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चक्रवर्ती को "विस्तारिका" का पूर्णत: अनुसरण करती है। इधर पण्डितराज जगन्नाथ ने 'रसगङ्गाधर' में इति श्री. वत्सलाञ्छनोदाहरणमपास्तम्' कहकर इनके मत का खण्डन भी किया है। इन्हीं सब का पाश्रय लेकर इनका स्थितिकाल १४वीं ई० से ११वीं शती के बीच माना जाता है। इनके अन्य नाम 'श्रीवत्स शर्मा', 'श्रीवत्स वर्मा' अथवा केवल 'वत्सवर्मा' हैं । हाल ने 'वासवदत्ता' की भूमिका में इस टीका का उल्लेख (पृ.५४ पर) किया है तथा 'सारबोधिनी'
हेश्वर अथवा श्रीवत्सलाच्छन रचित माना है किन्तु महेश्वर-सूबुद्धि मिश्र और श्रीवत्सलाञ्छन दोनों भिन्न-भिन्न व्यक्ति हैं। प्रोफेक्ट १.७७८b, २. १६b, १०८, ३. पृ. ३४२ के अनुसार श्रीवत्स ने 'काव्य-परीक्षा' नामक स्वतन्त्र ग्रन्थ भी लिखा था जिसके पाँच अध्यायों में मम्मट के अनुसार ही वर्ण्यविषय में साम्य है। मम्मट की कारिकाएं तथा उदाहरण भी इसमें पर्याप्त गृहीत हैं। अत: इसे भी एक प्रकार से काव्य-प्रकाश की टीका ही मानकर रत्नकण्ठ ने इसका उल्लेख किया है।
प्रस्तुत 'दीपिका' टीका के निर्माण का हेतु व्यक्त करते हुए टीकाकार ने अवतरणिका में लिखा है कि
श्रीमल्लक्ष्मणमट्टानां सुहृवामनुशासनात् । ध्वनिप्रकरणस्याय रहस्यं वर्णयामहे ।। और अन्त में
काव्यप्रकाशतरुरेष कुसम्प्रदायव्याख्याविलोल-मरुदाकुलित-प्रतानः। सिक्तः पुनश्च प्रतिपल्लवतामुपेतु श्रीचण्डिदासकविवागमृतप्रवाहैः ॥ लब्धप्रख्या दीपिका ध्वान्तनाशे ख्यातेऽन्वास्येऽदीपि काव्यप्रकाशे । येयं कालामोचितस्वप्रकाशा विष्टया बापामोचिताद्धाऽवतात् सा।
इति कापिजलकुलतिलक षड्दर्शनीचक्रवति-महाकविचक्रचूडामणि-सहृदयगोष्ठीमरिष्ठ महामहोपाध्याय-भी. चण्डीदासकृतौ 'काव्यप्रकाशदीपिकायां' दशम उल्लासः ।
महाकवि चण्डीदास ने प्रस्तुत टीका में विषय को गम्भीरता से समालोचित किया है तथा अपने विचारों को दृढ़ता से अभिव्यक्त किया है। इन्होंने 'प्रबोध-चन्द्रोदय' नाटक पर भी टीका लिखी है, जिसका प्रमाण निम्न पद्य है
प्रणम्य सर्वामरवृन्दवन्धं मायामृगेन्द्र कविचण्डिदासः ।
प्रबोधचन्द्रोदयदुष्प्रबोधपदार्थजातं विशदीकरोति ॥ इसके अतिरिक्त इनके 'ध्वनिसिद्धान्त-संग्रह' का भी उल्लेख प्राप्त है। प्रस्तुत टीका का (तीन भागों में) सुसम्पादन श्रीशिवप्रसाद भट्टाचार्य ने किया है तथा इसका प्रकाशन-'बाराणसेय संस्कृत विश्वाविद्यालय' की सरस्वतीभवन-ग्रन्थमाला के क्र० ४६ में तीन भागों में हुआ है। इसके प्रथम भाग का प्रकाशन १८३३ ई० में हुआ था और दूसरा भाग भी उसी समय छपा था किन्तु वह अपूर्ण रहा । ततीय भाग में ५वें उल्लास से अन्त तक का भाग है । कुल पृ० सं० ५७० में यह पूर्ण है। [ २३ ] टीका- यशोधरोपाध्याय ( सन् १५०० ई० के निकट ) महाकवि भानुदत्त मिश्र ने 'रसपारिजात' के दसवें पल्लव में
विद्या कामगवी तस्या वत्सो वाचस्पतिः कविः।
दोग्या सिद्धान्तमुग्धानामेक एव यशोधरः। कहते हुए यशोधर को सर्वतन्त्रस्वतन्त्र वाचस्पति मिश्र से अर्वाचीन दिखाया है। म०म० नरसिंह ठक्कुर की नीषा' में इनका नाम पाया है तथा विद्याकर ने अपने विद्याकरसहस्रक' में