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तृतीय उल्लासः
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प्रश्नमात्रेणेति । यत्र काकुं विना वाक्यार्थबोध एव न निष्पद्यते तत्र वाऽऽक्षिप्तस्य गुणीभावो मथ्ना. मीत्यादावुक्तो, न चात्र तथा गुरुः खेदमित्यादेः प्रश्नपरत्वेऽप्युपपत्तेरित्यर्थ इति वदन्ति । तदपि चिन्त्यम् । अपराङ्गत्वेऽप्यर्थव्यञ्जकतानपायाच्च द्वितीयाशङ्काया अनुत्थापनादिति । वयं तु — 'दयितं दृष्ट्वा लज्जा ते ललने' [इत्यत्र] दयितदर्शनस्य लज्जाकारणत्वावगमवत् तथाभूतां दृष्ट्वा मयि कोपं भजति इत्यत्र तथाभूतत्वदर्शनं भीमविषयक कोपकारणं नेति वाक्यार्थबोधोऽयोग्यताप राहतः तथाभूतत्वका रकेष्वेव कोपीचित्याद् भीमस्य तदकारकत्वात् तथा चकाक्वा तथाभूतत्वदर्शनं कुरुविषयककोपकारणं न भीमविषयककोपकारणमिति वाक्यार्थः पर्यवसन्नः, न च मयि न योग्य इत्यादिव्यङ्गयप्रदर्शन विरोधः मयि न योग्यो कोपन तथाभूतत्वादिदर्शन जन्यत्वयोग्यः कुरुषु योग्यः तथाभूतत्वादिदर्शनजन्यत्वयोग्य इत्यस्य
व्यङ्गय में पराङ्गता नहीं है तथापि यदि इसे काक्वाक्षिप्तरूप गुणीभूतव्यङ्गय का व्यङ्गय मानें तो क्या दोष होगा यह बताते हुए लिखते हैं "प्रश्नमात्रेण" इत्यादि ।
जहाँ काकु के बिना वाक्यार्थबोध की निष्पत्ति ही नहीं होती है, वहीं प्राक्षिप्त को गुणीभूत व्यङ्गय माना जाता है जैसे कि "मथ्नामि कौरवशतम्" इत्यादि वाक्य में माना जाता है । यहाँ तो ऐसी बात नहीं है क्योंकि "गुरुः खेदं खिन्ने" इत्यादि को प्रश्नपरक मानने पर भी वाक्यार्थबोध की उपपत्ति होती है ।
प्रदीपकार का यह मत भी असंगत ही है क्योंकि यहाँ अर्थव्यञ्जकता का उदाहरण देना अभीष्ट है । यदि यहाँ व्यङ्गेय अपराङ्ग हो तो भी अर्थव्यञ्जकता में कोई कमी नहीं आती और इसे अर्थव्यञ्जकता के उदाहरण होने में कोई बाधा नहीं पहुँचती । ऐसी स्थिति में प्रथम शङ्का उठती ही नहीं है और काकु व्यञ्जकतामात्र से भी अर्थव्यञ्जकता में कोई कमी नहीं आने के कारण द्वितीय शङ्का का भी उत्थान नहीं होता ।
स्वयं का मत "वयन्तु "
....... व्याचक्ष्महे" के द्वारा प्रकट करते हुए टीकाकार लिखते हैं
जैसे दयित को देखकर दयिता में लज्जा " लज्जा ते ललने" बतायी गई है इससे प्रतीत होता है कि दयित का दर्शन लज्जा का कारण होता है, वैसे "तथाभूतां दृष्ट्वा" इस पद्य में द्रौपदी को उस अवस्था में देखकर युधिष्ठिर मुझपर ( भीमपर) क्रोध करते हैं इस अर्थ में द्रौपदी को उस अवस्था में देखना भीम के प्रति ( युधिष्ठिर के) कोप का कारण नहीं हो सकता, क्योंकि द्रौपदी को उस अवस्था में पहुंचानेवाले कौरव थे, भीम नहीं, इसलिए उस अवाच्य स्थिति में पहुंचाने के कारण कौरवों पर ही क्रोध करना उचित था बेचारे भीम को तो कोप का भाजन नहीं बनना चाहिए, क्योंकि पांचाली को इस निन्दनीय स्थिति में पहुँचाने में उसका कुछ भी हाथ नहीं था। इस तरह "तथाभूतां दृष्ट्वा - - गुरुः खेदं खिन्ने मयि भजति नाद्यापि कुरुषु" इस श्लोक का वाक्यार्थबोध 'वह्निना सिञ्चति' की तरह योग्यता ( बाधाभाव ) के अभाव के कारण नहीं हो सकता । इसलिये 'काकु' की सहायता से तथाभूतत्व दर्शन को (द्रौपदी की उस अर्थव्यवस्था - दर्शन को) कौरव के प्रति कोप का कारण मानेंगे भीम के प्रति कोप का कारण नहीं । इसीलिए अन्ततोगत्वा 'कौरव के प्रति क्रोध करना चाहिए मुझपर ( भीम पर ) नहीं' यह वाक्यार्थं सम्पन्न होगा ।
मेरा यह कथन जहाँ कि 'मयि न योग्यः खेदः" इत्यादि को वाक्यार्थ बताया गया है काव्यप्रकाश के उस वृत्ति ग्रन्थ के विरुद्ध लगता है जहाँ कि 'मयि न योग्यः खेदः' इत्यादि को व्यङ्गय बताया है। इस तरह विरोध के कारण मेरे मत को असंगत नहीं मानना चाहिए क्योंकि 'मयि न योग्यः खेद:' इसका तात्पर्य यह है कि मेरे प्रति जो कोप है
वह द्रौपदी की उस अवस्था में जो स्थिति थी, उसके दर्शन से उत्पन्न होने योग्य नहीं है। द्रोपदी की उस अवस्था के दर्शन से उत्पन्न होने योग्य है । इस तरह यह अर्थ किसी अर्थ का
कौरवों के प्रति कोप ही व्यङ्गय नहीं है किन्तु