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________________ २५ काव्यप्रकाशः हेतुत्वे मानाभावोऽत आह- श्रगृहीतसङ्केतस्येति । तथा चान्वयव्यतिरेकाभ्यामेव सङ्केतज्ञानस्यार्थ - प्रतीतिजनकत्वमिति भावः । सङ्केतसहाय एवेति तद् (ज्, । ज्ञानसहाय इत्यर्थः । प्रदीपकृतस्तु साक्षादित्यभिधानक्रियान्वितं प्रतीत्यन्तरमद्वारीकृत्य प्रत्यायकत्वं च तदर्थ: तेन नाभिधामूलव्यञ्जकेन वाऽजहत्स्वार्थ लाक्षणिकेन वा स्व- परलाक्षणिकेऽतिव्याप्तिः, व्यङ्गयोपस्थिती प्राकरणिक प्रतीतेर्लक्ष्योपस्थितो मुख्यार्थबाधानुरोधेन तत्प्रतीतेर्व्यवधायकत्वाद्, अत एव शक्यलक्ष्योभयपराल्लाक्षणिकादुभयोपस्थितौ लक्ष्यमादायातिव्याप्तिर पास्ता, युगपदुपस्थितेरसम्भवाद् माधुर्यादिव्यञ्जकरेफादिवर्णेऽतिव्याप्तिवारणाय सङ्केतितपदमिति प्राहुः । के द्वारा ही निश्चित होता है कि संकेत-ज्ञान अर्थ-प्रतीति का कारण है। इसलिए संकेतज्ञान को अर्थप्रतीति का कारण मानने में अन्वयव्यतिरेक ही प्रमाण है । तात्पर्य यह है कि 'गो' शब्द का संकेतित अर्थ जानने पर ही 'गाय' अर्थ की प्रतीति उस शब्द से हो सकती है। जो व्यक्ति गो शब्द का संकेतित अर्थं नहीं जानता, वह उस शब्द को सुनकर भी 'गाय' अर्थ की प्रतीति नहीं कर पाता। इसलिए तत्सत्त्वे तत्सत्तारूप अन्वय अर्थात् संकेत-ज्ञान के रहने पर अर्थ - बोध होने तथा तदभावे तदभावः अर्थात् संकेतज्ञान के अभाव में अर्थबोध के अभावरूप व्यतिरेक से यही निश्चित हुआ कि संकेतज्ञान ही अर्थबोध का कारण है । वृत्ति में लिखित " सङ्केत सहाय एव" में संकेत शब्द ( लक्षणा के द्वारा ) संकेतज्ञान का बोधक है, इसलिए 'सङ्केत सहाय एव' का अर्थ है सङ्केतज्ञान की सहायता से ही शब्द अर्थ का वाचक होता है। मूल में जितना शब्द है उतना ही अर्थ करें तो अर्थ अनन्वित हो जायगा; क्योंकि संकेत शाब्दबोध में सहायक नहीं है; किंतु संकेत का ज्ञान सहायक है । प्रदीपकार ने कारिका में आये हुए पद 'साक्षात्' का अन्वय 'अभिधान-क्रिया' अर्थात् 'अभिधत्ते' के साथ माना है। इसलिए प्रदीपकार के अनुसार 'य: जो (शब्द) स केतित अर्थ को साक्षात् कहता है अर्थात् जो शब्द किसी अन्य ज्ञान को द्वार ( माध्यम ) न बनाकर संकेतित अर्थ को कहता है, वह शब्द उस अर्थ का वाचक होता है, ऐसा कारिका का अर्थ होता है।' इसलिए प्रदीपकार की व्याख्या में अभिधामूलक व्यञ्जना, अजहत्स्वार्था लक्षणा और स्वपरलक्षणा के उदाहरणों में अतिव्याप्ति दोष नहीं हुआ। क्योंकि “भद्रात्मनः" इत्यादि में अभिधामूलक ध्वनि की उपस्थिति साक्षात् नहीं होती है किन्तु प्रकरण से आये हुए अर्थ को द्वार बनाकर होती है । 'अजहत्स्वार्था लक्षणा' के 'कुन्ताः प्रविशन्ति' आदि उदाहरणों तथा 'गङ्गायां मीनघोषौ स्तः' इत्यादि स्वपरलक्षणा में मुख्यार्थबाध की अपेक्षा होने के कारण उसको माध्यम बनाकर लक्ष्यार्थं आता है, इसलिए अतिव्याप्ति नहीं होती है । क्योंकि ध्वन्यर्थ और लक्ष्यार्थ की उपस्थिति शब्द से साक्षात् नहीं होती है। इसलिए जो यह कहते थे कि - शक्य और लक्ष्य दोनों की उपस्थिति कराने वाले लाक्षणिक शब्दों में लक्ष्यार्थ को लेकर, वाचक के लक्षण के घटित हो जाने के कारण अतिव्याप्ति दोष हो जायगा, यह भी खण्डित हो गया। क्योंकि एक साथ दोनों अर्थों की उपस्थिति नहीं है । अर्थात् वाच्यार्थ की उपस्थिति हो जाने पर वाच्यार्थ में बाधा को माध्यम बना कर लक्ष्य अर्थ आता है; इसलिए लक्ष्यार्थं का शब्द से साक्षात् अभिधान नहीं होता । कारिका में संकेतित पद का निवेश माधुर्यादि व्यञ्जक रेफादि वर्णों में अतिव्याप्ति दोष के निवारण के लिए किया गया है । यदि कारिका में 'संकेतित' पद का निवेश नहीं किया जायगा; तो वाचक का लक्षण होगा "य: अर्थम् साक्षात् अभिधत्ते स वाचकः" अर्थात् जो अर्थ का साक्षात् अभिधान करता है, वह वाचक है। ऐसी स्थिति में रेफ (लकार) आदि वर्ण माधुर्यगुण रूप अर्थ की साक्षात् प्रतीति करते हैं, इसलिए ये वर्ण माधुर्यादिगुणों के
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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