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________________ उरी मुकुलितस्तनं जघनमंसबन्धोखरं, बतेन्दुवदनातनौ तरुणिमोद्गमो मोदते ॥ (पृ० १०२) श्लोकार्य यह है कि चन्द्रमुखी के शरीर में यौवन का प्रवेश अत्यन्त ही सुन्दर है । उसका मुंह स्मित, सुगन्धिसम्पन्न बना हुआ है। कटाक्ष वशीकरणसमर्थ प्रतीत होता है। चलना हाव-भाव से भरा हा प्रतीत होता है। बुद्धि मर्यादा-रहित हो गई है । वक्षःस्थल कठिनस्तनयुक्त है । जाँघे अंसबन्ध अर्थात् रतिबन्ध आसन के योग्य हैं। यहाँ उपाध्यायजी महाराज ने 'विकसित' शब्द से मुंह में सौरभ को व्यंग्य माना है। या 'दयितमधुव्रतो. चितमधुमधुराधरमन्दिरत्वं व्यङ्ग्यम्' इस शब्द से नायिका के मुंह में मधुकररूपी नायक के लिए नायिका का प्रधर मधु के समान मधुर प्रास्वादयोग्य अभिव्यङ्ग्य बताया है। 'वशित' शब्द से 'बाल्या मावेन यादृच्छिक प्रवृत्ति-विरहाद् गुरुजनसन्निधानेऽपि निमृतनिजनायकानुनयनिमित्त-नियुक्तपरिजनत्वं व्यङ्ग्यमिति वयम्" इस शब्द से "बाल्यकाल व्यतीत हो जाने पर यौवन के समागमन-समय में स्वच्छन्द होकर धूम नहीं सकती है। इसलिए माता, पिता प्रादि गुरुजन के समक्ष भी गुप्तप्रेमी के यहाँ अनुनय-विनय करने के लिए दूती मादि परिजन को वश में की हुई है" ऐसा व्यङ्ग्य होता है। 'समुच्छलित' शब्द से "युवक जनों के मन को प्रसन्न करने वाली अथवा प्रियतम के प्राणों का प्राधार लेकर टिकी हुई" ऐसा व्यङ्ग्य माना है। मर्यादावाचक 'संस्था' शब्द से प्रेमोत्कर्ष अथवा 'दयितमुखावलोकनावसरविस्मृतवयस्योपदिष्टमानिनीजनम मौनधारणादि-चेष्टितत्वं व्यङ्ग्यः (पृ० १०२ से १०४ )" इत्यादि कथन से "प्रियतम के मुखदर्शन होते ही स्वसखीप्रभूति से मान के लिए मौनधारण आदि विषयक उपदेश को भूल जानेवाली" इस तरह का व्यङ्ग्य सूचित किया है । 'मुकुलित' शब्द से घनीभूत स्तन होने के कारण रत्यादि काल में मदित होने पर भी काठिन्य को न छोड़नेवाले स्तनों से युक्त, 'अक्षतयौवना'रूपी व्यङ्ग्य अर्थ सूचित किया है। उधुर शब्द से 'यौवनयुवराज-पराजित-कामकारागारत्वं, तहरिणममहीपतिमृगयोपलब्ध-कामुकमृगवागुरात्वं वा० (पृ० १०४) इत्यादि कथन से यौवनरूपी युवराज से पराजित होकर कामरूपी राजा कारागार समझ कर उस नायिका में निवास कर रहे हैं अथवा यौवनरूपी राजा ने शिकार में कामकरूपी मग को फंसाने के लिए नायिकारूपी पाश का अवलम्बन किया है, ऐसा व्यङ्ग्य प्रदर्शित किया है। 'मोवते' शब्द से स्मितादि उद्दीपन-विभावरत्नाकरनायिका है ऐसा व्यङ्ग्य होता है। .. यहां उन-उन शब्दों में स्व-स्व बुद्धिवैभव से सभी टीकाकार-परवर्ती भाचार्यों ने व्यङ्ग्य बताये हैं। किन्तु उपाध्याय जी महाराज की व्यङ्ग्य-कल्पना कुछ और ही अनोखी जात होती है। इसी तरह लक्षणा के प्रसङ्ग में कई युक्तियां इन्होंने अच्छी बताई हैं। व्यञ्जना-विचार व्यञ्जनावाद की स्थापना करते हुए प्राचार्य मम्मट मे लक्षणा से व्यञ्जना का भेद दिखाते हुए 'हेत्वमावान्न लक्षणा' इस शब्द से अर्थात् स्वशक्यसम्बन्धरूपा या शक्यतावच्छेदकप्रकारक पारोपरूपी लक्षणा के लिए १. मुख्यार्थास्वय-बाध, २. मुख्यार्थ के साथ लक्ष्या का प्रसिद्ध सम्बन्ध तथा ३. रूढि, प्रयोजनान्यतर हेतु ये तीनों अनिवार्य हेत बताये हैं। व्यञ्जनावाद में इन तीनों की आवश्यकता नहीं होती है। तथा 'लक्ष्यं न मुख्यं नाप्यत्र बाघो योगः फलेन नो। न प्रयोजनमेतस्मिन न च शब्दः स्खलनगतिः' । सू० २६ ॥ (पृ० १११)
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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