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________________ तृतीय उल्लास: अत्र विविक्तोऽयं देश इति प्रच्छन्नकामुकस्त्वयाभिसार्यतामिति आश्वस्तां प्रति कयाचिन्निवेद्यते । दूरभ्रमणासामर्थ्याच्छायामाश्रित्य हस्ताप्राप्यमप्यवचेयं मया कुसुममिति भावः । आश्वस्तां प्रति च एताभिः समं दूरभ्रमणे यदर्थमहमानीता त्वया तदर्थसिद्धिर्न भविष्यति, सहव भ्रमणे पुष्पप्राप्तिसाम्येऽवस्थानाय बीजाभावेऽप्यवस्थाने एतासां मच्चरितज्ञानस्य श्वश्वाश्चैताभिः सहानागमने कोपस्य च सम्भवादिति व्यज्यते। श्वश्रूकोपमेव मनसि निधाय दैन्यं व्यनक्ति प्रसीदतेत्यादिनेति प्रतिभाति । अत्रेति । देश विशेषवैशिष्टयावगमादिति शेषः, प्रच्छन्नकामुक उपपतिः प्रच्छन्न इति पाठे सदा सन्निहितचेट्यादिवेषेन (ण) गुप्त इत्यर्थः । अत्र वाच्योऽर्थः सामान्यसखीविषयो व्यङ्गयं तु रहस्यवयस्याविषय इति बोध्यम् । अत्र भ्रमितुमित्यत्र भ्रामयितु समर्थेत्यत्र योग्येति लक्ष्यार्थस्य प्रोक्ततद्व यङ्गयस्य च प्रकृतव्यङ्ग्यबोधजनकत्वेन लक्ष्यव्यङ्ग्ययोरपि व्यञ्जकत्वस्योदाहरणमिदमित्यवलोकनीयम् ।। लिए कहती है, यह भी अभिव्यक्त होता है कि तुम मुझे जिस प्रयोजन से इतनी दूर चला कर लायी हो। उस प्रयोजन की सिद्धि इन सखियों के साथ रहने या दूर तक भ्रमण करने पर नहीं हो सकेगी। इनके साथ घूमने में फूलों की प्राप्ति जो कि मेरा बनावटी और इनका मुख्य उद्देश्य है समानरूप से होगी; किन्तु वैसा करने पर अर्थात् इनके साथ घूमने पर मैं यहां कैसे ठहर सकूगी ? इस लिए 'नाहं हि दूरे भ्रमितु समर्था" मैं दूर तक चलने में असमर्थ हूं यह कह कर अपनी अशक्ति को यहां ठहरने का कारण बनाना ही पड़ेगा। बिना कारण यदि इनके साथ न घूम कर यहाँ ठहर जाऊँ तो इन(सखियों) को मेरे चरित्र का (तिरिया चरित्र का) पता लग जाएगा और इस पर यदि कल इनके साथ मेरी सास भी आ गयी तो वह भी नाराज होगी। सास के क्रोध को ही मन में सोचकर दीनता प्रकट करती हुई कहती है "प्रसीदायम्......."वः" । "मैं तुम्हारे हाथ जोड़ती हैं मुझ पर कृपा करो, नाराज मत होओ" "अत्र विविक्तोऽयम्......... निवेद्यते" यहाँ 'देशवैशिष्ट्यावगमात्" इन शब्दों का शेष मानना चाहिए। प्रच्छन्नकामुक का अर्थ है उपपति । प्रच्छन्न गुप्त को कहते हैं, जो हमेशा सम्यक् (भली-भांति) तिरोहित चेष्टा आदि और वेश के द्वारा गुप्त रहता है। उसे प्रच्छन्न कहते हैं । उपपति हमेशा अपनी कामुकता की चेष्टा और वेश आदि को तिरोहित (अन्तः सन्निहित) रखता है इसलिए उसे प्रच्छन्नकामुक कहते हैं। इस प्रकार यहाँ देशवैशिष्ट्य के ज्ञान से 'यह एकान्त स्थान है इसलिए तुम उपपति को (प्रच्छन्न कामुक को) यहाँ भेज दो यह अपनी किसी विश्वस्त सहेली के प्रति कोई कह रही है" इस व्यङ्गय की प्रतीति हई। यहाँ वाच्य अर्थ सामान्य सखीविषयक है। अर्थात् वाच्य अर्थ का विषय सामान्य सखियाँ हैं किन्तु व्यङ्गय का विषय रहस्य से परिचित समानवयस्का (हमजोली) है। यह भ्रमितम' पद की लक्षणा 'भ्रामपितुम्" अर्थ में है। 'समर्था' का लक्ष्यार्थ 'योग्या' है इसलिए यह पद्य लक्ष्यव्यंजकता का भी उदाहरण है । पूर्वोक्त व्यङ्गयद्वय से यहाँ प्रकृत व्यङ्गय प्रकट हुआ है । इसलिए यहाँ व्यङ्ग्यार्थ भी व्यङ्ग्यार्थजनक है । अतः यहाँ व्यङ्ग्यार्थ व्यंजकता भी है । १-१६४ पृष्ठ के तृतीय अनुच्छेद में प्रोक्त (देशवैशिष्टय)
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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