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काम्य-प्रकाश
मह मंदभाइणीए केरं सहि तुह वि अहह परिहवइ ॥१४॥ (औन्निद्रय दौर्बल्यं चिन्तालसत्वं सनिःश्वसितम्।
मम मन्दभागिन्याः कृते सखि त्वामपि अहह! परिभवति ॥) अत्र दूत्यास्तत्कामुकोपभोगो व्यज्यते ।
तथाभूतां दृष्ट्वा नृपसदसि पाञ्चालतनयां, वने व्याधैः साकं सुचिरमुषितं वल्कलधरैः ।
मम मन्दभागिन्याः कृते त्वामप्यह ! परिभवति ॥१४॥ (श्लोकः)
तुहेति कर्मणि षष्ठी, तुहेति कर्मणि निपात एवेत्यन्ये । अत्रेति कालान्तरावगतापराधायाः प्रतिपाद्याया इति शेषः, तेन सम्बोध्यवैलक्षण्यवशादेतद् व्यङ्गयभानमित्यर्थः । अत्र मम कृत. इत्यस्य विपरीतलक्षणया स्वकृत इति मन्दभागिन्या इत्यस्य भाग्यवत्या इत्यर्थे लक्ष्यस्य व्यञ्जकत्वम्, कामुकोपभोगेन दूतीकामुकयोरपराधव्यञ्जने व्यङ्गयस्यापि व्यञ्जकत्वमाकलनीयम् । तथाभूतामिति । तथाभूतामाकृष्टवसनां गृहीतकेशादिकामनुचितारम्भः सेवाङ्गीकारः, खिन्ने दुःखिते, खेदं कोपं खिद्यतेऽनेनेति व्युत्पत्तेः । अत्र तथाभूतामिति सामान्यवचनेन विशिष्यवचने लज्जा, नृपसदसि न तु ग्राम्यसदसि, पाञ्चालतनयां न तु ग्रामीणतनयां, वने न तु गृहे, व्याधैर्न तु राजभिः, सुचिरं न तु क्षणमात्रम्, उषितं न तूपविष्ट, वल्कलधरैः न तु दुकूलधरैः, विराटस्य सम्बन्धिनो न तु अपरिचितस्य कस्यापि, अनुचितारम्भेण न तु राजोचितेन, निभृतं न तु प्रकाशमित्यादीनामनौद्धत्यप्रकाशकतया कुरुषु योग्य इति व्यङ्गयान्तरग्राहकत्वं, न चेति, वाच्यं, वक्तव्यं, व्यङ्ग्यमेव तथा च वाच्यस्य व्यङ्गयस्य सिद्धयङ्गप्रतीतिकारणं
के कारण अनिद्रा (नींद का न आना), दुर्बलता, चिन्ता, आलस्य, निःश्वास आदि (कष्ट) तुझे भी भोगने पड़ रहे हैं।
'तह' यहाँ कर्म में षष्ठी है। कोई 'तुह' शब्द को कर्म अर्थ में निपात मानते हैं।
पूर्वोक्त श्लोक में अनेक अन्य अवसरों पर व्यभिचारादि अपराध करने वाली प्रतिपाद्या दूती का उस नायिका के कामुक के साथ उपभोग व्यङ्गय है । "अत्र इत्याः" यहाँ 'दूत्याः' से “पूर्व कालान्तरावगतापराधायाः प्रतिपाद्यायाः" इन पदों का शेष (अध्याहार) मानना चा ए। इससे यहाँ सम्बोद्ध य (प्रतिपाद्य या बोद्धव्य) के वैशिष्टय से (तत्कामुकोपभोग) व्यङ्गय का भान होता है।
यहाँ मम कृते (मेरे कारण) और मन्दभागिनी (अभागिनी) इत्यादि पदों में विपरीत लक्षणा मानी गयी है इसलिए क्रमश: इनका अर्थ होता है "अपने लिए" और 'भाग्यवती'। इस प्रकार यहाँ लक्ष्य अर्थ में व्यजकता है। कामुक के उपभोग द्वारा दूती और कामुक दोनों के अपराध को व्यङ्गय मानने पर व्यङ्गय में भी यहाँ व्यञ्जकता आती है। इस तरह यहाँ भी विविध अर्थों में व्यञ्जकता देखी जा सकती है।
३. काकू के वैशिष्टय में व्यजना का उदाहरण -"तथाभूताम् दृष्ट्वा.."काकू का अर्थ होता हैविशेष प्रकार की कण्ठध्वनि अर्थात् बोलने का विशेष प्रकार का लहजा ! उस विशेष प्रकार के बोलने के ढंग से जो अर्थ की व्यञ्जना होती है उसी का प्रतिपादन यहाँ किया गया है । 'वेणीसंहार' नाटक के प्रयम अङ्क में सहदेव की भीम से कहता है कि 'आपके इस व्यवहार को सुनकर "कदाचित् खिद्यते गुरुः" शायद गुरु अर्थात् युधिष्ठिर नाराज हों।' इसके उत्तर में भीमसेन की यह उक्ति है कि “गुरुः खेदमपि जानाति" अच्छा गुरु अर्थात् राजा युधिष्ठिर नाराज होना भी जानते हैं तो फिर-- उस राजसभा में पाञ्चाली (द्रौपदी) की उस प्रकार की (बाल और वस्त्र खींचे जाने