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________________ १३४ काव्यप्रकाशाः सशङ्खचक्रो हरिः प्रशङ्खचको हरिरित्युच्यते । रामलक्ष्मणाविति दाशरथी । राम नगतिस्तयोरिति भार्गवकार्तवीर्ययोः । स्थाणुं भज भवच्छिद इति हरे । सर्व जानाति देव इति युष्मदर्थे । कुपितो मकरध्वज इति कामे । देवस्य पुरारातेरिति शम्भो । मधुना संयोगादीनां नियामकतायां क्रमेणोदाहरणान्याह - सशङ्खचक्र इति, अच्युत इत्यादेविशेषप्रतीतिकृदित्यनेनान्वयः । वक्ष्यधातकभावरूपविरोधमुदाहरति - रामार्जुनेति । सहानवस्थानविरोधोदाहरणं तु छायातपवदेतयोरिति, अत्र छायापदस्य दीप्तावपि शक्तत्वेन विरोधितयैवाऽऽतपाभावपरत्वम् । युष्मदर्थ इति राजादावित्यर्थः, "राजा भट्टारको देवः" इति कोषेण देवपदस्य राजार्थकत्वप्रतिपादनान्नानार्थकता । कुपित इति, वस्तुतः स्थाणुरपश्यदित्यादि लिङ्गोदाहरणं बोध्यम्, मकरध्वजशब्दस्य कामे प्रसिद्धचैव संयोगादि की नियामकता का क्रम से उदाहरण देते हुए लिखते हैं- सशङ्खचक्रो हरिः' इति । हरि शब्द अनेकार्थवाचक है । "यमानिलेन्द्रचन्द्रा के विष्णुसिंहा शुवाजिषु । शुकाहिकविभेकेषु हरिर्ना कपिले त्रिषु" । इसके अनुसार पुंलिङ्ग हरि का अर्थ 'यम, अनिल, इन्द्र, चन्द्रमा, सूर्य, विष्णु, सिंह, रश्मि, घोड़ा, तोता, सर्प, बन्दर और मेढ़क होता है । शंखचक्रसहित हरि यही शंखचक्र के संयोग से हरि का अर्थ अच्युत ही हुआ यम आदि नहीं । वृत्ति में "अच्युते" इत्यादि सप्तमी विभक्तिवाले पदों का “विशेषप्रतीतिकृत्" इसके साथ अन्वय है । asr और वधकभाव को विरोध कहा गया है। उसका उदाहरण देते हुए लिखते हैं "रामार्जुनगतिस्तयोः " यहाँ राम पद से परशुरामरूप विशेष अर्थ की प्रतीति होती है; दशरथ के पुत्र राम और बलराम की नहीं । क्योंकि आगे का पद अर्जुन 'कार्तवीर्यार्जुन' का बोधक है। परशुराम ने कार्तवीर्यार्जुन को मारा था। इसलिए वह 'वध्य' हुआ और परशुराम 'घातक' । दोनों में वहप और घातकभाव सम्बन्ध हैं इसलिए यह उदाहरण विरोध का हुआ। विरोध का एक दूसरा प्रकार है -सहावस्थान । वे तत्त्व जो परस्पर विरोधी हैं परन्तु साथ-साथ रहते हैं । जैसे छाया और आतप । इसलिए जब कहते हैं "छायातपवदेतयोः " तो यहाँ 'छाया' का अर्थ धूप का अभाव हुआ । यद्यपि 'छाया' शब्द का अर्थ 'कान्ति' भी है तथापि विरोधी आतप शब्द के सान्निध्य से छाया शब्द का अर्थ आतप का अभाव लिया गया। . स्थाणु' भज भवच्छिदे "संसार से पार उतरने के लिए स्थाणु का भजन कर। यहाँ स्थाणु शब्द प्रयोजनरूप अर्थ के कारण शिव में नियन्त्रित हो जाता है। शिव ही संसार से मुक्ति दिला सकता है। स्थाणु के अन्य अर्थ ठूंठ वृक्ष में संसार से मुक्ति दिलाने की क्षमता नहीं है । प्रकरण से अर्थ नियन्त्रण का उदाहरण - "सर्वं जानानि देवः” देव सब जानते हैं; यहां प्रकरण से अनेकार्थंक देव शब्द 'आप' अर्थ में नियन्त्रित हो जाता है । वृत्ति में लिखित "युष्मदर्थे" का अर्थ है राजादी । राजादि में नियन्त्रित हो गया है । 'राजा भट्टारको देव:" इस कोष ने देव शब्द को राजा का पर्याय बताया है। इसलिए 'देव' शब्द अनेकार्थंक है । इस तरह 'देवता' अर्थ और 'राजा' अर्थ का वाचक देव शब्द प्रकरण के कारण राजार्थ में नियन्त्रित हो गया है। वस्तुतः लिङ्ग का उदाहरण "स्थाणुरपश्यत्" इत्यादि मानना चाहिए। यहाँ 'दर्शन' रूप लिङ्ग के कारण स्थाणु का अर्थ वृक्ष या ठूंठ या खूंटा नहीं होगा; क्योंकि उनमें दर्शन की क्षमता नहीं है किन्तु शिव लिया
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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