________________
१५८
काव्य-प्रकाशः तदर्थत्वाद् एवं चायमर्थो न कस्यचिदर्थस्य व्यङ्गयः अपि तु काकोरेवेति नार्थव्यञ्जकतोदाहरणमेतदित्याशङ्कते-न चेति, वाच्यस्य सिद्धिर्व्यङ्गय-विषयं ज्ञानं तदङ्गतत्कारणं काकुस्तेन गुणीभूतव्यङ्गयत्वं वाच्यज्ञानाजन्यज्ञानविषयत्वमित्यर्थः,। प्रश्नेति । गृहे घटोऽस्ति नास्तीति वा प्रश्ने तथैवोत्तरप्रश्नयोः समानाकारशब्दप्रयोगः प्रश्नवाक्ये काकुस्वरं विनाऽनुपपन्न इति प्रकृतेऽपि 'गुरुः खेद'मित्यादौ प्रश्ने काकुस्वरः, तेन गुरुः खेदं खिन्ने मयि भजति कुरुषु नेति कुत इत्येतावति च वाक्यार्थे परिसमाप्ते पश्चाद् 'भ्रातरं दृष्ट्वेयं लज्जते न श्वशुरमिति कुत' इति प्रश्ने श्वशुरं दृष्ट्वा लज्जायुक्ता न भ्रातरमिति व्यङ्गयभानवन्मयि न योग्य: किन्तु कुरुष्विति पश्चाद् भासते न प्रथममिति भवत्यत्रार्थव्यञ्जकता, न च पूर्वोक्तायोग्यतासत्त्वात् कथं प्रश्नवाक्यादप्यर्थबोध इति वाच्यम्, भुक्त्वा व्रजतीत्यत्र व क्वातः कार्यकारणभावानवभासाद् दर्शने भीमविषयककोपपूर्वकालतामात्रस्याबाधितत्वादिति भावः ।। काकू से ही प्रकाश्य है। इसीलिए इस पद्य को अर्थव्यञ्जकता का उदाहरण नहीं माना जा सकता। यह प्रश्न "नच" इत्यादि वाक्य से उठाया गया है। प्रश्न वाक्य में आये हुए “वाच्यसिद्धयङ्गमत्र काकुरिति गुणीभूतव्यङ्गयत्वम्" का अर्थ है वाच्य की सिद्धि अर्थात् व्यङ्गयविषयक ज्ञान, उसका अङ्ग अर्थात् उसका कारण काकु है इसीलिए यहाँ गुणीभूत व्यङ्गयत्व अर्थात् वाच्यज्ञान से अजन्यज्ञानविषयता,है अर्थात् इस श्लोक में वाच्यज्ञान से जन्य कोई ज्ञान नहीं है, इसीलिए यह अर्थव्यञ्जकता का उदाहरण नहीं हो सकता। (यह प्रश्न वाक्य का अर्थ है)
(उत्तर का तात्पर्य)
कोई यदि पूछे "गृहे घटोऽस्ति ?" घर में घड़ा है ? या 'गृहे घटो नास्ति ?' घर में घड़ा नहीं है ? तो उत्तर: भी यही होगा 'गृहे घटोऽस्ति' या 'गृहे घटो नास्ति' । इस तरह प्रश्न और उत्तर में समानाकारक शब्दों का प्रयोग असामंजस्य में डालेगा? इसलिए प्रश्नवाक्य में काकु शब्द का प्रयोग करना आवश्यक होगा। काकुस्वर (विशेष लहजे) से प्रयोग करने पर "गृहे घटोऽस्ति" यह वाक्य प्रश्नवाक्य बन जायगा। इसलिए जैसे "गृहे घटोऽस्ति" या 'गृहे घटो नास्ति" इन समानाकारक प्रश्नोत्तर वाक्यों के असमाञ्जस्य को मिटाने के लिए "काकुस्वर" का प्रयोग प्रश्नवाक्यों में किया जाता है; उसी प्रकार प्रकृत (निर्दिष्ट) श्लोक में भी "गुरुः खेदम्" इत्यादि प्रश्नवाक्यों में काकुस्वर का प्रयोग होगा। इससे यह प्रश्न बनेगा कि 'खिन्ने मयि गुरुः खेदं भजति कुरुषु नेति कृतः ?' अर्थात दुःखी मुझ पर युधिष्ठिर नाराज होते हैं और कौरवों पर नहीं होते हैं यह क्यों ? इसी प्रश्न मात्र पर वाक्यार्थ समाप्त हो जायगा।
पीछे जैसे 'भाई को देखकर यह लज्जित होती है श्वसुर को देखकर नहीं, यह क्यों ?' इस प्रश्न के उपस्थित होने पर 'श्वसुर को देखकर लज्जा करनी चाहिए, भाई को देखकर नहीं' यह व्यङ्गय का भान होता है उसी तरह मुझ पर नाराज होना उचित नहीं है कौरवों पर क्रोध करना ही उचित है, यह पीछे वाक्यार्थ के परिसमाप्त होने पर भासित होता है, वाक्यार्थ परिसमाप्ति के पूर्व भासित नहीं होता है । इसलिए यहाँ अर्थव्यंजकता है।
वाह ! जिस अयोग्यता की चर्चा अभी-अभी आपने की थी उसके रहते प्रश्नवाक्य से भी किस तरह अर्थबोध हो सकता है ? यहाँ अयोग्यता नहीं है ; क्योंकि बाधाभाव को ही योग्यता कहते हैं; वह बाधाभाव यहाँ है इसलिए योग्यता है जैसे भूक्त्वा व्रजति' 'भोजन करके जाता है' यहाँ 'क्त्वा' प्रत्यय के द्वारा भोजन और गमन-क्रिया के बीच केवल पूर्वापरभाव मात्र की प्रतीति होती है। पहले भोजनक्रिया हुई है और बाद में गमनक्रिया, यही हम क्त्वा प्रत्यय से जानते हैं । क्त्वा प्रत्यय भोजन और गमन के बीच कार्यकारण नहीं प्रकट करता है, अर्थात् क्त्वा प्रत्यय यह प्रकट नहीं करता कि भोजनक्रिया से गमनक्रिया उत्पन्न हुई। इसलिए वहाँ अयोग्यता नहीं है उसी तरह "तथाभूतां दृष्ट्वा" यहाँ क्त्वा प्रत्यय केवल तादृश पाञ्चाली के दर्शन में भीम के प्रति क्रोध की पूर्वकालिकता प्रकट करता है; वह इतना ही बताता है कि दर्शन के बाद क्रोध उत्पन्न हुआ; वह उस दर्शन को कोप का कारण नहीं बताता वह