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________________ ११२ काव्यप्रकाशा स्यात् तत् प्रयोजनं लक्षयेत् । न च तटं मुख्योऽर्थः। नाप्यत्र बाधः, न च गङगाशब्दार्थस्य तटस्य पावनत्वाद्यैर्लक्षणोयैः सम्बन्धः, । नापि प्रयोजने लक्ष्ये किजिवत् प्रयोजनम् । नापि गङ गाशब्दस्तटमिव प्रयोजनं प्रतिपादयितुमसमर्थः । __सुबुद्धिमिश्रास्तु नन्वत्रापि निरूढलक्षणा (अनादितात्पर्यवती) लक्षणाऽस्त्वित्यत आह-नच शब्द इति । स्खलन्ती गतिः शैत्यादेर्शानं यस्यासौ स्खलद्गतिः शैत्यादेरबोधको गङ्गादिः । [शब्दानां व्यञ्जना द्वाराशैत्यपावनत्वादि] प्रयोजनप्रतिपिपादयिषया प्रयोगादिति भाव इति व्याचक्षते ।" वयं तु विरम्य व्यापारायोगः स्खलद्गतिः [लक्षणया तटादिलक्ष्यार्थं बोधयित्वा विरतस्य] शब्दस्य प्रयोजनप्रतिपादने सामर्थ्य नेत्यर्थः । स्रोतसीत्यनन्तरं मुख्य इति शेषः, तटेऽपीत्यनन्तरं मु-[ख्यत्वेन विवक्षिते इति शेषः] अन्यथाऽस्य ग्रन्थस्य तर्कपरतायां न च तटं मुख्योऽर्थ इत्यस्यासङ्गतिः, मुख्यत्वस्यापादककोटावप्रवेशात् । तर्कपरत्वे च [ना] प्यत्र बाध इत्यनेन पौनरुक्त्यापत्तिः बाधाभावस्य तद्वदित्यादिनंवोक्ते- . रित्यवधेयम् । सुबुद्धि मिश्र"न च शब्दः'' की अवतरणिका इस तरह देते हैं-उनका कहना है कि यहाँ निरू ढा (अनादितात्पर्यवती) लक्षणा भी नहीं हो सकती है यह "नच शब्दः" से बताया गया है। उनके मनमें 'स्खलदगतिः' का विग्रह है 'स्खलन्ती गतिः (शैत्यादेानम्) यस्य असौ स्खलद्गतिः' अर्थात् शैत्यादि का बोध जिससे नहीं हो सकता, ऐसा गङ्गा शब्दादि नहीं है अथबा गङ्गा शब्द शैत्यादि का अबोधक हो ऐसा नहीं है। यदि ऐसा होता तो उस अर्थ के बोधन के लिए लक्षणा होती । जैसा कि वह तट अर्थ के बोधन में स्खलद्गति है तो, तटार्थ-बोधन के लिए लक्षणा होती है, परन्तु शीतत्वादि अर्थ-बोधन में वह स्खलद्गति नहीं है तो लक्षणा कैसे होगी? क्योंकि प्रयोजन के प्रतिपादन की इच्छा से ही उस (गङ्गा शब्द) का प्रयोग किया है । इस तरह सुबुद्धि मिश्र ने पूर्वोक्त ग्रन्थ के तात्पर्य को बताया है। मेरे मन में तो "किसी शब्द के किसी व्यापार की सहायता से किसी अर्थ के प्रतिपादन के बाद विरत (विश्रान्त) हो जाने पर उस शब्द के उसी व्यापार के साथ हुए योग को स्खलद्गति कहते हैं।" शब्द ऐसा नहीं होता अर्थात् विरत शब्द का पुनः उसी व्यापार से योग नहीं होता है। "शब्दबुद्धि-कर्मणां विरम्य व्यापाराभावः" यह सिद्धान्त स्पष्ट निर्देश दे रहा है। इसलिए "लक्षणा के द्वारा तटादि लक्ष्यार्थ की प्रतीति करने के बाद विराम प्राप्त गङ्गा शब्द उसी व्यापार के द्वारा प्रयोजन के प्रतिपादन में सामर्थ्य नहीं रखता" यह तात्पर्य "न च शब्दः स्खलदगतिः" का समझना चाहिए। वृत्ति में "स्रोतसि" के बाद 'मुख्ये' और 'तटे' के बाद "मुख्यत्वेन विवक्षिते" यह जोड़ना चाहिए। इस तरह पंक्ति का अर्थ होगा कि जैसे गङ्गा शब्द प्रवाहरूप मुख्यार्थ में बाधित है, वैसे आपके विचार में (लक्षणा से प्रयोजन के प्रतिपादन करनेवालों के विचार में) मुख्यार्थरूप में विवक्षित (न तु वस्तुतः मुख्यार्थ) तट अर्थ में भी बाधित नहीं है। यदि इस तरह 'मुख्ये' 'मुख्यत्वेन विवक्षिते' ये शब्द न जोड़े जाय तो ग्रन्थ को तर्क-परक मानने पर "न च तटं मुख्योऽर्थः" इस ग्रन्थ की संगति न हीं बैठेगी। क्योंकि तट जब मुख्यार्थ ही नहीं है, तो उसके बाध या अबाध का दिखाना व्यर्थ है। 'तटे' के बाद "मुख्यत्वेन विवक्षिते" यह जोड़ने पर संगति बैठ जाती है; क्योंकि 'तट' विवक्षा के कारण मुख्यार्थ है।
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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