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________________ ५५ (२) वृत्ति-नागपूरीय 'तपा' गच्छ के चन्द्रकीति सूरि के शिष्य हर्षकीर्ति सुरि द्वारा सत्रहवीं शती में यह वृत्ति बनाई गई है। (३) वृत्ति-यह नयविमल द्वारा रचित है । (४) वृत्ति-यह वाचक मेघचन्द्र के शिष्य की रचना है। इसका प्रारम्भ 'श्रीमत्सारस्वतं धाम' से होता है। इसका उल्लेख पिटर्सन की द्वितीय रिपोर्ट के परिशिष्ट (१० २२५) में दिया गया है। (५) वृत्ति-यह कान्तिविजय द्वारा रचित है। (६) टोका-यह माणिक्यमल्ल की कृति है। (१) वृत्तरत्नाकर वृत्ति-केदार भट्ट के इस ग्रन्थ पर 'उपाध्याय-निरपेक्षा' नामक वृत्ति का निर्माण तेरहवीं शती के विद्वान् 'कविसभाशृङ्गार' विरुद से विभूषित तथा मेघदूत के टीकाकार श्री प्रासड ने किया है। (२) वृत्ति-'वादी' देवसूरि के सन्तानीय जयमङ्गल सूरि के शिष्य सोमचन्द्र गणि ने ई० सन् १२७२ में यह वृत्ति निर्मित की है। (३).टिप्पनक-'खरतर' गच्छ के जिनभद्रसूरि के शिष्य क्षेमहंस ने इसकी रचना की है। ये पन्द्रहवीं शती के पूर्वार्ध में विद्यमान थे। (४) बालावबोध-'खरतर' गच्छ के मेरुसुन्दर ने इस बालावबोध की रचना की है। ये सोलहवीं शती में हुए हैं । कुछ भाग संस्कृत में और शेष गुजराती भाषा में यह व्याख्या होगी। (५) वृत्ति-यह वृत्ति समयसुन्दर गणि ने ई० सन् १६३७ में निर्मित की है। (६) वृत्ति-इसके रचयिता हर्षकीति सूरि के प्रशिष्य तथा अमरकीति के शिष्य यशःकीति हैं। इस प्रकार अर्जन छन्दःशास्त्रीय मुख्य दो ग्रन्थ 'श्रुतबोध' तथा 'वृत्तरत्नाकर' पर जैन विद्वानों ने बार टीकाएं लिखी हैं जो उनके छन्दः-सम्बन्धी अध्ययनानुराग की प्रतीक हैं। इस प्रकार साहित्य-शास्त्र की चिन्तन-परम्परा में जहाँ गृहस्थवर्ग ही प्रायः अध्ययन, अध्यापन तथा विवेचन आदि में संलग्न रहा है वहीं हमारा मुनिवर्ग भी इस शास्त्र के चिन्तन में जागरूक रहा है। सारस्वत साधना में श्लीलअश्लील अथवा लौकिक-अलौकिक की भावना से ऊपर उठकर वाग्देवी की अर्चना करना ही प्रमुख लक्ष्य रहता है। ताटस्थ्यभाव से सत्य को सत्य कहने की क्षमता सच्चे साहित्यकार का देवी गुण है। इसी गुण को मुखरित रखने में जैन मुनिवर्ग भी सदा अग्रणी रहा है । यह बात उपर्युक्त कृति-निचय के निदर्शन से सत्य परिलक्षित होती है। साम्प्रदायिक दुराग्रह की सीमा को लांघ कर 'विश्वमेकनीडम्' की भावना से लिखा गया साहित्य ही वस्तुतः साहित्य कहलाता है। सहभाव का उद्रेक भी तभी होता है, जब कि उसमें केवल सत्य, शिव और सुन्दर का ही सात्त्विक प्रतिबिम्ब अडित किया गया हो। इसीलिये कहा गया है कि साहित्यं पुरुषोत्तमस्य विमला विद्योतते स्फाटिकी, मूतिर्यत्र विलोकनात् स्फुटतरं बाह्य तथाभ्यन्तरम् । सर्व तत्त्वमवलि तत् सहृदयो यल्लोक-शोकापह, सत्यं मङ्गलरूपि सुन्दरतरं भास्वत्प्रभावान्वितम् ॥ (रुद्रस्य)
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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