा प्रयोजन विशेष से जिस शब्द-शक्ति के द्वारा अन्य अर्थ लक्षित होता है; वह ( मुख्यरूप से अर्थ में रहने के कारण शब्द का) आरोपित व्यापार 'लक्षणा' कहलाता है । लक्षणा के दो उदाहरण "कर्मणि कुशलः " अर्थात् चित्रकर्म आदि किसी विशेष 'काम में कुशल है' इत्यादि में 'कुशान् दर्भान् लाति आदत्ते इति कुशल:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार कुशों के लाने जैसे अर्थ का कोई सम्बन्ध न होने से मुख्यार्थं का बाध है इसलिए विवेचकत्वादि सम्बन्ध से रूढि अर्थात् प्रसिद्धि के कारण दक्षरूप अर्थ की प्रतीति जिस शब्द- व्यापार से होती है उसे लक्षणा कहते हैं । इसी तरह "गङ्गायां घोषः" यहाँ गङ्गा पद के मुख्यार्थ जलप्रवाह में घोष (आभीर पल्ली) का होना असंभव है इसलिए मुख्यार्थ में बाध होने, गङ्गा (प्रवाह) के साथ सामीप्य सम्बन्ध होने से और “गङ्गातटे घोषः " कहने पर जिन शीतत्व पावनत्वातिशय की प्रतीति सम्भव नहीं थी; उन शैत्य-पावनत्वादि धर्मों के प्रतिपादनरूप प्रयोजन से मुख्य अर्थं प्रवाह से जो अमुख्य अर्थ तीर लक्षित होता है वह शब्द का व्यवहितार्थ विषयक (मुख्यार्थ - व्यवधानविषयक) आरोपित शब्द- व्यापार 'लक्षणा' कहलाता है । 'मुख्यार्थबाध' लक्षणा का प्रधान कारण है। इसीलिए प्रायः कारिका में उसका सर्वप्रथम उपादान किया गया है । मुख्यार्थ-बाध की व्याख्या दो प्रकार से की जाती है। अधिकतर व्याख्याकार मुख्यार्थबाध का अर्थ 'अन्वयानुपपत्ति' मानते हैं । "गङ्गायां घोषः" में गङ्गा का अर्थ प्रवाह (जलधारा) है और घोष का अर्थ है अहीरों का गांव । गङ्गा की धारा पर कोई गांव नहीं बस सकता इसलिए गङ्गा शब्द के साथ लगायी गयी आधारार्थक सप्तमी का घोषरूप आधेय के साथ अन्वय नहीं हो सकता है। इसलिए अन्वयानुपपत्ति है ही । इस तरह अन्वयानुपपत्ति को लक्षणा का बीज मानने से यहां दोष न होने पर भी "काकेभ्यो दधि रक्ष्यताम् " "नक्षत्रं दृष्ट्वा वाचं विसृजेत्" इत्यादि स्थलों में सकल दध्युपघातक प्राणियों तथा नक्षत्रदर्शनकाल में क्रमशः 'काक' और 'नक्षत्र' पद की परस्परा से मानी हुई लक्षणा की सिद्धि के लिए तात्पर्यानुपपत्ति को ही लक्षणा का बीज मानना चाहिए । अन्यथा अपादान के रूप में "काकेभ्यः " पद के और कर्मरूप में "नक्षत्रम्" पद के क्रमशः " रक्ष्यताम् " और १. इतः परं पत्रद्वयी चतुर्णा पृष्ठानां मूलहस्तलिखितप्रती नोपलभ्यत इति हन्त ! सम्बन्धयोजना तु हिन्द्यनुवादे विहितैवेति । -सम्पादकः
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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