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________________ द्वितीय उल्लासः १४५ JORAMAAL तथेति व्यस्जक: । इति काव्यप्रकाशे 'शब्दार्थस्वरूपनिर्णयो' नाम द्वितीय उल्लासः ॥२॥ येति, केवलार्थकरणकमेव ज्ञानमशाब्दम् इदं त्वर्थसहकृतशब्दकरणकमिति न शाब्दत्वहानिरित्यर्थः । नन्वनेकार्थस्येत्यादिना शब्दस्यैवात्र व्यञ्जकत्वं नार्थस्येति लभ्यते, तथा च 'भद्रात्मन' इत्यादिकाव्यस्य प्रकृष्टव्यङ्ग्यवच्छब्दार्थयुगल तथा व्यङ्गयरहिताधमकाव्यप्रकाशे तत्र व्यञ्जनाव्यवस्थापरशब्दस्य तु परावृत्त्यसहत्वेन प्राधान्यमात्रमिति नोक्तलक्षणक्षतिरिति भावः । वस्तुतस्तु तद्युक्तो व्यञ्जकः शब्द इत्यनेन व्यञ्जनयुक्तशब्दत्वं व्यञ्जकशब्दलक्षणमुक्तं तत्र च शब्दपदं व्यर्थम् अर्थस्यापि आँख से देखने के बाद जो घर का ज्ञान होता है; वह केवल अर्थकरणक है; इसलिए उस चाक्षुष प्रत्यक्ष को अशाग्दज्ञान कहते हैं परन्तु "भद्रात्मनः" इत्यादि में जो द्वितीयार्थज्ञान हुआ है वह अर्थज्ञानसहकृत शब्दकृत है। इसलिए इसे शाब्दज्ञान कहने में कोई बाधा नहीं आयी। (यहाँ से आगे पङ्क्ति में लेखन का कुछ प्रमाद प्रतीत होता है ?) : "अनेकार्थस्य शब्दस्य" इस कारिका में शब्द को व्यजकत्व बताया गया है अर्थ को नहीं; ऐसा प्रतीत होता है । ऐसी स्थिति में" "भद्रात्मनः" इत्यादि श्लोक में जहाँ कि शब्द और अर्थ दोनों मिलजुलकर प्रकृष्ट और प्रप्रकष्ट व्यङ्ग्य से युक्त हैं, उक्त कारिका का लक्षणसमन्वय कैसे होगा? तात्पर्य यह है कि “भद्रात्मनः" यहाँ पूर्वोक्त निर्णय के अनुसार शब्द ही व्यञ्जक है इसलिए शब्द को ही प्रकृष्ट मानना पड़ेगा। व्यजक न होने के कारण अर्थ अप्रकृष्ट है फिर वहाँ उत्तमकाव्य का लक्षण नहीं घटेगा। क्योंकि मम्मट ने स्वयं (सू०२) की वृत्ति में लिखा है कि "व्यङ्गयभावितवाच्यव्यङ्गयव्यञ्जनक्षमस्य ध्वनिरिति व्यवहारः" अर्थात वाच्यार्थ को गौण बना देने वाले व्यङ्गधार्थ को अभिव्यक्ति कराने में समर्थ शब्द और अर्थ दोनों के लिए ध्वनि व्यवहार होता है। "भद्रात्मनः" में तो पूर्व विचार के अनुसार केवल शब्द व्यञ्जक है इसलिए उसे ध्वनिकाव्य नहीं कहा जा सकता। उत्तर है कि वहाँ परिवर्तन को नहीं सहन करनेवाला शब्द प्रकृष्ट व्यञ्जक है और सहकारी अर्थ अप्रकृष्ट व्यजक, इसलिए ध्वनि काव्य के लक्षण के घटने में यहां कोई बाधा नहीं हुई इसलिए अव्याप्तिदोष नहीं हुआ। इसलिये मानना चाहिए कि यह लक्षण शाब्दी व्यकजना का है ? शाब्दी व्यजना वहाँ होती है, जहाँ पर्यायपरिवर्तन से व्यङ्गय में बाधा पडती है। शाब्दी व्यञ्जना में शब्दपरिवर्तन असहनीय होता है । इसीलिए इसको 'शब्दपरिवृत्त्यसह' कहा गया है। इस लिए यहां शब्द की प्रधानता होती है। यही बताने के लिए कारिका में "शब्दस्य" कहा गया है यदि ऐसा न मानें तो अव्याप्ति और अतिव्याप्ति दोष कहां जाएगा; क्योंकि आर्थी व्यञ्जना में जहां अर्थ व्यञ्जक है और शब्द भी व्यञ्जक है तो अतिव्याप्ति दोष होगा। व्यङ्गयरहित अधम काव्य में शब्द है इसलिए यत्र यत्र एवविधशब्दत्वम् तत्र-तत्र व्यङ्गयत्वम्' कहें तो वहाँ भी व्यङ्गय होना चाहिए। परन्तु जब मानते हैं कि शाब्दी व्यञ्जना में शब्द परिवृत्त्यसह होता है तो अधम काव्य में शाब्दी व्यञ्जना का लक्षण नहीं घटता। इस तरह शाब्दी व्यञ्जना और आर्थी व्यञ्जना का भेदकतत्त्व शब्द-परिवृत्त्यसहत्व और शब्दपरिवृत्तिसहत्व को ही मानना चाहिए । “भद्रात्मनः" इस श्लोक में शब्दों के अपरिवर्तनीय होने के कारण शब्दों की प्रधानता के कारण शाब्दी व्यञ्जना मानने पर भी सहकारी के रूप में अर्थ व्यञ्जक है ही, इसलिए ध्वनिकाव्य के लक्षणसमन्वय में बाधा नहीं आयी। अधमकाव्य में "एवंविधशब्दत्व" के होने पर भी परिवर्तनसह शब्द के होने के कारण दोष नहीं हुआ।
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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