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________________ ३३ द्वितीय उल्लासः (सू० १०) सङ्केतितश्चतुर्भेदो जात्यादिर्जातिरेव वा । यद्यप्यर्थक्रियाकारितया प्रवृत्तिनिवृत्तियोग्या व्यक्तिरेव तथाप्यानन्त्याद् व्यभिचाराच्च तत्र सङ केत: कर्तुं न युज्यत इति गौ: शुक्लश्चलो डित्थ इत्यादीनां विषयविभागो न प्राप्नोतीति च तदुपाधावेव सङ केतः । 'सङकेतितश्चतभेद' इति । नन गणानामेकत्वे गणशब्दोपाधित्वं स्यात तथात्वे च तेषां जातित्वापत्तौ गोत्वादिना जातिसङ्करप्रसङ्गाद्, अबाधितोत्पादविनाशप्रतीत्यसम्भवो जातिवाचकभेदानुपपत्तिश्चेत्यपरितुष्यन्नाह-जातिरेव वेति । अर्थक्रिया दोहनवाहनादिरूपा, व्यक्तिः जात्याद्याश्रयः, सर्वासु व्यक्तिषु शक्तिग्रहस्य कारणत्वाङ्गीकारे दूषणमाह-प्रानन्त्यादिति, अनन्तानां गोव्यक्तीनामेकदोपस्थित्यसम्भवेन तत्र सङ्केतो ग्रहीतुन शक्यत इत्यर्थः । ननु यत्र क्वचिदेव व्यक्तौ शक्तिग्रहोऽस्तु कारणं शाब्दे च बोधे सङ्केताविषयीभूता अपि व्यक्तयः पदाद् भासन्त इत्यङ्गीकार्यमित्यत आह-व्यभिचारादिति, शंक्तिग्रहाविषयीभूतस्यापि शाब्दबोधविषयत्वे व्यभिचारेण शक्तिग्रहस्य कारणत्वानुपपत्तिरित्यर्थः, व्यभिचाराद् व्यभिचारप्रसङ्गात् सङ्केतग्रहाविषयत्वाविशेषाद् अश्वादेरपि ज्ञानप्रसङ्गादित्यर्थः । ननु शब्दों से व्यक्ति का ही बोध होगा। इस तरह 'गो' शब्द जातिवाचक है, 'शुक्ल' शब्द गुण वाचक है, 'चल' शब्द क्रिया वाचक है और 'डित्थ' शब्द व्यक्ति-विशेष का नाम होने से यहच्छा-शब्द है इस प्रकार का विभाग नहीं बन सकता । व्यक्तिवाद में तो उक्त चारों शब्दों से व्यक्ति का ही बोध होगा। इस तरह इस कारिका का अर्थ है-संकेतित अर्थ जाति, गुण, क्रिया तथा यदृच्छा भेदों से चार प्रकार का होता है । अथवा (मीमांसकों के मत के अनुसार) केवल जाति ही संकेतित अर्थ है । 'गुणों को एक मानने पर गुण को शब्द की उपाधि माना जायगा । यदि गुण को उपाधि मानेंगे तो वह भी जाति की तरह हो जायगा और उसका गोत्व आदि के साथ साङ्कर्य हो जायगा। (यदि गुण वाचक शब्द को) जातिवाचक ही मानना चाहें तो ऐसा भी सम्भव नहीं है; क्योंकि जातिवाचक शब्द वह माना गया है जहाँ उत्पत्ति और विनाश की अबाधित प्रतीति न हो सके, रक्त आदि शब्द तो उत्पन्न और विनष्ट होने वाले गुण की प्रतीति कराते हैं इसलिए उनको जातिवाचक से भिन्न मानना चाहिए, इसलिए "चतुर्भेदः" इस अंश से सन्तुष्ट न होकर दूसरा पक्ष प्रस्तुत करते हुए कहते हैं-"जातिरेव वा”। व्याकरण-दर्शन-सम्मत चतुर्विध सङ्केतित अर्थ का विश्लेषण वृत्ति की व्याख्या करते हुए लिखते हैं- "अर्थक्रिया का अर्थ है दूहना, वाहन बनना आदि । व्यक्ति की परिभाषा है 'जात्याश्रयः' अर्थात् जाति का आश्रय व्यक्ति कहलाता है । सभी व्यक्तियों में शक्तिग्रह को यदि शाब्दबोध का कारण मानें तो "आनन्त्यात्" अर्थात व्यक्ति में शक्ति मानने पर गोपद से एक गो की उपस्थिति होगी अनन्त और असंख्य गो व्यक्तियों की उपस्थिति नहीं हो सकेगी; इसलिए व्यक्ति में (वहाँ) संकेतग्रह नहीं मान सकते हैं। यदि यह कहें कि किसी एक गो व्यक्ति में ही शक्ति में ही शक्तिग्रह मानेंगे और वहाँ उस शक्तिग्रह को अर्थोपस्थिति का कारण मानेगे किन्तु शाब्दबोध में जहाँ संकेत ग्रहण नहीं हुआ है, ऐसे व्यक्ति भी पद से भासित हो जायेंगे, तो ऐसा कथन व्यभिचार-दोष के कारण अनुचित होगा। जिस शब्द का जिस अर्थ में शक्तिग्रह नहीं हुआ
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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