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________________ द्वितीय उल्लासः ननु शास्त्रषु व्यञ्जकशब्दानां नामापि नास्तीत्यत आह । [सूत्र ५] 'काव्य' इति :-चमत्कारविशेषस्यान्यथानुपपत्तेरिति भावः । न च य एव शब्दो वाचकः स एव लाक्षणिको व्यञ्जकश्चेति भेदाभावाद् विभागोऽनुपपन्न इति वाच्यम् । तथात्वेऽपि सम्बन्धभेदाद् भेदमङ्गीकृत्य तथा विभागाद् एवमेवार्थविभागोपपत्तिरित्यनुपदमेव व्यक्तम् । विभागानन्तरं लक्षणस्य जिज्ञासाविषयत्वेनाभिधातुमुचितत्वात् तदनभिधानं समर्थयतिलक्षणा, शक्ति या अभिधा के अधीन है; क्योंकि वह मुख्यार्थ में बाधा आने पर मुख्यार्थ से सम्बद्ध अर्थ को ही बताती है । अतः मुख्यार्थ की उपस्थिति के लिए वाचक शब्द की वृत्ति शक्ति (अभिधा) की वहाँ उपस्थिति अनिवार्य है। इस तरह शक्ति पर आश्रित लक्षणाव्यापार से युक्त लक्षक शब्द को कारिका में द्वितीय स्थान दिया गया है। व्यञ्जक शब्द जिस व्यापार से अपना अर्थ (व्यङ्गयार्थ) बताता है वह है व्यञ्जना । व्यञ्जना के दो मुख्य भेद हैं—अभिधामूला और लक्षणामूला । जैसे 'दुर्गालयितविग्रहो विजयतां राजा उमावल्लभः' यहाँ दुर्ग (किला) के कारण अजित विग्रह (युद्ध) वाले, उमा रानी के पति भानुदेव राजा की जय हो, इस अभिधेयार्थ की प्रतीति के बाद दर्गा (पार्वती) से आलिङ्गित विग्रह (शरीर) वाले उमापति शिवरूप अर्थ तथा दोनों अर्थों में उपमानोपमेयभाव-सम्बन्धमूलक उपमालङ्काररूप व्यङ्गय होने से अभिधामूला व्यञ्जना है। "गङ्गायां घोषः" में तीर अर्थ में लक्षणा के बाद शीतत्वातिशय और पवित्रतातिशयरूपी व्यङ्ग्य की उपस्थिति होने के कारण लक्षणामूला व्यञ्जना है। इस तरह व्यञ्जक शब्द का व्यापार व्यञ्जनाशक्ति और लक्षणा दोनों व्यापारों पर आश्रित है। इसलिए कारिका में व्यञ्जक शब्द का स्थान सबसे अन्त में तीसरे स्थान पर रहा। 'स्थावाचक इति' (टीका) यद्यपि विभाग से ही तीन भेद सिद्ध थे तथापि "त्रिधा" शब्द के उल्लेख से यह बताया गया है कि काव्य में शब्द के तीन ही भेद हैं; न तीन से अधिक हैं और न कम । इसलिए गौणी को लक्षणा से भिन्न मानकर गौण नामक शब्दभेद का कारिका में उल्लेख नहीं होने से कारिकाकार की न्यूनता (कमी) तथा व्यञ्जना के मानने में प्रमाणाभाव के कारण व्यञ्जक शब्द के उल्लेख को अधिक मानने वाले अन्य (विद्वानों) के संशय को दूर करने के उद्देश्य से कारिका में विधा' शब्द का उल्लेख किया गया है। गौणीवृत्ति लक्षणा से अन्य वृत्ति नहीं है। वह लक्षणा का ही एक भेद है। गौण शब्द लाक्षणिक शब्द के अन्तर्गत ही आ जाता है। मुख्यार्थ और लक्ष्यार्थ के बीच जहाँ सादृश्य सम्बन्ध होता है; वहाँ गौगी लक्षणा मानी जाती है। जैसे "अग्निर्मागवकः" यहाँ माणवक में अग्नि के समान तेजस्विता होने के कारण गौणी लक्षणा मानी गयी है। इसीलिए गौणी लक्षणा का एक प्रकार है। वह लक्षणा से भिन्न वृत्ति नहीं है। व्यजना के बिना तो काव्य के प्रयोजनों में 'सकल-प्रयोजन-मौलिभूत सद्यःपरनिर्वृति' अर्थात् विगलित वेद्यान्तरानन्द और कान्तासम्मितोपदेश की प्राप्तिरूप प्रयोजनों की सिद्धि हो ही नहीं सकती है । यही आगे कहते हैं'ननु शास्त्रेषु' इति शास्त्रों में (मीमांसा, न्याय, वेदान्त आदि शास्त्रों में) व्यञ्जक शब्दों का नाम भी नहीं है इस शङ्का के समाधान के लिए वृत्तिकार ने लिखा है कि कारिका में आये हुए 'अत्र' का अर्थ है काव्य में । अर्थात काव्य का कार्य तो व्यञ्जना के बिना चल ही नहीं सकता। इसलिए काव्य में शब्दों के तीन प्रकारों की स्वीकृति अत्यन्त आवश्यक है। इसी को स्पष्ट करते हुए टीकाकार आगे लिखते है'काव्य इति (टोका) काव्य में (उस) चमत्कार-विशेष की उपपत्ति (समर्थन) व्यञ्जक शब्द की स्वीकृति के बिना नहीं की जा सकती जिसके कारण काव्य को अन्य शास्त्रों की अपेक्षा अधिक महत्त्व दिया जाता है।
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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