Book Title: Kavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Author(s): Yashovijay
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti

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Page 324
________________ .१७२ काव्य-प्रकाशः अर्थस्य व्यजकत्वे तच्छब्दस्य सहकारिता ॥२३॥ शब्देति । नहि प्रमाणान्तरवेद्योऽर्थो व्यञ्जकः । इति काव्यप्रकाशेऽर्थव्य जकतानिर्णयो नाम तृतीयोल्लासः । शब्दस्याप्राधान्यादर्थव्यञ्जकताव्यपदेशः 'प्राधान्ये व्यपदेशा भवन्ति' इति न्यायादिति भाव इति मधुमतीकृतः । परमानन्दप्रभूतयस्तु नन्वेवमर्थस्य प्रमाणान्तरतापत्तिः तदसाधारणसहकारेण मनसा व्यङ्गचप्रमापनादित्यत आह- शब्देति । तथा च शब्दान्वयव्यतिरेकानुविधानाच्छब्दस्यैव प्रधानता मधुमती टीकाकार का मत मधुमती टीकाकार का यही कहना है कि इन उदाहरणों में शब्द सहकारी है। मुख्य व्यञ्जक नहीं है। पूर्वोक्त उदाहरणों में शब्दों का पर्यायपरिवर्तन हो सकता है । जो पद यहां प्रयुक्त हुए हैं उनके स्थान पर यदि उनके पर्याय दूसरे पद प्रयुक्त हों, तो उन पदान्तरों के द्वारा प्रतिपादित अर्थ भी व्यञ्जक पूर्ववत् बने रहते हैं । इस तरह यहाँ शब्दपरिवृत्तिसह है; शब्दपरिवर्तन को सहन करते हैं, शब्दों में पर्यायपरिवर्तन किया जा सकता है। इसलिए यहाँ शब्द के अप्रधान होने के कारण अर्थ की व्यञ्जकता मानी गयी है; क्योंकि अर्थ यहाँ प्रधान है, वह अपरिवर्तनीय है। व्यपदेश प्राधान्य के आधार पर होता है। इसलिए इस व्यञ्जना का नाम 'आर्थी व्यजना पड़ा और उक्त उदाहरणों को अर्थव्यजकता का उदाहरण माना गया। परमानन्द आदि अन्य आचार्यों का मा परमानन्द प्रति आचार्यों का मत है कि यदि अर्थ को व्यञ्जक माने तो अर्थ को अतिरिक्त प्रमाण मानना पड़ेगा, दार्शनिकों ने शब्द को तो प्रमाण माना है किन्तु अर्थ को शब्द से अलग करके प्रमाणों में नहीं गिनाया है। इसलिए केवल अर्थ को व्यजक नहीं मानना चाहिए । अर्थ को व्यञ्जक मानने का तात्पर्य है कि आप अर्थ के असाधारण सहकार से सहकृत मन से व्यङ्गयबोध मानते हैं, ऐसा ठीक नहीं है, यह बताते हुए ग्रन्थकार ने कारिका अवतरित की है- शब्द प्रमाण-कारिता । इस तरह सिद्ध हुआ कि अर्थ शब्द का अन्वय-व्यतिरेकानुविधायी है अर्थात 'शब्दसत्त्वे अर्थसत्त।' इस अन्वय और 'शब्दाभावेऽर्थबोधाभावः' इस व्यतिरेक से युक्त शब्द है इसलिए वही प्रधान है न कि अर्थप्रधान है । शब्द रहने पर अर्थबोध होता है और शब्दाभाव में नहीं होता ये अन्वय और व्यतिरेक शब्द की प्रधानता सिद्ध करते हैं । "जो व्यञ्जक हो वह प्रमाण हो" इसको आधार बनाकर आपने अर्थ की व्य कता का खण्डन किया है परन्तु इस आधार पर तो कटाक्षादि की व्यञ्जकता भी छीनी जा सकती है क्योंकि यदि उसे व्यजक मानेंगे तो इसे भी प्रमाणान्तर मानना पड़ेगा? इस तर्क से उसकी सर्वसम्मत और 'चेष्टादिकस्य च' शब्द के द्वारा मम्मटस्वीकृत व्यजकता समाप्त हो जायगी ऐसा दोष नहीं देना चाहिए । चेष्टादि अपने आप ज्य क नहीं है चक्षुर-दि प्रमाणान्तर के उपस्थापित चेष्टादि ही व्यंजक होती हैं, सब नहीं । अर्थप्रत्यक्ष के द्वारा हमने कई बार मुह के आगे अजलि जोड़कर कई व्यक्तियों को पानी पीते देखा है तभी हन इस मुद्रा से मुद्रा प्रदशित करनेबाले की पिपासा जानते है, जिन चेष्टाओं का अर्थ प्रत्यक्ष से हमें ज्ञात नहीं है, वह कभी ब्यस्जक नहीं बनती। इस तरह अर्थ भी अप्रधानरूप में व्यस्मक है और चेष्टा भी। वृत्ति में लिखी हुई पक्ति "नहि प्रमाणान्तरवेद्योऽर्थों व्यजकः" की व्याख्या करते हए उन्होंने लिखा है

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