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________________ १३० काव्य-प्रकाशः एवं लक्षणामूलं व्यञ्जकत्वमुक्तम् । सत्यपरपदव्यतिरेकप्रयुक्तत्वादेरेतल्लक्षणे प्रवेशानुपपत्तेरिति विलोकयामः । व्यापारान्तरगम्यत्वसिद्धावपि कथं व्यञ्जनागम्यत्वसिद्धिरत आह- तच्चेति । तथा च प्रतीत्यनुपपत्त्या साधिते वस्तुनि विवादाभावानाम तस्य किमपि क्रियतां तत्र नास्माकमाग्रहः, नहि पुत्रमात्र साधिकायाः पुत्रेष्टेर्नामकरणेऽपि भार इति भावमाकलयामः, लाक्षणिकमात्रस्यैव व्यञ्जकत्वमिति शङ्कां निरस्यति एवमिति, वयं तु - स्वायत्ते शब्दप्रयोऽवाचकप्रयोगानुपपत्तिरूपाऽर्थापत्तिः प्रमाणं व्यञ्जनायामित्युक्तम् । सा च गङ्गायां घोष इत्यादी लाक्षणिक पद एव न तु भद्रात्मन इत्यादी वाचकपदेऽपि तथा च तत्रापि वृत्त्यन्तरमास्थेयम् । एवं च प्रकृतेऽपि तथैवोपपत्तौ किं व्यञ्जनयेत्यत आह - एवमिति, तथा च न स्वायत्त इत्याद्यर्थापत्तिरेव . मान (प्रमाण) से केवल अन्त्रयानुभवजनकता मानी जाएगी, वे पदार्थस्मृतिजनक भी नहीं माने जायेंगे । यदि आकांक्षादि पदार्थ स्मारक भी हो तो आकांक्षा के 'अपरपदव्यतिरेक प्रयुक्तान्वयाननुभावकत्वम्" इस लक्षण में "आपव्यतिरेकयुक्तादेः" अपरपदार्थव्यतिरेक इत्यादि का निवेश अन्वित हो जाएगा। अस्तु, पूर्वोक्त ग्रन्थों से यह तो सिद्ध हुआ कि प्रयोजनवती लक्षणा में प्रतीत होनेवाला प्रयोजन व्यापारान्तर से (लक्षणा से भिन्न व्यापार से) गम्य है किन्तु यह कैसे सिद्ध हुआ कि वह व्यञ्जनागम्य है ? इसके समाधान में लिखते हैं- 'तच्च व्यञ्जनध्वनन' इत्यादि तीरादि लक्ष्यार्थं में पावनत्यादि विशेष (प्रयोजनरूप धर्म) प्रतीत होते हैं, अर्थात् वे अभिधा, (कुमारिल भट्टादि स्वीकृत) तात्पर्या तथा लक्षणा - व्यापार से भिन्न किसी व्यापार से गम्य । उस व्यापारान्तर का नाम व्यञ्जन, ध्वनन द्योतन आदि में से कुछ भी हो; नामविशेष के लिए मेरा दुराग्रह नहीं है वह व्यापारान्तर अवश्य मानना चाहिए। यही बात बताते हुए टीकाकार लिखते हैं । 'शीतत्वपावनस्वादि की प्रतीति बिना वृत्ति के अनुपपन्न है इसलिये उसकी उपपत्ति के लिए वृत्तिरूप वस्तु के बारे में जब विवाद नहीं रहा तब उसका नाम कुछ भी रखा जाय। इसमें मेरा कोई आग्रह नहीं है कि उस वृत्ति का नाम यही रखा जाय । पुत्र मात्र साधक पुत्रेष्टि यज्ञ के नामकरण में किसी प्रकार की उलझन हमें दिखाई नहीं पड़ती। जैसे पुत्रो - सत्तिसाधक यज्ञ का अन्वर्थं नाम 'पुत्रेष्टि' है; शीतत्वपावनत्वादि व्यङ्गय या ध्वनि या द्योत्य अर्थ के साधक व्यापार का नाम व्यञ्जना या ध्वनन या द्योतन करने में किसी प्रकार का दुराग्रह नहीं करना चाहिए। जितने लाक्षणिक शब्द हैं, सभी व्यंजक हैं ? इस शङ्का का खण्डन करते हुए लिखते हैं :- "एवं लक्षणामूलं व्यञ्जकत्वमुक्तम्" इति । हमने तो स्पष्ट कहा है कि 'व्यञ्जना की सत्ता में अर्थापत्ति प्रमाण है । शब्दप्रयोग को स्वायत्त माना गया है । अर्थात् शब्दप्रयोग वक्ता के अधीन है। वक्ता शब्द का प्रयोग इसलिए करता है कि श्रोता को भी उसके श्रोता ने शीतत्व - पावनत्वातिशय अर्थ को भी भाव या तात्पर्य का ज्ञान जाय। "गङ्गायां घोषः” इस प्रयोग से जाना है और उसे उस अर्थ का भी शाब्दबोध हुआ है । शाब्दबोध में वही अर्थ प्रविष्ट होता है जिसकी उपस्थिति किसी न किसी वृत्ति के द्वारा होती है। इस तरह "येन विना यदनिष्पन्नं तत्ते नाक्षिप्यते" अर्थात् जिसके बिना जो नहीं हो सकता उससे उसका आक्षेप होता है; जैसे यदि यह कहें कि 'पीनोऽयं देवदत्तः दिवा न भुङ्क्ते" अर्थात् देवदत्त मोटा है पर दिन में नहीं खाता तो भोजन के बिना मोटेपन की अनुपपत्ति होने से यहां रात्रिभोजन का आक्षेप होता है । इसी तरह शीतत्व-पावनत्व की प्रतीति हो रही है और उसका वाचक वहां कोई शब्द है ही नहीं; इससे सिद्ध है कि वह प्रतीति अभिघादि वृत्ति से अतिरिक्त किसी वृत्ति की कृपा से हो रही है वह वृत्ति व्यञ्जना है। इस तरह
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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