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________________ द्वितीय उल्लासः तद्वान् अपोहो वा शब्दार्थः कैश्चिदुक्त इति ग्रन्थगौरवभयात् प्रकृतानुपयोगाच्च न दर्शितम् । ૪૨ शब्दसमवायित्वस्याष्टद्रव्यभिन्नद्रव्यत्वस्य वाऽऽकाशपदेऽपि सत्त्वान्नानुपपत्तिरिति व्याचक्ष्महे । ननु जात्यादितिरेव वेत्यनेन पक्षद्वयमुक्तं पक्षान्तरमपि नैयायिकाद्यभिमतं कुतो नोक्तम् ? इत्यत आहतद्वानिति । जातिमानित्यर्थः, इदं च नैयायिकमते, पोहोऽतद्व्यावृत्तिरिति वैनाशिकमते, पोह इति । महाभाष्यकारः इत्यन्ये, कैश्चिदित्यादिभिः पदैः सर्वत्र च पक्षेऽस्वरसोद्भावनं, तद्बीजं तु महाभाष्यकारमते जातिशक्तिमात्रव्यवस्थापनात् कथं व्यक्तिभानम् ? गुरुमतेऽपि व्यक्ति विना जातेरग्रहेण " जात्यादिर्जातिरेव वा" इसके द्वारा दो पक्षों की चर्चा की गयी। पहला पक्ष वैयाकरण और उनके अनुयायियों का है और दूसरा पक्ष मीमांसक का है। नैयायिकादि दार्शनिकों का अभिमत क्यों नहीं कहा गया इस प्रश्न के उत्तर में लिखते हैं- 'तद्वान् अपोहो वा' इति । यहाँ तद्वान् का अर्थ है जातिमान् | यह मत नैयायिकों का है । 'अपोह' का अर्थ है 'अतद्व्यावृत्ति' । यह मत वैनाशिक ? (गलत लिखा हुआ है, वैभाषिक होना चाहिए ) वैभाषिक बौद्धों का है । नैयायिक जातिविशिष्ट व्यक्ति में घटत्व विशिष्ट घट में शक्ति मानते हैं । बौद्धों का कहना है कि गो पद के श्रवण से अतत् ( उससे अतिरिक्त - गो से अतिरिक्त - महिष्यादि) की व्यावृत्ति हो जाती है इस तरह अतद्व्यावृत्ति ही गो पद का शक्यार्थ है । "महाभाष्यकारः, इत्यन्ये, कैश्चित्" इत्यादि पदों के द्वारा पूर्वोक्त सभी पक्षों में ग्रन्थकार ने अपना अस्वारस्य (वैमत्य) बताया है । ग्रन्थकार ने महाभाष्यकार पद के उल्लेख के द्वारा यह सूचित किया है कि जाति, गुण, क्रिया और यच्छा में संकेतग्रह मानने वाले महाभाष्यकार हैं मैं नहीं हूँ। "जातिरेव' इस मत को भी "अन्ये" शब्द के द्वारा दूसरों का ( मीमांसकों का मत बताकर इस मत के साथ भी अपनी असहमति प्रकट की है। "तद्वान्" और 'अपोह' सिद्धान्त के साथ भी 'कैश्चित्' पद जोड़ कर यह सिद्ध किया है कि ये मत भी क्रमशः नैयायिकों तथा बौद्धों के हैं; मेरे नहीं । * पूर्वोक्त मतों के साथ वैमत्य दिखाने का कारण है; उन मतों में विविध दोषों की सत्ता । उन दोषों को दिखाते हुए लिखते हैं- 'तद्बीजन्तु' इत्यादि । महाभाष्यकार के मत में जाति में ही शक्ति मानी गयी है ऐसी स्थिति में व्यक्ति की प्रतीति कैसे होगी ? गुरु (प्रभाकर) के मत में व्यक्ति' ज्ञान के बिना जाति का बोध नहीं हो सकने के कारण व्यक्ति को भी शक्तिग्रह का विषय मानना ही पड़ेगा । तब तो बोध में जाति की तरह व्यक्ति का भी भान होने के कारण जातिमात्र को कारणतावच्छेदक ( बोध का कारण ) मानना कहाँ तक संगत होगा ? एक पक्ष को जो युक्ति प्रमाणित करती है उसे विनिगमना कहते हैं । यहाँ जातिमात्र को बोध का कारण माना जाय, व्यक्ति को नहीं, इन दोनों पक्षों एक पक्ष को प्रमाणित करनेवाली कोई युक्ति नहीं दिखाई देती । यह दोष गुरु प्रभाकर के मत में स्पष्ट है । में * नैयायिक तथा बौद्ध मत का स्पष्टीकरण आचार्य मम्मट ने यहाँ जिस शब्दवाच्य 'तद्वान्' अथवा 'जातिविशिष्टरूप' अर्थविषयक सिद्धान्त का निर्देश किया है वह न्यायदर्शन का सिद्धान्त है । महानैयायिक जयन्त भट्ट ने इसका प्रतिपादन इन पंक्तियों में किया है 'अन्येषु तु प्रयोगेषु गां देहोत्येवमादिषु । तद्वतोऽयंक्रियायोगात्तस्यंवाहुः पदार्थताम् ॥ पदं तद्वन्तमेवार्थ माञ्जस्येनाभिजल्पति । न च व्यवहिता बुद्धिर्न च भारस्य गौरवम् ॥
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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