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________________ द्वितीय उल्लासः [सू० १३] स्वसिद्धये पराक्षेपः परार्थ स्वसमर्पणम् । उपादानं लक्षणं चेत्युक्ता शुद्ध व सा द्विधा ॥१०॥ 'कुन्ताः प्रविशन्ति' 'यष्टयः प्रविशन्ति' इत्यादौ कुन्तादिभिरात्मन: प्रवेशसिद्धयर्थं स्वसंयोगिनः पुरुषा आक्षिप्यन्ते । तत उपादानेनेयं लक्षणा। अथ कारिकात्रयेण (१३, १४, १५ सूत्र:) लक्षणायाः षड्विधत्वं प्रतिपादयति स्वसिद्धये इति । 'स्वसिद्धये' शक्यार्थान्वयसिद्धयर्थं, पराक्षेपोऽशक्योपस्थापनं, 'परार्थम्' अशक्यान्वयसिद्धयर्थं, ‘स्वसमर्पण' स्वार्थपरित्यागः, ‘शुद्धैवेति' शुद्धाया एवैष विभागो न तु गौण्या अपीत्यर्थः । ननु शक्यविशेषणकलक्ष्यविशेष्यकबोधजनकत्वमुपादानलक्षणं 'गङ्गायां घोष' इत्यादिलक्षणलक्षणायामतिव्याप्तम् तत्रापि गङ्गापदेन गङ्गातीरत्वप्रकारकबोधजननात्, तीरत्वमात्रप्रकारकबोध - इसके बाद "स्वसिद्धये पराक्षेप" इत्यादि “सारोपान्या तु, विषय्यन्तः कृतेऽन्यस्मिन्" तक १३,१४ और १५ संख्या की कारिकाओं में लक्षणा के ६ भेद बताते हैं । लक्षणा के दो भेद [सूत्र १३]-वाक्य में प्रयुक्त किसी पद का अपने अन्वय की सिद्धि के लिये अन्य अर्थ का आक्षेप करना 'उपादान' और दूसरे के अन्वय की सिद्धि के लिये अपने मुख्य अर्थ का परित्याग (समर्पण) 'लक्षण' कहलाता है, इस प्रकार 'शुद्धा लक्षणा' ही दो प्रकार की (१-उपादान-लक्षणा और २-लक्षण-लक्षणा) कही गई है। गौणी के ये भेद नहीं होते। (यहाँ) 'स्वसिद्धये' का अर्थ है शक्यार्थ की अन्वयसिद्धि के लिए। 'पराक्षेप' का अर्थ है अशक्य अर्थ का उपस्थापन। परार्थम्' का अर्थ है अशक्य अर्थ की अन्वयसिद्धि के लिए। 'स्व-समर्पण' अर्थात् स्वार्थ (अपने अर्थ का) त्याग । 'शुद्धव' में एव शब्द है इसलिए इसका अर्थ है कि उपादान-लक्षणा के ही (दो भेद) संभव हैं गौणी लक्षणा के नहीं। उपादान लक्षणा के दो उदाहरण - इस तरह जहाँ मुख्यार्थ वाक्यार्थ में अपने अन्वय की सिद्धि के लिए अन्य अर्थ का आक्षेप कर लेता है और स्वयं भी उस वाक्यार्थ-बोध में बना रहता है वहाँ 'उपादान-लक्षणा' होती है। इसमें मुख्यार्थ का भी उपादान (ग्रहण) रहने के कारण इस लक्षणा को “यथा नाम तथा गुणः" कह सकते हैं। 'कुन्ताः प्रविशन्ति' 'यष्टयः प्रविशन्ति' इसके उदाहरण हैं । “कुन्त" आदि अचेतन होने के कारण प्रवेश-क्रिया में अन्वित नहीं हो सकते थे। इसलिए यहाँ मुख्यार्थ का बाध होने पर कुन्त आदि शब्द का वाक्यार्थ में अपने अन्वय की सिद्धि के लिए पुरुष पद के आक्षेप द्वारा बोध कराया जाता है। इस तरह पूर्वोक्त अन्वय की बाधा दूर हो जाती है क्योंकि 'कून्तधारी या लाठियों वाले पुरुष प्रवेश कर रहे हैं' इसका यह अर्थ हो जाता है। अतः स्वार्थत्याग के बिना अन्यार्थ का उपादान करने से यह 'उपादान लक्षणा' कहलाती है। इसके विपरीत जहाँ मुख्यार्थ अन्य अर्थ का वाक्यार्थ में अन्वय-सिद्धि के लिए त्याग कर देता है वहाँ 'लक्षणलक्षणा' होती है । जैसे 'गङ्गायां घोषः' में गङ्गा शब्द का मुख्यार्थ प्रवाह घोष के साथ आधार बनकर अन्वयसिद्धि के लिए अपना त्याग कर देता है और सामीप्य-सम्बन्ध से तीर अर्थ की प्रतीति करा देता है। यह लक्षणा 'लक्षणलक्षणा' कहलाती है क्योंकि यहां गङ्गा शब्द का प्रवाह अर्थ तीर अर्थ का बोधक बनकर गया है। 'ननु शक्य०' इत्यादि (टीकार्य) 'उपादान-लक्षणा' का लक्षण यदि 'शक्यविशेषणक-लक्ष्यविशेष्यक-बोधजनकत्वम्' करें तो 'कुन्ताः प्रविशन्ति' में कुन्तविशेषणकतद्धारिपुरुषविशेष्यकबोध होने से लक्षण घटित (समन्वय) होगा किन्तु "गङ्गायां घोषः” इत्यादि
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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