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________________ २ काव्यप्रकाशः अत्रेति काव्ये । एषां स्वरूपं वक्ष्यते । (सू. ५) 'स्याद् वाचक' इति । सूत्रार्थः यद्यपि विभागादेव त्रित्वं सिद्धं तथापि गौणीलक्षणा भिन्नेति न्यूनता व्यञ्जनायां प्रमाणमेव नास्तीत्याधिक्यं च विभागस्येति परविप्रतिपत्तिनिरासायाह । 'त्रिधे'ति — काव्यगत शब्द के तीन भेद 'स्वादवाचक' इति यहाँ (काव्य में) वाचक, लाक्षणिक और व्यञ्जक (भेद से) शब्द तीन प्रकार का होता है। अत्र यहाँ' इससे काव्य में ( यह अर्थ लिया गया है ) इन (वाचक, लाक्षणिक और व्यञ्जक तीनों प्रकार के शब्दों का स्वरूप (आगे) बताया जायगा। तात्पर्य यह है कि न्याय, मीमांसा आदि दर्शनों में वाचक और लक्षक ऐसे दो प्रकार के शब्द तो प्रायः माने गये हैं किन्तु व्यञ्जक नामक शब्द के तीसरे प्रकार का विस्तृत निरूपण साहित्यशास्त्र में ही किया गया है। इस लिए कारिका में 'अत्र' शब्द का खास कर प्रयोग किया गया है। इसका अभिप्राय यह है कि यद्यपि अन्य शास्त्रों में व्यञ्जक शब्द नहीं माना गया है, सम्भवतः उनका काम व्यञ्जक शब्द माने बिना भी चल जाता हो, परन्तु काव्य में तो व्यञ्जक के प्रयोग से जीवन आता है। काव्य का जीवन है चमत्कार । वह तो व्यञ्जक शब्द से ही स्पन्दित होता है । अतः यहाँ काव्य में तीनों प्रकार के शब्द माने जाते हैं। इन में वाचक शब्द से वाच्यार्थ ( मुख्यार्थ ) का बोध होता है । इसलिए सबसे पहले उसी को स्थान दिया गया है। लाक्षणिक शब्द वाचक शब्द पर आश्रित रहता है इसलिए लाक्षणिक शब्द को वाचक शब्द के बाद स्थान दिया गया है। व्यञ्जक शब्द दोनों प्रकार के शब्दों का सहारा लिया करता है। इस लिए व्यञ्जक शब्द को वाचक और लाक्षणिक दोनों प्रकार के शब्दों के बाद तीसरे स्थान पर रखा गया है । यहाँ यह विशेष रूप से जानना चाहिए कि शब्दों का यह तीन प्रकार का विभाग शब्दों की उपाधियों का है; शब्दों का नहीं अर्थात् इस विभाग को उपाधित मानना चाहिए वास्तविक नहीं क्योंकि वाचक, लाक्षणिक और व्यञ्जक शब्दों के बीच कोई निश्चित विभाग- रेखा नहीं खींची जा सकती। वह इसलिए कि 'अमुक शब्द केवल वाचक है, अमुक शब्द केवल लक्षक है और अमुक शब्द केवल व्यञ्जक है' इस प्रकार का कोई निश्चित विभाग शब्दों में नहीं पाया जाता है। गङ्गायां मीनप्रोपोस्त" यहाँ गङ्गा शब्द वाचक है, लक्षक है और व्यञ्जक भी है । अतः एक ही शब्द के वाचक, लक्षक और व्यञ्जक होने के कारण तीन प्रकार का विभाग शब्दों का नहीं माना जा सकता । अपितु इस विभाग को उपाधिकृत ही मानना होगा। जिस प्रकार एक ही व्यक्ति उपाधिभेद से कभी पिता और कभी पुत्र कहा जाता है; उसी प्रकार उपाधियों के भेद से एक ही शब्द कभी वाचक, कभी लक्षक और कभी व्यञ्जक माना जाता है। लक्षणा के शक्ति ( अभिधा) के अधीन होने के कारण और व्यञ्जना के उन ( शक्ति और लक्षणा ) के आश्रित होने के कारण सर्वप्रथम वाचक, उसके बाद लक्षक और उन दोनों के बाद व्यञ्जक शब्द का उल्लेख ( कारिका में किया गया है। अभिप्राय यह है कि वाचक शब्द ही ऐसा शब्द है जिसे अपने अर्थ ( मुख्यार्थ ) को प्रकट करने के लिए शब्द. के अन्य भेदों के व्यापार (लक्षणा या व्यजना) का मुंह नहीं देखना पड़ता वृत्ति ( शक्ति या अभिधा ) से ही प्रकट कर देता है । इसलिए सर्वप्रथम गया है। लक्षक शब्द को अपना अर्थ ( लक्ष्यार्थ) प्रकट करने के लिए लक्षणा व्यापार का सहारा लेना पड़ता है। है। वह अपने अर्थ को स्वयं की मुख्य कारिका में वाचकशब्द को स्थान दिया
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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