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________________ १०८ काव्यप्रकाश तच्छब्दादर्थ एव न प्रतीयते, येनायत्ते शब्दप्रयोगे लाक्षणिकः शब्दः प्रयुज्यते अतोऽवश्य वाचकशब्दाबोध्यप्रयोजनप्रतिपिपादयिषया लक्षणा[s] श्रीयतामिति । नन्वनुमानादेव प्रयोजनावगमोऽस्त्वित्यत आह - शब्दकगम्य इति । शब्दस्य सम्भृतसामग्रीकत्वादनुमानस्य व्याप्त्यादि-प्रतिसन्धानविलम्बन विलम्बितत्वान्नानुमानादिगम्यं प्रयोजनम् । किञ्च तथा सति गङ्गाद्यर्थ एव लिङ्गं सच्छेत्यादिकमनुमापयतीति स्वीकार्यम् । न च तटे गङ्गात्वं सिद्धं तत्पदप्रयोगविषयत्वे च न व्याप्तिग्राहक प्रमाणमस्ति तत्कथमस्य लिङ्गता कथं वा गङ्गाधर्मस्य शैत्यादेस्तटे बाधावधारणात् साध्यता, कथं वा शैत्यादावेकस्यावच्छेदकस्याभावात् साध्यतावच्छेदकैक्यम्, तावतां विशेषणानामेकदाऽनुपस्थितेर्न समूहालम्बनानुमितिः, व्यञ्जनायां च बाधादेरप्रतिबन्धकत्वाद'त्यन्तासत्यपि ह्यर्थे" इति न्यायात् । व्यङ्ग्यता शब्द का प्रयोग नहीं कर सकता । अथवा जिससे (जिस तात्पर्य से) प्रेरित होकर शब्द प्रयोगकाल में वक्ता लाक्षणिक शब्द का प्रयोग करता है, उस शब्द से उस तात्पर्याथे की प्रतीति ही नहीं हो सकती। इसलिए वाचक शब्द के द्वारा अबोध्य प्रयोजन की प्रतीति की इच्छा से लक्षण का आश्रय लेना चाहिए। अनुमान से ही प्रयोजन की प्रतीति हो जाय (फिर व्यञ्जना की आवश्यकता नहीं रह जाती) इस प्रश्न का समाधान देते हुए लिखते हैं-"शब्दकगम्ये" वह प्रयोजन शब्दकगम्य है। क्योंकि शैत्यपावनत्वादि की प्रतीति शब्द के सुनते ही होती है । शब्द के द्वारा होनेवाली प्रतीति ही इतनी शीघ्रता से हो सकती है। क्योंकि शब्द वह तत्त्व है जिसमें अर्थप्रतीति की सारी सामग्री स्वभाव से ही विद्यमान है। परन्तु अनुमान से होनेवाली प्रतीति विलम्बित होती है क्योंकि उसमें व्याप्त्यादि के प्रतिसन्धान की आवश्यकता होती है उस प्रतिसन्धान में विलम्ब होता है । इसलिए . सिद्ध है कि शब्दश्रवण के बाद इतनी शीघ्रता से भासित होनेवाला शैत्यातिशय, शब्दगम्य ही है अगर वह अनुमानादिगम्य होता तो उसमें विलम्ब होता । अतः स्पष्ट है कि प्रयोजनगम्य नहीं है। दूसरी बात यह है कि यदि शीतत्वादि अर्थ को अनुमानगम्य मानें तो उसके अनुमान में गङ्गादि अर्थ ही लिंग होगा (हेतु होगा) । अनुमान होगा कि तट शीतत्वादि से युक्त है क्योंकि वहाँ गङ्गात्व है (गङ्गात्वात्) किन्तु तट में गङ्गात्व सिद्ध नहीं है । "गङ्गायां मत्स्याः " यहाँ जहाँ कि गङ्गा शब्द का स्पष्ट प्रयोग है; वहाँ शीतत्वादि की प्रतीति नहीं होती है क्योंकि वैसा तात्पर्य नहीं है अतः “यत्र यत्र गङ्गात्वं तत्र तत्र शीतत्वादिकम" इस प्रकार की व्याप्ति ग्राहकप्रमाण के बिना निश्चित करना असम्भव है। इसलिए गङ्गादि अर्थ को शैत्याद्यनुमान का हेतु नहीं माना जा सकता। शैत्यादि धर्म को जो कि गंगा का धर्म है, तट में बाध निश्चित हो जाने पर साध्य भी कैसे माना जा सकता है? जैसे "वह्निः अनुष्णः द्रव्यत्वात्" यह अनुमान नहीं होता; क्योंकि वह्नि में उष्णता होने के कारण वहां अनुष्णत्व साध्य नहीं बनता। तीसरी बात, शैत्य-पावनत्वादि में कोई एक ऐसा सामान्य धर्म नहीं है, जो अवच्छेदक बन सके, परन्तु वहाँ कोई एक धर्म नहीं है इसलिए वहाँ साध्यतावच्छदकक्य कहाँ ? चौथी बात, जितने विशेषण शीतत्व-पावनत्वादि यहाँ अतिशय (विशेष्य) के हैं, उन सभी की एक साथ उपस्थिति नहीं हो सकती। इसलिए समूहालम्बनात्मक (अनुमान में कई वस्तुओं के समूह का भासित होना) अनुमिति भी नहीं हो सकती। व्यञ्जना में तो ये सब दोष नहीं माने जाते हैं । वहाँ बाधादि प्रतिबन्धक नहीं माने गये हैं, यहाँ १. अत्यन्तासत्यपि ह्यर्थे ज्ञानं शब्द: करोति हि । इति सम्पूर्णो न्यायः ।
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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