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________________ ૪૬ प्रारम्भ में ५ और अन्त में २ पद्य संस्कृत में हैं। यत्र-तत्र सस्कृत में विवरण भी दिया है। अलंकार शास्त्र के ग्रन्थों पर गुजराती बालावबोध बहुत कम प्राप्त होते हैं अत: इनका महत्त्व अधिक है। . इनके अतिरिक्त जनेतर विद्वानों में कृष्ण शर्मा और श्री गणेश-ग्रादि ने भी इस ग्रन्थ पर टीकाएँ लिखी हैं। २-काव्यानुशासन-इसके प्रणेता कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्रसूरि हैं। ये 'पूर्णतल्ल' गच्छ के प्रभावशाली प्राचार्य थे। इनका जन्म सन् १०८८ ई० में हुआ था। ये व्याकरण, कोश, छन्द, अलंकार, काव्य, न्याय, तत्त्वज्ञान, योग और अन्यान्य विविध विषयों के पारदर्शी विद्वान् थे अतः इन सभी विषयों पर प्रभावशाली ग्रन्थों की रचनाएँ की है। प्रस्तुत ग्रन्थ सन ११४२ ई० की रचना है। यह पाठ अध्यायों में विभक्त है तथा इसमें क्रमश: २५, ५६, १०, ६, ६, ३१, ५२ तथा १३ सूत्र हैं जो मिलकर २८८ होते हैं। प्रथम अध्याय में 'काव्य के प्रयोजन, हेतु, लक्षण, शब्दार्थस्वरूप तथा मुख्य, गौण, लक्ष्य एवं व्यङग्य ऐसे चार प्रकार के अर्थों का विचार किया गया है। द्वितीय अध्याय में रस, स्थायी, व्यभिचारी और सात्त्विक रते हुए अन्तिम चार सूत्रों में काव्य के उतमादि तीन प्रकारों का विचार है। तीसरे अध्याय में शब्द, अर्थ, वाक्य तथा रस के दोषों का विवेचन है। चौथे अध्याय में गुणों की चर्चा है । पाँचवे अध्याय में अनुप्रास, यमक, चित्र, श्लेष, वक्रोक्ति और पुनरुक्ताभास इन छह शब्दालंकारों का वर्मन है । छठे अध्याय में 'संकर' सहित १ अर्थालङ्कारों का निरूपण हुआ है। सातवां अध्याय नायक, नायिका के भेद तथा प्रतिनायक के स्वरूप का विचारक है। प्राठवां अध्याय काव्य के दृश्य और श्रव्य ऐसे दो प्रकार समझाकर इनके उपप्रकारों के विवेचन से पूर्ण हया है । इस ग्रन्थ पर निम्नलिखित टीकाएँ प्राप्त होती हैं (१) स्वोपज्ञ टीका-इस ग्रन्थ पर 'प्रलङ्कार-चूडामरिण' नामक टीका स्वयं ग्रन्थकार ने लिखी है जो २८०० श्लोक प्रमाण है। यह सरल है और इसमें विवादग्रस्त विषयों पर विचार नहीं किया गया है जब कि विषय की पुष्टि के लिए ६७ प्रमाण और ७४० उदाहरण दिए गए हैं जो शृङ्गार-तिलक तिल कमञ्जरी, दशरूपक, नाट्यशास्त्र तथा उसकी अभिनवगुप्तकृत टीका से लिए गए हैं। (२) स्वोपज्ञ-विवेक-'काव्यानुशासन' तथा 'अलङ्कार-चूडामणि' दोनों को लक्ष्य में रखकर काव्यशास्त्रीय सक्ष्मचिन्तन की दृष्टि से प्राचार्यश्री ने इस वृत्ति की रचना की है। इसमें अनेक विषयों की विचारणीय बातों पर बचार हपा है तथा २०१ प्रमाण एव ६२४ उदाहरणों का समावेश इसकी महत्ता में अभिवृद्धि करते हैं। छन्दोऽनुशासन, भगवद्गीता, नाट्यशास्त्र, काव्यमीमांसा आदि अनेक ग्रन्थो के उद्धरण इसकी विवेचना-गत विशिष्टता को स्पष्ट करते हैं। (३) वृत्ति-काव्यानुशासन की 'अलङ्कार-चूडामणि' टीका को लक्ष्य में रखकर न्यायाचार्य श्रीमद् यशोविजयजी महाराज ने भी एक वृत्ति की रचना की थी। इसका प्रमाण उन्हीं के एक ग्रंथ 'प्रतिमाशतक' की स्वोपज्ञ टीका में 'प्रपञ्चितं चैतदलङ्कारचूडामरिणवृत्तावस्माभिः' इत्यादि वाक्य से मिलता है । किन्तु अब यह अप्राप्य है। यह ग्रन्थ उपर्युक्त दोनों टीकाओं से युक्त निर्णयसागर प्रेस-बम्बई से 'काव्यमाला' (७०) में सन् १९०१ में तथा उसके बाद मूल, टीका और वृत्ति के अतिरिक्त ताडपत्र पर लिखित प्रज्ञातकर्तृक टिप्पणी एवं प्राकृत पद्यों की संस्कृत छाया के साथ ६ अनुक्रमणिका और डॉ. मानन्दशंकर बापुभाई ध्रुव जी की पूर्ववचनिका सहित प्रथम खण्ड तथा श्री रसिकलाल छोटालाल परीख के अंग्रेजी उपोद्घात एवं प्रो० रामचन्द्र पाठवले के अंग्रेजी टिप्पण सहित द्वितीय
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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