Book Title: Kavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Author(s): Yashovijay
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti

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Page 307
________________ तृतीय उल्लास: ' १५५ स्याप्यसङ्गतेश्च । अतएव मथ्नाम्येवेतिवद् वाच्यनिषेधशिरस्कप्रतीतेरसत्त्वान्न काक्वाक्षिप्तमित्युत्तरार्थोपवर्णनं मधुमतीकृतामपास्तम्, शङ्काया एवानुत्थानात् । अपरे तु कुरुष न भजतीति नत्र [I] काकुः किमर्थात् ततः स्वरूपाच्च किमर्थ एव हठाक्षिप्त इति तस्यैव गुणीभावो न्याय्यो न तु क्रमेणापि काक्वा व्यङ्गयो गुणीभूतो भवतीत्युत्तरार्थ इत्याहुः, तदपि न, क्रमेण व्यङ्गयस्य गुणीभावानभ्युपगमेऽपि काकुसहकारेण वाच्यस्य व्यञ्जकत्वोदाहरणतानपायात् । सुबुद्धिमिश्रास्तु पर्यवसिते वाक्यार्थेऽर्थान्तरप्रतीती अर्थव्यञ्जकत्वं ध्वनित्वं च, इह तु खिन्ने खेदस्यायोग्यत्वे नानौचित्य रूपव्यङ्गयमादायव 'गुरुः खेदं खिन्ने मयि भजति नाद्यापि कुरुष्वि'ति अनुचितमिति वाक्यार्थपर्यवसानं, यथा 'मध्नामि कौरवशत' मित्यत्र मथनाभावस्य तदभावरूपव्यङ्गयस्य चैकदैव भानं, तथा चात्र वाच्यस्य सिद्धिर्ज्ञानं तदङ्ग तद्विषयः काकः काकव्यङ्गयमनौचित्यमित्यक्षरार्थः । तेन काक्वाक्षिप्तगुणीभूतप्रभेदोऽयमिति नार्थव्यञ्जकतेति शङ्कार्थः, काकुस्वरेण न साक्षादेवानौचित्यरूपं इस खण्डन से मधुमतीकार का यह कथन कि "मध्नामि कौरवशतम्" इस पद्य की तरह "यहां वाच्य के निषेधपूर्वक व्यङ्गय की प्रतीति नहीं होती। इसलिये काक्वाक्षिप्त नहीं है" भी खण्डित हो गया। क्योंकि काक्वाक्षिप्त होने पर भी यहां ग्रन्थकार जिस अर्थव्यञ्जना का उदाहरण देना चाहता है, उसमें कोई कमी नहीं आती। अत: पूर्वोक्त प्रश्न ही नहीं उठता। कुछ विद्वानों ने उत्तरवाक्य का एक नया अभिप्राय बताया है उसे टीकाकार 'अपरे तु' शब्द से प्रारम्भ होने वाले वाक्यों से बताते हैं :-कुछ विद्वानों का कहना है कि "कुरुषु न भजति खेदम्" कौरवों पर नाराज नहीं होते है, यह यहाँ काकु है । उससे यहाँ किमर्थ आता है, अर्थात् कौरवों पर नाराज क्यों नहीं होते ? इस तरह काकु से यहां किमर्थ ही आक्षिप्त है इसलिये प्रश्न को ही यहां गौण बनकर प्रकट होना उचित है । यह उचित नहीं है कि कम से (आगत) काकु के द्वारा प्रकट होने वाला व्यङ्गय भी गुणीभूत बन जाय यही यहाँ 'प्रश्नमात्रेणापि काकोविश्रान्तेः' इस उत्तरवाक्य का तात्पर्य है । परन्तु उनका यह कथन भी ठीक नहीं हैं क्योंकि क्रमागत व्यङ्गय को यहाँ गुणीभाव नहीं भी मानें तो भी काकु के सहकार से प्रतीत वाच्य के व्यञ्जकत्व का उदाहरण होने में कोई कमी नहीं आती है। सुबुद्धि मिश्र ने प्रस्तुत ग्रन्थ को इस तरह समझा और समझाया है- उनके अनुसार वाक्यार्थ-सम्पन्न होने पर जब दूसरे अर्थ की प्रतीति होती है तब अर्थव्यञ्जकत्व या ध्वनित्व माना जाता है। यहाँ 'तथाभूतां दृष्टवा' में खिन्न पर खेद (नाराज होना) के अयोग्य होने के कारण अनुचितत्वरूप व्यङ्गय अर्थ को लेकर ही 'गुरुः खेदं खिन्ने मयि भजति नाद्यापि कुरुषु' इसका 'अनुचित' रूप वाक्यार्थ सम्पन्न होता है । जैसे "मथ्नामि कौरवशतम्" यहाँ पर मथनाभावरूप वाच्य और मथनाभावारूप (मधुंगा ही) व्यङ्गय दोनों का एक साथ ही भान होता है । यह इस तरह यहाँ वाच्य की सिद्धि अर्थात् ज्ञान उसका अङ्ग अर्थात् उसका विषय काकु है, उसके द्वारा व्यङ्गय है अनौचित्य, यह मूल वृत्ति का अक्षरानुसारी अर्थ है। इस तरह यहाँ काक्वाक्षिप्त गुणीभूत व्यङ्गय का ही यह एक भेद है किन्तु अर्थव्यञ्जकता नहीं है, यह शंका का तात्पर्य है और उत्तर-का तात्पर्य यह है कि काकु के स्वर से साक्षात् ही अनौचित्यरूप व्यङ्गय की उपस्थिति यहां नहीं होती है, यदि साक्षात् उपस्थित होती तो वाच्य और व्यङ्गय दोनों एक ज्ञान के विषय बनते; किन्तु यहाँ का कुस्वर प्रश्न के द्वारा अनौचित्य रूप व्यङ्गय का परम्परासम्बन्ध से उप-स्थापक होता है, इस तरह ‘गुरुः किमिति मयि खेदं भजति न कुरुषु' युधिष्ठिर क्यों मुझ पर नाराज होते हैं; कौरवों पर

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