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________________ द्वितीय उल्लासः उरो मुकुलितस्तनं जघनमंसबन्धोद्धरं, बतेन्दुवदनातनौ तरुणिमोद्गमो मोदते ॥ ६ ॥ असङ्कुचितत्वं सम्बन्धः, मुखे सरोजसाम्यं सौरभविशेषो वा व्यङ्गयः, दयितमधुव्रतोचितमधुमधुराधरमन्दिरत्वं व्यङ्गयमिति वयम् । वशीकरणं चेतनधर्मः, स च प्रेक्षिते बाधित इति स्वाधीनत्वं लक्ष्यते, अभिमतविषयप्रवृत्तिमत्त्वं सम्बन्धः युक्तानुरागित्वं व्यङ्गचं, बाल्याभावेन यादृच्छिकप्रवृत्तिविरहाद् गुरुजनसन्निधानेऽपि निभृतनिजनायकानुनयनिमित्त नियुक्तपरिजनत्वं व्यङ्गयमिति वयम् । समुच्छलनं मूर्तधर्मः, स च गतौ बाधित इति बाहल्यं लक्ष्यते, कार्यकारणभावः सम्बन्धः, युवजनमनोमोदकत्वं व्यङ्गयम्, प्रियतमप्राणोपरि परिस्थितत्वं व्यङ्गयमिति वयम् । संस्था-मर्यादा, तदपासनमपि समानाधिकरणत्वाच्चेतनधर्मः स याचेतनमत्यादौ बाधित इत्यधीरत्वं लक्ष्यते, कार्यकरणभावः सम्बन्धः, प्रेमोत्कर्षो व्यङ्गयः; दयितमुखावलोकनावसरविस्मृतवयस्योपदिष्टमानिनीजग[जन-मौन-धारणादि] -चेष्टितत्वं व्यङ्गय मिति वयम् । मेरे मत में जैसे मधुव्रत (भ्रमर) के लिए परम प्रिय मधु का मन्दिर पुष्प या पद्म होता है; उसी तरह यह.मुख प्रियतम नायक के लिए स्पृहणीय मधु से मधुर अधरों का मन्दिर है यही यहाँ व्यङ्य है। "वशितवक्रिमप्रेक्षितम्" का व्यङ्गयार्थ बताते हुए लिखते हैं कि-'वशीकरण' चेतन धर्म है, वह अचेतन प्रेक्षित (दृष्टि)से बाधित है । इसलिए मुख्यार्थवाघ होने पर स्वाधीनत्व लक्ष्यार्थ है । जैसे अधीन व्यक्ति,जिसके अधीन होता है उसका अभिमत सिद्ध करने के लिए सदा सन्नद्ध रखता है; उसी तरह दृष्टि का बांकापन उसके अधीन रहकर सदा उसके अभिमत की सिद्धि करता है इसलिए मुख्यार्थ और लक्ष्यार्थ के बीच अभिमतविषयवृत्तिमत्त्व सम्बन्ध है । इससे युक्तानुरागित्व ( समुचित प्रेम या सम्बद्ध व्यक्ति से प्रेम) व्यङ्गय है। .. मेरे विचार में नायिका अब बाला नहीं रही है। इसलिए वह अपनी मर्जी से इधर-उधर उठकर नहीं जा सकती। वहाँ गुप्तरूप में नायक आया हुआ है इसके अनुनय के लिए वह इशारे से नेत्र के कटाक्ष से नायक के अनुनय के लिए गुरुजन के संनिधान में किसी परिजन को नियुक्त करती है यह यहाँ व्यङ्गय है । 'समुच्छलितविभ्रमा यहाँ सम्यक् उछलना मूर्त का धर्म है। वह गति (अमूर्त) में बाधित है, इसलिए लक्षणा से 'बाहुल्य' उसका अर्थ है । समुच्छलन और बाहुल्य के बीच कार्यकारणभाव सम्बन्ध है । इस तरह गति युवकजन-मनोमोहक है यह व्यङ्गय है। मेरे विचार में यहाँ 'प्रियतम के प्राण से बढ़कर वह प्रिय है' यह व्यङ्गय है। प्राण में भी गति है और प्रियतमा के चरणों में भी, परन्तु प्राण के परिस्पन्द को उस गति से जीवन प्राप्त होता है । इसलिए प्रियतम प्राणोपरि परिस्थितत्व' यहाँ व्यङ्गय हैं । 'अपास्तसंस्था' में संस्था का अर्थ है मर्यादा । मर्यादा चेतन का धर्म है उसका अपासन (दूरीकरण) भी समानाधिकरणसम्बन्ध से चेतन का ही धर्म है क्योंकि मर्यादा का अधिकरण चेतन है इसलिए उसका - दूरीकरण भी वहीं रहेगा; जो वस्तु जहाँ रहती है; उसके दूरीकरण का आधार भी वही वस्तु होती है । इसलिए मर्यादा का दूरीकरण अचेतन मति आदि का धर्म नहीं हो सकता; इसलिए बाधित है। अत एव यहाँ अधीरत्व लक्ष्य है, कार्यकारणभाव सम्बन्ध है, मर्यादा दूरीकरण कारण है और अधीरत्व कार्य । इस तरह प्रेमोत्कर्ष यहाँ व्यङ्गय है । और इसी प्रकार मेरे मत के अनुसार यहाँ अपने प्रियतम के मुख के अवलोकन के अवसर पर नायिका अपनी सखी के द्वारा
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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