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________________ द्वितीय उल्लासः इत्याद्यभिन्नाभिवानप्रत्ययोत्पत्तिस्तच्छुक्लत्वादि सामान्यम् । गुडतण्डुलादिपाकादिष्वेवमेव विनाशादेः शुक्लादिप्रतियोगिकत्वेनानुभवादिति भावः । यदूवशेनेति । अनुगतकार्यस्यानुगतकारणनियम्यत्वाद् व्यक्तीनामननुगमाज्जातिरेवानुगतकारणमित्यर्थः । एवमेवेति, अनुगतमतेरेवेत्यर्थः । इदमुपलक्षणम् अधःसन्तापनरूपपच्यर्थे रूपरसगन्धादिपरावृत्तिजनकतावच्छेदकतया, स्पन्दात्मके गम्यर्थे उत्तरदेशसंयोगजनकतावच्छेदकतया, 'यजति, ददाति, जुहोत्य'र्थे इदं न ममेत्यादि-सङ्कल्परूपे तत्तत्फलविशेषजनकतावच्छेदकतया जातिसिद्धिः । एवमन्यत्राप्यूह्यम् । कथन और प्रतीति की उत्पत्ति होती है, वह शुक्लत्व आदि सामान्य (जाति) है। गुड़ और तण्डुल आदि के पाक पद्यपि एक दूसरे से भिन्न हैं तथापि जिस कारण से सब जगह "पचति" इस प्रकार के एक शब्द का व्यवहार और बोध उत्पन्न होते हैं; वह पाकत्व जाति है। इसी प्रकार बाल, वृद्ध और तोता आदि के द्वारा बोले गये 'डित्थ' आदि शब्दों में अथवा प्रत्येक क्षण में परिवर्तन-शील और भेद को प्राप्त होते हुए डिथ आदि पदार्थों में जिस कारण 'डित्थः डित्थः' इस प्रकार का अभिन्न शब्द-प्रयोग और समानबोध होता है, वह डित्थत्व है जो कि सामान्य धर्म है; इसलिए सब शब्दों का प्रवृत्ति-निमित्त केवल जाति ही है। (वैयाकरणों के मतानुसार जात्यादि चारों को प्रवृत्तिनिमित्त न मानकर केवल जाति को ही प्रवृत्तिनिमित्त मानना चाहिए यह अन्य (मीमांसक) कहते हैं। , इसमें परमार्थतः का अर्थ है "वस्तुतः" । शुक्ल गुण, हिम, दूध और शंख में वस्तुत: भिन्न है क्योंकि घटप्रतियोगिक अभाव के अनुभव के कारण जैसे घट अनित्य माना जाता है; उसी प्रकार शुक्ल गण का विनाश देखा गया है इसलिए शुक्ल प्रतियोगिक अभाव के अनुभव के कारण शुक्लगण को अनित्य मानना चाहिए । इसलिए उत्पत्ति-विनाशशील होने के कारग शुक्ल, रक्त आदि गुणों को हिम, दूध, शंख आदि में भिन्न मानना चाहिए। इस तरह भिन्न होते हुए भी जिस कारण से सर्वत्र 'शुक्ल: शुक्लः' इस तरह समान शब्दों से अभिधान होता है और बोध होता है वह तत्त्व शुक्लत्व-सामान्य है। यदि कार्य अनुगत है तो कारण भी अनुगत होना चाहिए । एक जगह शुक्लगण के ज्ञान से अन्यत्र जो शुक्लगण का ज्ञान हो जाता है इसका कारण सब जगह रहने वाला शुक्लत्व सामान्य ही हो सकता है। क्योंकि अनन्त होने से हम व्यक्ति का अनुगम एकाकार-प्रतीति नहीं कर सकते। इसीलिए मीमांसक कहते हैं- "अनुवृत्तिप्रत्ययहेतुः सामान्यम्" एकाकार प्रतीति का हेतु 'सामान्य' कहलाता है। जाति को सामान्य भी कहते हैं। जैसे अनेक घटों (घटव्यक्तियों) में एकाकार-प्रतीति या अनुवृत्ति-प्रतीति का कारण घटत्व-सामान्य या घटत्व-जाति है, उसी तरह अनेक वस्तुओं में रहने वाले शुक्लगुण में जिसके कारण "शुक्ल: शुक्लः" यह अनुगत या एकाकार प्रतीति होती है उसका कारण शुक्लत्व-सामान्य है। एवमेव का अर्थ है अनुगतप्रतीति के ही कारण । अर्थात् अनुगत एकाकार-प्रतीति के कारण पचतीत्यादि क्रिया में भी पाकत्व-सामान्य मानना चाहिए । तात्पर्य यह है कि गुड़, तण्डल, दूध आदि अनेक पदार्थों के पाक में रहने वाली पाकक्रिया में "पाक: पाकः" इस अनुगत-प्रतीति का कारण पाकत्व-सामान्य है। पाक-क्रिया में पाकत्व-सामान्य सिद्ध करने के लिए गुड़तण्डलादि पाकवाली जो युक्ति दी गयी है, उसे उपलक्षण मानना चाहिए। उपलक्षण का लक्षण है "स्वबोधकत्वे सति स्वेतरबोधकत्वम्"-जो स्वयं का बोध कराते हुए स्व-समान अन्य का भी बोध कराता है। उसे उपलक्षण कहते हैं। इसलिए पूर्वोक्त पङ्क्ति में लिखित युक्ति के अतिरिक्त कुछ अन्य युक्तियां भी भी हो सकती हैं। जिनके कारण पाकत्वसामान्य की सिद्धि हो सकती हैं। उनमें से कुछ नीचे दी जाती हैं । जैसे पच धातु का अर्थ अधःसन्तापन है चूल्हे से नीचे उतार कर सेकना जैसे रोटी सेकते हैं । अथवा अधःसन्तापन के स्थान में अधःसंस्थापन भी हो सकता है जिसका अर्थ है नीचे रखना; जो भी हो चूल्हे से नीचे उतारने के बाद रूप, रस, गन्धादि की उत्पत्ति हुई है। अतः रूप, रस, गन्धादि-परावर्तन कार्य है उसका जनक है पच धातु का अधःसन्तापन,
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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