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ने प्रदान किया है।' इसके अतिरिक्त आपको न्यायविशारद, कवि, लघुहरिभद्र, कूर्चालीशारद तथा ताकिक प्रादि विरुदों से भी विद्वानों ने अलंकृत किया था।२।।
उपाध्यायजी ने अनेक स्थानों पर विचरण किया था किन्तु प्रमुख-रूप से वे गुजरात और राजस्थान में रहे होंगे ऐसा उनके ग्रन्थों एवं स्तुतियों से ज्ञात होता है। स्वर्गवास एवं स्मारक
'सुजसबेली' के आधार पर उनका अन्तिम चातुर्मास बड़ौदा शहर के पास डभोई (दर्भावती) गाँव में हुआ और वहीं वे स्वर्गवासी हुए। इस स्वर्गवास का वर्ष सुजसबेलि के कथनानुसार सं० १७४३ था तदनन्तर उनका स्मारक डभोई में उनके अग्निसंस्कार के स्थान पर बनाया गया और वहाँ उनकी चरण-पादुका स्थापित की गई। पादुकाओं पर १७४५ में प्रतिष्ठा करने का उल्लेख है।
निष्कर्षरूप परिचय
उपाध्याय जी के जीवन का निष्कर्षरूप परिचय 'यशोदोहन' नामक ग्रन्थ में मैंने दिया है वही परिचय यहाँ भी उद्धृत करता हूँ जिससे उपाध्याय जी के जीवन की कुछ विशिष्ट झाँकी होगी।
"विक्रम की सत्रहवीं शती में उत्पन्न, जैनधर्म के परम प्रभावक, जैनदर्शन के महान् दार्शनिक, जैनतर्क के महान् तार्किक, षड्दर्शनवेत्ता और गुजरात के महान् ज्योतिर्धर, श्रीमद् यशोविजयजी महाराज एक जैन मुनिवर थे। योग्य समय पर अहमदाबाद के जैन श्रीसंघ द्वारा समर्पित उपाध्याय पद के विरुद के कारण वे 'उपाध्याय जी' बने थे। सामान्यतः व्यक्ति 'विशेष' नाम से ही जाना जाता है किन्तु इनके लिए यह कुछ नवीनता की बात थी कि जनसंघ में आप विशेष्य से नहीं अपितु 'विशेषण' द्वारा मुख्यरूप से जाने जाते थे। "उपाध्यायजी ऐसा कहते हैं, यह तो उपाध्याय जी का वचन है" इस प्रकार उपाध्यायजी शब्द से श्रीमद् यशोविजयजी का ग्रहण होता था। विशेष्य भी विशेषण का पर्यायवाची बन गया था। ऐसी घटना विरल व्यक्तियों के लिए ही होती है। इनके लिए तो यह घटना वस्तुतः गौरवास्पद थी।
इसके अतिरिक्त श्रीउपाध्याय जी के वचनों के सम्बन्ध में भी ऐसी ही एक और विशिष्ट एवं विरल घटना है। इनकी वाणी, वचन अथवा विचार 'टंकशाली' ऐसे विशेषण से प्रसिद्ध हैं। तथा 'उपाध्यायजी की साख (साक्षी)
आगमशास्त्र' अर्थात शास्त्रवचन ही हैं। ऐसी भी प्रसिद्धि है। आधुनिक एक विद्वान् आचार्य ने आपको 'वर्तमान काल के महावीर' के रूप में भी व्यक्त किया था।
१. जैसलमेर से लिखित पत्र में आपने लिखा था कि-"न्यायाचार्य विरुद तो भट्टाचार्यई न्याय ग्रन्थ रचना
करी देखी प्रसन्न हई दिऊं छई।" २. तर्कभाषा (प्रशस्ति पद्य ४) तत्त्वविवेक (प्रारम्भ पद्य २) तथा सुजसबेलि में इनका उल्लेख है। ३. देखिए 'यशोदोहन' पृ. ६-१२ में सम्पादकीय निवेदन । यह ग्रन्थ गुजराती भाषा में 'प्रो० हीरालाल
रसिकदास कापड़िया' द्वारा लिखित है तथा यशोभारती जैन प्रकाशन समिति, बंबई से प्रकाशित हया है।