Book Title: Kavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Author(s): Yashovijay
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti

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Page 312
________________ काव्य-प्रकाशः तइया मह गंडत्थलरिणमिग्रं दिठ्ठि ण णेसि अण्णत्तो। एण्हिं सच्चेय अहं ते अ कवोला ण सा दिछी ॥१६॥ (तदा मम गण्डस्थलनिमग्नां दृष्टि नानषीरन्यत्र । इदानीं सैवाहं तौ च कपोलौ न सा दृष्टि: ॥) अत्र मत्सखों कपोलप्रतिबिम्बितां पश्यतस्ते दृष्टिरन्यवाभूत् । चलितायां तु साक्षादुक्तरूपव्यङ्ग्योपस्थापकत्वं काकोः अपि तु वाच्यस्यैव तदुपस्थितव्यङ्ग्यसहकारेण व्यञ्जकत्वं मुक्तं भवतीति व्याचक्ष्पहे । अत्र प्रश्नरूपव्यङ्ग्यस्य व्यञ्जकत्वे व्यङ्ग्यार्थव्यञ्जनोदाहरणमपीदम्, मयीत्यस्य निरपराधे कुरुष्वित्यस्य सापराधेष्विति लक्षणया पदार्थे लक्ष्यस्यापि व्यञ्जकत्वं बोध्यम् । __ तइएति : . "तदा मम गण्डस्थलमिलितां दृष्टि नानैषीरन्यत्र । इदानीं सैवाहं तावेव कपोलो न सा दृष्टिः ॥१६॥ उससे यह निकलता है कि 'काकु यहाँ केवल प्रश्न की उपस्थिति करता है; वह वाक्यार्थ-बोध का.जनक नहीं बनता। 'विश्रान्तेः' यहाँ जो जानबूझ कर 'विश्रान्ति' पद का प्रयोग किया गया है, उसका यह तात्पर्य है कि काकु प्रश्न को प्रकट कर (अभिव्यक्त कर) विरत हो गयी। इसलिए वह साक्षात उक्त आकार-प्रकारवाले व्यङ्गय की उपस्थापिका नहीं बनती। किन्तु वाच्य अर्थ ही काकु से उपस्थित व्यङ्गय के सहकार से व्यञ्जक होता है। इस तरह यह श्लोक अर्थव्यञ्जकता का उदाहरण हो सकता है (मैं उक्त ग्रन्थ की ऐसी व्याख्या करना पसन्द करता हूं)। .. यहाँ प्रश्नरूप व्यङ्गय भी व्यञ्जक है । इसलिए यह उदाहरण व्यङ्गयार्थ व्यञ्जना का भी हो सकता है। "मयि" यह पद निरपराधरूप अर्थ को और 'कुरुष' यह पद सापराधरूप अर्थ को लक्षणा के द्वारा प्रकट करता है। ये दोनों पद अर्थान्तर में संक्रमित हो गये हैं। इसलिए पदार्थ में लक्ष्यार्थ व्यञ्जकता का भी यह उदाहरण हो सकता है। ४. वाक्य-वैशिष्ट्य में व्यञ्जना का उदाहरण :-"तइमा" इति । नायिका नायक से कहती है कि उस समय मेरे कपोल पर गड़ायी हुई (अपनी) दृष्टि को (तुम) कहीं और नहीं ले जा रहे थे (क्योंकि मेरे कपोल पर मेरी सखी प्रतिबिम्बित थी, तुम उसे एक टक देखना चाहते थे) अब मैं वही हूं, मेरे कपोल वे ही हैं ; किन्तु तुम्हारी वह (मेरे कपोल पर गड़ी रहनेवाली) दृष्टि नहीं है। क्योंकि वह मेरी सखी वहाँ से हट गयी है जहां से उसकी छाया इस पर पड़ती थी, इसलिए तुम जिसे देखना चाहते थे वह यहाँ दिखाई नहीं पड़ती; अतः तुम उस कपोल की तरफ नहीं देखते)। यहाँ मेरे कपोल पर प्रतिबिम्बित मेरी सखी को देखते हुए तुम्हारी दृष्टि कुछ और ही प्रकार की थी। उसके चले जाने पर कुछ और ही हो गयी है। इसलिए तुम्हारे प्रच्छन्न कामुकत्व पर आश्चर्य होता है, अरे तुम बड़े छिपे रुस्तम हो, यह अर्थ नायिका के वाक्य से व्यक्त होता है । इसलिए यह वाक्यवैशिष्ट्यव्यञ्जना का उदाहरण है। टीकाकार ने “निमग्नाम" के स्थान पर 'मिलिताम्' पाठ स्वीकार किया है। मिलिताम का अर्थ 'ग्रथिताम्' है इसलिए कपोल में प्रतिबिम्बित सखी की कण्टकता (रोमाञ्चकता) प्रकट होती है। इसलिए उस सखी के वहां से हट जाने से उसमें गुथी हुई तुम्हारी दृष्टि भी हट गयी । इससे प्रतिबिम्बिता नायिका में प्रेमाधिक्य (अधिक प्रेम) व्यक्त होता है। मैं वही हावभाव दिखाती हूं; मेरे कपोल भी उसी तरह पुलकित (रोमाञ्चित) हैं (परन्तु ये रोमाञ्च मेरे हैं. तुम तो सखी के रोमाञ्च को उसमें देखना चाहते हो) किन्तु तुम्हारी .वह निनिमेष दृष्टि नहीं रही। (इस

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