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________________ १०२ काव्यप्रकाश गूढं यथा मुखं विकसितस्मितं वशितवक्रिमप्रेक्षितं, समुच्छलितविभ्रमा गतिरपास्तसंस्था मतिः । इति व्याचक्ष्महे । व्यङ्गयस्य गूढागूढत्वेन पूर्वोक्तषड्भेदानां द्वैगुण्यात् प्रयोजनवती द्वादशविधेत्याह तच्चेति, वा शब्दश्चकारार्थो, गूढत्वं सहृदयमात्रवेद्यत्वम्, अगूढत्वं सहृदयासहृदयवेद्यत्वं, हृदयं च प्रतिभा। ननु गूढपदेन मध्यमकाव्यचतुर्थभेदस्यागूढपदेन च प्रथमतभेदस्य सङ्ग्रहेऽपि नोत्तमप्रभेदसङ्ग्रहः असहृदयवेद्यत्वापत्तेः, न चेष्टापत्तिः, 'वक्तृबोद्धव्यकाकूना' मित्यादिना तत्रापि प्रतिभावेद्यत्वोक्तिविरोधादिति चेद् ? न । गूढपदेनैव तत्सङ्ग्रहात् । अत एव 'कामिनीकुचकलशवत्' गूढं चमत्करोतीति पञ्चमे [उल्लासे] वक्ष्यति, न चैवं मध्यमकाव्यचतुर्थभेदासङ्ग्रहः, स्फुटास्फुटभेदेन गूढस्य द्विरूपतया प्रथमस्य ध्वनावन्त्यस्य मध्यमे सत्त्वादिति प्रतिभाति । 'तच्चेति' चकारस्य समुच्चयाकर्थत्वे तदर्थकवाशब्दानपपत्तिरित्यतो व्याचष्टे तच्चेति, व्यङ्यमिति । तथा च, चस्त्वर्थ इति भाव इति प्रतिभाति । गूढं यथेति । उत्तमत्वप्रयोजकगूढं यथेत्यर्थः ।। मुखं विकसितस्मितमिति । अत्र विकासः पुष्पधर्मः स्मिते बाधित इति सातिशयत्वं लक्ष्यम् । भी प्रतिभावेद्य कहा गया है। इस तरह पूर्वापर ग्रन्थों में परस्पर विरोध न आ जाय इस लिए. उत्तम काव्य के प्रभेदों के असहृदयवेद्यत्व की कोटि में आगमन को दोष ही माना जायगा। ऐसा प्रश्न हो सकता है; परन्तु गूढ पद से ही उनका (उत्तम काव्य प्रभेदों का) संग्रह हो जाएगा। इसी लिए आगे पांचवे उल्लास में मम्मट कहेंगे कि "कामिनीकुचकलशवद् गुढं चमत्करोति"। इस तरह 'गूढ' में उत्तमकाव्यगत समस्त व्यङ्गयों का संग्रह हो जायगा। यहाँ एक प्रश्न यह होता है कि यदि 'गूढ' पद का तात्पर्य ध्वनिकाव्य लें तब तो मध्यम काव्य के चतुर्थ भेद का संग्रह नहीं हो पायेगा? इसका उत्तर यह है कि गूढ दो प्रकार का होता है १. स्फुट और २. अस्फुट । उनमें प्रथम की ध्वनि में और दूसरे की मध्यम काव्य में सत्ता मानने से कोई दोष नहीं होगा। (यह टीकाकार का मत है) "तच्च" यहाँ यदि चकार समुच्चयार्थक है तो उसी अर्थ में 'वा' शब्द का प्रयोग हो जाएगा। इसलिएव्याख्या करते हैं कि 'तच्च' का अर्थ है व्यङ्गय। इस तरह यहाँ 'च' तु के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है मुझे ऐसा प्रतीत होता है। "गूढं यथा" का तात्पर्य है उत्तम काव्यत्व के प्रयोजक गूढ व्यङ्गय का उदाहरण है "मुखं विकसितस्मितम्" । अर्थात् मुख पर मुस्कान खिल रही है; तिरछापन दृष्टि का दास बन गया है, चाल में भाव-विलास छलक रहे हैं, बुद्धि ने मर्यादा का उल्लङ्घन कर दिया है, छाती स्तनों की कलिका से सम्पन्न है, जांघे अवयवों के बन्ध से उभर रही हैं, अतः यह अत्यन्त प्रसन्नता की बात है कि चन्द्रमुखी के शरीर में यौवन का विकास खेल रहा है। ४॥ यहाँ विकास फूल का धर्म है वह स्मित में बाधित है। इसलिए यहाँ 'स्मित' की सातिशयता व्यङ्गच है। पुष्प और स्मित दोनों के बीच असंकुचितत्व सम्बन्ध है। 'विकसित' विशेषण के कारण मुख में 'सरोजसाम्य' या सौरभ-विशेष 'व्यङ्गय है, यह टीकाकारों का मत है।
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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