________________
यह पद्धति अधिक विस्तृत तो नहीं हुई है किन्तु ऐसे रस-परक ग्रन्थों का निर्माण लघु-दीर्घ रूप में (नायकनायिका वर्णनात्मक) प्राज भी चल रहा है। ५. कतिपय प्राचार्यों ने केवल ध्वनि, केवल वृत्ति प्रथवा ध्वनि-विरोध आदि विषयों को भी प्रमुखता देते हुए कुछ ग्रन्थ लिखे हैं, जिनमें प्रमुख ये हैं१. ध्वन्यालोक-प्रानन्दवर्धन,
२. अमिधावृत्तिमातृका-मुकुलभट्ट, ३. वक्रोक्तिजीवत-कुन्तक,
४. व्यक्तिविवेक-महिमभट्ट, ५. वृत्ति-वातिक-अप्पयदीक्षित,
६. त्रिवेणिका-पाशाधर, ७. प्रौचित्यविचारचर्चा-क्षेमेन्द्र,
७. शब्द-व्यापार-विचार मम्मट । इन ग्रन्थकारों ने अन्य मतों का खण्डन करके स्वमत प्रतिपादन किया है अतः ये 'सम्प्रदाय-प्रवर्तक प्राचार्य' भी माने गये हैं। साथ हो इनके अनुयायी वर्ग ने मतपोषण के लिये भी कुछ ग्रन्थों की रचना की है। ६. छन्दःशास्त्रीय ग्रन्थ और ग्रन्थकार १. पिङ्गल छन्दःसूत्र-पिङ्गल,
२. छन्दःकौस्तुभ तथा वृत्तचन्द्रोदय-भास्कर राय, ३. छन्दोविचिति-जानाश्रयी माधव शर्मा, ४. जयदेवच्छन्द:-जयदेव, ५. छन्दोऽनुशासन - जयकीर्ति,
६. वृत्तरत्नाकर-केदारभट्ट ७. सुवृत्ततिलक-क्षेमेन्द्र,
८. श्रुतबोध- कालिदास, ६. छन्दोऽनुशासन-हेमचन्द्र,
१०. छन्दोमजरी-गङ्गादास । प्रादि का-याङ्गों में अत्यावश्यक इस अङ्ग की पूर्ति में और भी कई छोटे-बड़े प्रयास हुए है और हो रहे हैं जिनका परिचय यहाँ देना सम्भव नहीं है। इस साहित्य के कुछ प्रसिद्ध टीकाकार भी अपनेग्राप में अपूर्व देन देने में पर्याप्त सफल रहे हैं। ७. कवि और काव्य-शिक्षा के ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार १. कविशिक्षा-बप्पभट्टि,
२. काव्यमीमांसा-राजशेखर, ३. कविकण्ठाभरण-क्षेमेन्द्र
४. कविशिक्षा-जयमङ्गलसूरि ५. काव्यकल्पलता-अमरचन्द्र और अरिसिंह ६. कविशिक्षा-विनयचन्द्र ७. कविकल्पलता-देवेश्वर,
८. काव्यशिक्षा-गङ्गादास १. कविसमयकल्लोल-अनन्तार्य १०. कविकण्ठहार-प्रज्ञातनामा
कवि-शिक्षा अथवा काव्य-शिक्षा की दिशा में ऐसे और भी कुछ ग्रन्थ लिखे गए हैं जो एकाङ्गी होते हुए भी बहुत महत्त्व रखते हैं। समस्यापूर्ति, छन्दोविलास एवं अनुकृतिकाव्य भी इसी अङ्ग के पूरक हैं। ८. टोका और टीकाकार
उपर्युक्त विभिन्न शैली के ग्रन्थों पर अनेक प्राचायों ने टीकाएँ लिखी हैं। टीकाकार का दायित्व ग्रन्थकार की अपेक्षा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होता है क्यों कि जो बात मूल में संक्षेप में कही गई हो अथवा संकेत रूप में कही गई हो उसे भी यथावत् समझ कर उसके पूर्वापर सम्बन्ध को स्पष्ट करते हुए विषयवस्तु को वह प्रस्तुत करता है। ऐसे कई मान्य ग्रन्थ हैं जिन पर एक से अधिक टीकाएं ही नहीं अपितु प्रटीकाएँ भी बनी हैं। उन सबका नामत: उल्लेख विस्तार भय से यहाँ नहीं किया जा रहा है।