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________________ ८. अलङ्कार-चिन्तामरिण- इस ग्रन्थ के प्रणेता दि० आचार्य अजितसेन (ई. सन् १२५०-६० के निकट) हैं। यह पांच परिच्छेदों में विभक्त है । इसमें काव्यशास्त्र के विभिन्न विषयों का विस्तारपूर्वक विवेचन हुआ है। विषयवस्तु एवं रचना-प्रक्रिया की दृष्टि से 'अलङ्कार-चिन्तामणि' का प्रथम परिच्छेद एक सौ छह पद्यों में 'कवि-शिक्षा' सम्बन्धी विषयों को सम्यक प्रकार से विवेचित करता है। यहीं पञ्चम पद्य में अत्रोदाहरणं पूर्वपुराणादि-सुभाषितम् । पुण्यपूरुष-संस्तोत्रपरं स्तोत्रमिदं ततः ॥ यह कहकर पूरे ग्रन्थ को स्तोत्र सिद्ध किया है। काव्यलक्षण, कवि की योग्यता, काव्य-हेतु, महाकाव्य के वर्ण्यविषय, कविसमय, काव्यभेद-निरूपण प्रादि इसके प्रधान विषय हैं। द्वितीय परिच्छेद में शब्दालंकारों के चार भेदों का निरूपण एक सौ नवासी पद्यों में हुआ है। यहीं चित्रालंकारों के ४२ भेद बतलाये हैं । तृतीय परिच्छेद वक्रोक्ति, अनुप्रास और यमक के भेद-प्रभेदों से सम्पन्न है। ४१ पद्यों में यहाँ यमक के ११ भेद और अन्य उपभेदों का सोदाहरण विवेचन स्पहरणीय है। चतुर्थ परिच्छेद अर्थालंकारों का निरूपक है। यहां ३४५ पद्यों में प्रायः ७२ अर्थालंकारों का निरूपण करते हुए प्राचार्य अजितसेन ने साधर्म्य और सादृश्य के अतिरिक्त अलंकारों के वर्गीकरण के लिये-१. अध्यवसाय २-विरोध-मूलकत्व ३-वाक्यन्याय-मूलकत्व ४-लोक-व्यवहार-मूलकत्व ५-तर्कन्याय-मूलकत्व ६-शृंखलावैचित्र्य, ७-अपह्नव-मूलकत्व तथा ८-विशेषण-वैचित्र्यहेतुकत्व को भी आधार माना है। साथ ही १-अलंकार के लक्षणों में विच्छेदक पदों का प्रयोग एवं पदों की सार्थकता २-अलंकारों के पारस्परिक अन्तर का विश्लेषण, ३-उपमा के भेद-प्रभेदों का नयी दृष्टि से विचार-विनिमय तथा ४-स्वमत की पुष्टि के लिये अन्य अलंकारशास्त्रियों के वचनों का प्रस्तुतीकरण जैसी विशेषताओं से इस परिच्छेद का महत्त्व भी निखर आया है। पञ्चम परिच्छेद में 'रस, नीति, शब्दशक्तियाँ, वृत्तियाँ गुण, दोष एवं नायक-नायिका के भेदों का विवेचन किया गया है। इस परिच्छेद में ४०६ पद्य हैं। यहाँ नाटक और ध्वनि सम्बन्धी विचारों को छोड़कर काव्यशास्त्र-सम्बन्धी सभी आवश्यक चर्चाएं समाविष्ट हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ दो भागों में विभक्त है लक्षण और लक्ष्य-उदाहरण । लक्षण-सम्बन्धी सभी पद्य अजितसेन द्वारा रचित हैं तथा लक्ष्य-सम्बन्धी सभी पद्य अन्य जैनग्रन्थों से लिए गये हैं। वैसे यह ग्रन्थ भोज के 'सरस्वतीकण्ठाभरण' से प्रभावित है किन्तु इसके प्रत्येक विषय को विज्ञान के धरातल पर प्रतिष्ठित करने का पूरा प्रयास आचार्य अजितसेन ने किया है। ___ इस ग्रन्थ का प्रथम प्रकाशन सन् १९०७ ईसवी में सोलापुर से हुआ था और इसी का हिन्दी अनुवाद एवं विस्तृत भूमिका सहित दूसरी बार प्रकाशन 'भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, वाराणसी' से सन् १९३० में हना है। ९. शृङ्गार-मञ्जरी- श्रीअजितसेन के नाम से यह एक लघूकाय ग्रन्थ भी प्राप्त होता है। इसमें तीन परिच्छेद हैं। इसकी रचना प्रायः सन् १२४५ में हुई है। ग्रन्थ की प्रशस्ति में लिखा है कि राज्ञी विट्ठलदेवीति ख्याता शीलविभूषणा। तत्पुत्रः कामिरायाख्यो 'राय' इत्येव विश्रुतः ।। तद्भूमिपालपाठार्थमुदितेयमलङिक्रया । संक्षेपेण बुर्घषा यद्भात्रास्ति (?) विशोध्यताम् ॥ इस ग्रन्थ की उपलब्ध दोनों प्रतियों में शृङ्गारमञ्जरीनामालङ्कार' ऐसा अन्त में लिखा है तथा काव्य के शृङ्गारकारी तत्त्वों का इस में संक्षिप्त संग्रह है। १०. शृङ्गारार्णव-चन्द्रिका प्राचार्य विजयकोति के शिष्य श्री विजयवर्णी द्वारा रचित (ई० सन् १२५०)
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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