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काव्यप्रकाशः
हामहास हा
___ अत्र प्रतिभाति- शक्तिस्तावत् पदार्थान्तरमित्युक्तम्, तच्च गङ्गादिपदे प्रयोगप्राचुर्येणानन्यलभ्यतया प्रवाहादावेव कल्प्यते, तीरनौकातृणफेनादिसहस्रपदार्थेषु क्लृप्तशक्यसम्बन्धेनैवोपपत्तौ नाक्लुप्तसहस्रपदार्थान्तरकल्पनं गौरवात् । न च शक्यसम्बन्धस्यापि वृत्तित्वकल्पने गौरवमेवेति वाच्यम्, धर्मिकल्पनातो धर्मकल्पनाया लघुत्वात्, नानार्थस्थले नैकशक्यसम्बन्धोऽपरशक्यस्थल इवेति न तेनान्यथासिद्धिः । वस्तुतः शक्यतावच्छेदकरूपेणव लक्ष्यस्योपस्थितिरिति ग्रन्थकारमतेन न काऽप्यनपपत्तिः, एकशक्यतावच्छेदकरूपेणापरशक्यबोधस्य शक्तिजन्यत्वे सैन्धवादिपदादपि तरगत्वादिप्रकारकलवणाद्यपस्थित्यापत्तेः । तेन विलक्षणबोधान्यथानुपपत्त्यैव विलक्षणा वृत्तिरास्थेयेति गङ्गापदेन तीरत्वादिना तीरानुपस्थित्या च न यमुनातीरादिबोधापत्तिः, न वा तीरे तीरत्वोभयविषयकलक्षणाभावप्रयुक्तदोषावकाशोऽपि, नापि कुन्ताः प्रविशन्तीत्यादौ कुन्तधरत्वप्रकारकबोधाभ्युपगमनिबन्धनोक्तदोषप्रसङ्ग इति सङ्क्षपः। हुए अर्थ की प्रतीति कराने की इच्छा भी ईश्वर में है तो गङ्गा शब्द से तीरार्थ की प्रतीति कराने की इच्छा.भी उसकी रही होगी; यह तर्क अस्वाभाविक नहीं है।
यहां ऐसा प्रतीत होता है कि शक्ति तो कोई पदार्थान्तर ही है । गङ्गा पद में प्रयोग की प्रचुरता के कारण और अन्यलभ्य नहीं होने से प्रवाहादि में शक्ति मानते हैं। तीर, नौका, तृण और फेनादि ऐसे हजारों पदार्थ हैं जिनमें कल्पित शक्यार्थ का सम्बन्ध होने से ही उनका बोध) सिद्ध हो सकता है फिर गौरव-दोष से हटकर अकल्पित हजारों पदार्थान्तर की कल्पना वहां नहीं करते हैं।
यदि शक्यसम्बन्ध की उपस्थिति भी वृत्ति द्वारा मानें तो अनेक शक्यसम्बन्ध में शक्ति मानने के कारण गौरव होगा ही। ऐसी कल्पना नहीं करनी चाहिए क्योंकि "धर्मों की कल्पना की अपेक्षा धर्म की कल्पना लघु होती है।" अर्थात् गङ्गा शब्द से सामीप्यादि-सम्बन्धविशिष्ट तीर, नौका, तृण आदि में शक्ति मानने की अपेक्षा सामीप्यादिसम्बन्ध में शक्ति मानना लघु है ।
अपरशक्य-स्थल की तरह अनेकार्थक शब्द-स्थल में एक शक्यसम्बन्ध नहीं होता। तात्पर्य यह है कि जहां गङ्गा शब्द अपर (दूसरे) अर्थ तीर को बताता है वहां उसका शक्य-सम्बन्ध अर्थात् तीरार्थ के साथ सम्बन्ध वही नहीं होता जो उसका प्रवाह अर्थ के साथ था । नानार्थस्थल में भी यही बात होती है । 'सैन्धव' शब्द लवण अर्थ को जिस शक्य-सम्बन्ध से बताता है वही शक्य-सम्बन्ध उसका अश्व अर्थ के साथ नहीं है। यह स्पष्ट है कि 'सैन्धव' शब्द की व्युत्पत्ति "सिन्धो भवः" सिन्धु में उत्पन्न यह अर्थ प्रस्तुत करती है । योगरूढ होने के कारण सैन्धव शब्द 'लवण और अश्व अर्थ का बोध कराता है। लवण सिन्धु के पानी में होता है, अश्व सिन्धु प्रदेश में होता है। इस लिए 'सैन्धव' शब्द अश्व अर्थ को जिस सम्बन्ध में बताता है, उसी सम्बन्ध में 'अश्व अर्थ को नहीं बताता है।
____ इस लिए अन्यथा-सिद्धि-दोष नहीं होगा। पूर्वशक्य-सम्बन्ध से ही यदि ऊपर शक्य का बोध हो जाता तो अन्यथा-सिद्धि कही जा सकती थी।
वस्तुतः 'शक्यतावच्छेदक रूप से ही लक्ष्य कहे जाने वाले अर्थ की भी उपस्थिति हो सकती है' ग्रन्थकार के इस मत में किसी प्रकार की अनुपपत्ति नहीं दिखाई पड़ती है। एकशक्यतावच्छेदकरूप में अपरशक्यबोध को यदि शक्तिजन्य मानें तो सैन्धव आदि पद से अश्वत्वादिप्रकारक लवणादि अर्थ की उपस्थिति हो जायगी। इसलिए विलक्षणबोध की अन्यथा अनुपपत्ति के कारण विलक्षणवृत्ति स्वीकार कर लेनी चाहिए इसलिए गङ्गा पद से तीरत्वादि रूप में तीर की अनुपस्थिति होने पर भी यमुना-तीरादि का बोध नहीं होगा। क्योंकि विलक्षण-वृत्ति के कारण विलक्षण (गङ्गा तीर का ही) बोध होगा। तीर और तीरत्व दोनों को विषय बनाकर एक लक्षणा के न होने से जो दोष होता था उस दोष का भी अवकाश अब न रहा और “कुन्ताः प्रविशन्ति" इत्यादि में 'कुन्तधारी पुरुष प्रवेश करते हैं। इस बोध में कुन्तधारी को विशेषण बनाने के कारण उक्त दोष आने की आशङ्का भी नहीं रही। इस तरह संक्षेप में विचार प्रस्तुत किया है।