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________________ काव्यप्रकाशः शुद्धभेदयोस्त्वन्यवैलक्षण्येनाव्यभिचारेण च कार्यकारित्वादि । सम्बन्धपुरस्कारेण प्रयोगस्तत्पूर्वमित्यर्थः । तथा चात्र न तादृशसम्बन्धस्य सत्तामात्रम्, अपि तु तत्पुरस्कारेण प्रयोगोऽपीति नोदाहरणताक्षतिरित्यर्थः । अन्यथा सादृश्यादन्यदिति पूर्वफक्किकया समं एवमादाविति फक्किकायाः पौनरुक्त्यापातादिति मम प्रतिभाति, सम्बन्धस्य लक्षणात्वपक्षे पूर्वफक्किका, प्रतीतेर्लक्षणात्वे एवमादाविति फक्किका तत्राऽरोपाध्यवसानावित्यस्य प्रतीतिविशेषावित्यर्थ इति यशोधरोपाध्यायाः। तादू प्यप्रतीतिरिति साध्यवसाना "आयुर्घतम्" यहाँ भी "प्रमेयत्व" दोनों में समान है इसलिए सादृश्य होने के कारण गौणी लक्षणा माननी पड़ेगी। इसलिए सादृश्य से भिन्न किसी अन्य सम्बन्ध का होना ही लक्षणा का प्रयोजक नहीं है किन्तु सादृश्य से भिन्न किसी अन्य सम्बन्ध को आधार बनाकर प्रयोग करना शुद्धात्व का प्रयोजक है। इस तरह सादृश्य से भिन्न सम्बन्धवान् होने के कारण इन उदाहरणों को शुद्ध सारोपा और शुद्ध साध्यवसाना क्यों माना गया यह कहते हैं- "एवमादौ"। इस प्रकार के उदाहरणों में कार्यकारणभावादिलक्षणपूर्वक आरोप और अध्यवसान होते हैं। यहाँ . 'कार्यकारण-भावादि-लक्षणे' का अर्थ है 'कार्यकारणभावादिलक्ष्यते' अनेन अर्थात् जिससे कार्यकारणभावादि ज्ञात हो। इस विग्रह के अनुसार कार्यकारणभाव लक्षण का अर्थ होता है कार्य कारणभाव-सम्बन्ध । उसको आधार बनाकर जो प्रयोग हो, तत्पूर्वक आरोपाध्यावसान को शुद्धा लक्षणा मानते हैं। इसलिए यहाँ उस प्रकार के सादृश्य से भिन्न (एकबुद्धि विषयत्वादि और प्रमेयवादिना सादृश्य) सम्बन्ध की सत्ता नहीं है यह तात्पर्य विवक्षित नहीं है; अपि तु तत्सम्बन्धपूर्वक प्रयोग नहीं है यह विवक्षित है। इसलिए "आयुर्घतम्" को शुद्धा का और गौर्वाहीक को गौणी का उदाहरण मानने में कोई क्षति नहीं हुई। अन्यथा “सादृश्यादन्यत्" इत्यादि पूर्वग्रन्थ के साथ “एवमादी" इस ग्रन्थ-सन्दर्भ का पुनरुक्त दोष हो जायेगा, मुझे यह प्रतीत होता है। श्रीयशोधर उपाध्याय का मत यह है कि सम्बन्ध को (शक्य सम्बन्ध को) लक्षणा मानकर पूर्व ग्रन्थ फक्किका लिखी गयी है और प्रतीति को लक्षणा मानकर "एवमादो" इत्यादि ग्रन्थ लिखा गया है। वहां आरोपाध्यवसान के विशेषण के रूप में "प्रतीतिविषयौ" यह भी जोड़ना चाहिए। पूर्वोक्त चारों प्रकार के उदाहरणों में से “गोर्वाहीकः" और "गौरयम्" इन गौणी के सारोपा और साध्यवसाना भेदों में आरोप्यमाण 'गो' तथा आरोप विषय 'वाहीक' में भेद होनेपर भी उन दोनों के तादात्म्य की प्रतीति लक्षणा से होती है। उन दोनों में सर्वथा अभेद का बोध करना गौणी लक्षणा का प्रयोजन है। यह आशय "ताद्रप्यप्रतीतिः" और "सर्वथवाभेदावगमश्च प्रयोजनम्" इन पक्तियों में बताया गया है। पूर्वोक्त पक्ति में "ताद्रप्यप्रतीति" को 'व्यङ्गय बताया गया है वह तो गलत प्रतीत होता है; क्योंकि विशेषण-विभक्ति का अभेद अर्थ माना गया है। इसीलिए ताप्य को शक्यार्थ मानना चाहिए न कि व्यङ्गयार्थ । यदि आप कहें कि विशेषण विभक्ति का अर्थ अभेद नहीं है। क्योंकि पाणिनि आदि किसी वैयाकरण ने अभेद में विशेषण विभक्ति का विधान नहीं किया है। इस तरह अभेद में विशेषण विभक्ति की शक्ति वैयाकरणों के
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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