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________________ १६८ काम्य-प्रकाशा आनीतं पुरतः शिरोंऽशुकमधः क्षिप्ते चले लोचने, वाचस्तत्र निवारितं प्रसरण सड कोचिते दोलते ॥२२॥ अत्र चेष्टया प्रच्छन्नकान्तविषय आकूतविशेषो ध्वन्यते । इत्याहुः । वयं तु-प्रोल्लास्येत्यनेन त्वदागमनेन ममोल्लासो जात इति परस्परसमासक्तत्वेन कदलीसहशोरूद्वयमेलनात् कदलीद्वयान्तरप्रदेशः सङ्कतस्थानमिति अथवा प्रोल्लास्येत्यनेन कपाटमुद्धाट्यव मया स्थातव्यमिति, परस्परसमासक्तत्वेनार्गलं विनैव कपाटद्वयस्य संयोगमात्र ज्ञयमिति, आनीतमित्यादिना चन्द्रसदृशमुखाच्छादनेन चन्द्रास्तसमये समागन्तव्यमिति, स्त्रीवेषं धत्वा समागन्तव्यमिति वाऽधः क्षिप्ते इत्यादिना चाञ्चल्यं त्वया न विधयमुचितकाल एव समागन्तव्यमिति, यथा न कश्चित् पश्यतीति वा, वाच इत्यादिना वचनस्था अपि न ज्ञापनीया इति, मौनेनाऽऽगन्तव्यमिति वा, सङ्कोचिते इत्यादिना परिजनानां यथा निद्राविच्छेदो न भवति तथा विधेयमिति, अथवा रूपकेण लतासदृशात्मसङ्कोचस्तेन स्वमरणं तेन च मरणशपथस्तव यदि न समागम्यते भवतेति व्यज्यते इति पश्यामः । ननूक्तोदाहरणेष्वेक दोलते" इससे आने के पारितोषिक के रूप में 'आलिङ्गन' प्राप्त होगा यह व्यङ्गय अर्थ निकलता है। यह भी कोई कहते हैं। यहाँ मेरा मत (टीकाकार का मत) इस प्रकार है-मैं तो सोचता हूं कि यहाँ 'प्रोल्लास्य' से यह प्रकट होता है कि तेरे आने से मुझे प्रसन्नता हुई है। इसीलिए 'प्रसार्य' पद का प्रयोग न करके 'प्रोल्लास्य पद का प्रयोग किया है। "प्रोल्लास" से शब्दमर्यादा के कारण वैसा 'प्रसारण प्रकट होता है जिसमें उल्लास ही नहीं किन्तु 'प्रकृष्ट उल्लास' : हो। "परस्पर समासक्त" 'आपस में सटाना' इससे कदली-स्तम्भ के समान (सुन्दर वतुल और स्थूल) जंघाद्वय के मेल के द्वारा केले के दोनों स्तम्भों के बीच का प्रदेश (प्रकृष्ट देश-उत्कृष्ट स्थान) संकेत स्थान होगा, यह प्रतीत होता है । अथवा 'प्रोल्लास्य', के द्वारा कपाट (दरवाजा) खोलकर ही मै रहूंगी, “परस्पर समासक्त" से दरवाजे वैसे ही ढाले हुए होंगे, वे बिना अर्गला-सांकल या कुन्दे के वैसे ही बन्द होंगे इसलिए दोनों कपाट केवल संयुक्त हैं यही मानना, "आनीतं पुरत: शिरोंऽशुकम्" सिर पर लम्बी घूघट डाल ली" इससे चन्द्र-सदृश मुख के आच्छादन द्वारा चन्द्रमा के डूबने पर आना, अथवा स्त्री का वेश बनाकर आना, "अधःक्षिप्ते चले लोचने" 'आँखें नीची कर ली" इससे तुझे चञ्चलता या उतावलापन नहीं दिखाना चाहिए, अथवा ऐसे आना जिससे कोई न देख पाये, (आँखें बन्द करना-नहीं देखने का सकेत भी है) 'वाचस्तत्र निवारितं प्रसरणम्' इससे "वचनस्थ (आज्ञाकारी) को भी नहीं बताना या मौन होकर आना, 'संकोचिते दोलते' इससे (आहट और आङ्गिक संयम की विवक्षा द्वारा) परिजनों की नींद न खुले इस तरह काम करना और आना ये व्यङ्गय निकलते हैं। अथवा 'दोलता' में बांह की लता के साथ दिये गये रूपक से लता (लजवन्ती-छुई मुई नामक लता से तात्पर्य है) के समान (मूक) संकोच व्यक्त होता है, उससे स्वमरण सूचित होता है उससे यह प्रकट होता है कि 'तुझे मेरी मृत्यु की शपथ है यदि तुम न आओं' यह व्यङ्गयरूप में अभिव्यक्त होता है। पृथक-पृथक उदाहरण देने के कारण ग्रन्यकार ने यहाँ आर्थी व्यञ्जना के दसों भेदों के पृथक-पृथक उदाहरण दिये हैं । यद्यपि दो-तीन या अधिक भेदों को मिलाकर एक दो उदाहरणों में ही इन सबकी व्यञ्जकता दिखाई जा सकती थी तथापि पृथक-पथक उदाहरणों की जिज्ञासा की निवृत्ति के लिए और (पृथक्-पृथक) उदाहरण देने का अवसर प्राप्त होने के कारण अलग-अलग उदाहरण दिये गये हैं। यही बात बताते हुए लिखते हैं 'निराकाङ्क्षत्वप्रतिपत्तये......।'
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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