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________________ श्री यशोविजयजी उपाध्याय कृत काव्यप्रकाश की प्रस्तुत टीका टोका का उपलब्धांश विविध टीकानों के रहते हए भी जैसे अन्य टीकाकारों ने नवीन टीकानों के निर्माण द्वारा 'ग्रन्थ' एवं 'ग्रन्थकार' के हृदय को समझने-समझाने के उत्तरोत्तर प्रयास किये, उसी प्रकार न्याय-विद्या के पारगामी उपाध्याय 'श्रीयशोविजयजी महाराज' ने भी इस टीका का निर्माण किया । यह टीका बहुत प्रयत्न करने पर भी पूर्ण प्राप्त नहीं हो पायी है और अब कहीं ऐसा कोई सङ्कत भी नहीं मिलता है कि जिससे उपलब्ध 'दो उल्लासों की टीका के अतिरिक्त कहीं कुछ अन्य अंश मिलने की सम्भावना हो । अतः अब यही कहा जा सकता है कि १-ग्रह टोका द्वितीय और तृतीय उल्लास पर ही बनी होगी और प्रागे इसका निर्माण ही नहीं किया होगा क्योंकि लेखक के प्रिय विषय 'न्याय' का इस अंश में ही समावेश हो जाता है। २. यह भी सम्भव है कि अग्रिम टोका बनाई हो और वह नष्ट हो गई हो। किन्तु प्रस्तुत टीका में कहीं 'पने वक्ष्यामः' जैसा कोई सूचन नहीं मिलता है। प्रस्तु, अब एक प्रश्न और होता है कि 'क्या प्रथम उल्लास पर टीका बनाई गई थी?' इसका उत्तर भी निश्चित रूप में तो कुछ कहा नहीं जा सकता किन्तु प्रधान-सम्पादक को प्राप्त पाण्डुलिपि में प्रारम्भ के ६ पृष्ठ उपलब्ध नहीं हैं तथा टीका में द्वितीय उल्लास के प्रारम्भ का पृष्ठ ७वा है। इसके आधार पर यह अनुमान सहज ही होता है कि 'प्रारम्म के ६ पृष्ठों के दोनों भागों को मिलाकर १२ पृष्ठ की टोका प्रथम उल्लास की रही होगी। साथ ही इसके प्रारम्भ में मङ्गलाचरण और प्रारम्भ-सम्बन्धी पद्य आदि भी नहीं हैं। इस प्रकार यह टीका केवल द्वितीय और तृतीय उल्लास पर ही मिली है, इसमें भी बीच-बीच में कुछ अंश खण्डित हैं । तथापि इसके सामूहिक पर्यवेक्षण से श्रीउपाध्यायजी की अनूठी प्रतिभा के दर्शन किये जा सकते हैं। प्रस्तुत टीका में विशेष रूप से समालोचित विषय का समुचित चिन्तन से यह अवश्य स्पष्ट हो जाता है कि टीकाकार के दायित्व का निर्वाह करते हुए पू० उपाध्यायजी ने इसमें कतिपय महत्त्वपूर्ण विचार प्रस्तुत किये हैं, जिनका संक्षिप्त दिग्दर्शन इस प्रकार है - प्रथम उल्लास का विवेच्य विषय प्रस्तुत टीका की पूर्वभूमिका पहले उल्लास के विचारों पर बनी है। जिसमें प्रथम उल्लास की (पृष्ठ भूमि) प्राचार्य मम्मट ने 'तबदोषो शब्दार्थों सगुणावनलकृती पुनः क्वापि' इस कारिकांश से लोकोत्तर-वर्णना-निपुण कविकर्मीभूत काव्यस्वरूप का लक्षण दिया है। उनके मत में दोषरहित अलङ्कार-विशिष्ट शब्द और अर्थ दोनों मिलकर
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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