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काव्यप्रकाशः
अनयोर्लक्ष्यस्य लक्षकस्य च न भेदरूपं ताटस्थ्यम् । तटादीनां हि गङ्गादिशब्दैः प्रतिपादने तत्त्वप्रतिपत्तौ हि प्रतिपिपादियिषितप्रयोजनसम्प्रत्ययः । 'गङ्गासम्बन्धमात्रप्रतीतौ तु 'गङ्गातटे घोष:' इति मुख्यशब्दाभिधानाल्लक्षणायाः को भेदः ?
भानं नेत्यर्थः । अत्र हेतुमाह-तटादीनामिति । प्रतिपादन इति सति सप्तमी, तत्त्वप्रतिपत्ताविति निमित्तसप्तमी, तेन तत्प्रतिपत्त्यर्थं गङ्गात्वेन तीरप्रतिपत्त्यर्थम् ।
शुद्धा तथा गौणी विषयक मुकुल भट्ट का मत
मुकुल भट्ट ने 'उपचार' को शुद्धा और गौणी का भेदक धर्म नहीं माना है। उनका कहना है कि उपचार का मिश्रण शुद्धा में भी होता है और गोणी में भी । इसलिए उन्होंने उपचारमिश्रा लक्षणा के पहले दो भेद किये हैं: — शुद्धोपचार और गौणोपचार । बाद में इन दोनों के दो भेद किये हैं—सारोपा और साध्यवसाना । इस प्रकार उपचार मिश्रा लक्षणा के चार भेद और शुद्धा लक्षणा के उपादान लक्षणा और लक्षण लक्षणा दो भेद करके उन्होंने लक्षणा के कुल मिलाकर ६ भेद किये हैं। मुकुल भट्ट ने उपचार का अर्थ किया है अन्य के लिए अन्य का प्रयोग । जहाँ अन्य के लिए अन्य शब्द का प्रयोग सादृश्य के कारण होता है; वहाँ गौणोपचार होता है। जहाँ सादृश्य से भिन्न समय आदि सम्बन्ध के कारण अन्य के लिए अन्य अर्थ के वाचक शब्द का प्रयोग होता है; वहाँ शुद्धोपचार होता है जैसे “गङ्गायां घोषः” में सामीप्य सम्बन्ध के कारण तट अर्थ के लिए प्रवाह अर्थ वाचक गङ्गा शब्द का प्रयोग हुआ है ।
मुकुल भट्ट ने 'उपचार' को शुद्धा और गौणी लक्षणा का भेदक धर्म न मानकर 'ताटस्थ्य' को अर्थात् लक्ष्यार्थं और लक्षकार्थ के भेद को शुद्धा और गौणी का भेदक धर्म माना है। मुकुल भट्ट मानते हैं कि गौणी लक्षणा में सादृश्यातिशय के कारण लक्ष्य और लक्षक में अभेद प्रतीत होता है; जैसे "गौर्वाहीकः" में गो और वाहीक अर्थों में अभेद प्रतीत होता है । शुद्धा लक्षणा में अर्थात् उपादान- लक्षणा और लक्षण लक्षणा में लक्ष्य और लक्षक में अभेद नहीं; अपितु 'ताटस्थ्य' भेद प्रतीत होता है; जैसे उपादान- लक्षणा के उदाहरण 'कुन्ताः प्रविशन्ति' और लक्षणा के उदाहरण “गङ्गायां घोषः” में लक्ष्य पुरुष तथा तट और लक्षक कुन्त और गङ्गा में अभेद नहीं, किन्तु भेदरूप ताटस्थ्य ही प्रतीत होता है तभी तो अर्थ होता है “कुन्तधारिणः पुरुषाः प्रविशन्ति" और "गङ्गातटे घोष:" यह मुकुल भट्ट का मत है । इसलिए उनका कथन है- "तटस्थे लक्षणा शुद्धा" शुद्धा लक्षणा तटस्थ में होती है ।
ऊपर की पङ्क्तियों (अनयोर्लक्ष्यस्य लक्षकस्य च" इत्यादि) में मम्मट ने मुकुल भट्ट के 'ताटस्थ्य'- सिद्धान्त का खण्डन किया है ।
टीकाकार ने वृत्ति के इसी तात्पर्य को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि अभिधा प्रतिपाद्य लक्षक (गङ्गा-प्रवाह ) और लक्षणा प्रतिपाद्य लक्ष्य (तीर) में भेदरूप ताटस्थ्य नहीं है। इसमें कारण बताते हुए लिखते है कि "तटादीनाम्" । पूर्वोक्त पंक्ति में "प्रतिपादने" यहाँ "सति सप्तमी" है और 'तत्त्वप्रतिपत्ती' में निमित्त सप्तमी है । "तेन तत्प्रतिपत्त्यर्थम् " का अर्थ है गङ्गात्वेन तीर की प्रतिपत्ति ( ज्ञान ) के लिए ।
'अनयोर्लक्ष्यस्य' इत्यादि वृत्ति का अर्थ -
लक्षण-लक्षणा
वृत्ति का शब्दानुसारी अर्थ इस प्रकार है - शुद्धलक्षणा के उपादान लक्षणा तथा नामक इन भेदों में लक्ष्य (अर्थ) और लक्षक (अर्थ) का भेद - प्रतीतिरूप ताटस्थ्य नहीं माना जा सकता; क्योंकि (लक्ष्यरूप) तट आदि अर्थों का गङ्गा आदि शब्दों से प्रतिपादन होने पर ही गङ्गात्वप्रतिपत्तिनिमित्तक अथवा लक्ष्य और लक्षक में अभेदप्रतिपत्तिनिमित्तक शीतत्वातिशयादि जैसे अभीष्ट प्रयोजनों की प्रतीति हो सकती है। इसलिए गङ्गावेन तीर की प्रतीति के लिए यहां लक्ष्यार्थ और लक्षकार्थ के बीच भेदरूपताटस्थ्य नहीं माना जा सकता ।