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________________ ११२ शब्द 'काव्य' हैं । तात्पर्य यह कि 'काव्य एक धर्मी है जिसके १. दोषामाव, २. गुरणसाहित्य एवं ३. अलङ्कार-वैशिष्टय ये तीनों धर्म हैं।' 'सति कुड ये चित्रम्' इस उक्ति के अनुसार जसे भित्ति अथवा फलक के रहने पर ही चित्र बनाना सम्भव है, उसी प्रकार धर्मी का स्वरूप अवगत हो जाने पर ही धर्म का स्वरूप जाना जासकता है। इसलिये प्रथम उल्लास में आचार्य मम्मट ने धर्मी के १. 'ध्वनि, २. गुरणीभूतव्यङ्ग्य तथा ३. चित्र' ये तीन विभाग बतलाये हैं और तीनों के उदाहरण भी प्रस्तुत किये हैं । इन तीनों के १. 'उत्तम, २. मध्यम और ३. अधम काव्य ये भी पर्यायान्तर हैं। अधमकाव्य अथवा चित्रकाव्य के दो भेद हैं । १. शब्दचित्र और २. अर्थचित्र । शब्दार्थरूपी काव्य का लक्षण पूर्णरूप से तभी ज्ञात हो सकता है जबकि उनके समस्त पदार्थ विशेष रूप से प्रतिपादित किए जाएँ। इस दृष्टि से प्राचार्य मम्मट ने क्रमशः अग्रिम उल्लासों में उन समस्त पदार्थों का यथाशक्ति प्रतिपादन किया है। द्वितीय उल्लास का विवेच्य विषय मिस्थानीय शब्दार्थ में प्रथम 'शब्द' का विवेचन द्वतीय उल्लास का प्रमुख विषय है। काव्य का उपकरण अथवा माध्यम शब्द माना गया है। प्राचार्य मम्मट ने शब्द के तीन प्रकार-१. वाच्य, २. लक्ष्य और ३. व्याय प्रदर्शित किये हैं। वाचक की वाच्यार्थ में, 'प्रभिधा' वृत्ति है । लाक्षणिक की लक्ष्यार्थ में 'लक्षणा' वृत्ति है। तथा व्यंजक शब्द की व्यङ्गधार्थ में व्यजना' वृति है। यह अभिधा, लक्षणा और व्यञ्जना क्या वस्तु है ? इसका प्रतिपादन प्राचार्य मम्मट ने इस प्रकार किया है - अर्थ वृत्ति १. वाचक १. वाच्य (अभिधेय) १. अभिधा २. लाक्षणिक (लक्षक) २. लक्ष्य २. लक्षणा ३. व्यञ्जक ३. व्यङ्ग्य (वस्तु, अलङ्कार रसादि) ३. व्यअना ४. तात्पर्यार्थ ४. तात्पर्याख्या तात्पर्य तथा उसकी वृत्ति तात्पर्याख्या भट्ट कुमारिल ने स्वीकृत की है। उनके मत में अभिधा वृत्ति केवल वाच्यार्थों को उपस्थित करके क्षीण हो जाती है। अतः उन पदार्थों का परस्पर सम्बन्धबोधन करानेवाली तात्पर्याख्या वत्ति ही है। इसीलिये पदार्थ-संसर्गबोध के लिये तात्पर्याख्या वृत्ति प्रावश्यक होती है।' प्रभाकर मिश्र ने 'पदों की प्रन्वित पदार्थों में शक्ति-अभिधा मान लेने पर तात्पर्याख्या वृत्ति की कोई प्रावश्यकता ही नहीं रह जाती है। ऐसा प्रतिपादित किया है । अन्वित पदार्थ वाच्यार्थ होने पर अन्वय अर्थात् संसर्ग भी अभिधा वृत्ति का ही प्रतिपादक हो जाता है । अन्वय विशेषोपस्थिति के लिये आकांक्षा ही पर्याप्त है। इस तरह अभिहितान्वयवादी कुमारिल भट्ट तथा अन्विताभिधानवादी प्रभाकर मिश्र का मत साहित्यशास्त्र में बहुत प्रचलित है। प्राचार्य मम्मट ने भी "पाकाक्षा-योग्यता-सन्निधिवशाद् वक्ष्यमारणस्वरूपारगां पदार्थानां समन्वये तात्पर्यार्थो विशेषवपुरपदार्थोऽपि वाक्यार्थः समुल्लसतीत्यभिहितान्वयवादिनो मतम् । वाच्य एव वाक्यार्थ इत्यन्वितामिधानवादिनः ।" यह कहकर दोनों मतों का प्रतिपादन किया है । इन दोनों मतों में अन्तर इतना ही है कि १. 'पदार्थमात्र अभिधा का विषय होता है और उनका संसर्ग तात्पर्याख्या वृत्ति का विषय होता है। (यह अभिहितान्वयवादी भट्ट का मत हैं।) तथा
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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