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________________ ततीच उल्लास: तस्यामन्यव जातेत्यहो ! प्रच्छन्नकामुकत्वं ते, इति व्यज्यते । उद्देशोऽयं सरसकदलोश्रेणिशोभातिशायी, कुजोत्कर्षाङ्कुरितरमणीविभ्रमो नर्मदायाः । मिलितां ग्रथितां तेन गण्डस्थलप्रतिबिम्बितसख्याः कण्टकत्वं तेन च तद्पगमे तद्ग्रथितहष्ट्यपगमः तेन च प्रतिबिम्बितायां प्रेमाधिक्यं व्यज्यते, सैव हावभाववती, तावेव पुलकादियुक्ती, सा निमेषादिरहिता. अत्रेति । 'तदेदानी रूपपदद्वयात्मकवाक्यवैशिष्टयावगमादिति शेषः, अत्रैव यतो ग्रथिताऽतोऽन्यत्र नानषीरिति हेत्वलङ्कारो लाक्षणिकग्रथितपदसहकृतनानैषीरिति व्यज्यत इति लाक्षणिकार्थस्य व्यञ्जकत्वम्, ततो हेत्वलङ्कारेणास्यामनुरागो नाऽगन्तुकहेतुनिवर्तनीय इति व्यज्यत इति व्यङ्गयार्थस्यापि व्यञ्जकत्वमित्याभाति । उद्देशोऽ मिति - उद्दिश्यत इति उद्देशः एवं दूरादुद्दिश्यते न तु ज्ञानेन गम्यत इति निर्जनत्वं व्यज्यते कुञ्जस्योत्कर्षश्च निबिडत्वमकरन्दसिक्तत्वामोदमुदितमधुकरत्वरूपः तेनाकुरिता वर्धिता रमणीनां विभ्रमा विलासा यत्र स तथा नर्म ददातीति नर्मदा तस्याः, तेन रेवादिपदं प्रकार यहाँ पदों से व्यङ्गय प्रकट होते हैं । 'तदा और तदानीम्", "तब और अब" ये दोनों पद दो भिन्न-भिन्न स्थितियों की सूचना देने वाले वाक्य का निर्माण करते हैं। इस तरह इन पदद्वयात्मक वाक्य के वैशिष्ट्यबोध से यहाँ पूर्वोक्त व्यङ्गय प्रकट होता है। यहाँ लक्ष्यार्थव्यजकता और व्यङ्गार्थ व्यञ्जकता भी है। जैसे-गण्डस्थल में तुम्हारी दृष्टि प्रथित है; गुथ गयी है, इसलिए तुम उसे अन्यत्र नहीं ले जा रहे थे। (वह दृष्टि जिससे गुथी हुई थी, उसके हटने के साथ उसका (दृष्टि का) भी हट जाना स्वाभाविक है) इस विवक्षा में यहाँ हेतू अलंकार मिलित पद के प्रथितरूप लाक्षणिक अर्थ को प्रकट करनेवाले ग्रथित पद के सहकार से सम्पन्न "न अनैषीः" पद से अभिव्यक्त होता है इस तरह यह लाक्षणिक अर्थ के व्यञ्जक होने का उदाहरण भी हो जाता है। लक्ष्यार्थ के व्यञ्जक होने के बाद लक्ष्यार्थ-व्यजित हेतु अलंकार से 'इस (मेरी सखी) में (तेरा) अनुराग किसी आगन्तुक हेतु (अस्थायी या क्षणिक कारणों) से उत्पन्न नहीं हुआ है अथवा उस गहरे प्रेम को किसी आगन्तुक (चलते फिरते) कारणों से मिटाया नहीं जा सकता, यह व्यङ्गय निकलता है। इसलिए यही व्यंङ्गयार्थव्यञ्जकता भी मुझे प्रतीत होती है। ५. वाच्यवैशिष्टय में व्यजकता का उदाहरण:- (उद्देशोऽयम् सरस-) हे तन्वि, सरस हरी भरी कदली (केलों) की पक्ति से अत्यन्त सुन्दर लगने वाला और कुजों के उत्कर्ष के कारण रमणियों के हाव-भावों को अहरित कर देने वाला नर्मदा का यह उन्नत प्रदेश है, साथ साथ यहां सुरत के उत्तेजक, सहायक और श्रान्तिहर अतएव मित्र वे वायू बहते हैं । जिनके आगे वसन्त आदि के रूप में अवसर न रहते हुए चाप धारण किये हुए कामदेव चलता है। उद्दिश्यते इति उशः, दूर से ही जिसे बताया जा सके, प्रत्यक्ष आकर जिसे न जाना जा सके वह स्थान उद्देश होगा। इससे निर्जनत्व अभिव्यक्त होता है। कुञ्ज का उत्कर्ष उसके घने होने में है। उसके मकरन्द (फूलों के रस और पराग से आर्द्र होने और सुगन्ध के द्वारा भौंरों को प्रसन्न रखने में है इस प्रकार के प्रकर्ष से सम्पन्न स्थानों में स्वाभाविक है कि वहाँ रमणियों के विभ्रम और विलास अङ्कुरित हो, बढ़ें और फूले फलें। नर्म ददातीति १-१६० पृष्ठ पर अन्तिम अनुच्छेद में सूचित वाक्य-वैशिष्ट्य ।
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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