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________________ तृतीय उल्लास: १५३ विराटस्यावासे स्थितमनुचितारम्भनिभृतं, गुरुः खेदं खिन्ने मयि भजति नाद्यापि कुरुषु ॥१५॥ अत्र मयि न योग्यः खेदः कुरुषु तु योग्य इति काक्वा प्रकाश्यते । काकुरिति गुणीभूतव्यङ्गयं काक्वाक्षिप्तत्वरूपं न शङ्कयमित्यर्थः । प्रश्नेति । सहदेव ! गुरुः खेदं मयि जानातीति प्रश्नोपक्रमे श्लोकावतारादत्रापि किमिति गुरुमयि खेदं भजति न कुरुष्विति प्रश्नपरत्वे काक्वा ग्राहिते प्रकृतवाक्यार्थादेव व्यङ्गयार्थोपस्थितिरिति न काकुः तदुपस्थितिजनिका, यत्र तु व्यङ्गयार्थोप की) अवस्था को देखकर (गुरु नाराज नहीं हुए. उनको क्रोध नहीं आया),फिर वन में वल्कल धारण करके (बारह वर्ष) तक व्याधों के साथ रहते रहे (तब भी उनको क्रोध नहीं आया), फिर विराट् के घर में (रसोइया आदि के) अनुचित कार्यों को करके छिपकर जो हम रहे (उस समय भी गुरु को क्रोध नहीं आया) और आज भी उनको कौरवों पर तो क्रोध नहीं आ रहा है (जो कि आना चाहिए था) इसके विपरीत मैं जब कौरवों पर क्रोध करता हूँ तो वे मुझ पर नाराज होते हैं। यहाँ मुझ पर नाराज होना उचित नहीं है, कौरवों पर नाराज होना उचित है, यह काकु से प्रकाशित होता है। शब्दार्थ-- तथाभूताम् = वस्त्र रहित की गयी तथा बाल पकड़कर खींची गयी। अनुचितारम्भः= अनुचित कार्य करना, क्षत्रियों के लिए निन्दनीय कार्य नौकरी करना, वह भी रसोइया आदि का कार्य करना। खिन्ने-दुःखी होने पर । खेदः कोप । खिद्यते दुःखी होते हैं, जिससे, वह खेद कहलाता है अर्थात् कोप । "तथाभूताम्" इस सामान्य वचन से यह प्रकट होता है कि द्रौपदी के साथ जो दुर्व्यवहार हुआ उसे स्पष्ट शब्दों में उन दुर्व्यवहारों के वाचक शब्दों के द्वारा प्रकट करने में लज्जा आती है। जिसे शब्द से बोलने में भी लज्जा आती है उसको भोगनेवाली द्रौपदी को कितना दुःख और लज्जा आयी होगी यह कौन कह सकता है ? "नृपसदसि" राजसभा में गांव की सभा में नहीं । “पाञ्चालतनयाम्"=राजा की सम्मान्य कन्या का अपमान हुआ, किसी ग्रामीण कन्या का नहीं। हम लोग 'वन में' रहे न कि 'घर में' । 'व्याधों' के साथ रहे राजाओं के साथ नहीं । 'सुचिरम" एक लम्बी अवधि तक, लम्बे बारह सालों तक, एक क्षण नहीं। "उषितम्" रहना पड़ा, बैठे नहीं। “वल्कलधरः" वल्कल धारण करके समय बिताया, 'दुकूल' पहनकर नहीं। विराट के यहाँ जो सम्बन्धी हैं; रहना पड़ा, ऐसा नहीं कि किसी अपरिचित के यहाँ रहे थे। 'अनुचितारम्भेण' अनुचित कार्य व्यवसाय करके रहे थे, ऐसा नहीं कि क्षत्रिय और राजा के योग्य कोई कार्य किया हो । निभृतम्-चुपचाप बिताया; खुले आम नहीं इत्यादि पद अनौद्धत्य-प्रकाशक हैं तब तो उचित था कि अनुद्धत हम लोगों पर युधिष्ठिर क्रोध नहीं करते अपितु कुरुवंशियों दुर्योधनादिकों पर उनका क्रोध करना उचित था, इत्यादि अन्यान्य व्यङ्गयों की प्रतीति यहाँ काकु के द्वारा होती है। यहाँ यह प्रश्न होता है कि जैसे “मथ्नामि कौरवशतं समरे न कोपात्" इस श्लोक में 'यदि तुम्हारे राजा अर्थात् युधिष्ठिर किसी शर्त पर कौरवों के साथ सन्धि कर लें, तो क्या मैं युद्ध में सौ कौरवों का नाश करना छोड़ दूगा ?' इत्यादि वाच्यार्थ, इसके वक्ता भीम के बोलने के रीति-विशेषरूप काकु से यह व्यङ्गय अर्थ प्रकट करता है कि 'भले ही युधिष्ठिर सन्धि कर लें, मैं तो कौरवों का नाश करके ही रहूँगा' और यहाँ जैसे काकु से आक्षिप्त होने के कारण व्यङ्ग्यकाव्य माना गया है उसी तरह "तथाभूतां दृष्ट्वा" इस पद्य में 'काक्वाक्षिप्त' गुणीभूत व्यङ्गय मानना चाहिए
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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