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खण्ड के रूप में 'महावीर जैन विद्यालय बम्बई' से सन् १९४८ में प्रकाशित हुया है। इस रप श्रीलावण्यसूरि जी ने भी एक टीका लिखी थी।
इस ग्रन्थ पर डॉ० छगनलाल शास्त्री तथा एक अन्य विद्वान् ने शोधकार्य करके पी-एच० डी० उपाधि के शोधप्रबन्ध भी प्रस्तुत किए हैं।
मलङ्कार-प्रबोध- 'पद्मानन्द-महाकाव्य प्रादि कृतियों के निर्माता श्रीअमरचन्द्रसूरि (सन् १२२३ के लगभग) की इस रचना का उल्लेख 'कास्यकल्पलता-वृत्ति' में किया गया है। जैसा कि कृति का नाम है. उसके अनुसार इसमें अलङ्कारों का विवेचन होगा ऐसा लगता है । यह पुस्तक अनुपलब्ध है।
४. अलङ्कारमहोदधि-श्रीनरचन्द्र सूरि के शिष्य श्रीनरेन्द्रप्रभ सूरि ने इस ग्रन्थ की रचना सन् १२२३ ई० के आसपास की है। ये मन्त्रीश्वर वस्तूपाल के समकालीन थे और उन्हीं की अभ्यर्थना से प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना की थी। 'विवेक-कलिका' और 'विवेक-पादप' नाम से दो सूक्तिसंग्रह, काकूस्थ-केलि-नाटक, वस्तुपाल-प्रशस्ति-दो तथा 'गिरनार के वस्तुपालसम्बन्धी प्रशस्तिःलेखों में से एक लेख' का निर्माण इनकी कृतियों में प्रमुख हैं।
यह ग्रन्थ पाठ तरंगों में विभक्त है तथा सभी तरंगों में दिये गये पद्यों की संख्या तीन सौ चार है। इन तरंगों में क्रमशः १. काव्यप्रयोजन एवं काव्यभेद, २. शब्दवैचित्र्य, ३. ध्वनि, ४. गुणीभूतव्यंग्य, ५. दोष, ६. गुण, १७. शब्दालङ्कार और ८. अर्थालङ्कारों का निरूपण है ।
(१) स्वोपज्ञवृत्ति-ग्रन्थकर्ता ने ग्रन्थरचना के २ वर्ष बार ४५०० श्लोक प्रमाण इस वृत्ति का निर्माण किया है। इसमें प्राचीन कवियों की कृतियों से उदाहरण के रूप में ६८२ पद्य उद्धृत किये गये हैं।
यह ग्रन्थ- 'अलङ्कार-तिलक' नामक स्वोपज्ञ वृत्ति के साथ 'काव्यमाला' (४३) में छपा है। तदनन्तर 'गायकवाड़' पौर्वात्य ग्रन्थमाला-बड़ोदा से पं. श्रीलालचन्द्र भगवान् गाँधी के सम्पादन में छपा है। इसमें परिशिष्टादि भी सङ्कलित हैं।'
५. काव्यानुशासन-इस नाम को यह द्वितीय कृति है ; सन् १२६२ ई० के निकट वाग्भट द्वितीय ने इसका . निर्माण किया है। इनके पिता का नाम नेमिकुमार था। काव्यानुशासन (पृ० ३१) में इन्होंने वाग्भट प्रथम का नामोल्लेख किया है अतः ये वाग्भट द्वितीय हैं यह निर्विवाद है ।२
१. इस ग्रन्थ के 'हिन्दी अनुवाद सम्पादन एवं समीक्षा' को अपने शोध का विषय बनाकर डॉ० आशा देवालिया
वाचस्पति (डि.लिट०) उपाधि के लिये इन पंक्तियों के लेखक (डॉ० रुद्रदेव त्रिपाठी) के निर्देशन में शोधकार्य कर रही है। २. प्राचार्य विश्वेश्वर सिद्धान्त शिरोमणि ने काव्य-प्रकाश (हिन्दी अनुवाद सहित) की भूमिका (पृ०८०) में वाग्भट
की चर्चा करते हुए इन्हें वाग्भटालङ्कार और काव्यानुशासव का एक ही कर्ता माना है। साथ ही उनका कथन है कि ये अनहिलपट्टन के राजा जयसिंह के महामात्य थे। इनकी रचनाओं में-१-वाग्भटालङ्कार, २-काव्यानुशासन, ३-नेमिनिर्वाणमहाकाव्य, ४-ऋषभदेवचरित, ५-छन्दोऽनुशासन और प्रायुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रन्थ ६-अष्टाङ्गहृदय' की गणना भी की है। किन्तु जैन विद्वान् 'अष्टाङ्ग-हृदय' के रचयिता वाग्भट को इन दोनों से भिन्न ही मानते हैं - द्रष्टव्य-"जैन संस्कृत साहित्यनो इतिहास" भाग-१ पृ० १५५ तथा १७४ ।