Book Title: Kavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Author(s): Yashovijay
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti

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Page 323
________________ तृतीय उल्लासः अनेन क्रमेण लक्ष्यव्यङ्गययोश्च व्यञ्जकत्वमुदाहार्यम् । [सू० ३८] शब्दप्रमाणवेद्योऽर्थो व्यनक्त्यर्थान्तरं यतः। त्वां मच्छयने पश्येत् तदाऽहं रात्र्यन्धतावशादत्रापतमिति ब्रूयाः इति व्यङ्गयम्। 'मह' इत्यावयोरर्थे निपातः, तेन श्वश्रूशय्यासाधारण्येन स्वशय्यापतनप्रदर्शने परस्य व्यङ्गयबोधो निर्वायत इति बोध्यम् । अत्र वक्तृप्रतिपाद्ययोः प्रसिद्धव्यभिचारयोर्वेशिष्टयावगमात् प्रकृतार्थप्रतीतिरिति वदन्ति । न च पथिकत्वेन प्रतिपाद्ये व्यभिचारप्रसिद्धरभाव इति वाच्यम्, 'पहिअ [र) त्ति अंधये' त्यत्र प्रथितरात्र्यन्धेत्यर्थादित्याभाति । ननूक्तोदाहरणेषु शब्दार्थयोर्द्वयोरपि व्यञ्जकत्वात् कथमर्थमात्रव्यञ्जकत्वमत आह-शब्दप्रमाणेति । शब्दस्य सहकारितेति, पदान्तरप्रतिपाद्यमानस्यापि प्रकृतार्थस्य व्यञ्जकत्वात् परिवृत्तिसहत्वेन यहाँ गाथा के प्रथमाई के द्वारा 'मेरी शय्या के भ्रम से कहीं मेरी सास की शय्या पर नहीं गिर पड़ना' यह व्यङ्गय प्रकट होता है । 'रात्र्यन्धक' 'रतौंधी के मरीज' इससे 'यदि कोई तुझे मेरी शय्या पर देखे तो यह बोलना कि मैं रतौंधी के कारण यहां गिर पड़ा हूँ जान बूझ कर यहाँ नहीं सोया हूँ, यह व्यङ्गय निकलता है। इस तरह अपराध परिमार्जन का उपाय दिखाया गया है । 'मह' यह शब्द 'आवयोः' हम दोनो इस अर्थ में निपातित हुआ है। इस से सास और अपनी दोनों की शय्याओं पर गिर पड़ने की सम्भावना दिखाकर पथिक से अतिरिक्त व्यक्ति को जो उसे वस्तुतः रतौंधी के मरीज मानते हैं, पूर्वोक्त व्यङ्गयबोध नहीं होगा। इसलिए यहां उन वक्ता और बोद्धव्य दोनों के वैशिष्टय का ज्ञान हो रहा है जिनमें व्यभिचार की बात मशहूर हो चुकी है। वक्ता और बोद्धव्य के मिलित वैशिष्टय से शय्या पर आने का आमन्त्रण स्वरूप व्यङ्गय प्रतीत होता है इसलिए यह 'द्विक भेद' का उदाहरण है। अभी-अभी आपने जो बताया कि यहां वक्त्री नायिका और सम्बोध्य पथिक दोनों की व्यभिचार वार्ता प्रसिद्ध हो चुकी है, यह तो ठीक प्रतीत नहीं होता क्योंकि इस गाथा का सम्बोध्य (प्रतिपाद्य) पथिक है, वह तो कोई मुसाफिर है, मुसाफिर तो अजनबी (अपरिचित) ही होता है ऐसी स्थिति में बोद्ध व्य के व्यभिचार को प्रसिद्ध कहना तर्कसंगत नहीं जान पड़ता? ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि “रात्र्यन्धक" रतौंधी के मरीज यह विशेषण भले ही झूठा ही क्यों न हो सुननेवालों को उसके कई बार (वह पथिक रूप में ही क्यों न हो) यहां आवागमन की सूचना देता है। इसलिए यहां के प्रतिपाद्य पथिक को अपरिचित-एकदम अपरिचित नहीं कहा जा सकता। एक अपरिचित पथिक को रायन्धक कोई नहीं कह सकता। जिस पथिक के रात में देखने का प्रमाद ज्ञात हो चुका है। उसे ही ऐसा सम्बोधन दिया जा सकता है। जिस पथिक की रात्र्यन्धता तो प्रथित (प्रसिद्ध) ही है उसकी व्यभिचार कथा भी प्रथित हो तो वह स्वाभाविक ही है। आर्थीव्यंजना में शब्द की सहकारिता का प्रतिपादन और उसकी अवतरण संगतिः उक्त उदाहरणों में शब्द और अर्थ दोनों व्यंजक हैं फिर इन उदाहरणों में अर्थमात्र की व्यंजकता कैसे मानी जाती है इस जिज्ञासा की शान्ति के लिए कारिका लिखते हैं शब्दप्रमाणवेद्योऽर्थो-सहकारिता । इत्यादि । __शब्द प्रमाण से वेदय. अर्थ ही अर्थान्तर को व्यक्त करता है; इसलिए अर्थ के व्यंजकत्व में शब्द सहकारी होता है। इस तरह उक्त उदाहरणों में शब्द मुख्यरूप में व्यंजक नहीं है। प्रधानरूप से व्यंजक अर्थ है इसलिए "प्राधान्येन व्यपदेशाः भवन्ति" नामादि की व्यपदेशता का आधार प्राधान्य है अर्थात् जो प्रधान होता है उसी को आधार बनाकर नाम रखे जाते हैं इसलिए प्रधानरूप में अर्थ के व्यंजक होने के कारण उक्त उदाहरणों में अर्थव्यंजकता दिखाना संगत ही है।

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