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________________ काव्यप्रकाश [सू. ७]--तात्पर्यार्थोऽपि केषुचित् ॥६॥ आकाङ्क्षासन्निधियोग्यतावशाद्वक्ष्यमाणस्वरूपाणां पदार्थानां समन्वये तात्पर्यार्थों विशेषवपूरपदार्थोऽपि वाक्यार्थः समुल्लसतीत्यभिहितान्वयवादिनां मतम् । (सू० ७) 'तात्पर्यार्थोऽपी'ति तात्पर्याख्यवृत्तिप्रतिपाद्य इत्यर्थः । अत एवाग्रे वक्ष्यति ते चाभिधालक्षणातात्पर्येभ्यो व्यापारान्तरगम्या इति । 'केषु'चिदिति मत इति शेषः तथा च परमतमेतन्न तु ममापीति न न्यूनतेत्यर्थः । न तु स्वमतमेव कथं नेतदत आह टीकार्थः-'पाकाङ्क्ष'ति । तथा चानन्यलभ्यत्वं वृत्त्यन्तराप्रतिपाद्यत्वम्, अस्य तु वृत्तिभिन्नावच्छेदक अर्थ है और विधेयतावच्छेदक भी अर्थ। इस तरह उद्देश्यतावच्छेदक और लक्ष्यतावच्छेदक के अभिन्न होने से सूत्रार्थ ठीक नहीं जमेगा । इसलिए यदि पूर्व सूत्र से “त्रिधा" की अनुवृत्ति करें, तो भी विभाजकतावच्छेदक की अनुपस्थिति (जो प्रथम दोष देते समय दिखायी गयी है) पूर्ववत् रहेगी ही। इसलिए वृत्ति में कहते हैं-वाच्य-लक्ष्य व्यायाः। अब वाच्य, लक्ष्य और व्यङ्गच में से प्रत्येक यहाँ लक्ष्यतावच्छेदक है। उसको लेकर विभाजकतावच्छेदक वाच्यत्व, लक्ष्यत्व और व्यङ्गयत्व की पृथक्-पृथक् उपस्थिति हुई और वाच्य, लक्ष्य और व्यङ्गयरूप विभाज्यों की भी अलग-अलग उपस्थिति हुई इसलिए (विभाग में) कोई अनुपपत्ति नहीं आयी। अथवा हम यों कहना पसन्द करेंगे कि "बाच्यादि पद" के वाच्य पद में शक्ति के कारण और आदि पद में लक्षणा के कारण वाच्यादि पद से वाच्यत्वरूप शक्यतावच्छेदकावच्छिन्न और लक्ष्यत्व तथा व्यङ्गयत्वरूप लक्ष्यतावच्छेदकावच्छिन्न वाच्यादि तीनों की उपस्थिति होती है। अर्थात् वाच्य पद से उसका मुख्य अर्थ शब्दार्थ लिया जाता है, आदि शब्द से उसके दो अर्थ लक्ष्य और व्यङ्गय लिये जाते हैं, इस तरह शक्ति और लक्षणा से वाच्यादि पद वाच्य, लक्ष्य और व्यङ्गय इन तीनों का प्रत्यायक बन जाता है। इसलिए पार्थक्य-साधक धर्मों की उपस्थिति हो जाने से विभाग अनुपपन्न नहीं हुआ। वाक्यार्थरूप अर्थ 'तात्पर्यार्थ'--.. ___ "तात्पर्यार्थोऽपि केषुचित्" इस सूत्र की अवसरसंगति बताते हुए कहते हैं कि-जैसे व्यञ्जनावृत्ति का आश्रय पदार्थ है वैसे ही वाक्यार्थ भी व्यजनावृत्ति का आश्रय है और वह वाक्यार्थ भटट (कुमारिल भटट) के मतानुसार न अभिधेय है और न लक्ष्य; किन्तु तात्पर्यार्थ है, तात्पर्यावृत्ति प्रतिपाद्य है। इस तरह अर्थ के विभागों में तात्पर्यार्थ का परिगणन भी होना चाहिए। तात्पर्यार्थ को अर्थ के भेदों में स्थान न देना (ऐसा न करना) न्यूनता न समझी जाय इसलिए कहते हैं-"तात्पर्यार्थोऽपि केषुचित्" । तात्पर्यार्थ का अर्थ है तात्पर्याख्यवृत्ति प्रतिपाद्य । अर्थात तात्पर्य नामक वृत्ति के द्वारा जो अर्थ प्रतिपादित होता है वह तात्पर्यार्थ है। इसीलिए आगे (विशेषाः स्युस्त लक्षिते, इस सत्र की वृत्ति में स्वयं) कहेंगे कि ('गङ्गायां घोषः' यहाँ तटादि में जो पावनत्वादि विशेषधर्म प्रतीत होते हैं। वे अभिधा, तात्पर्य और लक्षणा के अतिरिक्त किसी अन्य व्यापार से गम्य हैं । यहाँ तात्पर्याख्य व्यापार को अभिधा और लक्षणा के बीच बताने से स्पष्ट प्रतीत होता है कि तात्पर्यार्थ भी एक अर्थ है। केचित्" यहाँ 'मते' का अध्याहार या शेष मानना चाहिए । 'केषुचित्' यहाँ षष्ठी के अर्थ में सप्तमी है। इस तरह केषुचित् का अर्थ होगा "केषाञ्चिन्मते" अर्थात् किन्हीं के मत में तात्पर्यार्थ भी (एक अर्थ) है। तरह तार्यार्थ की स्वीकृति दूसरों का मत है, मेरा नहीं। इसलिए तात्पर्यार्थ को नहीं गिनाने से कोई न्यूनता नहीं आती। इसको दूसरों का मत दिखाने के लिए वत्तिकार लिखते हैं १. षष्ठ्य र्थेऽत्र सप्तमी।
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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