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________________ काव्य-प्रकाशः गुरुप्रणपरवस पिन किं भणामि तुह मंदभाइणो अहमं। अज्ज पवासं वच्चसि वच्च सग्रं जेव्व सुण सि करणिज्जं ॥२१॥ (गुरुजनपरवश प्रिय ! किं भणामि तव मन्दभागिनी ग्रहकम् । अद्य प्रवास व्रजसि व्रज स्वयमेव श्रोष्यसि करणीयम् । ) अत्राद्य मधुसमये यदि व्रजसि तदाहं तावद् न भवामि, तव तु न जानामि गतिमिति व्यज्यते । गुरुप्रणेत्ति-"गुरुजनपरवश प्रिय ! कि भणामि त्वां मन्दभागिन्यहम् । अद्य प्रवासं व्रज स्वयमेव ज्ञातासि किं करणीयम् ॥२१॥ गुरुजनरूपो यः पर उदासीनस्तद्वशत्वं न तु स्वाभिन्नाया ममेत्यपरीक्ष्यकारित्वं निःस्नेहत्वं, प्रियेति सोल्लुण्ठवचनेन प्रियतमस्यैवं कृत्यं न भवतीति, किं भणामीत्यनेन यतो गुरुजनपरवशतयाऽसमीक्ष्यकारित्वमतो नोपालम्भस्यापि विषयः, त्वामिति मन्दभागिन्यहमित्यनेन यदसमीक्ष्यकारिणि त्वयि अहमात्मानं समर्पितवतीत्यहमप्यनाकलितकारिणी किमुपतप्यामि देवमेवोपालभे येन मयि दुर्बुद्धिराहितेति, प्रद्येत्यनेन यत्र चिरप्रवासिनोऽपि गृहमायान्ति, तस्मिन् मधावुपस्थिते तव गृहत्यागो नोचित इति । व्रजसि व्रजेत्यनेन गाढतरमनुरूपाभिप्रायावेदनेन मा वजेति, स्वयमेवेत्यादिना त्वमपि मद्विरहवेदनामनुभूतवानेवासि इति यथा त्वया पूर्व मानावसरे प्राणत्याग उपक्रान्तः तथाऽहमप्युपक्रमिष्या -काल वैशिष्ट्य में व्यंजना का उदाहरण-गुरुअण इति "गुरुजनपरवस.........श्रोष्यसि करणीयम्।" गुरुजनों के परवश हे प्रिय, मैं मन्दभागिनी तुम से क्या कहूं? वस्तुतः, तुम न जाना चाहते हो और न मैं तुम्हें भेजना चाहती हूं; परन्तु माता-पिता आदि.गुरुजनों की आज्ञा के कारण आज (वसन्तकाल में) यदि विदेश जा रहे हो तो जाओ, आगे तुझे क्या करना चाहिये यह बात (मेरी मृत्यु के बाद) तुम्हें स्वयं सुनने को मिल जाएगी। गुरुजनरूप जो पर अर्थात् उदासीन लोग हैं तुम उनके वशीभूत हो, तुझसे अभिन्न (तेरे दुःख-सुख-समभागिनी) जो मैं हूँ उसके अधीन तुम नहीं हो इस तरह नायक से असमीक्ष्यकारिता (अदूरदर्शिता) और निःस्नेहत्व प्रकट होते हैं । प्रिय इस उपहासपूर्ण सम्बोधन के प्रियतम का ऐसा कार्य नहीं होता है। 'कि भणामि' (क्या कहै) इससे गुरुजन के अधीन होने के कारण तुम अविचारपूर्ण कार्य करनेवाले (असमीक्ष्यकारी) बन गये हो इसलिए तुम उपालम्भ (उलाहना) दोषारोपण के पात्र नहीं (तुम्हें दोष नहीं दिया जा सकता), 'त्वाम्' इस पद से और 'मन्दभागिनी अहकम्' इन पदों से असमीक्ष्यकारी तुझको जो मैंने अपने आपको समर्पित किया, इससे सिद्ध है कि मैं भी बिना आगेपीछे सोचे कार्य करनेवाली हूं, फिर को सन्तप्त हो रही है। उस देव को ही उपालम्भ देना चाहिये; जिसने मुझमें कुबुद्धि उत्पन्न की या कुबुद्धि स्थापित कर दी, अद्य इस पद से 'जिस वसन्त समय में चिर प्रवासी भी लौटकर घर आ जाते हैं। उस वसन्त ऋतु के (मधुमय समय के) उपस्थित होने पर तेरा गृहत्याग (घर छोड़कर जाना) उचित नहीं है ये व्यङ्गय प्रकट होते हैं। 'व्रजसि व्रज' 'जाते हो तो जाओ' इससे अत्यन्त गूढतर अनुरूप भाव के निवेदन द्वारा 'मा व्रज' 'मत जाओ' यह व्यङ्गय आता है । "स्वयमेव श्रोष्यसि करणीयम्" इनसे 'तुम भी मेरे विरह की वेदना का अनुभव कर ही चुके हो “यह और जैसे तुम पहले मान के अवसर पर (मेरे रूठ जाने पर) प्राण त्याग करने के लिए तैयार हो गये थे वैसे मैं प्राण त्याग करने पर उतारू हो जाऊँगी" यह अभिव्यक्त होता है।
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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