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तृतीय उल्लासः
नार्थस्य । न च कटाक्षादेरपि व्यञ्जकत्वात्तस्य प्रमाणान्तरतापत्तिः, तस्यापि चक्षुरादिप्रमाणान्तरोपस्थापितस्यैव व्यञ्जकत्वादिति भाव इत्याहुः, न हीति, प्रकृत इति शेषः, अन्यथा नेत्रत्रिभागादेरपि व्यञ्जकत्वादसङ्गत्वापत्तिरित्यवधेयम् ।
वयं तु ननु यचत्र शब्दस्य न व्यञ्जकत्वं तदा प्रकृष्टाप्रकृष्टव्यङ्गवच्छन्दार्थयुगलत्वरूपोतममध्यमकाव्य लक्षणानाक्रान्ततयाऽव्यङ्गयरूपाधमकाव्यताऽभ्युपगमेऽर्थस्थापि व्यञ्जकता व्यवस्थापनमनु
कि 'नहि' के बाद 'प्रकृते' पद का शेष मानना चाहिए। इससे उक्त पङ्क्ति का अर्थ होगा कि प्रकृत में (यहाँ) प्रमाणातर (अनुमान आदि अन्य प्रमाणों) से वेद्य अर्थ व्यक नहीं होता है। अन्यथा ( यदि शेष न मानें तो नेत्र-विभाव ( कटाक्ष ) आदि को भी व्यञ्जक होने के कारण पूर्वोक्त पङ्क्ति का अर्थ असंगत हो जायगा ।
प्रस्तुत टीकाकार का मत
हम तो यह समझते हैं कि यदि आप ना के उदाहरणों में शब्द को व्यजक नहीं मानें तो इन उदाहरणों में प्रकृष्ट व्यङ्गय से सम्पन्न शब्द और अर्थ दोनों के न होने से इन्हें उत्तमकाव्य के लक्षण से अनाकान्त होने के कारण उत्तम काव्य नहीं कह सकते हैं, अप्रकृष्ट व्यङ्गययुक्त शब्द और अर्थ दोनों के न होने से इन्हें मध्यमकाव्य के लक्षणों से भी दूर होने के कारण मध्यमकाव्य भी नहीं कह सकते क्योंकि मम्मट ने काव्य के सामान्य लक्षण में "शब्दार्थी" कह कर शब्द और अर्थ दोनों पर तुल्य बल दिया है।' इसलिए उन उदाहरणों में यदि शब्द को व्यञ्जक नहीं मानेंगे तो उत्तम और मध्यम काव्य के लक्षण वहाँ नहीं घटेंगे ऐसी स्थिति में शब्द के अव्यञ्जक होने से वहाँ अन्यङ्गरूप अधमकाव्यता हो माननी होगी ? क्योकि शब्दार्थयुगल को काव्य कहा गया है, शब्द के अध्यक होने से काव्य का एक पक्ष व्यङ्ग्य शून्य हुआ इसलिए उन्हें अव्यय होने के कारण अधम-काव्य ही कहना पड़ेगा । ऐसी स्थिति में अर्थ की व्यञ्जकता का व्यवस्थापन करना अनुचित ही है इसी आशय से लिखा गया है "प्रमाण बेद्यः -- सहकारिता" तात्पर्य यह है कि उक्त उदाहरणों शब्द भी सहकारीरूप में व्यञ्जक है ही । इसलिए शब्दार्थयुगल के व्यञ्जक होने से और प्रकृष्ट व्यङ्गय की प्रतीति होने से इन उदाहरणों की गिनती उत्तमकाव्य की श्रेणी में ही की जायगी। इसलिए इन उदाहरणों में आर्थी अञ्जना मानने में कोई आपत्ति नहीं है। सहकारी रूप में शब्द भी व्यञ्जक है ही ; इसलिए शब्द के अयञ्जक होने से इन्हें अधम काव्य भी नहीं कहा जा सकता। बात यह है कि शाब्दी व्यञ्जना में शब्द मुख्य रूप से व्यञ्जक होता है और अर्थ इसका सहकारी होता है। इस लिए अर्थ भी सहकारी होने से व्यञ्जक होता है ठीक इसी तरह आर्थी व्यञ्जना में अर्थ में मुख्य रूप से व्यञ्जकता रहती है। और शब्द में सहकारी रूप से । इसलिए दोनों भेदों में शब्दों और अर्थ दोनों में व्यञ्जकता सिद्ध होने के कारण काव्य लक्षण के समन्वयन में कोई बाधा नहीं आती है ।
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हमारे विचार में "महि प्रमाणान्तरवेद्योऽथ व्यञ्जकः वृत्ति के इस वाक्य की व्याख्या इस प्रकार हैशब्द प्रमाण से गम्य अर्थ ही काव्य में व्यञ्जक होता है। यहां अनुमानादि अन्य प्रमाणों से गम्य अर्थ कटाक्षादि की तरह नहीं होते हैं। लोकोत्तरवर्णनानिपुण कवि की शब्दमयी रचना काव्य कहलाती है। कवि शब्द के
कु
शब्दे या कुङ शब्दे धातु से बना हुआ है। वर्णन का आधार यहाँ शब्द होता है, वहीं काव्यत्व माना जाता है । इसलिए विविध मुद्रा, कटाक्ष, चित्र आलेख आदि व्यञ्जक होते हुए भी काव्य नहीं कहलाते हैं । "द्वारोपान्त निरन्तरे मवि" इस बलोक में विविध चेष्टाओं का शब्दमय वर्णन है। अतः यहां काव्यत्य है और यहां शब्द ही व्यक है। इस लिए यह ठीक ही है कि काव्य जगत् में कटाक्षादि की तरह शब्द से भिन्न (प्रत्यक्ष अनुमानादि ) प्रमाणों से गम्य अर्थ व्यञ्जक नहीं होता ।