________________
काव्यप्रकाशः
तत्र वाच्यस्य यथा
माए घरोवप्ररणं अज्ज हु रणत्थि त्ति साहिग्रं तुमए ।
ता भण किं करणिज्जं एमग्र ण वासरो ठाइ ॥६॥ अत्र स्वरविहारार्थिनीति व्यज्यते । यत्वाद् शैत्यपावनत्वादेरपि क्वचिद् व्यञ्जकत्वादिति मदुत्प्रेक्षितः पन्थाः। विभागे शब्दस्य व्यञ्जकत्वमर्थस्य व्यङ्गयत्वमेवोक्तं काव्यलक्षणेन तु सगुणावित्यनेन गुणाभिव्यञ्जकार्थकेन द्वयोरपीति विरोधपरिहारकत्वेनैतद्ग्रन्थावतारणमिति परमानन्दप्रभृतयः । तत्राष्टमे शब्दानामिवार्थानां गुणाभिव्यञ्जकतानुक्तः अर्थव्यञ्जकतायामसांदृष्टिकत्वप्रयुक्तासत्ताशङ्काप्रक्षालनमेतदिति ऋजवः । माए ति :-'मातः ! गृहोपकरणमद्य खलु नास्तीति साधितं त्वया ।
तद भण किं करणीयम् एवमेव न वासरः स्थायी ॥६॥ गृहोपकरणम्-अन्नव्यञ्जनादि, साधितं-कथितम् । न च स्वरविहारार्थित्वस्य वाक्यार्थव्यङ्ग्यत्वेन वाच्यव्यङ्ग्योदाहरणत्वासङ्गतिरिति वाच्यम्, अन्विताभिधानपक्षे वाक्यार्थस्यापि वाच्यत्वात्, अभि
है। इसलिए अर्थत्व की अपेक्षा व्यञ्जकत्व धर्म व्यापक हो गया। अतः अर्थ का एक विभाग व्यञ्जक है, यह नहीं कहा जा सकता। इस समाधान को टीकाकार ने स्वयं का उद्भावित मार्ग माना है । "इति मदुत्प्रेक्षितः पन्थाः" ।
विभाग करते समय शब्द को व्यञ्जक और अर्थ को व्यङ्गय ही कहा गया है। परन्तु काव्य-लक्षण में आये हुए 'सगुणो' को शब्दार्थों का विशेषण बनाया गया है। 'गुण' शब्दार्थ का धर्म नहीं है, वह तो रस का धर्म है, इसलिए 'सगुणों' का अर्थ करना पड़ेगा-गुणाभिव्यञ्जक-शब्दार्थों । इस प्रकार वहाँ शब्द की तरह अर्थ को व्यजक स्वीकार करना ही पड़ेगा। तथा पूर्वापर ग्रन्थ में विरोध न रह जाय, इस विचार से ग्रन्थकार ने यह कारिका लिखी है-'सर्वेषाम् प्रायशोऽर्थानां व्यञ्जकत्वमपीष्यते' । विभाग में शब्द मात्र को व्यञ्जक मानना और काव्य-लक्षण में "सगुणों" के तात्पर्य के रूप में शब्द और अर्थ दोनों को व्यञ्जक स्वीकार करना कुछ अटपटा सा लगता था; उसको हटाने के लिए यह कारिका लिखकर ग्रन्थकारने बता दिया कि केवल शब्द ही व्यञ्जक नहीं है, अपितु सभी प्रकार के अर्थ भी व्यञ्जक होते हैं। इस तरह "सगुणो" के तात्पर्य से ताल-मेल बिठाने के लिए इस कारिका की रचना की गयी है ऐसा परमानन्द आदि टीकाकारों का मत है।
(ऋजु-सरल) दष्टि रखने वाले विद्वान् तो ऐसा मानते हैं कि:-काव्य प्रकाशकार ने अष्टम उल्लास में जहाँ शब्दों को गुणाभिव्यञ्जक बताया है; वहाँ अर्थों को गुणाभिव्यञ्जक नहीं बताया है। इसलिए अर्थ व्यञ्जक होता है या नहीं, इस प्रकार का सन्देह हो सकता था, उसके निराकरण के लिए--उस शङ्का को धोने के लिए यह कारिका िखी गयी है। वाच्य (की व्यञ्जकता) का (उदाहरण) जैसे-'माए' त्ति इत्यादि। .
अर्थ-हे मातः, आज घर में भोजन-सामग्री नहीं रही है, यह बात तुमने बतला दी है। ऐसी स्थिति में यह बताओ कि क्या करना चाहिए, क्योंकि दिन ऐसा ही तो नहीं बना रहेगा (थोड़ी देर में जब सूर्यास्त हो जायगा तो फिर क्या होगा?
यहाँ (कहने वाली वधू) स्वच्छन्द विचरण के लिए (अर्थात् उपपति के पास) जाना चाहती है, यह बात व्यङ्गय है।